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सिद व विधान
१६७ इस वर्ष इटावामें वैसे ही गर्मीका अधिक त्रास था फिर दो प्रापाढ़ होगये इससे ठीक 'दूबली और दो अपाढ़वाली' कहावत चरितार्थ हो गई। अस्तु, जिस किसी तरह ग्रीप्मकाल व्यतीत हुआ। प्राकाशमे श्यामल घन-घटा छाने लगी और जब कभी बूंदा-बादी होनेसे लोगोंको गर्मीकी असह्य वेदनासे त्राण मिला। कहाँ तो वे मुनिराज थे जो जेठ मासकी दुपहरियोंमें पर्वतकी चट्टानोंपर आतापन योग धारण करते थे और कहा मैं जो बुद्धि पूर्वक शीतलसे शीतल स्थान खोजकर उसमे ग्रीप्मकाल वितानेका प्रयास करता हूँ ? वस्तुतः शरीरसे ममत्वभाव अभी दूर हुआ नहीं। मुखसे कहना बात दूसरी है और अमलमे लाना वात दूसरी है। यदि शरीरसे ममत्व छूट गया होता तो क्या सर्दी, क्या गर्मी और क्या वारिस ? सब एक सदृश ही रहते । चातुर्मासका निश्चय करते समय मनमें यह विचार किया कि अन्यत्रकी अपेक्षा इटावामें रहना ही अच्छा है। कारण कि यहाँ जलवायुकी अनुकूलता है,जनता भी भद्र है। चार मासमें सानन्द अध्यात्म शास्त्रका अध्ययन करो, गपोडावादसे वचो, केवल स्वात्मचिन्तनामें काल लगायो । क्षयोपशमज्ञान है, ज्ञेयान्तरमे जावे जाने दो पर राग-द्वेषकी मात्रा न हो यही पुरुषार्थ करो, व्यर्थ दुःखी मत होओ।
सिद्धचक्रविधान आषाढ़ शुक्ला अष्टमी सं० २००७ से सिद्धचक्रविधानका पाठ हुआ। मनोहररूपसे पूजन सम्पन्न हुई परन्तु परिणामोंमें शान्ति किसीके नहीं। केवल गल्पवादमें ही सर्व परिणमन हो जाता है।