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मेरी जीवन गाथा होता है। इन सभीमें दर्शनविशुद्धि प्रमुख है । यदि यह नही है
और वाकी सव हैं तब भी तीर्थंकर प्रकृतिका आस्रव नहीं हो सकता और यह है तथा वाकीकी नहीं हैं तब भी उसका आलव हो सकता है । दर्शनविशुद्धिका अर्थ है अपायविचय धर्मध्यानमें बैठकर करुणापूर्ण हृदयसे यह विचार करना कि ये संसारके प्राणी मोहके वशीभूत हो मार्गसे भ्रष्ट हो कितना दुःख उठा रहे हैं। इनका दुःख किस प्रकार दूर कर सकू। इस लोककल्याणकी भावनाके समय जो शुभ राग होता है उसीसे तीर्थकर प्रकृतिका आस्रव होता है । सम्यग्दर्शनकी विशुद्धता तो मोक्षका कारण है । उसके द्वारा कर्मबन्ध किस प्रकार हो सकता है ?
'तपसा निर्जरा च' आचार्य उमास्वामीने लिखा है कि तपके द्वारा संवर तथा निर्जरा दोनों ही होते हैं। मोक्ष उपादेय तत्त्व है
और संवर तथा निर्जरा उसके साधक तत्त्व हैं। इनके विना मोक्ष होना संभव नहीं। तप चारित्रका ही विशेष रूप है। चारित्रमोहका अभाव होने पर मनुष्यकी विरतिरूप अवस्था होती है और उस विरक्ति अवस्थामें जो कार्य होता है वह तप कहलाता है। विरक्तिरूप अवस्थामे इच्छाओंका निरोध सुतरा हो जाता है इसलिये 'इच्छानिरोधस्तपः इच्छाको रोकना तप है यह तपका लनण प्रसिद्ध हो गया है। रागके उदयमे यह जीव बाह्य वैभवको पकड़े रहता है पर जव अन्तरङ्गसे राग छूट जाता है तब उस वैभवको छोडते इसे देर नहीं लगती। बड़े बड़े पुरुप संसारसे विरक्त न हो सकें