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पर्व प्रवचनावली
तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासामिण्टेन्द्रियार्थविभवं. परिवृद्धिरेव ॥
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अर्थात् तृष्णारूपी ज्वालाए इस जीवको निरन्तर जला रहीं हैं । यह जीव इन्द्रियोके इष्ट विषय एकत्रित कर उनसे इन तृष्णा-रूपी ज्वालाओंको शान्त करनेका प्रयत्न करता है पर उनसे इसकी शान्ति नहीं होती, प्रत्युत वृद्धि ही होती है । जिस प्रकार घृतक आहुति से अग्निकी ज्वाला शान्त होनेके बदले प्रज्वलित ही होती है उसी प्रकार विषय सामग्रीसे तृष्णारूप ज्याला शान्त होनेके बदले प्रज्वलित ही अधिक होती है ।
चतुर्थ अध्यायमे देवलोकका वर्णन आपने सुना । देवपर्यायके दीर्घ काल तक स्थिर रहनेवाले सुखोंसे भी इस जीवको तृप्ति नहीं हुई फिर मनुष्य लोकके अल्पकालीन सुखोंसे इसे तृप्ति हो जायगी यह संभव नहीं । सागरों पर्यन्त स्वर्गके मुख यह जीव भोगता है। पर अन्तमे जब माला मुरझा जाती है तो दुखी होता है कि हाय अव यह सामग्री अन्यत्र कहां मिलेगी ? इमी आर्तध्यानसे मर कर कितने ही देव एकेन्द्रिय तक हो जाते हैं। नरकसे निकल कर . एकेन्द्रिय पर्याय नहीं मिलती पर देवसे निकल कर यह जीव एकेन्द्रिय तक हो जाता है । परिणामोकी विचित्रता है । देवोंके वर्णनमें आपने सुना है कि उनमे 'स्थिति प्रभाव-सुख- द्युति-लेश्या-विशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः' और 'गति-शरीर-परिग्रहाभिमानतो हीना ' अर्थात् स्थिति, प्रभाव, सुख, कान्ति, लेश्याकी विशुद्धता, इन्द्रिय और अवधिज्ञानके विषयकी अपेक्षा अधिक है तथा गति, शरीर परिग्रह और अभिमानकी अपेक्षा हीनता है । ऊपर ऊपरके देवोंमे सुखकी मात्रा तो अधिक है परन्तु परिग्रहकी अल्पता है। इससे सिद्ध होता है कि परिवह सुखका कारण नहीं है