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मुरारसे आगरा
१५ तो वेदन करेगा। यह ज्ञानमे नहीं आता कि जब ज्ञान स्वसंवेद्य ही होता है तब वह परको वेदन करता है यह असंभव है। फिर जो यह स्थान स्थान पर लिखा है कि संसारी जीवने आज तक अपनेको जाना ही नहीं यह समझमे नहीं आता। इसका उत्तर अमृतचन्द्र स्वामी ने स्वयं लिखा है कि ज्ञान तादाम्य होने पर आत्मा आत्माकी उपासना करता ही है फिर क्यो उपदेश देते हो कि आत्माकी उपासना करना चाहिये ? उत्तर-ज्ञान का
आत्माके साथ तादात्म्य होने पर भी क्षणमात्र भी आत्मा की उपासना नहीं करता । तो इसके पहले क्या आत्मा अज्ञानी है ? हाँ अज्ञानी है इसमे क्या सन्देह है ? अतः इन पर पदार्थोंसे सम्बन्ध त्यागना ही श्रेयोमार्ग है। व्याख्यान समाप्त होने पर सब लोग अपने अपने स्थान पर चले गये । यहाँ पर दो आदमी रोगग्रस्त हो गये । उनकी शुश्रूषा यहाँ वालोंने अच्छी तरहसे की। वैद्य डाक्टर आदिकी पूर्ण व्यवस्था रही । आगरा बहुत भारी नगर है। यहाँ पर बहुत मन्दिर हैं। हम लोग सब मन्दिरोंमे नहीं जा सके। यहाँ निम्नाङ्कित सद्विचार हृदय मे उत्पन्न हुए।
'संसार की असारताका निरूपण करना कुछ लाभदायक नहीं प्रत्युत आत्मपुरुषार्थ करना परमावश्यक है। आत्माका पुरुपार्थ यही है कि प्रथम पापोसे निवृत्ति करे अनन्तर निजतत्त्वकी शुद्धि का प्रयास करे। ___ 'परिणामो की निर्मलताका कारण पर पदार्थोंसे सम्बन्ध त्याग है। सम्बन्धका मल कारण आत्मीय बुद्धि ही है।
'चित्त वृत्ति शमन करने के लिये आत्मश्लाघा त्यागनेकी महती आवश्यकता है। स्वात्मप्रशंसा के लिये ही मनुष्य प्रायः ज्ञानार्जन करते हैं, धनार्जन करते हैं, अन्यकी निन्दा करते हैं, स्वात्मप्रशंसा करते हैं पर मिलता जुलता कुछ नहीं।'