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कटनी
४२५ क्रोध करता है, कभी राग करता है और कभी मोह करता है । यहाँ पर आत्मा अपनी उदासीन अवस्थाका त्याग कर देती है अतएव इन क्रोधादिक भावोंका कर्ता बन जाती है और ये क्रोधादिक इसके कर्म होते हैं। इस प्रकारसे यह अनादिजन्य कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति धारावाही रूपसे चली आ रही है। अतएव अन्योन्याश्रय दोषका यहाँ अवकाश नहीं। ___ यहाँ पर क्रोधादिकके साथ जो संयोग सम्बन्ध कहा है इसका क्या तात्पर्य यह है-क्रोध तो आत्माका विकृत भाव है और ऐसा नियम है कि द्रव्य जिस कालमे जिस रूप परिणमता है उस कालमें तन्मय हो जाता है । जैसे लोहका पिण्ड जिस समय अग्निसे तपाया जाता है उस समय अग्निमय हो जाता है । एवं आत्मा जिस समय क्रोधिादिरूप परिणमता है उस कालमे तन्मय हो जाता है फिर क्रोधादिकोंके साथ संयोग सम्बन्ध कहना संगत कैसे हुआ ? यह
आपका प्रश्न ठीक है किन्तु यहाँ जो वर्णन है वह औपाधिक भावोंको निमित्तजन्य होनेसे निमित्तकी मुख्यताकर निमित्तके कह दिये हैं ऐसा समझना चाहिये । क्रोधादिक भाव चारित्रमोहके उदयसे उत्पन्न होते हैं, चारित्रमोह पुद्गल द्रव्य है । उसका आत्माके साथ संयोग सम्बन्ध है अतः उसके उदयमें होनेवाले क्रोधादिका भी संयोग सम्बन्ध कह दिया। मेरी तो यह श्रद्धा है कि रागादिक तो दूर रहो मतिज्ञानादिक भी क्षयोपशमजन्य होनेसे निवृत्त हो जाते हैं।
अपनी परिणति अपने आधीन है, उसे पराधीन मानना ही अनर्थकी जड़ है और अनर्थ ही संसारका मूल स्वरूप है। अनर्थ कोई पदार्थ नहीं । अर्थको अन्यथा मानना ही अनर्थ है।
कटनीमे वनारससे पण्डित कैलाशचन्द्रजी भी आ गये। यहाँकी संस्थाओंका उत्सव हुआ । पं० जगन्मोहनलालजीने