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समय यापन
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आपका कहना था कि मनुष्यका कल्याण निज ज्ञानमे होता है, पुस्तक ज्ञानसे नहीं। खाली पुस्तकीय ज्ञान तो बैलपर लदी शक्कर के समान है। अर्थात् जिस प्रकार पीठपर लदी हुई शक्करका स्वाद बलको नहीं मिलता उसी प्रकार केवल पुस्तकीय ज्ञानका स्वाद निज जानसे शून्य मनुप्योको नहीं मिलता। आत्मज्ञानके साथ पुस्तकीय ज्ञान अधिक न हो तो भी काम चल जाता है परन्तु आत्मज्ञानके बिना अनेक शास्त्रोंका ज्ञान भी वेकार है। प्रत्येक मानवको यदि शरीरादि पर पदार्थोंसे भिन्न आत्माका ज्ञान हुया है तो उसे उसका सदुपयोग करना चाहिये । ज्ञानका सदुपयोग यही है कि उसमें मोह तथा राग-द्वेपका सम्मिश्रण न होने दे। ज्ञाता-दृष्टा आत्माका स्वभाव है। जब तक यह जीव ज्ञाता हष्टा रहता है तब तक स्वस्थ कहलाता है और जव ज्ञाता-दृष्टा के साथ साथ रागी द्वोपी तथा मोही भी हो जाता है तब अस्वस्थ कहलाने लगता है । संसारमें अस्वस्थ रहना किसीको पसन्द नहीं अतः ऐसा प्रयत्न करो कि सतत स्वस्थ अवस्था ही बनी रहे । कल्याणका मार्ग उपेक्षामे है। उपेक्षाका अर्थ राग-द्वषका अप्रणिधान है। अर्थात् उस ओर उपयोग नहीं जाने देना । रागादि कारणोंके द्वारा कल्याण मार्गकी अकाक्षा करना सर्पको दुग्ध पिलानेके समान है । संसारका आदि कारण आत्मा ही तो है। वही उसके अन्तका कारण भी है। छोटे छोटे बच्चे मिट्टीके घरोंदे बनाकर खेलते हैं और खेलते खेलते अपने ही पदाघातसे उन घरोंदोंको नष्ट कर देते हैं। इसी तरह मोही जीव मोहवश नाना प्रकारके घरोंदे बनाता है, पर पदार्थको अपना मान अनेक मंसूवे बनाता है परन्तु मोह निकल जानेपर उन सबको नष्ट कर देता है।
श्री १०८ मुनि आनन्दसागरजी भी बिहार करते हुए सागर