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मेरी जीवन गाथा
और स्वाध्यायका प्रचार नहीं । जिसके घर भोजन किये वह भला आदमी है । ३ बजेसे आमसभा हुई, परन्तु फलांश जो सर्वत्र होता है यहाँ भी वही हुआ । वाह वाहमे संसार लुट रहा है । आप स्वयं निज स्वरूपसे च्युत हैं और संसारको उस स्वरूपमे लगाना चाहता है.. यह सर्वथा उचित नहीं । जो मनुष्य जगत् के कल्याणकी चेष्टा करते हैं उनका स्वयं अपनी ओर लक्ष्य नहीं । ऐसे लोगों का प्रयत्न अन्धेके हाथमे लालटेन के सदृश है । संसारकी विडम्बनाका चित्रण करना संसारीका काम है । जिसको नाना विकल्प उत्पन्न होते हैं वह पदार्थको नाना रूपमें देखता है । वास्तवमें पदाथ तो भिन्न है, अखण्डित है, यह उसे क्षयोपशम ज्ञानसे नाना रूप मे देखा है।
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आज यहाँ प्रातःकाल होनेके पूर्व एक घटना हुई जो कल्पनामे न आनेके योग्य है । स्वप्नमें बाबा भागीरथजीका दर्शन हुआ । दर्शन होना असंभव नहीं, परन्तु जैसा उनका रूप न था वैसा देखा। उन्हे दिगन्वर मुद्रामे देख मैंने कहा - महाराज | आप दिगम्बर हो गये ? आप तो यहाँ पञ्चम गुणस्थानवाले श्रावक थे ? यहाँसे स्वर्ग गये, देव पर्याय पाई। फिर यह मुद्रा कहाँ पाई ? उन्होंने कहा- भाई । गणेशप्रसाद ! तुम बड़े भोले हो । मैं तुम्हारे समझानेके लिये आया हूँ । यद्यपि मैं अभी सागरों पर्यन्त आयु भोग कर मनुष्य होऊँगा तब दिगम्बर पढ़का पात्र बनूँगा, परन्तु तुमको कहता हॅू कि तुमने जो पद अंगीकार किया है उसकी रक्षा करना । व्रत धारण करना सरल है, परन्तु उसकी रक्षा करना कठिन है । बाह्यमे १ चद्दर और २ लंगोटी रखना ! १ बार पानी पीना कठिन नहीं तथा आजन्म निर्वाह करना कोई कठिन नहीं। किन्तु आभ्यन्तर निर्मलता होना अति कठिन है ।
आज जेठ वदी = सं० २००६ का दिन था । उपवास करना चाहिये, परन्तु शाक्तिकी न्यूनतासे १ बार तो प्रति दिन भोजन होता