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मुरारसे आगरा राजाखेड़ा से ६ मील चलकर एक नदी आई उसे पार कर निर्जन स्थानमें स्थित एक धर्मशालामे ठहर गये । स्थान बहुत रम्य तथा सुविधाजनक था। एक दहलान मे सर्व समुदाय ठहर गया । पौष मास था, इससे सर्दी का प्रकोप था। रात्रिमे निद्रा देवी न जाने कहाँ पलायमान हो गई ? प्रयत्न करने पर भी उसका दर्शन नहीं हुआ। अन्तरङ्गकी मूच्छोसे उसके अभावमें जो लाभ संयमी महानुभाव लेते हैं उसका रञ्च भी हमारे पल्ले न पड़ा। प्रत्युत इसके विपरीत आतपरिणामोंका ही उदय रहा। कभी कभी अच्छे विचार भी आते थे परन्तु अधिक देर तक नहीं रहते थे। कभी कभी दिगम्बर मुद्राकी स्मृति आती थी और उससे यह शीतवाधा कुछ समयके लिये श्मशान वैराग्यका काम करती थी। यह देखते थे कि कब प्रातःकाल हो और इस संकटावस्थासे अपने को सुरक्षित करें। इत्यादि कल्पनाओंके अनन्तर प्रातःकाल आ ही गया। सामायिक कार्य समाप्त कर वहाँसे चल दिये । सूर्य की सुनहली धूप सर्वत्र फैल गई और उसकी हलकी ऊष्मा से कुछ संतोषका अनुभव हुआ। एक ग्राममें पहुंच गये । यहाँ पर श्रावकों के घर भी थे। वहीं पर भोजन किया। सवने वहुत आग्रह किया कि एक दिन यहाँ ही निवास करिये। हम लोग भी तो मनुष्य है हम को भी हमारी बात बताना चाहिये । केवल ऊपरी बातों से सन्तोष करा कर आप लोगोंका यहाँसे गमन करना न्यायमार्गकी अव. हेलना करना है। हम ग्रामीण है, सरल हैं, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हम कुछ न समझते हों। हममें भी धर्मधारणकी योग्यता है। हाँ, हमने शिक्षा नहीं पाई। शिक्षासे तात्पर्य यह है कि स्कूलकालेज तथा विद्यालयों मे पुस्तक द्वारा ज्ञान प्राप्त नहीं किया किन्तु वह ज्ञान, जिसके द्वारा यह आत्मा अपना पराया भेद जान कर पापोंसे बचती है तो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंमे प्राकृत रूप