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फिरोजाबाद में विविध समारोह
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महाराजकी उक्त देशनाका हमारे हृदयपर बहुत प्रभाव पड़ा। इसी व्रती सम्मेलनमें एक विषय यह आया कि क्या क्षुल्लक वाहनपर बैठ सकता है ? महाराजने कहा कि जब क्षुल्लक पैसेका त्याग कर चुका है तथा ईर्यासमिति से चलनेका अभ्यास कर रहा है तब वह वाहन पर कैसे बैठ सकता है ? पैसेके लिये उसे किसीसे याचना करना पड़ेगी तथा पैसोंकी प्रतिनिधि जो टिकिट आदि है वह अपने साथ रखना पड़ेगी । आखिर विचार करो मनुष्य क्षुल्लक
क्यों ? इसीलिये तो कि इच्छाएं कम हों ? यातायात कम हो, सीमित स्थानमें विहार हो । फिर क्षुल्लक बननेपर भी इन सब बातोंमें कमी नहीं आई तो चुल्लक पद किस लिये रखा १ अमुक जगह जाकर धर्मोपदेश देंगे, अमुक जगह जाकर अमुक कार्य करेंगे ? यह सब छल क्षुल्लक होकर भी क्यो नहीं छूट रहा है ? तुम्हे यह कषाय क्यों सता रही है कि अमुक जगह उपदेश देंगे ? अरे, जिन्हे तुम्हारा उपदेश सुनना अपेक्षित होगा वे स्वयं तुम्हारे पास चले आयेंगे। तुम दूसरे के हितको व्याज बनाकर स्वयं क्यों दौड़े जा रहे हो ? यथार्थमे जो कौतुक भाव चुल्लक होने के पहले था वह अब भी गया नहीं । यदि नहीं गया तो कौन कहने गया था कि तुम क्षुल्लक हो जाओ ? अपनी कषायकी मन्दता या तीव्रता देखकर ही कार्य कराना था । यह कहना कि पञ्चम काल है इसलिये यहाँ ऐसे होते हैं यह मार्गका वर्णवाद है । अस्सी तोलेका सेर होता है पर इस पञ्चम कालमें आप पौने अस्सी तोलेके सेरसे किसी वस्तुको ग्रहण कर लोगे ? 'नहीं, यहाँ तो चाहते हो अस्सी तोलेसे रत्ती दो रत्ती ज्यादा ही हो पर धर्माचरणमे पञ्चम कालका छल ग्रहण करते हो । लोग कहते हैं कि दक्षिणके क्षुल्लक तो बैठते है ? पर उनके बैठनेसे क्या वस्तुतत्त्वका निर्णय हो जावेगा ? वस्तुका स्वरूप तो जो है वही रहेगा । दक्षिण और