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________________ पर्व प्रवचनावली तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासामिण्टेन्द्रियार्थविभवं. परिवृद्धिरेव ॥ ३६५. अर्थात् तृष्णारूपी ज्वालाए इस जीवको निरन्तर जला रहीं हैं । यह जीव इन्द्रियोके इष्ट विषय एकत्रित कर उनसे इन तृष्णा-रूपी ज्वालाओंको शान्त करनेका प्रयत्न करता है पर उनसे इसकी शान्ति नहीं होती, प्रत्युत वृद्धि ही होती है । जिस प्रकार घृतक आहुति से अग्निकी ज्वाला शान्त होनेके बदले प्रज्वलित ही होती है उसी प्रकार विषय सामग्रीसे तृष्णारूप ज्याला शान्त होनेके बदले प्रज्वलित ही अधिक होती है । चतुर्थ अध्यायमे देवलोकका वर्णन आपने सुना । देवपर्यायके दीर्घ काल तक स्थिर रहनेवाले सुखोंसे भी इस जीवको तृप्ति नहीं हुई फिर मनुष्य लोकके अल्पकालीन सुखोंसे इसे तृप्ति हो जायगी यह संभव नहीं । सागरों पर्यन्त स्वर्गके मुख यह जीव भोगता है। पर अन्तमे जब माला मुरझा जाती है तो दुखी होता है कि हाय अव यह सामग्री अन्यत्र कहां मिलेगी ? इमी आर्तध्यानसे मर कर कितने ही देव एकेन्द्रिय तक हो जाते हैं। नरकसे निकल कर . एकेन्द्रिय पर्याय नहीं मिलती पर देवसे निकल कर यह जीव एकेन्द्रिय तक हो जाता है । परिणामोकी विचित्रता है । देवोंके वर्णनमें आपने सुना है कि उनमे 'स्थिति प्रभाव-सुख- द्युति-लेश्या-विशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः' और 'गति-शरीर-परिग्रहाभिमानतो हीना ' अर्थात् स्थिति, प्रभाव, सुख, कान्ति, लेश्याकी विशुद्धता, इन्द्रिय और अवधिज्ञानके विषयकी अपेक्षा अधिक है तथा गति, शरीर परिग्रह और अभिमानकी अपेक्षा हीनता है । ऊपर ऊपरके देवोंमे सुखकी मात्रा तो अधिक है परन्तु परिग्रहकी अल्पता है। इससे सिद्ध होता है कि परिवह सुखका कारण नहीं है
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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