Book Title: Lekh Sangraha Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेख संग्रह (प्रथम भाग) प्रेरक : प.पू.आ. श्री विजयसोमचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. लेखक: महोपाध्याय श्री विनयसागरजी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरिग्रंथश्रेणि - 41 मणि-पुष्प - 17 साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय विनयसागर लिखित लेखों का संकलन लेख संग्रह [प्रथम भाग] आशीर्वाद प.पू.आ. श्री विजय नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरीश्वरजी म. के शिष्य जिनशासनशणगार प.पू.आ. श्री विजयचन्द्रोदयसूरीश्वरजी म. सूरिमन्त्रसमाराधक प.पू.आ. श्री विजयअशोकचन्द्रसूरीश्वरजी म. प्रेरणादाता: व्याकरणाचार्य प.पू.आ. श्री विजयसोमचन्द्रसूरीश्वरजी म. लेखक: साहित्यवाचस्पति महोपाध्याय विनयसागरजी प्रकाशक श्री रांदेर रोड जैन संघ (सूरत) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक एवं प्राप्तिस्रोत: श्री रांदेर रोड जैन संघ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन देरासर, अडाजण पाटिया, रांदेर रोड, सूरत - 395 009 (दक्षिण गुजरात) दूरभाष - 0261 - 2687488 8 श्री नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमंदिर मेइन रोड, गोपीपुरा, सूरत-३९५००२ प्रीयांकभाई : दूरभाष - 99253 48773, 98201 54559 मंजुल जैन मेनेजिंग ट्रस्टी एम.एस.पी.एस.जी. चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा- प्राकृत भारती अकादमी १३-ए, मेन मालवीय नगर, जयपुर- 302017 दूरभाष - 0141-2524828, मो. 9314889903 लेखसंग्रह - सर्वाधिकार लेखकाधीन वि.सं. 2067 8 ई. सं. 2011 - नेमि सं. 63 प्रथम संस्करण - मूल्य : Rs. 300 प्रति : 400 AAS-rogram STILAD Printed By : BHARAT GRAPHICS New Market, Panjarapole, Relief Road, Ahmedabad-380001 Ph. : 079-22134176, M : 9925020106 E-mail : [email protected] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સૂરજમંડન શ્રી પાર્શ્વનાથ ભગવાના ગોપીપુરા-સુરતા : દ્રવ્યસહાયક : શ્રી સૂરજમંડન પાર્શ્વનાથ તીર્થે શ્રી શત્રુંજય તીર્થ રચનાની અંજનશલાકા-પ્રતિષ્ઠા તેમજ ત્રણ પંન્યાસજી મ. સા.ના આચાર્યપદપ્રદાન ઉત્સવની પુન્ય સ્મૃતિમાં શ્રી ધર્મનાથજી જૈન મંદિર ટ્રસ્ટ અને સૂરિપદપ્રદાન સમિતિ સં. 2067, માગસર સુદ 6, સુરત Page #5 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાત્સલ્યવારિધિ પ.પૂ. આચાર્ય | શ્રી વિજયવિજ્ઞાનસૂરીશ્વરજી મ.સા. પ્રાકૃતવિશારદ પ.પૂ. આચાર્ય શ્રી વિજયકસૂરસૂરીશ્વરજી મ.સા. શાસનસમ્રાટુ પ.પૂ. આચાર્ય શ્રી વિજયનેમિસૂરીશ્વરજી મ.સા. જિનશાસનશણગાર પ.પૂ. આચાર્ય શ્રી વિજયચન્દ્રોદયસૂરીશ્વરજી મ.સા. સૂરિમંત્ર સમારાધક પ.પૂ. આચાર્ય શ્રી વિજયઅશોકચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया। नेत्रमुन्मिलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥ વ્યાકરણાચાર્ય પ.પૂ. આચાર્ય શ્રી વિજયસોમચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखसंग्रह एक बहुमूल्य प्रकाशन विद्वद्वर्य, महो. विनयसागरजी ने अथाग परिश्रम कर विभिन्न विषयों के अनेक लेख लिखे / जैन सत्यप्रकाश, अनुसंधान जैसी श्रेष्ठ पत्रिकाओं के माध्यम से उन लेखों का प्रकाशन हुआ / विद्वद् वर्ग में उन लेखों की उपादेयता खुब रही / उन लेखों को संग्रहीत कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का सुझाव मिला / श्री धर्मनाथजी जैन मंदिरजी ट्रस्ट (सुरत ) एवं सूरिपदप्रदान समिति की उदारता से उन लेखों का संग्रह करके ग्रंथ के रूप में प्रकाशन करने का निर्णय किया गया / प.पू.पं. श्री श्रमणचंद्रवि., पं. श्रीचंद्रवि., पं. निर्मलचंद्रविजयजी के आचार्यपदप्रदान के अवसर पर आज यह ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है / वह बडे आनंद की बात है। कार्य व्यस्तता के कारण हम इन लेखों का अवगाहन न कर शके यह बात यहां उल्लेखनीय है। महो. विनयसागरजी वयस्क होते हुए भी जो श्रुतभक्ति कर रहे है / उनकी खूब खूब अनुमोदना एवं पुस्तक की सारी जवाबदारी निभाने के लिए मंजुलभाई एवं भरत ग्राफिक्स वाले भरतभाई एवं महेन्द्रभाई दोनों को धन्यवाद... आ. श्री विजयसोमचंद्रसूरिजी - लेख संग्रह प्रथम भाग में मेरे द्वारा समय-समय पर लिखित लेखों का संग्रह है। लेखों में कुछ लेख कवियों के जीवन से संबंधित हैं और कुछ लेख लघुकृतियों के संबंध में भी हैं। इसमें सर्वप्रथम लेख 'मुद्राराक्षस की सामाजिक पीठिका में जैन तत्त्व' का लेखन सन् 1948 में किया था। ये लेख कई विश्वविद्यालयों आदि में तथा विकास त्रैमासिक एवं तित्थयर, जहाजमंदिर, कुशलनिर्देश, जैन सत्य प्रकाश, वैचारिकी और अनुसंधान आदि मासिकों में समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। सन् 1977 से 2001 तक मेरा लेखन प्रायः बन्द-सा रहा है। प्राकृत भारती अकादमी की व्यवस्था में संलग्न रहने के कारण लेखन कार्य स्थगित सा रहा है। इस लेख संग्रह को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का श्रेय व्याकरणाचार्य प.पू. आचार्य श्री विजयसोमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज को है जो कि शासनसम्राट् प.पू. आचार्यप्रवर श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न वात्सल्यवारिधि प.पू. आचार्य श्री विजयविज्ञानसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर प्राकृतविशारद प.पू.आ. श्री विजयकस्तूरसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर जिनशासनशणगार प.पू. आचार्य श्री विजयचन्द्रोदयसूरीश्वरजी महाराज के गुरु लघुबंधु, सूरिमन्त्रसमाराधक प.पू. आचार्य श्री विजयअशोकचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य हैं, उनका मैं अत्यन्त आभारी हूँ। अंत में आशा करता हूँ कि यह लेखसंग्रह साहित्य प्रेमियों के लिए अध्ययन, संशोधन, संपादन आदि का मार्ग प्रशस्त करेगा और अनुसंधित्सुओं के लिए अनुसंधान की दृष्टि से यह लेखसंग्रह उपयुक्त होगा। - महोपाध्याय विनयसागर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय "सत्पण्डितो ह्येव चिरत्नमद्धरेत" (पुन्यश्री महाकाव्य सर्ग -2) पण्डितपुरुषों की सदा ही श्रुत के समुद्धार की भावना होती है / चाहे वह श्रुत कोई भी दर्शन या कोई भी गच्छ की भावनाओं को पुष्ट करता हो / उनकी दृष्टि में विद्वान की और विद्वत्ता की अच्छी कदर होती है। हमारे संघ के परमोपकारी शासनसम्राट् प. पू. आचार्य श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी म. की परंपरा में जिनशासनशणगार प. पू. आ. श्री विजयचंद्रोदयसूरीश्वरजी म. एवं सूरिमंत्रसमाराधक प. पू. आ. श्री विजयअशोकचंद्रसूरीश्वरजी म. के शिष्य विद्वद्वर्य प. पू. आ. .श्री विजयसोमचंद्रसूरीश्वरजी म. की शुभ प्रेरणां से महोपाध्याय विनयसागरजी के लेखों का संग्रह प्रकाशित करने का सुवर्ण अवसर हमें मिला है / लेखक महोदयश्री ने स्वपरगच्छों के भिन्न भिन्न लेखों का इस ग्रंथ में संकलन किया है / जैन सत्य प्रकाश, अनुसंधान जैसे साहित्य जगत के श्रेष्ठ मासिकों में इन लेखों का प्रकाशन किया गया था / संशोधकों की आवश्यक्ता एवं नये संपादकों की उपयोगीता को ध्यान में रखकर श्री संघने प्रस्तुत पुस्तक प्रकाशन करने का निर्णय किया / पूज्यश्री हमें पुनः पुनः ऐसे बहुमूल्य ग्रंथों का प्रकाशन करने का अवसर प्रदान करें। NA रांदेर रोड जैन संघ, सुरत Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणी अध्याय 1. विश्व का अद्भुत संग्रहालय : जैसलमेर का जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार 2. जैनागमों की अप्रकाशित संस्कृत व्याख्यायें 3. जैन स्तोत्र साहित्य : एक विहंगावलोकन 4. मुद्राराक्षस की सामाजिक पीठिका में जैन तत्त्व शत्रुञ्जयतीर्थाष्टक 6. श्री नेमिनाथादि-स्तोत्र-त्रय जिनपतिसूरि, जिनेश्वरसूरि सूरचन्द्र षड्भाषाबद्ध चन्द्रप्रभस्तव के कर्ता जिनप्रभसूरि हैं 8. स्याद्वादमंजरी मल्लिषेणसूरि 9. चतुर्विंशतिजिनस्तवनम् भुवनहिताचार्य 10. विराट नगर का एक अज्ञात टीकाकार-वाडव 11. प्रवर्तिनी मेरुलक्ष्मी के स्तोत्र 12. वर्धमानाक्षरा चतुर्विंशतिज़िनस्तुतिः श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि 13. भावप्रदीपः 14. महोपाध्याय समयसुन्दर 15. मेघदूत-प्रथमपद्यस्याभिनव-त्रयोऽर्थाः महो. समयसुन्दरगणि 16. नवनवत्यधिकनवशताक्षरा महादण्डकाख्या विज्ञप्तिपत्री महो. समयसुन्दरगणि 17. अष्टलक्षी : एक परिचय महो. समयसुन्दरगणि 18.. एक नूतन ग्रन्थ महो. भानुचन्द्रगणि 19. मातृका-श्लोकमाला श्री श्रीवल्लभोपाध्याय 20. श्री पार्श्वनाथस्तोत्रद्वयम् श्री श्रीवल्लभोपाध्याय 21. महोपाध्याय सहजकीर्ति 22. अविद-पद-शतार्थी विनयसागरोपाध्याय 23. प्रणम्यपदसमाधानम् सूरचन्द्रोपाध्याय 24. राजस्थान के संस्कृत महाकवि एवं विचक्षण प्रतिभासम्पन्न ग्रन्थकार महोपाध्याय मेघविजय 25. धर्मलाभशास्त्र महो. मेघविजय 26. सप्तसन्धान काव्य : संक्षिप्त परिचय महो. मेघविजय 27. नैषधीयचरित टीका की दुर्लभ प्रति जिनविजय 28. माघ काव्य-दीपिकाकार ललितकीर्त्ति का समय 108 112 114 118 122 124 128 131 147 155 158 163 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय पृ. सं. 168 171 172 29. वाचक प्रमोदचन्द्र भास कर्मसिंह 30. सामला पार्श्वनाथ विज्ञप्ति 31. नाटिकानुकारि षड्भाषामयं पत्रम् महो. रूपचन्द्रगणि 32. श्री जिनमहेन्द्रसूरिजी को प्रेषित प्राकृत भाषा का विज्ञप्ति-पत्र 33. उ. चारित्रनन्दी की गुरुपरम्परा एवं रचनाएँ 34. चतुर्विंशति - जिन - स्तोत्राणि देवभद्रसूरि 35. चत्वारः जिनस्तवाः रत्नशेखरसूरि 36. षडभाषामय श्रीऋषभप्रभुस्तव के कर्ता श्री जिनप्रभसूरि हैं 37. अञ्चलगच्छीय श्री जयकेसरीसूरि भास 38. महोपाध्याय अनन्तहंसगणि स्वाध्याय कनकमाणिक्यगणि 39. श्री विजयदानसूरि भास भीमकवि 40. श्री हीरविजयसूरि सज्झाय विशालकीर्ति शिष्य 41. नेमिनाथ भासद्वय सिद्धिविजय 42. श्री विजयदेवसूरि भासद्वय कनकमुक्तिगणि 43. चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थलम् श्री श्रीवल्लभोपाध्याय 44. कल्पसूत्र लेखन-प्रशस्ति मुनिसोमगणि 45. श्री धरणविहार चतुर्मुखस्तवन विशालराज शिष्य 46. छन्दोनुशासनम् जिनेश्वरसूरि 47. निर्णय प्रभाकर : एक परिचय बालचन्द्राचार्य एवं ऋद्धिसागरोपाध्याय 48. मेदपाटदेश-तीर्थमाला हरिकलश यति 49. खेड़ से संबंधित प्राचीन जैन लेख एवं उल्लेख 50. आबू के विष्णु मंदिर का एक लेख 51. जीर्णोद्धार का एक महत्वपूर्ण शिलालेख 52. राजस्थान में पार्श्वनाथ के तीर्थ स्थान 53. माण्डवगढ़ के पेथड़शाह ने कितने जिन मंदिर बनवाये? 54. भोपालगढ़ (बड़लू) के जैन मंदिर 55. आर्षभी विद्या : परिचय 56. श्रावक विधि रास गुणसुन्दरसूरि 57. भक्तामरस्तोत्र पादपूर्ति आदिनाथ स्तोत्रम् विवेकचन्द्रसूरि 58. द्वादशांगी पदप्रमाण कुलकम् श्रीजिनभद्रसूरि 59. सर्वजिन चउतीस अतिसय वीनती 60. श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम् जिनराजसूरि 180 188 194 209 222 224 228 232 235 238 241 244 254 261 269 279 283 291 296 299 317 323 332 335 341 347 352 357 361 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का अद्भुत संग्रहालय : जैसलमेर का जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार विधर्मी आक्रान्ता शासकों ने धर्मान्धता के आवेश में जैन तीर्थों, मन्दिरों, मूर्तियों को तोड़-फोड़ कर उन्हें तहस-नहस कर डाला और जैन भण्डारों को जला-जला कर नष्ट कर डाला, तब तत्कालीन कुछ जैनाचार्यों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार उन शासकों के सम्पर्क में आकर उनके धार्मिक जुनून को कम करने का प्रयत्न किया। इस प्रयास में वे यत्किचित् सफल भी हुए। कुछ जैनाचार्यों ने 'जीर्णोद्धार करावतां आठ गुणों फल होय' की स्थापना कर जन-मानस को आन्दोलित करने हुए प्रबल वेग के साथ ध्वस्त मन्दिरों का जीर्णोद्धार, नये-नये भव्य एवं विशाल शिखरबद्ध मन्दिरों का विपुल संख्या में निर्माण और सहस्राधिक मूर्तियों की एक समय प्रतिष्ठा करवाकर भक्ति की ओर झुकने लगे और प्राचीन - ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवा-करवा कर भंडारों को समृद्ध करने लगे। __ श्वेताम्बर समाज के सैकड़ों आचार्यों, गच्छनायकों ने स्वकीय रुचि एवं शक्ति के अनुसार इस पुनीत कार्य में सक्रिय योगदान किया। तथापि १५वीं शताब्दी के 3 जैनाचार्यों का इस कार्य में प्रबल एवं विशिष्ट योगदान रहा। वे तीन आचार्य हैं - खरतरगच्छ के जिनभद्रसूरि, तपागच्छ के सोमसुन्दरसूरि और अंचलगच्छ के जयकेसरिसूरि। इन तीनों में भी सोमसुन्दरसूरि और जययकेसरिसूरि ने मन्दिर एवं मूर्ति निर्माण के एक क्षेत्र में ही वेग के साथ-साथ हाथ बढ़ाया, जबकि जिनभद्रसूरि ने मन्दिर एवं मूर्ति-निर्माण/ प्रतिष्ठा के साथ-साथ प्रबल वेग से अनेक स्थानों पर समृद्ध भंडारों की स्थापना करते हुए शास्त्र-संरक्षण के कार्य को प्रमुख प्रधानता प्रदान की। जिनभद्रसूरि की मान्यता थी/उपदेश था - पहले ज्ञान है और बाद में दया। ज्ञान के बिना क्रिया भी सफल नहीं होती है। वह ज्ञान शास्त्रों से प्राप्त होता है और वे शास्त्र वर्तमान समय में पुस्तकों के आधार पर आश्रित हैं तथा वह पुस्तक लेखन/शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ करवा कर * सद्गुरुओं को अध्ययनार्थ प्रदान करने से प्राप्त होता है। ज्ञान समस्त सुखों का दाता है, तत्त्व ज्ञान सद्गुरुओं के अधिगम उपदेश से प्राप्त होता है। तत्व ज्ञान से शम की प्राप्ति होती है। शम की प्राप्ति से मानव वैर रहित हो जाता है। फलतः वह शत्रु रहित और द्वेषरहित हो जाता है, निर्भय हो जाता है, अतः हे भव्यजनो! आप आदरपूर्वक श्रुतज्ञान/शास्त्रों को लिखवाओ अर्थात् प्रतिलिपियाँ करवा-करवा कर श्रुत भंडार को समृद्ध करो - प्राग् ज्ञानं तदनन्तरं किल दया वागार्हतीति स्फुटा, न ज्ञानेन बिना क्रियापि सफला प्रायो यतो दृश्यते। / तत्स्यात् सम्प्रति पाठतः स च पुनः स्यात्पुस्तकाधारतस्तस्मात्पुस्तकलेखनेन मुनिषु ज्ञानं प्रदत्तं भवेत्॥१८॥ ज्ञानं सर्वसुखप्रदं च ददता साधुव्रजायाभवं, दत्तं येन ततो भवेदधिगमस्तत्त्वस्य तत्त्वाच्छमः। लेख संग्रह Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तो वैरविवर्जितः सनिररिनिद्वेषिणो नो भयं, तस्माल्लेखयत श्रुतं भुवि जनाः! यूयं विधायादरम्॥१९॥ - जैसलमेर ताड़पत्रीय प्रति 119 की लेखन - प्रशस्ति यही कारण था कि जिनभद्रसूरि ने अपने उपदेशों के माध्यम से श्रद्धालु उपासकों के मानस को श्रुतभक्ति की ओर मोड़ दिया। उपासक भी सादर भक्ति एवं उल्लास के साथ शास्त्र-लेखन में जुड़ गये। फलतः आचार्यश्री को आशातीत सफलता प्राप्त हुई और उन्होंने राजस्थान में 3 - जैसलमेर, जालौर, नागौर; गुजरात में 3 - पाटण, खंभात, आशापल्ली; मालवा में 1 - मांडवगढ़ तथा देवगिरि कुल 8 स्थानों पर समृद्ध ज्ञान भंडार स्थापित किये। इनमें से जालौर, नागौर, खंभात, आशापल्ली, मांडवगढ़ और देवगिरि के भंडारों का तो अता-पता ही नहीं है। वैसे तो पाटण के भंडार का भी पता नहीं है, किन्तु जिनभद्रीय ज्ञान भंडार के कुछ ग्रन्थ आज भी बाड़ी पार्श्वनाथ ज्ञान भंडार, पाटण में विद्यमान हैं जो आज भी आचार्य जिनभद्र के नाम को सुरक्षित रखे हुए हैं। उक्त आठ भंडारों में से मुख्यतः केवल एकमात्र 'जैसाणो' जैसलमेर में स्थापित जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार ही आज विद्यमान है। यह भंडार विश्व विश्रुत ज्ञान भंडार है। प्राचीनता एवं ताड़पत्रीय ग्रन्थों की प्रचुरता से समृद्ध है और अन्यत्र अप्राप्त अनेक दुर्लभ ग्रन्थों/पाण्डुलिपियों से समलंकृत है। भारतीय और पाश्चात्य शोधकों ने यहाँ आ-आकर, शोधकर, पाण्डुलिपियाँ करवाकर, प्रकाशन कर, इस समृद्ध भंडार के वैशिष्ट्य/गौरव को मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है। मरु क्षेत्र के इस उपेक्षित आंचल जैसलमेर को सदियों पश्चात् समृद्धि की ओर बढ़ने का जो संयोग मिला है, पर्यटक केन्द्र बनने का जो सौभाग्य मिला है, उसमें भी मुख्य कारण हैं - जैन ज्ञान भंडार, जिनभद्रसूरि आदि आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित किले के भीतर वास्तुकला परिपूर्ण जैन मन्दिर और पटवों की हवेलियों का आकर्षण। ज्ञान भंडार की स्थापना एवं भंडार स्थित विशिष्ट सामग्री पर कुछ भी लिखने के पूर्व इसके संस्थापक आचार्य जिनभद्रसूरि का परिचय प्राप्त कर लेना आवश्यक है। .. जिनभद्रसूरि जिनभद्रसूरि पट्टाभिषेक रास के अनुसार मेदपाटदेशस्थ देउलपुर नगर था। वहाँ का अधिपति लखपति (लाखा) था। वहाँ छाजड़ गोत्रीय श्रेष्ठि धीणिग निवास करते थे। उनकी पत्नी का नाम खेतलदेवी था। खेतलदेवी की कुक्षि से ही इनका जन्म वि. सं. 1449, चैत्र शुक्ला षष्ठी के दिन हुआ था। जन्म नाम रामण कुमार था। तत्कालीन खरतरगच्छ नायक जिनराजसूरि के वरदहस्त से रामण कुमार ने दीक्षा ग्रहण की। इनका दीक्षा नाम कीर्तिसागर रखा गया था तथा वाचनाचार्य शीलचन्द्रगणि के समीप विद्याध्ययन किया था। श्री जिनराजसूरि का 1461 में देवकुलपाटक में स्वर्गवास हो जाने पर श्री सागरचन्द्राचार्य ने इनके पट्ट पर उसी वर्ष जिनवर्धनसूरिजी को स्थापित किया था, किन्तु दैवी प्रकोप के कारण तथा गच्छोन्नति को ध्यान में रख कर सं. 1475 में सागरचन्द्रचार्य ने मुनि कीर्तिसागर को आचार्य पद प्रदान कर गच्छनायक घोषित किया। पदाभिषेकोत्सव नाल्हिग शाह ने बड़े समारोह से किया था। इनका विहार क्षेत्र प्रमुखतः गुजरात, मारवाड़ और मालवा रहा। लेख संग्रह Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसलमेर संभवनाथ मन्दिर के शिलापट्ट पर उत्कीर्ण प्रशस्ति - गुरु अष्टक - में प्रशस्ति लेखक सोमकुंजर ने जिनभद्रसूरि के विशिष्ट गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है - "गिरनार, चित्तौड़गढ़, माण्डव्यपुर (मांडवगढ़) आदि अनेक स्थलों में इनके उपदेश से श्रावकों ने विशाल जिन मन्दिर बनवाये। अणहिल्लपुर पाटण आदि स्थानों/नगरों में विशाल ज्ञान भंडार स्थापित करवाये। जिन्होंने माँडवगढ़, पालणपुर, तलपाटक आदि नगरों में अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की। जो विशेषावश्यक भाष्य और अनेकान्त जयपताका आदि दुरूह ग्रन्थ मुनियों को पढ़ाते थे और कर्म प्रकृति आदि ग्रन्थों के रहस्य पर विवेचन करते थे। सं. 1495 में पंचायतन प्रासाद (लक्ष्मीनारायणजी का मन्दिर) निर्माता जैसलमेर नरेश रावल वैरसिंह और त्र्यम्बकदास जैसे भूपति जिनकी चरण सेवा करते हैं।" इसी प्रकार उस समय के उद्भट विद्वान जयसागरोपाध्याय ने वि. सं. 1484 में नगर - कांगड़ा में चतुर्मास में रहते हुए जो विज्ञप्ति-त्रिवेणी नामक विशाल एवं ऐतिहासिक विज्ञप्ति पत्र जिनभद्रसूरि के चरणों में अणहिलपुर पाटण भेजा था, उसमें गद्य-पद्य में, चित्रकाव्यों के माध्यम से इनके सद्गुणों का जिस प्रकार से वर्णन किया है, वह पठनीय है। इन्होंने ही स्वहस्त से 1475 में जयसागर को उपाध्याय पद और 1497 में कीर्तिराज उपाध्याय को आचार्य पद देकर कीर्तिरत्नसूरि नाम प्रदान किया था। भावप्रभसूरि को भी आचार्य पद आपने ही प्रदान किया था। जैसलमेर के पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा 1473 में आचार्य जिनवर्द्धनसूरि ने करवाई थी। चोपड़ा गोत्रीय सा. हेमराज, पूना आदि निर्मित कलापूर्ण संभवनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा 300 जिनबिम्बों के साथ वि.सं. 1497 में आचार्य जिनभद्रसूरि ने कराई थी। जिनभद्रसूरि ने ही भणसाली गोत्रीय सा. वीदा कारित चन्द्रप्रभ मंदिर की प्रतिष्ठा वि. सं. 1509 में करवाई थी। किले के भीतर विद्यमान शेष मन्दिरों - शान्तिनाथ और अष्टापद मंदिर, शीतलनाथ मंदिर, ऋषभदेव मंदिर, महावीर स्वामी के मंदिरों की प्रतिष्ठायें जिनभद्रसूरि के परवर्ती खरतरगच्छीय आचार्यों ने करवाई थीं। संभवनाथ मंदिर के तलघर में ही जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार विद्यमान/सुरक्षित है। वि. सं. 1514, मार्गशीर्ष कृष्णा 9 के दिवस कुम्भलमेर में इनका स्वर्गवास हुआ था। इनका आचार्यत्व काल 40 वर्ष का रहा था। आपकी विद्वत्साधु मंडली और शिष्यमंडली में अनेक दिग्गज विद्वान और साहित्यकार थे, जिनमें से कतिपय नाम उल्लेखनीय हैं - महोपाध्याय जयसागर, महो. सिद्धान्तरुचि, उपाध्याय मेरुसुन्दर, कीर्तिरत्नसूरि, उपाध्याय मेरुनन्दन आदि। उसी समय में माँडवगढ़ के मन्त्री सोनीगरा श्रीमालवंशीय मन्त्री मण्डन और धनदराज भी हुए, इनमें से मन्त्री मण्डन ने मण्डन संज्ञक 10 ग्रन्थों की और धनदराज ने धनद त्रिशती की रचनाएँ की थीं। ये दोनों परम विद्वान थे और थे जिनभद्रसूरि के परम भक्त श्रावक। इन्होंने ही माँडवगढ़ में जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार की स्थापना की थी। - श्रुतरक्षक आचार्यों में जिनभद्रसूरि का नाम मूर्धन्य स्थान पर है। खरतरगच्छ के दादा संज्ञक चारों गुरुदेवों की भाँति इनके चरण एवं मूर्तियाँ आज भी अनेक स्थलों पर पूज्यमान हैं। इनके नाम से जिनभद्रसूरि शाखा का प्रसार भी हुआ, जिसमें अनेक मूर्धन्य विद्वान हुए हैं। खरतरगच्छ की वर्तमान में उभय भट्टारकीय, आचार्यांय, भावहर्षीय एवं जिनरंगसूरि आदि शाखाओं के पूर्व-पुरुष भी आप ही हैं। लेख संग्रह Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान भण्डार की स्थापना का समय जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है जिनभद्रसूरि ने अपने 40 वर्ष के आचार्य काल में अर्थात् 1475 से 1514 के मध्य में 8 स्थानों पर - जालौर, नागौर, पाटण, खंभात, आशापल्ली (अहमदाबाद), मांडवगढ़, देवगिरि, जैसलमेर में ज्ञान भंडारों की स्थापना की थी, जिनमें से जालौर, नागौर, आशापल्ली, देवगिरि के भंडारों का तो अता-पता ही नहीं है। माँडवगढ़ के भंडार का भी कोई पता नहीं चलता, किन्तु पाटण के सागरगच्छ के उपाश्रय में सुरक्षित भगवतीसूत्र की निम्न प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि वि. सं. 1503 में मंत्री मंडन और सं. धनराज ने जिनभद्रसूरि के उपदेश से समस्त सिद्धान्त-ग्रन्थ लिखवाये थे - "सं. 1503 वैशाख सुदि प्रतिपत्तिथौ रविदिने अद्येह श्री स्तम्भतीर्थे श्री खरतरगच्छे श्री जिनराजसूरि पटे श्री जिनभद्रसरीश्वराणामपदेशेन श्रीश्रीमालजातीय सं.मांडण सं.धनराज भगवतीसत्र पस्तकं निजपण्यार्थं लिखापितं। x x x श्रीमालज्ञातिमण्डनेन संघेश्वर - श्रीमण्डनेन सं. श्री धनराज सं. खीमराज़ सं. उदयराज सं. मण्डनपुत्र पूजा सं. जीजी सं. संग्राम सं. श्रीमाल प्रमुखपरिवृतेन सकलसिद्धान्तपुस्तकानि लेखयांचक्राणानि। श्रीः।" इससे स्पष्ट है कि मांडवगढ़ के भंडार की स्थापना वि. सं. 1503 के आसपास हुई होगी। 'कैटलॉग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स जैसलमेर कलेक्सन' के अनुसार जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार, जैसलमेर में जिनभद्रसूरि के उपदेश से खंभात निवासी पारीख गोत्रीय श्रेष्ठि धरणा शाह एवं श्रीमालवंशीय बलिराज उदयराज द्वारा ताड़पत्र पर लिखापित 48 ग्रन्थ आज भी विद्यमान हैं। इन ग्रन्थों की प्रतिलिपि का समय सं. 1485 से 1491 तक का है। इनमें से अधिकांशतः लेखन पुष्पिकाओं में 'अद्येह स्तम्भतीर्थे' या 'स्तम्भतीर्थे' का उल्लेख है। साथ ही इन पुष्पिकाओं में 'सिद्धान्तकोशे' या 'जिनभद्रसूरि भाण्डागरे' का उल्लेख प्राप्त है। अतः स्पष्ट है कि 1485 या 86 के आसपास ही खंभात में जिनभद्रसूरि भंडार की स्थापना हुई थी। आज इस भंडार का खंभात में कहीं पता नहीं है। इन्हीं भक्तद्वय - श्रेष्ठि धरणा शाह और बलिराज उदयराज ने अणहिलपुर पत्तन में जिनभद्रसूरि भाण्डागार की स्थापना सं. 1487-88 में की थी। जैसलमेर भण्डारस्थ कागज पर लिखित दश से अधिक प्रतियें विद्यमान हैं जो 1487 से 1489 के मध्य लिखी हुई हैं, इनकी लेखन पुष्पिकाओं में 'श्रीपत्तने' या 'पत्तनमध्ये' श्री जिनभद्रसूरीणां भाण्डागारे अंकित है। वाडी पार्श्वनाथ मंदिर, पाटण के ज्ञान भंडार में आज भी इन्हीं के उपदेश से लिखापित पचासों ग्रन्थ विद्यमान हैं। जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार, जैसलमेर की स्थापना कब हुई, निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, किन्तु अनुमान है कि इसकी स्थापना वि. सं. 1497 में या इसके आसपास ही हुई होगी, क्योंकि आचार्य जिनभद्र ने 300 प्रतिमाओं के साथ संभवनाथ मंदिर की वि. सं. 1497 में प्रतिष्ठा करवाई थी। इसी संभवनाथ मंदिर के उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही मंदिर निर्माण के समय पहले तलगृह का निर्माण करवाया गया होगा और प्रतिष्ठा के समय या उसी वर्ष शुभ मुहूर्त में भंडार की स्थापना की गई होगी। इसी वर्ष 1497, माघ सुदी को 5 जिनभद्रसूरि के उपदेश से जैसलमेर में लिखापित 'कल्पसूत्र संदेहविषौषधि वृत्ति' की प्रति क्रमांक 426 पर प्राप्त है और दूसरी कागज की प्रति 1499 की लिखित क्रमांक 74 पर विद्यमान है। अतः इस भंडार की स्थापना का समय 1497 मान सकते हैं। भंडार की स्थापना के पश्चात् उनके शिष्य परिवार और परवर्ती खरतरगच्छीय आचार्यादि इसे सर्वदा समृद्ध करते रहे। लेख संग्रह Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान भण्डार की महत्ता ____ ताड़पत्रीय ग्रन्थों की प्रचुरता एवं प्राचीनता की दृष्टि से उत्तरी भारत के तीन स्थल महत्त्वपूर्ण माने गये हैं - जैसलमेर, पाटण और खंभात। पाटण और खंभात के ज्ञान भंडार विशाल एवं समृद्धिपूर्ण हैं तदपि जैसलमेर का ज्ञान भंडार अपनी कई विशेषताओं के कारण विशिष्ट महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ताड़पत्र एवं कागज की प्राचीनतम प्रतियों, जैनागम एवं साहित्य की तथा बौद्ध और भारतीय साहित्य की विविध विषयक प्राचीनतम, दुर्लभ एवं अन्यत्र अप्राप्त ग्रन्थों, प्राचीनतम चित्रित काष्ठपट्टिकाओं का विशाल संग्रह इस भंडार की प्रमुख विशेषता है। इसी कारण यह ज्ञान भंडार विश्व प्रसिद्ध है। इसका अवलोकन ग्रन्थों का संशोधन-सम्पादन एवं प्रतिलिपि करने हेतु देश के अनेक विद्वान एवं शोधक ही नहीं, अपितु अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भी यहाँ आकर लाभ उठाया। श्री लालचन्द्र भगवान् गान्धी लिखित श्री सी.डी. दलाल द्वारा सम्पादित 'जैसलमेर जैन भाण्डागारीय ग्रन्थानां सूचिपत्रम्' प्रकाशित होने के पश्चात् तो शोध-विद्वानों और आचार्यादि मुनिवर्ग का तो यह प्रमुख आकर्षण केन्द्र ही बन गया। फलस्वरूप प्रचुर मात्रा में विद्वान और जैनाचार्य एवं मुनिगण यहाँ आये। कइयों ने सैकड़ों ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाकर अपने-अपने ज्ञान भंडारों को समृद्ध किया। कइयों ने सम्पादन कर कई ग्रन्थ प्रकाशित करवाये। कइयों ने यहां की प्राचीनतम ग्रन्थों के आधार पर ग्रन्थों का संशोधन किया। कई आचार्य और मुनि पद धारियों ने श्रावकों की श्रद्धा का दुरुपयोग करते हुए अनेक प्राचीन ग्रन्थों एवं चित्रित काष्ठपट्टिकाओं को इधर-उधर भी किया, जो आज जोधपुर, बीकानेर, पालीताणा, अहमदाबाद आदि अन्य संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं। आगम प्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजय जी ने वि. सं. 2007 में जैसलमेर में स्थिरता कर, निष्ठापूर्वक अस्त-व्यस्त संग्रह को सम्यक् प्रकार से व्यवस्थित कर समुद्धार किया। शताधिक ग्रन्थों का जीर्णोद्धार करवाया। 214 ग्रन्थों की माइक्रो फिल्म भी करवाई। इनमें से कुछ ग्रन्थों की फोटो स्टेट कॉपियाँ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद और राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में सुरक्षित है। ___ अध्रना सेवा मंदिर, रावटी, जोधपुर के संचालक श्री जोहरीमलजी पारख ने भंडारस्थ समस्त ताड़पत्रीय ग्रन्थों की फोटो कॉपियाँ करवा ली हैं। भण्डार के ट्रस्टियों ने समस्त चित्रित सामग्री का एलबम भी बना लिया है। मुनि पुण्यविजयजी ने संकलन कर 'जैसलमेरु दुर्गस्थ हस्तप्रतिसंग्रहगतानां संस्कृत-प्राकृत भाषानिबद्धानां ग्रन्थानां नूतना सूची' नाम से सूची पत्र भी सन् 1972 में प्रकाशित करवाया। प्राचीन एवं दुर्लभ ग्रन्थ इस संग्रह में लम्बी और छोटे नाप की ताड़पत्र पर लिखित कुल 403 प्रतियाँ हैं, जबकि कृतियों की दृष्टि से इसमें 750 से अधिक हैं। खरतरगच्छ की बेगड़ शाखा के आचार्यों द्वारा स्थापित बेगड़गच्छ का ज्ञान भण्डार भी इसमें सम्मिलित है। इस संग्रह में जिनभद्रसूरि द्वारा कागज पर पाटण ज्ञान भंडार के लिये लिखवाई गई अनेक प्रतियाँ सुरक्षित हैं। यह संग्रह कागज पर लिखित ग्रन्थों का ही है। इसमें कुल 1330 प्रतियाँ हैं। जिनभद्रीय संग्रह में क्रमांक 116 पर अवस्थित प्राचीनतम प्रति 'विशेषावश्यक महाभाष्य' की है, जिसका लेखन काल १०वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। और, कागज पर लिखित प्राचीन से प्राचीन प्रति लेख संग्रह Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतो 245 १३वीं वि. सं. 1207 की 'ध्वन्यालोक लोचन' की थी, जिसे संशोधन-सम्पादन करने हेतु पुरातत्वाचार्य पद्मश्री मुनि जिनविजयजी लाये थे। यह प्रति वापस जैसलमेर नहीं पहुँची और वह आजकल राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर की शोभा बढ़ा रही है। जैन आगम, चूर्णि, नियुक्ति, टीकाएँ, प्रकरण, चरित्र साहित्य की दृष्टि से यहाँ प्राचीन ११वीं से १४वीं तक की विपुल सामग्री उपलब्ध है। इनका पाठभेद/पाठान्तरों की दृष्टि से उपयोग किया जा सकता है। इस संग्रह में जो दुर्लभ, अन्यत्र, अप्राप्त एवं विशिष्ट सामग्री है उनमें से कतिपय महत्वपूर्ण ग्रन्थों के नामोल्लेख प्रस्तुत हैं - क्रमांक ग्रन्थनाम लेखन संवत् x 34 (2) ज्योतिष्करंडकसूत्र वृत्तिसह पादलिप्ताचार्य 1489 85 (2) दशवैकालिकचूर्णी अगस्त्यसिंह १२वीं पूर्वार्ध x 122 ओघनियुक्तिबृहद्भाष्य 1491 149 अंगविद्याप्रकीर्णक 1488 151 (15) संवेगमंजरी देवभद्रसूरि १४वीं मचरित्र गुणपाल १४वीं 250 आदिनाथचरित्र वर्धमानसूरि 1339 259 नेमिनाहचरिउ . हरिभद्रसूरि 261 पार्श्वनाथचरित्र देवभद्रसूरि १३वीं 263 महावीर चरित्र देवभद्रसूरि 1242 270 (1) धन्यशालिभद्रचरित्र पूर्णभद्र 1309 270 (2) कृतपुण्यचरित्र पूर्णभद्र 1309 270 (3) अतिमुक्तकचरित्र पूर्णभद्र 1309 x 270 (4-5) दशश्रावकचरित्र चूर्णि सह. पूर्णभद्र. 1309 271 पृथ्वीचंद्रचरित्र शान्तिसूरि , 1225 x272 प्रत्येकबुद्धचतुष्कचरित्र लक्ष्मीतिलक १४वीं 274 नरवर्मचरित्र विवेकसमुद्र १५वीं x 279 (1) आशापल्लीयउदयनविहारस्थ प्रद्युम्नसूरि १४वीं जिनबिम्बअवन्द्यत्वमतव्यस्थापन 279 (2) आशापल्लीयउदयनविहारस्थ जिनपतिसूरि १४वीं जिनबिम्बावन्द्यत्वमतनिरास x 280-281 गणधरसार्द्धशतक वृहद्वृत्ति सहित जिनदत्तसूरि, सुमतिगणि १४वीं टी. सुमतिगणि x 284 (1) तपोटमतकुट्टनशत जिनप्रभसूरि १६वीं x 284 (2) तपोटर्षिमतखंडन स्वोपज्ञवृत्ति सह. गुणप्रभसूरि x 289 कातन्त्रव्याकरण-दुर्गसिंहवृत्ति-दुर्गपद प्रबोध प्रबोधमूर्ति १४वीं X X X १६वीं X X a लेख संग्रह Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३वीं १३वीं १४वीं x x १३वीं x 292 पंचग्रन्थी-बुद्धिसागर व्याकरण बुद्धिसागरसूरि १३वीं 314 (1) जयदेवछंदःशास्त्र जयदेव 1190 314 (2) जयदेवछंदःशास्त्र वृत्तिसह टी. हर्षट १३वीं 314 (3) कइसिट्ठ छंदःशास्त्र विरहांक १३वीं 314 (4) कइसिट्ठछंदःशास्त्रवृत्ति टी. गोपाल भट्ट 314 (5) छन्दोनुशासन जयकीर्तिसूरि 1192 317 कल्पलताविवेक (कल्पपल्लवशेष) 1205 320 काव्यादर्श (काव्यप्रकाशसंकेत) सोमेश्वर भट्ट 1283 326 (2) अलंकारदर्पण 348 वासवदत्ता सुबंधु 1207 x 351 निर्वाणलीलावतीमहाकथाउद्धार जिनरत्नसूरि 352 लीलावतीकथा कुतूहल कवि 1265 364 (1) न्यायावतारसूत्रवृत्ति टिप्पणी टि. ज्ञानश्री आर्यिका 1490 364 (3) न्यायप्रवेशवृत्तिपंजिका पार्श्वदेवगणि 1490 369 प्रमालक्ष्मलक्षणसटीक जिनेश्वरसूरि 1201 x 371 धर्मोत्तरटिप्पनक मल्लवादी . 373 सर्वसिद्धान्तप्रवेश १२वीं x 387 (2) प्रमाणान्तर्भाव देवभद्र, यशोभद्र 1114 x 393 सांख्यसप्ततिका वृत्तिसह 1176 x 394 सांख्यसप्ततिका वृत्तिसह 399 श्रृंगारमंजरी महाराज भोजदेव १२वीं ___ इसके अतिरिक्त पउमचरियं (ले. सं. 1198), वसुदेवहिण्डी (ले. सं. 1228), समराइच्चकहा (ले. सं. 1250), कुवलयमालाकथा (ले. सं. 1139), तिलकमंजरी (ले. सं. 1130), उपमितिभवप्रपंच कथा (ले. सं. 1305) की प्राचीनतम प्रतियाँ उपलब्ध हैं और जिनवल्लभसूरि रचित अनेक स्तोत्र प्राप्त हैं जो अभी तक अप्रकाशित हैं। बौद्ध दर्शन के भी निम्नांकित विशिष्ट एवं दुर्लभ ग्रन्थ यहाँ उपलब्ध हैं - 364 (2) न्यायबिंदुवृत्ति टिप्पणी सह धर्मोत्तर 1490 375 (1) न्यायप्रवेशसूत्र दिङ्नाग 1201 375 (3) न्यायप्रवेशटीका हरिभद्रसूरि 1201 376 (1) न्यायबिंदु (लघुधर्मोत्तरसूत्र) धर्मकीर्ति १३वीं पू. 376 (2) न्यायबिंदु टीका धर्मोत्तरपाद १३वीं पृ. 377 तत्वसंग्रहसूत्र शान्तरक्षित १२वीं 378 तत्वसंग्रहपंजिकावृत्ति १२वीं ___ भारतीय न्याय-दर्शन के ग्रन्थों की भी प्राचीनतम प्रतियाँ इस भंडार में सुरक्षित हैं जो अन्यत्र दुर्लभ है - ' लेख संग्रह x. १२वीं . Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 १२वीं १३वीं .१२वीं व्यासर्षि 380 न्यायकंदलीटीका श्रीधर भट्ट १४वीं 381 (2) न्यायकन्दलीटीका श्रीधर भट्ट १२वीं न्यायवार्तिक उद्योतकर १४वीं 383 (1) प्रशस्तपादभाष्य प्रशस्तपाद 384 खंडनखंडखाद्यशिष्यहितैषिणीवृत्ति १३वीं 385 खंडनखंडखाद्य श्रीहर्ष 1291 386 न्यायमंजरी-ग्रंथि भंग चक्रधर 387 (1) शाबरभाष्य 1114 388 (1) इष्टसिद्धि वृत्ति सह परमहंस विमुक्तात्माचार्य १२वीं 388(2) भगवद्गीता भाष्यसह शंकरस्वामी १२वीं 389 गौतमीयन्यायसूत्रवृत्ति 1208 390 भाष्यवार्त्तिकवृत्तिविवरणपंजिका अनिरुद्ध पंडित . . १३वीं 391 (1) सांख्यसप्ततिका भाष्य गौडपाद 1200 391 (2) सांख्यतत्त्वकौमुदी वाचस्पतिमिश्र 1200 391 (3) सांख्यसप्ततिका ईश्वरकृष्ण . 1200 395 (1) पातंजलयोगदर्शनभाष्य वृत्ति वाचस्पतिमिश्र 395 (2) पातंजलयोगदर्शन भाष्य १२वीं इसी प्रकार रस और अलंकार शास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थों की भी अन्यत्र दुष्प्राप्य प्राचीनतम प्रतियाँ इस भंडार में उपलब्ध हैं - 318 काव्यमीमांसा राजशेखर , 1216 322 काव्यप्रकाश टिप्पणीसह मम्मट, अलक. 1215 324 काव्यप्रकाश अवचूरि 325 व्यक्तिविवेक काव्यालंकार राजानंक महिम 332 रुद्रटालंकारटिप्पनक नमिसाधु / 1206 326 (1) काव्यादर्श दंडी 1161 326 (3) काव्यादर्श दंडी १३वीं 327 वक्रोक्तिजीवित सटीक कुंतक १३वीं 329 उद्भटकाव्यालंकारलघुवृत्ति टी. प्रतीहारेंदुराज 1160 331 अभिधावृत्तिमातृका मुकुल भट्ट १३वीं वामनीय काव्यालंकार वामन १३वीं स्वोपज्ञवृत्ति टिप्पणीसह इसी प्रकार कविरहस्य सटीक (1216), भट्टिकाव्य वृत्ति (१३वीं), नैषधीय चरित (1378), नैषधीय साहित्य विद्याधरी टीका (१४वीं), विक्रमांक चरित (1343), षट्लघुकाव्य (1215, 1243), वासवदत्ता (1207), चक्रपाणिविजय (१४वीं), गौडवहो सटीक (१३वीं) आदि काव्यों तथा अनर्घराघव १४वीं १३वीं लेख संग्रह Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1279 १३वीं (१४वीं), मुद्राराक्षस (1314), प्रबोधचन्द्रोदय (1318), वेणी संहार (१४वीं), नागानन्द नाटक (१३वीं) आदि की भी १३वीं एवं १४वीं शताब्दी की लिखित ताड़पत्रीय प्रतियाँ यहाँ समुपलब्ध हैं। अतः तत्तद् विषयक विद्वानों का कर्तव्य है कि उक्त ग्रन्थों का संशोधन-सम्पादन करते समय पाठ भेदों की दृष्टि से इस ज्ञान भंडार में संगृहीत एवं सुरक्षित प्राचीन ताड़पत्रीय प्रतियों का अवश्यमेव उपयोग करें। कागज पर लिखित यहाँ जो प्राचीनतम ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे तो प्राचीनता की दृष्टि से विश्व में बेजोड़ हैं, उनमें से कतिपय हैं - 1324 (1-2) सूक्ष्मार्थ विचारसार एवं षड्शीतिप्रकरण 1246 1300 (1-4) दशवैकालिक - उत्तराध्ययन आचारांग 1277 सूत्रकृतांगसूत्रनियुक्ति 1301 सनत्कुमारचरित्र महाकाव्य जिनपालगणि 1278 1274 (1-2) न्यायतात्पर्यटीका वाचस्पतिमिश्र 1279 1274 (3). न्यायभाष्य टिप्पणीसह वात्स्यायनमुनि 1279 1275 न्यायवार्तिक टिप्पणीसह भारद्वाज साथ ही कागज पर लिखित निम्नांकित ग्रन्थ भी अत्यन्त विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण हैं - - ' x 72 . पंचप्रस्थान न्यायमहातर्क-विषमपदव्याख्या अभयतिलकगणि न्यायालंकार कर्पूमंजरीनाटिका कूर्परकुसुमभाष्य प्रेमराज 1538 गीतगोविंद सटीक टी. जगद्धर अंजनासुन्दरीकथानक गुणसमृद्धि महत्तरा १५वीं धर्मशिक्षाप्रकरण सटीक जिनवल्लभ, जिनपाल १४वीं - उपरिवर्णित/चर्चित ताड़पत्र व कागज पर लिखित विशिष्टतम ग्रन्थों में से अधिकांशतः ग्रन्थ अनेक विद्वानों द्वारा समय-समय पर संशोधित-सम्पादित होकर विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं तथापि क्रमांक के आगे x चिह्नांकित ग्रन्थ मेरी स्मृति के अनुसार अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं। चिह्नांकित ग्रन्थ विविध विषयक हैं, वैशिष्ट्य युक्त हैं, महत्वपूर्ण हैं, साथ ही इनमें से कतिपय ग्रन्थ तो ऐसे हैं जिनकी एकमात्र प्रति यहीं प्राप्त हैं, अन्यत्र नहीं। अतः ऐसे दुर्लभ ग्रन्थों का प्रकाशन होना अत्यावश्यक है। विद्वानों और संस्थाओं का कर्तव्य है कि वे इस ओर प्रयत्नशील हों। चिह्नांकित ग्रन्थों में से निम्नांकित ग्रन्थों का प्रकाशन तो शीघ्र ही होना अपेक्षित है - 34 ___ ज्योतिष्करण्डक टीका प्राकृत पादलिप्ताचार्य आगम 250 आदिनाथ चरित्र प्राकृत वर्धमानसूरि र. सं. 1160 चरित्र प्रत्येकबुद्धचतुष्कचरित्र सं. लक्ष्मीतिलक र.सं. 1311 काव्य निर्वाणलीलावतीमहाकथाउद्धार जिनरत्नसूरि र.सं. 1341 कथा पंचग्रन्थी-बुद्धिसागर व्याकरण बुद्धिसागरसूरि र.सं. 1080 व्याकरण - 1278 272 / 351 292 - लेख संग्रह Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 (का.) पंच प्रस्थान न्यायमहातर्क अभयतिलक र.सं. १३वीं न्यायशास्त्र विषमपद व्याख्या धर्मशिक्षा प्रकरण प्रा. सं. जिनवल्लभ-जिनपाल औपदेशिक बेगड़ गच्छ का साहित्य जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि इस भंडार में संगृहीत कागज पर लिखित हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह बेगड़ गच्छीय ज्ञान भंडार के नाम से भी प्रसिद्ध है। बेगड़ गच्छ वस्तुतः खरतरगच्छ की ही एक शाखा है, जो पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जिनोदयसूरि के समय में जिनेश्वरसूरि से उद्भूत हुई थी। महमूद शाह बेगड़ा इनका भक्त था - "मैं भी बेगड़, तुम भी बेगड़ गुरु गच्छ नाम। सेवक गच्छ नायक सही बेगड़, अविचल पामौ ठाम।" के अनुसार जिनेश्वरसूरि की यह परम्परा बेगड़ के नाम से ही प्रसिद्ध हुई। जिनेश्वरसूरि स्वयं छाजहड़ गोत्रीय थे, इसलिये परवर्तीकाल में यह गोत्र भी बेगड़ छाजहड़ कहलाया। इस शाखा का प्रमुख केन्द्र जैसलमेर था और प्रचार-प्रभाव सिन्ध में अधिक था। इसी परम्परा के आचार्यों द्वारा स्थापित एवं संवर्धित यह संग्रह है। इस परम्परा के यति वर्ग का विलोप हो जाने के कारण सिन्ध प्रदेश में इस शाखा के विद्वानों द्वारा सर्जित कोई साहित्य आज उपलब्ध नहीं है, जो कुछ उपलब्ध है वह जैसलमेर के इसी संग्रह में है। __इस शाखा में अनेक विद्वान एवं कवि आचार्यों ने राजस्थानी भाषा में विपुल साहित्य का सर्जन किया है, जिनमें जिनसमुद्रसूरि प्रमुख हैं, प्रसिद्ध हैं। इनकी लाख श्लोक प्रमाण से भी अधिक रचनायें प्राप्त हैं। इस शाखा के विद्वान कवियों द्वारा रचित निम्नांकित कतिपय रचनाओं की एकमात्र प्रतियाँ यहाँ प्राप्त हैं। ये कृतियाँ अन्यत्र प्राप्त नहीं हैं - कागज प्रति के क्रमांक कृति नाम कर्ता रचना संवत् 306 मृगापुत्रचरित्रसंधि जिनसमुद्रसूरि : 400 ऋषिदत्ताचौपाई महिमसमुद्र 1698 409 गुणावली-गुणकरंडकरास उदयसूरि 1773 411 जम्बूस्वामिचरितरास जिनेश्वरसूरि शिष्य 1603 हरिबलरास जिनसमुद्रसूरि 557 समुद्रप्रकाशविद्याविलासचौपाई जिनसमुद्रसूरि 643 भीमसेनचौपाई जिनसुन्दरसूरि . 1755 663 नवरससागर-उत्तमराजर्षि चरित्र रास जिनसुन्दरसूरि 665 वसुदेवचरित्र रास महिमसमुद्र 666 गुणसुन्दरचौपाई जिनसुन्दरसूरि 673 पांचपांडवरास जिनचन्द्रसूरि 694 तत्त्वप्रबोधनाटक जिनसमुद्रसूरि 1730 715 भर्तृहरिवैराग्यशतक टीका जिनसमुद्रसूरि हरिबलचरित्र-विबुधप्रियारास महिमसमुद्र 762 ज्ञानसुखड़ी धर्मचन्द्र 1767 431 1698 1740 719 - लेख संग्रह Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 810 आराधनाचुपई हरिकलशमुनि 1017 मनोरथमाला जिनसमुद्रसूरि 1708 1025 राजसिंघकुमारचतुष्पदी जिनचन्द्रसूरि 1687 1038 दिक्पटचौरासीबोलविसंवाद जिनसमुद्रसूरि 1491 विचारषट्त्रिंशिकाप्रश्नोत्तर जिनसमुद्रसूरि 1724 स्तवनादि स्फुट संग्रह (गुटका) आवश्यकता है इस शाखा के कवियों द्वारा निर्मित समस्त साहित्य बेगड़गच्छ ग्रन्थावली के नाम से प्रकाशित किया जाए। चित्रित काष्ठपट्टिकायें ताड़पत्रीय ग्रन्थों की सुरक्षा को दृष्टि में रखते हुए प्रति के ऊपर-नीचे शास्त्र के माप के अनुसार लकड़ी की सुदृढ़ पटड़ियाँ रखकर उसे डोरी से कसकर बाँध देते थे। ऐसी पटड़ियों में से 9 विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण पट्टिकायें इस समय प्रदर्शनी मंजूषा में आगन्तुक शोधार्थियों एवं दर्शनार्थियों के लिये रखी हुई हैं। ये सब पट्टिकायें चित्रित हैं। चित्रकलामर्मज्ञों और पुरातत्त्ववेत्ताओं की दृष्टि से ये पटड़ियाँ १२-१३वीं शती के पूर्वार्ध की हैं और बहुमूल्य हैं। आठ सौ-साढ़े साठ सौ वर्ष पुरानी पटड़ियों पर अंकित चित्र सुरम्य हैं, चित्रों के रंग शोभनीय हैं, नयनाभिराम एवं दर्शनीय हैं। इन पट्टिकाओं का परिचय है - 1. चित्र-पट्टिका पर श्रमण भगवान् महावीर के पाँचों कल्याणकों - च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण के दृश्य अंकित हैं। .2-3. चौबीस तीर्थङ्करों की माताओं के दर्शनीय चित्र अंकित हैं। 4. इस पट्टिका के एक ओर जलक्रीड़ा सम्बन्धी चित्र चित्रित हैं। इसी में 'जिराफ' का चित्र भी अंकित है, जो प्राणीशास्त्र की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इससे स्पष्ट है कि जिराफ भी भारतीय है अथवा भारतियों का इससे परिचय या ज्ञान था। ___ इस पट्टिका के दूसरी ओर चौदह महास्वप्न- हस्ति, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमालायुग्म, चन्द्र, सूर्य, ध्वज, पूर्णकलश, पद्मसरोवर, क्षीरसमुद्र, विमान, रत्नराशि, निर्धूम अग्निशिखा के चित्र हैं। नंदी, सरोवर, विषयक प्राकृतिक दृश्यों के चित्र हैं। भगवान ऋषभदेव के जीवन से सम्बन्धित हैं - (1) आदिनाथ प्रभु को भिक्षा में हाथी, घोड़ा, रत्न, स्त्री दान को अस्वीकार करते हुए और श्रेयांसकुमार का इक्षुरसदान स्वीकार करते हुए दिखाया गया है। (2) भगवान् ऋषभ के पालित पुत्र नमि और विनमि द्वारा राज्ययाचना आदि के प्रसंग हैं। यह निशीथ सूत्र की पट्टिका है। इस पट्टिका का रंग अधिक गहरा और नयनाभिराम है। हाथी, सिंह आदि प्राणियों के शोभन चित्र हैं। साथ ही इस पर 'निसीहभाष्यपुस्तकं श्री जयसिंहाचार्याणम्' लेख है। इससे स्पष्ट है कि यह निशीथ भाष्य की प्रति श्री जयसिंहाचार्य की है।। 8. यह पट्टिका चित्ररहित होने पर भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह खरतरगच्छालंकार महाप्रभाविक युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज के नाम से अलंकृत है, पट्टिका पर लिखा है - 'लेख संग्रह Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ॥छ॥ श्री मज्जिनदत्तसूरीणां दशवैकालिकवृत्तिचूर्णिश्च // छ / प्रधानाक्षरा // " यह १२वीं शती के अन्तिम चरण की है। क्रमांक 85 की ये पटड़ियाँ हैं। यह चित्रपट्टिका खंडित है। इस पर भगवान् महावीर के जीवन प्रसंगों का चित्रांकन है। 10. इस पट्टिका पर त्रिभुवनगिरि के नरपति कुमारपाल आचार्य जिनदत्तसूरि की सेवा में भक्त मुद्रा में बैठे हैं। साथ ही अन्य आचार्य, साधु और भक्तों के नामांकित चित्र हैं। उल्लेख है - 'गुणसमुद्राचार्य। पण्डित ब्रह्मचन्द्र / सहणपाल / अनंग / नरपति श्रीकुमारपालभक्तिरस्तु / श्रीजुगप्रधानागम श्रीमजिनदत्त सूरयः।' नामांकित चित्रयुक्त होने से यह पटड़ी भी अत्यन्त महत्त्व की है। यह पट्टिका वस्तुतः जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार की ही है, किन्तु वर्तमान में थाहरुशाह ज्ञान भंडार में सुरक्षित हैं। .. इस भंडार की अन्य भी कई नामांकित वादीदेवसूरि, जिनदत्तसूरि आदि की चित्रपट्टिकायें यहाँ से गायब हो गई हैं / चार पट्टिकाओं की तो मुझे जानकारी है। दो पटड़ियाँ तो एक पुरातत्त्वाचार्य ने दिल्ली के एक व्यापारी को बेच दी थीं। उसने आगे विदेशियों को बेची या नहीं, ज्ञात नहीं है। एक पटड़ी पालीताणा के ज्ञान भंडार में है और एक बीकानेर के संग्रहालय में सुरक्षित है। इस प्रकार विविध दृष्टियों से इस भंडार/संग्रह का विश्लेषण करने पर स्पष्टतः सिद्ध होता है कि ताड़पत्रीय ग्रन्थों की बहुलता, प्राचीनतम विविध विषयक शास्त्रों की प्रचुरता, अन्यत्र अप्राप्त ग्रन्थों की अधिकता एवं 800-900 वर्ष पूर्व की चित्रित काष्ठ-पट्टिकाओं आदि के कारण यह संग्रह वस्तुतः अमूल्य है, बेजोड़ है और अद्वितीय है। [महोपाध्याय विनयसागर-जीवन, साहित्य और विचार] ____om - लेख संग्रह Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों की अप्रकाशित संस्कृत व्याख्यायें गणिपिटक के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त एकादशांग अंगप्रविष्ट आगम कहलाते हैं। नन्दीसूत्र और आवश्यक सूत्र का अंश पाक्षिक सूत्र के अनुसार अंगबाह्य आगमों के कालिक और उत्कालिक भेद प्राप्त होते हैं / तदनुसार उपांग, प्रकीर्णक, छेद, मूल सूत्रादि का अंगबाह्य में ही समावेश होता है। प्राचीन उल्लेखों की गणनानुसार अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगमों की संख्या 84 मान्य रही है। इनमें से कतिपय आगम आज उपलब्ध भी नहीं है। लगभग 10-11 शताब्दियों से मान्य परम्परा में आगमों की संख्या 45 मान्य रही है / यथा - 11 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्णक, 6 छेद, 4 मूल और 2 चूलिका सूत्र / स्थानकवासी और तेरापंथी समुदायों की मान्यतानुसार आगमों की संख्या 32 ही अंगीकृत रही है। आगम साहित्य, व्याख्या साहित्य के कारण पंचांगी के नाम से भी मान्य एवं प्रसिद्ध है। पंचांगी अर्थात् मूल, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका। . मूल - तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा अर्थरूप में वर्णित, गणधरों द्वारा सूत्र रूप में गुम्फित और सक्षम पूर्वाचायों द्वारा वाचनाओं के माध्यम से स्थापित एवं सुरक्षित सूत्रपाठ मूल आगम हैं। : नियुक्ति और भाष्य - व्याख्या साहित्य में नियुक्तियाँ और भाष्य मूलत: मूलागम भाषा अर्थात् प्राकृत भाषा में आबद्ध हैं और पद्यबद्ध हैं। नियुक्तियों का मुख्य प्रयोजन मूल ग्रन्थों में आगत पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या रहा है तो भाष्य इन शब्दों में छिपे हुए अर्थबाहुल्य को अभिव्यक्त करते हैं। नियुक्तिकारों में मुख्यत: आचार्य भद्रबाहु और गोविन्दाचार्य हैं तो. भाष्यकारों में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण एवं संघदासगणि मुख्य हैं। चूर्णि - चूर्णियाँ प्राकृत अथवा संस्कृत मिश्र भाषा में है। चूर्णियाँ नियुक्तियों का अनुसरण करती हुई आगमगत मुख्य शब्दों और पदों को चूर्ण-चूर्ण कर मूल के रहस्य को अधिकाधिक स्पष्ट करने का प्रयास करती हैं। चूर्णिकारों में मुख्यतः जिनदासगणि महत्तर, अगस्त्यसिंह, सिद्धसेन, प्रलम्बसूरि आदि हैं। टीका - संस्कृत भाषा में निर्मित व्याख्या साहित्य / इसमें प्राचीन नियुक्ति, भाष्य और चूर्णियों में प्रतिपादित विषयों का विस्तृत विवेचन तथा नये-नये हेतुओं और दृष्टान्तों द्वारा उन्हें पुष्ट किया गया है। व्याख्याकारों ने टीका शब्द के पर्याय के रूप में अनेक शब्दों का प्रयोग किया है। जैसे - वृत्ति, बृहद्वृत्ति, विवृत्ति, विवरण, विवेचन, व्याख्या, वार्तिक, दीपिका, अवचूरि, अवचूर्णि, टिप्पनक, आदि। आगमसाहित्य पर शताधिक व्याख्याकारों ने शताधिक व्याख्या साहित्य का निर्माण किया है जिनमें से प्रमुख टीकाकारों के रूप में दिग्गज, आप्त एवं उल्लेखनीय हैं:- जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, याकिनीमहत्तरासूनु, हरिभद्रसूरि, कोट्यार्य, कोट्याचार्य, शीलांकाचार्य, नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरि, वादिवेताल, शान्तिसूरि, द्रोणाचार्य, मलयगिरि, मलधारी हेमचन्द्राचार्य, नेमिचन्द्रसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, तिलकसूरि, नमिसाधु, क्षेमकीर्ति आदि। लेख संग्रह 13 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याख्याओं के अतिरिक्त प्राचीन राजस्थानी, मरु गुर्जर, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाओं में आगम-साहित्य पर जो विस्तृत विवरण लिखे गये हैं वे बालावबोध के नाम से और जो संक्षिप्त विवरण लिखे गये हैं वे स्तवक (टब्बा) के नाम से प्रसिद्ध हैं / आज के समय में अनुवाद या विवेचन शब्द प्रचलन है। भाषा-टीकाओं में भी तरुणप्रभाचार्य, पार्श्वचन्द्रसूरि, समरचन्द्रसूरि आदि अनेकों व्याख्याकारों के शताधिक बालावबोध आदि प्राप्त होते हैं। यद्यपि संस्कृत भाषा में सर्जित आगमिक टीका साहित्य का विभिन्न संस्थाओं द्वारा विपुल परिमाण में प्रकाशन हुआ है तदपि अब भी प्रचुर परिमाण में प्रकाशन योग्य साहित्य शेष है, जो कि प्रकाशन की प्रतीक्षा में संस्थानों/भण्डारों में विद्यमान है। आगमिक व्याख्या साहित्य में जो टीका साहित्य अद्यावधि अप्रकाशित है उसकी सामान्य शोध के अनुसार तालिका प्रस्तुत कर रहा हूँ। विशेष अध्ययन और अन्वेषण करने पर अन्य अनेक अप्रकाशित टीका साहित्य की उपलब्धि हो सकती है। तालिका ग्रन्थ-नाम टीका-नाम टीकाकार ई० सं० विशेष 1. आचारांग सूत्र (1) आचार चिन्तामणि जिनचन्द्रसूरि १८वीं रा.प्रा.वि.प्र., जोधपुर (2) तत्त्वावगमा. लक्ष्मीकल्लोल 1546 (3) दीपिका. अजितदेवसूरि 1629 2. स्थानांग सूत्र (1) दीपिका. नगर्पि 1657 (2) टीका. जिनराजसूरि १७वीं : अनुपलब्ध (3) गाथागतवृत्ति हर्पनन्दन, सुमतिकल्लोल• 1705 3. भगवती सूत्र (1) टीका जिनराजसूरि १७वीं चम्पालाल वैद - भीनासर संग्रह (2) टीका भावसागर - 1571 (3) टीका सोमसुन्दरसूरि. १६वीं 4. ज्ञाताधर्मकथा (1) टीका लक्ष्मीकल्लोल. (2) टीका कस्तूरचन्द्रगणि.. 1899 5. उपासकदशा सूत्र (1) टीका हर्षवल्लभ. 1693 (2) टीका विवेकहंस. 6. प्रश्नव्याकरण सूत्र (1) टीका अजितदेवसूरि / १७वीं 7. राजप्रश्नीय सूत्र (1) टीका रत्नप्रभसूरि 8. जीवाभिगम सूत्र (1) टीका पद्मसागर 1700 (2) टीका जीवविजय 9. प्रज्ञापना तृतीय पद (1) टीका कुलमण्डन संग्रहणी 10. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (1) टीका पुण्यसागरोपाध्याय 1645 (2) टीका उ० धर्मसागर- 1639 हरिविजयसूरि (3) टीका ब्रह्मर्पि 11. चतु:शरण प्रकीर्णक (1) अवचूरि गुणरत्नसूरि लेख संग्रह १६वीं Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं (2) अवचूरि (3) अवचूरि (4) वृत्ति (5) चूर्णि 12. आतुरप्रत्याख्यान (1) विवरण (2) अवचूरि (3) अवचूरि (4) टीका 13. भक्तपरिज्ञा (1) अवचूरि 14. संस्तारक प्रकीर्णक (1) अवचूरि (2) अवचूरि 15. गच्छाचार प्रकीर्णक (1) वृत्ति 16. दशाश्रुतस्कन्ध (1) टीका (2) टीका भुवनतुंगसूरि सोमसुन्दरसूरि विनयराजगणि विजयसेनसूरि गुणरत्नसूरि धर्मघोपसूरि भुवनतुंगसूरि सोमसुन्दरसूरि गुणरत्नसूरि गुणरत्नसूरि भुवनतुंगसूरि हर्पकुल ब्रह्मर्पि मतिकीर्ति १५वीं १५वीं 1697 जैन स्थानक लुधियाना में प्राप्त 17. बृहत्कल्पसूत्र १६वीं 18. जीतकल्प 19. उत्तराध्ययन सूत्र 1274 1441 1552 1550 1711 (1) अवचूरि सौभाग्यसागर (2) बृहत्कल्पादि साधुरंग उ० __ छेदग्रंथलघुभाष्यादि टिप्पण (1) वृत्ति श्रीतिलकसूरि (1) अवचूरि ज्ञानसागरसूरि (2) वृत्ति . विनयहंस (3) वृत्ति कीर्तिवल्लभगणि (4) लघुवृत्ति तपोरन वाचक (5) दीपिका माणिक्यशेखरसूरि (6) टीका अजितदेवसूरि (7) चूर्णि गुणशेखर (8) टीका वादी हर्पनन्दन (9) मकरन्द धर्ममन्दिर (10) टीका उदयसागर (11) दीपिका हर्पकुल. (12) वृत्ति मुनिचन्द्रसूरि. (13) अवचूरि. ज्ञानशीलगणि. (14) दीपिका. चारित्रचन्द्र. (15) टीका. मणिकीर्तिशिष्य. (16) टीका. राजशील. (17) टीका उदयविजय (18) टीका नगर्पि (1) नियुक्ति अवचूरि सोमसुन्दरसूरि (2) नियुक्ति अवचूरि सुधावर्धनगणि (3) नियुक्ति अवचूरि धर्मसुन्दर 1750 1546 1723 १८वीं 20. आवश्यक सूत्र 1540 1500 लेख संग्रह 15 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1723 1439 १५वीं (4) लघुवृत्ति. (5) वृत्ति. (6) व्याख्या. 21. दशवैकालिक सूत्र (1) नियुक्ति अवचूरि / (2) टीका (3) वृत्ति (4) दीपिका (5) दीपिका (6) अवचूरि (7) टीका 22. ओघनियुक्ति (1) अवचूरि (2) दीपिका (3) उद्धार २३.पिण्डनियुक्ति (1) दीपिका (2) अवचूरि 24. नन्दीसूत्र (1) टीका (2) प्रभा टीका 25. ज्योतिएकरण्डक (1) टीका 26. कल्पसूत्र (1) कल्पनियुक्तिवृत्ति (2) दुर्गपदनिरुक्त (3) वृत्ति (4) कल्पलता (5) दीपिका (6) मंजरी (7) सुखबोधिका (8) सुखावबोध (9) कल्पलता (10) कल्पोद्योत (11) टीका (12) कौमुदी (13) दानदीपिका (14) कल्पसुबोधिका (15) कल्पबोधिनी (16) दीपिका (17) टीका (18) कल्पचन्द्रिका (19) अवचूरि. (20) अवचूरि (21) अवचूरि (22) अवचूरि कुलप्रभ राजवल्लभ हितरुचि ज्ञानसागरसूरि तिलकाचार्य विनयहंस माणिक्यशेखरसूरि चारित्रचन्द्र शान्तिदेवसूरि सोमविमलसूरि ज्ञानसागर माणिक्यशेखरसूरि गुणरत्नसूरि माणिक्यशेखरसूरि क्षमारत्न यशोदेवसूरि जिनचारित्रसूरि पादलिप्ताचार्य जिनप्रभसूरि विनयचन्द्र मेरुतुंगसूरि शुभविजय जयविजयगणि सहजकीर्ति अजितदेवसूरि जयसागरसूरि गुणविजय नयविजय राजसोम शान्तिसागर दानविजय कीर्तिसुन्दर न्यायसागर भावविजय धीशेन्द्रसिंह सुमतिहंस जिनसागरसूरि. अमरकीर्ति. उदयसागर. महीमेरु उ०. 1671 1677 1685 1698 १७वीं 1706 1707 1750 1761 1788 १८वीं 1812 १८वीं. 1443. 1644 - लेख संग्रह Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1457 १६वीं (23) कल्पान्तर्वाच्य कुलमण्डलसूरि (24) कल्पान्तर्वाच्य गुणरत्नसूरि (25) कल्पान्तर्वाच्य सोमसुन्दरसूरि (26) कल्पान्तर्वाच्य रत्नशेखरसूरि (27) कल्पान्तर्वाच्य जयसुन्दरसूरि (28) कल्पान्तर्वाच्य भक्तिलाभोपाध्याय (29) कल्पान्तर्वाच्य जिनहंससूरि १६वीं (30) कल्पान्तर्वाच्य जिनसमुद्रसूरि १८वीं इन व्याख्याओं में से जिनराजसूरि कृत भगवती सूत्र टीका, कस्तूरचन्द्रगणिकृत ज्ञाताधर्मकथा सूत्र टीका, जीवविजय की प्रज्ञापना टीका, पुण्यसागरोपाध्याय की जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र टीका, मतिकीर्ति की दशाश्रुतस्कन्ध टीका, वादी हर्षनन्दन की उत्तराध्ययन सूत्र टीका, माणिक्यशेखरसूरि की ओघनियुक्तिपिण्डनियुक्ति टीकायें, वीरगणि की पिण्डनियुक्ति टीका, पादलिप्ताचार्य की ज्योतिष्करण्डक टीका आदि तो वैशिष्ट्य एवं महत्वपूर्ण होने से प्रकाशन योग्य हैं। इनका प्रकाशन तो अवश्यमेव एवं शीघ्रातिशीघ्र होना चाहिए। निबन्ध का शीर्षक 'जैनागमों की अप्रकाशित संस्कृत व्याख्यायें' होने से अप्रकाशित भाषा टीकाओं - बालावबोध, स्तबक आदि का इस सूची में समावेश नहीं किया है। उपर्युक्तं तालिका में 'जिनरत्नकोष' जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, खरतरगच्छ साहित्य सूची आदि का उपयोग किया है, अतः इन पुस्तकों के लेखकों का मैं आभारी हूँ। [ज्ञानयोगी मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमलः सम्मान सौरभ'] 000 लेख संग्रह Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन स्तोत्र साहित्य : एक विहंगावलोचन भारतीय-साहित्य की अनेक विशेषताओं में से एक प्रमुख विशेषता उसका विशाल स्तोत्र साहित्य भी है। भारत विशाल देश है। अनेक जातियाँ और विभिन्न धर्मों के अनुयायी यहाँ निवास करते हैं। भारतीय संस्कृति के विकास में सभी का समान रूप से योगदान रहा है और संस्कृति और सभ्यता के आधारभूत साहित्य के विकास में भी वह किसी प्रकार कम नहीं कहा जा सकता। बौद्धों का साहित्य विशाल है, जैनों का भी। शैव, शाक्त और वैष्णव जो हिन्दुओं में गिने जाते हैं, उनके ज्ञान का अजस्र भंडार उसके साहित्य में लिपिबद्ध है। द्रविड़ भाषाओं का साहित्य किसी भी तरह भाषा और भाव की दृष्टि से आर्य भाषाओं के साहित्य से कम नहीं है। भील, संथाल, मुंडा आदि जातियों का लिखित साहित्य यद्यपि नहीं मिलता, किन्तु उनके प्राप्य लोक-साहित्य से उनके भावस्तर का अनुमान लगाया जा सकता है। यह कहना असंगत न होगा कि भारत में जो कुछ भारतीयता है, वह किसी विशेष जाति या धर्म की सम्पत्ति नहीं है, वरन् सभी जातियों, की सभी धर्मानुयायियों की सम्मिलित सम्पत्ति है। भारतीय विश्वास और विचारधारा पर भी सभी देशवासियों की छाप अमिट है और बहुमूल्य की कही जा सकती है प्रत्येक जाति की देन / सारे देश को यदि हम समुद्र कहें तो उसके गर्भ में बिखरे हुए जो मोती हैं, उनको जन्मस्थान के आधार पर वर्गों में विभक्त नहीं किया जा सकता। समान आभा वाले, दो मोतियों को देखकर यदि उनका पारखी भी यह कहे कि 'इसमें एक मोती तो खंभात की खाड़ी का है, अच्छा है, दूसरा फारस की खाड़ी से किसी तरह बह कर आ गया है, वह पहले से कम मूल्यवान है।' तो उसकी बात पर मूर्ख भी हँसने लगेगा। वस्तु की विशेषता उसके गुणों से प्रकट होती है, वह जन्मदाताओं के गुणों पर निर्भर नहीं रहती। भारतीय साहित्य के विषय में भी यह बात उतनी ही सत्य है। भारत के इस साहित्योद्यान में जाति-कुसुम भी हैं, रजनीगन्धा भी, यूथिका भी हैं, मल्लिका भी, पाटल भी हैं, कुमुद भी, बकुल भी हैं, रसाल भी। सभी की शोभा दर्शनीय है और सभी की सौरभ स्वर्गिक-आनन्द प्रदान करने में सक्षम है। एक ही सुरभि दूसरे का विरोध नहीं करती और न इस बात से ही उनका विरोध है कि किस लता में किसने पानी दिया है। हो सकता है उद्यानपाल ने केवल एक ही जाति के पुष्पों की अभिवृद्धि में रुचिपूर्वक भाग लिया हो, दूसरी जाति के पुष्पों की अभिवृद्धिं में उसके बालकों अथवा मित्रों का योग रहा हो; परन्तु प्रसून और उसके मकरन्द की शोभा व सुरभि पर तो इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भारतीय साहित्य की सम्पूर्णता में सभी जातियों का योग अवश्यमेव रहा है, किन्तु महत्व की दृष्टि से उनमें से किसी एक का योग किसी दूसरे के प्रयत्नों से कम नहीं है। बौद्ध, जैन, हिन्दू या किसी अन्य विचारधारा से किसी का मतभेद हो सकता है, परन्तु उनके सत्य ने महान् विचारकों के मन में अवतरित होकर भारतीय ही नहीं, विश्वभर के मानव-समान को मार्ग खोजने के लिए जो आलोक दिखाया है, उससे उस विचारधारा का विरोधी भी लाभान्वित हो सकता है। 18 लेख संग्रह Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी के समन्वित प्रयत्नों का परिणाम - भारतीय साहित्य भी प्रत्येक भारतीय की सम्पत्ति है और वह उससे लाभ उठाने का अधिकार रखता है और उसकी विशेषताओं पर - गुणों पर गर्व अनुभव करने को स्वतन्त्र है। - स्तोत्र साहित्य भारतीय साहित्य का हृदय कहा जा सकता है। सभी जातियों ने स्तोत्र रचना में अपना बहुमूल्य योग दिया है। बौद्धों ने बुद्ध भगवान् की, जैनों ने अर्हत् की, वैष्णवों ने विष्णु व उनके रूपों की, शैवों ने शिव की, शाक्तों ने भगवती दुर्गा की और अन्य लोगों ने अपने इष्टदेवों की स्तुति मधुरतम गीयमान स्तोत्रों द्वारा की है, आत्मनिवेदन किया है, श्रद्धा के प्रसून अर्पित किए हैं, यहाँ तक कि आदिवासी जातियों ने भी अपने संकेत-देवों (Totems) की स्तुति की है, जिनका अवशिष्ट रूप अब भी लोकगीतों में सुरक्षित है। पीपल आदि पेड़ों, सर्पो, जलाशयों आदि से सम्बन्धित गीत संकेत-देवों की स्तुतियों के अवशेष ही हैं। __ भारत में समन्वयवादी साधना के जीते-जागते प्रतीक विभिन्न धर्मावलम्बियों के स्तोत्र हैं। स्तोत्रों के विषय भिन्न हो सकते हैं, उनमें इष्टदेवों के नाम भी अलग-अलग हो सकते हैं, किन्तु उन सभी का उत्पत्ति स्थल - हृदय एक है, जो जाति व धर्म की सीमाओं में निबद्ध नहीं है। सभी स्तोत्रों के रचयिता मधुर रस के उपासक हैं और इसीलिए वे इन सभी सीमाओं से परे - मानव जाति के हृदय का अनावृत्त दर्शन करके उसकी अनुभूतियों को शब्द-बद्ध करने में सफल होते हैं। यद्यपि स्तोत्रों में स्तोताओं की वैयक्तिक अनुभूतियों की ही अभिव्यक्ति होती है, किन्तु उनमें मधुरतम प्रवृत्ति-प्रेम की अनेकधा व्याख्या होने से मानमात्र की अनुभूतियों का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता विद्यमान रहती है। स्तोत्रों की इस विशेषता के साथ ही एक और भी विशेषता है, जो उन्हें साहित्य की अन्य विधाओं से पृथक् स्थान प्रदान करती है। स्तोत्र द्वारा भक्त-हृदय स्वच्छन्दतापूर्वक अपने भावों को इष्टदेव के सम्मुख प्रस्तुत करता है। हृदय का आवरणरहित स्वरूप उसमें देखा जा सकता है। निरावृत्त व मुक्त हृदयं का आत्मनिवेदन ऐसी भाषा में अभिव्यक्त होता है, जिसे भाषा न जानने वाला भी किसी-न-किसी तरह समझ लेता है। स्तोता की भाषा विशुद्ध मानव-हृदय की भाषा होती है जिस पर बुद्धि व तज्जन्य प्रपंचों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। स्तोता की मधुर अनुभूतियों को स्वतः ही मधुरतम शब्द मिल जाते हैं जिसके लिए रचना-कौशल की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी अनुभूति की सघनता की। पावस-ऋतु में जैसे जीवनदायक मेघों की फुहार पड़ते ही बीजों में अंकुर उत्पन्न होने लगते हैं, उसी तरह सघन-अनुभूतियाँ मधुरतम शब्दों में मूर्त होने लगती हैं। इस कार्य में किसी तरह के प्रयत्नों का कोई हाथ नहीं होता। ___साहित्य लोकमानस की अनुभूतियों का संचित रूप है, किन्तु लोक-मानस की अनुभूतियों का सच्चा दर्शन हमें स्तोत्रों में मिलता है। उसमें स्तोता का हृदय लोकमंगल के लिए क्रन्दन करता है और उसी के लिए हँसता है। उसके हृदय का स्पन्दन स्तोत्र को अनुप्राणित करता है। इसीलिए साहित्य की अन्यतम विधा के रूप में स्तोत्रों का महत्व सर्वोपरि है। स्तोत्र-साहित्य का विकास स्तोत्र का प्रारम्भिक रूप सृष्टि के प्राचीनतम लिखित ग्रन्थ ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद के ऋषियों ने प्रकृति की शक्तियों में देवत्व का दर्शन करके, उनके विग्रह की अनेकधा स्तुति की है। स्तवन की यह परंपरा आदि-काल से ही चली आई है जिसका विकसित रूप ऋग्वेद में देखा जा सकता है। लेख संग्रह 19 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋग्वेद के स्तवनों में इन्द्र, वरुण, उषा आदि देवताओं से सम्बन्ध रखने वाले सूक्त भाषा, भाव और शैली सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट है और तत्कालीन मानव-मस्तिष्क की उदात्त अनुभूतियों के साथ-साथ अभिव्यक्ति कौशल का भी जीता-जागता स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत कर देते हैं। उषा का स्वरूप देखिये - उषा वाजेन वाजिनि प्रचेताः स्तोमं जुषस्व गृणतो मघोनि। पुराणी देवि युवतिः पुरंधिरनु व्रतं चरसि विश्ववारे॥ उषो देव्यमा वि भाहि चन्द्ररथा सूनृता ईरयन्ती। आ त्वा वहन्तु सुयमासो अश्वा हिरण्यवर्णां प्रथुपाजसो ये॥ अर्थात् - हे अन्नवती तथा धनवती उषा, प्रकृष्ट ज्ञानवती होकर तुम स्तोत्र करने वाले स्तोता का स्तोत्र ग्रहण करो। हे सबके द्वारा वरणीया, पुरातनी, युवती की तरह शोभमाना और बहुस्तोत्रवती उषा, तुम यज्ञकर्म को लक्ष्य करके आती हो। हे मरण धर्म-रहिता, सुवर्णमय रथवाली उषादेवी, तुम सत्य स्वरूप वचन का उद्घाटन करने वाली हो। तुम सूर्यकिरणों से प्रकाशित होओ। प्रभूत बलवाले जो अरुण वर्ण के अश्व हैं वे सुखपूर्वक रथ में योजित किए गए हैं वे तुमको वहन करें। उषा के उक्त स्तव तथा अन्य देवताओं की स्तुतियों में सहज-सरल अनुभूतियों के साथ प्रसन्न गम्भीर भाषा का अपूर्व सामंजस्य देखने को मिलता है। सामदेव तो गेय स्तोत्रों का संकलन है ही, यतुर्वेद और अथर्ववेद में भी स्तोत्र मिलते हैं। अथर्थवेद के पृथ्वी-सूक्त के कुछ मन्त्र देखिये - यस्याश्चतस्त्रः प्रदिशः पृथिव्या यस्यामनः कृष्टयः संबभूवुः। या विभतिं बहुधा प्राणदेजत् सानो भूमिर्गोष्वप्यन्ने दधातु। यस्यां वृक्षा वानस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति विश्वहा। पृथिवीं विश्वधायसं धृतामच्छा वदामसि॥ निधि विभ्रति बहुधा गुहा वसु मणि हिरण्यं पृथिवी ददातु मे। वसूनि नो वसुदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना॥ अर्थात् - जिसकी चार दिशाएँ हैं, जहाँ कृषि की जाती है, जो अनेक प्राणियों की रक्षा करती है, वह मातृभूमि हमें गौओं और अन्न से संयुक्त करें। जहाँ चारों ओर वृक्ष और वनस्पति अडिग खड़े हैं, उस विश्वधारिका पृथ्वी माता का हम गुणानुवाद करते हैं। विविध वैभवों वाली पृथ्वी मुझे मणि व स्वर्ग प्रदान करें। प्रसन्न-वदना, वरदात्री और धनरत्नधात्री वसुधे, हमें अमित वैभव प्रदान कर। पृथ्वी सूक्त में धारिणी-धरित्री के प्रति नमन करते हुए स्तोता उसका गुणगान करतें हैं। इस प्रेम में राष्ट्रीयता का प्रारम्भिक रूप देखा जा सकता है। 'मातृभूमिः पुत्रोऽहम् पृथिव्याः' की उद्घोषणा पृथ्वीसूक्त में ही मिलती है। वेदों में इस प्रकार के अनेक स्तोत्र सुरक्षित हैं / देवताओं की स्तुति के लिए ही नहीं, राजाओं और विशिष्ट पुरुषों के सम्मान में भी स्तोत्र रचना की जाती थी। ऐसे स्तोत्र नाराशंसी कहे गए हैं। वेदों की इस स्तोत्र-परम्परा का आगे के साहित्य में प्रभूत विकास हुआ है। रामायण, महाभारत, पराणादि में यद्यपि स्तोत्र अलग करके नहीं लिखे गए हैं. फिर भी उन्हें अलग किया जा सकता है और ऐसा किया भी गया है। इस ग्रन्थों का सम्यक् अनुशीलन करके कहा जा सकता है कि इनके लेखकों का हृदय सबसे अधिक विशिष्ट देवताओं के स्तवन में रमा है। कम से कम पुराणों के विषय में तो यह कहा 20 लेख संग्रह Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही जा सकता है कि उनमें कुछ प्रसंग उपस्थित करके बरबस स्तोत्रों को मोतियों की लड़ी के समान ग्रथित किया गया है। स्तोत्रों का भाषाप्रवाह, सहज अनुभूति का व्यक्तिकरण, स्तोता का विनय-प्रदर्शन, इष्टदेव की उदारता का संकीर्तन सर्वथा श्लाघनीय व माननीय है। इन स्थलों का भक्तजनों में सबसे अधिक समादर है और कतिपय पुराण व उनके प्रसंग विशेषों की प्रसिद्धि का रहस्य तो कम से कम यही है। श्री मद्भागवत का दशम स्कन्ध इसीलिए सर्वप्रिय है। यहाँ तक कि यह भी कहा जा सकता है कि वह अतिशय न होगा कि सारे पुराणों में केवल उनके स्तवन ही जन-काव्य के स्तर तक पहुँच पाते हैं। - भाषा और भाव दोनों दृष्टिकोणों से उत्कृष्ट श्रीमद्भागवत का प्रह्लाद कृत भगवत्स्तुति का यह प्रसंग पौराणिक स्तोत्र-परम्परा पर प्रकाश डालता है। क्वाहं रजः प्रभवईश तमोऽधिकेऽस्मिञ्जातः सुरेतरकुले व तवानुकम्पा। न ब्रह्मणो न तु भवस्य न वै रमाया यन्मेऽर्पितः शिरसि पद्मकरः प्रसादः॥ नैषा परावरमतिर्भवतो ननु स्याजन्तो यथाऽऽत्मसुहृदो जगतस्तथापि। संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसादः सेवानुरूप मुदयो न परावरत्वम्॥ एवं जनं निपतितं प्रभवाहि कूपे कामाभिकाममनु यः प्रपतन् प्रसंगात्। कृत्वाऽऽत्मसात् सुरषिंणा भगवन् गृहीतः सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम्॥ लौकिक साहित्य में इस स्तोत्र-परम्परा का और भी विकास हुआ। संस्कृत साहित्य के सभी महाकाव्यों में स्तुतियाँ मिलती हैं। प्रसंग से अलग करने पर भी उनमें भाव सम्बन्धी कोई त्रुटि नहीं आ पाती। कुमारसंभव के द्वितीय सर्ग के ये श्लोक पौराणिक शैली का प्रसन्न-माधुर्य उपस्थित करते हैं: - उद्घात प्रणवो यासां न्यायैस्त्रिभिरुदीरिणम्। कर्मयज्ञ फलं स्वर्गस्तांसां त्वं प्रभवो गिराम्॥ त्वामामनन्ति प्रकृतिं पुरुषार्थ प्रवर्तिनीम्। तद्दर्शिनमुदासीनं त्वामेव पुरुषं विदुः॥ त्वं पितणामपि पिता देवानामपि देवता। परमोऽपि परश्चापि विधाता वेधसामपि॥ त्वमेव हव्यं होता च भोज्यं भोक्ता च शाश्वतः। त्वं वेद्यं वेदिता चासि ध्याता ध्येयं च यत्परम्॥ - इस प्रकार के स्तोत्र-रत्न महाकाव्यों में ही जड़े हुए हों, ऐसी बात नहीं है; स्वतन्त्र रूप में भी स्तोत्र रचना हुई है। भक्त कवियों ने अनेक अष्टकों, चतुर्दशकों, चत्वारिंशकों, शतकों आदि की रचना करके अपने-अपने इष्टदेवों की श्रद्धापूर्वक अर्चना की है। स्तोत्रकारों में बाणभट्ट, मुरारि, शंकराचार्य, यामुनाचार्य, वल्लभाचार्य, जगद्धर भट्ट, पंडितराज जगन्नाथ आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। बाणभट्ट ने चण्डी शतक में भगवती चण्डी की स्तुति की है। मुरारि ने सूर्यशतक की रचना की है। 'आलविन्दार स्तोत्र' कृष्णभक्तों में सबसे अधिक प्रचलित हैं। पंडितराज ने 'गंगालहरी' की रचना की है। ये रचनाएँ माधुर्य व प्रवाह दोनों दृष्टियों से अन्यतम हैं। शंकराचार्य और वल्लभाचार्य के अनेक स्तोत्र मिलते हैं। शंकराचार्य जब जिस देवता की स्तुति करते हैं, उसकी भक्ति में तल्लीन हो जाते हैं। यह तल्लीनता ही उनके स्तोत्रों के महत्व का प्रमुख कारण है। वे कृष्ण की स्तुति करते हैं - लेख संग्रह Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विना यस्य ध्यानं व्रजति पशुतां सूकरमुखां विना यस्य ज्ञानं जनिमृतिभयं पापि जनता विना यस्य स्मृत्या कृमिशतजनिं याति स विभुः शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षि विषयः। उसी तल्लीनता में वे गंगा की स्तुति भी करते हैंअलकानन्दे परमानन्दे कुरु मयि करुणां कातर वन्द्ये तव तट निकटे यस्य निवासः खलु वैकुण्ठे तस्य निवासः। भक्तिरस के आनन्द को शंकराचार्य वाणी से अवर्ण्य मानते हैं। वे इस बात को देवी की स्तुति करते हुए इस प्रकार कहते हैं- .. घृत-क्षीर-द्राक्षा-मधु-मधुरिमा कैरपि पदैविशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्र विषयः। तथा ते सौन्दर्यं परमशिवदडमात्र विषयः कथंकार ब्रूमः सकल निगमागोचर गुणे॥ इसी तरह वल्लभाचार्य ने भी भक्तिनत होकर अनेक स्तोत्रों की रचना की है। यमुनाष्टक के कुछ श्लोक देखिये - नमामि यमुनामहं सकल सिद्धि हेतुं मुदा मुरारि पदपंकज स्फरदमन्दरेणूत्कराम्। तटस्थ नवकाननं प्रकट मोद पुष्पाम्बुना सुरासुरसुपूजितस्मरपितुः श्रियं बिभ्रतीम्॥ कलिन्द गिरिमस्तके पतदमन्दपूरोज्वला विलासगमनोललसत्प्रकट गण्ड शैलोन्नता। सघोषगतिदन्तुरा समधिरूढ़दोलोत्तमा, मुकुन्दरतिवर्धिनी जयति पद्मबन्धोः सुत। रामानुजाचार्य, तुलसीदास आदि के स्तोत्र भी भक्तिरस से ओतप्रोत और साथ ही साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं / जयदेव का गीतगोविन्द तो मधुररस की सुन्दर पुष्करिणी है जिसमें अद्यतन अनेक भक्तलोग अवगाहन किया करते हैं। इसी स्तोत्र-परम्परा में हिन्दी भक्त-कवियों के पद भी आते हैं। भक्ति से आप्लावित पद रचनाकारों में विद्यापति, सूरदास, मीराँ, रहीम, तुलसीदास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। बौद्ध कवियों ने भी प्रभूत स्तोत्र-रचना की है। आर्य सत्यों का उद्घाटन करके दुःखदलन करने वाले महात्मा बुद्ध शीघ्र ही देवत्व की विशिष्टताओं से समुपेत हो गए और उनको भक्तिपूर्वक भावप्रसून अर्पित किये जाने लगे। बौद्ध धर्म मूलतः आचार प्रधान धर्म है। भगवान् बुद्ध ने 'आचारः परमोधर्मः' की उद्घोषणा करके सर्वप्रथम आचार को जीवन की सबसे अधिक महत्वपूर्ण वस्तु बतलाया था। बौद्ध धर्म का इससे अधिक सरल व स्पष्ट रूप क्या हो सकता है? - सब्ब पापस्स अकरणं कुसलस्स उपसंपदा। सचित्तपरियोदपनं एतं बुद्धानं सासनम् // 'सब प्रकार के पापों से बचना, पुण्यों का संचय करना तथा अपने चित्त को विशुद्ध रचना' (धम्म पद) - यही बुद्ध की शिक्षा है। वैष्णव कवि जयदेव ने गीतगोविन्द में विष्णु के अवतार के रूप में बुद्ध की स्तुति इस प्रकार की है - 22 लेख संग्रह Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निन्दसि यज्ञविधे रहहश्रुतिजातम्, सदय हृदय दर्शित पशुधातम्, केशव धृतबुद्ध शरीर, जय जय देव हरे। - "अहा, आप यज्ञ का विधान करने वाली श्रुतियों की निन्दा करते है, क्योंकि हे करुणावतार, आपने धर्म के नाम होने वाली पशुवध की कठोरता दिखाई है। इसलिए हे बुद्ध शरीर धारण करने वाले केशव आपकी जय हो।" ___यद्यपि स्वयं बुद्ध ने भी ईश्वर की उपासना का कोई उपदेश नहीं दिया और न स्वयं को ही कोई अवतारी पुरुष बताया, तथापि उनके जीवन-काल में ही लोग उन्हें देवतुल्य आदर-सत्कार प्रदान करते थे। उनके निर्वाण के बाद त्रिरत्न वन्दना के रूप में उनकी पहली पूजा प्रारम्भ हुई। इस त्रिरत्न-वन्दना में हमें भक्ति का दर्शन भी होता है बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्म सरणं गच्छामि, संघं सरणं गच्छामि। इसके बाद तो बौद्धों ने ही नहीं, अबौद्धों ने भी बुद्ध को दिव्यस्वरूप से उपेत स्वीकार कर लिया। महाकवि अश्वघोष ने अपने 'सौन्दरनन्द' व 'बुद्धचरित' महाकाव्यों में बुद्धचरित महाकाव्यों में बुद्ध को इसी रूप में उपस्थित किया है। बुद्ध की वन्दना करते हुए वे कहते हैं - . श्रियः परार्या विदधद् विधातृजित् तमो निरस्यन्नभिभूतभानुभृत्। नुदन्निदाधं जित-चारु-चन्द्रमाः स वन्द्यतेऽर्हनिह यस्य नोपमा॥ "जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ श्री की सृष्टि करते हुए विधाता को जीत लिया, लोगों के अन्त:करण के अन्धकार को दूर करते हुए सूर्य को परास्त कर दिया, भवताप को हरते हुए आकाशस्थ चन्द्रमा की चारुता को पराजित कर दिया, उन सर्वपूज्य बुद्ध की मैं वन्दना करता हूँ, जिनकी इहलोक में कोई उपमा नहीं है।" आगे चलकर बौद्ध-धर्म हीनयान, महायान, वज्रयान, योगाचार आदि मत-मतान्तरों में विभाजित हो गया। स्तोत्र-रचना करके बुद्ध का स्तवन बराबर किया जाता रहा। महायान-प्रस्थान के स्तोत्र सबसे अधिक भक्ति से ओतप्रोत हैं। जैन स्तोत्र साहित्य जैन स्तोत्र साहित्य परिमाण व भाव दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। जैन दर्शन के अनुसार तीर्थंकर मुक्त जीव थे, जिन्हें अर्हत् की स्थिति प्राप्त हो गई थी। उनकी उपासना बद्धजीवों को मुक्तावस्था का पथप्रदर्शित करेगी, ऐसा सोचकर ही उनकी अर्चना की जाने लगी। कहा गया है - मोक्षमार्गस्य नेतारं भेतारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातानां विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये // अर्थात् मोक्ष प्राप्ति नेता (हितोपदेशी), कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाले (वीतराग) और विश्व के तत्वों को जानने वाले (सर्वज्ञ) आप्त (अर्हत्) की भक्ति उन्हीं के गुणों को पाने के लिए करता हूँ। __उक्त कथन से तीर्थङ्करों की भक्ति का रहस्य जाना जा सकता है। ये सभी तीर्थंकर वीतराग थे, इसलिए जैन धर्मावलम्बियों को नीराग (वीतराग) ईश्वर के उपासक माना गया है। जैनाचार्यों ने स्तोत्रों द्वारा लेख संग्रह Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने श्रद्धा-प्रसून अर्हत् को अर्पित किए हैं। जैन स्तोत्रकारों में आचार्य मानतुंगसूरि तथा सिद्धसेन दिवाकर का विशेष स्थान है। मानतुंगाचार्य कृत भक्तामरस्तोत्र जैन स्तोत्र साहित्य का शीर्षभूत तथा जैन भक्तों का कंठहार कहा जा सकता है। किंवदन्ती है कि राजा भोज ने एक बार मानतुंगाचार्य को बन्दी बना लिया और यउनसे चमत्कार प्रदर्शित करने को कहा। कहा जाता है कि आचार्य ने भक्तिप्रणत होकर भक्तामर स्तोत्र की रचना की और उसके प्रत्येक श्लोक के साथ बन्दीगृह के ताले एक-एक करके झड़ गए और इस श्लोक के साथ अन्तिम ताला व हथकड़ियाँ बेड़ियाँ भी टूट कर गिर गईं - ___ आपाद कण्ठमुरु शृङ्खल वेष्टितांगाः गाढं बृहन्निगड़कोटि निघृष्टजङ्घाः। त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति॥ "हे दयालो! जिनका शरीर पाँव से लेकर गले तक बड़ी-बड़ी साँकलों से जकड़ा हुआ है तथा बड़ी-बड़ी बेड़ियों की नाक से जिनकी जंघाएँ अत्यन्त छिल गई हैं ऐसे मनुष्य भी आपके नामरूपी मन्त्र का स्मरण करके तत्काल ही बन्धन के भय से छूट जाते हैं अर्थात् बन्धन मुक्त हो जाते हैं।" जैन-समाज में इस स्तोत्र का पठन-पाठन महान् चमत्कारिक मान कर ही होता है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से भी इसका महत्व कम नहीं है। विविध देवताओं से अभिन्न, उनकी विभूतियों से समन्वित जिन भगवान की स्तुति मानतुंगाचार्य कितने प्रसन्न-गम्भीर स्वर में करते हैं - बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात् त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात्। धाताऽसि धीर! शिवमार्गविधेर्विधानात् व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि॥ तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ!तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय। तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि शोषणाय॥ "देवताओं द्वारा पूजित बुद्धिज्ञान के कारण बुद्ध तुम्हीं हो। तीनों लोकों का मंगल करने के कारण शंकर तुम्ही हो, मंगलमार्ग की विधि का विधान करने वाले विधाता तुम्हीं हो। हे भगवन् ! व्यक्त पुरुषोत्तम भी आप ही हैं। तीनों लोकों की विपत्ति दूर करने वाले हे स्वामी, आपको मैं प्रणाम करता हूँ। पृथ्वीतल के विशुद्धमंडन स्वरूप आपको प्रणाम! तीनों लोगों के परमेश्वर! आपको प्रणाम तथा हे संसार-सागर का शोषण करने वाले जिन आपको प्रणाम!" भगवान् अर्हत् के शिवपद और उनके मार्ग पर आचार्यश्री को पूर्ण आस्था है - त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात्। त्वामेव सभ्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः॥ "मुनि लोग तुमको परमपुरुष, आदित्यवर्ण, विशुद्ध और अन्धकार से परे बतलाते हैं। तुमको भली प्रकार से प्राप्त करके मनुष्य मृत्यु को जीत लेते हैं। तुम्हारे अतिरिक्त हे मुनि श्रेष्ठ! कोई शिव अपना शिवपद का मार्ग नहीं है।" आचार्य ने अपने काव्य की प्रेरणा भी जिन भगवान् की भक्ति को ही स्वीकार किया है - अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्! यत् कोकिलः किल मद्यौ मधुरं विरौति तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः॥ सिद्धसेन-दिवाकर का कल्याणमन्दिर-स्तोत्र भी जैन समाज में भक्तामरस्तोत्र की तरह ही समादरणीय रहा है। साहित्यिक दृष्टि से भी वह जैन स्तोत्र साहित्य-माला का अनुपम मणिं है। भक्त-हृदय 24 लेख संग्रह Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए अपेक्षित विनय की उपलब्धि कल्याणमन्दिर स्तोत्र में भक्तामरस्तोत्र से भी अधिक होती है। सिद्धसेन-दिवाकर ने इसकी रचना संसार-सागर में निमज्जित होने वाले जीवों के लिए पोत के समान आश्रय देने वाले जिनेश्वर का स्तवन करने के लिए की है। यद्यपि इस कार्य को वे बालक द्वारा अपनी भुजा फैला कर समुद्र का विस्तार बतलाने के समान मानते हैं - अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य। बालोऽपि किं न निज बाहुयुगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः॥ विनय का इससे अधिक प्रदर्शन क्या हो सकता है? हेमसिंहासन पर विराजमान पार्श्वनाथ सुमेरु पर्वत पर छाये हुए नवीन मेघखण्ड के समान दिखाई पड़ रहे हैं। उनकी गम्भीर गिरा से मयूर मेघदर्शन के समान ही उत्कंठित होकर उन्हें देख रहे हैं - श्यामं गभीरगिरिमुज्ज्वल हेमरत्नं सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम्। आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चै श्चामीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम्॥ वे पार्श्वनाथ को विश्व के विकास के लिए ज्ञान की स्फुरणा का हेतु मानते हैं। संसार-सागर की सारी विपत्तियाँ इष्टदेव का नाम श्रवण करते ही दूर हो जाती हैं। इष्टदेव की उदारता व स्तोता की विनयशीलता को वयंजित करने वाले दो श्लोक देखिये - त्वं नाथ दुःखिजनवत्सल हे शरण्य कारुण्य-पुण्य-वसते! वशिनां वरेण्य। भक्त्या न ते मयि महेश! दयां विधाय दुःखांकुरोद्दलन तत्परतां विधेहि॥ देवेन्द्रवन्ध-विदिताखिलवस्तुसार संसारतारकविभो! भुवनाधिनाथ। त्रायस्व देव! करुणाहृद मां पुनीहि सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः॥ "हे दुखियों का पालन करने वाले, शरणदाता स्वामी, करुणा की पुण्य निवासभूमि, वीतरागों द्वारा वरणीय, भक्तिपूर्वक नमन करने वाले मुझ पर दया करके मेरे दु:खों का नाश करने की तत्परता धारण करो। हे देवेन्द्रों द्वारा वन्दनीय, सारी वस्तुओं के तत्व को जानने वाले, संसारतारक, व्यापक, भुवनों के स्वामी, करुणा के सरोवर, भयकारी दुःखों के समुद्र में दुःख पाने वाले मुझे बचाओ तथा पवित्र करो।" जैन स्तोत्रों में सबसे अधिक संख्या पार्श्वनाथ से सम्बन्धित स्तोत्रों की है। लगभग इतने ही स्तोत्र 24 तीर्थङ्करों की सम्मिलित स्तुति के लिए लिखे गए हैं / महावीर स्वामी और ऋषभदेव के स्तोत्र संख्या में उनसे कम हैं और शेष तीर्थङ्करों से सम्बन्धित स्तोत्र और भी कम हैं। अन्य प्रसिद्ध स्तोत्रकार हैंहेमचन्द्राचार्य, धनपाल, धनंजय, महाकवि विल्हण, भूपाल कवि, वादिराज, शोभन मुनि, जिनवल्लभसूरि, भद्रबाहुस्वामी, सोमप्रभाचार्य, जिनप्रभसूरि, वादिराज, जम्बूगुरु, मेरुतुंगसूरि, सोमसुन्दरसूरि आदि। . स्तोत्र रचना करते समय हेमचन्द्राचार्य की दृष्टि समन्वयवाद की ओर रही है। वे इष्टदेव की महत्ता नाम से नहीं विशेषताओं से अंकित करते हैं। आचार्य द्वारा रचित वीतराग स्तोत्र-महादेव स्तोत्र में महादेव के गुणों की विवेचना हुई है। उन गुणों से समुपेत कोई भी देवता हो वही आचार्य का इष्टदेव है। कुछ थोक देखिये - भव बीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै॥ यत्र-तत्र समये यथा-यथा योसि सोऽस्यभिधया यया तया। वीतदोषकलुषः स चेद्भवानेक एव भगवन्नमो स्तुते॥ लेख संग्रह 25 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकितं। साक्षाद् येन मथा स्वयं करतले रेखात्रयं सांगुलि। रागद्वेषभयामयान्तकजरालोलत्वलोभादयो नालं यत्पदलंघनाय स महादेवो मया वन्द्यते॥ यो विश्वं वेदविद्यं जननजलनिधे गिनः पारदृश्वा पौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलंकं यदीयम्। तं वन्दे साधुवंद्यं सकलगुणनिधिं ध्वस्तदोषद्विषं तं बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा॥ "जिसके भवरूपी बीज के अंकुरों को उत्पन्न करने वाले रागादि क्षय हो गए उसे, चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शंकर हो अथवा जिन हो मेरा नमस्कार है। चाहे किसी समय, किसी भी अवस्था में, किसी भी नाम से आप प्रख्यात हों यदि दोष रूपी कलंक से मुक्त हो तो हे भगवन् आपको नमस्कार है। जिसे जीवन की गति से परे स्थित लोक सहित तीनों लोक अँगुलियों सहित हथेली की तीन रेखाओं के समान साक्षात् दिखाई देते हैं, जिसे तीनों काल साक्षात् दृश्यमान हैं, जिसके पद का उल्लंघन करने में राग, द्वेष, रोग, काल, जरा, चपलता, लोभ आदि कोई भी समर्थ नहीं है, ऐसे महादेव को मैं वन्दना करता हूँ। जो जानने योग्य विश्व को जानता है, जिसने जन्म-उत्पत्ति रूपी समुद्र की भंगिमाओं को पार कर लिया है, जिनके वचन पूर्वापर अविरुद्ध, अनुपम और कलंक रहित हैं, जो साधु पुरुषों को वन्दनीय हैं, सकल गुणों के भंडार हैं, दोष रूपी शत्रु जिसने नष्ट कर दिये हैं, ऐसे बुद्ध हों, वर्द्धमान हों, कमलदल पर निवास करने वाले विष्णु हों या शिव हों मैं उनकी वन्दना करता हूँ।" ____ इस प्रकार का स्वस्थ दृष्टिकोण बहुत कम लोगों का दिखाई पड़ता है / हेमचन्द्राचार्य के जिन-जिन बातों के लिए हम ऋणी हैं उनमें उनका एक यह सजग दृष्टिकोण भी है। इसके उपरान्त भी जैन धर्म पर उनकी श्रद्धा अटल थी। यह बात उनके महावीर स्वामी स्तोत्र के इन श्लोकों से ज्ञात होती है - इमां समक्षं प्रतिपक्षसाक्षिणामुदारघोषामवघोषणां ब्रुवे। न वीतरागात्परमस्ति दैवतं न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थिते॥ न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु॥ यथावदाप्तात् परीक्षयाच्च त्वामेव वीरप्रभुमाश्रिताः स्मः॥ "प्रतिपक्षी लोगों के सामने बलपूर्वक घोषणा करके मैं करता हूँ कि जगत् में वीतराग से बढ़कर कोई देव नहीं है और अनेकान्त (स्याद्वाद) धर्म के अतिरिक्त कोई तत्व नहीं है। हे वीर! केवल श्रद्धांध होने से ही तुझमें हमारा पक्षपात नहीं है तथा केवल द्वेषमात्र से ही दूसरों में अरुचि हो ऐसी बात भी नहीं है, किन्तु परीक्षापूर्वक यथातथ्य आप्त जानकर ही आपका आश्रय लिया है।" महाकवि विल्हण का श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र भी भाषा-प्रवाह अलंकारों के सहज, स्वाभाविक प्रयोग व भावगांभीर्य सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट है। एक श्लोक उदाहरण के लिए पर्याप्त होगा - कुवलयवनीलश्चारुबिभ्रत् स्वभावं, नवनयघनशैलः पौरुषाद् भ्रष्टभावम्॥ वितरतु मम तानि श्रीजिनेन्दुः सुखानि, प्रियचतुरमितानि श्रीजिनेन्दुः मुखानि॥ - लेख संग्रह 26 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-स्तोत्रों में उनके रचयिताओं ने केवल उनकी स्तुति मात्र ही की हो ऐसी बात नहीं है। कहीं वे इष्टदेव को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके विग्रह का वर्णन करने लगते हैं, कहीं जैनधर्म के सिद्धांतों की विवेचना करने लगते हैं, कहीं इष्टदेव के गुणकीर्तन के साथ पाण्डित्यप्रदर्शन भी उनका उद्देश्य बन जाता है और कहीं वे काव्य के क्षेत्र में नवीन प्रयोग करने लगते हैं। जिन भगवान् के मुख और नेत्रों की शोभा का जिनशतक में श्री जम्बू गुरु ने इस प्रकार वर्णन किया है - अम्लानं मौलिमालोल्ललितकपिलरुग्धूलिलुब्धालिजालं व्यालोलारालकालालकममलकलालांछनं यद्विलोक्य। लेखाली लालितालं प्रबलबलकुलोन्मूलिना शैलराजे पन्ना लीलया वो दलयतु कलिलं लोलट्टक्तंजिनास्यम्॥ सुदीर्घ-समासों के प्रयोग से भाषा अवश्य जटिल हो गई है किन्तु भाव की दृष्टि से स्थल बड़ा सुन्दर है। अनेक छन्दों में 24 तीर्थंकरों की स्तुति के उदाहरण देखिये जिनमें छन्द का नाम भी श्लोक में आया है। रचयिता का नाम है - भुवनहिताचार्य - द्रुतविलम्बित गीतिरसोलस च्चरणसंचरणाति मनोहरम्॥ सुरगिरौ सुमतेजिनमजने विदधिरे विबुधा नवनर्त्तनम्॥ तथा - 'श्रेयो लक्ष्मी वितरतु स वः शीतलस्तीर्थनाथो, .. यस्मिन्गर्भे स्थितवति करस्पर्शमात्रेण मातुः। दाहोत्साहा जनकंवपुषोऽगुः क्रियं वा मृगेन्द्र : मन्दाक्रान्ता अपि किमु मृगा न म्रियन्ते क्षणेन॥ जैन स्तोत्रकारों ने प्राकृत, अपभ्रंश और यहाँ तक कि फारसी भाषा में भी स्तोत्र रचना की है। प्राकृत भाषा के स्तोत्रों में महाकवि धमपाल के ऋषभपंचाशिका' नामक स्तोत्र उल्लेखनीय है। उदाहरण के लिए कुछ पद्य देखिये - . . तुह रूवं पेच्छंता न हुंतिं जे नाह हरिसपडिहत्था। समणावि गयमणच्चिअ ते केवलिणो जइ न हुति॥ भमियो कालमणंतं भवम्मि भीओ न नाहं दुक्खाणम्। दिट्टे तुमम्मि संपइ जायं च भयं पलायं च॥ "आपके रूप को देखकर जो हर्ष से परिपूर्ण न होते हों वे यदि केवली न हों तो समनस्क होते हुए भी गतमनस्क के समान हैं। भ्रान्तियुक्त काल चाहे अनन्त हो, हे नाथ! मुझे दुःखों का भय नहीं है। आपको देखकर आप में विश्वास उत्पन्न हो गया है और भय दूर हो गया है।" अपभ्रंश भाषा के अभयदेवसूरि कृत जयतिहुअण स्तोत्र का एक रोला छंद देखिए - जय तिहुअण वर कप्परूक्ख, जय जिण धन्नंतरि जय तिहुअण-कल्लाण-कोस दुरिअक्करि केसरि।। तिहुअण-जण अवलंघि आण भुवणित्तयसामिअ, कुणुसु सुहाइ जिणेस पास थंभणय-पुर-ट्ठिअ॥ लेख संग्रह 3 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हे त्रिभुवन में कल्पवृक्ष के समान स्वामी आपकी जय हो, धन्वंतरि रूप जिन आपकी जय हो। त्रिभुवन के कल्याण कोष आपकी जय हो, दुरित रूपी हाथी के लिए सिंह के समान आपकी जय हो। जिनकी आज्ञा तीनों लोकों के मनुष्य नहीं लाँघ सकते ऐसे त्रिभुवन के स्वामी स्थंभनक नामक नगर में रहने वाले पार्श्वजिनेश्वर हमें सुखी करो।" कई प्रसिद्ध स्तोत्रों के चरणों को लेकर उनकी पादपूर्ति करते हुए स्तोत्रों की रचना भी जैन स्तोत्रकारों ने प्रभूत मात्रा में की है। भक्ताभर स्तोत्र के चतुर्थ चरण की पादपूर्ति श्री धर्मवर्द्धनगणि ने वीर भक्तामर स्तोत्र में तथा श्री भावंप्रभसूरि ने नेमिभक्तामर स्तोत्र में की है। दोनों से एक-एक श्लोक उद्धृत किया जाता है। भक्तामर स्तोत्र का प्रथम श्लोक है - भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणा मुद्योतकं दलितपापतमोवितानम्। सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्। इसके चतुर्थ चरण की पादपूर्ति देखियेराज्यर्द्धिवृद्धिभवनाद् भवने पितृभ्यां श्रीवर्धमान इति नाम कृतं कृतिभ्याम्। यस्याद्य शासनमिदं वरवर्ति भूमा वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्॥ -वीरभक्तामर भक्तामर! त्वदुपसेवन एव राजी मत्यां ममोत्कमनसो दृढ़तापनुत् त्वम्। पद्माकरो वसुकलोवसुखोऽसुखार्ता वालम्बनं भव जले पततां जनानाम्॥ __-नेमि भक्तामर जैन धर्मानुशासन में पूर्ण आस्था रखते हुए भी जैन स्तोत्रकारों ने अन्य देवताओं की स्तुति की है। सरस्वती का स्तवन तो अनेक कवियों ने किया है। जिनवल्लभसूरि.तथा जिनप्रभसूरि के भारती स्तोत्र इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। जैन स्तोत्रों के अनेक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ये विविध प्रकार के हैं और संख्या में हजारों हैं इसलिए लेख-विस्तार भय से थोड़ी सी झाँकी करा के ही सन्तोष करना पड़ता है। [श्री जैन श्वेतांबर पंचायती मंदिर, कलकत्ता] 28 'लेख संग्रह Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्राराक्षस की सामाजिक पीठिका में जैन तत्त्व महाकवि विशाखदत्त प्रणीत मुद्राराक्षस नामक नाटक में क्षपणक जीवसिद्धि नामक पात्र अमात्य चाणक्य द्वारा चररूप में प्रयुक्त दूतकार्य को सम्पन्न करता है। उसको आधुनिक विद्वद्वन्द बौद्धधर्मीय संन्यासी मानते हैं, किन्तु पात्रविषयक वर्णन का सम्यक् आलोडन करने पर एवं उसकी वेशभूषा, रहनसहन और दार्शनिकता आदि का विचार करने पर न केवल पात्र जीवसिद्धि क्षपणक जैन साधु सिद्ध होता है, अपितु सारे नाटक की पृष्ठभूमि ही जैन प्रतीत होती है। जीवसिद्धि विष्णुशर्मा नामक एक ब्राह्मण अमात्य चाणक्य का सहपाठी और मित्र था, शुक्राचार्य के नीति शास्त्र में और 64 अंगवाले ज्योतिष शास्त्र में बहुत ही प्रवीण था, जिसको चाणक्य ने 'इससे विशेष प्रयोजन सिद्ध होगा' ऐसा विचार कर नन्दवध की प्रतिज्ञा के पश्चात् ही क्षपणक वेषधारण करवाकर कुसुमपुर ले जाकर, नन्दराजा के समग्र अमात्यों के साथ में मैत्री-संबन्ध स्थापित करा दिया था। मन्त्रीमण्डल में भी अमात्य राक्षस का उस पर अत्यधिक विश्वास उत्पन्न हो गया था। . जैन वेष . चाणक्य के कार्य सिद्ध्यर्थ एवं सौहार्द को दृढ़ करने के ध्येय से विष्णु शर्मा ने क्षपणक जैन साधु का वेषधारण किया और स्वनाम को परिवर्तित कर जीवसिद्धि नाम रखा। एकबार वह नाटक में ज्योतिषी के रूप में भी आता है। जिस समय अमात्य राक्षस अपने पक्ष की सर्व सैन्यसामग्री को पूर्ण देखकर चन्द्रगुप्त से युद्ध करने के लिये प्रस्थान मूहूर्त दर्शनार्थ ज्योतिषी को बुलाने की इच्छा से प्रतिहारी को बुलाकर पूछता है कि प्रतिहार-स्थल पर कौनसा ज्योतिषी है? द्वारपाल बाहर जाकर द्वार-स्थान को देखकर पुनः आकर कहता है कि 'हे अमात्य! द्वार पर 'क्षपणक' जीवसिद्धि नामक ज्योतिषी है।' यह सुनकर राक्षस अपने हृदय में सोचता है कि प्रारंभ में ही अमंगल-कारक क्षपणक दर्शन मिला और अंत में प्रतिहारी को आज्ञा देता है कि 'उसको अबीभत्स वेष वाला करके यहां उपस्थित करो (अबीभत्सदर्शनं कृत्वा प्रवेशय) यहां प्रथम तो 'क्षपणक' शब्द ही जैन का द्योतक है। जैन ग्रन्थों में कर्मों के नाश के लिये 'क्षपण' या उपशम' का प्रयोग पाया जाता है। जैन साधुओं का व्रत धारण करने का उद्देश्य ही क्षपकश्रेणी पर आरूढ होकर कर्मों का क्षपण करना होता है, अत: कर्मों का जो क्षपण करता है, वही साधु क्षपणक हो सकता है। कर्म प्रकृति विषयक ग्रन्थों में 'क्षपणकसार' नामक ग्रन्थ भी मिलता है जो कि जैनों का एक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। और, संभवतः क्षपणक शब्द बौद्धधर्म में संन्यासियों के लिये नहीं आता है। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि जैन साधु सर्वदा नग्न जैसे ही रहा करते हैं। इसमें अबीभत्सदर्शनं कृत्वा प्रवेशय' वाक्य स्पष्टतया नग्नत्व के जैसे सूचित कर रहा है। लेख संग्रह 29 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शासन अमात्य राक्षस के बुलाने पर क्षपणक वहां जाता है और कहता है कि- मोहरूपी व्याधि को नाश करने वाला जैन अरिहन्ताणं का शासन अंगीकार करो, जो प्रारंभ में शारीरिक कष्टादि कटु लगते हैं। पश्चात् हितकारक-मोक्षदायक, आत्मतत्त्व का उपदेश देकर शीघु ही भवपिण्ड से छुड़ा देते हैं। इसके पश्चात् कहता है कि - 'हे श्राद्ध! धर्मलाभ हो।' यही नहीं आगे चलकर नाटक के पंचम अंक में सिद्धार्थ के सन्मुख वह कहता है-'अरिहन्ताणं को प्रणाम करो', जो अपनी असाधारण (केवलज्ञानरूपी) बुद्धि से इस लोक में श्रेष्ठ मोक्षमार्ग का साधन करते हैं।' क्षपणक के इस प्रकार कहने पर सिद्धार्थ कहता है- हे भगवन् ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। इस पर जीवसिद्धि उत्तर देता है- 'हे श्रावक! तुम्हें धर्मलाभ हो' (धम्मलाहो! सावका भोदु), और इसी अंक में भागुरायण के समक्ष भी आशीर्वादात्मक वाक्य में आपके धर्म की वृद्धि हो'(सावण्णं धम्मविही भोदु) ऐसा कहता है। इस प्रसंग में 'अलिहन्ताणं' शब्द विचारणीय है। इसका प्रयोग ऊपर दो बार हुआ है। एक स्थल पर 'सासणं-अलिहन्ताणं' और दूसरे स्थल पर 'अलिहन्ताणं पणमामो'। संस्कृत में एक अर्हत्' शब्द है जो बौद्धधर्म में भी प्रचलित है और महात्मा बुद्ध के नामों में गिना जाता हैं / बौद्ध ग्रन्थों में अरहतो' भी प्राप्त होता है, यथा- 'नमो भगवतो अरहतो समासंबुद्धस्स'। परन्तु अरिहन्ताणं या अलिहन्ताणं जैन मागधी (प्राकृत) में ही होता है। इसके अतिरिक्त मुद्राराक्षस में इसके जो दो प्रयोग मिलते हैं, उनमें प्रथम स्थान पर तो 'शासन' शब्द के साथ में प्रयुक्त होने से 'जैनशासन' के द्योतक के रूप में ही यह ग्राह्य हो सकता है, क्योंकि 'शासन' शब्द विशेषतया जैन संघ से ही सम्बन्ध रखता है। इसके अतिरिक्त स्वयं 'अरिहन्ताणं' शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार करने से भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते है। साधारणतया 'अरिहन्त' शब्द को 'अर्हत' शब्द का पर्यायवाची मान लिया जाता है, जिसका प्रयोग जैन और बौद्ध दोनों धर्मों में समानरूप से होता है। परन्तु भाषाविज्ञान की दृष्टि से 'अरिहन्त' और अर्हत् शब्द पृथक् पृथक् हैं, जैसा कि अनेक जैन ग्रन्थों में भी मिलता है। पंचमांग श्री भगवती सूत्र के टीकाकार श्रीमद् अभयदेवसूरि ने अरिहन्ताणं शब्द पर विचार करते हुए निम्नलिखित विभिन्न शब्दों के एकीकरण की ओर संकेत किया है: 1. अरहन्त - अर्हद्भयः, अमरवरविनिर्मिताऽशोकादि-महाप्रातिहार्यरूपा पूजां अर्हन्तीति अर्हन्तः। यदाह अरहन्ति वंदण-नमंसणाणि, अरहंति पूअसक्कार। सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण वुच्चंति॥ श्रेष्ठ देवताओं द्वारा निर्मित अष्टमहाप्रातिहार्य* पूजा को प्राप्त हो। वन्दन, नमस्कार, पूजा, सत्कार और मोक्ष-गमन प्राप्त करें, उसको अरहन्त कहते हैं। 2. अ-रह-न्तः - (अ) विद्यमानं, (रहः ) एकान्तरूपो देशः, (अन्तर् ) अन्तश्च मध्यं गिरिगहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तस्तोम-गतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां ते अरहोन्तरः, अतस्तेभ्यो अरहोन्तर्ध्यः। * अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः, दिव्यध्वनि सनमासनं च। भामण्डलं दुन्दुभिमातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् // लेख संग्रह Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अ) विद्यमान है, (रहः) एकान्तरूप देश का भी, (अन्तर्) मध्य जिनको, उनको अरहोन्तः कहते हैं, क्योंकि सर्ववेदी होने के कारण उनके ज्ञान से विश्व के कोई भी पदार्थ प्रच्छन्न नहीं हैं। . 3. अरथान्तः - (अ) अविद्यमानो, (रथः) स्यन्दनः- सकल परिग्रहोपलक्षणभूतः। (अंतः) च विनाशो जराद्युपलक्षणभूतो येषां ते अरथान्तः। (अ) नहीं विद्यमान है (रथः) परिग्रह और (अन्तर) जराजन्म-मृत्यु जिनके, उन्हें अरथान्त: कहते हैं। 4. अरहन्तः - 'अरहंताणं त्ति' क्वचिदपि आसक्तिं अगच्छद्भयः क्षीणरागत्वात्। क्षीणराग होने के कारण जिनकी किसी भी स्थान पर आसक्ति न हो, उन्हें अरहंत कहते हैं। 5. अरहयत् - 'अरहयद्भयः' प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञे तरविषयसंपर्केपि वीतरागत्वादिकं स्वं स्वभावं अत्यजद्भयः। विशेष राग का कारणभूत यदि मनोज्ञ विषय हो तो भी, अथवा विपरीत विषय हो तो भी, अपने वीतराग- (राग द्वेष परिहार) भाव को नहीं छोड़ने वाले अरहयत् कहलाते हैं। 6. अरिहन्त - अरिहन्ताणं त्ति पाठान्तरं, तत्र कर्मारिहन्तृभ्यः। आह चअट्टविहंपि अ कम्मं, अरिभूयं होइ सव्वजीवाणं। तं कम्मं अरिहंता, अरिहन्ता तेण वुच्चंति॥ [अष्टविद्यमपि च कर्म, अरिभूतं भवति सजीवानाम्। तत् कर्मारीन्वन्तः अरिहन्ता तेण उच्यते ] कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करने वाले अरिहन्त कहाते हैं / जो आठ* प्रकार के कर्म सर्वजीवों के लिये शत्रुतुल्य हैं, उन्हें नष्ट करने वाले को अरिहन्त कहते हैं। 7. अरु हन्तः - अरुहंताणं इत्यपि पाठान्तरं, तत्रारोहयद्भयः- अनुपजायमानेभ्यः क्षीणकर्मबीजत्वात्। आह च दग्धे बीजे यथात्यन्ते, प्रादुर्भवति नाङ्करः। कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः॥ __ कर्मोत्पादक बीज को पूर्णतया नष्ट कर दिया है, जिससे पुनः कर्म उत्पन्न नहीं हो सकते, अरुहन्तः कहते हैं। जिस प्रकार बीज के जलने पर अंकुर पैदा नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मबीज के नष्ट हो जाने पर पुनः संसार में भ्रमण कराने वाला कर्म उत्पन्न नहीं होता है। - संभवतः प्रारंभ में ये विभिन्न शब्द किसी पूज्य सिद्ध पुरुष के विभिन्न गुणों को प्रकट करने के लिये प्रयुक्त होते होंगे, परन्तु कालान्तर में इन सब में 'अर्हत्' शब्द के साथ ध्वनिसाम्य और अर्थ सादृश्य होने के कारण इन सब का अर्हत् के साथ में एकीकरण कर दिया गया और संस्कृत में इन सब के स्थान पर केवल अर्हत् ही शब्द रह गया। उक्त शब्दों में अरिहन्त' शब्द नि:संदेह अरिहन् से निकला हुआ है, जैसा कि उक्त टीकाकार ने कहा है, और जैसा कि कल्पसूत्र की व्याख्या में भी कहा है:* 1. ज्ञान-वरणीय, 2. दर्शनावरणीय, 3. मोहनीय, 4. वेदनीय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र, और 8. अंतराय ये आठ कर्म कहलाते हैं। लेख संग्रह 31 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अरहन्ताणं त्ति, अर्हद्भयस्त्रिभुवन पूजायोग्येभ्यः। कर्मवैरिदहनात् अरिहन्ताणं / ' तीनों लोकों में पूजनीय पुरुष को अरहन्त कहते हैं। और कर्मशत्रु को नाश करने से अरिहन्त कहते हैं। जैनों के प्राचीनतमग्रन्थ भगवती सूत्र से लेकर आज तक जैन साहित्य में यह शब्द प्रचुरता से पाया जाता है। इसके अतिरिक्त सभी जैन सम्प्रदायों के प्रतिक्रमण सूत्रों (जो कि तीर्थंकरों के समय से ही श्रुतिपरंपरागत चले आये हैं) में इस शब्द की उपस्थिति, इस शब्द की प्राचीनता को सिद्ध करती है और उसे जैन शासन की एक विशेषता होना प्रमाणित करती है। इसके अतिरिक्त इस शब्द के पूर्व 'मोहवाहिवेजाणं' (मोहराज की कर्मरूपी सेनात्मक व्याधि को नाश करने में निपुण वैद्य के सदृश) विशेषण भी जैन ग्रन्थों में बहुलता से पाया जाता है। ___ नाटक में शासन के लिये प्रयुक्त 'पढममात्तकडुअं' विशेषण भी जैन शासन से ही अधिक साम्यता रखता है, क्योंकि जैनों में प्रारम्भ से ही इन्द्रियदमन, आत्मशोधनार्थ बाह्यशारीरिक कष्ट, तपस्या, लोचन-व्रतादि कष्टदायक उपाय हैं, जो प्रारंभ में कटु लगते हैं, किन्तु अन्त में शीघ्र ही आत्मशुद्धि करवाकर केवलज्ञान के अधिकारी बना देते हैं। इसीलिये जैन मुनियों के आत्मशुद्ध्यर्थ पद-पद पर महान् कष्टपूर्ण नियम रखे गये हैं। जीवसिद्धि के कथन में 'बुद्धीए' शब्द पर टीका करते हुए व्याख्याकार श्री कनकलाल ठक्कुर ने लिखा है कि: 'बुद्धे :- मत्यादिपञ्चात्मक ज्ञानस्य (तन्मते मतिश्रुतावधिमन:- पर्यवकेवलमेति पञ्चानां . ज्ञानत्वाभ्युपगमात्)' -मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनपर्यवज्ञान, केवलज्ञान रूपी, बुद्धि के द्वारा इसमें जो मत्यादि पंचज्ञानों का उल्लेख किया है, वह भी जैन-परंपरा की ओर संकेत कर रहा है, क्योंकि जैन शासन इन मति आदि पंच ज्ञानों को ही मानता है एवं समग्रशास्त्रों में इन्हीं का उल्लेख मिलता है। इन्हीं ज्ञानों के ऊपर ही अनेकों ग्रन्थ प्राप्त हैं। बौद्धधर्म न तो इन पांचों ज्ञानों को ही मानता है और न उनके ग्रन्थों में इस प्रकार के नाम ही मिलते हैं। अतः इससे प्रकट है कि नाटककार ने जीवसिद्धि के नग्नत्व या शासन आदि शब्दों के प्रयोग द्वारा ही जैन वातावरण उत्पन्न किया है, अपितु जैन मनोविज्ञान के पारिभाषिक शब्दों को भी अपनाया है। श्रावक शब्द भी भक्त-उपासक के अर्थ में बौद्धग्रन्थों में प्राय: कहीं नहीं मिलता है और जैनों के समग्र शास्त्रों में भक्तों के विशेषण के लिये श्रावक या श्राद्ध शब्द ही सब जबह प्राप्त होता है। श्रावक' जैनियों का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है: __ 'धर्म शृणोतीति श्रावकः' धर्म सुनकर सम्यग् दर्शनरत्न प्राप्त करने की योग्यता रखे उसे श्रावक कहते हैं। इस शब्द का जैन-शासन से सम्बन्ध रखना, इस बात से भी प्रकट है कि इसी श्रावक शब्द का अपभ्रंश होने से सराक और सरावगी नाम केवल एक जाति के जैनों में ही मिलता है। जैसा कि ऊपर कह चुके है, जीवसिद्धि श्रावकों को सदा जैन मुनियों की भांति ही आशीर्वाद के रूप में धर्मलाभ या धर्मवृद्धि ही कहता है। जैन मुनि इस 'धर्मलाभ' शब्द के अतिरिक्त और कोई आशीर्वादात्मक शब्द उच्चारण नहीं करते हैं और दूसरे संप्रदाय के साधु इस शब्द का व्यवहार नहीं करते। 32 लेख संग्रह Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज अब यहां पर विचारने की बात यह है कि मंत्रि चाणक्य जैसे बुद्धिमान कूटनीतिज्ञ ने गर्हित चरकार्य में जैन साधु को ही क्यों प्रयुक्त किया? दूसरे संप्रदाय के साधु को इसमें क्यों नहीं नियुक्त किया? और सारे नाटक में उपयुक्त जैन वातावरण को उत्पन्न करने की क्या आवश्यकता है? इस पर गंभीर दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि उस समय मगधदेश में सर्वत्र जैनधर्म व्यापकरूप में था, जैन साधुओं का आदर-सत्कार विशेष था। उनके प्रति सब जनता का विश्वास भी प्रगाढ़ था और उनका सर्वत्र आवागमन रहता था। चाणक्य जानता था कि जैन साधुओं पर जनता का अधिक विश्वास होने के कारण उसके द्वारा कार्य शीघ्र सिद्ध होगा। इस सम्बन्ध में जैन साहित्य से तो यह स्पष्टतथा ज्ञात होता ही है कि मगध जैनों का प्रमुख केन्द्र था। सम्राट बिम्बिसार (श्रेणिक) से लेकर भूपाल सम्प्रति पर्यन्त सभी राजा नयायी थे. केवल अशोक ने पीछे धर्म परिवर्तन कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। यही नहीं. जैन परंपरा के अनुसार तो महाराज नन्द एवं उनके मंत्री शकडाल और राक्षस, भूपति चन्द्रगुप्त तथा अमात्य चाणक्य भी जैन थे और उस समय जैन धर्म ही सार्वजनिक धर्म था। अतः संभवतः कवि विशाखदत्त ने स्वयं शैवधर्मानुयायी होने के कारण महाराज चन्द्रगुप्त और चाणक्य को नाटक में जैन नहीं माना। परन्तु साथ ही तत्कालीन समाज का चित्रण करते समय वह उसमें से परंपरागत जैन वातावरण को नहीं निकाल सका। [तित्थयर, वर्ष 30, अंक 11] 000 लेख संग्रह 33 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य की अपभ्रंश-भाषा में एक अनुपम रचना शत्रुञ्जयतीर्थाष्टक युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि प्रणीत 'गणधरसार्द्धशतक प्रकरण' के प्रथम पद्य की व्याख्या करते हुए,. युगप्रवरागम श्री जिनपतिसूरि के शिष्य श्री सुमतिगणि ने, श्री हेमसूरि प्रणीत निम्नाङ्कित स्तोत्र उद्धृत किया है : सुमतिगणि कृत 'वृद्धवृत्ति' का रचनाकाल विक्रम संवत् 1295 होने से इस स्तोत्र का रचनाकाल १२-१३वीं शताब्दी निश्चित है। अष्टक की अन्तिम पंक्ति में 'हेमसूरिहि' उल्लेख है। १२वीं शती में हेमचन्द्रसूरि नामक दो आचार्य हुए हैं - 1. मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरि और 2. पूर्णतल्लगच्छीय कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि। ये दोनों समकालीन आचार्य थे और दोनों ही गुर्जराधिपति सिद्धराज जयसिंह के मान्य एवं पूज्य रहे हैं। मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसरि की देश्यभाषा की रचनाएँ प्राप्त नहीं हैं। कलिकाल सर्वज्ञ की 'देशीनाममाला' प्राकृत-व्याकरण आदि साहित्य में अपभ्रंश कृतियों का प्रयोग होने से प्रस्तुत अष्टक के प्रणेता इन्हीं को माना जा सकता है। इस अष्टक में सौराष्ट्र प्रदेश स्थित शत्रुञ्जय (सिद्धाचल) तीर्थाधिराज की महिमा का वर्णन किया गया है। इसकी भाषा अपभ्रंश है और देश्यछन्द-षट्पदी में इसकी रचना हुई है। अद्यावधि अज्ञात एवं. भाषा-विज्ञान की दृष्टि से इसका महत्व होने से इसे अविकल रूप में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। ___ सं० 1200 में रचित कृति में उद्धृत होने से इसका प्राचीन मार्मिक पाठ सुरक्षित रक्खा है, यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। . श्रीहेमसूरिप्रणीतापभ्रंशभाषामयं शत्रुञ्जय तीर्थाष्टकम् खुडियनिविड दढनेहा नियदु वम्मह मयभंजणु, पढमपयासियधम्ममग्गु सिवपुरहसंदणु। निवसइ जत्थ जुयाइदेउ जिणवरु रिसहेसरु, सो सित्तुंजगिरिदु नमहु तित्थह अग्गेसरूं। सिरिपुंडरीय सुइ निव्वयइ जहि कारिउ भरहेसरिणं। वंदिवजइ अज्जवि सुरनरिहरिसहभवणु भत्तिब्भरिणं // 1 // पंचकोडिमुणिवरसमजु गुणरयणसमिद्धउ। पढमजिणह सिरिपुंडरीयगणहरु जहि सिद्धउ। पंडुसुअह पंचह वि सिद्धिकामिणि सुरकारउ। सो सित्तुंजगिरिदु जयउ जगि तित्थह सारउ। मिल्लेविणु नेमिजिणिंद परि कित्तिभरिय भुवणंतरिहि। जो फरूसिउ नियपयपंकयहि तेवीसिहि तित्थंकरिहि॥२॥ 34 लेख संग्रह Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहि दसकोडिहि द्रविड-वालिखिल्लहि नरनाह हो। पाविय-सिद्धि-समिद्धि खवियनियपावपवाह हो। दसरहसुय-सिरिराम भरहकय सिवसुहसंगमु। सो सित्तंज सतित्थ जयउ तित्थह सव्वत्तम। निणु गुरुमाहुप्पु जसु अइमुत्तयकेवलि कहिओ। आरूह वि जित्थु नारयरिसिहि पत्तु मुक्ख दुक्खिहि रहिओ॥३॥ सिरिविज्जाहरचक्कवट्टि नमि-विनमि-मुणिंदिहिं। विहिकोडसि सहु मुणिवराह नयसुरवर विंदिहिं। जह पत्तओ सुरसुक्खु भवदुक्खनिवारणु। सो सेत्तुंज सुतित्थ नमह सासयसुहकारj। गुणवियलु पसु वि अणसणु करवि जहि हरिसिय सुरयणमहिउ। तित्थाणुभावमित्तिण सुहइ भुंजइ सुरकामिणिसहिउ॥४॥ घरपरियणसुहनेह नियउ निठुरभंजेविणु। खउकंटयकक्करकरालकाणणपविसेविणु। भीसणवग्यवराहभमिरतक्करजगणेविणु। गुरुगिरिवरसरसरिरउउरत्तु वि लंघेविणु। आरुहि वि जाव सित्तुंजि न दिट्ठउ रिसहजिणिंदमुह। सिरिपुंडरीउगणहरसहिउ ताव कि लब्भइ जीवसुह॥५॥ काइ मूढ पविसहि.अयाणु जि व सलहु महानलि। काइ मधु जिम्ब भमिय चित्तु बुड्डहिं गंगाजलि। काइ अकजि वि मूढ धरि वि सिरि गुग्गुलुजालहि। काइ इयर तिथिहि भमंतु अप्पहु संतावहि। कहिउ मुणिहि तित्थह पवरु तहि सित्तुंजि चडे वि पुण। किर काहि न पुजहि रिसहजिणु जिम्व छिंदहिं जम्मण जरमरण॥६॥ काइ तेण वि हविण न जेणउ वयरिउ सुपत्तह। काइ तेण जीविइण जुगउ दालिद्द-दुहत्तह। काइ तेण जुव्वणिण जु करि बोलिउ सकलं कह। / काइ तेण सज्जणिण हुयउ जु न विहु र पडंतह। किरि काइ मणुयजम्मिण न जहि वंदिउ सुरनरवरमहिउ। सित्तुंजसिहरिसंढिउ रिसह पुंडरीयगणिहरसहिउ॥७॥ अहह कवडजक्खपभाउ जहि फुरइ असंभवु। कटरि करइ जो पणयजणह निच्छउ अपुणब्भवु। अररि कलिहि अजवि अखंड जसु कित्ति सिलीसइ। वपुरि गुरयपुत्रिहि पि जो भवि इहि दीसइ।। जहि अणेयकोडहि सहिय सिद्ध मुणीसर सुरमहिउ। सो नमहु तित्थ सित्तुंज पर विहिय हेमसूरिहि कहिउ॥८॥ [अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ, भाग-२] 000 35 लेख संग्रह Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नेमिनाथादि-स्तोत्र-त्रय युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरिजी रचित गणधरसार्द्धशतक की बृहद्वृत्ति लिखते हुए श्री सुमतिगणि ने उद्धरण के रूप में अनेक दुर्लभ एवं पूर्वाचार्यों रचित स्तोत्रादि दिये हैं, उनमें से तीन स्तोत्र यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं सुमतिगणि - ये सम्भवतः राजस्थान प्रदेश के निवासी थे। इनके जीवन के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। जिनपालोपाध्याय रचित खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि केआधार से वि० सं० 1260 में आषाढ़ बदी 6 के दिन गच्छनायक श्री जिनपतिसूरि ने इनको दीक्षा प्रदान की थी और इनका नाम सुमतिगणि रखा था। सं० 1273 में बृहद्वार में नगरकोट के महाराजा पृथ्वीचंद्र की उपस्थिति में पंडित मनोदानंद के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए जिनपालोपाध्याय के साथ समतिगणि भी गये थे। यहाँ उनके नाम के साथ गणि शब्द का उल्लेख है, अतः 1273 के पूर्व ही आचार्य जिनपतिसूरि ने इनको गणि पद प्रदान कर दिया था। इस शास्त्रार्थ में जिनपालोपाध्याय जयपत्र प्राप्त करके लौटे थे। सम्वत् 1277 में जिनपतिसूरि ने स्वर्गवास से पूर्व संघ के समक्ष कहा था - "वाचनाचार्यसूरप्रभ-कीर्तिचन्द्र-वीरप्रभगणिसुमतिगणिनामानश्चचत्वारः शिष्या महाप्रधानाः निष्पन्ना वर्तन्ते।" इस उल्लेख से स्पष्ट है कि गणनायक की दृष्टि में सुमतिगणि का बहुत बड़ा स्थान था और ये उच्च कोटि के विद्वान् थे। सुमतिगणि द्वारा रचित केवल दो ही कृतियाँ प्राप्त होती हैं - 1. गणधरसार्द्धशतक बृहद् वृत्ति - इसका निर्माण कार्य खम्भात में प्रारम्भ किया था और इस टीका की पूर्णाहुति सम्वत् 1295 में मण्डप (माण्डव) दुर्ग में हुई थी। गणधरसार्द्धशतक का मूल 150 गाथाओं का है, उस पर 12,105 श्लोक परिमाण की यह विस्तृत टीका है। इस टीका में सालंकारी छटा और समासबहुल शैली दृष्टिगत होती है। यह बृहद्वृत्ति अभी तक अप्रकाशित है। 2. नेमिनाथरास - यह अपभ्रंश प्रधान मरुगुर्जर शैली में है। श्लोक परिमाण 57 है। बृहद्वृत्ति में अनेकों उद्धरण प्राप्त होते हैं। कई-कई उद्धरण तो लघु कृति होने पर पूर्ण रूप से ही उद्धृत कर दिये हैं। मूल के पद्य 2 और 3 से 5 की व्याख्या करते हुए 3 स्तोत्र उद्धृत किये हैं - 1. आचार्य जिनपतिसूरि रचित उज्जयंतालंकार-नेमिनाथस्तोत्र, 2. श्री जिनेश्वरसूरि रचित गौतमगणधरस्तव, 3. श्री सूरप्रभ रचित गौतमगणधर स्तव। ये तीनों स्तोत्र प्रस्तुत करने के पूर्व इनके रचनाकारों का भी संक्षेप में परिचय देना आवश्यक है। श्री जिनपतिसूरि - युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि के प्रशिष्य और मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी के पट्टधर श्री जिनपतिसूरि का समय विक्रम सम्वत् 1210 से 1277 तक का है। इनका विस्तृत जीवनचरित्र जिनपालोपाध्याय ने खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली में सालंकारिक भाषा-शैली में दिया है। उसी के अनुसार उल्लेखनीय बातों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। विक्रमपुर (जैसलमेर के समीपवर्ती) माल्हू लेख संग्रह 36 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्रीय यशोवर्धन सुहवदेवी के पुत्र थे। इनका जन्म वि० सं० 1210, चैत्र कृष्णा 8 को हुआ था। वि० सं० 1217, फाल्गुन शुक्ला 10 को मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ने दीक्षा देकर इनका नाम नरपति रखा था। वि० सं० 1223 भाद्रपद कृष्णा 14 को मणिधारी जिनचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हो जाने पर उनके पाट पर वि० सं० 1223 कार्तिक शुक्ला 13 को युगप्रधान जिनदत्तसूरि के पादोपजीवि जयदेवाचार्य ने नरपति को स्थापित किया था और इनका नाम जिनपतिसरि रखा था। आचार्य पदारोहण के समय इनकी अवस्था 14 वर्ष की थी। इनके लिए षट्त्रिंशद् वादविजेता विशेषण का उल्लेख अनेक ग्रन्थकारों ने किया है किन्तु गुर्वावली में कुछ ही वादों का उल्लेख प्राप्त होता है। वि० सं० 1238 में आशिका (हासी) में नरेश भीमसिंह की सभा में प्रामाणिक दिगम्बर विद्वान् के साथ विजय प्राप्त की थी। वि० सं० 1239 में अंतिम हिन्दू सम्राट महाराजा पृथ्वीराज चौहान की राज्य सभा में पद्मप्रभ को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजय प्राप्त की थी। इस शास्त्रार्थ के समय प्रधानमंत्री कैमास, पंडित वागीश्वर, जनार्दन गौड़, पंडित विद्यापति आदि उपस्थित थे। वि० सं० 1244 में चन्द्रावती में पूर्णिमापक्षीय श्री अकलंकदेवसूरि और पौर्णमासिक गच्छीय श्री तिलकसूरि के साथ शास्त्र-चर्चा हुई थी। इसी वर्ष आशापल्ली (अहमदाबाद) में चैत्यवासियों के प्रमुख आचार्य प्रद्युम्नाचार्य के साथ आयतन और अनायतन के संबंध में शास्त्रार्थ हुआ था और उसमें आचार्यश्री ने विजय प्राप्त की थी। वि० सं० 1277, आषाढ़ शुक्ला 10 को इनका स्वर्गवास हुआ था। जिनपतिसूरि प्रौढ़ विद्वान् एवं समर्थ साहित्यकार थे। इनके द्वारा प्रणीत 1. संघपट्टक बृहद्वृत्ति, 2. पञ्चलिंगी प्रकरण बृहद्वृत्ति, 3. प्रबोधोदयवादस्थल तथा आठ-दस स्तोत्र प्राप्त हैं। 1. प्रस्तुत उज्जयन्तालङ्कार नेमिजिनस्तोत्र 10 पद्यों का है, वसन्ततिलका छन्द में रचित है और इसमें भगवान् नेमिनाथ के पञ्च कल्याणकों की भाव-गर्भित स्तुति की गई है। 2. श्री जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) - मरोट निवासी भांडागारिक नेमिचंद्र के पुत्र थे और इनकी माता का नाम लक्ष्मणी था। वि० सं० 1245, मार्गशीर्ष शुक्ला 11 को इनका जन्म हुआ था। अम्बिका देवी के स्वप्नानुसार इनका जन्म नाम अम्बड़ था। वि० सं० 1258 चैत्र कृष्णा 2 खेड़ नगर के शांतिनाथ जिनालय में श्री जिनपतिसूरि ने इनको दीक्षित कर वीरप्रभ नाम रखा था। वि० सं० 1273 में मनोदानंद के साथ जिनपालोपाध्याय का जो शास्त्रार्थ हुआ था, उस शास्त्रार्थ के समय वीरप्रभगणि भी सम्मिलित थे। जिनपतिसूरि के मुख से महाविद्वानों की सूची में वीरप्रभगणि का भी नामोल्लेख मिलता है। जिनपतिसूरि ने अपने पाट पर वीरप्रभगणि को बैठाने का संकेत भी किया था। वि० सं० 1277, माघ सुदि 6 को पट्टधर आचार्य बने। उस समय इनका नाम जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) रखा गया। इनके द्वारा विविध स्थानों पर विविध प्रतिष्ठाएँ हुई, उनमें से कुछ प्रतिमाएँ आज भी विद्यमान हैं (देखें - म. विनयसागर द्वारा लिखित खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास)। वि० सं० 1331 आश्विन कृष्णा 5 को जालौर में इनका स्वर्गवास हुआ था। (विस्तृत परिचय के लिए देखें - जिनपालोपाध्याय रचित, खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली और म. विनयसागर द्वारा लिखित खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास)। इनके द्वारा 1313 में रचित श्रावकधर्मविधि प्रकरण और लगभग 12-13 स्तोत्र प्राप्त हैं। श्रावकधर्मविधि प्रकरण पर लक्ष्मीतिलकोपाध्याय ने विक्रम सम्वत् 1317 में जालौर में बृहद्-वृत्ति की रचना की थी, जो अभी तक अप्रकाशित है। प्रस्तुत गौतम गणधर स्तोत्र प्राकृत भाषा में नौ गाथाओं में रचित है। इसमें उनके विशिष्ट गुणों का वर्णन करते हुए जीवन की विशिष्ट-विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख है। आचार्य बनने के पूर्व रचना होने से इसमें वीरप्रभ का ही नामोल्लेख किया गया है। लेख संग्रह Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. सूरप्रभगणि - वि० सं० 1245 में फाल्गुन मास में पुष्करणी नगर में जिनपतिसूरि ने इनको दीक्षा प्रदान कर सूरप्रभ नाम रखा था। 1277 के पूर्व ही इनको वाचनाचार्य पद प्राप्त हो गया था। आचार्य जिनपतिसूरि की दृष्टि में ये उस समय के उद्भट विद्वान थे। इनके द्वारा रचित कृतियों में केवल एक ही कृति प्राप्त होती है, वह है - युगप्रधान जिनदत्तसूरि रचित कालस्वरूपकुलक-वृत्ति / यह वृत्ति अपभ्रंशकाव्यत्रयी में प्रकाशित हो चुकी है। गौतम गणधर स्तव - यह संस्कृत भाषा में रचित नौ पद्यों की रचना है। शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा, मालिनि, अनुष्ठप् आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। इस स्तोत्र में भी भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य गौतमगोत्रिय इन्द्रभूति (गौतम स्वामी) के गुणों की स्तवना भक्तिपूरित हृदय से की गई है। __ श्रीजिनपतिसूरिग्रथितं उज्जयन्तालङ्कार-नेमिजिनस्तोत्रम् यथा वा सुगृहीतनामधेयैः समुपचितनिचितभागधेयैः स्वमतिप्रतिभाप्रतिहतसुरगुरुभिर्गुणगणगुरुभिः प्रवरनव्यकाव्यप्रबन्धमधुमधुरसुधारसपानप्रमोदितसूरिभूरिभिः श्रीयादवकुलतिलकस्य समुद्रविजयाङ्गजस्य . निष्पिष्टदुष्टाङ्गजस्य समस्तत्रिभुवनसौभाग्यभाग्यलक्ष्मीसनाथस्य श्रीनेमिनाथस्य स्तुतिश्चक्रे / तद् यथा - व्याख्यास्तु यस्य रदनद्युतयोऽसिताङ्ग-भाशारिता विसृमरा हरिदङ्गनानाम्। . .. वक्षःसुनीलमणिखण्डविमिश्रमुक्ता-दामश्रियं विदधिरेऽवतु वः स नेमिः॥१॥ यस्याङ्गनिर्यदतिसान्द्रविसारिनील-कान्तिप्रतानपिहिताः ककुभो विभाव्य। जन्मोत्सवस्य दिवसे नववारिवाह-संदोहशंकि धियो ननृतुर्मयूराः // 2 // श्रीमच्चतुर्वदनभाषितवाड्मयाब्धिः, पादोपगृहनपवित्रितराजहंसः। पद्मोद्भवस्त्रिजगतीभवकृत्स्वयम्भू-र्यो दिद्युते नियमितस्फुरदक्षमालः॥ 3 // कृत्स्नागसन्धिसुभगां प्रणिधिप्रधानां, सद्विग्रहां मृदुकरां वरदन्तियानाम्। उत्सृज्य राज्यकमलां गुणराजमानां, राजीमती च दयितां जगृहे व्रतं यः॥ 4 // भामानिलीनहृदयः सहितो बलेन, सद्धर्मचक्रमथितप्रतिपन्थिसार्थः। गोपालपूगकृतसंस्तवनोर्च्यते यो, गोमण्डलं जडविपत्तित उद्दधार // 5 // दीक्षामहस्यतनुसान्द्रदरिद्रताद्रु-विद्रावणं वितरता द्रवितं वितन्द्रम्। येन दुतं तनुभृतः सुखिनोऽक्रियन्त, सातायर्वजगतौ ( साताय सर्वजगतौ ) महतां हि भूमिः॥६॥ स्फूर्जत्कलानिलयसंकलितोत्तमाङ्गो, विश्वम्भराभृदतिशायिकृतानुरागः। रोचिष्णुगूरुचितशक्तिधरः स्मरारि-र्यो भारतं परमसिद्धिलवं चकार // 7 // आश्चर्यमेकमपि यस्य वचो विचित्रां, लोकस्य संशयततिं युगपन्निरास्थत्। भव्यात्मनां भुवि सदा फलितस्य पुण्य-कल्पद्रुमस्य क इवाविषयोप्यवार्यः॥ 8 // यत्कौशिकस्य परमप्रमदं तनोति, शश्वन्महोभिरधिकं विधुमादधाति। विस्फारयत्यनुदितं कुमुदं च यस्य, तत्केवलं कथमिवार्कसमं समस्तु॥९॥ अद्यापि यत्प्रतिकृती रुचितां पिपर्ति, पुंसां स्थिता गुरुणि रैवतकाद्रिशृङ्गे। स श्रीसमुद्रविजयक्षितिपाङ्गजः श्री-नेमिः श्रियं जिनपतिस्तनुतान्तरां वः॥ 10 // ततः स्तवै इत्यभिधानस्य स्तवनवचनाप्रतिपादनात् आकाशकुसुम-कृतशेखरवन्ध्यातनयसाम्यमेव समेति। नन्वेवमेतद् यादृशं हि स्तवनं श्रीजिनपतिसूरिभिर्विदधे तादृशमेव वयमपि मन्यामहे / [गणधरसार्द्धशतकबृहद्वृत्ति सुमतिगणि कृत. द्वितीय पद्यव्याख्या, दानसागर ज्ञान भण्डार, बीकानेर ग्रन्थाङ्क 1061, ले. 1674, पत्र 40 बी] लेख संग्रह 38 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरि-सूरप्रभ-सन्दृब्धं श्रीगौतमगणधर-स्तवद्वयम् तथा जिनेश्वरसूरिभिः श्रीसूरप्रभाभिधैश्च भगवतः श्रीगौतमस्वामिनो नानाप्रकारसारवृत्तार्यायमकालङ्कारगाथादिभिः स्तुतिश्चक्रे, परं तन्मयात् सुबोध किञ्चित् प्रकाश्यन्ते / तथा - अक्खीणमहाणसिचारुचारप्पमुहलद्धिनिवहनिद्धिहिं। सिरिगोयमगणनाहं थुणामि निद्दलियदुहदाहं॥१॥ समचउरंससुसंठाणसंढिय-वजरिसहसंघयणं। तिरुजव्व कंचणच्छायकायमुच्छिन्नमयमायं // 2 // जणि जिट्ठाहिं जायं मगहासु गुव्वरग्गामे। गुत्तेण गोयमं गोयमं नमसामि गणसामि॥३॥ पुहवी-वसुभूईणं च नंदणं मंडणं मुणिगणस्स। गोयमसामिं वंदे सत्तकरुस्सेहदेहमहं॥ 4 // सिरिइंदभूइमंचामि गणहरं गरुयगुणगणगरिटुं। जिटुं सहोयरं अग्गिभूइ - सिरिवाउभूईणं॥५॥ पन्नासं गिहिवासे छउमत्थत्ते य जस्स तीससमा। बारस य केवलत्ते तं गोयमसामिमंचामि॥६॥ जणेह दक्खियाणं ताणं पन्नरसतावससयाणं। उप्पन्नं केवलमुज्जलं व सो गोयमो जयइ॥७॥ पालियबाणवइवच्छराई सव्वाउमुवगउ सिद्धं / जो रायगिहे नगरे स गोयमो हुज्ज मे सरणं॥८॥ इयमु सुसूरियवम्मह वीरप्पहपत्तसोहहयमोहं। सिरिगोयमवरगणहर वियरसु मम केवलन्नाणं॥९॥ तथा - .. अब्धिलब्धिकदम्बकस्य तिलको निःशेषसूर्यावलेरापीडः प्रतिबोधनैपुणवतामग्रेसरो वाग्मिनाम्। दृष्टान्तो गुरुभक्तिसालमनसां मौलिस्तवः श्रीजुषां, सर्वाश्चर्यमयो महिष्टसमयः श्रीगौतमः स्तान्मुदे // 1 // यस्य द्वा परमात्मगोचरमहो वीरः स्वयं केवलालोकालोकितविश्ववस्तुनिकरः कारुण्यवारांनिधिः / युक्त्या वेदगिरा निरस्य नितरां दीक्षां ददे पञ्चभिः,, सार्द्ध शिष्यशतैः स गौतमगुरुर्दिश्यान्मनोगौरवम्॥२॥ मगधेषु मगध्यामो मणीयामपि गोर्वरम्, पृथिवीं विद्मवसुधां यत्राजायत गौतमः॥३॥ यः शिष्येभ्यो बहुभ्यः त्रिभुवननयनं केवलालोकमोकः, सर्वस्या एव ऋद्धेः परमपदसमारोहनिःश्रेणिकल्पम्। 'लेख संग्रह 39 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दत्त्वा श्वेतोपमेयमहिमपरिमलोद्गारगोरव्यकीर्त्तिः, स श्रीमानिन्द्रभूतिः क्षिपतु मयि दृशं निर्विवादप्रसादम्॥४॥ सकलसमयसिन्धोः पारगामीति विद्वानपि विनयविवेकब्रह्मसंवर्मितात्मा। किमपि किमपि तत्त्वं सत्त्ववर्गोपकृत्यै, जिनमनुयुयुजे यः सोऽवताद् गौतमो वः॥५॥ यं निःशेषगुणाकरं गुरुतयाङ्गीकृत्य सर्पिर्मधुस्वादी यः परमान्नपूर्णजठराः स्वामोदमेदस्वितः। सद्यः केवलितामिता बत परिव्राजो जिनायापि नो तेऽमुस्तं परमोपकारिणमहं वन्दे गणाधीश्वरम्॥६॥ यस्याने भगवज्जगद्गुरुमहावीराहतोऽनुज्ञया, देवाः प्रेक्ष कं त्रिलोकजनता चित्तेक्षणां मांक्षिणम्। ? कुर्वाणा कृतकृत्यतामिव कलाकौशल्यदिव्यश्रियोमन्यन्ते स्म स मान्यतां मुनिपतिः श्रीगौतमः सत्तमः॥६॥ श्रुतमपि बहुभक्त्याऽऽराध्यमाना अजस्त्रं, ददति किमपि कृच्छ्रात्प्रायसः सूरयोन्यो। '' दिन सपदि यस्तु ब्रह्मशिष्योत्तमेभ्यः, स जयति भगवान् श्रीगौतमाचार्यवर्यः॥ [सुमतिगणि कृत गणधरसार्द्धशतक बृहद्वृत्ति, पत्र 3 से 5 व्याख्या, दानसागरज्ञान भण्डार, ग्रंथांक 1061, ले. 1639 पत्रांक 45 ए.बी.] [अनुसंधान अंक 31] 000 लेख संग्रह Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्भाषाबद्ध चन्द्रप्रभस्तव के कर्ता जिनप्रभसूरि हैं अनुसंधान अंक 33, पृष्ठ 20 पर मुनि श्री कल्याणकीर्तिविजयजी का जिनभक्तिमय विविध गेय रचनाओं शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। इस लेख में पृष्ठ 25-26 पर चन्द्रप्रभस्तव प्रकाशित है। यह स्तोत्र छ: भाषाओं - संस्कृत, प्राकृत, शूरसेनी, मागधी, पैशाचिकी, चूलिका पैशाचिकी, अपभ्रंश और समसंस्कृत प्राकृत भाषा में गुम्फित है। प्रत्येक भाषा में दो-दो पद्य हैं और अन्तिम पद्य घत्ता छन्द में है। इस कृति के कर्ता के सम्बन्ध में लेखक ने पृष्ठ 20 पर लिखा है - कन्नो कोई उल्लेख नथी अर्थात् कर्ता का कोई उल्लेख नहीं है। इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है: 1. प्रकरण रत्नाकर भाग-२ जो कि पण्डित भीमसिंह माणेक ने बम्बई से सन् 1876 में प्रकाशित किया है। उसके पृष्ठ 269 पर यह स्तोत्र प्रकाशित हुआ है। इस स्तोत्र के अन्त में लिखा है - इति श्री जिनप्रभसूरिकृतचन्द्रप्रभस्वामिसत्कं षड्षाभास्तवनं सम्पूर्णम्। . 2. विधि मार्ग प्रपा, जिनप्रभसूरि कृत की भूमिका में अगरचन्द भंवरलाल नाहटा ने पृष्ठ 18 पर स्तुति-स्तोत्रादि की सूची देते हुए षड्भाषामय चन्द्रप्रभ जिनस्तुति (नमो महासेननरेन्द्रतनुज) गाथा-१३ जिनप्रभसूरि का ही माना है। . 3. मैंने (विनयसागर) भी शासनप्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य पुस्तक के पृष्ठ 99 पर जिनप्रभसूरि की ही कृति माना है। - आचार्य जिनप्रभसूरि १४वीं-१५वीं शताब्दी के प्रभावक आचार्यों एवं असाधारण विद्वानों में से हैं। ये खरतरगच्छ की लघुखरतर शाखा के द्वितीय जिनेश्वरसूरि के पौत्र शिष्य और जिनसिंहसूरि के शिष्य हैं। भारत के तुगलक शाखा के सम्राटों में मोहम्मद तुगलक के ये प्रतिबोधक भी हैं। प्राकृत और संस्कृत साहित्य के ये प्रौढ़ मनीषियों में से थे। इनके द्वारा निर्मित असाधारण कृतियों में विविध तीर्थकल्प, विधि मार्ग प्रपा और द्वयाश्रय महाकाव्य (कातन्त्र व्याकरण के सूत्र और श्रेणिक चरित्र)। ये माँ पद्मावती के साधक थे। इनके चमत्कारों का वर्णन तपागच्छीय शुभशीलगणि कृत पञ्चशती कथा प्रबन्ध और सोमधर्मगणि कृत उपदेश सप्ततिका में प्राप्त होते हैं। इनके द्वारा लगभग 700 स्तोत्रों का निर्माण हुआ था और कथानकों के अनुसार 500 स्तोत्र तपागच्छ के आचार्य सोमप्रभसूरि को समर्पित किए थे। इनके रचित स्तोत्रों में से लंगभग 80 स्तोत्र प्राप्त होते हैं। इन स्तोत्रों में से कई स्तोत्र अष्टभाषामय, षड्भाषामय, पारसी भाषामय भी प्राप्त होते हैं। इनके उत्कट वैदुष्य को देखते हुए इस स्तोत्र के कर्ता भी जिनप्रभसूरि हो सकते हैं। ___प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों की लेखन-परम्परा में कई स्तोत्रकारों ने अपना नाम श्लेषालङ्कार में, चित्र काव्य में और नाम के पर्यायवाची शब्दों में अथवा आद्यन्त के रूप में भी प्रदान किए हैं। साथ ही कई कृतियों में प्रणेता का नाम न होने पर भी तत्कालीन आचार्यों एवं प्रतिलिपिकारों द्वारा उस आचार्य की कृति को श्रद्धा के साथ मानते हुए अन्त में कृतिरियं श्री जिन....सूरीणां लिखते हैं। इसी प्रकार इस कृति में लेख संग्रह 41 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणेता का नाम न होने पर भी कृतिरियं श्री जिनप्रभसूरीणां लिखा हो और उसी के आधार से उन्हीं की यह कृति मानी जाती हो, अतः यह कृति जिनप्रभसूरि की मानने में कोई आपत्ति नहीं है। पद्य 12 दूसरे चरण में सबलकर-भु (भू) रुहकुंजर के स्थान पर सबलकलिभूरुहकुञ्जर और चतुर्थ चरण में मम भुरुहकुंजर ( ?) / के स्थान पर मम केवलिकुञ्जर प्राप्त है। जिनप्रभसूरि के सम्बन्ध में मेरे द्वारा लिखित शासनप्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य पुस्तक द्रष्टव्य है। [अनुसंधान अंक 34] 000 लेख संग्रह Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादमञ्जरी तार्किक युग के सर्वोत्कृष्ट जैन विद्वान हैं श्रुतकेवलीतुल्य आचार्य सिद्धसेन दिवाकर। इन्होंने न्याय-प्रधान तार्किक शैली में श्रमण भगवान् महावीर की स्तुति के माध्यम से अनेक द्वात्रिंशिकाओं की रचना की, जिनमें से 21 द्वात्रिंशिकाएँ प्राप्त हुई हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के अनुकरण पर तर्कप्रधान दार्शनिक शैली में चिन्तन और भक्ति का सुन्दरतम/अनुपम समन्वय करते हुए कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने भी भगवान महावीर की स्तुति के माध्यम से दो द्वात्रिंशिकाओं की रचनाएँ की 1. अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका और 2. अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका। अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका पर ही श्री मल्लिषेणसूरि ने 'स्याद्वादमंजरी' नामक टीका की रचना की है। यह पर ऐसी अनुपम सौभाग्यशालिनी रचना है कि टीका करते हुए भी स्वतन्त्र मौलिक कृति की प्रतीति के रूप में 'स्याद्वादमंजरी' के नाम से साहित्य-जगत में प्रसिद्ध है। कृतिकार हेमचन्द्र इनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में स्वरचित ग्रन्थों एवं परवर्ती आचार्यो/लेखकों द्वारा लिखित निम्नांकित ग्रन्थों में प्रचुर एवं प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध है:१. व्याश्रय काव्य हेमचन्द्रसूरि 2. सिद्धहेमशब्दानुशासन प्रशस्ति हेमचन्द्रसूरि 3. परिशिष्ट पर्व हेमचन्द्रसूरि 1172 4. कुमारपाल प्रतिबोध सोमप्रभसूरि 1241 5. प्रभावक चरित प्रभाचन्द्रसूरि 1334 6. प्रबन्ध चिन्तामणि मेरुतुंगसूरि 1361 7. प्रबन्धकोश राजशेखरसूरि 1405 8. लाइफ आफ हेमचन्द्र डॉ. बूल्हर 9. हेमचन्द्राचार्य धूमकेतु 1946 ई. 10. आचार्य हेमचन्द्र डॉ. वि. भा. मुसलगांवकर 1971 ई. इन्हीं ग्रन्थों के आलोक में इनके जीवन की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत है। . जीवनवृत्त - धुन्धुका नगर (गुजरात) में वि. सं. 1145 कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को इनका जन्म हुआ था। मोढवंशीय वैश्य थे। इनके पिता का नाम चाचिग और माता का नाम पाहिणी/चाहिणी देवी था। जन्म नाम चांगदेव था। चांगदेव जब गर्भ में थे तब उनकी माता ने शुभस्वप्न देखा था- एक आम का सुन्दर वृक्ष स्थानान्तर से अधिक फलवान बन गया अथवा चिन्तामणि रत्न प्राप्त हुआ जिसे गुरु को अर्पित कर दिया। चांगदेव बाल्यावस्था में ही माता के साथ मन्दिर जाया करते थे और गुरुजनों के प्रवचनों का श्रवण 1889 ई. लेख संग्रह 43 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते थे। पूर्णतल्लगच्छीय देवचन्द्रसूरि के उपदेशों से प्रभावित होकर मुमुक्ष/वैराग्यवान बन गया था। चांगदेव के मामा नेमिनाग और उदयन मन्त्री के सहयोग से खंभात में वि. सं. 1154 माघ शुक्ला चतुर्दशी, शनिवार को महोत्सवपूर्वक इनकी भागवती दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षा के समय इनका नामकरण हुआ - मुनि सोमचन्द्र। दीक्षानन्तर गुरु के सान्निध्य में रहकर, विद्याध्ययन किया। प्रखर प्रतिभा के कारण कुछ ही वर्षों में सर्व शास्त्रों में निष्णात बन गये। ब्रह्माणी/सरस्वती देवी की साधना की और देवी के दर्शन से सिद्ध सारस्वत बन गये। गुरु के साथ देश-देशान्तर परिभ्रमण कर शास्त्रीय एवं व्यावहारिक ज्ञान की अभिवृद्धि की। इनकी विद्वता, संयमशीलता, तेज, प्रभाव, स्पृहणीय गुण और जनाकर्षिणी शक्ति को देखकर, गुरु देवचन्द्राचार्य ने वि. सं. 1166 वैशाख शुक्ला 3 को नागपुर (नागोर)/ खंभात में इनको सूरिमन्त्र प्रदानकर आचार्य पद प्रदानकर हेमचन्द्रसूरि नामकरण किया। आचार्य बनते समय इनकी उम्र केवल 21 वर्ष की थी। वि. सं. 1181 में अणहिलपुर पत्तन में सिद्धराज जयसिंह की उपस्थिति में राज्य सभा में कुमुदचन्द्र और वादी देवसूरि का जो लोक विश्रुत शास्त्रार्थ हुआ था, उसमें सभा पण्डित के नाते हेमचन्द्र भी उपस्थित थे। अतः निश्चित है कि तत्पूर्व ही अपनी बहुमुखी प्रतिभा और प्रसरित यशोकीर्ति के बल पर ये सिद्धराज जयसिंह के सम्पर्क में आ चुके थे। सं. 1191-92 में सिद्धराज जयसिंह को मालवाविजय पर हेमचन्द्र ने जैन प्रतिनिधि के नाते स्वागत किया था। तब से अर्थात् 1192 से 1199 तक इनका जयसिंह से अटूट सम्बन्ध रहा। मालवा के समृद्ध साहित्य-वैभव के सन्मुख गुजरात की हीन दशा देखकर जयसिंह का हृदय क्षुभित हो उठा। भाषा ज्ञान एवं साहित्य वैभव से गुजरात भी समृद्ध हो, बल्कि दूसरे प्रान्तों के लिए भी सिरमोर बने' इसी भावना से उसने अपनी राज्य सभा में एकमात्र सर्वविद्या विधान सिद्ध सारस्वत हेमचन्द्रसूरि से अत्याग्रहपूर्वक अनुरोध किया कि 'आचार्य! भोज-व्याकरण के समान ही शब्दानुशासन का निर्माण कर गुर्जर धरा को गौरव मण्डित करें।' और हेमचन्द्र ने भी सिद्धराज जयसिंह के अभिलाषानुरूप ही सिद्धहेमशब्दानुशासन नामक नवीन व्याकरण शास्त्र का निर्माण कर गुजरात को अभूतपूर्व गौरव प्रदान किया और स्वयं के साथ सिद्ध शब्द जोड़कर सिद्धराज जयसिंह का नाम भी चिरस्थायी बना दिया। तत्पश्चात् भी सिद्धराज की निरन्तर प्रेरणा से हेमचन्द्र को कोश, छन्द, अलंकार शास्त्र तथा साहित्य रचने का अवसर मिला। हेमचन्द्र और जयसिंह दोनों समवयस्क थे। वैसे हेमचन्द्र उनसे मात्र तीन वर्ष छोटे थे। अतः इन दो महानुभावों का परस्पर सम्बन्ध गुरू-शिष्य के रूप में न रहकर प्रगाढ़ मैत्री के रूप में रहा हो, ऐसा प्रतीत होता है। तथापि सिद्धराज सदैव हेमचन्द्र के प्रभाव में रहे / हेमचन्द्र ने सर्व-दर्शन के सम्मत होने का उपदेश दिया तो सिद्धराज ने सर्व धर्मों का समान आराधन किया। इसी के फलस्वरूप शैव मतानुयायी होने पर भी सिद्धराज उनके उपदेशों से जैनेन्द्र धर्म में अनुरक्तमना हुआ और सिद्धपुर में महावीर स्वामी का समृद्ध एवं दर्शनीय सिद्धविहार नामक जैन मन्दिर बनवाया। ___ सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु के पश्चात् त्रिभुवनपाल का पुत्र कुमारपाल वि. सं. 1199 मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्दशी को पाटण की राजगद्दी पर बैठा। लेख संग्रह Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयसिंह अपने जीवनकाल में कुमारपाल को मारने की सतत चेष्टा में था, अतः कुमारपाल अपने प्राण बचाने के लिये गुप्तवेष धारण कर इधर-उधर भागता रहता था। इसी बीच हेमचन्द्र ने एक बार कुमारपाल को संरक्षण प्रदान कर रक्षा की थी। शुभ लक्षण देखकर राज्यासीन होने का आशीर्वाद भी दिया था। - गुर्जराधिपति बनने के पश्चात् कुमारपाल का सम्पर्क आचार्य हेमचन्द्र से उत्तरोत्तर अविच्छिन्न रूप से गुरु-शिष्य जैसा बढ़ता ही गया। वंशानुगत शिवभक्त होने हुए भी हेमचन्द्र के उपदेश से कुमारपाल का उत्तरावस्था का जीवन प्रायः द्वादश व्रतधारी श्रावक जैसा हो गया था। हेमचन्द्र के प्रभाव से उनके ही निर्देशन में कुमारपाल ने गुजरात को दुर्व्यसनों से मुक्त कराने का सफलतम प्रयास किया। अपने राज्य में प्राणिवध, मांसाहार, असत्य भाषण, वेश्यागमन, परधनहरण, मद्यपान और द्यूतक्रीड़ा आदि का पूर्णत: निषेध कर दिया। राज्य के अधीन 18 प्रान्तों में 14 वर्ष तक पशुवध के निषेध का आदेश 'अमारिपटह' प्रसारित किया। कुमारविहार, त्रिभुवनपाल विहार, झोलिका विहार, मूषकविहार, करम्ब विहार, अजितनाथ मन्दिर (तारंगा) आदि विशाल शिखरबद्ध देव-मन्दिरों का निर्माण करवाकर गुर्जरधरा को मंडित कर दिया। केदार तथा सोमनाथ मन्दिरों का जीर्णोद्धार भी करवाया। __अन्तिम जीवन में कुमारपाल अपने आचार-विचार और व्यवहार से पूर्णत: धर्मनिष्ठ बन गया था। सर्वधर्म-सहिष्णु बनकर, भक्ति और योग में तन्मय हो गया था। यही कारण है कि आचार्य हेमचन्द्र स्वयं अपने ग्रन्थों में कुमारपाल को 'राजर्षि' एवं 'परमार्हत्' जैसे विशिष्टतम विशेषण से सम्बोधित करते हैं। कुमारपाल की प्रार्थना पर ही हेमचन्द्र ने योगशास्त्र, वीतराग स्तोत्र, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र महाकाव्य, द्वयाश्रय काव्य आदि की रचना की। .. वृद्धावस्था में आचार्य हेमन्नन्द्र को लूता रोग लग गया, परन्तु अष्टांग योगाभ्यास द्वारा लीला के साथ उन्होंने उस रोग को नष्ट किया। वि. सं. 1229 में 84 वर्ष की अवस्था में अनशनपूर्वक अन्त्याराधन क्रिया करते हुए एवं कुमारपाल को धर्मोपदेश देते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने दशम द्वार से अपने प्राण त्याग दिये। आचार्य हेमचन्द्र निर्मित साहित्य आचार्य हेमचन्द्र का साहित्य निर्माण का काल लगभग 1190 से 1228 तक माना जाता है। इनके द्वारा रचित पंक्तियों की संख्या 3/4 करोड़ बतायी जाती है। यदि हम इसे अतिशयोक्तिपूर्ण मान लें तब भी वर्तमान में प्राप्त इनकी रचनाओं को देखने से स्पष्ट होता है कि वे अपने समय के मूर्धन्य विद्वान थे। वाङ्मय के सम्पूर्ण इतिहास में किसी अन्य ग्रन्थकार की इतनी अधिक और विविध विषयों की रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं। . प्राप्त साहित्य का विषयानुसार वर्गीकरण इस प्रकार है:व्याकरण- सिद्धहेमशब्दानुशासन - लघु वृत्ति (6000 श्लो.) वृहद्वृत्ति (18000 श्लो.), बृहन्न्यास (84000 श्लो.), प्राकृत व्याकरण वृत्ति (2200 श्लो.), लिंगानुशासन (3684 श्लो.), उणादिगण विवरण (3250 श्लो.), धातुपारायण विवरण (5600 श्लो.)। कोष- 1. अभिधानं चिन्तामणि नाममाला सविवरण (10000 श्लो.) . 2. शेष संग्रह 3. अनेकार्थ कोष (1828 श्लो.) लेख संग्रह Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. निघण्टु कोष (396 श्लो.) 5. देशीनाममाला (3500 श्लो.) छन्द- छन्दोनुशासन सविवरण (3000 श्लो.) अलंकार- काव्यानुशासन सविवरण (6800 श्लो.) काव्य- 1. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र महाकाव्य (32000 श्लो.) परिशिष्ट पर्व (3500 श्लो.), 2. व्याश्रय काव्य-प्राकृत (1500 श्लो.), संस्कृत (2828 श्लो.) / स्तोत्र- 1. वीतराग स्तोत्र (188 श्लो.), 2. अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका (32 श्लो.), 3. अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका, 4. महादेव स्तोत्र (श्लो. 44) न्याय- 1. प्रमाणमीमांसा (2500 श्लो.), 2. वेदांकुश (1000 श्लो.) योग- योगशास्त्र सविवरण (12750 श्लो.) आचार्य हेमचन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा एवं असाधारण व्यक्तित्व के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने जो अपने अभिमत प्रकट किये हैं, वे आचार्य की प्रतिभा को समझने में अत्यन्त सहायक हैं, अतः उन्हें उद्धृत कर रहा हूँ: ___ कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र, जिन्हें पश्चिमी विद्वान् आदरपूर्वक ज्ञान का सागर Ocean of Knowledge कहते हैं, संस्कृत जगत् में विशिष्ट स्थान रखते हैं। संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य के मूर्धन्य प्रणेता आचार्य हेमचन्द्र का व्यक्तित्व जितना गौरवपूर्ण है उतना ही प्रेरक भी है। कलिकालसर्वज्ञ उपाधि से उनके विशाल एवं व्यापक व्यक्तित्व के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है। न केवल अध्यात्म एवं धर्म के क्षेत्र में अपितु साहित्य एवं भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में भी उनकी प्रतिभाषा का प्रकाश समान रूप से विस्तीर्ण हुआ। इनमें एक साथ ही वैयाकरण, आलंकारिक, दार्शनिक, साहित्यकार, इतिहासकार, पुराणकार, कोषकार, छन्दोनुशासक, धर्मोपदेशक और महान् युगकवि का अन्यतम समन्वय हुआ है। आचार्य हेमचन्द्र का व्यक्तित्व सार्वकालिक, सार्वदेशिक एवं विश्वजनीन रहा है, किन्तु दुर्भाग्यवश अभी तक उनके व्यक्तित्व को सम्प्रदाय-विशेष तक ही सीमित रखा गया। सम्प्रदायरूपी मेघों से आच्छन्न होने के कारण इन आचार्य सूर्य का आलोक सम्प्रदायेतर जन साधारण तक पहुँच न सका। स्वयं जैन सम्प्रदाय में भी साधारण बौद्धिक स्तर के लोग आचार्य हेमचन्द्र के विषय में अनभिज्ञ हैं। किन्तु आचार्य हेमचन्द्र का कार्य तो सम्प्रदायातीत और सर्वजनहिताय रहा है और, इस दृष्टि से वे अन्य सामान्य जन, आचार्यों एवं कवियों से कहीं बहुत अधिक सम्मान एवं श्रद्धा के अधिकारी हैं। संस्कृत साहित्य और विक्रमादित्य के इतिहास में जो स्थान कालिदास का और श्री हर्ष के दरबार में जो स्थान बाणभट्ट का है, प्रायः वही स्थान २१वीं शताब्दी में चौलुक्य वंशोद्भव सुप्रसिद्ध गुर्जर नरेन्द्र शिरोमणि सिद्धराज जयसिंह के इतिहास में श्री हेमचन्द्राचार्य का है। प्रो. पारीख इन्हें Intellectual Giant कहा है। वे सचमुच लक्षणा साहित्य तथा तर्क अर्थात् व्याकरण, साहित्य तथा दर्शन के असाधारण आचार्य थे। वे सुवर्णाभ कान्ति के तेजस्वी एवं आकर्षक व्यक्तित्व को धारण करने वाले महापुरुष थे। वे तपोनिष्ठ थे, शास्त्रवेत्ता थे तथा कवि थे। व्यसनों को छुड़ाने में वे प्रभावकारी सुधारक भी थे। उन्होंने जयसिंह और कुमारपाल की सहायता से मद्यनिषेध सफल किया 46 लेख संग्रह Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। उनकी स्तुतियाँ उन्हें सन्त सिद्ध करती हैं, तथा आत्म-निवेदन उन्हें योगी सिद्ध करता है। सर्वज्ञ के अनन्य उपासक थे। . आचार्य हेमचन्द्र के दिव्य जीवन में पद-पद पर हम उनकी विविधता, सर्वदेशीयता, पूर्णता, भविष्यवाणियों में सत्यता और कलिकाल-सर्वज्ञता देख सकते हैं उन्होंने अपनी ज्ञान-ज्योत्स्ना से अंधकार का नाश किया। वे महर्षि, महात्मा, पूर्ण संयमी, उत्कृष्ट, जितेन्द्रिय एवं अखण्ड ब्रह्मचारी थे। वे निर्भय, राजनीतिज्ञ, गुरुभक्त, भक्तवत्सल तथा वादिमानमर्दक थे। वे सर्वधर्मसमभावी, सत्य के उपासक, जैन धर्म के प्रचारक तथा देश के उद्धारक थे। वे सरल थे, उदार थे, नि:स्पृह थे। सब कुछ होते हुए भी, प्रो. पीटर्सन के शब्दों में, दुनिया के किसी भी पदार्थ पर उनका तिलमात्र मोह नहीं थे। उनके प्रत्येक ग्रन्थ में विद्वत्ता की झलक, ज्ञानज्योति का प्रकाश, राजकार्य में औचित्य, अहिंसा प्रचार में दीर्घदृष्टि, योग में आकर्षण, स्तुतियों में गंभीर्य, छन्दों में बल, अलंकारों में चमत्कार, भविष्यवाणी में यथार्थता एवं उनके सम्पूर्ण जीवन में कलिकाल-सर्वज्ञता झलकती है। हेमचन्द्राचार्य प्रकृति से सन्त थे। सिद्धराज जयसिंह एवं कुमारपाल की राज्यसभा में रहते हुए भी उन्होंने राज्यकवि का.सम्मान ग्रहण नहीं किया। वे राज्यसभा में भी रहे तो आचार्य के रूप में ही। गुजरात का जीवन उन्नत करने के लिये उन्होंने अहिंसा और तत्त्वज्ञान का रहस्य जनसाधारण को समझाया, उनसे आचरण कराया और इसीलिये अन्य स्थानों की अपेक्षा गुजरात में आज भी अहिंसा की जड़ें अधिक मजबूत हैं। गुजरात में अहिंसा की प्रबलता का श्रेय आचार्य हेमचन्द्र को ही है। गुजरात ने ही आचार्य हेमचन्द्र को जन्म दिया। यह देवी घटनाओं का चमत्कार प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में आचार्य हेमचन्द्र ने अपने दिव्य आचरण से, प्रभावकारी प्रचार एवं उपदेश से महात्मा गांधी के जन्म की पृष्ठभूमि ही मानों तैयार की थी। भारत के इतिहास में यदि सर्वथा मद्यविरोध तथा मद्यनिषेध हुआ है तो वह सिद्धराज एवं कुमारपाल के समय में ही। इसका श्रेय निःसन्देह पूर्णतया आचार्य हेमचन्द्र को ही है। उस समय गुजरात की शान्ति, तुष्टि, पुष्टि एवं समृद्धि के लिये आचार्य हेमचन्द्र ही प्रभावशाली कारण थे। इनके कारण ही कुमारपाल ने अपने आधीन अठारह बड़े देशों में चौदह वर्ष तक जीवहत्या का निवारण किया था। कर्णाटक, गुर्जर, लाट, सौराष्ट्र, कच्छ, सिन्धु, उच्च भंमेरी, मरुदेश, मालव, कोंकण, कीर, जांगलक, सपादलक्ष, मेवाड़, दिल्ली और जालंधर देशों में कुमारपाल ने प्राणियों को अभयदान दिया और सातों व्यसनों का निषेध किया। ... - आचार्य हेमचन्द्र ने अपने पाण्डित्य की प्रखर किरणों से साहित्य, संस्कृति और इतिहास के विभिन्न क्षेत्रों को आलोकित किया है। वे केवल पुरातन पद्धति के अनुयायी नहीं थे। जैन साहित्य के इतिहास में हेमचन्द्र युग के नाम से पृथक् समय अंकित किया गया है तथा उस युग का विशेष महत्व है। वे गुजराती साहित्य और संस्कृति के आद्य-प्रयोजक थे। इसलिये गुजरात के साहित्यिक विद्वान् उन्हें गुजरात का ज्योतिर्धर कहते हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन तत्कालीन गुजरात के इतिहास के साथ गुंथा हुआ है। उन्होंने अपने ओजस्वी और सर्वांगपरिपूर्ण व्यक्तित्व से गुजरात को संवारा है, सजाया है और युग-युग तक जीवित रहने की शक्ति भरी है। _ 'हेम सारस्वत सत्र' उन्होंने सर्वजनहिताय प्रकट किया। क. म. मुन्शी ने उन्हें गुजरात का चेतनदाता (Creator of Gujarat Consciousness) कहा है। -डॉ. वि. भा. मुसलगांवकर : आचार्य हेमचन्द्र, पृ. 169-173 लेख संग्रह 47 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आचार्य हेमचन्द्र के कारण ही गुजरात श्वेताम्बरियों का गढ़ बना तथा वहाँ १२-१३वीं शताब्दी में जैन साहित्य की विपुल समृद्धि हुई। xxx वि. सं. 1216 में कुमारपाल पूर्णतया जैन बना।" ___-विन्टरनित्ज - हिस्ट्रीप्रकरण / ऑफ इंडियन लिटरेचर भाग 2 पृ. 482-83, 511 "संस्कृत साहित्य और विक्रमादित्य के इतिहास में जो स्थान कालिदास का और श्री हर्ष के दरबार में बाणभट्ट का है, प्रायः वही स्थान ईसा की बारहवीं शताब्दी में चौलुक्य वंशोद्भव सुप्रसिद्ध गुर्जर नरेन्द्र शिरोमणि सिद्धराज जयसिंह के इतिहास में हेमचन्द्र का है।" _ - पं. शिवदत्त : नागरी प्रचारिणी पत्रिका का भाग 6, सं. 4, - श्री कन्हैयालाल मा. मुंशी ने इनकी प्रतिभा को सम्मान देते हुए उचित ही कहा है - "इस बाल साधु ने सिद्धराज जयसिंह के ज्वलन्त युग के आंदोलनों को झेला / कुमारपाल के मित्र और प्रेरक पद प्राप्त किया। गुजरात के साहित्य का नवयुग स्थापित किया। इन्होंने जो साहित्यिक प्रणालिकाएँ स्थापित की, जो ऐतिहासिक दृष्टि व्यवस्थिति/विकसित की, एकता की बुद्धि निर्मित कर जो गुजराती अस्तिमा की नींव डाली, उस पर आज अगाध आशा के अधिकारी ऐसा एक और अवियोज्य गुजरात का मंदिर बना है।" - धूमकेतु : श्री हेमचन्द्राचार्य, पृ. 158 का अनुवाद। "आज गुजरात की प्रजा दुर्व्यसनों से बची हुआ है, उसमें संस्कारिता, समन्वय धर्म, विद्यारुचि, सहिष्णुता, उदारमतदर्शिता आदि गुण दृष्टिगत होते हैं, साथ ही भारतवर्ष के इतर प्रदेशों की उपेक्षा गुजरात की प्रजा में धार्मिक जुनून आदि दोष अत्यल्प प्रमाण में दृष्टिगत होते हैं तथा समस्त गुजरात की प्रजा को वाणी/बोली प्राप्त हुई है, वह सब भगवान श्री हेमचन्द्र और उनके जीवन में तन्मयीभूत सर्वदर्शनसमदर्शिता की ही आभारी है।" मुनि पुण्यविजय : श्री हेमचन्द्राचार्य, प्रस्तावना, पृ. 12 "किन्तु, जैसे शिवाजी रामदास के बिना, विक्रम कवि कुलगुरु कालिदास के बिना और भोज धनपाल के बिना शून्य लगते हैं वैसे ही सिद्धराज और कुमारपाल साधु हेमचन्द्राचार्य के बिना शून्य लगते हैं। जिस समय में मालवा के पण्डितों ने भीम के दरबार की सरस्वती परीक्षा की, उसी समय से ही यह अनिवार्य था कि गुजरात की पराक्रम लक्ष्मी, संस्कार लक्ष्मी के बिना जंगली लोगों की बहादुरी जैसे अर्थहीन लगती है। इसे स्वयं का संस्कार-धन सँभालने का रहा।" "सिद्धराज जयसिंह को हेमचन्द्राचार्य नहीं मिले होते तो जयसिंह की पराक्रम गाथा आज वाल्मीकि के बिना ही राम कथा जैसी होती और गुजरातियों को स्वयं की महत्ता देखकर प्रसन्न होने का तथा महान होने का आज जो स्वप्न आता है, वह स्वप्न कदाचित् नहीं आता। हेमचन्द्राचार्य के बिना गुजराती भाषा के जन्म की कल्पना नहीं की जा सकती, इसके बिना वर्षों तक गुजरात को जाग्रत रखने वाली संस्कारिता की कल्पना नहीं की जा सकती, और इनके बिना गुजराती प्रजा के आज के विशिष्ट लक्षणों - समन्वय, विवेक, अहिंसा, प्रेम, शुद्ध सदाचार और प्रामाणिक व्यवहार प्रणालिका की कल्पना नहीं की जा सकती। हेमचन्द्राचार्य मानव के रूप में महान थे, साधु के रूप में अधिक महान थे, किन्तु संस्कारद्रष्टा की रीति से ये सबसे अधिक महान थे। इन्होंने जो संस्कार जीवन में प्रवाहित किए, इन्होंने जो भाषा प्रदान की, लोगों को जिस प्रकार बोलना/बोलने की कला प्रदान की, इन्होंने जो साहित्य दिया, वह सब आज भी गुजरात की नसों में प्रवाहित है, इसीलिये ये महान गुजराती के रूप में इतिहास में प्रसिद्धि पाने योग्य पुरुष हैं।" 48 लेख संग्रह Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "x x x जिसको गुजरात की संस्कारिता में रस हो, उसे इस महान गुजराती से प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिये।" ___ - धूमकेतु : श्री हेमचन्द्राचार्य, पृ. 7-8 (गुजराती से हिन्दी) "गुजरात के इतिहास का स्वर्णयुग, सिद्धराज जयसिंह और राजर्षि कुमारपाल का राज्य काल है। इस युग में गुजरात की राजनैतिक दृष्टि से उन्नति हुई, किन्तु इससे भी बढ़कर उन्नति संस्कार-निर्माण की दृष्टि से हुई। इसमें जैन अमात्य, महामात्य और दण्डनायकों की जो देन है, उसके मूल में महान जैनाचार्य विराजमान हैं। x x x वि. सं. 802 में अणहिल्लपुर पाटण की स्थापना से लेकर इस नगर में उत्तरोत्तर जैनाचार्यों और महामात्यों का सम्बन्ध बढ़ता ही गया था और उसी के फलस्वरूप राजा कुमारपाल के समय में जैनाचार्यों के प्रभाव की पराकाष्ठा का दिग्दर्शन आचार्य हेमचन्द्र में हुआ। x x x वे अपनी साहित्यिक साधना के आधार पर कलिकाल सर्वज्ञ के रूप में तथा कुमारपाल के समय में जैन शासन के महाप्रभावक पुरुष के रूप में इतिहास में प्रकाशमान हुए।" - दलसुख मालवणिया : गणधरवाद की प्रस्तावना, पृ. 47-48 / अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका . आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य हरिभद्र रचित द्वात्रिंशिकाओं और विंशिकाओं के अनुकरण पर आचार्य हेमचन्द्र ने भक्ति, काव्य और दर्शन का अद्भुत सामंजस्य स्थापित करते हुए, श्रमण भगवान् महावीर की स्तुति के रूप में इस अन्ययोगव्ययच्छेद द्वात्रिंशिका की रचना की है। भक्ति की दृष्टि से इस स्तोत्र का जितना महत्व है, उससे अधिक काव्य की दृष्टि से और उससे भी विशिष्ट दार्शनिक दृष्टि से है। द्वात्रिंशिका अर्थात् 32 श्लोकों की यह लघुकाव्य रचना है, जिनमें 31 श्लोक उपजाति और अन्तिम ३२वां पद्य शिखरिणी छन्द में है। इसमें अन्य विभिन्न दर्शनगत दूषणों का उल्लेख करते हुए प्रमाण पुरस्सर उनका खण्डन किया गया है। डॉ. आनन्द शंकर ध्रुव का इस द्वात्रिंशिका के सम्बन्ध में अभिमत है कि चिन्तन और भक्ति का इतना सुन्दर समन्वय इस काव्य में हुआ है कि यह दर्शन तथा काव्यकला दोनों ही दृष्टि से उत्कृष्ट कहा जा सकता है। द्वात्रिंशिका का वर्ण्य विषय ___ इसमें मुख्यतः परमतदूषण ही बताये गये हैं। प्रथम तीन श्लोकों में केवल ज्ञानी भगवान् की स्तुति करके उनके ४.अतिशय बतलाये हैं- 1. ज्ञानातिशय, 2. अपायापगमातिशय, 3. वचनातिशय और 4. पूजातिशय। इसमें ज्ञान के साथ चरित्र का भी महत्व बतलाया गया है। 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' बतलाकर आचार्य ने यथार्थवाद को प्रतिष्ठित किया है। जैन दर्शन अनन्त रूपों से सत्य का दर्शन कराता हुआ यथार्थवाद पर प्रतिष्ठित है। इसके श्लोक 4 से 9 तक में वैशेषिक दर्शन की आलोचना की गई है। सामान्य-विशेष का सिद्धान्त प्रतिपादित कर एक ही सत्य के भिन्न-भिन्न अवस्था स्वरूप बताये हैं। इस जगत का कोई कर्ता है, वह एक है, सर्वव्यापी है, स्वतन्त्र है, नित्य है. - जिन नैयायिकों की इस प्रकार की दुराग्रहरूपी विडम्बनाएँ हैं, हे जिनेन्द्र! तुम उनके उपदेशक नहीं हो। नित्य-अनित्य स्याद्वाद के ही रूप हैं। इस प्रकार हेमचन्द्र के मत से वैशेषिक दर्शन में भी अनेकान्तवाद स्थित है। चित्ररूप भी एक रूप का ही प्रकार है। ईश्वर शासक भले ही हो सकता है, किन्तु निर्माता नहीं। हेमचन्द्र ने समवायवृत्ति की आलोचना की और सत्ता, चैतन्य एवं आत्मा का भी खण्डन किया है। उन्होंने विभुत्व की भी आलोचना की है। उनके अनुसार आत्मा सावयव और परिणामी है, वह समय-समय पर बदलती रहती लेख संग्रह 49 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। १०वें श्लोक में न्याय दर्शन की आलोचना है। श्लोक 11 तथा 12 में पूर्व मीमांसा की कड़ी आलोचना है। कर्मकाण्ड के अन्तर्गत हिंसा का जो विधान किया गया है, उसकी तीव्र आलोचना है। हिंसा चेत् धर्महेतु कथम्? धर्महेतुश्चेद्?, हिंसाकथम्? स्वपुत्रद्यातात् नृपतित्वलिप्सा!' टीकाकार मल्लिषेण व्यंग्य से कहते हैं यदि हिंसा है, तो धर्म हेतु कैसा, तथा धर्म हेतु है, तो हिंसा कैसी? क्या अपने पुत्र की हत्या करके कोई नृपत्व चाहेगा? उसी प्रकार अपौरुषेयवाद का भी उन्होंने खण्डन किया है। श्लोक 13-14 में वेदान्त की आलोचना की गई है। यदि माया है तो द्वैतसिद्धि अर्थात् माया और ब्रह्म दोनों की सत्ता सिद्ध है। यदि माया का अस्तित्व ही नहीं है, तो प्रपंच कैसा? माता भी हैं और वन्ध्या भी है, यह असम्भव है। श्लोक 15 में सांख्यदर्शन का खण्डन है। चेतन-तत्त्व और जड़प्रकृति का संयोग यदृच्छा से कैसे सम्भव है? श्लोक 16, 17, 18 और 19 में हेमचन्द्र ने बौद्ध-दर्शन की आलोचना की है। बौद्धों के क्षणिकवाद की आलोचना करते हुए आचार्य जी कहते हैं कि 1. किये गये कर्म का नाश, 2. नहीं किये हुए कर्म का फल, 3. संसार का विनाश, 4. मोक्ष का विनाश, 5. स्मरण शक्ति का भंग हो जाना इत्यादि दोषों की उपेक्षा करके जो क्षणिकवाद मानने की इच्छा कहता है वह विपक्षी बड़ा साहसी होना चाहिए। श्लोक 20 में प्रत्यक्ष प्रमाणवादी चार्वाक की आलोचना की गयी है। बिना अनुमान के हम सांप्रत-काल में भी बोल नहीं सकते। श्लोक 21 से 30 तक में हेमचन्द्र ने जैन दर्शन को प्रतिष्ठित किया है। उसमें विशेषतः सत्य का अनेक विधस्वरूप, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, सप्तभंगी, स्याद्वाद, नयवाद, आत्माओं की अनेकता का प्रतिपादन किया है। अन्त में दर्शन के व्यापकत्व के विषय में बतलाते हुए हेमचन्द्र कहते हैं कि जिस प्रकार दूसरे दर्शनों के सिद्धान्त एक दूसरे को पक्ष-प्रतिपक्ष बनाने के कारण मत्सर से भरे हुए हैं, उस प्रकार का अर्हन् मुनि का सिद्धान्त नहीं है, क्योंकि यह सारे नयों को बिना भेद-भाव के ग्रहण कर लेता है। श्लोक 31 तथा 32 में भगवान महावीर की स्तुति कर उपसंहार किया गया है। टीकाकार मल्लिषेणसूरि मल्लिषेण नामक प्रमुखतया तीन जैनाचार्यों के जैन साहित्य में उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिसमें से दो दिगम्बर विद्वान हैं और तीसरे स्याद्वादमंजरीकार मल्लिषेणसूरि श्वेताम्बर विद्वान हैं। इनके सम्बन्ध में इस ग्रन्थ की प्रशस्तिगत जानकारी के अतिरिक्त अन्य कोई ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त नहीं है। टीकाप्रशस्ति से इतना ही ज्ञात होता है कि नागेन्द्रगच्छीय श्री उदयप्रभसूरि के शिष्य मल्लिषेणसूरि ने शक संवत् 1214 वि. सं. 1349 (ई. सं. 1293) दीपमालिका के दिन श्री जिनप्रभसूरि की सहायता से चातुर्विध कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य रचित अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका पर 'स्याद्वादमञ्जरी' नामक टीका की रचना की। प्रशस्ति में नागेन्द्रगच्छीय उदयप्रभसूरि का उल्लेख होने से इनकी विश्रुत गुरु-परम्परा की विस्तृत जानकारी प्राप्त हो जाती है। उदयप्रभसूरि ने विश्वविश्रुत जैन मंदिर लूणिगवसही, आबू के निर्माता महामात्य वस्तुपाल तेजपाल के धार्मिक/सुकृत्य कृत्यों के वर्णनरूप धर्माभ्युदय महाकाव्य की 15 सर्गों में रचनी की है। महामात्य वस्तुपाल द्वारा स्वयं लिखित 1290 की ताड़पत्रीय प्रति प्राप्त होने से इसका रचना समय 1277-1290 के मध्य का है। धर्माभ्युदय काव्य की प्रशस्ति में उदयप्रभ ने अपनी जो गुरु-परम्परा दी है, वह इस प्रकार है:१. श्री जिनप्रभसूरि खरतरगच्छ की लघु शाखा के आचार्य थे। इनका समय लगभग 1326 से 1393 है। महाप्राभाविक एवं चमत्कारी तथा उद्भट्ट विद्वान थे। मुहम्मद तुगलक के प्रतिबोधक एवं गुरु थे। इनकी विविध तीर्थकल्प आदि अनेकों कृतियाँ प्राप्त हैं। इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिये मेरी पुस्तक 'शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य' देखें। लेख संग्रह Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महेन्द्रसूरि शान्तिसूरि आनन्दसूरि अमरचन्द्रसूरि हरिभद्रसूरि विजयसेनसूरि उदयप्रभसूरि इस परम्परा के सम्बन्ध में जो कुछ ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है, वह निम्न है: तत्कालीन समय में नागेन्द्रगच्छ एक प्रमुख गच्छों में से था। इस गच्छ का प्रमुख गढ़/स्थान था - अणहिल्लपुर पाटण का वनराजविहार अर्थात् पंचासर पार्श्वनाथ का मंदिर, जो अणहिल्लपुर पाटण के संस्थापक वनराज चावड़ा द्वारा निर्मित था। महेन्द्रसूरि के प्रशिष्य और शान्तिसूरि के शिष्य आनन्दसूरि और अमरचन्द्रसूरि उद्भट विद्वान थे एवं सिद्धराज जयसिंह की राज्यसभा के सम्मानित विद्वान भी। जयसिंह ने इन दोनों को क्रमश: व्याघ्रशिशुक एवं सिंहशिशुक की उपाधि दी थी। इनके द्वारा निर्मित 'सिद्धान्तार्णव ग्रन्थ' माना जाता है। डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने 'हिस्ट्री आफ मिडिवल स्कूल ऑफ इंडियन लोजिक', पृ. 47-48 में कल्पना की है कि नव्यन्याय निर्माता तार्किक गंगेशोपाध्याय ने तत्वचिन्तामणि में सिंह-व्याघ्र के व्याप्ति लक्षण में इन दो तार्किकों (आनन्दसूरि और अमरचन्द्रसूरि) का उल्लेख किया हो, ऐसा प्रतीत होता है। हरिभद्रसूरि पाटण के वनराजविहार में ही निवास करते थे। ये विशिष्ट रूप से प्रवचनपटु थे। मंत्री वस्तुपाल तेजपाल के पिता मंत्री आसराज के कुलगुरु थे। विजयसेनसूरि प्रवचनपटु एवं लेखक भी थे। इनकी 'रेवंतगिरि रासु' अपभ्रंश प्रधान गुजराती भाषा की कृति है जो गुजराती भाषा की दृष्टि से आद्यकालीन कृति के रूप में मानी जा सकती है। आसड़ कवि रचित विवेक मंजरी पर बालचन्द्रसूरि ने वि. सं. 1278 में टीका की रचना की थी। इसका संशोधन इन्होंने ही किया था। _ विजयसेनसूरि महामात्य वस्तुपाल तेजपाल के कुल के विशिष्ट धर्मगुरु थे। यही कारण है कि इन महामात्यों के प्रत्येक धर्मकार्य इन्हीं के निर्देश एवं निश्रा में सम्पन्न हुए थे। महामात्य वस्तुपाल तेजपाल कारित विश्वविख्यात् आबू के नेमिनाथ मन्दिर (लुणिगवसही) की प्रतिष्ठा वि.सं. 1287, फाल्गुन बदि 3 को इन्होंने ही की थी। इन्हीं महामात्यों द्वारा निर्मापित गिरनार तीर्थ पर नेमिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा भी वि. सं. 1288, फाल्गुन शुक्ला 10 को और स्तम्भतीर्थ आदिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा भी सं. 1281 में इन्हीं ने करवाई थी। यही कारण है कि लुणिगवसही (आबू) की हस्तिशाला में प्रथम हस्ति के पृष्ठ भाग पर 'आचार्य श्री विजयसेन का नाम अंकित है। विशेष जानकारी के लिये 'अर्बुद प्राचीन जैन लेख संदोह' के लुणिगवसही के लेख एवं 'सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यादि' वस्तुपाल प्रशस्ति संग्रह का नवम परिशिष्ट देखें। उदयप्रभसूरि भी महामात्य वस्तुपाल के परम्परागत धर्मगुरु ही थे। इनके सम्बन्ध में 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' के अन्तर्गत वस्तुपाल तेजपाल प्रबन्ध में पृष्ठ 64 पर लिखा है:लेख संग्रह 51 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "वस्तुपाल ने उदयप्रभूसरि के विद्याध्ययन के लिये, 700 योजन के विस्तार वाले इस देश के किसी भी भाग में रहे हुए समर्थ विद्वानों को बुला-बुलाकर इकट्ठे किये और इनसे उदयप्रभ का विद्याध्ययन करवाया।" उदयप्रभसूरि की निम्नांकित रचनाएं प्राप्त होती है:१. सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी (रचना सं. 1277) 2. धर्माभ्युदय महाकाव्य (रचना सं. 1277-1292) 3. उपदेशमाला टीका ‘कर्णिका' (रचना सं. 1299 धोलका, इसका संशोधन चन्द्रकुलीय कनकप्रभसूरि ने किया था) 4. आरम्भसिद्धि (ज्योतिष) [दीक्षा, प्रतिष्ठा आदि मुहूर्त के लिये श्वेताम्बर साधु समाज प्रमुखतया इसी ग्रन्थ का उपयोग करता है।] 5. वस्तुपाल स्तुति 6. नेमिनाथ चरित्र (संस्कृत) 7. कर्मस्तव टिप्पनक मल्लिषेणसूरि __ आप उदयप्रभसूरि के शिष्य थे। इन्होंने स्याद्वादमंजरी की रचना की है। इनकी इस कृति के अतिरिक्त अन्य कोई रचना प्राप्त नहीं है। ये अपने समय के मूर्धन्य विद्वान थे। इनके वैदुष्य एवं असाधारण प्रतिभा का आकलन स्याद्वादमंजरी के अध्ययन से ही किया जा सकता है। इनकी बहुमुखी प्रतिभा एवं रचना-सौष्ठव का प्रकाश डालते हुए डॉ. जगदीश चन्द्र जैन ने लिखा है: मल्लिषेणसूरि अपने समय के एक प्रतिभाशाली विद्वान थे। मल्लिषेण न्याय, व्याकरण और साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित थे। इन्होंने जैनान्याय और जैन सिद्धान्तों के गम्भीर अध्ययन करने के साथ न्यायवैशेषिक, सांख्य, पूर्वमीमांसा, वेदान्त और बौद्ध दर्शन के मौलिक ग्रन्थों का विशाल अध्ययन किया था। मल्लिषेण की विषय-वर्णन शैली सुस्पष्ट, प्रसाद गुण से युक्त और हृदयस्पर्शी है। न्याय और दर्शनशास्त्र के कठिन से कठिन विषयों को सरल और हृदयग्राही भाषा में प्रस्तुत कर पाठकों को मुग्ध करने की कला में मल्लिषेण कुशल थे। इसीलिये 'स्याद्वादमंजरी' मल्लिषेण की एकमात्र उपलब्ध रचना न्याय का ग्रन्थ कहे जाने की अपेक्षा साहित्य का एक अंश कहा जाता है। यद्यपि रत्नप्रभसूरि की 'स्याद्वादरत्नकरावतारिका' भी साहित्य के ढंग पर ही लिखी गई है। इसलिए एक ओर सम्मतितर्क, अष्टसहस्ती, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि जैनन्याय के गहन वन में से और दूसरी ओर 'स्याद्वादरत्नाकर', 'स्याद्वादरत्नाकरावतारिका' जैसी विकट और घोर अटवी में से निकलकर 'स्याद्वादमंजरी' को विश्राम करने का समस्त सुविधा युक्त आधुनिक पार्क कहा जा सकता है। यहाँ पर प्रत्येक दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धांतों का संक्षेप में सरल और स्पष्ट भाषा में वर्णन किया गया है। उपाध्याय यशोविजयजी ने 'स्याद्वादमंजरी' पर 'स्याद्वादमंजूषा' नाम की वृत्ति लिखी है। स्याद्वादमंजरी का उल्लेख माधवाचार्य ने 'सर्वदर्शन संग्रह' में किया है। मल्लिषेण हरिभद्रसूरि की कोटि के सरल-प्रकृति के उदार और मध्यस्थ विचारों के विद्वान थे। सिद्धसेन आदि जैन विद्वानों की तरह मल्लिषेण भी सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनों के समूह को 'जैनदर्शन' प्रतिपादित कर 'अन्धगजन्याय' का उपयोग करते हैं। अन्य दर्शनों के विद्वानों के लिये पशु, वृषभ आदि असभ्य शब्दों का प्रयोग न कर वैदन्तियों को सम्यग्दृष्टि, व्यास को ऋषि, कपिल को परमर्षि, उदयन को 52 लेख संग्रह Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाणिकप्रकाण्ड रूप से उल्लेख करना, श्वेताम्बर परंपरा के अनुयायी होते हुए भी समंतभद्र, विद्यानन्द आदि दिगम्बर विद्वानों के उद्धरण नि:संकोच भाव से प्रस्तुत करना, मल्लिषेण की धार्मिक सहिष्णुता के साथ चर्चा के प्रसंग पर भी मल्लिषेण स्त्री-मुक्ति और केवलिमुक्ति जैसे दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विवादस्थ प्रश्नों के विषय में मौन रहते हैं, इससे भी प्रतीत होता है कि अन्य दिगम्बर एवं श्वेताम्बर आचार्यों की तरह मल्लिषेण को साम्प्रदायिक चर्चाओं में रस नहीं था। अनेक वृक्षों से पुष्पों को चुनने के समान, अनेक दर्शन संबंधी शास्त्रों से प्रमेयों को चुन-चुनकर, निस्सन्देह मल्लिषेणसूरि ने अकृत्रिमबहुमति स्याद्वादमंजरी नाम की माला गूंथकर जैनन्याय को समलंकृत किया है। स्याद्वादमंजरी का वर्ण्य विषय : श्लोक 1-3 में भगवान महावीर की स्तुति रूप है। इनमें उनके चार मूल अतिशयों - अनन्त विज्ञान से ज्ञानातिशय, अतीत दोष से अपायापगमातिशय, अबाध्यसिद्धान्त के वचनातिशय, अमर्त्यपूज्य से पूजातिशय सहित भगवान् के यथार्थवाद की प्ररूपणा करते हुए प्रमाण पुरस्पर उनके शासन की सर्वोत्कृष्टता प्रतिपादित की गई है। श्लोक 4-10 - इन सात श्लोकों में न्याय-वैशेषिक दर्शन के आचार्यों एवं ग्रन्थों - प्रशस्तपादभाष्य, वैशेषिक सूत्र, किरणावली, न्यायमंजरी, न्यायकन्दली, न्यायवार्तिक, न्यायसार, वात्स्यायन भाष्य, ऐतरेय आरण्यक, तैतिरीयसंहिता, छान्दोग्योपनिषद् आदि के उद्धरणों के साथ उनकी मान्यताओं गण परस्सर उनका निरसन किया गया है। उनके जिन सिद्धान्तों पर विचार किया गया है, वे हैं:- . 1. सामान्य और विशेष भिन्न पदार्थ नहीं है। 2. वस्तु को एकान्त-नित्य अथवा एकान्त-अनित्य मानना न्यायसंगत नहीं है। 3. एक, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, स्वतंत्र और नित्य ईश्वर जगत का कर्ता नहीं हो सकता। 4. धर्म-धर्मी में समवाय संबंध नहीं बन सकता। 5. सत्ता सामान्य भिन्न पदार्थ नहीं है। 6. ज्ञान आत्मा से भिन्न नहीं है। 7. आत्मा के वृद्धि आदि गुणों के नाश होने को मोक्ष नहीं कह सकते। 8. आत्मा सर्वव्यापक नहीं हो सकती। 9. छल, जाति, निग्रहस्थान आदि तत्त्व मोक्ष के कारण नहीं हो सकते। तथाक) तम अन्धकार अभावरूप नहीं है, वह आकाश की तरह स्वतन्त्र द्रव्य है और पौद्गलिक है। ख) अप्रच्युत, अनुत्पन्न और सदास्थिरत्व नित्य का लक्षण मानना ठीक नहीं। पदार्थ के स्वरूप का नाम नहीं होता। ग) किरणें गुण रूप नहीं है, उन्हें तेजस् पुद्गलरूप मानना चाहिये। घ) नैयायिकों के प्रमाण, प्रमेय आदि के लक्षण दोषपूर्ण हैं। - इसके अतिरिक्त इन श्लोकों मेंअ) जैन दृष्टि से आकाश आदि में नित्यानित्यत्व, लेख संग्रह 53 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब) पंतजलि, प्रशस्तपादकार और बौद्धों के अनुसार वस्तुओं का नित्यानित्यत्व। स) अनित्यैकान्तवादी बौद्धों के क्षणिकवाद में दूषण, ड) वैदिकसंहिता, स्मृति आदि के वाक्यों में पूर्वापरविरोध, तथा ह) केवलिसमुद्घात अवस्था में जैनसिद्धांत के अनुसार आत्म-व्यापकता की संगति का प्ररूपण किया गया है। श्लोक 11-12 - इन दो पद्यों में पूर्व मीमांसकों द्वारा मान्य मीमांसा-श्लोकवार्तिक, जैमिनीसूत्र आश्वलायन गृह्यसूत्र, छादोग्योपनिषद्, याज्ञवल्क्यादि स्मृतियाँ आदि के उदाहरण देते हुए, उनके निम्न सिद्धान्तों ऊहापोह करते हुए सप्रमाण निरसन किया गया है:१. वेदों में प्रतिपादित हिंसा धर्म का कारण नहीं हो सकती। 2. श्राद्ध करने से पितरों की तृप्ति नहीं होती। 3. अपौरुषेय वेद को प्रमाण नहीं मान सकते। 4. ज्ञान को स्वपरप्रकाशक न मानने से अनेक दूषण आते हैं, इसलिये ज्ञान को स्व और पर का प्रकाशक मानना चाहिये। इसके अतिरिक्त इन श्लोकों मेंक) जिनमंदिर के निर्माण करने का विधान, ख) सांख्य, वेदान्त और व्यास ऋषि द्वारा याज्ञिक हिंसा का विरोध तथा ग) ज्ञान को अनुव्यवसायगम्य बनाने वाले न्याय-वैशेषिकों का खंडन किया गया है। . श्लोक 13- इसमें ऋग्वेद, ईशावास्योपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद्, मीमांसा-श्लोकवार्तिक आदि उद्धरणों के आलोक में ब्रह्माद्वैतवादियों के मायावाद का खण्डन किया गया है। श्लोक 14 - इस पद्य में दिङ्नाग, अशोक, वाक्यपदीय, आचारांग आदि के उद्धरणों के साथ एकान्त सामान्य और एकान्त-विशेष वाच्य-वाचक भाव का निराकरण करते हुए कथंचित् सामान्य और कथंचित् विशेष वाच्यवाचक भाव का समर्थन किया है। इस पद्य में निम्न महत्वपूर्ण विषय भी प्रतिपादित किये हैं:१. केवल द्रव्यास्तिकनय अथवा संग्रहनय को मानने वाले अद्वैतवादी, सांख्य और मीमांसकों का सामान्यैकान्तवाद मानना युक्तियुक्त नहीं है। 2. केवल पर्यायास्तिकनय को मानने वाले बौद्धों का विशेषैकान्तवाद ठीक नहीं है। 3. केवल नैगमनय को स्वीकार करने वाले न्याय-वैशेषिकों का स्वतन्त्र और परम्पर निरपेक्ष सामान्य विशेषवाद मानना ठीक नहीं है। तथाक) शब्द आकाश का गुण नहीं है, वह पौद्गलिक है, और सामान्य विशेष दोनों रूप है। ख) आत्मा भी कदाचित् पौद्गलिक है। ग) अपोह, सामान्य अथवा विधि को शब्दार्थ नहीं मान सकते। ___ श्लोक 15 - इसमें सांख्यकारिका, सांख्यतत्त्वकौमुदी, वादमहार्णव आदि के आलोक में सांख्यदर्शन की निम्नांकित मान्यताओं की सम्यक् प्रकार से समीक्षा की गई है:- .. 54 लेख संग्रह Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. चित्शक्ति पुरुष को ज्ञान से शून्य मानना परस्पर विरुद्ध है। 2. . बुद्धि महत् का जड़ मानना ठीक नहीं है। अहंकार को भी आत्मा का ही गुण मानना चाहिये, बुद्धि का नहीं। 3. सत्कार्यवाद मानने वाले सांख्य लोगों का आकाश आदि का पाँच तन्मात्राओं से उत्पत्ति मानना असंगत है। 4. बंध पुरुष को ही मानना चाहिये, प्रकृति को नहीं। 5. वाक्, पाणि आदि को पृथक् इन्द्रिय नहीं कह सकते, इसलिये पाँच ही इन्द्रियाँ माननी चाहिये। 6. केवल ज्ञान मात्र से मोक्ष नहीं हो सकता। श्लोक 15-19 - इन चार पद्यों में न्याय-बिन्दु, न्याय-बिन्दु टीका प्रज्ञाकरगुप्त, दिङ्नाग, मोक्षाकरगुप्त आदि के उद्धरणों के साथ बौद्ध दर्शन की सौत्रान्तिक, वैभाषिक और योगाचार परम्परा मान्य निम्नांकित क्षणिकवाद, शून्यवाद, वासना को सम्यक् प्रकार से परीक्षण कर दूषित सिद्ध किया 1. प्रमाण और प्रमाण के फल के सर्वथा भिन्न न मानकर कदाचित् भिन्नाभिन्न मानना चाहिये। 2. सम्पूर्ण पदार्थों को एकान्त रूप से क्षणध्वंसी न मानकर उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित स्वीकार करना चाहिये। 3. पदार्थों के ज्ञान में तदुत्पत्ति और तदाकारता को कारण न मानकर क्षयोपशमरूप योग्यता को ही कारण मानना चाहिये। 4. बिज्ञानवादी बौद्धों का विज्ञानाद्वैत मानना ठीक नहीं है। प्रमाता, प्रमेय आदि प्रत्यक्ष और प्रमाणों से सिद्ध होते हैं। इसलिये माध्यमिक बौद्धों का शून्यवाद युक्तिसंगत नहीं है। 6. बौद्धों के क्षणभंगवाद में अनेक दोष आते हैं, अतः क्षणभंगवाद का सिद्धांत दोषपूर्ण है। 7. क्षणभंगवाद की सिद्धि के लिये नाना क्षणों को परम्परारूप मानना भी ठीक नहीं। तथा - क) नैयायिकों के प्रमाण और प्रमिति में एकान्त-भेद नहीं बन सकता। ख) आत्मा की सिद्धि। ग) सर्वज्ञ की सिद्धि। श्लोक 20 - इसमें चार्वाक दर्शन की अयुक्त मान्यताओं का निराकरण किया गया है। श्लोक 21-29 - पूर्वोक्त 17 पद्यों में न्याय-वैशेषिक, योग, पूर्वमीमांसा, अद्वैतवाद, सांख्य, बौद्ध एवं चार्वाक दर्शनों के प्रमुख-प्रमुख सिद्धान्तों/मान्यताओं पर ऊहापोह एवं समीक्षा करने के पश्चात् इन 9 पद्यों में स्वपक्ष/जैनदर्शन की मान्यताओं की स्थापना/समर्थन करते हुए जैन दर्शन की मौलिक भित्ति स्याद्वाद की सयुक्तिक, सप्रमाण सिद्धि की गई है। साथ ही निम्नांकित सिद्धान्तों का सविस्तार प्रतिपादन किया गया है:१. प्रत्येक वस्तु, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है। द्रव्य की अपेक्षा वस्तु में ध्रौव्य और पर्याय की . अपेक्षा सदा उत्पाद और व्यय होता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर सापेक्ष हैं। लेख संग्रह Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. आत्मा, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि सम्पूर्ण द्रव्यों में नाना अपेक्षाओं से नाना धर्म रहते हैं, अतएव प्रत्येक वस्तु को अनन्तधर्मात्मक मानना चाहिये। जो वस्तु अनन्तधर्मात्मक नहीं होती, वह वस्तु सत् भी नहीं होती। प्रमाणवाक्य और नयवाक्य से वस्तु में अनन्त धर्मों की सिद्धि होती है। प्रमाणवाक्य को सकलादेश और नयवाक्य को विकलादेव कहते हैं। पदार्थ के धर्मों का काल, आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार गुणिदेश, संसर्ग और शब्द की अपेक्षा अभेदरूप कथन करना सकलादेश तथा काल, आत्मरूप आदि की भेदविवक्षा से पदार्थों के धर्मों का प्रतिपादन करना विकलादेश है। स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्तिअवक्तव्य, स्यान्नास्तिअवक्तव्य, और स्यादस्तिनास्तिअवक्तव्य के भेद से सकलादेश और विकलादेश प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी के सात सात भेदों में विभक्त है। . 4. स्याद्वादियों के मत में स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा वस्तु में अस्तित्व और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा नास्तित्व है। जिस अपेक्षा से वस्तु में अस्तित्व है, उसी अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व नहीं है। अतएव सप्तभंगी नय में विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव नामक दोष नहीं आ सकते। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा वस्तु नित्य, सामान्य, अवाच्य, और सत् है, तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा विशेष, वाच्य और असत् है / अतएव नित्यानित्यवाद, सामान्यविशेषवाद, अभिलाप्यानभिलाप्यवाद तथा सदसद्वाद इन चारों वादों का स्याद्वाद में समावेश हो जाता है। 6. नयरूप समस्त एकांतवादों का समन्वय करने वाला स्याद्वाद का सिद्धान्त ही सर्वमान्य हो सकता है। 7. भावभाव, द्वैताद्वैत, नित्यानित्य आदि एकांतवादों में सुख-दुःख, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं बनती। 8. वस्तु के अनन्त धर्मों में से एक समय में किसी एक धर्म की अपेक्षा लेकर वस्तु के प्रतिपादन करने को नय कहते हैं। इसलिये जितने तरह के वचन होते हैं, उतने ही नय हो सकते हैं। नय के एक से लेकर संख्यात् भेद तक हो सकते हैं। सामान्य से नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत से सात भेद किये जाते हैं। न्याय-वैशेषिक केवल नैगमनय के, अद्वैतवादी और सांख्य केवल संग्रहन के, चार्वाक केवल व्यवहार नय के, बौद्ध केवल ऋतुसूत्र नय के, और वैयाकरण केवल शब्दनय के मानने वाले हैं। प्रमाण सम्पूर्ण नय रूप होता है। नयवाक्यों में स्यात् शब्द लगाकर बोलने को प्रमाण कहते हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण के दो भेद होते हैं। 9. जितने जीव व्यवहार राशि से मोक्ष जाते हैं, उतने ही जीव अनादि निगोद की अव्यवहार राशि से निकलकर व्यवहार राशि में आ जाते हैं, और यह अव्यवहार राशि आदिरचित है, इसलिये जीवों के सतत मोक्ष जाते रहने पर भी संसार जीवों से कभी खाली नहीं हो सकता। 10. पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीवत्व की सिद्धि। 11. प्रत्येक दर्शन नयवाद से गर्भित होता है। जिस समय नय रूप दर्शन परस्पर निरपेक्ष भाव से वस्तु का प्रतिपादन करते हैं, उस समय ये दर्शन परसमय कहे जाते हैं। जिस प्रकार सम्पूर्ण नदियाँ एक समुद्र में जाकर मिलती हैं, उसी तरह अनेकांत दर्शन में सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनों का समन्वय होता है, इसलिये जैनदर्शन स्वसमय है। लेख संग्रह Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक 30-32 - इन तीनों पद्यों में श्रमण भगवान् महावीर की स्तुति का उपसंहार करते हुए कहा है कि उनके द्वारा प्ररूपित अनेकान्तवाद/स्याद्वाद के माध्यम से ही विश्व का उद्धार/कल्याण हो सकता है और समदर्शी बनकर विश्वबन्धुत्व की भावना को उजागर किया जा सकता है। स्याद्वादमंजरी का प्रचार और उपयोगिता : प्रत्येक दर्शन के वैशिष्ट्यपूर्ण सिद्धान्तों का एवं अनेकान्त का संक्षेप में सरल होते हुए भी प्राञ्जल और स्पष्ट भाषा में वर्णन होने से इसका प्रचार-प्रसार अत्यधिक हुआ। आज भी श्वेताम्बर विद्वान एवं साधुगण न्याय-शास्त्र का अध्ययन करने के लिये प्रारम्भ में तर्कसंग्रह या प्रमाणनयतत्वालोकालंकार का अध्ययन करने के पश्चात् स्याद्वादमंजरी का ही अध्ययन करते हैं। इसके अध्ययन से न्याय-दर्शन में ही नहीं, अपितु अध्येता जैन-दर्शन का भी ज्ञाता बन जाता है। स्याद्वादमंजरी न केवल अन्य दर्शनों के दूषणों का ही दिग्दर्शन कराती है, अपितु अनेकान्तवाद के आलोक में यथार्थस्वरूप को ग्रहण करने की प्रेरणा भी प्रदान करती है, जिससे ऊहापोह एकपक्षीय न रहकर तटस्थ भाव जागृत कर देता है। इसका यह उपादेयता/महत्ता आज के युग में सर्वग्राह्य बन सकती है, किन्तु आवश्यकता है मल्लिषेण की दृष्टि के प्रचार-प्रसार की। आज के युग में इस ग्रन्थ की उपादेयता क्यों है? इसका अंकन करने हए डॉ. आत्रेय ठीक ही लिखते हैं:. मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि इस पुस्तक का प्रचार खूब हो, और विशेषतः उन लोगों में हो जो जैनधर्मावलम्बी नहीं हैं। सत्य और उच्च भाव और विचार किसी एक जाति या मज़हब वालों की वस्तु नहीं हैं। इन पर मनुष्य मात्र का अधिकार है। मनुष्य मात्र को अनेकान्तवादी, स्याद्वादी और अहिंसावादी होने की आवश्यकता है। केवल दार्शनिक क्षेत्र में ही नहीं, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में, विशेषतः इस समय जबकि समस्त भूमण्डल की सभ्यता का एकीकरण हो रहा हो और सब देशों, जातियों और मतों के लोगों का सम्पर्क दिन पर दिन अधिक होता जा रहा है। इन ही सिद्धान्तों पर आरूढ़ होने से संसार का कल्याण होता जा रहा है। इन ही सिद्धान्तों पर आरूढ़ होने से संसार का कल्याण हो सकता है। मनुष्य जीवन में कितना ही वांछनीय परिवर्तन हो जाए, यदि सभी मनुष्यों को प्रारम्भ से शिक्षा मिले कि सब ही मत सापेक्षक हैं, कोई भी मत सर्वथा सत्य अथवा असत्य नहीं है, पूर्ण सत्य में सब मतों का समन्वय होना चाहिये, और सबको दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिये जैसा कि वे दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं। मैं तो इस दृष्टि के प्राप्त कर लेने को ही मनुष्य का सभ्य होना समझता हूँ। मैं आशा करता हूँ कि यह पुस्तक पाठकों को इस प्रकार की दृष्टि प्राप्त करने में सहायक होगी। (स्याद्वादमंजरी : प्राक्कथन) स्याद्वादमंजरी का अनुवाद : . डॉ. जगदीश चन्द्र जैन, एम.ए. पी-एच.डी. ने इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद, शोधपूर्ण, उपोद्घात और विवेचनात्मक विस्तृत 8 परिशिष्टों के साथ सुन्दरतम एवं पठनीय सम्पादन किया है। परिशिष्टों में समस्त दर्शनों की विशेषताओं का स्वरूप दिग्दर्शन तो वस्तुतः अध्येताओं के लिये अत्यन्त उपादेय बन गया है। इसका प्रथम संस्करण परम श्रुत प्रभावक मंडल बम्बई से सन् 1935 में प्रकाशित हुआ था। यह संस्करण विस्तृत विवेचनात्मक एवं शोधपूर्ण होने के कारण सामान्य पाठकों की दृष्टि में विद्वद्योग्य बन गया है। [तित्थयर, वर्ष 30, अंक 2-3] 000 57 लेख संग्रह Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनहिताचार्य कृत चतुर्विंशतिजिनस्तवनम् श्री भुवनहिताचार्य के सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है। 'खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास' अनुसार वि. सं. 1374, फाल्गुन बदी 6 के दिन उच्चापुरी में कलिकालकल्पतरु श्रीजिनचन्द्रसूरि ने इन्हें दीक्षा प्रदान की थी और नाम रखा था भुवनहित। इनके शिक्षागुरु युगप्रधान जिनकुशलसूरिजी और जिनलब्धिसूरिजी थे। जिनलब्धिसूरि ने वि. सं. 1386 में देरावर नगर में इनको पढ़ाया भी था। संवत् 1404 के पूर्व ही जिनलब्धिसूरि ने इनको उपाध्याय पद प्रदान किया था और शायद आचार्य पद भी प्रदान किया हो अथवा आचार्य पद जिनलब्धिसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने संवत् 1406 के पश्चात् प्रदान किया हो। ___ इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि ये प्रौढ़ विद्वान् थे। इनके द्वारा सर्जित दो ही लघु कृतियाँ प्राप्त होती है - 1. दण्डक छन्दगर्भित जिनस्तुतिः - इस स्तुति में केवल चार पद्य दस्ड और इसका प्रारम्भ नतसूरपतिकोटिकोटीरकोटी - यह 57 अक्षरों का संग्राम नामक दण्डक छन्द है। इस छन्द के प्रारम्भ में 2 नगण और बाद में 17 रगण होते हैं। इस स्तुति पर श्रीजिनहंससूरि के प्रशिष्य, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के टीकाकार महोपाध्याय पुण्यसागर के शिष्य वाचनाचार्य पद्मराजगणि ने वि. सं. 1643 में इस टीका की रचना की थी। टीका के साथ यह कृति मेरे द्वारा सम्पादित श्रीभावारिवारणपादपूर्त्यादिस्तोत्रसंग्रहः में सन् 1648 में प्रकाशित हुई थी। 2. चतुर्विंशतिजिनस्तवनं - इसमें 25 पद्य हैं। प्रत्येक पद्य में एक-एक अक्षर की वृद्धि हुई है। भगवान् ऋषभदेव की स्तुति 8 अक्षर के युग्मविपुला छन्द से प्रारम्भ होकर चरमतीर्थकर भगवान् महावीर की 31 अक्षर के छन्द उत्कलिका दण्डक में पूर्ण हुई है। अर्थात् 8 अक्षर से लेकर 31 अक्षर तक 24 छन्दों का प्रयोग हुआ है। प्रत्येक पद्य में प्रत्येक तीर्थंकर का नाम भी अंकित है और छन्द का नाम भी अंकित है। यह कृति की प्रमुख विशेषता है। २५वां प्रशस्ति पद्य स्रग्धरा छन्द में निर्मित है। भक्तिपूर्ण रचना होते हुए भी सालंकारिक है। बीकानेर के बड़े ज्ञान भण्डार में संगृहीत १५वीं शताब्दी की लिखित प्राचीन प्रति से इसकी प्रतिलिपि की गई है। श्री चतुर्विंशतिजिनस्तवनम्। (प्रवर्द्धमानाक्षरविभिन्नजातिव्यक्तिछन्दोविशेषरचितम्) (1) युगादौ जगदुद्धर्तुं, यो युग्मविपुलावनौ। दिदेश धर्ममोक्षौ तं, स्तौमि श्रीनाभिनन्दनम्॥१॥ युग्मविपुला / / (2) इन्द्रियगणैरविजितं, योऽर्हति जिनेन्द्रमजितम्। सङ्गतनितान्तमुदयं, सोवन्ति महान्तमुदयम्॥ 2 // उदयम्॥ लेख संग्रह 58 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) चन्दनकर्पूरागुरुशाला, केतकजाती चम्पकमाला। नन्दतिवर्या तेऽङ्गसपर्या, सम्भवनेतः कस्य न चेतः॥ 3 // चम्पकमाला // (4) उपेन्द्रवज्रायुधवामदेवा- दयोजिता येन नृदेवदेवाः। . स्मृतेऽपि यन्नामनि सोपि कामो, मृयेत नन्द्यादभिनन्दनोऽयम्॥ 4 // उपेन्द्रवज्रा॥ (5) द्रुतविलम्बितगीतिरसो लस-च्चरणसञ्चरणातिमनोहरम्। सुरगिरौ सुमतेजिनि( न )मज्जने विदधिरे विवुधा नवनर्त्तनम्॥ 5 // द्रुतविलम्बित // (6) जगतीहितार्थरचनाभिनदितः, ससुरासुरेन्द्रमनुजेन्द्रवन्दितः। नमतां मतां जनमनोभिनन्दिनीं वितनोतु ऋद्धिमरुणप्रभुप्रभुः॥६॥ नन्दिनी॥ (7) सिंहोद्धता अपि जगजनताजयेन, मोहब्रुधा मदनलोभमदादयोऽमी। गर्जन्ति तावदतिरंगभरेण याव-दन्तः सुपार्श्वसरभस्य न ते स्मरन्ति॥६॥ सिंहोद्धता // (8) हिमकरहिमनीरक्षीरडिण्डीरपिण्ड-प्रवरकिरणमालामालिनी यस्य मूर्तिः सुकृतदलकसारैनिर्मितेवा च भाति, प्रथयतु स सुखानि स्वामिचन्द्रप्रभो! मे॥ 8 // मालिनी॥ (9) सुविधिजिन्नस्तनोतु मम मङ्गलानि नित्यं, मदनकरीन्द्रकुम्भतटणटनो ससिंहः। तरलन्तरैरपीक्षणसरैर्यदीयचेतः, सरसिरूहमनाग्न बिभिदे धुवाणिनीभिः॥ 9 // वाणिनी॥ (10) श्रेयोलक्ष्मी वितरतु स वः शीतलस्तीर्थनाथो, यस्मिन्गर्भे स्थितवति करस्पर्शमात्रेण मातुः। दाहोत्साहा जनकवपुषोऽगुः क्रिय( कियद् ?) वा मृगेन्दै मन्दाक्रान्ता अपि किमु मृगा न म्रियन्ते क्षणेन॥१०॥ मन्दाक्रान्ता // (11) श्रीश्रेयांसो दिशतु मम महानन्दमन्दोदयर्द्धि, वाणीं यस्यानुपममधुरिमोद्गारशृङ्गारसाराम्। पायं पायं मदनदहनसंहारिणः सच्चकोराः, सञ्जायन्तेऽमृतरसभरितां तां यथा चन्द्रलेखाम्॥ 11 // चन्द्रलेखा। (12) आस्थानं फणिनां फणेषु ललितं बभ्रोरुरभ्रस्य च, .. घ्राणं व्याघ्रविशालवस्त्रविवरे जृम्भासरं बिभ्रति। यत्रानन्दकरं करेणुकरिणां शार्दूलविक्रीडितं तां श्रीधर्मसभां श्रयामि सततं श्रीवासुपूज्यप्रभुः( भोः ) // 12 // शार्दूलविक्रीडित // (13) विकलाधीश्वरनन्दनंदजगदानन्देन्दिरासुन्दरं, त्वयि भूमीवलयं विहारविधिभिः पूतान्तरं कुर्वति। सकलोपद्रवडम्बरा अपि खराः प्रापुः प्रणाशं क्षणा दथवा श्वैरविहारिणी व नु हरौ मत्तेभविक्रीडितम्॥१३॥ मत्तेभविक्रीडितं॥ (14) जन्मस्नात्रं पवित्रं सुरगिरिशिखरे यस्य कर्तुं महद्धा, त्रैलोक्याधीशलोके कृतमहसि परालकृती: सर्वनारीः। दृष्ट्वा नक्षत्रदम्भादपि गगनरमामौक्तिकस्रग्धराभृ त्तं पञ्चानन्तकेन्द्रं भजत भवभृतो भावतोऽनन्तदेवम्॥ 14 // स्रग्धरा / / लेख संग्रह Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (15) जनको जज्ञेऽवनीशस्तिमिरितजगती पावना लोकभानुः, समधर्माचारचञ्चुर्गुणसुमणिमहास्त्रग्धरासुव्रताम्बा। उपदेशो यस्य पापोपशमशमचणो जन्तुरक्षादिरूपै, रमणीयस्तं नमामि प्रमुदितमनसा सान्वयं धर्मनाथम्॥ 15 // महास्रग्धरा / / (16) क्षमाधरशिरः स्फुरन्महमविश्वसेनाङ्गभूधर्मचक्रोत्तरः, पदाब्जतलसंवरन्नवसुवर्णपद्मागुरुकसन्निभश्रीभरः। प्रभासवरदामयुग् रुचिररत्नवृन्दारकः श्रेणिसेव्यकमः, सुखानि मम षोडशो दिशतु शान्तिरर्हन्सदा पंचमश्चकभृत्॥१॥ वृन्दारकः॥ (17) यदपि भवति चक्रिपद्मापि पादाब्जलग्नाचिरं सादरं देहिनां, तदपि चरणमोचनं नैव कुर्बन्ति सन्तो जनास्तेन मन्ये ध्रुवम्। शरदिजन च मेघमाला बलां तां पराकृत्य यः स्वीचकार प्रभु श्चरणमचलकेवलानन्दमन्दायतं कुन्थुनाथं स्तुवे भावतः॥ 17 // मेघमाला / / (18) मदपदसम्पदमन्दसुनन्दजनपदकुरुगजपुरनगरं, नवनिधिरत्नचतुर्दशलक्ष्मीहरिकरिरथनरबलकलितम्। पदलुलिताखिलभूपतिराज्यं करतलगतमपि चपलमिदं, सपदि विहाय ललौ व्रतमुग्रं य इह तमरमभिसर शरणम्॥ 18 // चपलं॥ (19) मनसिजहव्यवाहमुरुदाहकरं जगदङ्गिनां समवलोक्य विभु दधदुपकारसारमवतारविधिकृपयांचितोकमिषतः प्रदधौ। पदपुरतोयकस्तदुपशान्तिकृते घनसम्भृतं शमसुधाकलशं, प्रदिशतु मोक्षसौख्यकमलाममलामिह मल्लितीर्थपतिरेष मम॥ 19 // सुधाकलश // (20) स्वःसन्मालाचित्रमासूत्रयती जनमनसि निरुपमं केवलोत्पत्तिकाले, त्रिप्राकारी यस्य चक्रेऽतिभक्त्या रजतकनकसुमणिश्रेणिभिः सुप्रभाभिः / देवी पद्माश्रीसुमित्राङ्गजन्मा यदुकुलकमलरविर्ध्वस्तमोहान्धकारः, पुण्यांकुराम्भोधरासारसारः स दिशतु शिवकमलां सुव्रताधीश्वरो मे॥ 20 // मालाचित्र // (21) तनोतु मे मनोमतं ततं युतं सुमङ्गलैः कलैर्जिनाधिनायको नमिः सदा, यदीयधर्मदेशना सभासु भान्तिसौरभातिलोभलीनलोलषट्पदांगनाः। सुरावली विकीर्णपञ्चवर्णजानुदघ्नपुष्पसञ्चयाः स्वनाशशंकया रयात्, .. पलाद्यनङ्गशेखरान् महीतलं विसंस्थलं गताश्च्युता इव ध्रुवं पुरः प्रभो!॥ 21 // अनंगशेखर // (22) श्रीनेमिनाथ नमन्नाकिनाथं स्तुवे तं सनाथं सदा केवलक्षीमहानन्दमन्दैः, सौभाग्यभाग्याधिके यत्र सम्मोहनै राज-राजीमतीवाक्यनेत्रभ्रमैस्तीक्ष्णतीक्ष्णैः। सार्द्ध जगज्जन्तुजीवातुमर्माविधाविद्धविश्वं-भरेशानेवेद्योमुखानेकवेधो, विधं विधातुं न शक्ता विमुक्ता अपि स्वेच्छया कामबाणा यथा पद्मपत्राणि वज्रे॥२२॥ कामबाणा॥ (23) श्रीअशोकपुष्पमञ्जरी मरन्दबिन्दशान्त-सर्वतो रजोरये सुरप्रमुक्तचंग गन्धबन्धस्तनरंगणे सभाङ्गणे वरात-पत्रसत्पवित्रचामरेन्दिरातिरङ्ग। - लेख संग्रह Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमृगाधिनायका स नोपविष्टपुष्टवाणि-धर्ममर्मदेशनेन बोधिताङ्गशिष्ट पृष्टदेशभासमानभावितानदेवदुन्दुभी-द्धनादपूज्यपादपार्श्वदेवनन्द॥ 23 // अशोकपुष्पमञ्जरी॥ (24) नरपतिततिनिषेवितपादपीठाग्रसि-द्धार्थभूपालवंशाब्दिराकानिशानायकः, प्रणितभविकमहोदयमेदुरानन्दसं-भोगभङ्गीभुजङ्गीभवद्भाविभूनायकः। मदनदहनघनोत्कलिकाकुलं मामकी-नं मनः शुद्धसम्वेगरङ्गामृतासारतो, रचयतु शमरमारससुन्दरं वर्द्धमानां, जिनो जायमानासमानोल्लसन्मङ्गलः॥ 24 // उत्कलिका॥ (25) कर्तुः प्रशस्तिः। इत्येवं सर्वदेवा सुरनरबलिराजाधिराजैः सुजातिव्यक्तिच्छन्दोविशेषैरहमहमिकया नव्यनव्यैः सुकाव्यैः। नित्यं संस्तूयमाना दलितकलिमला नाभिराजाङ्गजाद्याः, श्रीवीरान्ता जिनेन्द्रा भुवनहितकृते माङ्गलक्याय सन्तु॥२॥ स्रग्धरा // इति प्रवर्द्धमानाक्षरविभिन्नजातिव्यक्ति छन्दादिशेषरचितं चतुर्विंशति जिनस्तवनम्॥ [अनुसंधान अंक 25] 000 लेख संग्रह Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराट नगर का एक अज्ञात टीकाकार-वाडव जैन श्वेताम्बर उपासक वर्ग के इने-गिने साहित्यकार-कवि पद्मानन्य ठक्कुर फैरू, मन्त्री मण्डन, मन्त्री धनद आदि के साथ टीकाकार वाडव का नाम भी गौरव के साथ लिया जा सकता है। वाडव जैन श्वेताम्बर अचलगच्छीय उपासक श्रावक था। वह विराट् नगर वर्तमान वैराड (अलवर के पास, राजस्थान प्रदेश) का निवासी था। संस्कृत साहित्य-शास्त्र और जैन-साहित्य का प्रौढ़ विद्वान् एवं सफल टीकाकार था। इसका समय वैक्रमीय पन्द्रहवीं शती का उत्तरार्द्ध है। इसने अनेक ग्रन्थों पर टीकायें लिखी थीं किन्तु दुःख है कि आज न तो उसका कोई ग्रन्थ ही प्राप्त है और न जैन इतिहास या विद्वानों में उल्लेख ही प्राप्त है। वाडव की एकमात्र अपूर्ण कृति 'वृत्तरत्नाकर अवचूरि' (१५वीं शती के अन्तिम चरण की लिखी) मेरे निजी संग्रह में है। इसकी प्रशस्ति के अनुसार वाडव ने जिन-जिन ग्रन्थों पर टीकायें लिखी हैं, उसके नाम उसने इस प्रकार दिये हैं - (1) कुमारसम्भव काव्य अवचूरि (2) मेघदूत काव्य अवचूरि (3) रघुवंश काव्य अवचूरि (4) माघ काव्य अवचूरि किरातार्जुनीय काव्य अवचूरि (6) कल्याण मंदिर स्तोत्र अवचूरि भक्तामर स्तोत्र अवचूरि जयइ नवनलिन तृतीयसंस्मरणं अवचूरि 'वामेय' पार्श्वस्तोत्र अवचूरि (10) प्रभु जीरिका, स्तोत्र अवचूरि सकलसुखनामक स्तोत्र (नवम स्मरणं) अवचूरि . (12) त्रिपुरा स्तोत्र अवचूरि (13) वृत्तरत्नाकर अवचूरि (14) वाग्भट्टालंकार अवचूरि (15) विदग्धमुखमण्डन अवचूरि योगशास्त्र (4 अध्याय) अवचूरि (17) वीतराग स्तोत्र अवचूरि पूर्ण प्रशस्ति इस प्रकार है - प्रथमं कुमारसम्भव इति तस्मान्मेघदूतकः पुरतः। रघुनाथचरितपूतो रघुवंशः कालिदासकृतिः॥१॥ लेख संग्रह (9) 62 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रयं को माघः थ्रयंकः किरातकाव्यं महागभीरार्थम्। ज्ञेयानि च पञ्च महाकाव्यान्यैतानि लौकिकान्यत्र // 2 // कल्याणमन्दिराख्यः श्रीमान्भक्तामरः स्तबकः। जचईनवनलिनकुवलयमहिमागारस्य जिनपतेः स्तबकः॥ 3 // श्री वामेयञ्च प्रभुं जीरिकया संयुतं परं स्तवनम्। श्रीमत्सकलसुखाख्यं त्रिपुरास्तोत्रं लघुस्तवकम्॥ 4 // केदार-रचितं छन्दो वृत्तरत्नाकराभिधम्। . अलंकारः कविश्लाघ्यः श्रीवाग्भटकविकृतेः॥५॥ श्रीधर्मदासरचिता विदग्धमुखमण्डनः। आद्याः श्रीयोगशास्त्रस्य चत्वारोऽध्यायकवराः। श्रीवीतरागदेवस्य स्तवनानि च विंशतिः॥६॥ श्रीमदञ्चलगच्छाख्ये जयशेखरसूरयः। बभूबुर्भूपरिश्रेणीवन्दितांधियुगाः सदा॥७॥ शिष्याश्च तेषां वसुधेशदत्त-मानाः परेषामुपकारदक्षाः। श्रीवाचनाचार्यपदप्रपन्नाः श्रीमेरुचन्द्रप्रवरा जयन्ति॥ 8 // अतिविकट यवनभूपति कारागेहस्थसंस्थिता यतयः। बरुद्धृता जयन्तु प्रसमं श्रीमेरुचन्द्राख्याः॥९॥ श्रीमतां मेरुचन्द्राणामादेशात् वाडवेन च। पूर्वोक्त-ग्रन्थ सङ्घानामवचूरिः कृतापरा // 10 // विराटनगरस्थेन मन्त्रिपञ्चाननेन च। श्रीमन्माणिक्यसुन्दर-सूरिभिः शोधिता दृढम्॥११॥ सारांश अंचलगच्छ में अनेक भूपतियों से वन्दित श्री जयशेखरसूरि हुए। उनके शिष्य वाचनाचार्य मेरुचन्द्र विद्यमान हैं, जिनको राजाओं ने मान दिया है, जो उपकार करने में दक्ष हैं और जिन्होंने भयंकर यवनराजा के कारागार में रहे गए यतियों का उद्धार किया है, जेल से छुड़ाया है। ऐसे श्री मेरुचन्द्र वाचनाचार्य के आदेश से वाडव ने (मैंने) पूर्वोक्त 17 ग्रन्थों पर अवचूरि (लघुटीका) की रचना की है। इन अवचूरियों का संशोधन विराटनगर निवासी मन्त्री पंचानन और श्री माणिक्यसुन्दरसूरि ने किया है। इस प्रशस्ति से कई नवीन तथ्य प्रकाश में आते हैं जिन पर विचार किया जाना आवश्यक है। (1) पार्श्वलिखित अंचलगच्छीय दिग्दर्शन के अनुसार जयशेखरसूरि का समय लगभग 1400 से 1462 का है। ये महेन्द्रप्रभसूरि के द्वितीय शिष्य हैं / महेन्द्रप्रभसूरि के पाट पर मेरुतुंगसूरि बैठे। इसलिये मुख्य पट्ट-परम्परा में जयशेखरसूरि नहीं आते। यही कारण है कि जयशेखरसूरि शिष्य वाचनाचार्य मेरुचन्द्र का इस इतिहास मे नामोल्लेख भी प्राप्त नहीं होता। जयशेखरसूरि के शिष्य होने से मेरुचन्द्र का समय 1420 से 1500 के मध्य का निश्चित रूप से माना जा सकता है। (2) जयशेखरसूरि के लिये 'बभूवुः' शब्द का प्रयोग होने से वाडव का रचना काल 1465 से 1500 के मध्य का माना जा सकता है। लेख संग्रह Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) मेरुचन्द्र ने यवनभूपति को प्रतिबोध देकर कारागार में रहे गये यतियों को छुड़ाया। यह एक नवीन तथ्य है। वह यवनभूपति कौन था? कहाँ का था? और उसने किस कारण से यतियों को जेल में डाला था? आदि प्रश्नों पर, प्रशस्ति में नाम और स्थान का उल्लेख न होने से कोई प्रकाश नहीं पड़ता है। इतिहास के शोधविद्वानों का कर्तव्य है कि इस पर शोध करके प्रकाश डालें। (4) इन टीकाओं के संशोधकों में वाडव ने दो नाम दिये हैं - (1) श्रीमाणिक्यसुन्दरसूरि और (2) विराटनगरीय मन्त्री पंचानन। श्री माणिक्यसुन्दरसूरि का समय लगभग 1435 से 1500 के मध्य का है। ये संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान् रहे हैं और गुजराती भाषा के प्राचीन लेखकों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी दो कृतियाँ श्रीधरचरित्र महाकाव्य (1485) और गुणवर्माचरित्र (1485) राजस्थान प्रदेश में ही रचित है। इनके विशेष परिचय के लिये अंचलगच्छीय दिग्दर्शन द्रष्टव्य है। (5) विराट का इतिहास प्रकाशित न होने से मन्त्री पंचानन के सम्बन्ध में प्रकाश डालना सम्भव नहीं है किन्तु इतना निश्चित है कि पंचानन संस्कृत काव्य, लक्षण-शास्त्र का धुरन्धर विद्वान् था। जैन था और विराट नगर का मंत्री भी। (6) यहाँ एक प्रश्न विद्वानों के लिये अवश्य ही विचारणीय है कि 'मन्त्रिपञ्चाननैन च' शब्द स्वतन्त्र व्यक्तित्व का सूचक है या टीकाकार वाडव का विशेषण? यदि स्वतन्त्र व्यक्तित्व का सूचक है तब तो पूर्वोक्त अर्थ ठीक ही है कि विराटनगरीय मन्त्री पंचानन ने इस समस्त टीका ग्रन्थों का संशोधन किया। और यदि इस शब्द को वाडव का विशेषण मानें तो. मन्त्रियों में पंचानन अर्थात सिंह के समान वाडव ने इस ग्रन्थों पर अवचूरियाँ की हैं, यह अर्थ भी ग्रहण किया जा सकता है। इस अर्थ के आलोक में वाडव को ही विराटनगर का मंत्री मान सकते हैं। इस प्रश्न पर निर्णय करना विद्वच्छ्रेष्टों का कार्य है। इस ऊहापोह से यह तो स्पष्ट है कि विराटनगरीय वाडव का समय १५वीं शती का उत्तरार्द्ध है। वाडव जैन है, विद्वान् है। और उस समय (१५वीं शती) विराटनगर में अंचलगच्छीय श्वेताम्बर जैनों का प्रभाव था, बाहुल्य था, मंत्री भी जैन श्रावक था। वाडव की अन्य कृतियाँ जो अप्राप्त हैं उसके लिये शोध विद्वानों का कर्त्तव्य है कि खोज करके अन्य ग्रन्थों को प्राप्त करें और वाडव के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विशेष प्रकाश डालें। ' [श्री आचार्य कल्याण गौतम स्मृति ग्रन्थ] .000 64 लेख संग्रह Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तिनी मेरुलक्ष्मी के स्तोत्र __ प्रस्तुत दोनों स्तोत्रों की प्रणयित्री प्रवर्तिनी मेरुलक्ष्मी गणिनी साध्वी हैं। मेरे संग्रह की 6 पत्रों की प्रति जो अनुमानतः १६वीं शताब्दी की लिखी हुई है, उसमें चार स्तोत्र अञ्चलगच्छेश शीलरत्नसूरिकृत हैं, और दो प्रवर्तिनी मेरुलक्ष्मी गणिनी के। अतः संभवतः रचयित्री का समय १६वीं शती या तत्पूर्व है, और प्रवर्तिनी अंचलगच्छ की ही होगी। इनके सम्बन्ध में विशेष कुछ भी ज्ञात नहीं है। प्रवर्तिनी, गणि' शब्द होने से इतना तो स्पष्ट है कि साध्वी महोदया गणनायिका अवश्य थी और यह रचना उनकी प्रौढ़ावस्था की ही है। ये दोनों स्तोत्र आदिनाथ और तारंगामण्डन अजितनाथ के हैं। 7 और 5 पद्य संख्या की दृष्टि से तो स्तोत्र बहुत ही छोटे हैं परन्तु लघुकाय होते हुए भी सरस और प्रवाहपूर्ण हैं, इनकी भाषा भी प्राञ्जल है। प्रथम स्तोत्र में द्रुतविलंबित, वंशस्थ, वसन्ततिलका और शार्दूलविक्रीडित आदि छन्दों की योजना होने से मालूम होता है कि प्रणयित्री छन्दःशास्त्र और साहित्यशास्त्र की भी विदुषी थी। 1. आदिनाथ स्तवनम् सकलमङ्गलदं रुचिरच्छविं, दुरितशैलविभेदनसत्पविम्। जिनवरं नृपनाभितनूरुहं, विपुलसौख्यकरं प्रणमाम्यहम्॥१॥ स्वर्णाभं गुणभासुरं धृतशमं ज्ञानश्रियालङ्कृतं, सम्यक्पुण्यपथप्ररूपणपरन्यायव्रतत्यम्बुदम्। . शक्रवातसुसेव्यमानचरणाम्भोजद्वयं सन्ततं, वन्देऽहं त्रिजगद्गुरुं गुरुतरं मोहान्धकारे रविम्॥२॥ निखिलसौख्यमहार्णवसद्विधुं, गुणसितच्छदखेलनमानसम्। प्रशमसिन्धुरवन्ध्यमहीधरं, जिनपतिं प्रणमामि वृषाङ्कितम्॥३॥ यशः श्रिया निर्जितचन्द्रदीधिति, ध्यानामलज्चालितकर्मसन्ततिम्। नीरागतादूरितभावविद्विषं, सेवे युगादीशजिनं महात्विषम्॥४॥ वैराग्यमानसरोवरराजहंसं, प्रौढप्रभासुरनरेशशिरोऽवंतसं, इक्ष्वाकुवंशतिलकं भुवनाभिरामं, कामं दधामि हृदये प्रथमं जिनेशम्॥५॥ सन्ततं जलजतायुतमत्र, पङ्कजं च शशिनं च विमुच्य। अद्वितीयकमलापदपद्मं, सेवे ते तव विभो! गतदोषम्॥६॥ एवं श्रीऋषभं गुरूत्तमगुणं यः स्तौति भक्त्यान्वहं, भव्याम्मोजविकाशनग्रहपतिं स्फारप्रभाशालिनम्। तस्यानन्दविधायिनी प्रतिदिनं मेरुस्थितिस्थेयसी, लक्ष्मीर्वेश्मनि रंरमीति जनता पुष्पप्रतिष्ठोदया॥७॥ इति प्रव० मेरुलक्ष्मीगणिकृतं श्रीआदिनाथस्तवनम्। लेख संग्रह 65 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. तारङ्गामण्डनश्रीअजितनाथस्तवनम्। (अनुष्टप् छन्दः) केवलज्ञानसम्पूर्ण, वन्देऽहमजितं जिनम्। इक्ष्वाकु वंशशृङ्गारसारमुक्तापुलोपमम् // 1 // जितशत्रुकुलाम्भोजे, विजयाकुक्षिपल्वले। सुस्वरः शुद्धपक्षोऽयं, राजते राजहंसवत्॥ 2 // मोह मल्लविजेतारं, रागद्वेषविवर्जितम्। स्तौमि श्रीअजितं देवं, सुरासुरनमस्कृतम्॥ 3 // अनन्तगुणधातारं, सन्तोषसुखसागरम्।। प्रणमामि महाभक्त्या, वैजयेयं जिनेश्वरम्॥ 4 // एवं स्तुतो मया भक्त्या, तारणाद्रिविभूषणम्। श्रीमान् श्रीअजितस्वामी, दद्यान्मे वाञ्छितं फलम्॥५॥ इति प्रवर्तनी वा० मेरुलक्ष्मीगणिकृतं ता [श्री जैन सत्य प्रकाश, वर्ष 19, अंक 8] 000 लेख संग्रह Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचिता वर्धमानाक्षरा चतुर्विंशतिजिनस्तुतिः भारतीय साहित्य की अनेक विशेषताओं में एक प्रमुख विशेषता उसका विशाल स्तोत्र साहित्य भी है। स्तोत्र साहित्य भारतीय साहित्य का हृदय कहा जा सकता है। सभी जातियों ने स्तोत्र रचना में अपना बहुमूल्य योग दिया है। बौद्धों ने बुद्ध भगवान् की, जैनों ने अर्हत् की, वैष्णवों ने विष्णु व उनके अनेक रूपों की, शैवों ने शिव की, शाक्तों ने भगवती दुर्गा की और अन्य लोगों ने अपने इष्टदेवों की स्तुति मधुरतम गीयमान स्तोत्रों द्वारा की है, आत्म-निवेदन किया है, श्रद्धा के प्रसून अर्पित किये हैं। ___ स्तोत्र द्वारा भक्त-हृदय स्वच्छन्दतापूर्वक अपने भावों को इष्टदेव के सम्मुख प्रस्तुत करता है। हृदय का आवरणरहित स्वरूप उसमें देखा जा सकता है। निरावृत्त व मुक्त-हृदय का आत्म-निवेदन ऐसी भाषा में अभिव्यक्त होता है, जिसे भाषा न जानने वाला भी किसी-न-किसी तरह समझ लेता है। स्तोता की भाषा विशुद्ध मानव-हृदय की भाषा होती है जिस पर बुद्धि व तज्जन्य प्रपंचों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। स्तोता की मधुर अनुभूतियों को स्वतः ही मधुरतम शब्द मिल जाते हैं जिसके लिए रचना-कौशल की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी अनुभूति की सघनता की। पावस-ऋतु में जैसे जीवनदायक मेघों की * फुहार पड़ते ही बीजों में अंकुर उत्पन्न होने लगते हैं, उसी तरह सघन-अनुभूतियाँ मधुरतम शब्दों में मूर्त होने लगती हैं। इस कार्य में किसी तरह के प्रयत्नों का कोई हाथ नहीं होता। जैन मनीषि-पुंगवों ने भगवत्-स्तवना करने में दो विधाएँ अपनाई हैं - 1. स्तोत्र, 2. स्तुति। 1. स्तोत्र - किसी तीर्थंकर विशेष की या समन्वित समस्त तीर्थंकरों की या किसी तीर्थस्थित तीर्थंकर विशेष की स्तवना करते हुए जो हृदय के उद्गार प्रकट होते हैं, वे स्तोत्र कहलाते है। इन स्तोत्रों के माध्यम से अनेकान्त स्याद्वाद की प्ररूपणा, भगवान् की देशना अथवा दार्शनिक विवेचन का स्वरूप चिन्तन भी होता है। भगवत् गुणों का वर्णन करते हुए अष्ट महाप्रातिहार्य, 34 अतिशय, 35 वाणी इत्यादि का भी समावेश किया जाता है। भगवान् के साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करते हुए अपनी लघुता भी प्रदर्शित की जाती है और स्वकृत पापों की आत्मगर्दा भी। 2. स्तुति - स्तुति यह केवल 4 पद्यों की होती है। प्रथम पद्य में किसी तीर्थंकर विशेष की या सामान्य जिन की, दूसरे पद्य में समस्त तीर्थंकरों की, तीसरे पद्य में भगवत् प्ररूपित द्वादशांगी आगम की और चतुर्थ पद्य में तीर्थंकर विशेष के शासन देवता की। इन लक्षणों पर आधारित कई सामान्य स्तुतियाँ भी प्राप्त होती हैं और कई विशिष्ट स्तुतियाँ भी। जिसमें यमक और श्लेषालंकार आदि का छन्दवैविध्य के साथ उक्तिवैचित्र्य का समावेश होता है, वे विशेष कहलाती हैं। आचार्य बप्पभट्टिसूरि और शोभनमुनि आदि का स्तुति साहित्य विशिष्ट कोटि में ही आता है। श्री भुवनहिताचार्य आदि रचित स्तुतियों में छन्दवैविध्य पाया जाता है। बढ़ते हुए अक्षरों के साथ छन्दों में रचना करना वैदुष्य का सूचक है ही। श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचित चतुर्विंशतिस्तुति भी इसी विधा की रचना है। 'लेख संग्रह Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मीकल्लोलगणि - स्तुतिकार ने प्रान्त पुष्पिका में "उ. श्री हर्षकल्लोलप्रसादात्' लिखा है। अत: इससे एवं अन्य प्रमाणों से निश्चित है कि ये श्री हर्षकल्लोलगणि के शिष्य थे। आचार्य सोमदेवसूरि की परम्परा से कमल-कलश और निगम-मत निकले थे। सोमदेवसूरि तपागच्छीय सोमसुन्दरसूरि के शिष्य थे, किन्तु उन्होंने 1522 के लेख में लक्ष्मीसागरसूरि का शिष्य भी लिखा है। इनके शिष्य रत्नमण्डनसूरि हुए। रत्नमण्डनसूरि की परम्परा में श्री आगममण्डनसूरि के प्रशिष्य और श्री हर्षकल्लोलगणि के शिष्य लक्ष्मीकल्लोगगणि थे। इनके अतिरिक्त इनके सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। इनका परिचय, जन्म, दीक्षा, पद आदि भी अज्ञात हैं। लक्ष्मीकल्लोलगणि आगम-साहित्य और काव्य-साहित्य शास्त्र के प्रौढ़ विद्वान् थे। आगम ग्रन्थों पर इनकी दो टीकाएँ प्राप्त होती हैं: 1. आचाराङ्ग सूत्र तत्त्वावगमा टीका प्राप्त होती है जिसका रचना सम्वत् 1596 दिया हुआ है। जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास में टीका के स्थान पर अवचूर्णी लिखा है। 2. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र 'मुग्धावबोध' टीका' में रचना सम्वत् प्राप्त नहीं है। श्री देशाई के मतानुसार सोमविमलसूरि के विजयराज्य में विक्रम सम्वत् 1597 - 1637 के मध्य रचना की गई है। इससे इनका साहित्य रचनाकाल 1590 से 1640 तक निर्धारित किया जा सकता है। आगम साहित्य पर टीका रचना से यह स्पष्ट है कि आगम साहित्य पर इनका चिन्तन और मनन उच्च कोटि का था। इन दोनों टीकाओं के अतिरिक्त स्वतन्त्र कृतियों के रूप में कुछ स्तोत्र भी प्राप्त होते हैं वे निम्न हैं:११९९ जिन स्तव (समस्याष्टक) / 1342 साधारण जिन स्तवः (समस्याष्टक) 1440 ऋषभदेव स्तव 1772 महावीर स्तोत्र (सावचूरि) 5089 समस्याष्टक 6232 साधारण जिन स्तव (पराग शब्द के 108 अर्थ) ये सारे क्रमांक कैटलॉग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैनुस्कृप्ट मुनिराज श्री पुण्यविजयजी संग्रह भाग-१, 2 लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद के दिए गये हैं। चमत्कृति प्रधान इन स्तोत्रों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि श्री लक्ष्मीकल्लोलोपाध्याय साहित्य और लक्षणशास्त्र के भी उद्भट विद्वान् थे। 1. त्रिपुटी महाराज : जैन परम्परानो इतिहास - भाग 3, पृष्ठ 560 2. त्रिपुटी महाराज : जैन परम्परानो इतिहास - भाग 3, पृष्ठ 566 3. जिनरत्नकोश : पृष्ठ 24, इसके अनुसार इसकी प्रति Adescriptive Catalogue of the Mss. in the B.B.R.A.S. ____Vol. No. 1397 4. पृष्ठ 520, पैरा नं० 761 जिनरत्नकोश : पृष्ठ 147, इसके अनुसार इसकी प्रति Adcscriptive Catalogucofthe Mss. in thcB.B.R.A.S. Vol.No. 1473 6. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ 520, पैरा नं०७६१ लेख संग्रह 68 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके अतिरिक्त स्वतन्त्र कृति के रूप में 'वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति जिनस्तुति' प्राप्त होती है। इसमें 24 तीर्थंकरों की स्तुति के साथ अंतिम गौतम गणधर की भी स्तुति प्राप्त है / एकाक्षर से प्रारम्भ कर 25 अक्षरों तक के विभिन्न छन्दों में प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति की है जो कि इसके परिशिष्ट में दी छन्द-सूची से स्पष्ट है / छन्द-शास्त्र के ये अजोड़ विद्वान् थे। इन छन्दों में कई छन्द ऐसे हैं जो कि प्रायः प्रयोग में नहीं आते हैं। प्रान्त पुष्पिका में अनुप्रासालङ्कारमय्यश्च' अर्थात् प्रत्येक स्तुति में अनुप्रासालङ्कार का विशेष रूप से प्रयोग किया है। प्रत्येक स्तुति का अवलोकन किया जाए तो प्रत्येक श्लोक के पहले और दूसरे चरण में, तीसरे और चौथे चरण में एकाक्षर या व्यक्षर में अनुप्रास का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। उदाहरण के रूप में देखिए - विमलनाथ की स्तुति प्रथम पद्य, प्रथम चरण 'नमामः' और दूसरे चरण में रमामः 'मामः' का प्रयोग है / इसी स्तुति में दूसरे श्लोक के तीसरे-चौथे श्लोक में 'वन्ताः' का प्रयोग है। इस प्रकार प्रत्येक पद्य के समग्र चरणों का अवलोकन करें तो अन्त्यानुप्रास की छटा सर्वत्र दृष्टिगोचर होगी। कवि का अभीष्ट भी अनुप्रासालङ्कार प्रतीत होता है। श्लेष, उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकार भी स्थान-स्थान पर मुक्ताओं की तरह गुथे हुए नजर आते हैं। इस कृति की प्रतियाँ भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। विक्रम सम्वत् 2001 में श्रद्धेय गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी महाराज ने जामनगर में रहते हुए इसकी पाण्डुलिपि तैयार की थी। उनकी कृपा थी कि स्वलिखित प्रति मुझे भिजवा दी, वही आज प्रकाशित की जा रही है। गणिवर्य लिखित पाण्डुलिपि में किस भण्डार की प्रति से उन्होंने ने इसकी प्रतिलिपि की है, इसका संकेत न होने की वजह से यह कहने में असमर्थता है कि यह किस भण्डार की प्रति है? इन स्तुतियों में प्रातः एवं सायं प्रतिक्रमण में इसका उपयोग किया जा सकता है। पाठकों के रसास्वादन के लिए प्रस्तुति कृति प्रस्तुत है : श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचिता वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति-जिनस्तुतिः [पंडित श्री 5 श्रीलक्ष्मीकल्लोलगणि-चरणकमलेभ्यो नमः] 1. श्रीऋषभजिनस्तुतिः, (श्री छन्दसा) मेऽघं / स्याऽर्हन् // 1 // नोऽजाः / स्युर्यैः // 2 // नोऽकं / नव्यम् // 3 // गी: शं / वोऽव्यात् // 4 // 2. श्रीअजितजिनस्तुतिः (स्त्रीछन्दसा) अन्यः, सार्वः। सिद्धिं, दद्यात् // 1 // सार्वाः, सर्वे। सातं, दद्युः॥२॥ सार्वा, वाचः। नः शं, कुर्युः // 3 // वाणी, देवी। लक्ष्य, भूयात् // 4 // लेख संग्रह 69 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. श्रीशम्भवजिनस्तुतिः (नारीछन्दसा) तीर्थेशस्तार्तीयः। वृद्धिं वः, प्रादुष्येत्॥ 1 // येऽर्हन्तस्ते पापं / भक्तानां, छिन्द्यासुः॥२॥ सार्वीयः, सिद्धान्तः / मच्चित्तं, पोपूयात् // 3 // . . सुत्रास्यः, साधूनां / विघ्नौघं, लोलुयात्॥ 4 // . *** 4. श्रीअभिनन्दनजिनस्तुतिः (सुमतिच्छन्दसा) प्लवगावं, गलिताङ्कम्। हतजालं, भजतालम्॥१॥ जिनवन्द, कतभन्दम। कनकाच्छं. ददताच्छम॥२॥ जिनवाक्यं, जितशाक्यम्। भज भव्यं, मुनिनव्यम्॥३॥ श्रुतदेवी, पदसेवी। अघही, सुखक/॥ 4 // 5. श्रीसुमतिजिनस्तुतिः (अभिमुखीछन्दसा) सुमतिजिनं, गतवृजिनम्। श्रय मुनिपं, चिदवनिपम्॥१॥ जिननिकरं, जनसुकरम्। कृतविभवं,भज विभवम्॥२॥ जिनवचनं, वररचनम्। शिवसुखदं, नयतु पदम्॥३॥ अमलतरा, कमलकरा। वितरतु कं, कजजतुकम्॥४॥ 6. श्रीपद्मप्रभजिनस्तुतिः (रमणाछन्दसा) धरभूपभवं, वररूपरवम्। कृतकामजयं, श्रथधाममयम्॥१॥ जिनराजगणं, नतभूरमणम्। शमताशरणं, कुरुताच्छरणम्॥२॥ भगवत्समयः, शमशूकमयः / भवतान्तिहरः, शिवशान्तिकरः // 3 // सुमतः कुसुमः, सुरसालसमः / जनतेहितशं, तनुतादनिशम्॥ 4 // *** 7. श्रीसुपार्श्वजिनस्तुतिः (मधुनामाछन्दः) कनकसमधनः, करतु शमधनः / नतनरसुमनाः, शिवममलमनाः॥१॥ सकलजिनपतीन्, विमलनरपतीन्। भजत मुनिजना! विगलितवृजिनाः॥२॥ गणधरगदितं, यतिततिविदितम्। शमरससहितं, कुरु हृदि सहितम्॥३॥ . जयति भगवती, विमलगुणवती। शुचिरुचिमवती, शशिकरसुदती॥ 4 // 70 लेख संग्रह Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तुतिः (प्रमाणिकाछन्दः) विशालवंशभूषणः, प्रणष्टकर्मदूषणः / ममाष्टमो जिनेशिता, तनोतु तां जगत्पिता॥१॥ जिना दिशन्तु मे समे, समग्रसौख्यसङ्गमे। शिवालये पदं विभा-भरेण सूर्यसन्निभाः॥२॥ जिनोक्तमागमं सदा, कुरुध्वमानने मुदा। भवार्णवौघतारकं, विनोदवृन्दकारकम्॥३॥ जिनेन्द्रपादपावितः, प्रभूतभक्तिभावतः। ददातु यक्षनायकः, समाङ्करस्मसायकः॥ 4 // 9. श्री सुविधिनाथस्तुतिः (भद्रिकाछन्दसा) आनुवे सुविधिनायकं, भव्यजन्तुभवतायकम्। कर्मशत्रुभटभञ्जनं, साधुलोककृतरञ्जनम्॥१॥ शं दिशन्तु सुजिनेश्वराः, सर्वजन्तुषु कृपापराः। सिद्धिसाधुरमणीवराः, पादनम्रजनशङ्कराः॥२॥ श्रीजिनागममहर्निशं, संश्रयेऽहमतिसतशम्। क्षीरनीरनिधिसन्निभं, सूक्तिशूक्तिरिव निर्निभम् // 3 // यो जिनः, कुमतितान्तिदः, साध्यराड् भवतु शान्तिदः / जैनशासनविभासनः, प्राणिनां कृतसुवासनः॥ 4 // *** 10. श्रीशीतलजिनस्तुतिः (........छन्दसा) वन्देऽहं श्रीशीतलजनुषं, श्रीवत्साङ्कं काञ्चनवपुषम्। नन्दाजातं श्रीपतिविनतं, मुक्तिप्राप्तं सुन्दररवितम्॥१॥ सर्वे सर्वज्ञाः कुशलकराः, नानावर्णाकारवरतराः। संसाराब्धौ मग्नजनधराः, देयासुः शं मुक्तिपदवराः॥२॥ श्रीसिद्धान्तो मे कुशलकरः, श्रीसर्वज्ञोक्तो दुरितहरः / जीयात्संसाराब्धिघटभवः, शश्वद्भक्तानां कृतविभवः // 3 // साऽशोकादेवी मम सुखदा, तेजः पुञ्जाोद्दीप्ततररदा। अर्हद्भक्त्युत्थप्रबलमदा, भूयाद्भव्याङ्गिप्रहतमदा॥ 4 // लेख संग्रह Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. श्रीश्रेयांसजिनस्तुतिः (........ छन्दसा) सकलसिद्धिविधानविदग्धं, दशमतोऽग्रिममीशममुग्धम्। अमितकामितदानसुरहू, श्रयत शोषितलोभमितह्नम्॥१॥ जिनवराः प्रदिशन्तु सतां शं, न लभते मरमर्द्विशतां शम्। हरिहराद्यपरः सुरसार्थः, प्रभुतया धृतयाऽपि कृतार्थः॥२॥ जिनपतेर्वचनं भविकानां, भवतु लब्धमहाभविकानाम्। दुरितसन्ततिसंहरणाय, प्रबलसंसृतिसंहरणाय॥ 3 // अखिलमङ्गलमूलविधात्री, गुरुतरोच्चलचिन्तितदात्री। विकटसङ्कटवल्लिकृपाणी, जिनमते जयताद्भुवि वाणी॥४॥ 12. श्रीवासुपूज्यजिनस्तुतिः (तामरसच्छन्दः) नमत सुरासुरसेवितपादं, वदनविभाजितशीतलपादम्। महिषधरं गतखेदविषाद, जलधरगर्जिगभीरनिनादम्॥१॥ सकलजिनेशगणं विनुवेऽहं, ह्रतकनकद्युतिसत्तमदेहम्। चरणमाहृदि सुन्दरहारं, पदयुगलप्रणते हितकारम्॥२॥ जिनवनवाग्विभवो मम सातं, दिशतु महोदयपत्तनजातम् / नयगमभङ्गभरप्रतिपूर्णः, कठिनपुराणतमस्कृतचूर्णः॥ 3 // जिनपतिपादपयोरुहभक्तः, श्रितजिनशासनभासनमरक्तः। करतु कुमारसुरः शिवमिष्टं, न भवति यत्र कदाचन कष्टम्॥४॥ *** 13. श्रीविमलनाथस्तुतिः (प्रहर्षणी छन्दः) देवेन्द्रप्रणतपदं जिनं नमामः, चित्तं तच्चरणयुगे वयं रमामः। क्रोडाइँ निखिलसमीहितार्थकारं, नैर्मल्यं सृजतु कृतामरोपहारम्॥१॥ सर्वज्ञाः सकलगुणाभिरामदेहा, आदित्यद्युतिभरदीप्तधामगेहाः। मुक्तिश्रीरमणकलाभिलाषवन्तः, कुर्युः शं हृदयभवं शिवं ब्रुवन्तः॥२॥ सिद्धान्तो जिनवदना तीर्यमाणः, साध्वोधैः श्रवणपुटावधार्यमाणः। भव्यानां शिवसदनाभिलाषुकानां, श्रेयोऽर्थं भवतु भयक्षयोत्सुकानाम्॥३॥ विघ्नौघं जिनपदसेवके हरन्ती, सर्वाधिप्रशमसुखं जने करन्ती। सा भूयान्मम सुखमङ्गलादिकी, सर्वापत्प्रधनभयामयादिही // 4 // *** लेख संग्रह Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. श्रीअनन्तजिनस्तुतिः (लक्ष्मीछन्दः) तं वन्दे सर्वभावज्ञानतत्त्वोपदेशं, दुष्कर्मध्वान्तनाशादित्यतेजोनिवेशम्। संसाराम्भोधिमज्जजन्तुपोतायमानं, श्येनावं पङ्कपूरोद्भासमेघायमानम्॥१॥ सर्वज्ञा विज्ञवित्ता वासमासं दधाना, भूयासुभूरिभूरिप्राज्यराज्यप्रतानाः। सम्पत्प्राप्त्यै वरेण्यागण्यपुण्यप्रतीता, मदनमायाऽभिमानक्रोधलोभव्यतीताः॥२॥ सिद्धान्तः स्ताच्छिवाध्वप्राप्तिहेतुर्जनानां, नानाभङ्गैर्गभीरार्थप्रकाशो घनानाम्। पाप्महृच्छेदकर्ता शासनाम्भोजभानु-भूयिष्टोत्पत्तिबद्धाऽदृष्टकक्षे कृशानुः॥ 3 // पाताल: सेवकानां शुद्धधीसंश्रितानां, सेवाहेवावशेन प्राप्तसर्वेप्सितानाम्। कुर्याद्धर्या महार्या सम्पदं स्फीतभीतिः, कामप्रोद्दामधामा भग्नविघ्नौघभीतिः॥४॥ *** 15. श्रीधर्मनाथस्तुतिः (ऋषभच्छन्दसा) जिनराजमुत्तमगुणाश्रयणीयदेहं, कुलिशाङ्कितक्रममहं महिमैकगेहम्। धिषणाऽवधीरितगुरुं प्रणमामि नित्यं, त्रिदशाधिपक्षितिपतिप्रणताधिपत्यम्॥१॥ जिनपा दिशन्तु कुशलं शिवसङ्गरङ्गा, वरकेवलर्द्धिकलिता गलिताङ्गसङ्गाः। समतारसार्णवनिमग्नमनोविनोदाः, सुकृताप्तिपुष्टजनताजनितप्रमोदाः॥ 2 // जिनवकातोऽर्थरचनावयनोपदिष्टः, सुगणाधिपैः पठितपाठतयाऽतिदिष्टः। दुरितं जहाति परिशीलित एव भव्यैः, प्रतिषेवणीय इति वाक्यचयस्सनव्यैः॥ 3 // जिनसेवके विपुलमङ्गलमादधानः, सुरकिन्नरः सकलसाध्यगणप्रधानः। दहतां धनानि जनताकृतकामितानि, सततं परोपकरणप्रवणस्ततानि॥४॥ 16. श्रीशान्तिनाथस्तुतिः ___ (पञ्चचामरच्छन्दसा) स शान्तिनाथनायकस्तमोभरक्षयङ्करः, करोतु कर्मसञ्चयप्रमोषणप्रियङ्करः। अनन्तसातदायकः शिवाभिलाषसम्भवं, सुखं विषादवर्जितं समग्रसौख्यतो नवम्॥१॥ दिशन्तु मां जिना (रमा )विशालवंशसम्भवाः, प्रमत्तदत्तदेशना भवार्णवौघविद्रवाः / अनीतिभीतिघातका गुणावलीविभूषिता, महोदयास्पदस्थिताः कुसङ्गभङ्ग्यदूषिताः॥२॥ जिनागमं श्रयाम्यहं शठावबोधदुस्तरं, प्रभूतभग्नसंशयप्रकाशितार्थविस्तरम् / अनेकभङ्गसङ्कलं भवभ्रमव्यथाऽपहं, मुमुक्षुसङ्घसेवितं गतक्रुधं गुणावहम्॥३॥ जिनेन्द्रपादपङ्कजोपजीवनाऽलिलालसः, सुशीलसाधुयातनाविधानकेलिसालसः / / सुसम्पदं ददातु नो महीतलावभासिनी, स ब्रह्मशान्तिसेवकः प्रशस्यचारुहासिनीम्॥ 4 // *** लेख संग्रह Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. श्रीकुन्थुनाथस्तुतिः (हरिणीछन्दः) जिनपदयुगं वन्दे मोहद्रुमप्रमयप्रधिं, निरवधिगुणग्रामारामाद्रिजातटसन्निधिम् / शिवपुरपथप्रस्थानाश्वं व्यपोहितदुर्मतिं, प्रथिमशमथश्रीमत्कुन्थोः प्रसारितसन्मतिम्॥१॥ जिनपरिवृढा गाढं गूढाध्वतः कलुषव्रजा-ऽपहतिचतुरा गोत्रोन्नत्यप्रथा प्रथनध्वजाः। मम विदधतां चेतःस्वास्थ्यं कषायहतात्मनः, शिवपदसुखे तेज:पुञ्जात्मका विवशात्मनः॥२॥ गणधरवरैर्यनिष्पाद्यं तमोत्तरभास्कर, विगलितमदद्वेषोन्मादव्यलीककलाबलम् / ..........., भजत भविनो जैनं वाक्यं मरुत्तरुसत्फलम्॥ 3 // प्रवचनसुरः श्रीगन्धर्वस्तनोतु तनूमतां, नयनकुमुदानन्दी माद्यद्विवेकवचोवताम्। अतुलकुशलश्रेणी सम्यग्दृशामुपकारकः, पिशुनरसनादृग्दोषोत्थव्यथाऽर्णवतारकः // 4 // 18. श्रीअरनाथस्तुतिः (हरिणीछन्दः) भगवदरनाथं नौमीशं देवराजनतक्रम, विदुरनिकराराध्यं देवं निष्ठिताघभरभ्रमम्। दुरितदहनस्वाहा कान्तं श्लेशलेशविनाशकं, विमलचरणज्ञानाधारं शुद्धपन्थप्रकाशकम्॥१॥ जिनपतिगणास्ते भूयासुः श्रेयसां ततिकारका, वितथपथाख्यानप्रष्ठाः सारलक्षणधारकाः। समवसरणाद्योतन्नत्यश्रीदेवताव्रजसंस्तुताः, परमपदवीं सम्प्राप्ता ये माननीय जनाश्रिताः॥ 2 // वचनरचनासंश्लिष्टाशं ग्रामरामरागपवित्रितं, प्रणमत मनोऽभीष्टार्थाप्तिं भूरिपाठविचित्रितम्। शमरससुधावाक्यं पूर्णं जीतनीतिनिरूपकं, गणभृदुहितं श्रीसिद्धान्तं ध्वान्तवैरिसरूपकम्॥३॥ जिनपतिपादाम्भोजे भक्ता धारिणी तनुताच्छिवं, जिनमतजनासीष्टानादरासुकृतावहम्। सरलमनसां दत्ताधारा व्याधिरोधनकारिका, कलिमलभरभ्रान्तस्वान्तप्रान्तलोकनिकारिका॥४॥ 19. श्रीमल्लिनाथस्तुतिः (मेघविस्फूर्जिताछन्दः) जिनेन्द्र निस्तन्द्रं दुरितिमिरापायनाशाब्जहस्तं, घटाकं श्रीमल्लिं भवजलधिवातापिवैरिप्रशस्तम्। वहामश्चैनोऽन्तर्विशदतरभावेन हावेन मुक्तं, पवित्रां चारित्रश्रियमनुभवन्तं परानन्दयुक्तम्॥१॥ जिनेन्द्राः कुर्युस्ते सपदिभवनिस्तारमारप्रहीणाः, सुरेन्द्राद्यैर्वन्द्याः प्रचुरतरचित्तेजसोऽतिप्रवीणाः। महानन्दप्रोद्यत्परमसुखसम्प्राप्तपुण्यप्रकर्षा, दरिद्रोद्यन्मुद्राविघटनघनाघातजातानुतर्षाः // 2 // जिनेन्द्रास्योद्भूतं भवतु भवभीतिप्रतीघातनाय, पुनः स्पष्टो दृष्टोत्कटचरटसङ्घातसंशातनाय। अनेकार्थाकीर्णं गमशमरमालीढमाधारभूतं, जनानां सिद्धिश्रीकमलमपयादूतिसङ्केतदूतम्॥३॥ जिनेन्द्रोपास्तौ या चतुरतरधीवैभवव्यासमत्ता, मुनिश्राद्धव्याधिप्रमयसमयस्थापितैकाग्रचित्ता। विदध्यात्सङ्घस्यातुलकुश ल ]सन्दोहमूर्जस्वला सा, प्रभाविद्युत्तारा धरणदयिता हस्तिविख्याविलासा॥४॥ 74 लेख संग्रह Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. श्रीमुनिसुव्रतस्वामिस्तुतिः (शोभाछन्दः) जिनाधीशं वन्दे कुशलनिपुणधारीगम्यरम्यस्वरूपं, नमनाकिश्रेणीमुकुटपतितमालासुपूज्यं सुरूपम्। सुरेन्द्रैस्संस्तुत्यं चरणकमलं लक्ष्माणमुन्निद्रनेत्रं, भवाम्भोधौ मजजननिकरतरी तुल्यमेनोऽरिजेत्रम्॥१॥ क्रियासुस्ते सार्वाः परमपदपुरप्राप्तये प्राज्यवीर्य, जगदुर्जेयश्रीतनयमदविनाशाप्तशौर्याः सधीर्यम्। प्रमाणोपेतश्रीसमवसरणभूसंस्थिताः स्वान्तशान्ता, निराधाराधाराः शिशुतरुणजराजीर्णभावेऽपि कान्ताः॥२॥ कृतान्तः सार्वीयः सुरतरुसदृशश्चिन्तितार्थप्रदाता, मनोवृत्तेर्भक्त्या परमशुचितयाऽऽराधितः शंघिधाता। ददातु प्रज्ञां मां गलितकलिमलांशूकसत्कृत्यतूर्णा, महारेकोद्रेकच्छिदुरविदुरतातत्परः पुण्यपूर्णाम्॥३॥ जगत्स्वामिध्यानाचरणसततधीः सजनानां श्रिये स्ता-दतिज्योतिःशाली वरुण इति सुरो यः सुराणां पुरस्तात्। अभद्राणां श्रेणी लवनजवने वैज्ञानिकत्वं दधानः, सदानन्दी दीनातिहरणचतुरः स्मेरकीर्तिप्रतानः॥४॥ 21. श्रीनमिनाथस्तुतिः (चन्दनप्रकृतिच्छन्दः) जिनेशपावकध्यानाऽत्यमलतरमतिरभिनवगुताः, सदा नमे! पदाम्भोजं तव शमविदलितकलुषकणः। भजामि विश्ववात्सल्यं चरमपरमपदसुखकरणं, भवाब्धिमग्नभव्यौघप्रवहणसदृशविहितशरणम्॥१॥ दिशन्तु मां जिनाः सौख्यं कलिमलदलगलितकलं, व्यथाप्रथापथातीतामदमदनखलविदलितथलम्। समस्तवासवार्चाऽर्हाः शमसंयमनियमपरिकलिताः, प्रभूतलक्ष्मणाकीर्णाश्चलननलिननतजनफलिताः॥२॥ जिनोदितं ममेष्टार्थं वितरतु यमशर्मगमललितं, प्रकामभाग्यसंस्कार प्रकटितशुभफलमुनिमिलितम्। विचारसार सम्भार प्रथनकथितसुकृतकलफलं, समग्रभावसूचाया अतिविदितविषज्ञधरणितलम्॥३॥ सशासनोन्नतिप्रह्वो भृकृटिरिति विबुधजनविदितं, नमे(जिष्यतां प्राप्तः सततमिति यतिपतिनिगदितम्। करोतु तन्ममाधानं शिवसदनगमनरसिकजने, वरेण्यलक्षणोपेताभयदपदयुगलविधृतमने॥ 4 // *** 22. श्रीनेमिनाथस्तुतिः, (महास्रग्धराछन्दः) जिनपं भावेन वन्दे सुरनर महितं माननीसङ्गशून्यं, प्रहतक्रोधप्रतापं प्रमुदितमनसं ध्यानचित्तादशून्यम्। मथिताजन्यं प्रसन्नं विदलितमदनं शाश्वतश्रीनिदानं, सुकृताद्वैतप्रपन्नार्त्तिहरणविदुरं शङ्खलक्ष्मप्रधानम्॥१॥ सकलार्थाः साधिता यैस्त्रिभुवनविनतास्तीर्थपाः सन्तु सिद्धयै, सतताभिप्रायविज्ञाः शमदमनिचिता ज्ञानसन्तानवृद्ध्यै। ममतामिथ्या निरस्ता अमितगुणमणी गन्धमातासमानाः, समतासीमन्तिनीशाः पदनतजनता प्रत्तरामानिधानाः॥२॥ गणधारैर्भाषितं यद्गमनयबहुलं लङ्घनीयं न देवै र्धिषणावद्भिर्निषेव्यं त्रिभुवननविदितं संस्तुवे पूतहेवैः। लेख संग्रह 75 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविसंवादिप्रमेयं रुचिरतरवचो वर्णनीयं प्रगल्भैरमितार्थं व्यर्थहेतु व्यपगमनिपुणं प्रस्फुरद्दिव्यवल्मैः॥ 3 // विदधात स्वर्निवासी प्रवचनवरिवस्या विधानाभिरूपः, सबलः सन्तापहर्ता विदुरनरचमत्कारकारिस्वरूपः। प्रबलारिष्टप्रहर्ता जिनमतसततोपासकप्राणभाजां, कुशलंगोमेधनामा करकृतनकुलाहिः स्फुरत्पुण्यभाजाम्॥४॥ 23. श्रीपार्श्वनाथस्तुतिः (वृन्दारकच्छन्दः) जिनेशमभिनौमि तं दलितमोहमायान्धकारप्रचारं सदा, दिनेशसममुत्तमं निहतरागरोषादिदोषं युतं सम्पदा। सुरेशजनसंस्तुतं नृपतिलोकनम्रीकृतं पार्श्वनाथप्रभुं, महेशपदवीश्रितं कमठमानवजापितं लोकरक्षाविभुम्॥१॥ समस्तजिनमण्डलं मम पुनातु विश्वत्रयीज्ञातसद्विस्तरं, कठोरवृजिनोच्चयक्षयकरं समश्वेतकल्याणकुप्रस्तरम्। विमुद्रवहनाम्बुजप्रमदकृतसुखं श्रेणीविश्राणनाकोविदं, विसारिगुणसञ्चयप्रसृतविश्वभावावबोधस्फुरत्संविदम्॥ 2 // जिनेन्द्रवचनामृतं मम लुनातु दुःखावलिं पातकान्तंकजां, प्रभूतजनिसञ्चितप्रबल दुष्टदोषप्रकर्षां रजस्सङ्गजाम्॥ भवामयभरागदं चतुररचित्तचातुर्यदानप्रधानोजसं, कृपाशमरसात्मकं कुमतकौशिकव्यूहहंसोल्लसत्तेजसम्॥३॥ धिनोतु जनमानसं धरणराजनागेन्द्रपत्नी सुपद्मावती, विचारचतुराञ्चितं परमसुन्दराकारसदूपशोभावती। प्रमोदपरिपूरिता जनितजैनलोक प्रकाण्डोल्लसत्सम्पदा, मनीषिजन ता स्तुता विशदबुद्धिसंसिद्धिसर्वर्द्धिसिद्धिप्रदा॥४॥ 24. श्रीवर्द्धमानजिनस्तुतिः (विभ्रमगतिच्छन्दः) सिद्धार्थान्वयमण्डनं जिनपतिस्त्रैलोक्यचूडामणिर्जितपावकः, पञ्चास्याङ्कितभूघनो घनगभीरध्वानविस्तारयुगादघातकः। संसारार्णवसेतुबन्धसदृशः सिद्धयङ्गनासङ्गमी गतकन्दलः, जीयाद्यः कमनप्रतापहननस्थाणूपमप्राणभृच्छमशम्बलः॥१॥ सर्वे सार्वचयाः सुपर्वनिचयाधीशप्रमोदस्तुताहितवाचकाः, चारित्रावसरापवर्जनकला दारिद्रविद्रावणोद्धतयाचकाः। जीयासुः प्रतिकृष्टकर्मनिकरच्छेदोद्यताः पादपूतरसातलाः, प्रोन्मीलत्कमनीयकान्तिकलितास्तत्त्वार्थविद्भास्करप्रग्रहामलाः॥२॥ - लेख संग्रह 76 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यज्जैनेन्द्रवचः प्रभावभवनं दुर्वादिगर्वापहं जनपावनं, सेवे शान्तरसामृतोद्भवमहं पुण्याङ्कराोधरं शुभभावनम्। शब्दाचारनिरूपणवतधनस्वर्गापवर्गप्रदं मतिमिश्रितं. सर्वात्मप्रतिपालनासु ललितं कुन्मानमायाहृति व्रतिसंश्रितम्॥ 3 // मातङ्गोऽर्हदुपासकः प्रकुरुता श्रेयसं प्राणिनां सुमनोवराः, श्रीसङ्घस्य कृपाकरो मुनिमनःश्रेणीसमुल्लासकः सुमनोहरः। मातङ्गोपरिसंस्थितो भुजयुगः श्यामः सकर्णावली नुतलक्षणः, सर्वप्राण्युपकारकारणाकलासक्तः सुदृष्टिः सदाऽतिविचक्षणाः॥ 4 // 25. श्रीगौतमगणधरस्तुतिः ज्ञाततनूजाद्यान्तेवासी सकलचरित्रादिगुणनिधानं हितकर्ता, गौतमनामा दीव्यद्धामा विमलयश:काय वसुमतीपीठविहर्ता। अक्षयमुख्याः सर्वाः सहलब्धय इह पृथ्वीविदिततरायास्तदमत्रं, मुख्यगणाधीशो धेयान्मां विपदपतन्तमतिपरिपूर्णः सुचरित्राम्॥१॥ तीर्थकरास्ते भूयासुर्मां परमपदाप्त्यै सुरनरनूताः शमपूताः, केवलचिद्रूपालोकालोकितभुवना भोगविरतचित्ता भ्रमधूताः। पातकजातानेकासातप्रकरकुबाधाव्यथितजनानां रतिकाराः, सुरतपूर्त्या नेत्रानंदप्रथनसुधीदीधितिसमयादाः समताराः॥ 2 // आगमवाक्यं साधुश्रेष्ठैर्विदुरजनानामुपकृतिहेतोरुपनीतं, बादरसूक्ष्मप्राणाजीवप्रमुखविचारव्रजभृतमध्य चरजीतम्। ज्ञानदयादानव्याख्यानाद्यनणुगुणालीग्रथितसुशास्त्रं गतदोषं, कर्णपुटाभ्यां पैरानिन्ये भविकनरास्ते शिवसुखमीयुः कृतजोषम्॥३॥ शासनदेवा देव्यः सर्वा मुनिनिवहानामचलसुखं ते जिनभक्ता, ये हतदुष्टवाताः कुर्युर्यमनियमाचारनयरतानां रसरक्ताः। पण्डित लक्ष्मीकल्लोलस्पर्शननिपुणा निर्मथितविकारा अतिशिष्टाः, . स्वीकृतसन्धानिर्वाहाः सज्जनपरमानन्दपदनिदानाहितकष्टाः॥ 4 // - [अथ स्तुतिकृतो नामनिर्देशकं वृत्तम्-] एवं श्रीजिनपुङ्गवाः स्तुतिपथं नीताश्चतुर्विंशतिः, श्रीमद्वीरविनेयगौतमयुताः सद्वर्द्धमानाक्षरैः। वृत्तैर्निर्भरभक्तिसम्भृतमनोवृत्त्या मया काम्यया, मुक्तिस्त्रीपरिरम्भणस्य कमलाकल्लोमेधाविना // 1 // इति श्रीप्रतिस्तुतेर्जिनसङ्ख्याप्रमाणवर्द्धमानाक्षरा अनुप्रासालङ्कारमय्यश्च श्रीगौतमगणधरस्तुतियुताश्चतुर्विंशत्यर्हतां स्तुतयः पूर्वाचार्य रकृतपूर्वी विनोदमात्रतया मया कृतपूर्वी . उ० श्री 5 श्रीहर्षकल्लोलप्रसादात्। [अनुसंधान अंक-३४] लेख संग्रह Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर-श्रीहेमरत्नप्रणीतो भावप्रदीपः [प्रश्नोत्तरकाव्यम्] प्रश्नोत्तर काव्यों प्रहेलिकाओं और समस्यापूर्ति के माध्यम से विद्वज्जन साहित्यिक मनोरंजन करते आए हैं। यह परम्परा शताब्दियों से चली आ रही है। प्रश्नोत्तर काव्य आदि चित्रकाव्य के अन्तर्गत माने जाते हैं। अलंकार-शास्त्रियों ने शब्दालङ्कार के अन्तर्गत ही चित्रकाव्यों की गणना की है। चित्रगत प्रश्नोत्तरादि काव्यों का विस्तृत वर्णन हमें केवल धर्मदास रचित विदग्धमुखमण्डन में प्राप्त होता है, जिसमें 69 प्रश्नकाव्यों का भेद-प्रभेदों के साथ वर्णन प्राप्त है। उसको काव्य रूप प्रदान करने वाले कवियों में जिनवल्लभसूरि (१२वीं) का मूर्धन्य स्थान माना जाता है। उनके ग्रन्थ का नाम 'प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक काव्य' है। सम्भवतः इसी चित्रकाव्य परम्परा में अथवा जिनवल्लभ की परम्परा में हेमरत्नप्रणीत भावप्रदीप ग्रन्थ प्राप्त होता है। कवि हेमरत्न पूर्णिमा गच्छीय थे। हालाँकि भावप्रदीप में गच्छ का उल्लेख नहीं किया गया है किन्तु अन्य साधनों से ज्ञात होता है। हेमरत्न द्वारा स्वलिखित प्रति में आचार्य का नाम देवतिलकसूरि लिखा है। (पद्य 118) किन्तु अन्य प्रति में आचार्य का नाम ज्ञानतिलकसूरि भी मिलता है, इसके द्वितीय चरण में कुछ अन्तर है किन्तु तृतीय और चतुर्थ चरण के पद्य 118 के समान ही हैं। यह ग्रन्थ 'नर्मदाचार्य' की कृपा से लिखा गया, किन्तु यह नर्मदाचार्य कौन है? शोध का विषय है। हेमरत्न के गुरु पद्मराज थे। गोरा बादिल चरित्र में इनको वाचक शब्द से सम्बोधित किया गया है। सम्भव है बाद में ये उपाध्याय बने हों। हेमरत्न के सम्बन्ध में और कोई इतिवृत्त प्राप्त नहीं होता है। इस काव्य की रचना विक्रम संवत् 1638, आश्विन शुक्ला दशमी, विजयदशमी के दिन बीकानेर में की गई। (रचना प्रशस्ति पद्य 1) इस भावप्रदीप की रचना बच्छावत गोत्रीय श्री वत्सराज की परम्परा में संग्राम सिंह के पुत्र मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र के अनुरोध पर की गई है, जो कि बीकानेर नरेश रायसिंहजी के मित्र थे। बीकानेर के वरिष्ठ मन्त्री थे। नीतिनिपुण थे और लब्धप्रतिष्ठ थे। (पद्य 5, 6, 7) मन्त्री कर्मचन्द बच्छावत न केवल बीकानेर नरेश के ही मित्र थे अपितु सम्राट अकबर के भी प्रीतिपात्र थे और पोकरण के सूबेदार भी थे। खरतरगच्छ के अनन्य उपासक थे। पोकरण से सम्राट अकबर के समीप लाहौर जाते समय इन्होंने फलौदी, मेड़ता रोड (फलवर्द्धि पार्श्वनाथ), सांगानेर, अमरसर, तोशामनगर, सिरसा आदि स्थानों पर भी दादाबाड़ियों की स्थापना की थी। सम्राट की इच्छानुसार जिनचन्द्रसूरि का युगप्रधान पद-महोत्सव भी कर्मचन्द बच्छावत ने ही किया था। इनका विस्तृत परिचय जानने के लिए महोपाध्याय जयसोम रचित 'कर्मचन्द-मन्त्री-वंशप्रबन्ध' (विक्रम संवत् 1650), गुणविनयोपाध्याय रचित 'कर्मचन्द-मन्त्री-वंशप्रबन्ध' वृत्ति (विक्रम संवत् 1657), अगरचन्द भंवरलाल नाहटा लिखित युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि (पृष्ठ 213 से 239), महोपाध्याय विनयसागर लिखित खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास आदि द्रष्टव्य हैं। 78 लेख संग्रह Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं पूर्णिमागच्छ के होते हुए भी खरतरगच्छ के मन्त्री कर्मचन्द बच्छावत के अनुरोध पर इस काव्य की रचना यह प्रकट करती है कि उस समय में गच्छों का और आचार्यों का अपने गच्छ के प्रति कोई विशेष आग्रह नहीं था। मुक्त हृदय से दूसरे गच्छों के श्रावकों के अनुरोध पर भी साहित्यिक रचना किया करते थे। यह हेमरत्न का उदार दृष्टिकोण था। अपनी गच्छ की क्रिया करते हुए भी दूसरे गच्छों के प्रति सहृदय भाव रखते थे। इस प्रश्नोत्तर काव्य में 121 अथवा 124 पद्य हैं। कवि ने इस लघु कृति में अनुष्ठप्, उपजाति, वंशस्थ, भुजङ्गप्रयात, शार्दूल विक्रीड़ित, और स्रग्धरा आदि छन्दों का स्वतन्त्रता से प्रयोग किया है। यह प्रश्नोत्तर काव्य है। जिसमें श्लोक के अन्तर्गत ही प्रश्न और उत्तर प्रदान किए गए हैं। इसमें प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक के समान श्लोक के पश्चात् अनेकविध जातियों में संक्षिप्त उत्तर नहीं लिखे हैं। काव्यगत अलङ्कार विधान प्रस्तुत करना इस छोटे से लेख में सम्भव नहीं है। इसकी प्राचीनतम दो प्रतियाँ राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में प्राप्त हैं जिनके क्रमशः नम्बर इस प्रकार हैं:- 20087 एक प्रति कवि द्वारा स्वलिखित है, दूसरी प्रति उसकी प्रतिलिपि ही है। जिसमें दो श्लोक प्रशस्ति के रूप में विशेष रूप से प्राप्त होते हैं। दूसरी प्रति में प्रशस्ति पद्य 2 में कवि हेमरत्न को भी आचार्य माना. गया है। प्रति का पूर्ण परिचय इस प्रकार है: प्रति की क्रमाङ्क संख्या 20087, इस प्रति की साइज 25410.9 से.मी. है। पत्र संख्या 4 है। प्रति पृष्ठ पंक्ति 17 और प्रति पंक्ति अक्षर 52 है। विक्रम संवत् 1638 की स्वयं लिखित प्रति है। ____दूसरी प्रति का क्रमाङ्क नम्बर प्राप्त नहीं कर सका हूँ। कवि की अन्य रचनाएँ हेमरत्न प्रणीत संस्कृत भाषा में अन्य कृतियाँ प्राप्त नहीं हैं, किन्तु राजस्थानी भाषा में इनकी कई कृतियाँ प्राप्त हैं। इसमें से 'गोरा बादिल चरित्र' ऐतिहासिक चौपई ग्रन्थ है। इस चौपई ही रचना 1645 सादड़ी में की गई है और ताराचन्द कावड़िया के अनुरोध से इस रचना का निर्माण हुआ है। ताराचन्द कावड़िया महाराणा प्रताप के अनन्यतम साथी, मेवाड़ के सजग प्रहरी, दानवीर और इतिहास प्रसिद्ध भामाशाह के छोटे भाई थे तथा उस समय सादडी में विशिष्ट अधिकारी थे। कवि स्वयं लिखता है: पूनिमगछि गिरुआ गणधार, देवतिलक सूरीसर सार। न्यानतिलक सूरीसर तास, प्रतपई पाटइ बुद्धिनिवास॥ 610 // पदमराज वाचक परधांन, पुहवी परगट बुद्धि-निधान। तास सीस सेवक इम भणइ, हेमरतन मनि हरषइ घणइ॥६११॥ संवत सोलइ-सई पणयाल, श्रावण सुदि पंचमि सुविसाल। पुहवी पीठि घणुं परगडी, सबल पुरी सोहइ सादडी॥६१२॥ पृथ्वी परगट 'रांण प्रताप', प्रतपइ दिन-दिन अधिक प्रताप। तस मंत्रीसर बुद्धिनिधांन, कावेड्यां कुलि तिलक समांन॥ 613 // सांमिधरमि धुरि 'भांमुसाह', वयरी-वंस विधुंसण राह। तस लघु भाई ताराचंद, अवनि जाणि अवतरीउ इंद्र // 614 // ताराचन्द कावड़िया के सम्बन्ध में पुरातत्वाचार्य पद्मश्री मुनि जिनविजयजी 'गोरा बादिल चरित्र' के 'एक पर्यालोचन' पृष्ठ 5 पर लिखते हैं:लेख संग्रह Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस रचना के मुख्य प्रेरक थे मेवाड़ के महाराणा प्रताप के अत्यन्त विश्वस्त राजभक्त, और देशभक्त, राजस्थानीय महाजनों के मुकुट-समान भामाशाह के भाई ताराचन्द। सादड़ी नगर उस समय मेवाड़ राज्य की दक्षिण-पश्चिमी सीमा का केन्द्रस्थान था। ताराचन्द वहाँ पर महाराणा प्रताप के शासन का एक विशिष्ट स्थानिक अधिकारी था। कवि हेमरत्न भामाशाह और ताराचन्द के धर्मगुरुओं के शिष्य-समूह में से एक प्रमुख व्यक्ति थे। यह रचना उदयपुर राज्य और राजवंश से विशिष्ट सम्बन्ध रखने वाले ओसवाल जाति के कावड़िया गोत्रीय ताराचन्द के आदेश और अनुरोध से बनाई गई है। ताराचन्द, जैसा कि ऊपर कहा गया है, भामासाह का छोटा भाई था। महाराणा प्रताप का वह विश्वस्त राज्याधिकारी था। भामासाह के साथ वह भी प्रसिद्ध हल्दीघाटी के युद्ध का एक अग्रणी योद्धा और सैन्य संचालक था। उसने चित्तौड़ के राजवंश की रक्षा के निमित्त अनेक प्रकार से सेवा की थी, अत: उसके मन में चित्तौड़ के गौरव की गाथा का गान करवाने का उल्हास होना स्वाभाविक ही था। (पृष्ठ 7) यह पुस्तक 'गोरा बादिल चरित्र' के नाम से मुनिजी द्वारा सम्पादित होकर राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से सन् 1968 में प्रकाशित हो चुकी है। इस कृति के आधार से निश्चित तो नहीं किन्तु यह सम्भावना की जा सकती है कि वीर भामाशाह कावड़िया भी पूर्णिमा गच्छीय थे। ___ कवि की अभयकुमार चौपई, महीपाल चौपई (र. सं. 1636), शीलवती कथा (र. सं. 1613, पाली), लीलावती कथा (र. सं. 1613), रामरासौ और सीता चरित्र आदि नाम की भी अन्य रचनाएँ उपलब्ध हैं। इन कृतियों का उल्लेख मुनिजी ने 'गोरा-बादल चरित्र - एक पर्यालोचन', पृष्ठ 7 में किया है। प्रस्तुत है प्रश्नोत्तर काव्य भावप्रदीपः // ई० // श्रीगणेशाय नमः॥ श्रीमते 'विश्वविश्वैकभास्वते शाश्वतद्युते। केवलज्ञानिगम्याय नमोऽनन्ताय तेजसे // 1 // 'प्रभूतभूतिप्रविभूषिताङ्गकः, प्रध्वस्तकामः समकामदः सदा। प्रभुर्विभूनामपि मंजुलार्गलः, स मङ्गलं रातु वृषध्वजो विभुः॥ 2 // पञ्चाननाङ्कितजगत्प्रभुपादसेवी, श्रीमद्विलोलविकसत्करपुष्करानः। विघ्नौघपाटनपटुः कटुकष्टकृट् च, निर्मातु मङ्गलगणं गुणवान्गणेशः॥३॥ नमः समाजस्थितसज्जनेभ्यः प्रसन्नचित्ताननपङ्कजेभ्यः। परप्रणीतान्यपि ये वचांसि, स्वभावभेदैः परिभूषयन्ति // 4 // श्रीविक्रमाख्ये नगरे गरिष्ठः, प्रज्ञाप्रपञ्चेऽस्तितमां पटिष्ठः। मन्त्रप्रयोगे प्रथितप्रतिष्ठः, श्रीकर्मचन्द्रः सचिवो वरिष्ठः // 5 // भावपटीप.. 1. ब. समस्त। 2. ब. प्रचुर। 3. ब समग्रं सकलं सममिति / 4. ब. मंगुलशब्दो देश्यः, मंगुलस्य अशोभनस्य अर्गलेति, कल्याण:। 5. ब. कट्वकार्यो त्रिपु मत्सरतीक्ष्णगोरित्यमरः। 80 लेख संग्रह Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्प्रार्थनाजातपरप्रमोदः, स्वान्तस्य तस्यैव विनोदहेतोः। कुर्वे नवीनं कमनीयकाव्य - र्भावप्रदीपाभिधशास्त्रमेतत्॥६॥ श्रीवत्सराजान्वयमोलिरत्नं, संग्रामसिंहस्य तनूजराजः। श्रीराजसिंहाभिधभूपमित्र', श्रीकर्मचन्द्रः सविचः स जीयात्॥७॥ न हि निखिलशास्त्रबोधो मतिरपि विमला न तादृगभ्यासः। किन्तु कवित्वे शक्तिर्गुरुरेकः कारणं मेऽत्र // 8 // सस्नेहमुत्सङ्गनिवेशितोऽम्बयारे, वक्षोजविध्वस्त -महेभकुम्भया। शीर्षं गणेशः खलु शङ्कया कया, पस्पर्श विद्वन् वद पृच्छ्यते मया॥९॥ कुम्भावुभावपि ममाङ्कगतस्य मातु-र्लग्नाववश्यमिति वक्षसि शैशवे [ सः ] / [शङ्कासमाकुलितचित्तमिभाननः स्वौ, कुम्भौ करेण झटिति स्पृशति स्म तेन // 10 // .. काचिच्चञ्चललोचना नववधूः प्रातर्मुखं दर्पणं, प[श्यन्ती शिथिलालकं पतिरतिप्राग्भार -संसूचकम् / एकान्तस्थितिमाश्रिताऽपि च पराड्वक्त्राऽपि भूरित्रपा वीचिव्यूह -निगग्नचित्तचटुला क[ स्मादकस्मा दभूत्॥ 11 // पृष्ठस्थितस्य निजजीवितवल्लभस्य, वक्त्रारविन्दममलं मुकुरे समीक्ष्य। श्रीकर्मचन्द्रसचिवेश्वर ! तेन चैषा, [ लज्जावती नव वधूः सहसा बभूव // 12 // काचित्कुलीनवनिता रमणेन दूर- देशात् सुकङ्कणयुगं प्रहितं निरीक्ष्य। निःश्वासदग्धदशनच्छद [ माप्तदुःखा ], [ गूढं० रु ] रोद वद कोविद किं निदानम्॥१३॥ नाथः समां विरहवह्निकृशां न वेत्ति, नाऽसावपीह विरहा[ तुरचित्तवृत्ति:१९ / [नो चेत् कथं पृथुलकङ्कणयुग्ममत्र ] मां मुञ्चतीति विगणय्य२ वधू रुरोद॥१४॥ काचिन्निजं कान्तमवेक्ष्य कोप-कल्येला मग्नावनताननाभूत् / [तत्कारणं पृच्छति सत्यमुष्मिन्५३ ], [ किं दर्पणं तस्य ] करे [ ददौ सा]॥ 15 // अन्यांग ना नय नपङ्कजचुम्बनेन, कृष्णाधरस्ति[ लकचित्रितभालदेशः ] / [अप्येष पृच्छति रुडुद्भवहेतुमस्मात्, सा दर्पण वितर ]ति स्म करे तदीये॥ 16 // [काचि ]निजे भर्तरि दूरदेशं, सम्प्र[ स्थिते तत्कुशलेषिणी सा] [ गच्छाशु माऽभूत्तव दर्शनं मे, शीघ्रं वधूरेवमुवाच कस्मात्॥ 17 // तद्यान ४-माकर्ण्य मृतामवश्यं, मुक्त्वा [ समायाति तदेत्य वल्गु५]। [मा दर्शनं मेऽस्तु] ततो मृताया, नाथस्य शीघ्रं बहुजीवितस्य॥१८॥ पूर्णैणाङ्कमुखी६-महं हृदि मम त्रस्तैणशावेक्षणे, [त्वामद्यैव विभावयामि च निजप्राणप्रिये 8 स्वप्रियाम्। इत्थं जल्पति हास्यपेशल.९-मथो सा स्वं करेण दुत, गल्लं फुल्लमधूकपुष्पपुलिनं पस्पर्श वस्त्रेण[ किम् ] // 19 // 1. ब. प्रतौ 'मन्त्री' इति पाठान्तरम्। 2. ब. केवलः। 3. अ.ब. पार्वत्या। 4. अ.ब. तिरस्कृतौ / ५..अ.ब. आधिक्यं / 6. अ.ब. कथकं / 7. अ.ब. बह्वी। 8. अ.ब. समूह। 9. ब. दन्तपत्रम्। 10. ब. गुप्तम्। 11. अ. पीडितव्यापारः। 12. ब. विचार्य। 13. ब. भर्तरि / 14. अ. गमनम्। 15. ब. चारु। 16. ब. अंककलङ्कोऽभिज्ञानम्। 17. ब. जानामि / 18. ब. भर्तरि / 19. ब. मनोहरं / 20. ब. कृत्वा। 21. ब. सह। * [] अ. पुस्त के भग्नपत्रत्वादत्र कोष्ठकान्तर्गतांशो ब. पुस्तकादुद्धृतः। एवमग्रेऽपि सर्वत्र कोष्ठकान्तर्गतांशा: ब. पुस्तकादेवोपन्यस्ता ज्ञेयम्। लेख संग्रह 81 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णेचन्द्रमसि ध्रुवं बत भवत्येव स्फुटं लाञ्छनं, नास्मद्वक्त्रसरोरुहेऽतिविमले कालुष्यलेशोऽपि च तज्याने खलु सोपमान वचसाऽनेना] धुना कज्जलं, गल्लेऽस्तीति ममाज' लोलनयना हस्तेन गल्लस्थलम्॥ 20 // निशि वियोगवती युवती गृहे, विधुमवेक्ष्य नभोऽङ्गणमध्य[ गम्]। [स]खि समानय दर्पणमाशु मे, क्षुरिकया सह चेति कथं जगौ॥२१॥ दहति मामयमेणभृदातुरां, चरति चाऽलि! दवीयसि पुष्करे। तदमुकं मुकुरान्तरुपागतं, क्षुरिकया प्रतिभेत्तुमिदं जगौ॥ 22 // मातुर्निजायाः पदपद्मयुग्मं, नत्वोपविष्टः पुर एकदन्तः। पस्पर्श मूर्धानमसौ करेण, कस्मादकस्माद् वद कोविदेन्द्र // 23 // गौरीपदाम्भोजयुगप्रजाता - रुणत्वरक्तीकृतमीक्ष्य भूतलम्। स्वकुम्भसिन्दूरजोभिशङ्कया, मूर्द्धानमेष स्पृशति स्म तेन // 24 // सुदति पृच्छति भत्तरि गद्यता - मितरदेशगतोऽभिमत तव। अहमिह प्रहिणोमि किमादरात्, तदनु साम्भसि किं तिलमक्षिपत्॥ 25 // तिलकयोर्व्यतिषङ्गवशादसौ, तिलकमेव निवेदयति स्म तम्। इतरथा कथमेव जले तिलं, क्षिपति मन्त्रिप! कं परनामनि // 26 // कश्चियुवा युवतिवक्त्रमवेक्ष्यमाणो, नाऽहं विलोचनयुगो धृतिभाग् भवामि। एवं विचिन्तयति चेतसि तावदासीत्, सद्यः स कोविद वदाशु कथं षडक्ष:१९ // 27 // . स स्वकीयनयनद्वयमध्ये, बिम्बितप्रियतमानयनोऽभूत्। एवमेव सचिश्वेश्वर! सद्यः, सोऽभवन्नयनषद्कसमेतः॥ 28 // तदभिलषितकान्तोपान्ततोऽभ्यागताशु, स्ववगततदभिप्राया३ समागत्य दूती। तरुणमरुणरश्मिस्पृष्टपङ्केरुहास्य, जनवृतमभि दृष्ट्वा सर्षपं तत्करेऽदात्॥ 29 // शीघ्रमेव समागत्य दूत्याथ कृतकृत्यया। सर्षपस्यैव दानेन सिद्धार्थोऽसीति सूचितम्॥ 30 // अभ्यर्णमभ्येत्य हरेः स्वभर्तुः, प्रसन्नचित्ता परिरम्भणाय। जगाम कस्माच्चटुवादिनोऽपि५, पराङ्मुखी सत्वरमेव पद्मा // 31 // तद्वक्षस्थलकौस्तुभे निजवपुर्दृष्ट्वेति जातभ्रमा, नूनं नाहमरेर्मुरस्य हृदि यत् पश्यामि तत्राऽपराम्। पद्मा तेन समौनकोपकलिता६-ऽभ्यर्णं समेताऽपि च, ९"प्रास्तप्रीतिभरा१८ स्म गच्छति शृणु श्रीकर्मचन्द्रप्रभो!॥ 32 // 1. ब. निश्चितम्। 2. ब. मुजूप् शुद्धौ। 3. ब. खे। 4. ब. चंद्र / 5. ब. विदारयितु। 6. ब. सति. 7. ब. इति इति त्वया। 8. ब. ईप्सितं / 9. ब. खयामि। 10. ब. अलुकामासः। 11. ब. पट् अक्षीणि यस्य, नयनानां पट्कं तेन / 12. ब. . अनेन प्रकारेण। 13. ब. शोभनोऽवगतस्तस्या अभिप्रायो यया सा। 14. ब. समीपमागत्य। 15. ब. चटुचाटुप्रियप्राय / 16. ब. व्याप्ता। 17. ब. ध्वस्त / 18. ब. समूह। 82 लेख संग्रह Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणप्रिये 'दभ्रदिनैः समेते, देशान्तरादर्दति' सम्प्रयोगम्। काचित्कुरङ्गीनयना निशायां, मूर्द्धन्यमुञ्चत्कथमाशु पुष्पम्॥ 33 // अहं पुष्पवती कान्ता कथमायामि साम्प्रतम्। सम्भोगो नाधुना योग्यश्चेति ज्ञापितमेतया॥३४॥ काचित्कोविद कामिनीकरतलेनादायकिञ्चित्फलं, दृष्ट्वा दष्टमिदं खगेन सहसा केनाऽपि किञ्चित्ततः। शङ्कासंकुचिता सती निजकरे सा वै दधौ दर्पणं, निःशङ्काथ निराचकार च करात्मौनान्विता तत्फलम्॥३५॥ विलोक्य विम्बाह्वफलं शुकेन, दष्टं मृगाक्षी पतिखण्डितौष्ठी। सादृश्यशङ्का धृतदर्पणासीद्, विचिन्त्य तत्कुत्सितमित्यमुञ्चम्॥ 36 // पत्युः "प्रवाससमये मृगशावकाक्ष्या, पृष्ठे पुरा' भवति कर्हि समागमस्ते। स स्वाग्रजं सति पितर्यपि वल्लभायाः, कस्माददर्शयदसौ वद कोविदाऽऽशु॥ 37 // ज्येष्ठदर्शनतोऽनेन ज्येष्ठमासो निवेदितः। तद्देशमागते वाऽस्मिन् भविष्यति ममागमः॥ 38 // काचित्कोपनिरुद्धवागवनता-श्रुव्याप्तनेत्राम्बुजा, पत्याऽगो -ऽनलदह्यमानहृदयाऽपास्त'-प्रियप्रीतवाक्। कुर्वाणे निजभर्तरि क्षुतमथो सा किं ललाटे निजे, चित्रं रत्नकरैर्विचित्रमकरोदाचक्ष्व तत्कारणम्॥ 39 // कुर्वाणे मम भर्तरि 9 क्षुतमहं जीवेति वाक्यं न चेजल्पाम्याशु तदा व्रजत्यवसरश्चेद् वच्मि "तद्याति मे। मौनं मानभवं विचार्य तरुणीति स्वे ललाटेऽकरो च्चित्रं तेन निवेदितं स्फुटतरं जीवेति वाक्यं यतः॥ 40 // कश्चित्तृषार्तो मतिमान्निदाधे, हस्तस्थनीरोऽपि निजालयस्थः। किं शून्यमालोक्य पपौ न वारि, ब्रूतात् कवे तद्यदि बुद्ध्यसे त्वम्॥४१॥ दृष्ट्वाकाशं शून्यमलेन्दुसूर्यैः, सायं नायं नीरपानं चकार। विश्वव्यापिप्रोज्वलश्लोकराशे,१४ वर्यं वार्यत्राखिलैर्यन्मुनीशैः॥ 42 // कश्चिद्विनीतो नयविद्गृहस्थो, १५निर्दम्भमालोक्य गुरुं१६ पुरस्तात्। नाभ्युत्थितो नाऽपि गतः समीपं, ननाम नासीन्न तथापि निन्द्यः॥४३॥ वियति जीवमुदीक्ष्य समुद्गतं, न नमितः स निजं न तु सद्गुरुम्। सचिवशेखर! तेन स ना जनै-र्नयरतैरपि नैव विगर्हितः१८॥ 44 // काचित्कुरङ्गीनयना निशाया-मात्माननस्पर्द्धिनमिन्दुमुच्चैः। . आलोक्य भूस्थापि कुतूहलाय, जग्राह हस्तेन कथं वदाशु॥ 45 // 1. ब. तूर्यदभ्रं पुरस्फिरमिति कोशः। 2. ब. याचयति सति / 3. ब. संवेशनं। 4. ब. प्रयाण।५. ब. पुरा योगे भविष्यतार्थता। 6. ब. कदा। 7. ब. प्रतौ वनिता इति पाठः। ८.ब. अपराधः। ९.ब. निराकृता। १०.ब. छिक्का ११.ब. प्रतिमहं / 12. ब. तर्हि। 13. ब. चित्रकरणेन। 14. यशस्विन्। 15. ब. निष्कपटं। 16. ब. जीवं / 17. ब. आकाशे। 18. ब निन्दितः। 02 लेख संग्रह Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्पणान्तःप्रविष्टं सा रोहिणीरमणं निशि। 'तरसा 'करसाच्चक्रे कौतुकेनैव कामिनी॥ 46 // गगनसरसि हंसीभूत एणाङ्कबिम्बे-ऽभिमतरमणधिष्ण्या-म्भोजभृङ्गीभवित्री। अपि पथि जनयुक्ते स्वैरिणी किं प्रयान्ती, नयनविषयमेषा न प्रयाता जनानाम्॥४७॥ धृतसिताम्बरभूषणलेपना, कुमुदराजिविराजितविग्रहा। धवलिते शशिनाऽखिलभूतले, न कुलटेति गता पथि लक्ष्यताम्॥ 48 // कश्चित् कथञ्चिन्निजचित्तचारी, लब्धः सुमाल्याम्बरभूषणोऽपि। भुक्तः स नो श्वासकसज्जयाऽपि, नासापपीमां बुभुजे किमेतत्॥ 49 // कान्ता रूपमतीवसुन्दरमलङ्कारैरलं भूषितं, दृष्ट्वा मन्मथमूर्च्छितः स तरुणश्चक्रे स्वशुक्रच्युतिम् / सद्यः प्रेक्ष्य मनोभवोपममिदं साऽपि द्रवत्वं गता सम्भोगः प्रथमस्तयोरिति गतः सिद्धिं न तत्र क्षणे॥५०॥ परस्परं रूपविमोहितौ तौ, गतौ द्रवत्वं समकालमेव। ततस्त्रपाभारभरावभूता' - मन्योन्यमेतेन न सङ्गसिद्धिः॥५१॥ पाठान्तरम् / भर्तुर्वियोगेन विषण्णचित्ता, 19 काचित् कुरङ्गीनयना निशीथे। उद्वेजकं५२ सर्वमपीति मत्वा, कस्मात्करानेणभूतः सिषेव॥५२॥ तत्राप्येते शशधरकरा 2 मत्यतेरङ्गसङ्गं, कुर्वन्त्येव ध्रुवमिति वधूश्चेतसि स्वे विचिन्त्य। तानत्रापि स्वपतिवपुषालिङ्गितानिन्दुपादान्, प्रेष्ठान्कष्टादपि विरहिणी चक्रवाकीव भेजे॥५३॥ नैशसंतमस संचयराहु - ग्रस्तदृक्प्रसरपंक्तिहयोऽपि / कोऽप्यचित्रिनमपीह सचित्रं, हस्तमैक्षत समस्तमिदं किम्॥५४॥ किमत्र चित्रं गगने निशायां, हस्तं स चित्रायुतमप्यपश्यत्। विचार्यते किं मुहुरेष चार्थो, दृष्टोऽपि नित्यं बहुभिः स्वनेत्रेः॥५५॥ जित्वा रिपुबलमखिलं समिति झटित्येव कर्मचन्द्र! त्वम्। धृतजयलक्ष्मीकोऽपि हि, नातुष्यस्तत्र को हेतुः?॥५६॥ अधिकसूरतया समरोत्सवं, रचयतस्तव वीतमिमं क्षणात्। सचिवशेखर! तेन जिताप्यभू-न्म रतिदा रतिदापि पताकिनी॥ 57 // युवा कोऽपि प्रातर्विषमविशिखो७-द्वेजितमना, अमुञ्चद् बन्धूकप्रसवमुडुपास्यामभिमताम्। ततः साऽपि प्राप्य प्रियहृदयभावं स्मितमुखो, हरिद्रामेवामुं कथय किममुञ्चत् कविवर!॥ 58 // बन्धूकपुष्पेन स मध्यमह्नः, संकेतहेतोः कथयाम्बभूव। सा दर्शयामास हरिद्रयाऽथो, दोषामदोषामिति मन्त्रिराज! // 59 // 1. ब. वेगेन। 2. ब. कराधीनं करसात्। 3. ब. गृहं / 4. ब. अभृङ्गी भृङ्गी भविष्यति / 5. ब. श्वेते तु तत्र कुमुदम् / 6. ब. इन्द्रियायतनमङ्गविग्रहाविति / 7. ब. भवेद्वासकसज्जासौ सज्जिताङ्गरतालया। निश्चित्यागमनं भर्तुरिक्षणपरा यथा। 8. ब. शुक्र रेतो बलं वीर्य। 9. ब. बभूवतुः। 10. ब. पाठान्तरेण / 11. ब. सती। 12. ब. उद्वेगकारकं / 13. ब. चन्द्रमाः कुमुदबान्धवो दशश्वेतवाज्यमृतसूस्तिथिप्रणी। 14. ब. अन्धकारं। 15. पंक्तिशब्दो दशवाची, पंक्तिहयाः यस्य। 16. ब. संग्रामे। 17. ब. ठाणाः, विषमविशिखा यस्यासौ कामदेवः। 84 लेख संग्रह Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काचित्पत्रममत्रमत्र मदनव्यापारवार: स्फुरत्प्रीतिस्फातिकरं करेण सहसोन्मुद्र्य प्रियप्रेषितम्। अत्यौत्सुक्यभरं दधत्यपि पतिप्रीत्याथ तद्वाचने, सैकाकिन्यपि तत्तथैव सुचिरं संवृत्य तस्थो कथम्॥ 60 // पत्रं विलोक्य प्रियमुक्तमेषा, यावत्प्रवृत्ता खलु वाचनाय। तावज्जलं नेत्रयुगात्प्रभूतं, प्रवृत्तमेतेन न वाचितं तत्॥ 61 // कश्चित् स्वकान्ताकरकुड्मलस्थं, मुक्ताफलानां निकर निरीक्ष्य। प्रीतस्तमा त्तुं ] स समुत्सुकोऽभूत्, किं कारणं तद्वद कोविदाशु॥ 62 // सुरक्तकान्ताकरकोरकस्थं, सद्दाडिमीबीजचयं विचिन्त्य। मुक्ताफलानामपि राशिमासी-जग्धुं समासक्तमनाः स नाऽऽशु॥६३॥ काचिदम्भोजमादाय प्रातः सौरभ्यसुन्दरम्। सादरं सदरा साऽथो कथ तदजहात् करात्॥ 64 // निशि यदा ननु संकुचितं कजं, सपदि तत्र गतोन्तरलिस्तदा। उषसि तन्निगृहीतमिदं तया, श्रुतरवं च ततो मुमुचे करात्॥६५॥ पत्रं मषी लेखनिका प्रदीपः, साऽप्यप्रमत्ता रमणे रताऽपि। एवं समग्रे मिलितेऽपि हेतौ, लिलेख लेखं न हि सा किमेतत्॥६६॥ यावत्प्रवृत्त्वा लिखनाय लेख, सम्मील्य वस्तून्यखिलानि चैषा। तावत्प्रवृत्तं नयनाम्बु भूरि, तेनाऽलिखल्लेखमसौ न नारी॥ 67 // "कुमुवती भर्तरि हर्तुमुद्यते, हृद्यंशुपादैः प्रियविप्रयुक्ता। काचित्कलै कोकिलकेलिवाक्यैः, किं दुस्सहैरप्यतिशर्म लेभे॥६८॥ परभृता वचनानि कुहूः कुहू -रिति निशापतिनाशकराणि तैः। श्रुतिगतैः शशिरश्म्यतिपीडिता, विरहिणीति सुखं लभते स्म सा॥ 69 // हृदो मुदः कारिणि पञ्चवक्त्रे, दातुं समालिङ्गनमागतेऽपि। गौरीगृहस्तम्भ-मनन्तभीतिः, प्रत्यग्रहीत् कोपपराङ्मुखी किम्॥७०॥ ... ... पञ्चास्ये निजनायके गृहलतादूर्ध्वं समागच्छति, क्षोणीभृत्तनयान्तिके तनुपरीरम्भाय सत्युत्सुकम्। - वक्षोजप्रतिबिम्बिते दशमुखं मत्वा पुनस्तत्कृतं, स्मृत्वा पर्वततोलनं पतनभी: स्तम्भं ततः साऽग्रहीत्॥७१॥ १५सौमित्रिरात्मीयसहोदरस्य, पपात रामस्य पदोस्तदाशु। रामः सकोपं धनुषि स्वकीये, बाणं कृपाणं च करे चकार // 72 // नखेषु रामस्य स निर्मलेषु, प्रविष्टवक्त्रः क्रमयोः समासीत्। रामस्तुतं रावणमेव मत्वा, बाणं कृपाणं च करे चकार // 73 // 1. ब. प्रतौ 'व्यापारवारं' इति पाठः। ब. विस्तार। 2. ब. वृद्धिकरं / 3. उद्घाट्य / 4. ब. कालिका कोरकः पुमानित्यमरः। 5. ब. हन्तुं / 6. ब. एकत्रीकृत्य / 7. ब. कैरवाणां कुमुद्वती, चन्द्रे / 8. ब. सा नष्टेन्दुकला कुहूः। 9. ब. स्थूणा स्तम्भ इत्यमरः। 10. ब. अंकपाली परीरम्भः। 11. ब. लक्ष्मणः। लेख संग्रह 85 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुतनवैककलामयमूर्तये, शशभते सखि सूक्ष्मपटाञ्चलः। वितरणीय इति प्रियसन्निधौरे, किमुदिता करमाशु तिरोदधौ // 74 // वल्लभे स रतिसन्निधिमस्या, नव्यमिन्दुमवलोकयतीदम्। सख्युवाच नखरक्षितिगुप्त्यै, साऽपि जारनखमाशु जुगोप॥ 75 // काचित्प्रसन्ना प्रियवल्लभाऽपि, रहोविलीना प्रियवल्लभाऽपि। आलिङ्गनप्रह-मुदीक्ष्य नाथ, सा संवृताङ्गो किमुवाच मा मा॥७६॥ नाऽऽलिङ्गनस्यावसरोऽस्ति तस्या, जाताऽधुनैवाऽस्ति रजःस्वला सा। इति प्रिया संवृतगात्रवस्त्रा, मा मेत्यमन्द निजगाद नाथम् // 77 // रुद्धव्योमघनोद्भवावतमसव्याप्तान्तरायां निशि, त्रस्तारण्यमृगीक्षणा सहचरी धाम्नः स्वभर्तुः स्वयम्। यावनिर्भर-नूपुरारवमसावभ्यर्णमभ्यागता, तावत्तत्पतिनाऽऽशु मन्दिरमणिर्विध्यापित: किं वद॥७८॥ अन्याङ्गनासुरतचिह्नविचित्रिताङ्गः, प्राप्तोऽस्ति केलिशयनं स यदा तदैव। कान्तां निजामथ विलोक्य समापतन्तीं, तभीतिभिन्नहृदयो हरति स्म दीपम्॥७९॥ .. "कुड्येषु कार्तस्वरमन्दिराणा-मेणाङ्कमुख्यः प्रतिबिम्बितानाम्। वक्त्राण्यपश्यन् वपुषां निजानां, नाङ्गानि नाट्यावसरे किमेतत्॥८०॥ ताः शारदेन्दूपमपाण्डुवक्त्राः, कायेन चामीकरतुल्यभासः। तस्मादिमाः काञ्चनभित्तिभागे, वक्त्राण्यपश्यन्न हि शेषमङ्गम्॥८१॥ काचिनिशि व्योमगतेव देवी, “वातायनस्योपरि संस्थिताऽपि। . अलक्षताऽलक्षितसौधमुच्चै-रेतत् किमासीद् वद कोविदाशु॥ 82 // शीतांशुरश्मिप्रकरावमग्ने१९, सा स्फाटिके सौधतले 2 निखिण्णा। अलक्षिताधःस्थितसौधमेवं५२, देवीव लोकैर्ददृशेऽम्बरस्था॥ 83 // कश्चित्करेणु-र्मदसिक्तरेणुः, प्रत्यापतन्तं कृतकोपमाशु। आत्मानमेवाऽभिदधाव दूरा-दाचक्ष्व किं कारणमत्र दक्ष!॥ 84 // ऊौं महत्यम्बुनिधेरिभेशः, प्रत्यापतन्तं५ प्रतिबिम्बत 16 सः। आत्मानमेवं प्रविलोक्य कोपा-दन्येभशङ्कोऽभिदधाव दूरात्॥ 85 // यद्वेश्म वर्षास्वपि वारिदाना-माऽभेदि वार्भिर्न कदापि मध्ये।। तत् किं विभोः कस्यचिदम्बुयोगं, विनाप्यभूद् वारिमयं निशासु॥८६॥ 1. ब. दातव्य। 2. ब. पार्श्वे / 3. ब. आच्छादयामास। 4. ब. पुर्नभवः कररुहो नखोऽस्त्री नखरोऽस्त्रियामित्यमरः। 5. ब. उत्कण्ठितं / 6. ब. उच्चैः। 7. ब. बलिष्ठ / 7. ब. अस्तं प्रापितः। 8. अ. भित्ति / 9. अ. स्वर्णमन्दिर।१०. अ.ब. गवाक्षस्य। 11. ब. लग्ने। 12. सौधं तु नूपमन्दिरम्। 13. ब. अनेन प्रकारेण। 14. अ. हस्ति / 15. अ.ब. संमुखमागच्छन्तं / 16. ब. प्रतिफलितं / 17. ब. प्रतौ 'आत्मानमेव' इति पाठः। 86 लेख संग्रह Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशिररश्मिकरप्रकरप्लुतं', 'प्रवरचन्द्रमणिस्फुटकुट्टिमम् // सदनमम्बु विनाऽपि निशास्वभूत्, सचिवशेखर! वारिमयं ततः॥ 87 // वारिकेलिसमये वनिताभि-लब्धिमग्निसमिधां हि विनाऽपि। अन्वभावि शिशिरं पुनरुष्णं, किं तदेव सलिलं सरसोऽन्तः॥८८॥ उपरि तरणितापादुष्णमन्तस्तदम्भः, शिशिरमिति विदान्तच्चकुरुष्णं च शीतम्। विषमविशिखतापादुष्णमङ्गेषु लग्नं, तदितरमिति शीतं 'वाविदाञ्चकुरेताः॥ 89 // 'सुरभिसङ्गसमुद्धतकोकिल-भ्रमरराजिविराजितकाननम्। निजगृहं पथिकश्चिरमागतः, कथमुदीक्ष्य तथैव पुनर्ययी। 90 // वसन्तेऽप्यायाते गलदवधिरेष प्रियतमः, समायातो नेति स्फुटितहृदया सा यदि मृता। तदा किं हhण ध्रुवमथ यदा सा न च मृता, 'तदाप्यस्नेहायां "कृतमिह गृहेणेति वलितः॥९१॥ पौरा रदानेव पुरःसराणा-मालोकयामासुरिभेश्वराणाम्। नाङ्गानि कस्माद् ददृशुः कदाचित्, किं चात्र चित्रं वद कोविदाशु॥९२॥ विसृत्वरा'२ राजपथे निशायां, बहीयसा संतमसेन नागाः। लक्षत्वमेतेन गताः "सदृक्त्वाद्दन्तास्तु दीप्ति दधुरुज्वलत्वात्॥ 93 // जग्धुं समायातमपि स्वधान्यं, न त्रासयामेणगणं बभूवुः। केदारगोप्यः कथमेष चापि, नादात् क्षुधार्तोऽपि हि शालिसस्यम्॥९४॥ केदारगोपी क़लगानमग्ना, जक्षुः१५ कुरङ्गा न हि शालिसस्यम्। ता अप्यतोप्यऽक्षि दिदृक्षयापि, न त्रासयामेणगणं बभूवुः॥१५॥ कश्चिद्गतः काञ्चनमेव लातुं, कृत्वाऽपि वित्तं निजहस्तमध्ये। बध्वा रजःपोट्टलिकां स गेहे, समागतः किं वद चित्रमेतत्॥९६॥ वित्तं कराव्यग्रतयाऽस्य मार्गे, पपात धूलीपिहिते. ततः सः। तत्रत्यधूलीपटलं प्रमील्य, तच्छोधनायाशु गृहं निनाय॥ 97 // तनुसुतनुरिरंसुः१७ कामधामोज्ज्वलश्री- रुषसि गृहवनान्तर्गन्तुकामाप्यवश्यम्। अनुवलति ततः स्म “व्यग्रकेशाकुलाक्षी, स चकितमिति कस्माच्चिन्त्यमेतद् वदाशु॥९८॥ गृहवनमुपयाति यावदेषा, भ्रमरगणोऽभिमुखं दधाव९ तस्याः। वदनसुरभितानुबद्धलोभः, प्रतिवलति स्म ततो झटित्यमुष्मात् // 99 // २९दवीयसोप्यागतमात्मकान्तं, संवीक्ष्य काचित् कृतमौनमेव। एत्यालयान्तः पुरुहूतपूष-स्वर्गापगा:२२ पूज्य किमर्दति स्म॥ 100 // इन्द्राद्रवेश्चापि सुरापगाया, अक्ष्णां कराणां च तथा मुखानाम्। प्रत्येकमेवेति सहस्रमेषा, यतो ययाचे तदुपास्तिकामा॥ 101 // १.ब. शीते तुपार शिशिर इति / २.लापिनं। ३.ब. श्रेष्ठ। ४.ब. कुट्टिमत्वेस्यबद्धभू। ५.ब. विद्ज्ञाने।६.ब. वसन्त इक्षुः सुरभिः पुष्पकालो बलाङ्गकः। 7. वाटिकां / 8. अ मुई तस सनेही गई रही तउ तुट्टउ नेह / जिणि परि तिणि परि धण गई वरसि 9. ब. प्रतौ तथाप्यस्नेहायामिति पाठः। 10. ब. अलं। 11. ब. अग्रे गच्छतां। सुहावा मेह। 12. अ. ब. प्रसरणशीलो। 13. ब. प्रचुरेण। 14. ब. सवर्णत्वात् / 15. ब. भक्षयामासुः। 16. ब. संवृत्तं पिहितं छिन्नं / 17. ब. क्रीडितकामाः। 18. ब. व्यस्त इति इति वा। 19. ब. सन्मुखं जगाम / 20. ब. वनात्, ब. अस्मात्। 21. अ. अतिदूरात्। 22. अ. ब. इंद्र-सूर्य-गङ्गाः। 27 लेख संग्रह Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रीडाशुकं पञ्जरतः प्रभाते, काचिनिजे पाणितलेऽभिनीय। अध्यापनायोद्यतमानसाऽपि, साऽध्यापयामास कथं न पश्चात्॥ 102 // रदा दाडिमीबीजतुल्या मदीयाः, शुक्रः प्रातरस्ति क्षुधातः स नूनम्। अतश्चञ्चुघात समाशंक्य तन्वी, न तं पाठयामास सा केलिकीरम्॥१०३॥ प्रियस्य काचिद् रभसाऽभिसारिणो', समेत्य सद्माङ्गणमुज्ज्वलं निशि। तमुंगुलीयेन निहत्य सत्वरं, विवेश पश्चादिति किं तदिङ्गितम्॥ 104 // अनणुमणिनिबद्धं प्राङ्गणं तस्य धाम्नः, प्रतिफलितघनान्तस्तारतारं समीक्ष्य। सलिलमिति विचिन्त्य व्यग्रचित्ता तदन्तर्गमनमभिलषन्ती मुद्रया तजघान॥ 105 // . काचित्कान्ता भर्तुरालोक्य वक्त्रं, 'चञ्चच्चन्द्राखण्डबिम्बानकारि। चिक्षेपाऽक्ष्णोः किं पुनः कज्जलं सा, विद्वन्नेतद्भावमावेदयाशु॥१०६॥ पत्युः साधरपल्लवे नयनयोरात्मीययोरञ्जनं, दृष्ट्वा चुम्बनतः समं स्मितमुखी निष्कजले लोचने। मत्वैवं पुनरेव नेत्रयुगले चिक्षेप सा कज्जलं, श्रीमन्त्रीश्वर! कर्मचन्द्र! शृणुताद् भावार्थमेनं शुभम्॥ 107 // तद्वस्तुभूयोऽपि निवेदितं मया, नानीयतेऽद्यापि कथं विभो! त्वया। तत्कि मृगाक्षि! प्रणिगद्यतां पुनः, सा किं ततो वंशमंधा-दुरीजयोः॥ 108 // .: नितम्बिनीतुम्बकयोरिवोच्चै - र्वक्षोजयोमूर्धनि वेणुदानात्। निवेदयामाशु बभूव वीणां, पतिं मनोभावविदां वरिष्ठम्॥ 109 // प्रसाधिकाङ्कस्थितपादपद्मं, काचिनिजे सद्मनि सन्निविष्टा। अनूप्रवक्त्रापि रसालशीर्षात्, कथं स्वहस्तेन फलं लुलाव॥ 110 // सौधस्याङ्के यत्र सा सन्निविष्टा, तत्राऽधस्ताद्धस्तसादस्ति चूतः। . हस्तेनैषाऽनूर्ध्ववक्त्राप्यखेदं, जग्राहैवं तस्य मूर्ध्नः॥ 111 // काचिन्निरागस्यपि नायके स्वे, कस्मात्प्रकुप्यावनताऽऽननाऽभूत्। ततोऽनुतापं महदादधत्या, क्रोडे धृतोऽसावनया तदैव॥ 112 // ' दृष्ट्वा स्पष्टं दशनवसने कज्जलं सा स्वभर्तु- मत्वा कान्तं परललनया भुक्तमुक्तं चुकोप। पश्चान्नम्रा मणिमयगृहं प्राङ्गणे धौतनेत्रं, वक्त्रं दृष्ट्वा स्ववगतरहस्यानुतापं चकार // 113 // १२कर्पूरं कुमुदाकरं कुमुदिनीकान्तं च कुन्दोत्कर, कैलाशं १५ऋतुभुग्नदीमपि दलत्काशं पय भः पतिम्। डिण्डीरं जलधेश्च मन्त्रिमुकुट! श्रीकर्मचन्द्रप्रभो! ह्यन्तर्वाणिगणस्य लोचनपथं गच्छन्ति नैते कथम्॥ 114 // १.अ. ब. प्रतौ पाणितले च नीत्वा इति पाठान्तरम्। 2. ब. दन्ताः। 3. ब. वेगेन। ४.अ. कुलटा, ब. स्वैरिणी कुलटा जातिर्या प्रियं साभिसारिका ।५.ब ऊम्मिका त्वंगुलीयकमिति।६. ब. वेषमकापीत्। 7. ब. प्रतौ अभिलिखन्ती' इति पाठः। 8. ब.चंचद्देदीप्यमानः। 9. ब. नवे तस्मिन् किसलयं किसलं पल्लवोऽत्र तु। 10. ब. सकलं। 11. ब. धारयामास। 12. ब. मण्डनका / 13. ब. प्रतौ - कर्पूरं कुमुदाकरः कुमुदिनीकान्तश्च कुन्दोत्करः, कैलाश ऋतुभुग्नदी प्रतिदलत्काश: पयो भः पतिः, डिण्डीर:-इति पाठः। 14. ब. पुञ्जोत्करौ संहतिः। 15. ब. गंगा। लेख संग्रह 88 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वत्कीर्तिप्रसराता धवलिते विश्वेऽखिलेऽपि प्रभो, सावादिह संप्रमग्नवपुषः कर्पूरकुन्दादयः। लक्ष्यन्ते कविभिर्न चेति मिलिता दीपेऽन्यदीपप्रभाऽभिन्नत्वेन न लक्ष्यते खलु यथा कोऽन्यो वृथा विस्तरः॥ 115 // नेदं व्योमसरोवरं सुरपतेर्नैतानि भानि ध्रुवं, चञ्चत्प्रोज्वलमौक्तिकानि विलसन्नायं विधुर्दश्यते। श्रीमन्त्रीश्वरकर्मचन्द्रसुयशोहंसोऽयमित्युज्वल स्तारामौक्तिकमालिकां कवलयन्नेवं बुधैर्लक्ष्यते॥ 116 // * इति सुललितभावं शास्त्रमेतत्स्वकण्ठे, प्रणयति' निपुणो यः सन्ततं सत्सभासु। अनुभवति स शोभामुल्लसन्तीमनन्तां, न भवति परभावव्यग्रचेताः कदापि॥११७॥ श्रीदेवतिलकसूरिर्जयति यश:पूरपूरितदिगन्तः। नरनरपतिमुनिमधुकरचुम्बितचरणारविन्दयुगः // 118 // श्रीनर्मदाचार्यगुरोः प्रसादात्, श्रीपद्मराजस्य पदौ प्रणम्य। श्रीकर्मचन्द्राययाञ्चयेदं. श्रीहेमरत्नेन कतं च शास्त्रम॥ 119 // सद्वाक् शुभार्थः सुगुणः सुवृत्तो-ऽलङ्कारकान्तः शुभभावशाली। परोपकारप्रवणः स चाऽयं, ग्रन्थश्चिरं जयति सज्जनवज्जगत्याम् // 120 // मुष्णाति चेतांसि स भूपतीनां, पुष्णाति चातुर्यमपि स्वकीयम्। मनाति मानं ननु दर्जनानां, यः कण्ठपीठस्थमिदं करोति // 121 // इति श्रीभावप्रदीपाभिधं शास्त्रं समाप्त। श्रीरस्तु / शुभम्भवतु / श्रीः / विक्रमतो वसुवह्निक्षितिपतिवर्षे (1638) तथाऽऽश्विने मासि। विजयदशम्यामयमिति विनिर्मितो हेमरत्नेन // 1 // [ श्रीज्ञानतिलकसूरिर्जयति यशोराशिभासितदिगन्तः। नरनरपतिमुनिमुनिवरपूजितपादारविन्दयुगः॥ 1 // तत्पट्टे हेमरत्नाह्वसूरिर्जयतु शास्त्रकृत्। विनिर्ध्वंसितपापौघः प्रसन्नाननपङ्कजः॥ 2 // ] [स्वाहा-जोधपुर] [अनुसंधान अंक-१९] 1. ब. निर्माति। 2. ब. प्रतौ - ग्रन्थश्चिरं तिष्ठतु सज्जनोपि, इति पाठः। 3-4-5. ब. नास्ति। ६.ब. प्रतौ 'विजयदशम्यामेतद् विनिर्मितं हेमरत्नेन' इति पाठः। 7.[ ] कोष्ठकान्तर्गतो द्वावपि श्लोको हेमरत्नस्वलिखितादर्श अ. संज्ञकपुस्तके न स्तः। लेख संग्रह 89 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर १७वीं शताब्दी के संस्कृत महाकवियों में महोपाध्याय पदधारक, समय = सिद्धान्त (स्वदर्शन और परदर्शन) को सुंदर = मंजुल/मनोहर रूप में जन साधारण एवं विद्वत समाज के सन्मुख रखने वाले, समय = काल एवं क्षेत्रोचित साहित्य का सर्जन कर समय का सुंदर = प्रशस्ततम उपयोग करने वाले अन्वर्थक नाम धारक महामना महर्षि समयसुन्दर गणि हैं। इनकी योग्यता एवं बहुमुखी प्रतिभा के संबंध में विशेष न कहकर यह कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी कि कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य के पश्चात् सभी विषयों में मौलिक सर्जनकार एवं टीकाकार के रूप में विपुल साहित्य का निर्माता अन्य कोई शायद ही हुआ हो, साथ ही यह भी सत्य है कि आचार्य हेमचन्द्र के सदृश ही व्याकरण, साहित्य, अलंकार, न्याय, अनेकार्थ, कोष, छन्द, देशी भाषा एवं सिद्धान्तशास्त्रों के भी ये असाधारण विद्वान् थे। संगीतशास्त्र की दृष्टि से एक अद्भुत कलाविद् भी थे। कवि की बहुमुखी प्रतिभा और असाधारण योग्यता का मापदण्ड करने के पूर्व यह समुचित होगा कि इनके जीवन और व्यक्तित्व का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जाए:- . जन्म और दीक्षा:- राजस्थान प्रदेशान्तर्गत साँचोर (सत्यपुर) में इनका जन्म हुआ था। इनके माता-पिता पोरवाल जाति के थे। इनकी माता का नाम लीलादेवी और पिता का नाम रूपसी था। कवि का जन्म अज्ञात है किन्तु कवि रचित भावशतक को आधार मानकर मेरे मतानुसार इनका जन्म संवत् 1610 के लगभग माना जा सकता है। इन्होंने दीक्षा किस संवत् में ग्रहण की इसका भी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हैं। किन्तु इन्हीं के शिष्य वादी हर्षनंदन अपने समयसुन्दर गीत में 'नवयौवन भर संयम संग्रह्यो जी' का उल्लेख किया है, अतः इनका दीक्षा ग्रहण काल 1628 से 30 के मध्य स्वीकार कर सकते हैं। इसकी दीक्षा अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने अपने कर-कमलों से प्रदान कर अपने प्रथम शिष्य सकलचन्द्रगणि का शिष्य बनाया था। और मुनि पद प्रदान कर समयसुन्दर नाम प्रदान किया था। इनकी शिक्षा-दीक्षा युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के ही शिष्य वाचक महिमराज (जिनसिंहसूरि) और समयराजोपाध्याय के निर्देशन में ही हुई थी। अर्थात् ये दोनों ही समयसुन्दरजी के विद्या गुरु थे। गणिपदः- भाव शतक की रचना प्रशस्ति में कवि ने स्वयं के नाम के साथ गणि पद का उल्लेख किया है। भावशतक की रचना संवत् 1641 में हुई। अतः यही अधिक संभावना है कि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने संवत् 1640, माघ सुदि पाँचम को जैसलमेर में वाचक महीमराज के साथ ही इनको भी गणि पद प्रदान किया होगा। वाचनाचार्य पदः- सम्राट अकबर के निमंत्रण पर आचार्य जिनचन्द्रसूरि संवत् 1648, फाल्गुन सुदि 12 के दिन लाहौर में सम्राट से मिले थे। उस समय जिनचन्द्रसूरि के साथ महोपाध्याय जयंसोम, वाचनाचार्य कनकसोम, वाचक रत्ननिधानगणि, समयसुन्दर और गुणविनय आदि भी आचार्यश्री के साथ 90 * लेख संग्रह Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे। संवत् 1649 में सम्राट अकबर ने काश्मीर विजय के लिए प्रस्थान किया था, उस समय वाचक महीमराज आदि भी साथ थे। काश्मीर विजय से लौटने के पश्चात् सम्राट अकबर ने वाचक महिमराज को आचार्य बनाने के लिए आग्रह किया। उस समय आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने संवत् 1649, फाल्गुन सुदि दूज को लाहौर में विशाल महोत्सव के साथ वाचक महिमराज को आचार्य और समयसुन्दर को वाचनाचार्य पद प्रदान किया था। इस पदारोहण महोत्सव पर महामंत्री कर्मचन्द बच्छावत ने एक करोड़ रुपये व्यय किए। उपाध्याय पदः- कवि की 1671 के पश्चात् के रचनाओं में उपाध्याय पद का उल्लेख मिलता है। अतः यह निश्चित है कि जिनसिंहसूरि ने लवेरा ने आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया था। महोपाध्याय पदः- परवर्ती कई कवियों ने आपको 'महोपाध्याय' पद से सूचित किया है, जो वस्तुतः आपको परम्परा अनुसार प्राप्त हुआ था। सं. 1680 के पश्चात् गच्छ में आप ही वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध और पर्यायवृद्ध थे। साथ खरतरगच्छ की यह परंपरा रही है कि उपाध्याय पद में जो सबसे बड़ा होता है वही महोपाध्याय कहलाता है। प्रवास:- कवि के स्वरचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, तीर्थमालायें और तीर्थस्तव साहित्य को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि कवि का प्रवास उत्तर भारत के क्षेत्रों में बहुत लंबा रहा है। सिन्ध, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात के प्रदेशों में विवरण अत्यधिक रहा है। उपदेश:- इनके उपदेशों से प्रभावित होकर सिद्धपुर (सिंध) के कार्यवाहक (अधिकारी) मखनूम मुहम्मद शेख काजी को अपनी वाणी से प्रभावित कर समय सिन्ध प्रान्त में गौमाता का, पंचनदी के जलचर जीव एवं अन्य सामान्य जीवों की रक्षा के लिये समय की उद्घोषणा करवाता है। इसी प्रकार जहाँ जैसलमेर में मीना-समाज साँडों का वध किया करता था, वहीं ही जैसलमेर के अधिपति रावल भीमजी को बोध देकर इस हिंसाकृत्य को बन्द करवाया था और मंडोवर (मंडोर, जोधपुर स्टेट) तथा मेडता के अधिपतियों को ज्ञान-दीक्षा देकर शासन-भक्त बनाया था। . स्वर्गवासः- समयसुन्दरजी ने वृद्धावस्था में शारीरिक क्षीणता के कारण संवत् 1696 से अहमदाबाद में ही स्थिरता कर ली थी। संवत् 1702, चैत्र सुदि तेरह महावीर जयन्ती के दिन ही इनका स्वर्गवास हुआ। अहमदाबाद में इनका स्मारक अवश्य बना होगा, किंतु आज वह प्राप्त नहीं है। इनकी चरण पादुकाएँ नाल दादाबाड़ी में और जैसलमेर में प्राप्त हैं। शिष्य परम्परा:- एक प्राचीन पत्र के अनुसार ज्ञात होता है कि कवि के 42 शिष्य थे, जिनमें वादी हर्षनंदन, मेघविजय, मेघकीर्ति, महिमासमुद्र आदि मुख्य हैं / इनकी परम्परा में अंतिम यति चुन्नीलालजी लगभग 30 वर्ष पहले मौजूद थे। साहित्य सर्जन:- कविवर सर्वतोमुखी प्रतिभा के धारक एक उद्भट विद्वान् थे। केवल वे साहित्य की चर्चा करने वाले वाचा के विद्वान ही नहीं थे, अपितु वे थे प्रकाण्ड-पाण्डित्य के साथ लेखनी के धनी भी। कवि ने व्याकरण, अनेकार्थी साहित्य, साहित्य, लक्षण, छन्द, ज्योतिष, पादपूर्ति साहित्य, चार्चिक, सैद्धान्तिक और भाषात्मक गेय साहित्य की जो मौलिक रचनायें और टीकायें ग्रथित कर सरस्वती के भण्डार को समृद्ध कर जो भारतीय वाङ्मय की सेवा की है, वह वस्तुतः अनुपमेय है और वर्तमान साधु-समाज के लिये आदर्शभूत अनुकरणीय भी है। कवि की मुख्य-मुख्य कृतियाँ निम्न है:लेख संग्रह Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. मौलिक संस्कृत रचनायें 1. अष्टलक्षी (अर्थ रत्नावली) 2. भावशतक 3. मंगलवाद 4. समाचारी शतक 5. विशेष शतक 6. विशेष संग्रह 7. विसंवाद शतक 8. कथा कोष 9. सारस्वत रहस्य 10. स्तोत्र संग्रह आदि 22 कृतियाँ 2. संस्कृत टीकायें 1. रघुवंश टीका 2. वृत्तरत्नाकर टीका 3. वाग्भटालंकार टीका 4. सारस्वत वृत्ति 5. माघकाव्य टीका 6. मेघदूत प्रथम श्लोक टीका . 7. लिंगानुशासन चूर्णि 8. कल्पलता टीका 9. दशवैकालिकसूत्र टीका आदि 24 ग्रंथ 3. पादपूर्ति साहित्य 1. जिनसिंहसूरि पदोत्सव काव्य 2. ऋषभ भक्तामर स्तोत्र (रघुवंश तृतीय सर्ग पादपूर्ति) (भक्तामर पादपूर्ति) इनकी मौलिक कृतियों में अष्टलक्षी ग्रन्थ अनुपमेय ग्रन्थ है और समग्र भारतीय साहित्य में इस कोटि का कोई दूसरा ग्रन्थ प्राप्त नहीं है। वैसे संस्कृत साहित्य में वीसंधान काव्य, सप्तसंधान काव्य, चतुर्विंशति संधान काव्य प्राप्त है और एक श्लोक के सौ अर्थ वाली शतार्थी काव्य भी प्राप्त हैं। किंतु एकएक अक्षर के एक-एक लाख अर्थ करने वाली कोई कृति प्राप्त नहीं है, प्राप्त है तो केवल यही कृति / इस कृति में 'राजानो ददते सौख्यम्' इस आठ अक्षरों पर प्रत्येक अक्षर के कवि ने व्याकरण कोष और अनेकार्थी कोषों के आधार पर एक-एक लाख अर्थ किए हैं। इसलिए यह ग्रंथ अष्टलक्षी के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी रचना के संबंध में उल्लेख प्राप्त होता है कि सम्राट अकबर की सभा में चर्चा के समय जैनाचार्य द्वारा जब यह कहा गया कि 'एगस्स सुत्तस्स अणंतो अत्थो' अर्थात् एक-एक सूत्र के अनन्त अर्थ होते हैं। सभा ने प्रमाणित करने के लिये कहा। उस कवि समयसुन्दर ने इसको प्रमाणित करने के लिये समय चाहा। विक्रम संवत् 1649 श्रावण शुक्ला तेरस की सायंकाल जिस समय अकबर ने काश्मीर विजय के लिये श्रीराज श्रीरामदासजी की वाटिका में प्रथम प्रवास किया था, वही समस्त राजाओं, सामंतों और विद्वानों की उपस्थिति में कवि ने अपना नूतन ग्रन्थ सुनाकर सबके सन्मुख सिद्ध कर दिखाया कि मेरे जैसा एक अदना व्यक्ति भी एक अक्षर के एक लाख अर्थ कर सकता है तो सर्वज्ञ की वाणी के अनन्त अर्थ कैसे नहीं होंगे? यह ग्रन्थ सुनकर सब चमत्कृत हुये और विद्वानों के सन्मुख ही सम्राट ने इस ग्रन्थ को प्रामाणिक ठहराया। कवि के रूप में प्रतिष्ठापित करने के लिये इनका जिनसिंहसूरि पदोत्सव काव्य ही पर्याप्त है। इस काव्य में रघुवंश काव्य के तीसरे सर्ग की पादपूर्ति के रूप में जिनसिंहसूरि के आचार्य पदोत्सव का वर्णन किया गया है। यह पदोत्सव सम्राट अकबर के आग्रह पर ही युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के आदेश पर महामंत्री कर्मचंद बच्छावत ने संवत् 1649, फाल्गुन सुदि द्वितीया को लाहौर में आयोजित किया था। उदाहरणस्वरूप दो पद्य देखिए: लेख संग्रह 92 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदर्ध्वरेखाभिधमंह्रिपंकजे, भवान्ततः पूज्यपदप्रलब्धवान्। प्रभो! महामात्यवितीर्णकोटिशः सुदक्षिणादोहद! लक्षणं दधौ॥१॥ अकब्बरोक्त्या सचिवेशसद्गुरुं, गणाधिपं कुर्विति मानसिंहकम्। गुरोर्यकः सूरिपदं यतिव्रतिप्रिया प्रपेदे प्रकृतिप्रिये वद // 2 // इसी प्रकार आचार्य मानतुंगसूरि प्रणीत भक्तामर स्तोत्र के चतुर्थ चरण पादपूर्ति रूप हैं। इसमें कवि ने आचार्य मानतुंग के समान ही भगवान आदिनाथ को नायक मानकर स्तवना की हैं। यह कृति भी अत्यन्त ही प्रोज्ज्वल और सरस-माधुर्य संयुक्त है। कवि का स्तव के समय भावुक स्वरूप देखिये और साथ ही देखिये शब्द योजना: नमेन्द्रचन्द्र! कृतभद्र! जिनेन्द्रचन्द्र! ज्ञानात्मदर्श-परिदृष्ट-विशिष्ट! विश्व!। .. त्वन्मूर्तिरर्तिहरणी तरणी मनोज्ञे- वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्॥१॥ कवि की उपमा सह उत्प्रेक्षा देखिये: 'केशच्छटा स्फुटतरा' अधदंगदेशे, श्रीतीर्थराजविबुधावलिसंश्रितस्त्वम्। मूर्धस्थकृष्णतलिकासहितं च शृंग, मुच्चस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम्॥३०॥ कवि की संवत् उल्लेख वाली सर्वप्रथम रचना भावशतक है। इसकी रचना संवत् 1641 में हुई है। इसमें आचार्य मम्मट रचित काव्य प्रकाश में वर्णित ध्वनि को आश्रित करके वाच्यातिशायी व्यंग्य के कतिपय भेदों पर कवि ने इस भाव शतक पर विशदता से विचार किया है। भाषा ज्ञान:- कवि का जिस प्रकार संस्कृत भाषा पर अधिकार था उसी प्रकार प्राकृत, राजस्थानी, सिंधी आदि भाषाओं पर भी अधिकार था। प्राकृत और संस्कृत मिश्रित पार्श्वनाथ स्तोत्र का प्रथम पद्य देखिए:- . . 'लसण्णाण-विनाण-सन्नाण-गेहं, कलाभिः कलाभिर्युतात्मीयदेहम्। मणुण्णं कलाकेलिरूवाणुगारं, स्तुवे पार्श्वनाथं गुणश्रेणिसारम्॥१॥ ... इसी प्रकार राजस्थानी और संस्कृत मिश्रित पार्श्वनाथ अष्टक का एक पद देखिए: 'भलूं आज भट्यु, प्रभोः पादपद्मं, फली आस मोरी, नितान्तं विपद्मम्। * गयूं दुःखनासी, पुनः सौम्यदृष्ट्या, थयुं सुक्ख झाझं, यथा मेघवृष्ट्या // 1 // सिंधी भाषा में रचित स्तवन का एक पद देखिए: आवो मेरे बेठा पिलावा, बही बेड़ा गोदी में सुख पावा। मन्न असाडा बोल ऋषभजी, आउ असाढा कोल॥७॥ इसी प्रकार नेमिनाथ स्तवन की एक पंक्ति देखिए: भावंदा है मइकुं भावंदा है, नेमि असाढे आवंदा है . आया तोरण लाल असाढा, पसुय देखि पछिताउंदा है भइणा इनके द्वारा रचित स्तोत्र अष्टक के रूप में संस्कृत भाषा में पचासों स्तोत्र प्राप्त हैं, जिनमें कई स्तोत्र यमकप्रधान हैं, कई श्लेष प्रधान हैं, कई चित्रकाव्य प्रधान है। राजस्थानी कृतियाँ:- कवि ने संस्कृत साहित्य की तरह राजस्थानी भाषा में भी विशाल एवं विपुल साहित्य की रचना की। रास एवं चौपई संज्ञक गेयात्मक बड़ी-बड़ी कृतियों में से कुछ के नाम इस प्रकार हैं: लेख संग्रह Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. शांब प्रद्युम्न चौपाई 2. मृगावती रास 3. सीताराम चौपाई 4. नल दमयन्ती चौपाई, 5. द्रौपदी चौपाई 6. चम्पक श्रेष्ठी चौपाई और शत्रुजय रास आदि 21 कृतियाँ प्राप्त हैं। चौबीसी, बीसी, छत्तीसी और भास आदि अनेकों कृतियाँ प्राप्त हैं / स्फुट रचनाओं में राजस्थानी भाषा में रचित स्तोत्र, स्तव, स्वाध्याय, गीत, वेली आदि लगभग 500 स्फुट रचनाएँ प्राप्त हैं, जिनका संग्रह 'समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि' पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुका हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि महोपाध्याय समयसुन्दर असाधारण प्रतिभा के धारक थे। व्याकरण, साहित्य, न्याय, दर्शन और जैनागमों के धुरंधर विद्वान् एवं सफल टीकाकार थे। संवत् 1641 से लेकर 1702 तक निरंतर ये साहित्य सर्जना में रहे और माँ सरस्वती के भण्डार को पूर्ण रूप से समृद्ध करते रहे। इनकी गीती काव्यों की प्रचुरता को देखकर इनके संबंध में प्रसिद्ध उक्ति 'समयसुन्दर ना गीतडा, भीतां पर ना चीतरा या कुम्भा राणा ना भीतडा' को सहज भाव से स्वीकार करना ही पड़ता है। [राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर] 100 लेख संग्रह Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय-श्री समयसुन्दरगणिरचितः मेघदूत-प्रथमपद्यस्याभिनव-त्रयोऽर्थाः (मेघदूत प्रथम पद्य के 3 अभिनव अर्थ) "महाराणा कुम्भा रा भींतड़ा अर समयसुन्दर रा गीतड़ा" की प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार महोपाध्याय समयसुन्दर अकबर प्रदत्त युगप्रधान पदधारक श्री जिनचन्द्रसूरि के प्रथम शिष्य श्री सकलचन्द्रगणि के शिष्य थे। सकलचन्द्रगणि का छोटी अवस्था में स्वर्गवास हो गया था। नाल दादाजी (बीकानेर) में सम्वत्....... में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि प्रतिष्ठित चरण विद्यमान हैं। समयसुन्दरजी ने अपनी प्रत्येक कृति में 'खरतरगच्छीय श्री जिनचन्द्रसूरि के प्रथम शिष्य सकलचन्द्रगणि का मैं शिष्य हूँ' ऐसा उल्लेख किया है, किन्तु कुछ विद्वानों ने 'तपागच्छीय सकलचन्द्रगणि का शिष्य मानकर समयसुन्दरजी तपागच्छ के हैं', इस प्रकार का प्रतिपादन किया है जो कि पूर्णतया भ्रामक है। ... महाकवि धनपाल ने "सत्यपुर महावीर उत्सव' में जिस नगर की ओर संकेत किया है उसी सत्यपुर अर्थात् सांचोर में कवि ने जन्म लिया था। ये पोरवाल (प्राग्वाट) जाति के थे और इनके मातापिता का नाम लीलादेवी और रूपसी था। मेरे मतानुसार इनका जन्म वि.सं. 1610 के लगभग हुआ था। वादी हर्षनन्दन ने अपने समयसुन्दर गीत में "नवयौवन भर संयम ग्रह्यौजी" के अनुसार अनुमानतः वि.सं. 1628-30 के मध्य इनकी दीक्षा हुई होगी। वाचक महिमराज (जिनसिंहसूरि) और समयराजोपाध्याय इनके शिक्षा-गुरु थे। विक्रम सम्वत् 1703, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन अहमदाबाद में इनका स्वर्गवास हुआ था। इसकी विशाल शिष्य परम्परा थी जो कि २०वीं शताब्दी तक चली। समयसुन्दरजी को गणि पद वि. सं. 1641 से पूर्व ही युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने अपने हाथों से प्रदान किया था। वि. सं० 1649 में जब जिनचन्द्रसूरिजी ने सम्राट अकबर के हाथों युगप्रधान पद प्राप्त किया था उसी महोत्सव के समय इनको वाचनाचार्य पद प्रदान किया गया था। वि० सं० 1677 के पश्चात् स्वयं के लिए पाठक शब्द का उल्लेख मिलता है अतः इससे पूर्व ही इनको उपाध्याय पद प्राप्त हो गया होगा। वि० सं० 1680 के पश्चात् गच्छ में वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध और पर्यायवृद्ध होने के कारण ये महोपाध्याय कहलाये। . कविवर समयसुन्दरजी केवल जैनागम, जैन साहित्य और स्तोत्र साहित्य के धुरन्धर विद्वान् ही नहीं थे अपितु व्याकरण, अनेकार्थी साहित्य, लक्षण, छन्द, ज्योतिष, पादपूर्ति साहित्य, चार्चिक, सैद्धान्तिक, रास-साहित्य और गीति साहित्य के भी ये उद्भट विद्वान् थे। पूर्ववर्ती कवियों द्वारा सर्जित द्विसंधान, पञ्चसंधान, सप्तसंधान, चतुर्विंशति संधान, शतार्थी, सहस्रार्थी कृतियाँ तो प्राप्त होती हैं जो कि उनके वैदुष्य को प्रकट करते हैं, किन्तु "राजानो ददते सौख्यम्" पंक्ति के प्रत्येक अक्षर का व्याकरण और अनेकार्थी कोषों के माध्यम से 1-1 लाख अर्थ कर जो अष्टलक्षी/ अर्थरत्नावली ग्रन्थ का निर्माण किया, वह तो वास्तव में इनकी बेजोड़ अमर कृति है। समस्त भारतीय लेख संग्रह 95 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य में ही नहीं अपितु विश्व साहित्य में भी इस कोटि की अन्य कोई रचना प्राप्त नहीं है। "एगस्स सुत्तस्स अणेगो अत्थो" को प्रमाणित करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० 1649 में लाभपुर (लाहौर) में की और काश्मीर विजय प्रयाण के समय सम्राट अकबर को विद्वत्सभा में सुनाया था। भाषात्मक लघुगेय 563 कृतियों का संग्रह कर "समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि' के नाम से श्री अगरचन्द भंवरलाल नाहटा ने वि० सं० 2013 में प्रकाशन किया था। इस कवि के व्यक्तित्व और कर्तृत्व का परिचय प्राप्त करने के लिए मेरे द्वारा लिखित महोपाध्याय समयसुन्दर पुस्तक द्रष्टव्य है। महाकवि कालिदास रचित मेघदूत नामक लघु काव्य जन-जन की जिह्वा पर विलास कर रहा है। इस पर जैन श्रमणों द्वारा रचित निम्न टीकाएँ प्राप्त हैं - 1. आसड कवि - रचना सम्वत् १३वीं शती, 2. श्रीविजयगणि, 3. सुमतिविजयगणि, 4. चारित्रवर्धनगणि 5. क्षेमहंसगणि, 6. कनककीर्तिगणि 7. ज्ञानहंस 8. महिमसिंहगणि 9. मेघराजगणि 10. विजयसूरि। मेघदूत रसिक कवियों का प्रिय काव्य रहा है, इसलिए इस पर पादपूर्ति साहित्य लिखकर जैन कवियों ने कवि कालिदास को अमर बना दिया है। जैन कवियों द्वारा रचित मेघदूत पादपूर्ति के रूप में निम्न काव्य प्राप्त होते हैं - 1. पार्वाभ्युदय काव्य : जिनसेनाचार्य, प्रत्येक चरण की पादपूर्ति की गई है, डॉ. के.बी. पाठक द्वारा सम्पादित होकर सन् 1894 में प्रकाशित हुआ है। 2. जैनमेघदूतम् : मेरुतुंगसूरि, इस पर शीलरत्नगणि महिमेरुगणि आदि की टीकाएँ भी प्राप्त हैं। जैन आत्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हुआ है। 3. नेमिदूतम् : विक्रमकवि : उपाध्याय विनयसागर द्वारा सम्पादित होकर सन् 1958 में दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ है। शीलदूतम् : चारित्रसुन्दरगणि, सं. 1484 : यशोविजय जैन ग्रन्थमाला काशी से प्रकाशित। चन्द्रदूतम् : विमलकीर्ति, सं. 1681 / 6. मेघदूतसमस्यालेख : महोपाध्याय मेघविजय, सं. 1727 : मुनि जिनविजय सम्पादित विज्ञप्ति लेख संग्रह में सन् 1960 में प्रकाशित। 7. चेतोदूतम् : 8. हंसपादाङ्कदूतम् : श्री नाथूरामजी प्रेमी ने विद्वद्रत्नमाला के पृष्ठ 46 में इसका उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त जैनेतर कवियों में अवधूत रामयोगी रचित (सं. 1423) सिद्धदूतम् : श्री हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावलि, पाटण के तृतीय ग्रन्थाङ्क के रूप में सन् 1927 में प्रकाशित और आशुकवि पं. नित्यानन्दशास्त्री रचित हनुमद्रूतम् : वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित भी प्राप्त होते हैं। इस ग्रन्थ में रचना सम्वत् प्राप्त नहीं है, किन्तु इसके द्वितीय अर्थ में "अस्वाधिकारप्रमत्तश" इसका अर्थ करते हुए टीकाकार ने लिखा है - "साभिप्रायं चैतत् विशेषणं परिग्रहत्यजनेन उद्धृतक्रियत्वात्" यह क्रियोद्धार जिनचन्द्रसूरि ने वि० सं० 1614 में किया था। टीकाकार जिनचन्द्रसूरि के लिए "खरतरगच्छाधीश्वर" शब्द का प्रयोग तो अवश्य करता है, किन्तु सम्राट अकबर द्वारा प्रदत्त "युगप्रधान पद" का प्रयोग नहीं करता है, अतः इसका रचना समय वि० सं० 1641 और 1649 के मध्य का माना जा सकता है क्योंकि समयसुन्दरजी की मेधावी प्रतिभापूर्ण रचना भावशतक की विक्रम सम्वत् 1641 में की प्राप्त है। 96 लेख संग्रह Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत कृति में कविवर समयसुन्दर ने टीकाकारों द्वारा सम्मत अर्थ का परिहार करके मेघदूत के प्रथम पद्य की व्याख्या में व्याकरण और अनेकार्थी कोषों की सहायता से अभिनव तीन अर्थ किये हैं जो भगवान् ऋषभदेव, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि और सूर्य को उद्देश्य कर लिखे गये हैं। ___ सन् 1954 में श्री अगरचन्दजी नाहटा ने इस कृति की पाण्डुलिपि मुझे भेजी थी। उसी को आधार मानकर संशोधित कर प्रकाशित कर रहा हूँ। इस कृति की मूल प्रति किस भण्डार में है? यह मेरे लिए लिखना सम्भव नहीं है, सम्भव है बीकानेर के बृहद् ज्ञान भण्डार की ही हो! विद्वद्जनों के चित्ताह्लाद के लिए चमत्कृति प्रधान यह कृति प्रस्तुत है। * * * कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारप्रमत्तः, शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः। यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु, स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥१॥ श्रीकालिदासकृ तमेघदूतकाव्यप्रथमवृत्तस्य चतुर नर निकर-चित्तचमत्कार कृ ते निजबुद्धिवृद्धिनिमित्तञ्च मूलार्थमपहाय व्याख्या क्रियते / तत्र प्रथमं श्रीऋषभदेववर्णनमाह कश्चित्कान्ताविरहेत्यादि / हे ऋषभ!-हे श्रीआदिदेव! त्वं 'अमात्वाम' इति सूत्रेण अस्मच्छब्दस्य द्वितीयैकवचने मा इति मां मल्लक्षणं स्तुतिकारकं जनं अव-रक्ष इति संटङ्कः। किंविधस्त्वं? कः 'को ब्रह्मात्म- प्रकाशार्ककेकिवायुयमाग्निषु' इत्यनेकार्थवाक्यप्रामाण्यात् [ विश्वशम्भु. पद्य 21] क- ब्रह्मा युगादिस्थितिहेतुत्वात् / अथवा पंक्तिरथ- न्यायेन ब्रह्मनाभिभूरित्यर्थः / हे चित्कान्त ! चिद्-ज्ञानं अर्थात्केवलज्ञानं तेन कान्तः मनोहरः चित्कान्तस्तत्संबुद्धौ हे चित्कान्त!, अतएव हे अविर! 'अवि शब्दो रवौ मेषे पर्वते पि निगद्यते।' इत्यनेकार्यध्वनिञ्जरीवचनात् अवि:- सूर्यस्तद्वद्राजते यः स अविरः। अविः-पर्वतोऽर्थान्मेरुस्तद्वत् स्वर्णवर्णत्वान्निष्प्रकम्पत्वादुच्चस्तरदेहत्वाद्वा राजते यः सोप्यविरः तत्संबोधनं हेऽविर!। पुनः किंविधं मां? हि यस्मात् हगुरुणा उदकेषु गमितं / कोऽर्थ:? 'हं हर्षे चैव हिंसायां' इति विश्वशम्भु. (प. 115) वचनात् / हं-हिंसा तदुपदेष्टा तदुपलाक्षितो वा गुरुः हगुरुः, अथवा हः- क्रोधस्तेनोपलक्षितो मध्यपदलोपिसमासे गुरुर्हगुरुः। अत्र हः-क्रोधवाची। यथाह वररुचिः 'ह क्रोधवाचीति' (प. 44) क्रोधश्चात्रोपलक्षणं / तेन चत्वारोऽपि कषाया गहीतव्याः। ततस्तेन हगरुणा। उदकेष इति. उत्प्रबलानि-उत्कटानि ।'अकंदु:खाघयोः' इति श्रीहैमानेकार्थ(२-१)वचनात् / अकानि-दुःखानि पापानि वा उदकानि नानाविधत्वात्तेषां बहुत्वं तेषु गमितं-प्रापितमित्यर्थः। कुगुरुर्हि हिंसोपदेशदानादिना प्राणिनो दुःखेषु पातयतीति। पुनः हे स्वाधिकारप्र! स्वस्य-आत्मनोऽधिकारः स्वाधिकारस्तीर्थकरपदरूपः, तं प्राति-पूरयति इति स्वाधिकारप्रः, निजभक्तिमतां संतां स्वतुल्यकारकत्वात् तत्संबोधने हे स्वाधिकारप्र! किंविधेन कुगुरुणा? मत्तशापा मत्तःदृप्तः ततः शापं-आक्रोशं आचष्टे इति, शापयतीति णिजि तल्लुकि, तल्लुकि च शाप, ततः मत्ताश्चासौ शाप् च मत्तशाप् तेन मत्तशापा। अथवा अस्वाधिकालप्रं अत्त शापा इति पदस्त्रयविश्लेषः कर्त्तव्यः, तदा अयमर्थः। किं विधं मां? अस्वाधिकालप्रं न स्वः अस्वः शत्रुभूत आधिर्मानसीव्यथा अस्वाधिस्तेन काल:-मरणं अस्वाधिकालोऽसमाधिमरणं बालमरण मिति यावत् तं प्रैति प्रकर्षेण पाति-प्राप्नोति, डे प्रत्यये अस्वाधिकालप्रस्तं / हे अत्त! हे मात:! तद्वद्वच्छलत्वात् / अत्र श्लेषत्वाद्विसर्गनाशो न दोषाय। यदुक्तं रुद्रदालङ्कारटीकायां नेमिसाधुना 'विसर्जनीयाभावाभावयोर्न विशेषो, यथा - 'द्विषतां मूलमुच्छेत्तुं लेख संग्रह Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजवंशादजायथा। द्विषद्भ्यस्त्रस्यसि कथं वृकयूथादजायथा / 1 / ' इति / किं विधेन कुगुरुणा? शापा पूर्ववत्। किंविधं मां? इना-कामेन अस्तं-क्षिप्तं / हे अ! 'अः स्यादर्हति सिद्धे च' इति वचनात् / हे अर्हत्! / पुनः हे ऊग्य! 'ऊः पालने रक्षणे च' इति अनेकार्थतिलक. (प. ८-९)वचनात् / ऊ:-रक्षणं तदुपलक्षितो 'गस्तु गातरि गन्धर्वे शब्दसङ्गीतयोरपि' इति विश्वशम्भु.(प.२५)वचनात् / गः शब्दः ऊगो दयोपदेशस्तत्र साधुः, तत्र साधौ इति ये ऊग्यस्तत्सम्बोधनं हे ऊग्य! हे भर्तुः! इनः-स्वामिनः स्वामिन् / किंविधस्त्वं? यक्षः ईलक्ष्मी अक्ष्णोति-व्याप्नोतीति यक्षः। पुनः हे चक्रेजनकतनय! चक्रेण-चक्ररत्नेन ईं-शोभां जनयतीति चक्रे जनकोर्थाद्भरतनामाचक्रवर्ती स तनयः-पुत्रो यस्य स चक्रेजनकतनयः तत्सम्बोधनं हे चक्रेजनकतनय!। हे अस्नानपुण्य! अस्नाने स्नानाभावेन / 'पुण्यं तु सुन्दरे सुकृते पावने धर्मे।' इति हैमानेकार्थ(प.३७५)वचनात् / पुण्यः-सुन्दरः अस्त्रानपुण्यः। 'अनध्ययन विद्वांसो, निर्द्रव्य परमेश्वराः। अनलङ्कारसुभगाः, पान्तु युष्मान् जिनेश्वराः। 1 / इत्युक्तत्वात् / तत्सम्बोधने हे अस्नानपुण्य!। हे स्निग्धच्छाय! स्निग्धा असैक्षा कोमला इति यावत्, 'छाया पंक्तौ प्रतिमायामर्कयोषित्यनातपे। उत्कोचे पालने कान्तौ शोभायां च तमस्यपि' इति हैमानेकार्थ (प. 363) वचनात् / छाया प्रतिमा कान्ति र्वा यस्य स स्निग्धच्छायः, तस्संबुद्धौ हे स्निग्धच्छाय!। किंविधेषु . उदकेषु? अतरुषु अतन्ति-सततं गच्छन्ति, अचि, अता:-प्राणिनस्तेषां। 'रु शब्दे रक्षणेपि च। भये च' इतिवचनात् सौधाकलशात् (प.३७) रु:-र्भयेभ्यस्तानि तेषु अतरुषु। किंविशिष्टं मां? असतिं 'पूजायां तिः' इति विश्वशम्भु (प.६१) वचनात् / ति:-पूजा तया सह वर्तते यः स सतिः, न सतिरसतिस्तं पूजादिरहितं दरिद्रं-वराकमित्यर्थः। अत्र 'इवर्णादेरस्वे स्वरेयवरलं' इति मतान्तरमाश्रित्य पञ्चमीव्याख्याने अतरुषु अग्रे असतिं इत्यत्र उकारात्परे वकारे कृते लोकादिति च कृते अतरुषुवसतिं इति रूपसिद्धिः। हे गिरिराम! वाण्यां मनोहर! किं भूतेषु उदकेषु? आश्रमेषु आ-सामस्त्येन श्रमः खेदो येभ्यस्तानि तेषु। नन्वत्र चतुस्त्रिंशदतिशयसंग्राहकातिशयचतुष्टयमध्ये कः केन 'पदेनोच्यते सूच्यते वा इत्यभिधीयते चित्कान्तेति पदेन ज्ञानातिशयः। 1 / स चापायापगमातिशयमन्तरेण न संभवति अतोऽनेनापायापगमातिशयोप्याक्षिप्तः / 2 / तथा ऊग्येति गिरिरामेति वा पदेन वचनातिशयः।३। भर्तु इनेति पदेन पूजातिशयः / 4 / इति चतुष्टयं ज्ञेयम्। श्रीऋषभदेववर्णनेन प्रथमोऽर्थः सम्पूर्णः॥१॥ कश्चित्कान्तेतिकाव्यस्य, विचक्षणचमत्कृते। अर्थत्रयमिदं चक्रे, गणिः समयसुन्दरः॥१॥ // इति प्रथमोऽर्थः॥ . **** अथ श्रीखरतरस्वच्छगच्छनभोङ्गणदिनकराणां श्रीजिनचन्द्रसूरि-सूरीश्वराणां वर्णनेन प्रकारान्तरेण ___ द्वितीयमर्थमाहकश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारप्रमत्तः, शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः॥ यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु। स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥१॥ कश्चित्कान्तेत्यादि / हे इजनकतनय! त्वं वसति रामगिर्याश्रमेषु इन इति सम्बन्धः। कोर्थ:?। इ: इकारस्तेनोपलक्षितो जनः जिनः। तथा 'कं शिरो जलमाख्यातं' इति वररुचि (प.७) वचनप्रामाण्यात् / कं 98 लेख संग्रह Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलं, तद्यो- ज्यादाधाराधेययोरभेदोपचारात् प्राणयोगात्प्राणः प्राणिन इतिवत्, समुद्रस्तस्यतनयः-पुत्रः कतनयश्चन्द्रः, ततः जिनश्चासौ कतनयश्च जिनकतनयः अथवा जिनपूर्वकः कतनयो जिनकतनयः जिनचन्द्रः तस्य सम्बोधनं हे जिनचन्द्र! श्रीमत्खरतरगच्छाधीश्वर! वसतिः रात्रिस्तद्वद्रामः श्यामो गिरिर्वसति रीमगिरिरञ्जनगिरिस्तस्मै आ-ईषत् श्रमो गमनाय खेदो येषां ते वसतिरामगिर्या श्रमाः / जङ्घाचारणविद्याचारणलब्धिवन्तः साधवः तेषु इनः-सूर्य इवाचारः तेषु मुख्यो भवेत्यर्थः। किं विशिष्टं त्वं? चित्-अवधारणे कः। क:-सुखकारी काकुर्ध्वनिविशेषः' इत्यादि वाग्भटालङ्कार व्याख्यानात् सुखकारी। हे कान्ताविरहगुरुण! कोऽर्थः? 'कैं गै रै इति शब्दे' इति धातुपाठवचनात्। कायति-शब्दंकरोति इति अर्थात् कं-शास्त्रं वाच्यवाचकभावसम्बन्धेनवाचकत्वात्तस्य / ततः कस्य-शास्त्रस्य अन्ते-पर्यन्ते अटतिगच्छतीति कान्ताः एवंविधो विरह इति शब्दो यस्य स कान्ताविरहः, श्रीहरिभद्रसूरिर्विरहाङ्कत्वात्तस्य / ततः स चासौ गुरुश्च कान्ताविरहगुरुः तद्वत् ‘णः प्रकटे निश्चले प्रस्तुते ज्ञानबन्धयोः' इति सुधाकलश (प. 22) वचनात् / णः-ज्ञानं यस्य स कान्ताविरहगुरुणः सकलशास्त्रप्रवीणत्वात् / अथवा तद्वत् गुरुः-गरिष्टो णः-ज्ञानं यस्य स कान्ताविरहगुरुणस्तत्सम्बोधनं हे कान्ताविरहगुरुण! पुनः हे अस्वाधिकारप्रमत्तश! स्वं- द्रव्यं परिग्रहं इति यावत् तदभावोऽस्वं परिग्रहाभावः, स अधीयते यस्मिन्निति अस्वाधिः त्यक्तपरिग्रहत्वेन निर्ग्रन्थत्वात् / साभिप्रायं चैतत् विशेषणं परिग्रहत्यजनेन उद्धृतक्रियत्वात् / तथा रलयोरैक्यात् कलानां द्विसप्तति संख्यानां पुरुषसम्बन्धिनीनां चतुःषष्टि संख्याकानां महिलासम्बन्धिनीनां वा समाहारः कालं, तत्प्राति-पूरयतीति कालप्र:-धर्मः। यतो हि सर्वा अपि कला धर्मादेव प्राप्यन्ते। अथवा कस्य-सुखस्य आरं-प्राप्तिं प्रातीति कालप्रः, तं मनातीति कालप्रमथ्, पापं तदेव 'तकारः कथितश्चौरे' इति वररुचि (प. २३)वचनात् तः: तस्करस्तत्र 'शः सूर्ये शोभने शीते' (विश्वशम्भु. प. 108) इत्युक्तत्वात् श इव-सूर्य इव यः स कालप्रमत्तशः। ततः अस्वाधिश्चासौ कालप्रमत्तशश्च अस्वाधिकालप्रमत्त शस्तत्सम्बोधनं हे अस्वाधिकालप्रमत्तश! तथा हे अये! अपगतः इ:-कामो यस्मात् सो अयिस्तत्सम्बोधने हे अये! अदेतः स्यमोटुंगिति सिलुक्। हे न अस्तंगमितमहिम! अस्तं गमिता महिमा-महत्त्वं यस्य सः अस्तंगमितमहिमः एवंविधो न सर्वदैव जाग्रन्महिमत्वात् / अथवा अस्तंगमितो 'मो मन्त्रे मन्दिरे' (विश्वशम्भु. प.९४)इत्युक्तत्वात्, मः-मन्त्रं सूर्यादिमन्त्रो यत्र यस्य वा स अस्तंगमितमहिमः। अथवा अस्तंगमिता 'मा वंतः स्त्री रमाक्र्योः ' (विश्वशम्भु. प. 95) इतिवचनात् / मयां-पृथिव्यां मा रया-शोभा अर्चा पूजा यस्य सः अस्तंगमितमहिमः / एवंविधो न / तथा हे अवर्षभोग्य! अवनं अव:-षड् जीवनिकायरक्षणं तं ऋषन्ति-जानन्तीति अवर्षा:-साधवः तेषां 'भोगस्तु राज्ये वेश्याभृतौ सुखे धनेऽहिकायफणयोः पालनाभ्यवहारयोः' इति हैमानेकार्थ (प. ४१-४२)वचनात्, भोगः-पालनं सारणावारणादिकं तत्र साधुः। तत्र साधौ इति ये। अवर्षभोग्यः तस्य सम्बोधने हे अवर्षभोग्य! किं विशिष्टं त्वं? भर्तुः छाया-तीर्थकर प्रतिबिम्बं 'तित्थयरसमो सूरी' इत्याद्युक्तत्वात् / पुनः किं विशिष्टं त्वं? यक्षः इ:-लक्ष्मीस्तया युक्तानि अक्षाणि-इन्द्रियाणि यस्य सः। 'इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलं' इति यत्वे पक्षः रम्येन्द्रियः। पुनः हे चक्र ! 'चः पुंसि चेतने चन्द्रे चौरेऽहौ चारुदर्शने' इति श्रीहैमानेकार्थत्वात् (?विश्वशम्भु. प. 31) / चेन-चारुदर्शनेन क्रामतीति चक्रस्तत्सम्बोधने हे चक्र ! अथवा चक्रचिह्नोपेतत्वात् चक्रः तत्सम्बोधने हे चक्र!। तथा हे अस्नान - हे स्नानवर्जित! किंविधेषु साधुषु? पुण्योदकेषु पुण्याय तीर्थकरचैत्यवन्दनादिरूपाय उत्-उर्ध्वं अकंते-गच्छन्ति इति पुण्योदकास्तेषु पुण्योदकेषु / पुनः किं विशिष्टेषु साधुषु? अतरुषु तः प्रैते नि:फले शान्ते' इति विश्वशम्भु (विश्वशम्भु. प. ६०)वचनप्रामाण्यात् / न विद्यते लेख संग्रह 99 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेभ्यः प्रेतेभ्यः 'रुः सूर्ये रक्षणेपि च। भये शब्दे च' इति सुधाकलश (प. ३७-३८)वचनप्रामाण्यात् / रु:भयं येषां ते अतरवस्तेषु अतरुषु। अथवा तरुषु इति कोर्थः? वृक्षोपमेषु अनेकगुणगणपक्षिकुलाश्रयभूतत्वात् / अथवा तरुषु अर्थात् कल्पवृक्षेषु निजसवाहेवाकिनां मनोवांछितदानात् / तथा हे स्निग्ध! हे मित्र! तद्वद्धितकारित्वात्। कश्चित्कान्तेति काव्यस्य विचक्षणचमत्कृते। अर्थत्रयमिदं चक्रे गणि: समयसुन्दरः॥ [द्वितीयोऽर्थः संपूर्ण:] **** [अथ तृतीयोऽर्थः] अथ श्रीसूर्यदेववर्णनेन तृतीयमर्थमाह-अत्र कोपि जनो जगदुद्योतकारकं जगच्चक्षुर्भूतं परमोपकारविधायकं श्रीसूर्यं अस्तमयं दृष्ट्वा प्राह कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारप्रमत्तः, शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः। यक्षश्चक्रे जनकतनयास्त्रानपुण्योदकेषु, स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥१॥ कश्चित्कान्तेत्यादि / हे इन ! हे सूर्य! त्वं 'अस्तः क्षिप्ते पश्चिमाद्रौ' इति हैमानेकार्थ (प. १६०)वचनात्, अस्तं पश्चिमाद्रिं अस्ताचलं इति यावत्, मा अम-मा गच्छ मा अस्तमय सदा प्रकाशवान् भवेत्यर्थः। आशीर्वचनमेतत् इत्यन्वयः। किं विशिष्टं त्वं? 'हि स्फुटार्थनिश्चयहेतुषु पादपूरणविशेषयोरपि' इति अव्ययार्थवृत्तौ उक्तत्वात्। हि-स्फुटं कः-प्रकाशस्तद्योगात् कः प्रकाशवानित्यर्थः। पुनः किं विशिष्टं त्वं? चिनोति-अभिमतमर्थं निज सेवाभिधायिनामिति चित् / अथवा चित् अवधारणे / हे कान्ताविरह! कान्तःमनोहरो विशिष्टफलदानात् / उच्चो अविर्मेषो मेषराशिर्यस्य स कान्ताविः / मेषराशिस्थस्य सूर्यस्य उच्चत्वात् / यदुक्तं-रवेर्मेषतुले प्रोक्ते' इत्यादि। तथा लहः लमम्बरे' इति विश्वशम्भु (प..१०४)वचनात् / ले-आकाशे। हशब्दो हास्यरसे चतुर्मखे चैव राजहंसे च' इति श्री कालिदासवचनात् / हः-राजहंसो लह:-आकाशसरोवरे राजहंसशोभां विभ्राण इत्यर्थः। ततः कान्ताविश्चासौ लहश्च कान्ताविलहः। रलयोरैक्यं चित्रादित्वान्न दोषाय। अथवा कान्तेषु-उत्तमेषु भक्तेषु वा अविरहः-विरहाभावो यस्य स कान्ताविरहः, तेषां प्रत्यक्षत्वात् / तत्सम्बोधनं हे कान्ताविरह ! पुनः हे गुरुण! 'णः प्रकटे निष्कले च प्रस्तुते ज्ञानबन्धयोः' इति सुधाकलश (प. 22) वचनात् / गुरोः-बृहस्पतेः सकाशात् णः-ज्ञानं यस्य स गुरुणः देवाचार्यत्वेन बृहस्पतेर्देवानां गुरुत्वात् / अथवा गुरोः-बृहस्पतेर्णो-बन्धो यत्र स गुरुणः। रविमण्डले सर्वेषां ग्रहाणां अस्तत्वात् / तथा हे अस्वाधिकार! स्वानि मित्राणि कमलानि अब्जबान्धवत्वाद्रवे: तद्विरुद्धानि अस्वानि अर्थात् कुमुदानि तेषां 'आधिर्मनो? व्यसनेऽधिष्ठाने बन्धकोशयोः' इति हैमानेकार्थ (प. २४२)वचनात् आधि-बन्धं करोति इति अस्वाधिकारः। अथवा शसयोरैक्यात् अश्वेषु सप्तसंख्यतुरङ्गमेषु आधिः-अधिष्ठानं करोतीति अस्वाधिकारः अथवा अश्वेषु अधिकारो वाहनादि रूपो यस्य सः अस्वाधिकारः तत्सम्बोधनं हे अस्वाधिकार! तथा हे शापे प्रमत्त ! शापादानविषये अलस! न तु दुष्टदेवादिवत् शापदानादितत्परः। हे अन! 'न पुनः बन्धबुद्धयोः' (अमरचन्द्रीय एकाक्षरनाममाला प. 12) इति वचनात् बन्धनरहित! प्रकट इति यावत्, हे गमितम! 'गमोऽध्वद्यूतभेदयोः' 100 लेख संग्रह Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति हैमानेकार्थ (३२४)वचनात् / गमः-मार्गो यस्यास्तीति गमि मार्गप्राप्तं गतमित्यर्थः / लोके हि मार्गप्राप्तस्य गतमिति व्यवहतत्वात् / ततो गमि-गतं तमं-तिमिरं यस्मादसौ गमितमः। अथवा गमनं गमः पलायनं तदस्यास्तीति गमि नाशवत्तमं-तिमिरं यस्मादसौ गमितमस्तत्सम्बोधने गमितमः!। तमशब्दोऽकारान्तोप्यस्ति। हे वर्षभोग्य! वर्षाणि क्षेत्राणि भरतादिरूपाणि तेषां तेषु वा भोगः परिभोगाचाररूपो वर्षभोगः तत्र साधुः तत्र साधौ ये' इति ये वर्षभोग्यस्तत्सम्बोधने हे वर्षभोग्य!। पुनः किं. भर्तुः 'भं धिण्ये मेषादौ इत्यनेकार्थवचनात् (महीपसचिवकृत एकाक्षरसंज्ञः काण्डः 33) / भैर्मेषादिराशीभिराश्विन्या-दिनक्षत्रैर्वा क्रतवो वसन्तादिसंज्ञिका यस्मात्स भर्तुः। पुनः किं भूतो यक्ष:? 'इर्भुवि श्रिया' इति तिलकानेकार्थ (प. ७)वचनात् / ई-भुवं अक्ष्णोति प्रकाशकरणेन व्याप्रोतीति यक्षः। हे चक्रेजन! चक्रा:-चक्रवाकपक्षिणः तेषां तेषु वा ई:-श्री: तस्याः जनः-जननं यस्मात्स चक्रेजनः, चक्रबान्धववत् सूर्यस्य / सति हि सूर्ये चक्रवाकपक्षिणां परमानन्दः समुत्पद्यते। तत्सम्बोधने चक्रेजन! पुनः हे कतनय! क:-यमस्तनयो यस्य स कतनयस्तत्सम्बोधने हे कतनय!। हे अस्नान! न विद्यते स्नानं तैलककोटिकादिरूपं यस्मिन् सः अस्नानस्तत्सम्बोधने हे अस्नान!। रविवारे हि स्नानं तापकारि स्यात् / यदुक्तं-'आदित्यादिषु वारेषु, तापः कान्तिम॒तिर्द्धनं / दारिद्र्यं दुर्भगत्वं च कामाप्तिः स्नानतः क्रमात् / ' किं विधः? हे उदकेषु पुण्य! उत्-ऊर्ध्वमकन्ति-गच्छन्ति चारेण चरन्ती ति उदकाः-ग्रहाः तेषु 'पुण्यं तु सुन्दरे सुकृते पावने धर्मे' इति हैमानेकार्थ (प. 375) वचनात्, पुण्यः - सुन्दरस्तेषु मुख्येत्यर्थः। पुनः हे स्निग्धच्छाय! स्निग्धा-स्नेहवती छाया-निजभार्या यस्य स तत्सम्बोधने हे स्निग्धच्छाय! पुनः किं भूतेषु उदकेषु? अतरुषु अनानां-प्राणिनां रु:-रक्षणं येभ्यस्ते उदकस्तेषु उदकेषु / हे वसतिल! वसति-रात्रिं लुनातीति वसतिल!। किं भूतेषु उदकेषु? गिर्याश्रमेषु गिरिः-पर्वतोऽर्थान्मेरुः तस्मादा-सामस्त्येन सर्वतः श्रायंतीति गिर्याश्रमेषु।। [तृतीयोऽर्थः संपूर्णः **** कश्चित्कान्तेति काव्यस्य विचक्षणचमत्कृते। अर्थत्रयमिदं चक्रे, गणिः समयसुन्दरः॥ 1 // श्री॥ [अनुसंधान अंक-३२] लेख संग्रह 101 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर प्रणीता नवनवत्यधिकनवशताक्षरा महादण्डकाख्या विज्ञप्तिपत्री सरस्वतीपुत्र प्रौढ़ विद्वान महोपाध्याय समयसुन्दरजी का नाम साहित्याकाश में भास्कर के समान . प्रकाशमान रहा है। इनका नाम ही स्वतः परिचय है अतः परिचय लिखना पिष्टपेषण करना मात्र होगा। महोपाध्यायजी खरतरगच्छाधिपति युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि के प्रथम शिष्य श्री सकलचन्द्रगणि के शिष्य / हैं। इनका साहित्य-सर्जना काल विक्रम संवत् 1640 से लेकर 1703 तक का है। प्रस्तुत विज्ञप्ति-पत्री अपने आप में मौलिक ही नहीं अपितु अपूर्व रचना है। विज्ञप्तिपत्रों की कोटि में यह रचना आती है। यह चित्रमय नहीं है किन्तु प्राप्त विज्ञप्तिपत्रों से इसकी मौलिकता सबसे पृथक् है।' विज्ञप्तिपत्र प्रायः चम्पू काव्य के रूप में अथवा खण्ड/लघुकाव्य के रूप में प्राप्त होते हैं। जिसमें प्रेषक जिनेश्वरों का, नगर सौन्दर्य का, पूज्य गुरुराज का सालङ्कारिक वर्णन करने के पश्चात् प्रेषक अपनी मण्डली के साथ अपने और समाज द्वारा विहित कार्य-कलापों का सुललित शब्दों में वर्णन करता है। दण्डक छन्द में रचित छोटी-मोटी अनेक रचनाएँ प्राप्त होती हैं किन्तु दण्डक छन्द के अन्तिम भेद 333 नगणादि गणों का समावेश करते हुए यह रचना 999 अक्षर योजना की है इसीलिए इसे महादण्डक शब्द से अभिहित किया गया है। इस प्रकार की कृति मेरे देखने में अभी तक नहीं आई है। हो सकता है कि किसी कवि ने इस प्रकार की रचना की हो और वह किसी भण्डार में सुरक्षित हो! 24 अक्षर के पश्चात् 9 गणों के सम्मिलित अर्थात् 27 वर्ण होते ही वह दण्डक छन्द कहलाता है और क्रमशः एक-एक मगणादि की वृद्धि करते हुए 333 गणों तक यह दण्डक ही कहलाता है। दण्डक छंद के नियमानुसार प्रारम्भ में दो नगण होते हैं अर्थात् 6 लघु होते हैं तत्पश्चात् सामान्यतया 7 रगण होते हैं अर्थात् गुरु लघु गुरु की पुनरावृत्ति होती रहती है। 27 वर्णात्मक के पश्चात् एक-एक गण की वृद्धि होने पर दण्डक के पृथक्-पृथक् नाम भी प्राप्त होते हैं। दो नगणों के पश्चात् शेष 7 गणों का यथेच्छ निवेश भी किया जाता है। यहाँ दो नगण के पश्चात् 331 रगण का ही प्रत्येक चरण में प्रयोग किया गया है। .. वर्ण्य विषय - इस विज्ञप्ति-पत्री में महादण्डक छन्द के केवल चार चरण हैं और प्रत्येक चरण 999 वर्गों का हैं। प्रत्येक चरण का वर्ण्य विषय पृथक्-पृथक् है। चरणानुसार वर्ण्य विषय का संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा है: 1. प्रथम चरण में माँ शारदा/सरस्वती देवी के गुणों का वर्णन करते हुए स्तवना की गई है। शारदा देवी को एँ बीजाक्षरधारिणी बतलाते हुए कहा गया है कि वह मिथ्यात्व का संहार करने वाली है, सम्यक्त्व से संस्कारित है, दुर्बुद्धि का निवारण करने वाली है, सद्बुद्धि का संचार करने वाली है, तीर्थ स्वरूपा है, त्रिमूर्ति द्वारा सेवित है, समस्त देवों के द्वारा पूजित है, सप्त ग्रहों और शाकिनी इत्यादि देवियों के द्वारा प्रदत्त विघ्नों का संहार करने वाली है, भक्तों का निस्तार करने वाली है, धर्मबुद्धि धारण करने वाली है, सेवकों के वांछित पूर्ण करने वाली है, माया विदारिणी और दैत्य संहारिका है। 102 लेख संग्रह Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. दूसरे चरण में चौबीस तीर्थंकरों के नाम, 11 गणधरों के नाम, 6 श्रुतधरों के नाम, युगप्रधान आचार्यों के नाम - स्थूलभद्र, महागिरि, सुहस्ती, शान्तिसूरि, हरिभद्रसूरि, श्यामार्य, शाण्डिल्यसूरि, रेवतीमित्र, आर्यधर्म, आर्यगुप्त, समुद्रसूरि, आर्य मंख, आर्य भद्रगुप्त, आर्य भद्र, आर्य रक्षित, पुष्यमित्र, आर्य नन्दी, आर्य नागहस्ति, आर्य रेवती, आर्य ब्रह्म,नागार्जुन, गोविन्दसूरि, संभूतिसूरि, लौहित्यसूरि, श्रीवल्लभी में जैनागमों को ताड़पत्र पर सुरक्षित रखवाने वाले देवर्धिगणि क्षमाश्रमण, उमास्वाति, और भाष्यकार जिनभद्रसूरि आदि के पश्चात् अपनी सुविहित परम्परा के आचार्यगणों - देवसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, उद्योतनसूरि, वर्द्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनप्रबोधसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनकुशलसूरि, जिनपद्मसूरि, जिनलब्धिसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनोदयंसूरि, जिनराजसूरि, जिनभद्रसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनसमुद्रसूरि, जिनहंससूरि, और जिनमाणिक्यसूरि के नामोल्लेख सहित सद्गुरुओं को प्रणाम कर यह अद्भुत पत्र लिखा गया है। 3. तीसरे चरण में गणनायक जिनचन्द्रसूरि के सद्गुणों और विशिष्ट कार्यकलापों का वर्णन करते हुए कवि कहता है - स्तम्भनपुर में विराजमान ओकेशवंशीय, रीहड़कुलभूषण, श्रीवन्त शाह की धर्मपत्नी श्रिया देवी के यहाँ जन्म लेने वाले, श्रीजिनमाणिक्यसूरि के उपदेशों से प्रतिबोधित होकर बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण करने वाले, जैसलमेर दुर्ग में आचार्य/गणनायक पद प्राप्त करने वाले (वि. सं. 1612), विक्रमपुर (बीकानेर) में क्रियोद्धार करने वाले (वि. सं. 1614), फलवर्द्धिपुर (मेड़तारोड) में महामंत्रों की शक्ति से प्रभुमन्दिर के तालों का उद्घाटन करने वाले, दिल्ली में शत्रुओं का उच्चाटन करने वाले, योगिनियों की साधना करने वाले, सूरिमन्त्र की आराधना करने वाले, गुर्जर देश में तपागच्छीय विद्वान द्वारा निर्मित पुस्तिका के विवाद पर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने वाले, लाभपुर में सम्राट अकबर को प्रतिबोध देकर शाही मुद्रा से अङ्ग, कलिङ्ग, प्रयाग, चित्रकूट, मेदपाट, सिन्धु सौवीर, काश्मीर, जालन्धर, गुजरात, मालव, काबुल, पंजाब आदि प्रदेशों में अमारी घोषणा का पालन करवाने वाले, युगप्रधान पद धारण करने वाले, खंभात की खाड़ी के समस्त जलचरों को अभय दान दिलवाने वाले, पंजाब की पंच नदियों के संगम पर पाँचों पीरों को अपने अधीन करने वाले महावैराग्यवान भट्टारक श्री जिनचन्द्रसूरिजी हैं। चतुर्थ चरण में स्तम्भ तीर्थ नगर और मन्दिर का सालङ्कारिक सुललित पदों द्वारा वर्णन कर वहाँ विराजमान युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के साथ निम्न विद्वान् साधु वर्ग था - उपाध्याय जयप्रमोद, श्री सुन्दर, रत्नसुन्दर, धर्मसिन्धुर, हर्षवल्लभ, साधुवल्लभ, पुण्यप्रधान, स्वर्णलाभ, नेतृऋषि, जीवर्षि, भीम आदि साधुसाध्वियों के समूह से सुशोभित हो रहे थे। . मेदिनी तट (मेडता) से यह पत्र समयसुन्दरजी ने लिखा था। उनके साथ में उस समय में 12 साधु - हर्षनन्दन, रत्नलाभ, मुनिवर्धन, मेघ, रेखा, राजसी, खीमसी, गंगदास, गणपति, मुनिसुन्दर, मेघजी आदि। अपने साधु समुदाय के साथ समयसुन्दरगणि आचार्यश्री को सविधि नमस्कार कर यह विज्ञप्ति-पत्र लिख रहे हैं। समयसुन्दरजी लिखते हैं - पाटण से आपश्री का आदेश प्राप्त कर, विहार कर हम वरकाणा आए। वहाँ पार्श्वनाथ भगवान् को नमस्कार कर वैशाख की नवमी के दिन आडम्बर के साथ यहाँ पहुँचे। यहाँ प्रात:काल संघ के समक्ष विपाकसूत्र का व्याख्यान दे रहे हैं। हर्षनन्दन और मुनिमेघ ने 5, 11, 15 आदि दिनों की तपस्या की है। संघ के विशेष अनुरोध को ध्यान में रखकर सप्तम अङ्ग उपासकदशासूत्र का वाचन भी किया जा रहा है। पर्युषण पर्व के आने पर मन्त्री संग्राममल्ल ने धर्मशाला में लेख संग्रह 103 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकर संघ के समक्ष कल्पसूत्र को ग्रहण किया। रात्रि जागरण करते हुए प्रात:काल वाजिवनिर्घोष के साथ, राजमार्ग पर होता हुआ जुलूस उपाश्रय में आया और उन्होंने कल्पसूत्र मुझे बोहराया। मैंने तेरह वाचनाओं से इसका पठन किया। पारणा के दिन पौषधग्राहियों को मिष्टान्न के साथ पारणक कराया गया। संघ में अट्ठाई आदि तपस्याएँ हुईं। इस प्रकार धर्म रीति के अनुसार महापर्व की आराधना कर हमने अपने जीवन को सफल किया है। तातपाद अर्थात् आप भी अपने यहाँ के पर्वाराधन के स्वरूप का वर्णन करें। अत्रस्थ महामन्त्री भागचन्द्र, सदारङ्गजी, भाणजी, राघव, वेणीदास, वाघा, वीरमदे, सामल, राजसी, ईश्वर, मन्त्री हमीर, भोजु, अमीपाल, तेजा, समूह, उग्र, मेहाजल, सिद्धराज, रेखा, सुरत्राण, वीरपाल, नृपाल, राजमल्ल, पीथा आदि समस्त संघ आपके चरण-कमलों की वन्दना करता है। __रचनाकार :- इस पत्र के लेखक ने अपना नाम स्पष्ट रूप से न देकर चतुर्थ चरण में शिष्याणुसिद्धान्तचारुरुचिः पर्यायवाची शब्दों से दिया है। सिद्धान्त शब्द से समय का ग्रहण किया गया है और चारु शब्द से सुन्दर का ग्रहण किया गया है। इस प्रकार प्रेषक का नाम समयसुन्दर सिद्ध होता है। दूसरा कारण यह भी है कि चतुर्थ चरण के अन्त में तत्पुनस्तातपादैरपि शब्द यह द्योतित करता है कि जिनचन्द्रसूरिजी समयसुन्दर जी के तातपाद अर्थात् दादागुरु होते हैं क्योंकि समयसुन्दरजी जिनचन्द्रसूरिजी के प्रथम शिष्य सकलचन्द्रगणि के शिष्य हैं। तीसरा कारण यह भी है कि स्वयं को शिष्याणु लिखते हैं जो उनकी अधिकांश कृतियों में प्राप्त होता है। रचना संवत् :- लेखक ने पत्र-प्रेषण का समय नहीं दिया है, किन्तु तृतीय चरण में जिनचन्द्रसूरि जी के वर्णन में जो प्रमुख कार्यों की गणना की है उसके अनुपात से पञ्च नदियों के पाँच पीरों का साधन उन्होंने विक्रम संवत् 1652 में किया था। 1652 के पश्चात् की किसी प्रमुख घटना का उल्लेख इसमें नहीं है। पाटण सं. 1657 में विराजमान आचार्य के आदेश से ही समयसुन्दरजी मेड़ता आए थे और आचार्यश्री का चातुर्मास खम्भात में था। चातुर्मास सूची के अनुसार सं. 1658 का चातुर्मास खम्भात में था। अतः अनुमान किया जा सकता है कि संवत् 1658 में खम्भात में विराजमान आचार्यश्री को यह पत्र प्रेषित किया गया था। प्रेषण स्थान :- चतुर्थ चरण में प्रेषक ने मालकोटात्तटान् मेदिनीतश्च का प्रयोग किया है। मेदिनी तट मेड़ता का प्रसिद्ध धाम है / और उस समय जोधपुर के अर्न्तगत मुख्य स्थान था। मालकोट शब्द यहाँ किस ग्राम-स्थान का बोधक है? यह चिन्तनीय है। प्रति :- राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर संग्रह में प्रेस कॉपी नम्बर 748 पर प्रतिलिपि सुरक्षित है जिसके छः पत्र हैं। ___ यह पत्र ऐतिह्य एवं महादण्डक छन्द में असाधारण रचना होने के कारण विद्वज्जनों के आह्लाद हेतु पठनीय है। 104 लेख संग्रह Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्तम्भतीर्थस्थित-अकब्बरसाहिप्रतिबोधकयुगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि प्रति मेदिनीतटात् वाचकोत्तंस श्रीसमयसुन्दरगणिप्रेषिता नवनवत्यधिकनवशताक्षरा महादण्डकाख्या विज्ञप्ति-पत्री सकलविमलशाश्वतस्वस्तिमज्ज्योतिरुद्योतितं सर्वसूर्यादिदमन्त्रेषु तन्त्रेषु सर्वत्रभूर्जादिपत्रेषु यन्त्रेषु विद्यापवित्रेषु मिथ्यात्ववल्लीलवित्रेषु दत्तात्मभक्तातपपत्रेषु संसिद्धिसत्रेषु मित्रेषु लिप्या विचित्रेषु वाद्यं पुनर्य च बालाः पतद्वक्त्रलाला लसत्कण्ठपीठेषु मुक्तादिमाला अनाश्लिष्टसंसारमायादिजम्बालजालाः सुभाला: सुबुद्ध्या विशालाः समात्मीयनालप्रणालाः करालास्त्रिकालाः सदा सन्मुदा पठन्तीह पूर्वं तथाऽव्रक्षणे धातुरूपस्वरूपं नतानेकभूपं सदाम्नायपानीयकूपं सदाप्यव्ययं न व्ययं सन्मनोहारि सर्वत्रविस्तारि मिथ्यात्वसंहारि सम्यक्त्वसंस्कारि दुर्बुद्धिनिर्वारि सद्बुद्धिसञ्चारि निर्वाणनिर्धारि तीर्थेशधामेव शीर्षप्रचण्डेन दण्डेन सम्प्रोल्लसत्कीर्त्तिपिण्डेन दीप्ते: करण्डेन नित्यमखण्डेन युक्तं तदूर्ध्वं महेन्द्रध्वजेनाऽपि कुम्भेन सर्वर्द्धिलम्भेन संशोभितं वर्णमेकं पुनः पद्मनाथो विरञ्चिर्वृषाङ्कश्च देवत्रयं यत्र नित्यं मिलित्वा स्थितं वक्रधारं कृपाणं तथा लोहगोलं यको दानवो मानवो व्यन्तरः किन्नरो राक्षसो यक्ष-वैताल-वैमानिक-प्रेतगन्धर्व- विद्याधर क्षेत्रपालादिदिक्पालभूतव्रजो भास्करो भासुरश्चञ्चुरश्चन्द्रमा मञ्जुलो मङ्गलः सोमपुत्रः पवित्रस्तथा सन्नतिर्गीष्पतिर्भार्गवो नीलवासास्तथा सैंहिकेयश्शिखी यो ग्रहो दुर्ग्रहो या च नक्षत्रमाला विशाला तथा शाकिनी डाकिनी नाकिनी किन्नरी सुन्दरी मन्त्रिणी तन्त्रिणी यन्त्रिणी दुष्टनारी तथा केशरी चित्रकः कुञ्जरो वेसर: सौरभेयस्तुरङ्गो विरङ्गः कुरङ्गो महाङ्गो भुजङ्गस्तथाऽन्योऽपि जीवो महादुष्टबुद्धिः सदाऽस्माकमेकाग्रचित्ताद् भृशं भक्तिभाजां सुराजां विरूपं स्वरूपं विधास्यत्यहो तं वयं मारयिष्यामः एतद्द्वयस्य प्रहारैरितीवाऽत्र हेतोर्दधानं तथा सर्ववर्णेषु मुख्यं सुरक्षं सुकक्षं सुलक्षं सुयक्षं सुदक्षं सुपक्षं विरञ्च्यात्ममार्तण्डसौख्यादिवर्याभिधाधायकं नायकं त्रायकं दायकं संविभाव्येति सम्यग्वर्णं सुवर्णं लवर्णो वराकः श्रियोर्वीयकं संश्रितः सोऽपि सत्त्वाधिकोदात्तश्रियं देवदूष्यावृतात्मी-यशीर्षोपरिन्यस्तप्रशस्तस्फुरत्काम-कुम्भान्वितं तं तथा विश्वरेतः सुता सर्वदेवैर्नता हंसयानस्थिता पुस्तकेनाङ्किता देववाणीरता कूर्मपादोन्नता केलिजङ्घान्विता सिंहमध्याद्भुता वर्यवक्षःस्थला मञ्जुसन्मेखला हस्तनीलोत्पला ध्वस्तकुप्यत्खला सद्गुणैर्निर्मला भक्तहन्निश्चला छिन्नदुष्टच्छला नैव सा निष्फला सर्वतः सद्बला केशतः श्यामला विश्वतः सत्कला केलितः कोमला सद्वचः कोकिला पेशला मांसला वत्सला संरणन्नूपुरा प्रौढपुण्याङ्करा चक्रमाच्चञ्चुरा क्वापि नैवातुरा सर्वदा मेदुरा दीप्तिसन्मुर्मुरा सद्यशःपुरपूरा मग्नभीभूर्भुरा सम्पदां कारिणी पङ्कजागारिणी विश्वसञ्चारिणी बुद्धिविस्तारिणी भक्तनिस्तारिणी दुर्गतेर्दारिणी धर्मधीधारिणी सेवकाधारिणी संसृतेः पारिणी मायिनां मारिणी वैरिणां वारिणी दैत्यसंहारिणी एँ नमो हारिणी शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा शारदा तां तथा। 999 / ... प्रथममृषमदेवनामाऽभिरामाद्भुतश्रीसमेतोऽजितो नो जित: संयतः शम्भवः शं भवः संवराधीशजन्मा सुजन्मा जिनो मेघराजाङ्गजोऽनङ्गजो देवपद्मप्रभुः सप्रभः साधुपार्श्व: सुपार्श्वश्च चन्द्रप्रभो दीप्तिचन्द्रप्रभो मातृरामाभिजातोऽभिजातो वचः शीतलःशीतलो विष्णुपुत्रः सुनेत्रस्तथा वासुपूज्यः सुपूज्यो विपूर्वोमलो निर्मलोऽनन्ततीर्थेश्वरो भासुरो धर्मनाथः सनाथः श्रिया शान्तितीर्थङ्करः शङ्करः कुन्थुनाथः प्रमाथस्ततोऽरः करः सम्पदां मल्लिरापल्लताभल्लिरत्यन्तसत्सुव्रतः सुव्रतः श्रीनमिर्निभ्रमिर्नेमिदेवाधिदेवः सुसेवस्तथा लेख संग्रह 105 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वतीर्थाधिपः सत्कृपः सद् गुणोर्वर्धमानो जिनो वर्धमानस्तथा गुब्बर ग्रामवासी प्रकाशीन्द्रभूतिर्गणेशोऽग्निभूतिस्तथा वायुभूतिः पुनर्व्यक्तनामा सुधर्मा गुणैर्मण्डितो मण्डितो मौर्यपुत्रः सुसूत्रस्तथाऽकम्पितः कम्पितो नाऽचलभ्रातृकस्तान्त्रिकस्त्यक्तमार्यः सदार्यश्च मेतार्यसाधुः सदाचारसाधुः प्रभासो निवासो गुणानां च्युतः पञ्चमस्वर्गतो धारिणीकुक्षिपाथोजसंलब्ध-जन्माऽष्टकन्यापरित्यागकर्ता हिरण्यादिकोटीप्रह" लसत्केवलश्रीसुभर्ता गणाधीशजम्बू यतीन्द्रः प्रपूर्वो भवो भीमसंसारकान्तारपारङ्गमी संयमी सूरिमुख्यः सुदक्षश्च शय्यम्भवः श्रीयशोभद्रसूरीन्द्रनामाऽऽयम्भूतसूरिश्च भूरिर्गुणानां कलापैस्तथा भद्रबाहुः सुबाहुः पुनः स्थूलभद्रो मुनीन्द्रश्च कोशासुवेश्यामनोबोधकारी महाब्रह्मचारी लसल्लब्धिधारी नराणां वराणां भवाम्भोधितारी तथाऽऽर्यो महागिर्यभिख्यः सुशिष्यः सुहस्ती प्रशस्ती तथा शान्तिसूरिर्गुणश्रेणिभूरि : पुन: श्रीहरेरग्रगोभद्रसूरिर्गभीरार्थप्रज्ञापनासूत्र सन्दर्भविज्ञान- विद्यावरेण्यः सुपुण्यश्च नीलार्यभट्टारकस्तारक: संसृतेः कारक: सम्पदामेष शाण्डिल्यसूरिर्मुनी रेवतीमित्रनामाऽऽर्यधर्मार्यगुप्तायनामान एवं समुद्रादिसूर्यार्यमलार्यसौधर्मसूरीन्द्रमुख्याः सुदक्षाः पुनर्भद्रगुप्तः सुगुप्तो यतो निर्गता वार्धिसंख्येयशाखा: सुनागेन्द्रचन्द्रस्फुरनिर्वृतिस्फारविद्या-धरोदारनामाभिरामा द्विपञ्चाप्तपूर्वः सुपूर्वोऽनु वज्रादिमस्वामिसूरीश्वरोऽधीश्वरो रक्षितार्यसूरिः पुनः पुष्यमित्रः पवित्रस्तथाऽऽर्यादिनन्दिः प्रभु गहस्तः प्रशस्तस्ततो रेवतीसूरिराचार्यधुर्य : सुगाम्भीर्य धैर्यादिवर्य: परब्रह्म वान् ब्रह्मनामादिमद्वीपशाण्डिल्यसूरिर्हि माद्वन्तसूरिगणिर्वाचकाचार्य नागार्जुनः प्रार्जुनः सद्गुणै: सूरिगोविन्दसम्भूतिसवाचकौ सूरिलौहित्यनामा पुरि श्रीवलभ्यां यकः सर्वसिद्धान्तवृन्दानि तालादिपत्रे विचित्रे वरैलेखकैलेखयामास देवर्द्धिभट्टारकः श्रीउमास्वातिसूरि शं भाष्यकर्ता जिनाद्भद्रसूरिस्ततो देवसूरिः पुनर्नेमिचन्द्रस्तथोद्योतनो वर्धमानो जिनादीश्वरोजैनचन्द्रोऽभयाद्देवसूरि-र्जिनावल्लभो दत्तचन्द्रौ पतिः श्रीजिनेश: प्रबोधश्च चन्द्रः शिवाख्यो जिनात्पद्मलब्धी च चन्द्रोदयौ राजभद्रौ च चन्द्रः समुद्रो जिनाद्धंस-माणिक्यसूरी च पूर्वोक्तमन्त्रांस्तथा तीर्थराजान् पुनः श्रीगुरून् सम्प्रणिपत्य लेलिख्यते पार्वणो लेख एषोऽद्भुतः / 2 / 999 / / ___ क्वचिदिह मणिरत्नमाणिक्यमालं क्वचिन्मुक्तमुक्ताफलालप्रवालं क्वचित्स्वर्णरूप्यादिपुजैर्विशालं क्वचित्स्वर्णपट्टोल्लसच्छ्रेष्ठमालं क्वचिद्धट्ट पीठे लुठन्नालिकेरं क्वचित् काञ्चनीराजिकाशृङ्ग बेरं क्वचित्प्रस्तरीन्यस्तनानार्थमूलं क्वचित्प्रस्फुटच्छाटिकापट्टकूलं क्वचिच्छाल्यधान्यादिगजैगरिष्ठं क्वचित्प्राज्यमाज्यादिकूपैर्वरिष्ठं क्वचिद्विप्रशालापठच्छात्रवृन्दं क्वचित्पीयमानाप्तवाणीमरन्दं क्वचिद्दीयमानार्थिवाञ्छार्थदानं क्वचित्कामिनीगीतसङ्गीतगानं क्वचिन्मत्तमातङ्ग- घण्टानिनादं क्वचिद् वाजिहे षार वैर्लग्नवादं क्वचिद्रम्यहम्यर्जितस्वर्विमानं क्वचिच्चारुचैत्यावलीभ्राजमानं क्वचित्साधुसाध्वीकृपाध्यायघोषं क्वचित्कामुकाविष्कृतप्रेमपोषं क्वचित्क्लृप्तविस्फारशृङ्गारवेषं क्वचिद्दिव्यनव्याङ्गनारूपरेखं क्वचित्तीरसांयात्रिकोत्तीर्णपण्यं क्वचिद्वारिमध्यभ्रमन्नौवरेण्यं क्वचित्स्वर्ण-पीठोपविष्टक्षमेशं क्वचित्साधुभिर्दीयमानोपदेशं क्वचित्सूरिमन्त्रस्मृतौ लीनबुद्धं क्वचिद्राजसंसद्भवन्मल्लयुद्धं क्वचित्स्तम्भनाधीशचैत्यप्रधानं क्वचित्सद्-गुरुस्तूपरूपप्रतानं ततः किं बहू क्त्या? समृद्धया सुवृद्धया सुनाशीर पुर्या : सदृशं सुवृक्षं पुरं स्तम्भतीर्थं सुतीर्थं च तस्मिंस्तथोकेशवंशाम्बुजोद्बोधने भास्करा रैहडीये कुले गाढराढाधराः श्रीमदुबोधरत्नानि सल्लक्षणाज्ञानविज्ञानचातुर्यविद्याचणाः शीलभास्वच्छ्यिादेवीमातुः प्रलब्धावताराः कलाकेलितो रूपरेखातिसारा लसत्पञ्चधातृभृशं पाल्यमाना द्विसप्तप्रभा सज्ज्वला सत्कलामण्डिताः पण्डिताः सर्वदक्षाः पुनर्लब्धलक्षा विनीताः सुगीताः सुमित्राः पवित्राः सुलावण्यवाणीसुधारञ्जितानेकलोकाः सरोकाः सुदाक्षिण्यनै-पुण्यजाग्रत्प्रतापा विपापा गुरोज॑नमाणिक्यसूरेः सकाशाच्छ्रताः सारकान्तारकारा विचाराः समुत्पन्नवैराग्यरङ्गत्तरङ्गाः सरङ्गा गृहीतव्रताः सुव्रता गुप्तिगुप्ताः समित्याभियुक्ताः प्रमुक्ताः सुभुक्ताः श्रुतोक्तास्तपस्तेजसा दीप्यमानाः समानाः सुगानाः सुतानाः सुदानाः सुयानास्ततो 106 लेख संग्रह Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेसलमेरुदुर्गः सुवर्गः सुसर्गो गुरुप्रत्नपट्टाधिकारास्ततो विक्रमे सत्क्रियाः श्रीफलद्धर्यां महामन्त्रशक्त्या प्रभोर्मन्दिरे तालकोद्घांटकाः शात्रवोच्चाटका ढिल्लीपुर्यां पुनर्योगिनीसाधकाः सूरिमन्त्रस्फुटाऽऽम्नायसंसाधका गूर्जरेऽजर्जर या तपोटैस्तपोटै: कृता गालिनिन्दामयी पुस्तिका तद्विवादेषु सर्वत्र सम्प्राप्तजाग्रजयश्रीप्रवादाः पुनर्यद्गुणाकर्णनाकृष्टसंहृष्टहृत्साहिना मानसम्मानपूर्वं समाकारिता लाभपुर्यां यकैः साहिछप्पाप्रयोगेणाऽङ्गे कलिङ्गे सुबड्ने प्रयागे सुयागे सुहट्टे पुनश्चित्रकूटे त्रिकूटे किराटे वराटे च लाटे च नाटे पुनर्मेदपाटे तथा नाहले डाहले जङ्गले सिन्धुसौवीरकाश्मीर-जालन्धरे गूर्जरे मालवे दक्षिणे काबिले पूर्वपञ्जाबदेशेष्वमारि शं पालयाञ्चक्रिरे प्रापियौगप्रधानं पदं स्तम्भतीर्थोदधौ दापितं सर्वमीनाभयं यैः पुनः पञ्चकूलङ्कषासङ्गमे साधिताः सूरिमन्त्रेण पञ्चापि पीरा महाभाग्यवैराग्यवन्तः सदा जैनचन्द्रा मुनीन्द्राः सुभट्टारकाः / 3 / 999 / प्रवरविदुररत्ननिध्याह्वयाः श्रीउपाध्यायविद्वद्गजेन्द्रा जयादिप्रमोदाः श्रिया सुन्दराः सुन्दरा रत्नतः सुन्दरा धर्मतः सिन्धुरा हर्षतो वल्लभाः साधुतो वल्लभाः प्राज्ञपुण्यप्रधानाः पुन स्वर्णलाभास्तथा नेतृजीवर्षि भीमाभिधानास्तथेत्यादि सत्साधुसाध्वी द्विरेफव्रजासेवितांहिवयाम्भोजराजी मनोहारिणस्तांस्तथा मालकोटात्तटान् मेदिनीतश्च शिष्याणुसिद्धान्त-चारुरुचिर्गणिहर्षतो नन्दनो रत्नलाभो मुनेर्वर्धनो मेघरेखाभिधानौ तथा राजसी खीमसीश्वरो गङ्गदासो गणादिः पतिर्येष्ठनामा मुनिः सुन्दरो मेघजीत्यादि यत्याश्रितः कार्तिकेयाक्षिमित्यद्भुतावर्तवत्या प्रणत्या च विज्ञप्तिमेवं चरीकीर्ति वर्वर्ति निःश्रेयसश्रेणिरत्नाऽऽप्तसत्पूज्यराजक्रमाम्भोजमन्दारसारप्रसादात् तथा पत्तनाच्छीगुरूणामिहाऽऽदेशरत्नं गृहीत्वा विहृत्याऽनुसत्सार्थयोगेन सार्द्ध वरात्काणके पार्श्वनाथं च जूत्कृत्य वैशाखमासे द्वितीये नवम्यह्नि साडम्बरं सन्मुहूर्तेऽहमत्राऽऽजगामाऽऽशु सङ्घोपि सर्वो भगवन्नामतः प्रापितो धर्मलाभं जहर्ष प्रकर्षं ततः प्रातरुत्थाय सङ्घाग्रतः श्रीविपाकश्रुते वाच्यमाने पुनर्हर्षनन्देमुने में घनाम्न: क्रमाद् बाणरुद्रादिकृष्णां हि पक्षाभिधाने तपस्यद् भुते वाह्य माने प्रतिक्रान्तिसामायिकाहत्पदा दिसद्धर्मकार्ये विशेषेण सद्भव्यवर्गो भृशं प्रेर्यमाणे विनेयस्य सत्सप्तमाले पुनः पाठ्यमाने सति श्रीमहापर्वराजाधिराजः समागात्तदोत्पन्नरङ्गद्विवेकातिरेकेण सन्मन्त्रिसग्राममल्लेन भास्वत्कनीयः समर्थो न सद्धर्मशालां समागत्य सङ्यस्य सम्यक् समक्षं क्षमाश्रान्तिपूर्वं स्फुटं कल्पपुस्तं प्रशस्तं समादाय सायं निजायां मुदा मन्दिरायां स्फुरच्चन्दिरायां समानीय कृत्वा निशाजागरां सुन्दरां देवगुर्वादिगीतादिगानैः सुदानैः प्रगे सर्वसचं समाकार्य वर्यातिविस्फारकश्मीरजन्मच्छटाच्छोटपूगीफल- प्रौढसन्नालिकेरादिदानैः सत्कृत्य शृङ्गारितेभकुम्भस्थलारूढरङ्ग-त्कुमारस्फुरत्पञ्चशाखाम्बुजे स्थापयित्वा महापञ्चशब्दादिवाजिवनिर्घोषपोषं त्रिके चत्वरे राजमार्गे चतुष्के भृशं भ्रामयित्वा मदीये शयाम्भोजयुग्मे प्रदत्तं ततः सङ्घवाचा मया वाचितं ब्रह्मगुप्तिप्रमाणाभिरामाभिर्वरं वाचनाभिः प्रभावाभिरम्याभिरानन्दतः पुस्तकग्राहिणैवाड-ऽक्षिवेदश्रुतीनामिहाऽन्तर्बहिस्ताच्च सम्यग्दृशां पौषधग्राहिपुंसां कसत्कुण्डलाकारपक्वान्नसन्मोदकैः पारणा भीमसंसारकान्तारभीवारणादायि दानं धनं दत्तमाशीलिशीलं तपस्तप्तमष्टाह्निकापक्षमुख्यं पुनर्भावनाभावितेत्यादि सद्धर्मरीत्या समाराधितं श्रीमहापर्व सर्वं कृतार्थं कृतं मानवं जन्म मे, तत्पुनस्तातपादैरपि स्वीयपर्वस्वरूपं निरूप्यं, महामन्त्रिराड् भागचन्द्रः सदारङ्गजी भाणजी राघवो वेणिदासोऽपि वाघा च वीरम्मदे सामलो राजसी ईश्वरो मन्त्रिहम्मीरखङ्गारसत्कादि भोजू अमीपाल तेजा समू उग्रमुख्यः पुरान्तश्च मेहाजलः सिद्धराजश्च रेखा सुरत्राण सद्वीरपाला नृपालस्तथा राजमल्लोपि पीथादिकः सर्वसङ्घः सदा वन्दते पूज्यपादान् महादण्डकः / 4 / 999 / श्रीः श्रीः श्रीः [अनुसंधान अंक-३५] 000 लेख संग्रह 107 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर रचित अष्टलक्षी : एक परिचय सरस्वतीलब्धप्रसाद महोपाध्याय कविवर समयसुन्दर के नाम से कौन अपरिचित होगा? १७वीं शती के उद्भट विद्वानों में इनकी गणना की जाती है। ये न केवल जैनागम, जैन साहित्य और स्तोत्र साहित्य के ही धुरन्धर विद्वान थे, अपितु व्याकरण, अनेकार्थी साहित्य, लक्षण, छंद, ज्योतिष, पादपूर्ति साहित्य, चार्चिक, सैद्धान्तिक, रास साहित्य और गीति साहित्य के भी धुरन्धर विद्वान थे। राजस्थान में इनके लिये यह उक्ति प्रसिद्ध है - महाराणा कुम्भा रा भीतड़ा अर समयसुन्दर रा गीतड़ा। . कविवर सम्राट अकबर प्रतिबोधक और तत्प्रदत्त युगप्रधान पदधारक श्री जिनचन्दसूरिंजी के प्रथम . शिष्य श्री सकलचन्द्र गणिजी के शिष्य थे। कवि का जन्म विक्रम संवत् 1610 के लगभग सांचोर में हुआ था। ये प्राग्वाट् जाति के थे और इनके माता-पिता का नाम लीलादेवी और रूपसी था। विक्रम संवत् 1628-30 के मध्य में इनकी दीक्षा हुई होगी। इनकी शिक्षा-दीक्षा वाचक महिमराज (श्रीजिनसिंहसूरि) और समयराजोपाध्याय के सान्निध्य में हुई थी। इनका स्वर्गवास विक्रम संवत् 1703 चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन अहमदाबाद में हुआ था। इनकी विशाल शिष्य-प्रशिष्य परम्परा भी २०वीं शताब्दी तक विद्यमान थी। . कविवर को गणिपद गणनायक श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने ही विक्रम संवत् 1641 में प्रदान कर दिया : था। सम्राट अकबर को अपनी धर्मदेशना से प्रतिबोध देने के लिए जब आचार्य जिनचन्द्रसूरि लाहौर पधारे थे उस समय समयसुन्दरगणि भी साथ में थे। सम्राट अकबर ने जब श्री जिनचन्द्रसूरि को युगप्रधान पद और वाचक महिमराज (जिनसिंहसूरि) को आचार्य पद दिया था, उस समय महामंत्री कर्मचन्द बच्छावत कृत संस्मरणीय महोत्सव के समय ही जिनचन्द्रसूरिजी ने अपने करकमलों से समयसुन्दर को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया था। पूर्ववर्ती कवियों द्वारा सर्जित द्विसन्धान, पञ्चसन्धान, चतुर्विंशति सन्धान, शतार्थी, सहस्रार्थी कृतियाँ तो प्राप्त होती हैं जो कि उन कवियों के अप्रतिम वैदुष्य को प्रकट करती हैं, किन्तु समयसुन्दर ने 'एगस्स सुत्तस्स अणंतो अत्थो' को प्रमाणित करने के लिए 'राजानो ददते सौख्यम्' इस पंक्ति के प्रत्येक अक्षर के व्याकरण और अनेकार्थी कोषों के माध्यम से 1-1 लाख अर्थ कर जो अष्टलक्षी / अर्थरत्नावली ग्रन्थ का निर्माण किया, वह तो वास्तव में इनकी बेजोड़ अमर कृति है। समस्त भारतीय साहित्य में ही नहीं अपितु विश्वसाहित्य में भी इस कोटि की अन्य कोई रचना प्राप्त नहीं हैं। 'राजानो ददते सौख्यम्' पद के प्रत्येक अक्षर के लाखों अर्थ करने के लक्ष्य / प्रयोग को ध्यान में रखकर कवि ने अनेक ग्रन्थों एवं ग्रन्थकारों का उल्लेख करते हुए उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। जिनमें से उल्लेखनीय कतिपय नाम इस प्रकार हैं: __ जैनागमों में - आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक सूत्र बृहद्वृत्ति, स्थानांग सूत्र, जयसुन्दरसूरि कृत शतार्थी; पुराणों में - स्कन्धपुराण, महाभारत ; व्याकरण ग्रन्थों में - सिद्धहेम शब्दानुशासन - बृहन्न्यास - लेख संग्रह 108 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वृत्ति - सारोद्धारकक्षपुट, पाणिनीय धातुपाठ, अव्ययवृत्ति व्याख्या, कालापक व्याकरण, सारस्वत व्याकरण, विष्णुवार्तिक; लक्षण ग्रन्थों में काव्यप्रकाश, रुद्रटालङ्कार टीका, वाग्भटालङ्कार, काव्यकल्पलता वृत्ति; काव्य ग्रन्थों में - नैषध काव्य, कुमार संभव काव्य, मेघदूत काव्य, खण्डप्रशस्ति, चम्पू कथा, नीतिशतक; कोष ग्रन्थों में - अमरकोष, अभिधान चिंतामणि नाममाला, धनञ्जय नाममाला; एकाक्षरी एवं अनेकार्थी कोषों में - अनेकार्थ संग्रह, विश्वशम्भु नाममाला, सुधाकलशीय एकाक्षरी नाममाला, अनेकार्थ तिलक, कालिदासीय एकाक्षरी नाममाला, वररुचिकृत एकाक्षर निघण्टु; ज्योतिष में रत्नकोष आदि अनेक ग्रन्थों के उदाहरण दिये हैं। ___इस ग्रन्थ के रचना प्रसंग के सम्बन्ध में कवि ने स्वयं लिखा है : - सं. 1649 श्रावण सुदि 13 पातिशाह अकबर ने काश्मीर विजय करने के उद्देश्य से प्रयाण किया। पहले दिन का डेरा राजा रामदास के बगीचे में डाला। उसी दिन संध्या के समय जहांगीर, सामन्त, मण्डलीक राजागण तथा व्याकरण एवं तर्कशास्त्र के विद्वानों की उपस्थिति में सम्राट अकबर ने युगप्रधान खरतरगच्छाचार्य जिनचन्द्रसूरि को जिनसिंहसूरि आदि प्रमुख शिष्यवृन्द के साथ बड़े सम्मान के साथ बुलाकर यह अष्टलक्षी ग्रन्थ मेरे (समयसुन्दर) से दत्तचित्त होकर सुना। यह ग्रन्थ सुनकर पातिशाह अकबर हर्ष से विभोर एवं गद्गद होकर इसकी अत्यन्त प्रशंसा करते हुए कहा कि - इस ग्रन्थ का पठन-पाठन सर्वत्र विस्तृत हो। ऐसा कहकर यह ग्रन्थ स्वयं के हाथ में लेकर मुझे प्रदान कर इस ग्रन्थ को प्रमाणीकृत किया। इस ग्रन्थ का रचना स्वरूप इस प्रकार है : प्रणाली - मंगलाचरण में सूर्य एवं ब्राह्मी देवता को नमस्कार किया है. 1,004 - राजा नो, राजा आनो, रा अज अ अ नः, रा अजा नो, राज आ नो राजाना उ. राजाव् नो राजाय नो, ऋ आजा नो इस प्रकार राजानो शब्द के अर्थ किये हैं। 875 - राजा के 'अ' को संबोधन बनाकर नो दद अनोदद आनोदद पद के 875 अर्थ किये हैं। .3,420 - 'दद' शब्द को संबोधन बनाकर 'ददादद' पद के 3420 अर्थ किये हैं। इस प्रकार 875 और 3420 अर्थ कुल 4295 अर्थ नोदद के होते हैं। - पश्चात् 'ते' शब्द को तृतीया, चतुर्थी, प्रथमा, पंचमी, पष्ठी विभक्त्यर्थ ग्रहण किया है। अर्थात् . .. 4295 अर्थों के 'ते' की प्रत्येक विभक्ति से पांच वार गुणित करने पर 21,475 अर्थ हो जाते हैं। 21,475 - साथ ही यह भी संकेत किया है कि राजन् शब्द के यक्षवाचक और सूर्यवाचक अर्थ भी किये जाए। 70 - पुनः प्रकारान्तर से 'दद' शब्द को दानदायक अर्थ में नज् समास पूर्वक 70 अर्थ किये हैं। 57 - पुनः केवल 'द' शब्द के 57 अर्थ किये हैं। इसके पश्चात् लेखक का कथन है कि दानदायक 'दद' पद के केवल न समास पूर्वक जो 70 अर्थ हैं, उस प्रत्येक एक अर्थ को 'द' शब्द के 57 अर्थों में प्रयुक्त करे। अर्थात् 70 को 57 से गुणित करने पर 3990 अर्थ होते हैं। इनके साथ शुद्ध दानदायक 'दद' के 70 अर्थ स्वतंत्र रूप से सम्मिलित करने पर कुल 4060 अर्थ होते हैं। 25,535 - इस प्रकार 'नोदद' 'अनोदद' 'आनोदद' तथा 'ददादद' के 21,475 अर्थों के साथ 'दद' 'द' के 4060 अर्थ मिलाने पर कुल 25,535 अर्थ हो जाते हैं। - लेख संग्रह 109 4,060 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 - 2,55,350 सौख्यं पद के 10 अर्थ हैं। प्रत्येक अर्थ को 25575 के साथ संयुक्त करने पर अर्थात् दश गुणित करने पर कुल अर्थ 2,55,350 अर्थ हो जाते हैं। 2 - 5,10,700 पश्चात् 2,55,350 अर्थों को नञ् समासपूर्वक करने पर अर्थात् सुख शब्द दुःखार्थ में परिणत हो जाता है। सौख्यं - असौख्यं अर्थ होने पर द्विगुणित हो जाते हैं अतः कुल अर्थ 5,10,700 हो जाते हैं। 2 - इन अर्थों को काकूक्ति के अर्थ में ग्रहण करने पर द्विगुणित हो जाने से 10,21,400 10,21,400 अर्थ हो जाते हैं। 6 - पुनः ग्रन्थकार ने श्रृंखला नाम प्रश्नोत्तर जाति भेद से राजा जानो नोद दद दते ते असौ सौखी अग् पदार्थ से 6 अर्थ किये हैं। 10,21,406 1,000 - यहाँ कवि ने निर्देश दिया है कि प्रारंभ में जो राजानो शब्द के 1000 (वस्तुतः 1004 अर्थ . हैं) अर्थ इसमें सम्मिलित किये जाएँ। 10,22,406 1 - अन्त में एक अर्थ अकबर का किया है वह इस प्रकार है: राजा के र अ अज अ आ खण्ड कर र - श्री (पंक्तिरथ न्याय से) अ - अ. अज - क (ब्रह्म का पर्याय) अ - ब (वायु का पर्याय व बवयोः ग्रहण कर) आ - र (अग्नि का पर्याय) इस तरह राजा शब्द का अर्थ श्रीअकबर बनता है। 10,22,407 अन्त में कवि का कथन है कि 2,25,407 अर्थ जो अधिक हैं, ये अर्थ अष्टलक्षी में कहीं संभव नहीं हों, अथवा अर्थयोजना से मेल न खाते हों अतः इतने अर्थों का परित्याग कर देने पर 8,00,000 अर्थ अविघट एवं अविसंवादी रूप से शेष रहते हैं। सम्राट अकबर की प्रशंसा करते हुए कवि कहता है कि न्यायी होने से प्रजा को सुखदायक है, परम कृपाशील है, तीर्थस्थानों का करमोचक है, षड्दर्शनियों का सम्मान करने वाला है, शत्रुजयादि महातीर्थों की रक्षा करने वाला है, जैन आदि समस्त धर्मों का भक्त है तथा सब लोगों का मान्य है। इस प्रकार गद्य में कहकर 8 श्लोकों में अकबर की गौरव प्रशस्ति दी है। 'राजानो ददते सौख्यम्' पद की टीका होने के कारण कवि ने इस वृत्ति का नाम अर्थरत्नावली वृत्ति दिया है। इस पद्यांश के आठ लाख अर्थ होने के कारण इसका प्रसिद्ध नाम अष्टलक्षार्थी भी है। 110 लेख संग्रह Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि ने इसके पश्चात् 33 श्लोकों की विस्तृत रचना-प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा दी है। ... इस ग्रन्थ को डॉ० हीरालाल रसिकदास कापड़िया ने सम्पादित कर अनेकार्थरत्नमञ्जूषा में विस्तृत भूमिका के साथ प्रकाशित किया है। यह ग्रन्थ श्रेष्ठि देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था सूरत की ओर से ईस्वी सन् 1933 में प्रकाशित हुआ है। सम्पादक ने रचना-प्रशस्ति पद्य 32 में श्रीविक्रमनृपवर्षात्, समये रसजलधिरागसोम (1646) मिते 4 में रस शब्द को मधुरादि षड्रस मानकर छ: की संख्या दी है जबकि यहाँ रस शब्द से शृङ्गारादि नवरसाः नौ अंक का ग्रहण किया जाना उपयुक्त है, क्योंकि प्रशस्ति पद्य 24-25 के अनुसार सम्राट अकबर ने जिनचन्द्रसूरि को युगप्रधान पद 1649 में ही दिया था। इसी ग्रन्थ के पृष्ठ 65 तथा १५वीं पंक्ति में संवत् 1649 स्पष्ट लिखा है। अतः स्पष्ट है कि ग्रन्थ की रचना 1649 श्रावण शुक्ला त्रयोदशी के पूर्व हुई है और प्रशस्ति की रचना 7 मास के पश्चात्। ' इस पुस्तक का प्रथम संस्करण सन् 1933 में प्रकाशित हुआ था जो आज अप्राप्त है। श्रुतज्ञ विद्वानों के अध्ययन, पठन-पाठन एवं वैदुष्य प्राप्ति के लिए इस ग्रन्थ की महती उपयोगिता है, अतः साहित्यिक संस्थानों से मेरा अनुरोध है कि इसका सम्पादित द्वितीय संस्करण शीघ्र ही प्रकाशित करें। टिप्पणी:-. 1. कवि के विशेष परिचय के लिए देखें - महोपाध्याय विनयसागरः महोपाध्याय समयसुन्दर 2. अनेकार्थरत्नमंजूषा पृष्ठ 65 वही, पृष्ठ 67 . 4... वही, पृष्ठ 70 [अनुसंधान अंक-३६] 000 लेख संग्रह 111 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महो० भानुचन्द्रगणि रचित एक नूतन ग्रन्थ कोटा से बंबई प्रवास करते हुए मार्ग में यह नूतन कृति मुझे प्राप्त हुई। इस पुस्तक का नाम है नामकोष, टीका - इसके प्रणेता हैं महोपाध्याय भानुचन्द्रगणि, जो तपागच्छीय सूरचन्द्रगणि के शिष्य थे। ये वे ही भानुचन्द्रगणि हैं जो सम्राट अकबर की राजसभा के रत्न थे और जिन्होंने अपने उपदेशों से शत्रुञ्जय तीर्थ का करमोचन कराया था। अतः लेखक के परिचय के बारे में कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है। लेखक स्वयं अपनी परम्परा प्रशस्ति में इस प्रकार वर्णित करते हैं: भूरयः सूरयोऽभूवंस्तपोगणनभोङ्गणे। साम्प्रतं साम्प्रतं जज्ञे, श्रीहीरोहर्मणिप्रभः॥ 1 // . .. कलिन्दिकाकमलिनीसमुल्लासनभानुमान् / श्रीमान् विजयसेनाख्यस्तत्पट्टे प्रथितोऽस्ति सः॥ 2 // श्रीमद्विजयदेवाख्यः, तत्पट्टामृतसूः समः। राजन्ते साम्प्रतं सम्यक्, साधुमार्गप्रवर्तकः॥ 3 // सम्प्रदाये तदीयेऽस्मिन्, जज्ञे हानर्षि उत्तमः। यो लुम्पाकमतं त्यक्त्वा, तपापक्षमशिश्रयत् // 4 // तदन्ते निलयी श्रीमान्, वाचको विश्वविश्रुतः। श्रीमत्सकलचन्द्राख्यो, जज्ञे वैराग्यजन्मभूः॥५॥ तच्छिष्यो सूरचन्द्राह्वः, समभूत् कविपुङ्गव। विद्वद्वन्दगजेन्द्राणां, मर्दने हरिविक्रमः॥ 6 // तच्छिष्यो भानुचन्द्रेण, वाचकेन विपश्चिता। नामचिन्तामणि म निर्णीतिर्निर्मिता मिता // 7 // लेखक ने प्रत्येक काण्ड के अन्त में इस प्रकार की पुष्पिका भी प्रदान की है:-, . 'श्रीशत्रुञ्जयकरमोचनादिसुकृतकारि-महोपाध्याय-श्रीभानुः। चन्द्रगणिविरचिते विविक्तनामसङ्ग..............समाप्तः।' इस पुष्पिका से ऐसा प्रतीत होता है कि 'विविक्तनामसंग्रह' नामक कोई नूतन कोष की लेखक ने रचना की हो, किन्तु आलोडन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि यह नूतन कोष नहीं है, परन्तु आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत 'अभिधानचिन्तामणिनाममाला' नामक कोष की टिप्पणात्मक टीका मात्र है, और यही वस्तु स्वयं लेखक प्रशस्ति में स्वीकार करते हैं:- "नामचिन्तामणि म निर्णीतिर्निर्मिता मिता।" अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि यह स्वतन्त्र कोष न होकर टीका ही है। ___ इस टीका में हमें लेखक की प्रौढ़ प्रतिभा के दर्शन यत्किञ्चित् भी प्राप्त नहीं होते। इसमें लेखक केवल गद्य में पृथक्-पृथक् 'विविक्त' नाम लिखकर यत्र-तत्र लिंगों का निर्णय करते हुए अग्रसर दिखाई पड़ते हैं। उदाहरण के स्वरूप में द्वितीयकाण्ड प्रथम थोक टीका ही देखिये - स्वर्गस्त्रिविष्टपं द्योदिवौ भुवि तविषताविषौ नाकः। __गौस्त्रिदिवमूर्ध्वलोकः सुरालय...................॥ [टी.] 'स्वर्ग' इति स्वर्गः, त्रिविष्टपं द्यौः ओकारान्त द्योशब्दः द्यौः वकारान्तो दिवशब्दः, एतस्यापि . प्रथमैकवचने द्यौरिति रूपम्। भुवि-स्त्रीलिङ्गः, तविषः ताविषः नाक: गौः ओकारान्तो गोशब्दः स्त्रीपुंसलिङ्ग, त्रिदिवं-पुंक्लीबलिङ्गः, ऊर्ध्वलोकः सुरालयः स्वरव्ययेषु वक्ष्यते। 112 लेख संग्रह Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . इस 'पद्धति' को देखते हुए यह निश्चित कहा जा सकता है कि यह टीका विद्वद्भोग्या नहीं है किन्तु बालाबोध स्वरूपा ही है। प्रशस्ति में लेखक ने रचना संवत् का उल्लेख नहीं किया है किन्तु " श्रीमद्विजयदेवाख्यः..... * साम्प्रतं राजन्ते।" उल्लेख से यह निश्चित है कि सं. 1672 के पश्चात् की यह रचना है। प्रस्तुत प्रति के 124 पत्र हैं और अनुमानतः १८वीं शती के पूर्वार्ध में लिखित है। पुस्तक मेरे संग्रह में ही है। [श्री जैन सत्यप्रकाश, वर्ष-१९, अंक-१२] 000 लेख संग्रह 113 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभोपाध्याय प्रणीता मातृका-श्लोकमाला स्वर एवं व्यंजनों पर आधारित अक्षर ही अक्षरमय जगत है। सारी सृष्टि ही अक्षरमय है। यही अक्षर मातृका, अक्षरमाला, वर्णमाला और भाषा में बारहखड़ी इत्यादि शब्दों से अभिहित है। स्वर 16 माने गये हैं - अ, आ, इ, ई, उ, ऋ, ऋ, लु, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: और व्यंजन 33 माने गये हैं:- क्, ख्, ग, घ, ङ्, च्, छ्, ज्, झ, ञ्, ट, ठ, ड्, ढ, ण, त्, थ्, द्, ध्, न्, प्, फ्, ब्, भ्, म्, य, र, ल, व, श्, ष्, स्, ह तथा संयुक्ताक्षर अनेक होते हुए भी तीन ही ग्रहण किये जाते है :- क्ष्, , , ये ही अक्षर संयुक्त होकर बीजाक्षर मंत्र भी कहलाते हैं। वर्तमान समय में हिन्दी भाषा लिपि में टंकण एवं मुद्रण आदि की . . सुविधा की दृष्टि से ऋ, लु, लू, इन तीनों वर्गों का प्रयोग दृष्टिगोचर नहीं होता है। मातृका से सम्बन्धित संस्कृत भाषा में रचित जैन लेखकों की कुछ ही कृतियाँ प्राप्त होती हैं, जिनमें आचार्य सिद्धसेन रचित सिद्धमातृका सर्वोत्तम कृति है। श्री श्रीवल्लभोपाध्याय प्रणीत मातृकाश्लोक-माला भी इसी परम्परा की रचना है। कवि परिचय - खरतरगच्छीय प्रथम श्री जिनराजसूरि के शिष्य प्रसिद्ध विद्वान जयसागरोपाध्याय की परम्परा में श्रीवल्लभोपाध्याय हुए हैं। जयसागरोपाध्याय श्रीजिनभद्रसूरि की आज्ञा में सम्मिलित हो गये थे अतः जिनभद्रसूरि की परम्परा में माने जाते हैं। जयसागरोपाध्याय के भाई दरड़ा गोत्रीय मांडलिक ने आबू स्थित खरतरवसही का निर्माण करवाया था और उसकी प्रतिष्ठा वि० सं० 1515 आषाढ़ बदी 1 को श्री जिनभद्रसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने करवाई थी। जयसागरोपाध्याय की शिष्यसंतति में उपाध्याय रत्नचन्द्र , उपाध्याय भक्तिलाभ, उपाध्याय चारित्रसार > उपाध्याय भानुमेरु > उपाध्याय ज्ञानविमल के शिष्य श्रीवल्लभ थे। ज्ञानविमलोपाध्याय भी व्याकरण, कोश-अनेकार्थी एवं साहित्य के उद्भट विद्वान् थे। इनके द्वारा निर्मित महेश्वर कवि के शब्दप्रभेद पर टीका' प्राप्त होती है। इस टीका की रचना वि०सं० 1654 में बीकानेर में हुई थी। श्रीवल्लभ के टीका-ग्रंथों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है ये राजस्थान प्रदेश के निवासी थे। श्रीवल्लभ की 'वल्लभनंदी' को देखते हुए 1630 एवं 1640 के मध्य में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने इनको दीक्षित किया होगा। इनकी प्रथम कृति शिलोञ्छनाममाला-टीका सम्वत् 1654 की है। वि०सं० 1655 में रचित ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी में इनके नाम के साथ 'गणि' पद का प्रयोग मिलता है और 1661 में रचित कृतियों में वाचनाचार्य पद का उल्लेख भी मिलता है। संघपति शिवासोमजी द्वारा शत्रुजय तीर्थ में निर्मापित चौमुखजी की ढूंक (खरतरवसही की प्रतिष्ठा सम्वत् 1675 में हुई थी।) इस प्रतिष्ठा में श्रीवल्लभ . सम्मिलित थे। विजयदेव महात्म्य की रचना सम्वत् 1687 के आस-पास हुई थी। अत: इनका साहित्यसृजन काल 1654 से 1687 तक माना जा सकता है। 114 लेख संग्रह Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनकी रचनाओं को देखते हुए यह स्पष्ट है कि श्रीवल्लभ महाकवि थे, उद्भट वैयाकरणी थे, प्रौढ़ साहित्यकार थे और अनेकार्थादि-कोशों के साधिकृत विद्वान थे। इनके द्वारा निर्मित साहित्य इस प्रकार मौलिक ग्रंथ 1. विजयदेवमाहात्म्य-महाकाव्य, रचना-समय अनुमानतः 1687 2. अरजिनस्तव (सहस्रदलकमलगर्भितचित्रकाव्य) स्वोपज्ञटीका-सहित, रचना-समय 1655 और 1670 का मध्य विद्वत्प्रबोध स्वोपज्ञ टीका सहित - रचना-समय संभवतः 1655 और 1660 के मध्य, रचनास्थान बलभद्रपुर (बालोतरा) संघपति रूपजी-वंश-प्रशस्ति-काव्य र० सं० 1675 के बाद 5. मातृकाश्लोकमाला, र० सं० 1655, बीकानेर 6. चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थला 7. ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी', र० सं० 1655, विक्रमनगर (बीकानेर) 8. खरतर पद नवार्थी टीका ग्रंथ 1. शिलोञ्छनाममाला-टीका', र० सं० 1654, नागपुर (नागौर) 2. शेषसंग्रहनाममाला दीपिका, र० सं० 1654, बीकानेर 3. अभिधानचिन्तामणिनाममाला - 'सारोद्धार'-टीका, र० सं० 1667, जोधपुर निघण्टुशेषनाममाला टीका", र० सं० 1667 के पूर्व . .. 5. सिद्धहेमशब्दानुशासन. टीका 6. हैमलिंगानुशासन - दुर्गपदप्रबोधवृत्ति, र०सं० 1661, जोधपुर 7. सारस्वतप्रयोगनिर्णय (1674 से 1690) 8.. 'केशाः' पदव्याख्या 2 9. विदग्धमुखमण्डन टीका 10. अजितनाथ स्तुति टीका३, र० सं० 1669, जोधपुर 11. शान्तिनाथविषमार्थस्तुति टीका 12. 'खचरानन पश्य सखे खचर' पद्यस्य अर्थत्रिकम् 13. 'यामाता' पद्यस्य अर्थपञ्चकम्१६ भाषा की लघु कृति 1. चतुर्दशगुणस्थान-स्वाध्याय 2. स्थूलभद्र इकत्रीसा गच्छ-संघर्ष-युग में भी स्वयं खरतरगच्छ के होते हुए तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य विजयदेवसूरि के गुण-गौरव को सम्मान के साथ अंकित करते हुए विजयदेव महात्म्य की रचना करना कवि के उदार लेख संग्रह 115 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि का परिचायक है। अरजिनस्तव को देखने से स्पष्ट है कि कवि चित्रकाव्यों का अद्भुत मर्मज्ञ था। इस कृति में कवि ने कमल के मध्य में 1000 रकार का प्रयोग करते हुए अपना विशिष्ट चित्रकाव्य कौशल दिखाया है। प्रस्तुत कृति का सारांश - ___ यह कृति दो परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम परिच्छेद में 24 तीर्थंकरों का वर्णन किया गया है और द्वितीय परिच्छेद में त्रिदेव आदि देवताओं तथा पदार्थों का वर्णन किया गया है। अंत में छः पद्यों में रचनाप्रशस्ति देते हुए इसकी रचना का समय दिया है। प्रथम परिच्छेद के प्रथम श्लोक में भगवान शांतिनाथ को प्रणाम कर विद्वानों के बुद्धि रूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य के समान और काव्य-कला में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करने के लिए मातृकाश्लोक-माला रचना की प्रतिज्ञा की है। दूसरे पद्य में कहा गया है कि प्रथम परिच्छेद में 24 तीर्थंकरों का वर्णन करूँगा और दूसरे परिच्छेद में भिन्न-भिन्न पदार्थों का वर्णन करूँगा। तीसरे पद्य में अकार में अर्हत् जिनेश्वर का वर्णन कर पद्य 4 से 27 तक आकार से लेकर झ व्यंजन तक भगवान् आदिनाथ से प्रारम्भ कर भगवान् महावीरपर्यन्त 24 जिनेश्वरों का वर्णन किया गया है। दूसरे परिच्छेद में ञ से प्रारम्भ कर ह ल्ल और क्ष व्यंजनाक्षर का प्रयोग करते हुए 26 पद्यों में विष्णु, शिव, ब्रह्मा, कार्तिकेय, गणेश, सूर्य, चन्द्र, दिग्पाल, इन्द्र, शेषशायी, विष्णु, मुनिपति, राम लक्ष्मण, समुद्र, जिनेश्वर एवं तीर्थंकर आदि को लक्ष्य बना कर रचना की गई है। . इस कृति का यह वैशिष्ट्य है कि प्रत्येक पद्य के चारों चरणों में प्रथमाक्षर में उसी स्वर अथवा .. व्यंजन का प्रयोग सालंकारिक भाषा में किया गया है। कवि ने व्यंजनाक्षरों में त्र और ज्ञ का प्रयोग नहीं किया है। इसके स्थान पर ल्ल और क्ष का प्रयोग किया है। यह ळ डिंगल का या मराठी का है अथवा अन्य किसी का वाचक है, निर्णय अपेक्षित है। छन्दः कौशल - इस लघु कृति में विविध छन्दों का प्रयोग करने से यह स्पष्ट है कि कवि का छन्दःशास्त्र पर भी पूर्ण अधिकार था। इस कृति में निग्न छन्दों का प्रयोग हुआ है:प्रथम परिच्छेद - शार्दूलविक्रीडित 1, अनुष्टुप् 2, उपेन्द्रवज्रा 3,4,7,9, इन्द्रवज्रा 4, 6, 8, 10, 12, 13, 14, 15, 16, 24, 25, 27, मालिनी 11, 21, दोधक 17, 18, 23, सुन्दरी (हरिणप्लुता) 19, 20, 26, स्वागता 22 / द्वितीय परिच्छेद - उपेन्द्रवज्रा 1, 3, 6, 17, 23, इन्द्रवज्रा 2, 5, 8, 9, 18, 23, 25, 26, सुन्दरी (हरिणप्लुता) 7, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 20, 24, मालिनी, 19, 21, वसन्ततिलका - इन्द्रवज्रा 4 (यहाँ कवि ने प्रथम चरण वसन्ततिलका का दिया है, और शेष तीनों चरण इन्द्रवज्रा में दिये हैं।) रचना प्रशस्ति - आर्याछन्द 1, 2, 4, 5, अनुष्टुप् 3, 6 116 लेख संग्रह Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त लिखित प्रति ___ श्री लालभाई दलपतभाई, भारतीय संस्कृत विद्या मंदिर, अहमदाबाद मुनिश्री पुण्यविजयजी के संग्रह में ग्रंथांक 2888 पर सुरक्षित है। आकार - 2642411 से०मी० है। पत्र 2, पंक्ति 15, अक्षर 48 है। प्रति टिप्पण सहित शुद्धतम है। लेखनकाल नहीं दिया है किन्तु लिपि और कागज को देखते हुए १७वीं शताब्दी में रचना-काल के आस-पास ही लिखी गई है। [अनुसंधान अंक-२६] 000 1. शब्द प्रभेद टीका की पाठान्तरों एवं परिशिष्टों सहित मेरे द्वारा तैयार की गई प्रेस कॉपी मेरे पास 2. मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादित होकर जैन साहित्य संशोधक समिति, अहमदाबाद से सन् 1928 में प्रकाशित मेरे द्वारा सम्पादित होकर विस्तृत भूमिका के साथ सुमति सदन, कोटा से सन् 1953 में प्रकाशित महावीर स्तोत्र संग्रह पुस्तक में जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार सूरत से प्रकाशित मेरे द्वारा सम्पादित होकर राजस्थान राज्य विद्या प्रतिष्ठान सन् 1953, मेरे द्वारा प्रकाशित मेरे द्वारा सम्पादित होकर लालभाई दलपतभाई भारतीय विद्या संस्कृत मंदिर, अहमदाबाद से सन् 1974 में प्रकाशित लालभाई दलपतभाई भारतीय विद्या संस्कृत मंदिर, अहमदाबाद से सन् 1974 में प्रकाशित अमीसोम जैन ग्रंथ नाममाला, बम्बई द्वारा सन् 1940 में प्रकाशित 6,7,8, 12, 13, 14, 15, 16, 17 प्रेस कॉपी मेरे संग्रह में। 10. 11. लेख संग्रह 117 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रीवल्लभोपाध्याय-प्रणीतम् श्री पार्श्वनाथस्तोत्रद्वयम् अनुसंधान, अंक 26 (दिसम्बर 2003) में वाचक श्रीवल्लभोपाध्याय रचित 'मातृका-श्लोकमाला' . के परिचय में श्रीवल्लभजी के व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त परिचय दिया है। इनकी कृतियों का विशेष परिचय 'अरजिनस्तवः' (सहस्रदल कमल गर्भित चित्रकाव्य) की भूमिका और 'हैमनाममालाशिलोञ्छ:' की भूमिका में मैंने दिया है। श्रीवल्लभोपाध्याय की साहित्य जगत को जो विशिष्ट देन रही है वह है कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य रचित लिंगानुशासन और कोशग्रन्थों की टीका करते हुए 'इतिभाषायां, इतिलोके' शब्द से संस्कृत शब्दों का राजस्थानी भाषा में किस प्रकार प्रयोग होता है, यह दिखाते हुए लगभग 4000 राजस्थानी शब्दों का संकलन किया है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। अन्य टीकाकारों ने इस प्रकार की पद्धति को नहीं अपनाया है। इनके द्वारा संकलित लगभग 4000 शब्दों का 'राजस्थानी संस्कृत शब्दकोश' के नाम से मैं सम्पादन कर रहा हूँ जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा। श्री वल्लभोपाध्याय द्वारा स्वयं लिखित दो प्रतियाँ अभी तक अवलोकन में आई हैं - 1. वि०सं० 1655 में लिखित महाराणा कुम्भकर्णकृत चण्डिशतक टीका सहित की प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर क्रमांक 17376 पर प्राप्त है और दूसरी स्वलिखित प्रति श्रीसुन्दरगणिकृत चतुर्विंशतिजिनस्तुतयः, की प्रति मेरे संग्रह में है। कवि, टीकाकार और स्वतंत्र लेखन के रूप में इनके ग्रन्थ प्राप्त थे, किन्तु इनके द्वारा रचित कोई भी स्तोत्र मेरे अवलोकन में नहीं आया था। संयोग से अन्वेषण करते हुए दो दुर्लभ स्तोत्र प्राप्त हुए हैं वे यहाँ दिये जा रहे हैं। इसकी हस्तलिखित प्रति का परिचय इस प्रकार है - श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भंडार, पाटण, श्री तपागच्छ भंडार, डाबडा.२४८, क्र० नं० 12357, पत्र 1, साइज 25.5 x 12 सी०एम०, पंक्ति 16, अक्षर 46, लेखन अनुमानतः १७वीं शताब्दी, रचना के तत्कालीन समय की लिखित यह शुद्ध प्रति है। 1. पार्श्वजिनस्तोत्र - यमकालंकार गर्भित है। इसके पद्य 14 हैं। 1 से 13 तक पद्य सुन्दरीछन्द में है और अन्तिम १४वाँ पद्य इन्द्रवज्रा छन्द में है। कवि ने प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरण में मध्ययमक का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए प्रथम पद्य देखिए - जिनवरेन्द्रवरेन्द्रकृतस्तुते, कुरु सुखानि सुखानिरनेनसः॥ भविजनस्य जनस्यदशर्मदः, प्रणतलोकतलोकभयापहः॥ 1 // 118 लेख संग्रह Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें प्रथम चरण में 'वरेन्द्र-वरेन्द्र', द्वितीय चरण में 'सुखानि सुखानि', तीसरे चरण में 'जनस्य जनस्य' और चौथे चरण में 'तलोक तलोक' की छटा दर्शनीय है। यही क्रम 13 श्लोकों में प्राप्त है। 2. तिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथस्तोत्र - यह समस्या-गर्भित स्तोत्र है। कवि ने तिमिरीपुर स्थान का उल्लेख किया है। यह तिमिरीपुर आज तिंवरी के नाम से प्रसिद्ध है जो जोधपुर से लगभग 25 किलोमीटर दूर है। यह समस्या--प्रधान होते हुए भी महाकवि तुलसीदास के जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे के अनुकरण पर कवि की भावाभिव्यक्ति है। प्रभु के प्रात:काल दर्शन करने पर निर्धन भी धनवान हो जाता है, मूक भी वाचाल हो जाता है, बधिर भी सुनने लगता है, पंगु भी नृत्य करने लगता है और कुरूप भी सौन्दर्यवान् हो जाता है। 12 श्लोक हैं / इसमें कवि ने वसंततिलका आदि 7 छन्दों का प्रयोग किया है। - अब दोनों स्तोत्रों का मूल पाठ प्रस्तुत है - श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् (सुन्दरीच्छन्दः) // 0 // ॐनमः॥ जिनवरेन्द्रवरेन्द्रकृतस्तुते, कुरु सुखानि सुखानिरनेनसः॥ 'भविजनस्य जनस्यदशर्मदः, प्रणतलोकतलोकभयापहः॥ 1 // अविकलं विकलङ्कमुनिः शिवं, विगतमो गतमोहभरः क्रियात् / विनयवन्ननयवन्नृभिरर्चितः प्रमददो मददोषमलोज्झितः॥ 2 // मुनिजने निजनेमियुजा मुदं, वितरतातरता च भवाम्बुधिम्। अविरतं विरतं स ददातु शं, शिवरमावरमापि हि येन वै॥ 3 // 'कलिकुमार्गकुमार्गमहामृग-द्विपरिपोऽपरिपो परमं पदम् / विवरमे वरमे चरणाम्बुजे, रतिमतोऽममतो महितस्तव // 4 // सुर गुरूपमरूपमनोहरै :, प्रवर धीभिरधीभिर संयुतै : / अभिनुतो भवतो भवतोऽवता-जिनवरोमररोमरकापहृत् // 5 // असुमतः सुमतः शुभतीर्थपः सुमहसोऽमहसोज्झितमाधुपः। विदितजातिरऽजातिरतिः श्रियं, वितनुतात्तनुतामलदीधितिः॥६॥ सकलमुत्कलमुत्पललोचनं, नमत तं मततन्त्रमगः प्रदम् / मुनिजना निजनायकमादरा-दसितरुक्सितरुक्करुणापरम् // 7 // सुकविराजिविराजितपर्षदा-श्रितमसंतमऽसंतमसंश्रिया। भजत मालतमाल समुद्युति-प्रचुरमर्त्यरमर्त्यपहं गुरुम्॥ 8 // भुजगचिह्न ममंदममंदकं , चतुर सादरसादर मानकम् / भृशममंदतमंदतरांहसं, वसुमती तमतीतरसं भजे // 9 // मुनिपते र मृतेर मृते शितु - श्चरणमक्षयमक्षयदं सदा अरितहन्तुरऽहन्तुरसाछ्ये, वितरसोदरसोदरसङ्गरे // 10 // भववृषाय वृषायतसंयमः, शुभवतो भवतो नवदो मम। सुखकृते खकृते विदितावधे, विमलधीमलधीरिमयुविभो ! // 11 // लेख संग्रह 119 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतनुभाऽतनुभा तनुभावुकं, वृजिनहृज्जिनहृत्कमलार्यमा। सततमाततमाननृपार्चितो, विजयदो जयदोहदपूरकः॥ 12 // सुमहितानि हितानि वचांसि यः, श्रुतिवशन्तवशंतनु पार्श्वराट् / नयति तस्यतितस्य च दुर्विशं, नरवरः स्तवरस्तमसोज्झितम्॥ 13 // (इन्द्रवज्रा छन्दः) इत्थं स्तुतो यो यमकस्तवेन, वामाङ्गजः पार्श्वजिनो जनानाम् / भूयाद्विभूत्यै विभुताप्रशस्तः, श्रीवल्लभेनार्चितपादपद्मः॥ 14 // इति श्रीपार्श्वनाथजिनं यमकमयं स्तोत्रं समाप्तम् / तिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् समस्यामयं श्रीपार्श्वनाथजिनपं तमहं स्तवीमि, दृष्ट वा यदीयवरधारिमवर्द्धनत्वम्। स्थूलोन्नतोऽपि जनमानसमुत्सुमेरुः, शैलो बिभर्ति परमाणुसमत्वमेषाम् // 1 // (वसन्ततिलकाछन्दः) . वामेय सर्वीयमहं स्मरामि, त्रैलोक्यलोकंपृणवर्ण्यवर्णम्। धर्मोपदेशावसरे यदास्य - चन्द्रो हि पृथ्व्यामुदितो विभाति // 2 // (इन्द्रवज्राछन्दः) यस्तर्हि पश्यति मुखं सुषमं प्रभाते, निःस्वोऽपि पार्श्वजिन! जायत इन्दुरौकाः। मूकः प्रजल्पति शृणोति च कर्णहीनः, पंगुश्च नृत्यति विभातितरां कुरूपः॥ 3 // (वसन्ततिलकाछन्दः) श्रीपार्श्वनाथः सततं करोतु, श्रेयांसि भूयांसि नताङ्गभाजाम्। यत्कीर्तिनक्षत्रलसत्तरङ्ग-र्देदीप्यते व्योमतले समुद्रः॥ 4 // (इन्द्रवज्राछन्दः). पार्श्वप्रभो! त्वं तिमिरीपुरीशं, ध्यायंश्चिरं घातिकुकर्महत्वा। , ज्ञानौषधं प्राप विलासि तस्मा-दन्धो जगत् पश्यति दर्शरात्रौ // 5 // (इन्द्रवज्राछन्दः) प्रणतः सततं कुरुते स्तवनं, महनं च यकस्तव देवनरः / कुशलं कमलामरुजं च शिवं, लभते लभते लभते लभते // 6 // (त्रोटकछन्दः) पापानि नाशय भवान्तरसञ्चितानि, स त्वं जिनेश रचयाशु च मङ्गलानि। यत्सद्विशुद्धयशसः स्फुरतस्त्रिलोक्यां, सोमश्चिरेण शुशुभे खलु नीलमूर्तिः॥ 7 // (वसंतलितकाछन्दः) प्रापूयते नम्रसुरेन्द्रमत्य - दिवस्पृथिव्योरथ पार्श्वनाथः / यदीयगाम्भीर्यगुणाग्रतो वै, दधाति सिन्धुः सुरभी पदाभाम्॥ 8 // (उपेन्द्रवज्राछन्दः) 120 लेख संग्रह Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरणमध्यासीनसन्नाष्टकर्मन्, प्रहतकुमतिमान त्वत्पदाभ्यर्चनार्थम् / जिनवर! सुरनागैरागते रागवद्भिः, शुभभुवि भुवि दृश्येते छुपाताललोकौ // 9 // (मालिनीच्छन्दः) स्वः सिन्धुपानीयसमानराज-धुष्मद्यशोमञ्जुलमण्डलाल्या। विस्तारवत्या नभसा तदात-र्देदीप्यते चन्द्र इवोष्णरश्मिः॥ 10 // (इन्द्रवज्राछन्दः) श्रीपार्श्वनाथस्स ददातु मङ्गलं, स्फूर्जद्यशोभिर्गुरुभिर्यदीयकैः। क्षीराम्बुनिध्यन्तरशुभ्रिमोपमै-र्देदीप्यते रूप्यनिभं हि कज्जलं // 11 // (इन्द्रवंशाछन्दः) इत्थं श्रीपार्श्वनाथः शमयमवितदुर्मन्मथो वल्गुमार्गे , मुक्ति श्रीपत्तनाप्तोर्भवतु भुवि विशां भावुकानां प्रदाता। स्फूर्जत्छ्रीपाठकज्ञानविमलसुगुरूपास्ति रक्तेन भक्त्या, धीमच्छ्रीवल्लभेन स्तुतकृतवचसा सत्समस्यास्तवेन // 12 // (स्रग्धराच्छन्दः) इति श्रीतिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथजिनराजप्रशस्य-समस्यास्तोत्रं समाप्तम् / कृतिरियं श्रीज्ञानविमलोपाध्यायमिश्राणां चरणसरसीरुहचञ्चरीकप्रकार वाचनाचार्यश्रीवल्लभगणीनामिति / श्रीरस्तुः॥ [अनुसंधान अंक-२८] लेख संग्रह 121 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय सहजकीर्ति अनुसंधान, अंक 23, सम्पादक - आचार्यश्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराज, प्रकाशक - कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद, पृष्ठ 4 से 8 में मुनि श्री भुवनचन्द्रजी का 'अठोतर सो नामें पार्श्वनाथ स्तोत्र', शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। भगवान् पार्श्वनाथ के 108 स्थानों के सम्बन्ध में इस लेख से अच्छी जानकारी मिलती है। सम्पादक ने इन भौगोलिक स्थानों के सम्बन्ध में भी कुछ जानकारी देने का प्रयत्न किया है। इस स्थानों में छवटन (चौहटन) और आसोप ये तो मारवाड़ में ही हैं। मरोट सिंध प्रान्त का भी ग्रहण कर सकते हैं। वैसे सांभर के पास भी मरोट है। कुकड़सर मेरे विचारानुसार कच्छ का न होकर कुकड़ेश्वर है जो कि मंदसोर के पास है, इसका ग्रहण किया जाना उपयुक्त है। जेसाण शब्द से जैसलमेर समझना चाहिए क्योंकि प्राचीन उल्लेख में जैसलमेर के स्थान पर जेसाणों का उल्लेख मिलता है। . इस रचनाकार के सम्बन्ध में सम्पादन ने लिखा है - "रचयिता श्री सहजकीर्तिनी बार जेटली कृतियाँ जै.गू.क.मां नोंधायेली छे. सं. 1661 मां एमणे सुदर्शन श्रेष्ठी रास रच्यो छे. स्तोत्र जेवा ज विषयनी अन्य कृति 'जेसलमेर चैत्यप्रवाडि' 1679 मां रचाई छे. प्रस्तुत कृति पण एमनी ज रचना होवानी पूरी संभावना छे." .. अर्थात् रचयिता श्री सहजकीर्ति की बारह जितनी कृतियाँ जैन गुर्जर कवियों में उल्लिखित है। सन् 1669 में इन्होंने सुदर्शन श्रेष्ठी रास की रचना की है। प्रस्तुत स्तोत्र जैसे विषय की अन्य कृति 'जैसलमेर चैत्य प्रवाडि' 1679 में रची गई है। प्रस्तुत कृति भी इन्हीं की रचना हो, ऐसी पूर्ण सम्भावना है। पाठकों को सहजकीर्ति के सम्बन्ध में विशद जानकारी प्राप्त हो सके, इसी उद्देश्य से इनके गच्छ, गुरु और निर्मित साहित्य का उल्लेख कर रहा हूँ। खरतरगच्छ के युगप्रधान दादा जिनकुशलसूरि के पौत्र शिष्य और गौतमरास के प्रणेता विनयप्रभोपाध्याय के शिष्य उपाध्याय क्षेमकीर्ति से खरतरगच्छ की एक उप-शाखा क्षेमकीर्ति के नाम से उद्भूत हुई। इसी का परिवर्तित रूप खेमधाड़ शाखा कहलाती है। उपाध्याय क्षेमकीर्ति की परम्परा में आठवें नं. पर वाचक हेमनंदनगणि हुए। उन्हीं के शिष्य सहजकीर्ति थे। ये प्रकाण्ड विद्वान् और श्रेष्ठ कवि थे। लोद्रवपुर पार्श्वनाथ मंदिर में सुरक्षित ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण शतदल पद्मयंत्रमय श्री पार्श्वस्तव आपकी अद्वितीय कृति है। यह कृति मेरे द्वारा सम्पादित 'अरजिनस्तवनः' सहस्रदलकमलगर्भितचित्रकाव्य के परिशिष्ट में सन् 1653 में प्रकाशित हो चुकी है। सेठ थाहरुशाह भणसाली कारित लौद्रवा पार्श्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा विक्रम संवत् 1675 में आचार्य जिनराजसूरि के कर-कमलों से हुई है। इस प्रतिष्ठा में सहजकीर्ति भी उपस्थित थे। आपके द्वारा निर्मित अन्य साहित्य की सूची इस प्रकार है - 1. कल्पसूत्र टीका कल्पमंजरी 2. शब्दार्णवव्याकरण 1685 (ऋजुप्राज्ञव्याकरण) लेख संग्रह 22 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ >> 3 3. नामकोष सारस्वतवृत्ति एकादिशतपर्यन्त शब्द साधनिका प्रवचनसारोद्धार बालावबोध 1691 प्रतिक्रमण बालावबोध 8. दसवैकालिकटब्बा 1711 महावीरस्तुति वृत्ति 1686 10. गौतमकुलकवृत्ति थिरावलि 12. . अनेकशास्त्रसमुच्चय 13. रायप्रसेणी उद्धार 14. देवराजवच्छराज चौपाई 1672 खीमसर 15. शत्रुजयमहात्म्य रास 1684 आसनीकोट सागरसेठ चौपाई 1675 बीकानेर 17. हरिश्चन्द्र रास 1697 18. नवदेव चौपाई सुदर्शन चौपाई 1667 बगडीपुर कलावती चौपाई . 1667 21. ___ शील ७रास - 1686 शान्तिनाथविवाहलउ 1678 वालसीसर विसनसत्तरी 1668 नागौर 24. प्रीति छत्तीसी 1688 सांगानेर 25. यशोधर संबंध 26. लौद्रवापार्श्वस्तव 1683 . जैसलमेर चैत्यपिपाटी 1679 . 28. उपधानविधिस्तव 29. 108 स्थान पार्श्वस्तव 30. जिनराजसूरि गीत 31. अल्पबहुत्वस्तव 1683 मा. व. 7 जैसलमेर 32. वैराग्यशतक 1704 स्तवन गीत आदि की अनेकों लघु कृतियाँ उपलब्ध हैं, शोध करने पर और भी कृतियाँ प्राप्त हो सकती है। [अनुसंधान अंक-२५]] 300 20. 23. लेख संग्रह 123 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद-पद-शतार्थी (सत्रहवीं शताब्दी की एक अप्रकाशित कृति का परिचय) इस अनेकार्थी अविद पदार्थमाला के प्रणेता हैं खरतरगच्छीय आद्यपक्षी शाखा के प्रौढ़ विद्वान् उपाध्याय विनयसागर / इसमें मङ्गलाचरण और उपसंहार सहित 36 पद हैं। इसके ऊपर विनयसागर की स्वोपज्ञ टीका है। लेखक ने इसका रचना समय इसमें नहीं लिखा है परन्तु टीका की प्रशस्ति में प्रश्नप्रबोध का उल्लेख किया है जिसकी 1667 में लेखक द्वारा स्वयं लिखित प्रति प्राप्त है। अत: अनुमान है कि इसकी रचना भी सं० 1667 के पश्चात् हुई होगी। मूल आ. - श्रीमत्पार्श्वजिनेश्वरचरणाम्भोजं नमाम्यहं भक्त्या। लब्ध्वा प्रसादमालां, श्रीमज्जिनकुशलसूरीणाम्॥१॥ श्रीमत्श्रीखरतरगण-युगवर श्रीजिनहर्षसूरयोऽभूवन्। श्रीमान्हेमनिधानः, पूज्यस्तत्पट्टकमलमार्तण्डः // 2 // श्रीमन्मेदऋषीन्द्रास्तच्छिष्याः सर्वसाधुगणमुख्याः।. तत्पट्टाम्बरदिनकरतुल्याः श्री-मानकीर्त्तयो गुरवः॥ 3 // तत्सिंहासनपूर्वाद्रिध्वान्तारिश्च सुमतिकलशोऽस्ति। स्पष्टानविदपदार्थांस्तत्सुनुर्विनयसागरो लिखति॥ 4 // मू. अं. - आनन्दाय स्वमित्राणां, विषादाय च विद्विषाम्। लिलेखार्थान् शतार्थोऽमून्, विद्वान् विनयसागरः॥ 36 // टीकाकार - मङ्गलाचरण नमामि श्रीमहावीरं, गौतमस्वामिनं तथा। श्रीसद्गुरुपदाम्भोजं, देवीं चैव सरस्वतीम्॥१॥ रत्नाकर इवाख्यातः श्रीमत्खरतरो गणः। तत्रासीद् विश्रुतो जैन-कुशलाः सूरिराट् गुरुः॥२॥ तत्प्रसादं समासाद्य मुनिर्विनयसागरः। सर्वेषामेव प्रश्नानां, उत्तरं दातुमर्हति॥३॥ अस्ति दिल्ली महाराजधानी नगरमुत्तमम्। तत्राऽहं बहुधा पुष्टः, केनचित्प्रतिवादिना॥ 4 // यदि किञ्चित् तव ज्ञानमस्ति शब्दानुशासने। तदाविदपदार्थांस्तान् व्याकुरु प्रथमं भवान्॥५॥ तेनाहूत इति प्रायो द्विपेनेव प्रतिद्विपः। मल्लेनेव महामल्ल, करीन्द्रेणैव केशरी // 6 // लेख संग्रह Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणूरेणेव गोविन्दः, कर्णेनेव धनञ्जयः। लक्ष्मणो रावणेनेव वादीव प्रतिवादिना // 7 // महायोधा महेनेव. मनसा हर्षितोऽभवम। अमूनर्थांस्तनोम्युच्चैः, सज्जनाः शृणुताऽधुना॥८॥ टीकाकार प्रशस्ति: प्रश्नप्रबोधामलंकृति यष्टीकां तथा राघवपाण्डवीयाम्। काव्यं नवीनं नलवर्णनं चादित्यावतारस्तवनं वितेने॥१॥ श्रीपार्श्वनाथस्तवनस्य टीका, व्याख्यां विदग्धस्य च राक्षसस्य। तस्योत्तमां श्रीविनयाम्बुराशेरिमां कृतिं पश्यतु सज्जनोऽपि॥२॥ इति श्री अविदपदस्याष्टादशाधिकशतप्रश्नस्य टीका अविदार्थमालाभिधा विनयसागरमुनिना विरचिता समाप्तिमगमत्। x आद्यान्त अवलोकन से आपकी गुरुपरम्परा का वंशवृक्ष इस प्रकार बनता है - जिनहर्षसूरि हेमनिधान (डूडरर्षि)२ मेद ऋषि मानकीर्ति देवकलश सुमतिकलश विनयसागर . लेखक पुस्तिका की रचना का उद्देश्य कहता है कि दिल्ली नाम की राजधानी में किसी प्रतिवादी ने कहा कि "यदि आपका शब्दानुशासन (व्याकरण शास्त्र) में कुछ भी ज्ञान है तो अविद शब्द की व्याख्या करो" उसकी यह चुनौती स्वीकार करके प्रतिवादी का गर्वमथन करने के लिए, मल्ल के सम्मुख महामल्ल, 1. जिनगुणप्रभसूरि के पट्टधर, जिनहर्पसूरि थे। आपके माता-पिता का नाम भगतादे और भादोसा था। भण्डारी नारायण सा ने आपका पट्टाभिषेक महोत्सव किया था। सं० 1725 चै० वा० 9 को आपका स्वर्गवास हो गया था। 2. वैराग्यसौभाग्यसुधानिपोऽभूच्छ्रीडूडरर्पिः सुगुरुगरीयान्। (विदग्धमुखमंडन टीका) 3. उभौ शिष्यौ विराजेते, तस्य क्षितिपवन्दितौ। श्रीमान् देवकलशश्च, सुमते: कलशोऽपरः॥ 4 // (विदग्धमुखमण्डन टीका) 4. सुमतिकलश के सम्बन्ध में विशेष ज्ञान नहीं है परन्तु विदग्ध मुख मंडन की टीका से मालूम होता है कि नरेश रामदेव आपके भक्त थे, और आप उसकी राजसभा में अलंकारभूत विद्वान् : यंस श्रीरामदेवः क्षितिपतितरुणिर्मागधिः स्तौति सम्यक्, यस्याङ्गं वीक्ष्य लज्जाकुलनिजहृदयोऽनङ्गतामाप कामः। सङ्घस्याग्रे सुधीभिः द्विजजिनमुनिभिः सङ्कलायां सभायां, पृथ्वीमेतां मुनीन्द्रः स सुमतिकलश: कीर्तिशुभ्रीकरोति // लेख संग्रह 125 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गज के सम्मुख केसरी, चाणूर के सम्मुख गोविन्द, कर्ण के सम्मुख धनञ्जय, रावण के सम्मुख लक्ष्मण, वादी के सम्मुख प्रतिवादी और समराङ्गण के सम्मुख महारथी में हर्षित होकर इस अविद शब्द के 108 . अर्थ (शतार्थी की रचना) करता हूँ। (टी. मं. पद्य 4-8) इसकी रचना तो दिल्ली में हुई है पर मंगलाचरण की टीका करते हुए लेखक "प्रथम श्रीमद्रावणपार्श्वनाथचरणारविन्दं प्रणम्य" कहकर एक ऐतिहासिक घटना की ओर ध्यान खींच रहा है। इस लेखक ने ही नहीं, किन्तु पूर्ववर्ती कई लेखकों ने रावण पार्श्वनाथ का उल्लेख अपने ग्रन्थों में किया है, परन्तु वह रावण पार्श्वनाथ कहाँ था? कुछ कहा नहीं जा सकता था। कुछ वर्ष पूर्व ही अलवर में खण्डहर के रूप में इसके अवशेष और शिलालेखादि प्राप्त हो गए, उससे स्पष्ट है कि लेखक इस प्रदेश में ही विशेष भ्रमण करता था। शतार्थी की रचना प्रौढ़ एवं परिमार्जित हुई है, इस लघुकायिक 36 पद्यों में 118 अर्थ करना, लेखक की प्रतिभा और उक्ति लाघवता को प्रकट करता है। यहाँ पर एक-दो उदाहरण देना अनुचित न होगा - के विज्ञाः के सतां निन्द्याः काहूतर्विदुषां मता। नौमि कान् कांश्च तत्याज, किं शठामन्त्रणं स्मृतम्॥९॥ व्याख्या - हे अ! विदो-विष्णुज्ञाः सम्बोधनान्तं बहुत्वं, / 13 / अविदः- विष्णुज्ञान्, / 14 / अविदो मूर्खान्, / 15 / शठानां-मूर्खाणां आमन्त्रणं सम्बोधनं किम्? तत्रोत्तरम् हे अविदः- हे शठाः! इति सम्बोधनबहुतत्वम्। 16 // 8 // भ्वादिषु प्रत्ययः कः स्यात्, कीदृशः कामिनीगणः। को धातुपालने लक्ष्यामन्त्रणं किं बुधैः स्मृतम्॥१०॥, व्याख्या - अप् प्रत्ययः / अप् कर्तरि धातोरप् प्रत्ययो भवति इति श्रीमत् परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमदनुभूतिस्वरूपाचार्य विरचित सारस्वतमतम्। 21 / इ:-कामस्तं ददातीति इदः- कामप्रदः। यत् सुरूपां प्रमदामवलोक्य सर्वोऽपि जनः सकामो भवतीति नयः। यदुक्तम् हरिरपि राधावशगो जातो रुद्रोऽपि पार्वतीवशगः। ' का वामेतरपुंसां स्त्रीवशगो भवति सर्वसंसार॥ 'अकारो वासुदेवः स्यात् इकारः काम उच्यते।' इत्येकाक्षर कोषः। 22 / अवरक्षणे। 23 / बुधैः पण्डितैः लक्ष्म्याः आमन्त्रणं-सम्बोधनं किं स्मृतं कथतम्? उत्तरम्-हे ई! लक्ष्मि इति सम्बोधनं भवेत् / 24 // 10 // ___ इस विवेचन से भली भांति प्रकट हो जाता है कि आप व्याकरण शास्त्र के प्रौढ़ विद्वान् थे अन्यथा अविद जैसे अप्रसिद्ध शब्द पर शतार्थी की रचना नहीं हो सकती थी। केवल आपकी यही कृति हो, ऐसी बात नहीं, अभी तक आपकी निम्नलिखित कृतियाँ प्राप्त हो चुकी हैं: 1. सोमचन्द्र राजा चौपाई (सं. 1617 श्रा० सु० 15 जौनपुर) 2. चित्रसेन पदमावती रास 3. भक्तामर वृत्ति 126 लेख संग्रह Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. कल्याण मन्दिर वृत्ति 5. विदग्ध मुखमण्डन टीका (1669 मि० सु० 3, रविवार, सेजपुर) 6. प्रश्नप्रबोध किन्तु इस कृति की प्रशस्ति से और भी कई नूतन ग्रन्थों का पता लगता है:१. प्रश्नप्रबोधटीका 2. राघवपाण्डवीय टीका 3. राक्षस काव्य टीका 4. पार्श्वस्तव टीका 5. नलवर्णन महाकाव्य 6. आदित्यावतार स्तवन पर दुर्भाय है कि इसमें से एक भी कृति वर्तमान में उपलब्ध नहीं है / 350 वर्ष के अल्पकाल में ही आपकी संपूर्ण कृतियों का नाश हो जाना आश्चर्य प्रकट करता है। अथवा पाली का श्रीपूज्य जी का संग्रह आद्यपक्षीय शाखा का प्रमुख भंडार है। उस भंडार में कुछ कृतियाँ हों तो कह नहीं सकते। पर उस भंडार का आज तक किसी भी विद्वान् ने अवलोकन नहीं किया। यह प्रति यहाँ (कोटा) के सरस्वती भण्डार (गढ़) में सुरक्षित है। इसके 7 पत्र हैं और इसका लेखन संवत् 1823 द्वि० चै० कृ० 15, बुधवार है। [श्रमण, वाराणसी, वर्ष-५, अंक-६] 000 5. प्रेसकॉपी मेरे संग्रह में है। 6. इसकी स्वयं लिखित एकमात्र प्रति मुनिराज श्री पुण्यविजय श्री म० के संग्रह में है। 7. इसका उल्लेख विदग्धमुखमण्डन की टीका, चतुर्थ परिच्छेद के १३वें श्लोक की टीका में भी है:यद्वयमपि प्रश्रप्रबोधालङ्कारे ब्रूमः कञ्चियुवानमुत्प्रेक्ष्य काचित् कन्दर्पविह्वला। चकार कज्जलं लात्वा शृङ्गारं नैत्रयोर्वरम्॥ अस्यार्थश्चैव टीकायां स्वोपज्ञाभिधानायां द्रष्टव्यः। लेख संग्रह 127 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसूरचन्द्रोपाध्यायनिर्मितम् प्रणम्यपदसमाधानम् प्राचीन समय में उपाध्यायगण/गुरुजन व्याकरण का इस पद्धति से अध्ययन करवाते थे कि . शिष्य/छात्र उस विषय का परिष्कृत विद्वान् बन जाए। प्रत्येक शब्द पर गहन मन्थन यक्त पठनपाठन होता था। जिस शब्द या पद पर विचार करना हो उसको पक्किका कहते थे। इन फक्किकाओं के आधार पर छात्रगण भी शास्त्रार्थ कर अपने ज्ञान का सम्वर्द्धन किया करते थे। कुछ दशाब्दियों पूर्व फक्किकाओं के आधार पर प्रश्न-पत्र में भी निर्मित हुआ करते थे, उक्त परम्परा आज शेष प्रायः हो गई है। उसी अध्यापन परम्परा का सूरचन्द्रोपाध्याय रचित यह प्रणम्यपदसमाधानम् है। .' उपाध्याय सूरचन्द्र खरतरगच्छाचार्य श्री जिनराजसूरि (द्वितीय) के राज्य में हुए। सूरचन्द्र स्वयं खरतरगच्छ की जिनभद्रसूरि की परम्परा में वाचक वीरकलश के शिष्य थे और इनके शिक्षा गुरु थे - पाठक चारित्रोदय। वाचक शिवनिधान के शिष्य महिमासिंह से इन्होंने काव्य-रचना का शिक्षण प्राप्त किया था। इनका समय १७वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और १८वीं शताब्दी का प्रारम्भ है। सूरचन्द्र प्रौढ़ कवि थे और इनका स्थूलिभद्रगुणमाला काव्य भी प्राप्त होता है, जो कि मेरे द्वारा सम्पादित होकर सन् 2005 में शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशन रिसर्च सेन्टर, अहमदाबाद से प्रकाशित हो / चुका है। कवि के विशिष्ट परिचय के लिए यह ग्रन्थ दृष्टव्य है : - प्रणम्यपदसमाधानम् में प्रणम्य परमात्मानम् शब्द पर गहनता से विचार किया गया है। प्रणम्य परमात्मानम् पद्य कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी रचित सिद्धहेमशब्दानुशासन की लघुवृत्ति का मंगलाचरण भी है और सारस्वत व्याकरण का मंगलाचरण भी है। इसी लेख में 'प्रणम्य प्रकियां ऋजु कर्वः' इससे स्पष्ट होता है कि सरचन्द्र ने सारस्वत प्रक्रिया के मंगलाचरण पर ही विचार किया है। पश्चिमी भारत में पाणिनीय व्याकरण का विशेष प्रचार नहीं था। गुजरात में श्री हेमचन्द्रसूरि रचित सिद्धहेमशब्दानुशासन का और राजस्थान में प्रायः करके व्याकरण के प्रारम्भिक अध्ययन के रूप में सारस्वत व्याकरण का पठन-पाठन होता था। इसीलिए सारस्वत व्याकरण के मंगलाचरण पर ही सूरचन्द्र ने विचार-विमर्श किया है/फक्किका लिखी है। प्रारम्भिक जिज्ञासुओं के लिए पठनीय होने के कारण ही प्रस्तुत की जा रही हैं। प्रान्त पुष्पिका में 'पण्डितं सूरचन्द्रेण कृतं' और 'पं. चि. भाग्यसमुद्रवाचनार्थं' अंकित किया है। इससे स्पष्ट है यह लेखक द्वारा जालौर में स्वलिखित एक पत्रात्मक प्रति है और श्री लोंकागच्छीय श्री कनकविजयजी के संग्रह में यह प्रति प्राप्त थी। मार्च 52 में प्रवास काल में मैंने इसकी प्रतिलिपि की थी। अन्यत्र इसकी प्रति प्राप्त नहीं है। प्रणम्यपद समाधानम् प्रणम्य परमाधीशं, सूरचन्द्रेण साधुना। प्रणम्य परमात्मानमित्यस्यार्थोऽत्र चिन्त्यते॥ 128 लेख संग्रह Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ननु भो विद्वन् / पूर्वं शास्त्रस्यादौ शास्त्रकाराः मङ्गलार्थं कञ्चिन्मङ्गलवाचकं शब्दं प्रतिजानाति, इति सर्वशिष्टाचारः। अत्र ह्येतत्क्रममुत्क्रम्य श्रीमदाचार्यधुर्यैः प्रणम्य इति पदस्य शास्त्रस्यादौ वर्तमानत्वेपि 'प्र' इत्युपसर्गः पूर्वं कथं प्रतिज्ञातः? / उपसर्गो हि न मङ्गलार्थो लोके रूढः,"उपसर्ग उपद्रवः" इति निघण्टुवचनात् / वैयाकरणेतरसूरयो हि शास्त्रादौ अमङ्गलशब्दं विहाय मङ्गलशब्दमेव सर्वे निवेशयन्ति, तच्चात्र न दृश्यते तत्र को हेतु?, प्रोच्यते / नास्य नामकोषसम्बन्धिनी उपद्रवाभिधेयोपसर्गसंज्ञा, किन्तु 'उपसर्गाः क्रियायोगे' इति पारिभाषिकी प्रस्योपसर्गसंज्ञा। एवं चेत् लौकिकी पारिभाषिकी वा प्रस्योपसर्गसंज्ञा, एवं चेत् लौकिकी पारिभाषिकी वा प्रस्योपसर्गसंज्ञा श्रुतिकटुः सम्पनीपद्यते एव। नैवं, प्रस्य महामङ्गलरूपत्वादिदं शास्त्रादौ मङ्गलमित्येव विवक्षितम् / यत:-'प्रशब्दश्चाथशब्दश्च' इति पुराणविचक्षणा आचक्षते। ननु च शास्त्रान्तरेषु'ओंकारश्चाथशब्दश्च' इति पाठो दृश्यते, ततोऽयं पाठोप्ययुक्तः, नैवं प्रशब्दशब्दनेन, साक्षात् ओंकार एवोपात्तः, यतः- ओंकारापरपर्यायो प्रणव-शब्दोस्ति, तस्य पदैकदेशे समुदायोपचारात् / यद्वा- 'अवयविनि वर्तमानाः शब्दाः अवयवेष्वपि वर्तन्ते' इति वचनात् भीमो-भीमसेन इत्यादिन्यायाद्वा प्रणवैकदेशे प्रशब्दे प्रणवे समुदायोपचारात् प्रशब्देन प्रणवग्रहणं सिद्धम्। सिद्धे च तस्मिन् ओंकारस्यैव उपादानं अङ्गीकृतं, तदङ्गीकारे च "ओंकारश्चाथ शब्दश्च" इति पाठोऽपि आदृत इति। प्रशब्दश्चाथ शब्दश्चेति पाठस्य ओंकारश्चाथेति पाठेन एकार्थीभावात् नायमयुक्तः पाठ इति। एवं चेत्तर्हि भवतु नाम प्रणवे माङ्गल्यं, प्रकृते किम्?, उच्यते-प्रस्य प्रणवशब्दस्यादौ स्थितत्वात् प्रणवकृतं माङ्गल्यं प्रशब्देपि अस्तीति प्रशब्दो माङ्गलिक इति। एवं तर्हि भवतु।। ___ शास्त्रादौ मङ्गलार्थो यः 'प्र'उपन्यासः, परं 'प्रणम्य' इति पदं समस्तं असमस्तं वा? किंप्रत्ययान्तं सिद्धयतीति प्रोच्यताम्? प्रणमनं पूर्वं प्रणम्येति प्रथमात्पुरुषेण समस्तं पदं, क्यप् प्रत्ययान्तं चेति / कथमत्र * क्यप्? अस्य तत्पुरुषेण समस्तत्वात् समासे क्यबिति क्यप्। एवं चेत् क्यपः कित्वात् लोपस्तु अनुदात्ततनां इति मलोपः क्रियताम्। मैवं वोचः-लोपस्त्विति तु ग्रहणं व्यवस्थाविभाषार्थं, तेनाऽत्र न मलोपः, पक्षे 'प्रणत्य' इत्यपि भवति / णत्वं तु प्रादेश्च तथा तौ इत्यनेन सिद्धमेव। ननु 'प्रणम्य' इत्यत्र का विभक्तिः? किं वचनं? चेति निगद्यताम्, उच्यते- तत्र विभक्तिः प्रथमा। प्रथममिति कथमत्र विभक्तिप्रतीति:?, उच्यते- प्रणम्य इति पृथक्पदत्वात् विभक्तिमन्तरेण च न पदत्वापत्तिः 'विभक्त्यन्तं पदम्' इति वचनात्।। * एवं चेत्तर्हि त्यादीनामपि विभक्तिसंज्ञा अस्त्येव, तर्हि 'त्याद्यन्तं उत स्याद्यन्तं' इति, तत्र आद्यं न सम्भवति साक्षात् एव तदन्तत्वाभावात् / स्याद्यन्तं चेत् तस्यापि प्रत्यक्षानुपलक्ष्यमाणत्वात् न सम्भवः। ___ नैवम्- "कृत्तद्धितसमासाश्च'' इति कृतां नामसंज्ञात्वात् स्यादिर्भवत्येव / एवं चेत्तत्र का विवक्षामाश्रित्य विभक्ति-उत्पत्तिर्विधीयते?, उच्यते विभक्त्यर्थप्रधाननिर्देशमाश्रित्य, स च विभक्त्यर्थः प्रातिपदिकार्थः सन्मात्रलक्षणः सम्पन्न इति / प्रातिपदिकार्थे सन्मात्रे प्रथमैव विभक्तिः, एवं चेत् प्रथमाया द्विवचन बहुवचनं वा क्रियताम्, किमेकवचनेन? सत्यं, सङ्ख्याविशेषाभावा सर्वा / किं तर्हि एकवचनमेव? तस्य उत्सर्गत्वेन विधीयमानत्वात् / तथा चोक्तम्- 'एकवचनमुत्सर्गत: करिष्यत' इति प्रथमाविभक्त्यैकवचनान्तत्वं सिद्धिमिति / ... एवं चेत्तर्हि विभक्तिः कथं न दृश्यते? इत्युच्यते - क्त्वाद्यन्तं चेत्यव्ययसंज्ञत्वात् विभक्तेर्लुक्। ननु नहि साक्षात् क्त्वा दरीदृश्यमानोऽस्ति तत्कथं, अव्ययत्वम्? सत्यं, क्त्वास्थाने जायमानः क्यबादेशः क्त्वावन्मन्तव्यः। स्थानस्थानि-नोरभेदोपचारात् स्थानिवद्भावात् इत्यर्थः। ततः क्त्वाद्यन्तं चेत्यव्ययत्वेन 'अव्ययाद् विभक्तेर्लुक्' इति लुक्। लेख संग्रह 129 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ति। ननु अत्र यः क्त्वास्थानीयः क्यब् उच्यते स कर्तरि कर्मणि भावे वा प्रयुज्यते, प्रोच्यताम्। अनिर्दिष्टार्थाः / प्रत्ययाः स्वार्थे भवन्ति' इति वचनात्, स्वार्थो भावः, ततोऽत्र भावे एव क्त्वाप्रत्ययः कर्तृकर्मणोरनभिधानात् तत्र न भवति। एवं चेत्तर्हि भावस्य कर्मविहीनत्वात् 'परमात्मानं' इत्येन सकर्मण पदेन सह कथंकारं योगो विधीयते, भावे नित्यं कर्मणोऽविद्यमानत्वं आकाशकुसुमवत् त्रिलोक्यां इति। नैवं- यतः सकर्मकाणां धातूनां पुरस्तात् भावविवक्षया उत्पादितः कृत्प्रत्ययः प्रत्ययस्वाभाव्यादेव कर्मत्वं न अपाकरोति। यदाहुः'सकर्मकाणामुत्पन्न' इत्यादि। तेन नमेः सकर्मकाद्धातो वेपि विहितः, क्त्वा सकर्मैव भवतीति, परमात्मानं' इत्यत्र युक्तत्वम्। एवं चेत् क्यपः कृत्प्रत्ययत्वात् कर्मणि षष्ठी युज्यताम्, तथा च सति प्रणम्य परमात्मन इति पदेन भवितव्यम्, न द्वितीयान्तेन इति / कर्तृकर्मणोः 'कृद्योगे षष्ठी' भवतीति वैयाकरणाः। नैवम्- 'कर्तृकर्मणोः' अक्तदौ कृति षष्ठी' इति सूत्रे अक्तादौ इति निषेधसामर्थ्यात् क्तादिप्रत्यययोगे न कर्मणि षष्ठी, अक्तादिरित्यत्रादिशब्दःक्तसमानप्रत्ययसमुच्चयनार्थः, तथा च सति भावेपि विहितः क्त्वाप्रत्ययस्थानीयसकर्मैव भवतीति युक्तम् परमात्मानमिति कर्मवचनमिति। __ननु अत्र क्त्वाप्रत्ययः कुत्र काले प्रयुज्येत?, उच्यते-अव्यवहित- पूर्वकालापेक्षया क्त्वाप्रत्ययः सिद्धः। यथा- प्रणम्य प्रक्रियां ऋजु कुर्वः, इति / तत्र प्रणमनानन्तरमेव प्रक्रियार्जवकरणमित्यर्थप्रादुर्भाव: स्यात्, तेन अव्यवहितपूर्वकालापेक्षिक्त्वाप्रत्ययोऽत्र। ननु चेत् यदि पूर्वकालापेक्ष एव क्त्वाप्रत्ययः प्रादुःष्यात्, तदा मुखं व्यादाय स्वपिति, अक्षिणी सम्मील्य हसतीत्यादौ पूर्वकालमन्तरेणापि क्त्वाप्रत्यय उपलभ्यते / मुखव्यादानाक्षिसम्मीलनक्रिययो: स्वापहसनक्रिययोश्चैककाले एव प्रत्यक्षेण कक्षीक्रियामाणत्वात् / नच मुखव्यादानानन्तरं स्वपनं, अक्षिसम्मीलनानन्तरं च हसनमित्यर्था-ऽऽविर्भावोऽभिष्यात् / द्वयोः क्रिययोः समानकाले एव दृश्यमानत्वेन आनन्तर्यक्रियानुपलब्धेरिति / नैवम्- इहापि पूर्वकालापेक्षाऽस्त्येव। कथं स्वापक्रियायामुखव्यादानादुत्तरकालीनत्वाद्भवति, मुखव्यादाने पूर्वकालता-प्रवृत्तिरेवं हसनक्रियाया अपि अक्षिसम्मीलनात् उत्तरकालीनत्वात् स्यात्, अक्षिसम्मलीने पूर्वकालताप्रवृत्तिरिति सिद्धोऽत्र पूर्वकालापेक्षया क्त्वाप्रत्यय- स्थानीयः क्यप् इति। इति प्रणम्यपदसमाधानम् लेशतः कृतं पं. सूरचन्द्रेण श्रीरस्तु लिखितं श्रीजावालपुरे पं. चि. भाग्यसमुद्रवाचनार्थमिति शुभं भवतु।। किं तद्वर्णचतुष्टये नवनजवर्गस्त्रिभिर्भूषणं, ( ?) आद्यैकेन महोदयेन विहगो मध्यद्वये प्राणदः। व्यस्ते गोत्रतुरङ्गचारिमखिलं प्रान्ते च सम्प्रेषणं, ये जानन्ति विचक्षणाः क्षितितले तेषामहं किङ्करः॥ [कुवलयम्] शुभंभवतु लेखकवाचकयोः [अनुसंधान अंक-३३] 000 130 लेख संग्रह Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... राजस्थान के संस्कृत महाकवि एवं विचक्षण प्रतिभासम्पन्न ग्रन्थकार महोपाध्याय मेघविजय महोपाध्याय मेघविजय १८वीं शताब्दी के बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न विशिष्टतम विद्वान् हैं। इनका जन्म-संवत्, जन्म-स्थान और गृहस्थावस्था का ऐतिह्य परिचय अद्यावधि अप्राप्त है। श्रीवल्लभोपाध्यायरचित, 'विजयदेवमाहात्म्य' पर मेघविजयजी द्वारा रचित विवरण की सं० 1709 की लिखित प्रति प्राप्त होने से यह निश्चित है कि इस विवरण की रचना 1709 के पूर्व ही हो चुकी थी। अत: अनुमान सहज भाव में लगाया जा सकता है कि इस रचना के समय इनकी अवस्था कम से कम 20-25 वर्ष की अवश्य होगी। अतः अनुमानतः 1685 और 1990 के मध्य इनका जन्म-समय माना जा सकता है। सं० 1727 में रचित 'देवानन्दमहाकाव्य' में विजयप्रभसूरि द्वारा प्रदत्त 'उपाध्याय'२ पद का उल्लेख होने से निश्चित है कि सं० 1710 और 1727 के मध्य में इनको उपाध्याय पद प्राप्त हो चका था. क्योंकि विजयप्रभसरि का शासनकाल सं० 1710 से 1732 का है। मेघविजयजी श्वेताम्बर जैन-परम्परा में तपागच्छीय अकबर प्रतिबोधक जगद्गुरु हीरविजयसूरि की शिष्य-परम्परा में कृपाविजयजी के शिष्य हैं, जैसा कि इनकी ग्रन्थ-प्रशस्तियों से प्रकट है : श्रीमत्तपागणपतिर्यतिमार्गधीरः, श्रीहीरहीरविजयो जयवान् बभूव। यः प्रत्यबूबुधदकब्बरराजराज्यं वाक्यैः सुधातिमधुरैर्यवनाधिराजम्॥ 13 // श्रीवाचकः कनकतो विजया बभूवु-विद्यानवद्ययशसो भुवि तद्धिनेयाः। तेषां सुशीलविजयाः कवयो विनेयाः, शिष्यौ बभूवतुरतुल्यमती तदीयौ॥ 14 // आद्यः, श्रीकमलादिमश्च विजयस्तस्यानुजन्मा बुधः, श्रीसिद्धेर्विजयोऽत्र तो मम गुरोर्दीक्षानुशिक्षागुरू। श्रीसन्मानकनाम्नि धाम्नि महसो द्रंगे विजित्य क्षणाल्लम्पाकेन्द्रगणान् जयश्रियमम् सम्प्रापतुर्विश्रुताम् // 15 // यः षट्तर्कवितर्ककर्कशमतिः साहित्यसिद्धान्तवित्, प्राणप्रक्षितिपः कृपादिविजयः प्राज्ञो विनेयस्तयोः। तत्पादाम्बुजशृंगं मेघविजयोपाध्यायलब्धात्मना, ग्रन्थो मेरुमहीधरावधिरयं सिद्धिश्रियै नन्दतात्॥ 16 // बोधप्रशस्तिः ) लिखितोऽयं ग्रन्थः पण्डितश्री 5 श्रीरंगसोममणिशिष्य-मुनिसोमगणिना सं० 1709 वर्ष चैत्रमासे कृष्णपक्षे एकादशी तिथौ बुधे लिखितं राजनगरे श्रीतपागच्छाधिराज-म० श्रीविजयदेवसूरीश्वरविजयराज्ये। (विजयदेवमाहात्म्य, प्रान्तपुष्पिका) 2. देवानन्दमहाकाव्य, सर्ग 7, पद्य 80 लेख संग्रह 131 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रशस्ति के अनुसान इनका वंशवृक्ष इस प्रकार बनता है: हीरविजयसूरि कनकविजय शीलविजय कमलविजय सिद्धिविजय चारित्रविजय कृपाविजय' मेघविजय मेघविजयजीरचित ग्रन्थों को देखने पर यह साधिकार कहा जा सकता है कि ये एकदेशीय विद्वान् न होकर सार्वदेशीय विद्वान् थे। काव्य-साहित्य, पादपूर्ति, व्याकरण, छन्द, अनेकार्थ, न्यायशास्त्र, दर्शनशास्त्र, ज्योतिष, सामुद्रिक, रमल, मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र, अध्यात्मशास्त्र आदि प्रत्येक विषयों के ये प्रगाढ पंडित थे और इन्होंने प्रत्येक विषय पर साधिकार वर्चस्वपूर्ण लेखिनी चलाई है। इनका साहित्य-सर्जनाकाल वि० सं० 1709 से 1760 तक का तो निश्चित ही है। साथ ही अजबसागर गणि द्वारा सं० 1761 में रचित स्तुति : से स्पष्ट है कि उस समय तक आप विद्यमान थे। वर्तमान समय में प्राप्त इनकी रचित साहित्यसामग्री का विषयानुक्रम से संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:महाकाव्य 1. सप्तसन्धान महाकाव्य - इसकी रचना वि० सं० 17602 में हुई है। इसमें 9 सर्ग हैं। सर्गक्रम से पद्यसंख्या इस प्रकार है:- 82, 25, 48, 42, 58, 63, 42, 28, 32, प्रशस्ति के 3, कुल 423 / इस काव्य के प्रत्येक पद्य से सात महापुरुषों का कथानक क्रमबद्ध चलता है। ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी, रघुवंशी रामचन्द्र और यदुवंशी कृष्ण के जीवन-चरित्रमय यह महाकाव्य है। न केवल महाकाव्य की दृष्टि से अपितु अनेकार्थी साहित्य की दृष्टि से भी यह सर्वोत्तम कृति है। पहले मूलमात्र प्रकाशित हुआ था फिर श्री विजयअमृतसूरि रचित 'सरणि' टीका सह यह ग्रन्थ जैन साहित्यवर्धक सभा, सूरत में प्रकाशित हो चुका है। 2. दिग्विजय महाकाव्य - कवि ने इस ग्रन्थ में रचना समय नहीं दिया है। इस काव्य में तपागच्छीय जैनाचार्य विजयदेवसूरि के प्रशिष्य विजयसिंह सूरि के शिष्य गणाधीश विजयप्रभसूरि का जीवनचरित्र ग्रथित है। तत्कालीन राजनैतिक, भौगोलिक, सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है। महाकाव्य के लक्षणों से परिप्लुत 13 सर्गों का यह काव्य है। सर्गक्रम से पद्यसंख्या इस प्रकार है:-८१, 1. कृपाविजय रचित विजयप्रभसूरि निर्वाणरास प्राप्त है। 2. वियद्रसमुनीन्दूनां (1760) प्रमाणात् परिवत्सरे। कृतोऽयमुद्यमः पूर्वाचार्यचर्याप्रतिष्ठितः॥ - (सप्तसन्धानप्रान्तप्रशस्तिः) 132 लेख संग्रह Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56, 62,75, 75, 57,75, 142, 151, 151, 134, 113, 102, कुल 1274 / यह ग्रन्थ सिंघी जैन ग्रन्थमाला (भारतीय विद्या भवन) बम्बई से प्रकाशित हो चुका है। पादपूर्ति-काव्यसाहित्य 3. शान्तिनाथचरित्र - श्रीहर्षरचित नैषध महाकाव्य की समस्यामय पादपूर्ति से इनका दूसरा नाम नैषधीय समस्या भी है। नैषधकाव्य के प्रथम सर्ग की पादपूर्ति रूप यह काव्य है। मेघदूत की तरह अन्तिम चरण या एक चरण लेकर इसकी रचना नहीं हुई है, अपितु प्रत्येक चरण की चरणानुरूप पूर्ति करते हुए 6 सर्गों में उसकी रचना पूर्ण हुई है। कहीं-कहीं तो एक ही चरण की दो, तीन बार अनुवृत्ति भी की गई है। इस काव्य में सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ का जीवन-चरित वर्णित है। सर्गानुक्रम से पद्य संख्या इस प्रकार है:- 126, 130, 117, 78,71, 63, प्रशस्ति 5, कुल 560 / ग्रन्थकार ने प्रान्त में इसका समय नहीं दिया, किन्तु आचार्य विजयप्रभसूरि का उल्लेख होने से स्पष्ट है कि इसकी रचना वि० सं० 1710 के पश्चात् और सं० 1732 बीच हुई है। यह ग्रन्थ जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला, काशी से प्रकाशित है। 4. देवानन्दमहाकाव्य - महाकवि माघ रचित शिशुपालवध (माघ) महाकाव्य के प्रारंभ के 7 सर्गों तक के प्रत्येक पद्य के चतुर्थ चरण की पादपूर्ति रूप यह महाकाव्य है। इस काव्य में भी सात सर्ग है। इसमें तपागणाधीश जैनाचार्य विजयदेवसूरि और विजयप्रभसूरि के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन है। पादपूर्ति के बन्धन में रहते हुए भी कवि ने इस काव्य की रचना इतनी सफलता से साथ की है कि रस-परिपूर्ण नवीन स्वतन्त्र काव्य का रसास्वादन होता है। इसकी रचना वि० सं० 1727 आश्विन शुक्ला विजयादशमी को सादड़ी नगर में हुई है। सर्गों की पद्यसंख्या इस प्रकार है:- 78, 130, 179, 85, 72, 90, 85] कुल 719 / यह ग्रन्थ सिंघी जैन ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। . 5. किरातसमस्यापूर्ति - इसके सम्बन्ध में दिग्विजयमहाकाव्य की प्रस्तावना (पृ. 4) में पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह ने लिखा है- 'आ काव्य, नाम शुंछे ते जाणी शकायुं नथी, पण तेमां किरातार्जुनीय काव्यनी समस्यांपूर्ति तो छेज, एनी एक प्रति आचार्य श्रीविजयेन्द्रसूरि पासे हती जेनी प्रेसकापी में केटलाये वर्षों अगाऊ तेमने करी आपेली, ते स्मरण ऊपरथी जणावू छु, ते प्रति मने मली शकी न थी। ते ष्य एक सर्गात्मकज हती, संभवत: क्यांई थी तेनी पूरी प्रति पण मली आवे।' 6. मेघदूतसमस्यालेख - जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह लघुकाव्य महाकवि कालीदास प्रणीत मेघदत खण्डकाव्य के चतुर्थ चरण को ग्रहण कर पादपूर्ति रूप में लिखा गया है। वस्तुतः विज्ञप्तिस्वरूप स्वगुरु को लिखा गया यह एक पत्र है, जो कि नवरंगपुर-औरंगाबाद से कवि ने देवपाटण में विराजमान आचार्य विजयप्रभसूरि को लिखा है। इसमें कवि ने रचना-समय नहीं दिया है किन्तु प्रान्त में लिखा है कि विजयदेवसूरि की भक्ति में माघकाव्य का समस्यापूर्ति और विजयप्रभसूरि के गुणोत्कीर्तन में मेघदूत समस्या लिखी है। जैसा कि ऊपर लिख आये हैं, देवानन्द महाकाव्य की रचना 1727 में हुई है। अतः स्पष्ट है कि इसकी रचना वि० सं० 1727 के बाद हुई है। मेघदूत के 130 पद्य कवि ने स्वीकार 1. इति श्रीनैपधीयवहाकाव्यसमस्यायां महोपाध्यायमेघविजयगणिपूरितायां पष्ठ सर्गः सम्पूर्णः। 2. मुनिनयनाश्वेन्दुमिते वर्णे हर्पण सादडीनगरे। ग्रन्थः पूर्ण: समजनि विजयदशम्यामिति श्रेयः। ८५(देवानन्दमहाकाव्यप्रशस्ति)। 3. स्वस्तिश्रीमद्भुवनदिनकृद्वीरतीर्थाभिनेतुः, प्राप्यादेशं तपगणपतेर्मेघनामा विनेयः। ज्येष्ठस्थित्यां पुरमनुसरन् नव्यरंगं ससर्ज, स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥२॥ 4. गम्या चारै रुचिरनगरी देवकात्पत्तनाख्या, वाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहा // 7 // लेख संग्रह 133 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किये हैं। यह काव्य जैन आत्मानन्द सभा भावनगर से स्वतन्त्र पुस्तिका रूप में और विज्ञप्तिलेखसंग्रह प्रथम भाग में सिंघी जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित है। ___7. लघुत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र - कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र रचित त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र का यह संक्षिप्त संस्करण है। कोठारी वनराज की अभ्यर्थना से कवि ने लगभग पाँच हजार पद्यों में इसकी रचना की है। हेमचन्द्र की तरह ही इसके 10 पर्यों को पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध में विभाजित किया है। इसमें कवि ने रचना-समय नहीं दिया है। यह ग्रन्थ अद्यावधि अप्रकाशित है किन्तु इसका भावानुवाद गुर्जरभाषा में पं० मफतलाल झवेरचन्द ने किया है जो छोटालाल मोहनलाल शाह उनाबा (गुजरात) की तरफ से प्रकाशित है। कथा साहित्य 8. भविष्यदत्त चरित्र - ज्ञान (श्रुत) पंचमी माहात्म्य पर इस चरित्र की पद्यमय 21 अधिकारों में रचना हुई है। कवि ने रचना-समय का उल्लेख नहीं किया है किन्तु विजयरत्नसूरि का उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि यह रचना वि० सं० 1732 के पश्चात् की है क्योंकि विजयरत्नसूरि 17324 में आचार्य बने . थे। यह चरित्र दानदयामृतहिम्मत ग्रन्थमाला, अहमदाबाद से प्रकाशित हो चुका है। 9. पंचाख्यान - सं० 1716 में नवरंगपुर में इसकी रचना हुई है। कवि के कथानानुसार पूर्व में 4600 श्लोक' परिमाण का जो ‘पंचाख्यान' नामक ग्रन्थ था उसी का यह संक्षिप्त संस्करण है। संभवतः यह पंचाख्यान पूर्णभद्र रचित पंचाख्यान ही हो। इसकी भाषा सरल और प्रसादगुण युक्त है। यह ग्रन्थ अद्यावधि अप्रकाशित है। इसकी एक प्रति सं० 1751 की लिखित अनूपसंस्कृत लायब्रेरी, बीकानेर में प्राप्त है। विज्ञप्ति पत्रकाव्य पत्र-प्रेषकस्वीय आचार्य या गुरु को आलंकारिक भाषा में गद्य, पद्य या गद्यपद्यमिश्र में जो विज्ञप्ति रूप पत्र लिखता है वह विज्ञप्ति-पत्र कहलाता है। जिस स्थान पर आचार्य विराजमान हों उस नगरी का, तत्रस्थ मन्दिरों का और आचार्य का प्रभावशाली आलंकारिक वर्णन तथा स्वीय प्रवास, तीर्थयात्रा, 1. माघकाव्यं देवगुरोर्मेघदूतं प्रभप्रभोः। समस्यार्थं समस्याएं निर्ममे मेघपण्डितः॥१३॥ 2. श्रीमेघविजयनामा विनयविलासे लघुत्रिपष्टीयम्। चक्रे कोष्ठागारिक-वनराजाऽभ्यर्थनायोगात् // 599 // लघुत्रिपष्टिशलाकापुरुषचरित्र प्रान्तप्रशस्ति, 3. तपागणाम्भोजसहस्रभानःसरिर्जयी श्रीविजयप्रभावः। तत्पट्टदीपः श्रमणावनीपः प्रभासते श्रीविजयादिरत्नः॥७६ // - भविष्यदत्तचरित्र प्रान्तप्रशस्ति 4. विजयप्रभसूरिवराणां पट्टे 63 विजयरत्नसूरिः तेषां पिता हीरानन्द माता च हीरादे, पालनपुरे 1710 वर्षे जन्म, 1722 वर्षे दीक्षा, 1732 वर्षे नागोरपुरे सूरिपदं, सर्वायु:६३ वर्षाणिप्रपाल्य सं० 1773 भाद्रकृष्ण द्वितीयायां उदयपुरे स्वर्गं गतः। ___-भविष्यदत्तचरित्र प्रस्तावना, पृ० 4: 5. तच्छिशुर्मेघविजयो रसेन्दुनगभूमिते / वर्षे व्यधादिमं ग्रन्थं नवरंगपुरे वरे॥६ 4. चतु:सहस्री शतपट्कयुक्ता श्रीनीतिशास्त्रप्रथितं पुराऽभूत् / संक्षिप्य तत्त्वालसुखावबुध्यै, व्यधत्त मेघादविजयो मनीपी॥३॥ (पंचाख्यानप्रशस्ति) 134 लेख संग्रह Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान, पठन-पाठन, धर्मप्रचार के साथ स्वस्थित नगरी का वर्णन, इन विज्ञप्ति-पत्रों का प्रतिपाद्य विषय होता है / इस प्रकार के विज्ञप्ति-पत्र ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि से बड़े महत्त्व के होते हैं। ऐसे विज्ञप्ति-पत्रों में हमें सर्वप्रथम वि० सं० 1441 में जिनोदयसूरि द्वारा लोकहिताचार्य को प्रेषित 'विज्ञप्तिमहालेख' और वि० सं० 1448 में जयसागरोपाध्याय द्वारा विजयभद्रसूरि को प्रेषित 'विज्ञप्ति-त्रिवेणी' प्राप्त होते हैं। इसके पश्चात् तो सैकड़ों की संख्या में विज्ञप्ति-पत्र प्राप्त होते हैं जिनमें से 25 विज्ञप्ति-पत्र पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी ने विज्ञप्ति लेखसंग्रह प्रथम भाग में प्रकाशित किये हैं। * मेघविजयजी लिखित विज्ञप्ति-पत्र जो वर्तमान में प्राप्त होते हैं उनमें से मेघदूतसमस्यालेख का विवरण दिया जा चुका है, अवशेष का क्रमशः परिचय इस प्रकार है: .. 10. पाणिनिव्याश्रयविज्ञप्तिलेख - शिवनगरी' से यह पत्र गणनायक विजयप्रभसूरि को लिखा गया है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह व्याश्रय काव्य है। एक ओर जहाँ पाणिनि के अष्टाध्यायी सूत्रों का क्रम चलता है तो दूसरी ओर वही पद्य श्लेषयुक्त होकर विज्ञप्ति-पत्र के प्रतिपाद्य अर्थ को प्रकट करता है। इसमें चार विश्राम हैं / प्रथम विश्राम में संज्ञासन्धि के साथ भगवान ऋषभदेव का, द्वितीय विश्राम में अच्सन्धि के साथ कुर्कुट नगरी का, तृतीय विश्राम में अच्सन्धि के साथ शिवनगरी और चातुर्मासिक धर्मकृत्यों का तथा चतुर्थ विश्राम में हल्सन्धि के साथ आचार्य विजयप्रभसूरि का श्लेषालंकारयुक्त वर्णन है। चारों विश्रामों की पद्य संख्या इस प्रकार है:- 25, 38, 36, 39 / यह पत्र सभी तक प्रकाशित है। इसकी एक मात्र प्रति भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में नं० ए-२९९।१८८२-८३ पर है। इसी की प्रतिलिपि राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है:आदि- स्वस्ति श्रियां सत्प्रकृतित्वभाजां, यः प्रत्ययात्मापरयोगशाली। संयुज्य नानाविधिरूपसिद्ध्यै, भवेन्मुदे वः स च मारुदेवः॥१॥ कौमाररूपेऽपि कलाविशेषात्, संज्ञाभिवृद्धेर्विधिलाघवाच्च। यः पाणिनीयं नयमादिदेश, सदाऽकृतव्यूहतया शिवात्मा॥२॥ विनिर्झलां दूर जशोन्त एत्य, साक्षादिव श्रीगुरुमीक्षमाणः। शिष्याणुमेघाविजय स्वकीयं, भावं परं विज्ञपयत्यमुष्मिन् // 12 // (तृतीय विश्राम) अन्त - एवं जगद्भासनकारि यस्या-नुशासनं श्रीगणष्वासवस्य। जयत्यवन्यां विजयप्रभाह्वः, सूरिः सभरिप्रभुताद्भुतश्रीः॥ 39 // इति श्रीपाणिनीयहल्सन्धिश्लेषालंकाररम्ये श्रीपरमगुरुविज्ञप्तिलेखे व्याश्रये गुरुवर्णनरूपश्चतुर्थविश्रामः॥ . 11. पाणिनीय व्याश्रयविज्ञप्तिलेख - यह द्वितीय विज्ञप्ति लेख भी मेघविजयजी ने शिवनगरी 1. एवं च यस्मिन्नगरेऽतिविद्वान्, बालो युवा वा प्रवया जनोस्ति / शिवाभिलापी सुरसार्थसक्त ततः शिवाख्यान्नगरादमुष्मात् // तृतीय विश्राम लेख संग्रह 135 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से कुर्कुटनगर स्थित युवराजसूरि विजयरत्नसूरि को लिखा है। प्रथम लेख की तरह ही यह भी पाणिनीय से संज्ञासन्धि, अच्सन्धि और हल्सन्धि के साथ श्लेषालंकार युक्त चार विश्रामों में विभक्त है। चारों . विश्रामों की पद्यसंख्या निम्न है:- 11, 22, 15, 13 / विजयरत्नसूरि सं० 1732 में आचार्य बने हैं अतः यह स्पष्ट है कि इसकी रचना 1732 के पश्चात् हुई है। इन दोनों विज्ञप्तिलेखों को देखने से स्पष्ट है कि मेघविजयजी ने दोनों पत्र एक ही साथ लिखे हैं और एक साथ ही प्रेषित भी किये हैं, एक पत्र गणनायक के नाम से और दूसरा पत्र युवराजाचार्य विजयरत्नसूरि के नाम से। इस लेख की भी एक मात्र प्रति भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में नं० 299, ए 1892-93 पर है। इसी की प्रतिलिपि राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में है। यह भी अभी तक अप्रकाशित है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है:आदि स्वस्तिश्रियै वररुचिर्जगतोऽपि शिक्षा-शास्त्रैर्पटुर्जयति पाणिनिमूलशास्ता। योगे पतञ्जलिहिताय क्षतोपदेशस्सम्यक्पदार्थविधिसाधनकृज्जयाय // 1 // अन्त वपुस्तपःस्थानमिवाश्रमोऽतु-स्वारस्यतः सत्यगिरां गुरूणाम्। मनो मनोभू विजयात्पवित्रं, चित्रं तदन्यत्र जनानुरागम्॥१२॥ एवं यदीयो जगतोऽपि लक्ष्म्यो, जागर्ति निर्देशमणिर्महिम्ना। तैः सूरिरलैर्विगलत्सपन्न (?)- यः प्रणामः स्वशिशोस्त्रिसायम् // 13 // इति श्रीपाणिनीयद्व्याश्रये विज्ञप्तिलेखे हल्सन्धि-श्लेषविशेषालंकारश्चतुर्थविश्रामः॥ 12. विज्ञप्तिका - मेघविजयजी ने यह विज्ञप्तिका तत्कालीन गणनायक श्री विजयदेवसूरि को लिखी है। विजयदेवसूरि का सं० 1713 में स्वर्गवास हो गया था, अत: यह निश्चित है कि इस विज्ञप्तिका की रचना सं० 1713 के पूर्व ही हुई है। पद्यसंख्या 125 है। यह विज्ञप्तिका 'विज्ञप्तिलेखसंग्रह प्रथम भाग' में प्रकाशित है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है: स्वस्ति श्रीमदमन्दमोदविनमद्देवेन्द्रमौलिस्फुरन्, मांगल्यांगयवांकुराकरपरिग्लासाऽप्रयासाशया। यस्य श्रीजगदीश्वरस्य चरणाम्भोजन्मचिह्नच्छलात्, तस्यौ पीनतनूरनूनसुखभाग् गोकर्णजस्तर्णकः॥ 1 // xxx तत्र श्री मत्सरसिरसिकैरास्तिकैः श्वेतपक्षैः, पूर्णे पूज्यक्रमजलरुहै!तपद्माकरत्वे।। 1. यद् ह्रस्वदीर्घादिकृते स्वरेणोपदेशितकुर्कुटशब्दरूपम्। तदीश्वरः कुर्कुटशब्दपूर्वो यन्नाम्नि तस्मिन्ननगरे वरेण्ये // 22 // (द्वितीयविश्राम) 2. इत्याद्यसौ कृत्यविधौ प्रवीणः, सर्वोऽपि लोकः समभूत्त्दानीम्। निर्विघ्नतायां युवराजसूरिः, स्मृत्याऽपि हेतुः शुभवल्लिमेघः // 15 // (तृतीयविश्राम) त 136 लेख संग्रह Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवाप्रोलैर्मनसि हसितः कर्मणा नर्मवादं, कृत्वा तत्त्वाश्रयणविधये प्रेषयत्येष मेघः॥ 28 // पश्चाद् गुरोर्दृष्टिसुधाप्रवाहैराप्लाव्यमानं दलमेव देयम्। स्मार्यश्च कार्येषु जिनार्यनामे (?), भुजिष्यमुख्योऽस्त्विति मंगल श्रीः॥ 125 // 13. गुरुविज्ञप्तिलेखरूपं चित्रकोशकाव्यं - मेघविजयजी ने सादड़ी से यह लेख श्रीपुरस्थित तत्कालीन गणनायक श्री विजयप्रभसूरि को लिखा है। इसमें तीन अधिकार हैं। प्रथम अधिकार प्राप्त नहीं है और तृतीय अधिकार भी अपूर्ण रूप में प्राप्त है। यह लेख चित्रबन्ध काव्यों में लिखा गया है। सिंहासन, श्रीवत्स, मत्स्ययुगल, स्वस्तिक, बीजपूरक नन्दावर्त्त, भद्रासन, शरावसम्पुट, दर्पण, गोमूत्रिका कमल, अष्टारचक्र, नागसंगत, मालती, सूर्यमुखी पुष्प, चतुर्दलदेवकुसुम आदि चित्र एवं प्रश्नोत्तरजाति श्लिष्ट काव्यों से यह लेख गुम्फित है। द्वितीय अधिकार में 47 पद्य हैं और तृतीयाधिकार के 9 पद्य प्राप्त हैं। इसकी एकमात्र प्रति श्रीअगरचन्द्रजी नाहटा, बीकानेर के संग्रह में है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है: आदि- यत्र चित्रभरचिंत्रिचैत्य-श्रेणिरुन्नततरा मनुजानाम्। . नृत्यगुञ्जदुरुम मृदंगनिस्वनैर्घनमिहाह्वयतीव // अन्त- शिवाजो लब्धरजोगवासि, शुभाशयः शस्तशयः समासु। .. बभार शान्तः श्रुतसारभावं, सदानमासन्नसमा न दासः॥९॥ १४.विज्ञप्तिपत्रम् - मेघविजयजी ने नाडुलाई से यह पत्र वर्गवटी (बगड़ी) नगर में विराजमान गणाधिप श्री विजयप्रभसूरि को लिखा है। पद्य संख्या 101 है। प्रारंभ में पद्य 1 से 22 तक युगादिनाथ का वर्णन, पद्य 23-47 तक बंगड़ी का वर्णन, पद्य 48 से 79 तक नाडुलाई का चातुर्मासिक धार्मिक कृत्यों का समाचार है और अन्त में 1 से 22 तक गच्छाधिप विजयप्रभसूरि का वर्णन है। इसकी एकमात्र प्रति . राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में ग्रं० नं० 20,415 है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है: स्वस्तिश्रियामाश्रयणीयमूर्त्तिः सुरद्रुवन्निर्मितकामपूर्तिः। स्फूर्तिर्यदीया महसस्त्रिलोक्यां सर्वाऽपि निर्वापितशत्रुकीर्तिः॥ 2 // xx x तत्राभिरामप्रभुपादरेणोः, पावित्र्यत पञ्चवटीकृतायाम्। स्फुटीभवेद् देवनटीस्तुतायां, पुर्यां परं वर्गवटीतिनाम्न्याम् // 47 // करोति विज्ञप्तिमिमा ममायं, मेघादिशब्दाद् विजयस्त्रिसायम् // 58 // येषामिदं विजयते वरपाणिपद्म-माहात्म्यमीहितसमृद्धिकरं जनानाम्। तैर्विश्वपूज्यचरणैवधारणीया, स्वीयानुप्रणमनप्रकृतिस्त्रिसायम् // 101 // 15. विज्ञप्तिपत्रम् - मेघविजयजी ने यह पत्र उदयपुर से रामपुर में विराजमान श्रीविजयप्रभसूरि को लिखा है। पद्यसंख्या 16, 38 और 36 अर्थात् 90 पद्य हैं। इसमें रामपुर का वर्णन, उदयपुर का वर्णन, समाचार एवं आचार्य विजयप्रभ के कीर्त्ति-सौरभ का वर्णन है। अंतिम अंश अपूर्ण है। इसकी मात्र प्रति रा० प्रा० शाखा कार्यालय, बीकानेर, मोतीचंद खजांची संग्रह 'श' 284 पर है जिसकी पत्रसंख्या 4-6 है और लेखन १८वीं शती है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है: लेख संग्रह 137 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयति जगति सीमा यस्य रामस्य नीतेः, सततविजयि राज्यं लब्धवर्णेन वर्ण्यम् / पुरमिदमिदमीयाख्याविशेषात्प्रतीतं गुणगणगणनायां तस्य कः शीतक: स्यात् // 1 // मनसि परिनिधाय स्वीयविज्ञप्तिमेतां रचयति शुचिवृत्या मेघनामा भुजिष्यः॥ 16 // तैस्तातपादैः प्रसरत्प्रसादैर्यशोभिराक्षिप्तहिमांशुपादैः। नत्यस्त्रिसायं शिशुना क्रियन्ते, सा मानसाध्यक्ष..... // 36 // 16. विज्ञप्तिपत्रम् - यह पत्र भी मेघविजयजी ने उज्जैन से मेदिनीपुर (मेड़ता) में स्थित आचार्यश्री को लिखा है। यह पत्र अपूर्ण है, पद्य सं० 31, 32, 4 कुल 67 है। हरिणी और वसन्ततिलका छन्द में गुम्फित है। इसकी एक मात्र प्रति रा० प्रा० वि० प्र० शाखा कार्यालय, बीकानेर, खजांची सं० 'श' 284 पर है जिसकी पत्र सं० 4-6 है और लेखन १८वीं शती है, आद्यन्त इस प्रकार है: जयति नगरे यस्मिन्नर्हनिकेतनं..... द्विविधतनुभृत्तापव्यापव्यपोहसचेतनम्। अनुगुणगुणैमोदोधानात् कृतामृतवेतनं, समहिमहिमच्छायामायाप्रमोदितकेतनम्॥ 1 // यस्यामनेकसविवेकमहेभ्यलोकनिर्मापितार्हत महाभवनानि नूनम्। उच्चैः प्रसृत्वरसुधाकरशंकरण, व्याधामधारि वरधाम हसन्ति कामम् // 2 // शिष्यों भुजिष्य रुचिनम्रतनुर्विशिष्य नाम्नाऽथ मेघविजयः किल तं तनोति। विज्ञप्तिवल्लिवनपल्लवनं रसेन लेखात् वियोजनविपल्लवनं विधाय॥ 4 // 17. विज्ञप्तिपत्रम् - पत्र अपूर्ण होने से यह अस्पष्ट है कि कवि ने यह पत्र कहाँ से कहाँ को और किसको लिखा है? 'तपगणभृतः पंचशाखस्य पाणे:' से अनुमान कर सकते हैं कि विजयसिंहसूरि को यह पत्र लिखा हो। पद्य 25 और 21 है। इसमें पर्युषणा के धार्मिक कृत्यों के समाचार हैं। इसकी भी एकमात्र प्रति रा० प्रा० वि० प्र० शाखा कार्यालय, बीकानेर, खजांची संग्रह 'श' 284 पर है। पत्र संख्या 79 है। आद्यन्त निम्न है: अथ गगनरमायाचित्रमायानुकारी, निजकरनिकरेण ध्वान्तधारापहारी। समयरसिकयोगी स्वान्तपद्मप्रचारी धृततनुरिव बोधः सूर्य आसीत्प्रकाशी॥ 1 // श्रीमान् सूरेर्जयति विजयी लक्षणैः पञ्चशाख-श्चञ्चललक्ष्मीभरवितरणैर्नन्दितः श्राद्धशाखः। सेव्यः शश्वविबुधनिवहैरंगवान्पारिजातः, प्रात स्वानिव हृततमस्तेजसाऽपारिजातः॥२॥ वासोल्लासप्रकटकपटादुगिरन् पोष्यरागं, लक्ष्मीलीलाभवनविभया सूरिराजस्य पाणिः। अम्भोयोनेरपि च लभतां सौरभेणोपमानं, श्यामाभासा यदिह रमते भृगमालाक्षमाला॥२॥ लेख संग्रह 138 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14, 15, 16 संख्याक तीनों विज्ञप्तिपत्र अनुमानतः स्वयं कवि द्वारा लिखित हैं, अक्षरों, शब्दों और चरणों को स्थान-स्थान पर काट कर या हरताल फेरकर पुन: नव्य शब्द या चरण लिखे हैं। व्याकरण 18. चन्द्रप्रभाव्याकरण - जिस प्रकार पाणिनीय अष्टाध्यायी को भट्टोजि दीक्षित ने सिद्धान्तकौमुदी का रूप प्रदान किया है उसी प्रकार मेघविजयजी ने अपने शिष्य भानुविजय के लिये हेमचन्द्राचार्यप्रणीत सिद्धहेमचन्द्रव्याकरण को कौमुदी का स्वरूप प्रदान किया है, इसीलिए इसे 'हेमकौमुदी' भी कहते हैं। इसकी रचना सं० 17572 दीपमालिका के दिन आगरा में हुई है। इस ग्रन्थ का संशोधन सौभाग्यविजय और मेरुविजय ने किया है। इसका श्लोकपरिमाण आठ हजार है। व्याकरण की दृष्टि से यह इनकी सफलतम रचना कही जा सकती है। यह ग्रन्थ श्रेयस्कर मण्डल म्हेसाणा की तरफ से प्रकाशित हो चुका है। ... 19. हेमशब्दप्रक्रिया - मध्य सिद्धान्तकौमुदी के समान यह सिद्धहेमशब्दानुशासन की प्रक्रिया है। श्लोकपरिमाण 3500 है। इसकी एकमात्र प्रति भाण्डारकार ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में है, जो कि प्रकाशन योग्य है। 20. हेमशब्दचन्द्रिका - लघुकौमुदी के सदृश 600 श्लोक परिमाण की यह रचना है। विजयप्रभसूरि के शासनकाल में इसकी रचना हुई है। शाह चांपसी खीमसी, कोठांरा (कच्छ) की तरफ से यह प्रकाशित हो चुकी है। न्याय .. 21. मणिपरीक्षा - इस ग्रन्थ में नव्यन्यायप्रवर्तक 'नैयायिकोत्तंस गंगेशोपाध्याय रचित' 1. श्रीमेघविजयनाम्नोपाध्यायोऽध्याय तत्परः परमः। चन्द्रचन्द्रप्रभां चक्रे भानूदयबुद्धिविवृद्धिकरी॥११॥ भट्टोजिनामा भवदीक्षितेन, सिद्धान्तयुक्ता वरकौमुदीया। श्रीसिद्धहेमानुगता व्यधायि, सेवाश्रिया भानुविभोदयाय॥१२॥ 2. विजयन्ते ते गुरुवः शैलशरपीन्दु (1757) वत्सरे तेपाम्। आदेशाद् देशपते: स्थितिः कृता राजधान्यन्तः॥७॥ '. 3. चातुर्मास्यामस्यां नाम्ना श्रीआगरा वराऽऽख्याम्। नानायोगैरुचितै रचिता चन्द्रप्रभा सुधिया॥८॥ 4. हेमचन्द्रसुगुरोः विनयस्य सिद्धेः, शास्त्रार्णवोऽलभत पूर्णदशां रसेन। ___ दीपोत्सवस्य दिवसे कुशलेन योऽसौ, सौभाग्य-मेरुविजयादिभिरीक्ष्यमाणः॥१५॥ 5. स्वांगे साष्टसहस्रलक्षणधरः क्लृप्ताभिषेक: सुरैः, सेन्ट्रैः साष्टसहस्रमानसहितैः कुम्भैश्च वृत्तैः स्तुतः। ग्रन्थेऽप्यष्टसहस्रसम्मिततया सल्लक्षणैर्लक्षिते, कुर्यात् सोऽभ्युदयं धियां समुदयं वीरस्त्रिलोकी गुरुः॥१४॥ (चन्द्रप्रभाव्याकरण, पूर्वार्ध प्रान्तप्रशस्ति) 6. द्वितीयं मध्यव्याकरणं पञ्चत्रिंशच्छतश्लोकमितम्। (हेमशब्दचन्द्रिका - प्रस्तावना, पृ० 1) 7. श्रीविजयप्रभसूरेः प्रेष्यः शिष्य कृपादिविजयकवेः। श्रीमेघविजयवाचकवरः कृतां चन्द्रिकां चक्रे॥१॥ लेख संग्रह 139 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तत्त्वचिन्तामणि' का मणिकर्णिका की तरह 'मणि' का परीक्षण किया है। उदयनाचार्यकृत किरणावली, वाचस्पतिकृत न्यायवार्त्तिकतात्पर्यटीका, महामहोपाध्याय रुचिदत्तकृत तत्त्वचिन्तामणिप्रकाश, मणिकण्ठमिश्रकृत न्यायरत्न आदि प्राचीन न्याय के ग्रन्थों के आधार से कई स्थलों का जौहरी के समान परीक्षण कर प्राचीन शैली से युक्तिपूर्वक खण्डन किया है। इसमें चार विषय हैं। इसकी रचना विजयप्रभसूरि के काल में स्वशिष्य भानुविजय के पठनार्थ हुई है। भाषा प्रौढ़ एवं प्राञ्जल है। इसकी स्वयं ग्रन्थकार द्वारा लिखित एकमात्र प्रति भुवनभक्ति भण्डार (बड़ा भण्डार) बीकानेर ग्र० नं० 321 में है। पत्र संख्या 8 है। 22. युक्तिप्रबोध सिद्धान्त - इस ग्रन्थ में आगरा निवासी, समयसार नाटक के अनुवादकर्ता, प्रसिद्ध कवि बनारसीदास की जैन-सिद्धान्त-प्रतिकूल मान्यताओं का और दिगम्बर मान्यताओं का सैकड़ों ग्रन्थों के आधार से खण्डन किया है। मूल ग्रन्थ के कुल 25 पद्य हैं जो प्राकृत भाषा में हैं और इस पर स्वयं ग्रन्थकार ने संस्कृत भाषा में 43006 श्लोक परिमाण की विशद-विवेचना पूर्ण टीका की रचना की है। ग्रन्थ में रचना संवत् का निर्देश नहीं है किन्तु विजयरत्नसूरि के साम्राज्य का उल्लेख होने से इसकी रचना संवत् 1732 के पश्चात् ही हुई है। यह ग्रन्थ ऋषभदेव केशरीमल पेढी रतलाम से ' प्रकाशित हुआ है। 23. धर्ममञ्जूषा - कवि ने उपाध्यायपद प्राप्ति के पश्चात् इसकी रचना मेड़ता में की है। इस ग्रन्थ में लेखक ने लुम्पक सम्प्रदाय के किसी अधिकारी के 58 प्रश्नों के उत्तर अनेक शास्त्रों के आधार से दिये हैं। मुख्य 58 प्रश्न हैं और 13 गौण प्रश्न हैं / ये प्रश्न किसने किये हैं या किसी ने इस प्रश्नों का कोई ग्रन्थ बनाया है जिसके उत्तर में इसकी रचना हुई है, स्पष्ट नहीं है / ग्रन्थ प्रश्नोत्तररूप गद्य संस्कृत में है। भाषा सरल और युक्तिपूर्ण है। लेखक ने अन्त में लिखा है किं विशेष समाधान हानर्षिकृत 1. मणे: परीक्षा मणिकर्णिकेव, पूर्णा रसैः स्वारसिकैर्मुदेव। गंगेश्वर श्रीगृहसन्निधाना, ध्यानेऽवधार्या शिवपूर्वतुर्याः॥१॥ 2. श्रीविजयप्रभसूरेस्तपागणेस्य सेवको मेघः। सम्यक्त्वशुद्धिसिद्धे कृतवानेतां मणिपरीक्षाम् // 3 // 3. भानूदयसदाध्याय बुद्ध्या यश्चापलं सृजेत्। अस्याम श्यामधीरहँस्तुष्टस्तस्येह सुश्रिये // 2 // 4. देखें, मोहनलाल द० देशाई: जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० 576-578 5. देखें, सागरानन्दसूरि लिखित युक्तिप्रबोध का उपक्रम-पत्र 3-11 चतु:सहस्री श्लोकानां शतत्रयसमन्विता। प्रमाणमस्य ग्रंथस्य निर्मितं तत्कृता स्वयम्॥८॥ 7. तत्पट्टभूपा महसातिपूपा, सुवर्णनैर्मल्यविधानभूपा। विराजते श्रीविजयादिरत्नः, प्रभुः प्रभाध्यापितदेवरत्नः॥ 21 // तेषां राज्ये मुदाऽकारि, वाङ्मयं युक्तिबोधनम्। मेघाद्विजयसंज्ञेन वाचकेन तपस्विना॥१२॥ 8. प्राप्तोपाध्यायपदास्ते चक्रुर्धर्ममञ्जूपाम् // 2 // 9. श्रीमेघपूर्वविजयाह्ववाचकोऽसौ, श्रीमेदिनीपुरवरे स्वदृशः प्रमत्यै॥४॥ 140 लेख संग्रह Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुण्डिका' में देखना चाहिए। हानर्षिकृत हुण्डिका ग्रन्थ अप्राप्त है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है और इसकी . प्रतियाँ बीकानेर दानसागर भंडार, बड़ौदा एवं आगरा के भंडारों में प्राप्त हैं। ज्योतिष 24. मेघमहोदय-वर्षप्रबोध - इस ग्रन्थ में रचना संवत् का निर्देश नहीं है किन्तु प्रशस्ति में गच्छनायक विजयप्रभसूरि और आचार्य विजयरत्नसूरि' का उल्लेख होने से यह निश्चित है कि इसकी रचना सं० 1732 के पश्चात् ही हुई है क्योंकि विजयरत्नसूरि को आचार्यपद सं० 1732 में प्राप्त हुआ था। ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ का सम्बन्ध और विषय स्थानांगसूत्र (जैनागम) से बतलाया है। प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रन्थ तथा भड्डली आदि लोकप्रचलित अनेक ग्रन्थों के आधार से इनकी रचना हुई है। उद्धृत ग्रन्थों में मुख्य-मुख्य ग्रन्थ निम्न हैं: 1. अर्घकाण्ड, 2. गार्गीय संहिता, 3. गिरधरानन्द, 4. चतुर्मासकुलक, 5. जगन्मोहन, 6. जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र, 7. तिथिकुलक, 8. त्रैलोक्यदीपक, 9. नरपतिजयचर्या, 10. बालबोध ज्योतिष, 11. भडुली, 12. भद्रबाहुसंहिता, 13. भगवतीसूत्र, 14. रुद्रकृत मेघमाला, 15. हीरविजयसूरि कृत मेघमाला, 16. केवलीकीर्ति' (दिगम्बर) कृत मेघमाला, 17. खरतरगच्छीय उपाध्याय मेघजी कृत मेघमाला, 18. रत्नमाला, 19. रामविनोद, 20. वराहसंहिता, 21. विवेकविलास, 22. सारसंग्रह, 23. स्थानांगसूत्र, 24. दुर्गदेव कृत षष्टिसंवत्सर आदि। ___ आश्चर्य है कि हीरविजयसूरि, खरतरगच्छीय मेघजी और केवलकीर्तिप्रणीत मेघमाला नामक तीनों ग्रन्थ आज अप्राप्त हैं। . यह ग्रन्थ 13 अधिकार और 21 द्वारों में विभक्त है। देश, वात, देव, संवत्सर, शनिश्चर वत्सर, अयन, मास-पक्ष-दिनं निरूपण, अगस्ति वर्षराजादि जन्मलग्न अभ्रविधुदादि कथन, गर्भकथन, तिथिफलकथन, सूर्याचार कथन, ग्रहणविमर्श द्वारचतुष्टय कथन और शकुन निरूपण नामक 13 अधिकार हैं। इस ग्रन्थ की महत्ता के सम्बन्ध में पं० भगवानदासजी जैन लिखते हैं: 'इसका प्रतिदिन अनुशीलन किया जाए तो अगले वर्ष में दुष्काल होगा या सुकाल, वर्षा कब और कितने-किने दिन बरसेगी; धान्य, सोना, चांदी आदि धातु, कपास, सूत और क्रयाणक वस्तु इन 1. शेपं श्रीहीरविजयसूरीश्वरवचः प्रबुद्ध श्रीलुम्पाद्यपाक्षिकश्रीमेघजीनामाचार्यसहचारवश श्रीतपागच्छसामाचार्यंगी कारकसैद्धान्तिकमुख्यश्रीहानर्पिकृतहुण्डिकातः प्रतिपत्तव्यम्। 2. श्रीमत्तपागणविभुः प्रसरत्प्रभावः, प्रद्योतते विजयतः प्रभनामसूरिः। तत्पट्टपद्यतरणिर्विजयादिरत्नः, स्वामी गणस्य महसा विजितधुरत्नः॥ 99 // 3. स्थांनागसूत्रविषयीकृतवर्षबोध-ज्ञानाय यत्प्रकरणं विहितं वितत्य। भक्त्या व्यदीपि जिनदर्शनमेव तेन, लोकः सुखी भवतु शाश्वतबोधलक्ष्म्या // 98 // 4. क्वचित्प्राच्यैर्वाच्यैरतिशयरसात् श्लोककथनैः, क्वचिन्नव्यैः श्रव्यैः प्रकरणमभूदेतदखिलम्। सतां प्रामाण्याय क्वचिदुचितलोकोक्तिरुचितं, जिनश्रद्धाभाजामपि चतुरराजां समुचितम् // 101 // 5. देखें पृ० 262, 347 // 6. देखें, पृ० 263, 312 // 7. देखें, पृ० 108 8. त्रयोदशोऽधिकारो भूच्छास्त्रेऽस्मिन् शकुनाश्रयः। . तदेकविंशतिद्वरिर्ग्रन्थो लभत पूर्णताम् // 97 // लेख संग्रह 141 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबका तेजी होना या मंदी, अच्छी तरह जान सकते हैं। सारांश यही है कि भावी वर्ष का शुभाशुभ जानने के लिये कोई भी विषय इसमें नहीं छोड़ा है।' (भूमिका, पृ० 4) पं० भगवानदासजी जैन कृत हिन्दी अनुवाद के साथ यह ग्रन्थ प्रकाशित है। 25. जन्मपत्रीपद्धति - मुनि जिनविजयजी की सूचनानुसार इसकी एक प्रति मुनिकान्तिसागरजी के पास है। अनूपसंस्कृत-लायब्रेरी बीकानेर में भी 'मेघीपद्धति' की एक प्रति है पर उसमें कर्ता का नाम नहीं है। 26. हस्तसंजीवन - इसका दूसरा नाम सिद्धज्ञान भी हैं। मूल में 525 पद्य हैं। इस ग्रन्थ पर . स्वयं ग्रन्थकार ने 'सामुद्रिक लहरी' नामक 5000 श्लोक परिमाण विस्तृत टीका की रचना की है- . 1. दर्शनाधिकार, 2. स्पर्शनाधिकार, 3. रेखाविमर्शनाधिकार और 4. विशेषाधिकार। यह ग्रन्थ हस्तरेखा के सम्बन्ध में भारतीय सामुद्रिक शास्त्र का प्रामाणिक और महत्त्वूपर्ण ग्रन्थ है। टीका सहित यह ग्रन्थ मुनि मोहनलालजी जैन ग्रन्थमाला, इन्दौर से प्रकाशित है। रमल 27. रमलशास्त्र - यह ग्रन्थ अप्राप्त है। इसके संबंध में पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह ने दिग्विजय-महाकाव्य की प्रस्तावना (पृ० 8) में लिखा है कि 'मेघमहोदयमाँ तेनो उल्लेख आवे छ / आ ग्रन्थ पण पोताना शिष्य मेरुविजय माटे लख्यो हतो' किन्तु मेघमहोदय का स्थल लेखक ने नहीं दिया है। जहाँ तक मेरा ख्याल है मेघमहोदय में इसका उल्लेख नहीं है। 28. उदयदीपिका - इसमें प्रश्न निकालने की पद्धति का विस्तृत वर्णन है। सं० 1752 में श्रावक मदनसिंह के लिये प्रश्नोत्तररूप में ग्रन्थकार ने इसकी रचना की हैं। यह ग्रन्थ अद्यावधि अप्रकाशित है। 29. प्रश्नसुन्दरी - इस ग्रन्थ में प्रश्न-विधि का संक्षेप पद्धति से वर्णन है। इसकी रचना भी श्रीविजयप्रभसूरि के शासनकाल में हुई है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। दिग्विजय महाकाव्य की प्रस्तावना (पृ० 8) के अनुसार इसकी एक प्रति आचार्य क्षमाभद्रसूरि के पास है। 30. वीसा यंत्र कल्प - यन्त्र-शास्त्र इसे अर्जुनपताका और विजययन्त्र भी कहते हैं / इस ग्रन्थ की रचना विजयप्रभसूरि के साम्राज्य में हुई है। इस ग्रन्थ में 15 का यन्त्र, 16-17 का यन्त्र, 19 का यन्त्र, 20 का यन्त्र, पद्माकार वीसा यंत्र, अहँ एवं 20 विहरमान के आधार से 20 का यन्त्र, विजय यंत्र आदि की रचना विभिन्न रूप से किस प्रकार होती है, इसका विस्तार के साथ वर्णन किया है। अन्त में पद्मावती स्तोत्रान्तर्गत 'भूविश्व' पद्य की व्याख्या करते हुये पद्मावती वीसा यंत्र का विस्तार से आलेखन किया है। वीसा यंत्र का विचार करते हुये लिखा है कि बाहुबली आदि मुनिगण इस वीसा यंत्र को गतिभेद से स्वीकारते हैं / तो ये बाहुबली मुनि कौन हैं और इनका यन्त्र सम्बन्धी कौन-सा ग्रन्थ है? यह शोधकर्ताओं के लिये विचारणीय है। 1. नत्वार्हन्तं पार्श्वभास्वद्रूपं शंखेश्वरस्थितम्। श्रीश्राद्धमदनासिंहे धर्मलाभः प्रतन्यते॥१॥ (उदयदीपका मंगलाचरण) 2. अथ केचिदिदं यन्त्रं विशतेर्गतिभेदतः। प्राहुः श्रीबाहुबल्याद्या मुनयो नयकोविदा:॥ (पृ० भ४) 142 लेख संग्रह Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह ग्रन्थ अनुवाद सहित महावीर ग्रन्थमाला, धूलिया से प्रकाशित है। अध्यात्म 31. अर्हद्गीता - भगवद्गीता के अनुकरण पर 36 अध्यायों में ग्रन्थकार ने इसकी रचना की है। भगवान् कृष्ण एवं अर्जुन की तरह इसमें गणधर गोतमस्वामी द्वारा प्रश्न और श्रमण भगवान् महावीर द्वारा उत्तर शैली में सरल शब्द रचना द्वारा जैन-दर्शन का सुन्दर दिग्दर्शन है। प्रत्येक अध्याय में 21 पद्य हैं। इसका दूसरा नाम तत्त्वगीता है। रचना संवत् का निर्देश नहीं है। यह ग्रन्थ महावीर ग्रन्थमाला, धूलिया से प्रकाशित है। ___32. मातृका प्रसाद - मातृका वर्ण 'ओम् नमः सिद्धम्' वर्णाम्नाय पर विवेचन करते हुए, 'ओम्' के रहस्य का विश्लेषण करते हुए अध्यात्मदर्शन का प्रतिपादन किया है। सं० 1747 धर्मनगर में इसकी रचना हुई है। यह प्रति कहाँ प्राप्त है? इस सम्बन्ध में पं० बेचरदासजी ने देवानन्दमहाकाव्य की प्रस्तावना में कोई उल्लेख नहीं किया है। 33. ब्रह्मबोध - यह ग्रन्थ अद्यावधि अप्राप्त है। अम्बालाल प्रेमचन्द शाह, पं० बेचरदास जीवराज दोशी, पं० भगवानदास जैन आदि ने इसको मेघविजयजी की आध्यात्मिक रचना मानी है, परन्तु किस आधार से? यह स्पष्ट नहीं है। संभव है अर्हद्गीता की पूर्व-पीठिका में ब्रह्म का निरूपण' होने से इसी आधार पर यह परम्परा चल पड़ी हो। ऐतिहासिक 34. तपगच्छपट्टावलीसूत्रवृत्यनुसन्धान - जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि मेघविजयजी ने पूर्व प्रणीत तपगच्छ पट्टावली जिसमें जगद्गुरुहीरविजयसूरि तक का वर्णन था, उसकी पूर्ति के रूप में * मेघविजयजी ने इसकी रचना की है। इसमें मूल चार पद्य प्राकृत भाषा में हैं और उसकी व्याख्या संस्कृत पद्य में है। आचार्य विजयसेनसूरि, विजयदेवसूरि, विजयसिंहसूरि और विजयप्रभसूरि का सं० 1932 से 1723 तक अनुक्रम से ऐतिहासिक गुरुपरम्परा का वर्णन है। यह दिग्विजय महाकाव्य के परिशिष्ट में प्रकाशित है। टीका-ग्रन्थ . 35. विजयदेवमहात्म्यविवरण - खरतरगच्छीय ज्ञानविमलोपाध्याय के शिष्य श्रीवल्लभोपाध्याय ने सं० 1687 के आसपास तपागच्छीय विजयदेवसूरि के यशोवर्णन रूप इस 1. इतोऽधिकं किञ्चन मातृकाय, व्याख्यानमादेशि मया वितत्य। श्रीतत्त्वगीताहितसत्प्रतीताऽध्यायेषु सद्ध्येयधियोत्तरेषु // (मातृकाप्रसाद) - (देवानन्दमहाकाव्य-प्रस्तावना, पृ०९ की टिप्पणी) 2. ओं नम: सिद्धमित्यादेवर्णाम्नायस्य वर्णनम्। चक्रे श्रीमेघविजयोपाध्याय धर्मसाधनम्॥ संवत्सरेऽश्ववार्थ्यश्वभूमिते पौप उज्ज्वले। श्रीधर्मनगरे ग्रन्थः पूर्णश्रियमशिश्रियत्॥ (मातृकाप्रसाद-प्रशस्ति) 3. दिग्विजय महाकाव्य-प्रस्तावना 4. देवानन्दमहाकाव्य-प्रस्तावना 5. मेघमहोदय-वर्प प्रबोध-प्रस्तावना 6. अर्हद्गीता पूर्वपीठिका पद्य 7-14 7. श्रीवल्लभोपाध्याय के परिचय के लिये देखें, अरजिनस्तव' की भूमिका लेख संग्रह 143 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकाव्य की रचना की है। इस काव्य पर विवरण अर्थात् दुर्गम शब्द एवं स्थलों का मेघविजयजी ने स्पष्टीकरण किया है। रचना संवत् का निर्देश नहीं है किन्तु 1706 की लिखित हस्तलिखित प्रति प्राप्त होने ये यह स्पष्ट है कि इसकी रचना इसी के आस-पास हुई होगी। यह ग्रन्थ जैन साहित्य संशोधक समिति की तरफ से प्रकाशित हो चुका है। 36. वृत्तमौक्तिक दुर्गमबोध - छंद-ग्रन्थ, भट्ट चन्द्रशेखर प्रणीत वृत्तमौक्तिक नामक छन्दोग्रन्थ के प्रथम खण्ड के प्रथम गाथा प्रकरण के पद्य 51 से 83 तक अर्थात् 36 पद्यों की टीका है। इन 36 पद्यों में प्रस्तार का निरूपण हुआ है। प्रस्तार जैसे दुर्गम विषय को मेघविजयजी ने रोचक एवं सरल बना दिया है। इस टीका की रचना 1755 में भानुविजय' के पठनाई हुई है। इसकी एकमात्र प्रति स्वयं मेघविजयजी द्वारा लिखित मेरे संग्रह में है। यह टीका मेरे द्वारा संपादित 'वृत्तमौक्तिक' में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा प्रकाशित हो चुकी है। 37. भक्तामरस्तोत्र टीका - आचार्य मानतुंगसूरिप्रणीत भक्तामरस्तोत्र पर यह टीका है। इस टीका की प्रति मेरे देखने में नहीं आई है। 38. पञ्चतीर्थस्तुति सटीक - इसका उल्लेख दिग्विजयमहाकाव्य की प्रस्तावना में अंबालाल प्रेमचंद शाह ने किया है। स्तोत्र के प्रत्येक पद्य में 5 अर्थ हैं जिनमें ऋषभ, शान्ति, पार्श्व और महावीर की स्तुति की गई है और इसकी टीका की भी रचना स्वयं ने ही की है। ___39. देवा प्रभो स्तवावचूरि - जयानन्दसूरि रचित स्तोत्र पर यह अवचूरि है। इसकी रचना सं० 1724 में हुई है। इसकी प्रति वढवाण के ज्ञान भंडार में प्राप्त हैं। स्तोत्र 40. चतुर्विंशतिजिनस्तव - कवि ने एक-एक पद्य के द्वारा चौबीस तीर्थंकरों की क्रमशः स्तुति की है। रचना यमकालंकारप्रधान है। इसकी एक मात्र प्रति मेरे संग्रह में है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है:आदि- देवाधिदेवाधिकभाग्यलक्ष्मी, नाभेयनाभेयरुचस्तनोस्ते। भावेन भावे न विभावयेत, केनाधिकेनाधिजगत्सता नो॥१॥ अन्त- एवं श्रीजिननायकाः स्तुतिपथं नीताश्चतुर्विंशतिः श्रीनाभेयमुखाः सुखाय सुमुखा देवार्यदेवान्तिमाः। सूरिश्रीविजयप्रभप्रभुपदप्राप्तोदये सन्त्वमी, मेघाख्ये सकृपाः कृपादिविजयप्राज्ञेन्द्रशिष्ये मयि // 28 // 41. आदिजिनस्तोत्र - यह स्तोत्र अपूर्ण रूप में ही राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, ग्रं० नं० 20415 में प्राप्त हैं। आद्यन्त इस प्रकार है: स्वस्तिश्रियाभं प्रतिरूपरूपाः, सर्वेऽपि देवासुरमर्त्यभूपाः। तासां विवाहस्थितिहेतवेयं, प्रादुश्चकाराऽऽ दिजिनं विधाता॥ 1 // 1. समित्यर्थाश्वभूवर्षे प्रौढिरेषाऽभवत् श्रिये भान्वादिविजयाध्यायहेतुतः सिद्धिमाश्रिता॥ (टीका प्रशस्तिः) 144 लेख संग्रह Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___नयं किमेनं हृदये निधाय, मदोद्धरं दुर्द्धरतेजसं तम्। आद्यः प्रभुर्बाहुबलिं निनाय, पदं पदं स्वेन समं समंगलम्॥ 24 // 42. रावणपार्श्वनाथ स्तोत्र - शार्दूलविक्रीडित छन्द में 9 पद्यों में रावणपुर स्थित पार्श्वनाथ * की स्तवना है। रावणपुर-संभवतः अलवर का ही दूसरा नाम है क्योंकि कवि ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) के निकट स्वीकार किया है:जाने तज्जनकात्मजाव्यतिकर प्रोद्भूयमानानया न्मत्वा त्वं ननु मंगमेव भगवन्नेतस्थले तस्थिवान् / सेवार्थं भुवि रावणाख्यनगरं तत्तेन संवासितं . पार्श्व चेन्द्रपथं सुतेन विहितं तेनेन्द्रजिच्छर्मणा // 5 // यह स्तोत्र 'महाचमत्कारिक वीशायन्त्रकल्प' नामक पुस्तक में प्रकाशित हो चुका है। गुर्जर भाषा की कृतियाँ 43. कुमति निराकरण हुण्डी स्तवन - 79 गाथा के इस स्तवन में दिगम्बर समाज की मान्यताओं का खण्डन है। श्रीमोहनलाल द० देशाई लिखित जैन गुर्जर कविओ भाग 3 के अनुसार इसकी प्रति महोपाध्याय रामलालजी संग्रह, बीकानेर में है। 44. पार्श्वनाममाला स्तवन -दीव में इसकी रचना हुई है। पद्य संख्या 35 है। सं० 1721 की लिखित प्रति से प्राचीन तीर्थमाला भाग 1 में प्रकाशित हुई है अत: सं० 1721 में इसकी रचना हुई है। 45. विजयदेवसूरि निर्माण स्वाध्याय - इसमें कवि ने विजयदेवसूरि का संक्षिप्त जीवनचरित्र प्रभाव आदि का उल्लेख करते हुए सं० 1712 आषाढ़ सुदि 10 को निर्वाण का विस्तार से आलेखन किया है। इसमें 4 ढालें हैं, दोहों सहित कुल गाथाएँ 52 हैं। जैन ऐतिहासिक रासमाला, भाग 2 में पृ० 102-107 में प्रकाशित हो चुका है। 46. विजयरत्नसूरि स्वाध्याय - इस स्वाध्याय में तत्कालीन गणनायक विजयरत्नसूरि के गुणों का कीर्तन किया गया है। गाथा 42 है। ऐतिहासिक सज्झायमाला भाग 1, पृ० 21-22 पर मुद्रित हो चुकी है। .. 47. कृपाविजयनिर्वाण रास - इसका उल्लेख अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह ने दिग्विजय महाकाव्य की प्रस्तावना में किया है। संभवतः इसमें कवि ने अपने गुरु का जीवन-दिग्दर्शन कराते हुए निर्वाण का वर्णन किया होगा। 48-52 - 48. जैनधर्मदीपक स्वाध्याय, 49. जैन शासनदीपक स्वाध्याय, 50. आहारगवेषणा स्वाध्याय, 51. चौबीस जिनस्तवन, तथा 52. दशमत स्तवन आदि के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं। 53. मगसी पार्श्वनाथ स्तवन - इस स्तवन की 5 गाथायें हैं। इसकी प्रति मेरे संग्रह में है। पं० बेचरदास जीवराज दोशी ने देवानन्दमहाकाव्य की प्रस्तावना पृ० 9 में लिखा है कि ग्रन्थकार का एक स्वहस्तलिखित पत्र भी विद्यमान है और वह पत्र ग्रन्थकार ने सं० 1756 भाद्र सुदि 2 को ग्वालियर से अपने शिष्य मुनि सुन्दरविजय, जो जिहानाबाद (दिल्ली) नगर में चातुर्मास थे उन पर लिखा हुआ है। यह पत्र गुर्जर भाषा में है। शोध करने पर कवि प्रणीत और भी अनेकों ग्रन्थ तथा विज्ञप्तिपत्र प्राप्त हो सकते हैं क्योंकि कवि प्रतिवर्ष चातुर्मास के मध्य में तत्कालीन गणनायक को प्रौढ़ एवं प्रांजल संस्कृत भाषा में कवित्व तथा लेख संग्रह 145 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदग्ध्यपूर्ण विज्ञप्ति-पत्र प्रेषित किया करता था। वर्तमान में केवल 7-8 ही पत्र प्राप्त हुए हैं तथा . श्री अगरचन्दजी नाहटा की सूचनानुसार आगम प्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी को कुछ नये विज्ञप्तिपत्र और प्राप्त हुए हैं। ग्रन्थों के संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि महोपाध्याय मेघविजयजी का प्राकृत, संस्कृत और मरु गुर्जर भाषा पर तथा वाङ्मय के प्रत्येक क्षेत्र पर पूर्ण अधिकार था। कवि की प्रतिभा तथा कवि के प्रत्येक ग्रन्थ पर कलापक्ष और भावपक्ष की दृष्टि से विचार-विमर्श एवं मूल्यांकन किया जाए तो स्वतंत्र ग्रन्थ तैयार हो सकता है जो कि इस निबन्ध के लिये उपयुक्त नहीं होगा। अतः इस निबन्ध को संवत् 1761 में अजबसागर गणि प्रणीत मेघविजयोपाध्यायस्तुति द्वारा पुष्पाञ्जली देता हुआ पूर्ण करता हूँमेघविजय उवझाय शिरोमणि पूरण पुण्य निधान के भारा, ग्यान के पूरतें दूर कियो सब लोकन के मति को अंधियारा। जा दिन लाग्गि उडुग्गण में रवि चंद अनारत तेज है सारा, ता दिन लों प्रतपो मुनिराज कहे कवि अजब भवोदधि तारा // 1 // ... भानु भयो जिन के तप-तेज तै मंद उद्योत सदा जगती में। ___ दूर गयो मरुदेश तें नीकरि मूढपणो थरकी धरती में। जा दिन तें फुनि मुंह कर्यो इत को तुम सुन्दर पूरब ही में, ता दिन तें दुख रोरव देश के दूर गये तजि के किन ही में // 2 // नाम जपै जिनके सुख होय बने अति नीको जगत्ति में सारे, भूरितरो सखरोइ तमाम अमाम बधे सुबिधि दिन मौरे। . वानी मैं जाकै मिली सब आय सुधाई सुधाई तजी सुर सारै। . मेघविजय उवझाय जयो तुम जा दिन लो दवि लोक में तारे॥३॥ [श्री मरुधरकेसरी मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ] 146 लेख संग्रह Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महो० मेघविजय प्रणीत नवीन एवं दुर्लभ ग्रन्थ धर्मलाभशास्त्र राजस्थान धरा के अलंकार, महाकवि, विविध विधाओं के ग्रंथ-सर्जक महोपाध्याय मेघविजयजी १८वीं शताब्दी के अग्रगण्य विद्वान् हैं। ये तपागच्छ परम्परा के श्री कृपाविजयजी के शिष्य थे और तत्कालीन गच्छनायक श्री विजयप्रभसूरि के अनन्य चरण-सेवक और भक्त कवि थे। इनके संबंध में खोज करते हुए एक विशद लेख.मैंने सन् 1968 में लिखा था। इस लेख में मैंने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार किया था। इसमें मैंने इनके द्वारा सर्जित महाकाव्य, पादपूर्ति-साहित्य, चरित्र ग्रंथ, विज्ञप्तिपत्र-काव्य, व्याकरण, न्याय, सामुद्रिक, रमल, वर्षाज्ञान, टीकाग्रन्थ, स्तोत्र साहित्य एवं स्वाध्याय साहित्य पर संक्षिप्त विचार करते हुए ग्रन्थों का परिचय दिया था। यह मेरा लेख "श्री मरुधरकेसरी मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ" में सन् 1968 में प्रकाशित हुआ था। - गत वर्षों में शोध करते हुए मुझे धर्मलाभशास्त्र/सामुद्रिकप्रदीप की प्रति भी प्राप्त हुई। इस प्रति का परिचय निम्न है - साइज 25.5411 सेमी०, पत्र संख्या 39, प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या 19, प्रति पंक्ति अक्षर संख्या 55 है। १०वाँ पत्र खपिडत एवं आधा अप्राप्त है। लेखन पुष्पिका नहीं है, लेखन प्रशस्ति न होने पर भी रचनाकाल के निकट की ही प्रतीत होती है। प्रति शुद्ध एवं संशोधित है और टिप्पणयुक्त है। टिप्पण पर्यायवाची न होकर ग्रन्थ के विचारों को परिपुष्ट करने वाले हैं। ग्रन्थ नाम - ग्रन्थ के प्रत्येक अधिकार और पुष्पिका में "धर्मलाभशास्त्रे" लिखा गया है, किन्तु १४वें अधिकार की पुष्पिका में "धर्मलाभशास्त्रे सामुद्रिकप्रदीपे" प्राप्त है। वैसे धर्मलाभ शब्द समस्त श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मुनियों का आशीर्वाद वाक्य है। यह ग्रन्थ प्रश्नशास्त्र से सम्बन्ध रखता है। मंगलाचरण श्लोक 17 के आधार से प्रश्नकर्ता के प्रश्न पर कुण्डली बना कर फलादेश लिखा गया है। अनिष्ट निवारण के लिए सर्वतोभद्रः यंत्र, मंत्र, तंत्र, राशिगत तीर्थंकर आदि की साधना, उपासना विधि के द्वारा मनोभिलषित सिद्धि अर्थात् धर्म का लाभ, वृद्धि आदि प्राप्ति का इसमें विधान किया गया है। धर्मलाभ अंगी बन कर और समस्त साधनों को अंग मानकर इसकी सिद्धि का विवेचन होने से "धर्मलाभ-शास्त्र" नाम उपयुक्त प्रतीत होता है। "सामुद्रिक-प्रदीप" नाम पर विचार करें तो सामुद्रिक शब्द सामान्यतया हस्तरेखा-ज्ञान का द्योतक है। सामुद्रिक शब्द के विशेष और व्यापक अर्थ पर विचार किया जाये तो हस्तरेखा, स्वरशास्त्र, अंगशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, प्रश्नशास्त्र, यंत्र-मंत्र-तंत्र को भी सम्मिलित किया जाए तो सामुद्रिक-प्रदीप नाम भी युक्तिसंगत हो सकता है। इसमें प्रचलित सामुद्रिक अर्थात् हस्तरेखा शास्त्र का विवेचन/विचार नहीं के समान है। अत: कर्ता का अभिलषित नाम धर्मलाभशास्त्र ही उपयुक्त प्रतीत होता है। महो० मेघविजयजी - ____इस कृति के प्रणेता महोपाध्याय मेघविजय हैं, जो तपागच्छीय श्री कृपाविजयजी के शिष्य थे। इनका साहित्य सर्जनाकाल 1709 से 1760 तक का तो है ही। ये व्याकरण, काव्य, पादपूर्ति-साहित्य लेख संग्रह 147 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकार्थीकोश आदि के दुर्धर्ष विद्वान् थे। इन विषयों के विद्वान होते हुए भी ये वर्षा-विज्ञान, हस्तरेखाविज्ञान, फलित-ज्योतिष-विज्ञान और मंत्र-तंत्र यंत्र साहित्य के भी असाधारण विद्वान् थे। कवि ने इस ग्रंथ में रचना सम्वत् और रचना स्थान का उल्लेख नहीं किया है। हाँ, रचना प्रशस्ति पद्य 3 में आचार्य विजयप्रभसूरि के पट्टधर आचार्य विजयरत्नसूरि का नामोल्लेख किया। "पट्टावली समुच्चय भाग 1" पृष्ठ 162 और 176 में इनका आचार्यकाल 1732 से 1773 माना है, जबकि डॉ० शिवप्रसाद ने "तपागच्छ का इतिहास" में इनका आचार्यकाल 1749 से 1774 माना है। इस ग्रन्थ में अधिकांशतः सम्वत् 1745 वर्ष की ही प्रश्न-कुण्डलिकाएँ हैं, इसके पश्चात् की नहीं हैं, अतः इसका निर्माणकाल 1745 के आस-पास ही मानना समीचीन होगा। छठा अधिकार राजा भीम की प्रश्न-कुण्डली से संबंधित है। पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक भीमसिंह हुए हैं। सीसोदिया राणा भीमसिंह, महाराणा अमरसिंह का पुत्र भीमसिंह, महाराणा राजसिंह का पुत्र भीमसिंह, महाराणा भीमसिंह और जोधपुर के महाराजा, कोटा के महाराजा, बागोर के महाराज, सलुम्बर के महाराणा भी हुए है। महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा द्वारा लिखित "उदयुपर राज्य का इतिहास" के अनुसार महाराणा राजसिंह का पुत्र भीमसिंह ही इनका समकालीन हैं। महाराणा राजसिंह का देहावसान विक्रम सम्वत् 1737 में हुआ था और उनके गद्दीनसीन महाराणा जयसिंह हुए थे। भीमसिंह चौथे नं० के पुत्र थे, अत: महाराणा की पदवी इनको प्राप्त न होकर जयसिंह को प्राप्त हुई थी। ये भीमसिंह बड़े वीर थे। विक्रम सं० 1737 में इन्होंने युद्ध में भी भाग लिया था। सम्भव है ये भीमसिंह समकालीन होने के कारण मेघविजयजी के भक्त, उपासक हों और 1745 में कुण्डलिका के आधार से इनका भविष्यफल भी कहा हो। ___ अधिकार 4,5,8,9,10, 11 में क्रमशः उत्तमचन्द्र, मंत्री राजमल्ल, सोम श्रेष्ठि जयमल्ल, मूलराज, छत्रसिंह के नाम से भी प्रश्नकुण्डली बना कर फलादेश दिये गये हैं। ये लोग कहाँ के थे? इस सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती हैं। महोपाध्यायजी का जनसम्पर्क अत्यन्त विशाल था। इसलिए यह नाम कल्पित तो नहीं है। सम्भवतः उनके विशिष्ट भक्त उपासक हों, अतः ये सारे नाम अन्वेषणीय हैं। अधिकार ७वाँ महोपाध्याय मेघविजयजी से संबंधित है। इसके मंगलाचरण में महोपाध्याय पद प्राप्ति के उल्लेख पर टिप्पणीकार ने लिखा है - "हे श्रीशंखेश्वरपार्श्व! श्रिया कान्त्या महान् यः उपाधिर्धर्मचिन्तनरूपस्तत्र अभिषिक्त: व्यापारितो मेघो येन तत् सम्बोधनं हे प्रभो ! तव भास्वदुदयज्योतिभरैर्मया प्रकाशे प्राप्ते विजयस्य अधिकारो वक्तव्यः" इसके साथ विक्रम सम्वत् 1731, भादवा सुदि तीज की प्रश्नकुण्डली पर विचार किया है, अत: यह स्पष्ट है कि मेघविजयजी को विक्रम सम्वत् 1731 या उसके पूर्व ही महोपाध्याय पद प्राप्त हो चुका था। इस ग्रन्थ में हस्तसंजीवन और उसकी टीका, ज्ञानसमुद्र और केशवीय ज्योतिष ग्रन्थों आदि के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। श्री मेघविजयजी जगन्मान्य वासुदेव श्रीकृष्ण द्वारा अधिष्ठापित, पूजित और वंदित भगवान् शंखेश्वरपार्श्वनाथ के अनन्य भक्त हैं और उन्हीं के कृपा-प्रसाद के समस्त प्रकार के धर्मों का लाभ प्राप्त होता है। __ प्रश्नकुण्डलिकाओं पर आधारित यह धर्मलाभशास्त्र ग्रन्थ अभी तक अप्राप्त रहा है। फलित-ज्ञान और ज्योतिर्विज्ञान की दृष्टि से यह ग्रन्थ अध्ययन योग्य है, अत्यंत उपयोगी है और प्रकाशन-योग्य है। 148 लेख संग्रह . . Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ का आद्यन्त भाग प्रत्येक अधिकार के साथ प्रस्तुत है:ग्रंथ का मंगलाचरण - प्रथम अधिकार आँ नमः सिद्धरूपाय, श्रीनाभितनु जन्मन / अर्ह ते के वलज्ञाय, पुरुषोत्तमतेजसे // 1 // ओँ कार रूपध्ये यो-ऽहं शंखेश्वर प्रतिष्ठितः / श्रीपार्श्वः केशवैश्चक्र-धरैः पूज्य: श्रियेऽस्तु सः॥२॥ दशावतारै यो गेयः श्रेयः श्रीपरमेश्वरः। इष्टः श्रीधर्मलाभाय भूयाद्भव्यतनूभृताम् // 3 // श्रीसहस्रांशुना न्यस्तं यथा ज्योतिर्गणाधिपे। तथा श्रीपार्थपूजो स्वं ज्योतिः स्फुरति केशवे॥ 4 // दशावतारस्ते नैव श्रीकृष्णस्त्रिजगत् प्रियः। अश्वसेनाभिनन्दी च भविष्यति जिनेश्वरः // 5 // श्रीवर्धमानस्तेजोभि-वर्धमानः शिवाय नः। यद्धर्मलाभाद्वर्षतु-मासपक्षदिनाः सुखाः॥ 6 // यस्य सेवार्चनध्यानै-ग्रंहाश्चन्द्रार्यमादयः। ज्योतिर्यक्ता राशिबद्धा नणां वश्या इव श्रिये॥७॥ अम्भोधिर्बोधिवारीणां गौतमस्तमसां भिदे / गणाधिनायको जीयाद् गर्जद्गजमहाध्वनिः // 8 // जीयासुस्ते तपागच्छे श्रीपूज्या विजयप्रभाः। यैः कृपाधर्मविजयैः कृतार्हच्छासनोन्नतिः॥ 9 // ये पूर्वं लब्धजन्मानः पूज्या श्रीउदयप्रभाः। दैवज्ञाः केशवाद्याश्च ते प्रसीदन्तु भूसुराः॥ 10 // के शवा रसिकाग्रण्यः के शवास्तार्कि के श्वराः। केशवा ज्योतिषे साक्षाज्ज्योतिष्मन्तस्तमोहराः॥११॥ स्याद् पं लक्षणं भावश्चात्य प्रकृ तिरीतयः / सहजो रूपतत्त्वं च धर्मः सर्गो निसर्गवत्॥ 12 // शीलं सतत्त्वसंसिद्धिरित्यायै नामभिः स्मृतः। धर्मस्वभावस्तल्लाभस्ततः सम्भव ऊच्यते // 13 // त्रिपद्यामपि तत्पूर्वमुत्पादः प्रतिपादितः / श्रीचतुर्दशपूर्वेषु तथा भगवताऽर्ह ता॥ 14 // पञ्चमांगे चतुःपद्यां पूर्वमुत्पादसूचनम् / तजन्मपत्रात् सर्वस्य स्वभावः प्रकटीभवेत्॥ 15 // चिदानंदमयं सौख्यमक्षयं लभ्यते ऽङ्गिभिः / यद्धर्मलाभात् सुगम तन्नृजन्माऽत्र साध्यते // 16 // लेख संग्रह 149 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षर्तुमासपक्षाहस्तिथि - वारोडु नाडिका। लग्नराशियुजः खेटा ज्ञेया द्वारैः पुरागतैः॥ 17 // वर्ष मासः पक्षतिथी घटीत्यावर्षकं मतम् / पञ्चकं धर्मलाभज्ञैः शेषं तु परिशेषतः॥ 18 // दिनमानं विनिर्णीय पूर्व लग्नं प्रसाधयेत् / षड्वर्गशुद्धेनानेन धर्मलाभो ध्रुवं भवेत॥ 19 // यः स्याज्योतिःशास्त्र-चूड़ामणि-सामुद्रिकादिषु। वेत्ता प्राज्ञस्तथाभ्यासी धर्मलाभोऽस्य निश्चितः॥२०॥ क्रि याजप-तपःसक्तो व्यक्तो रक्तः सुरार्चने। इष्टं स्मरन् गुरुं ध्यायेत् धर्मं स लभते सुधीः॥२१॥ प्रश्ने भूतभवद्भावि दिनत्रयं विलिख्यते / वर्तमानतिथिर्वार भयो गघटिकान्वितं // 22 // लेख्या वेलार्क संक्रान्ते रुद्भवस्य घटीपलैः। भुक्ता भोग्यास्तदीयांशाः स्पष्टतांशादिका विधोः॥२३॥ सर्वतोभद्र यंत्रस्य स्पर्शः कार्योऽत्र नाणकैः। फलनामापि च ग्राह्यं धार्यं चित्तेऽवधानतः॥ 24 // * * * श्रीशंखेश्वरपार्हिन् विवस्वानेष शाश्वतः। . यत्प्रभावाद्धर्मलाभेऽधिकारःप्रथमोऽभवत // 25 // प्रथमाधिकार-पुष्पिका ___ इति श्रीधर्मलाभे महोपाध्यायमेघविजयगणि प्रकटीकृते प्रथमोऽधिकारः सम्पूर्णः (7 ए) द्वितीयाधिकार-मङ्गलाचरणम् नत्वा श्रीपरमं ज्योतिःस्वरूपं पार्श्वमीश्वरम्। अज्ञातजन्मनः पुंसो धर्मलाभं निदर्शये // 1 // , हस्तसंजीवनग्रन्थ-वृत्तौ श्लोक चतुष्ट यम् / इष्टोपदिष्टं तद्व्याख्या सोदाहरणं मुच्यते // 2 // द्वितीयाधिकार-प्रशस्तिः इत्येवं भुवनेश्वरस्य भगवत्पार्श्वस्य नाम्नः स्फुरत्सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया॥ मंत्राध्यक्षवणिक्षु पारस इति ख्यातस्य लक्ष्मीपतेस्तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुर्द्वितीयः श्रिये॥१॥ इति श्रीधर्मलाभे शास्त्रे महोपाध्यायमेघविजयगणिना प्रकटीकृते द्वितीयोधिकारः (12 बी) तृतीयाधिकार-मङ्गलाचरणम् अथाधिकारः पुरुषोत्तमस्य, प्रारभ्यते केशवलभ्यनाम्ना। पार्श्वप्रभोः शाश्वतभास्वतोऽस्मिन्, शंखेश्वरस्य प्रणिधाननाम्ना॥१॥ लेख संग्रह 150 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयाधिकार-प्रशस्तिः . इत्येवं पुरुषोत्तमस्य भगवत्पार्श्वस्य शंखेश्वरस्याह्वानस्य निवेशनेन विदितः श्रीकेशवस्याप्ययं॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया। तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुस्तृतीयः श्रिये॥१॥ (16 ए) चतुर्थाधिकार-मङ्गलाचरणम् / अथाधिकारः प्रारभ्यः श्रीपार्श्वेशप्रभावतः। श्रीमदुत्तमचन्द्रस्य वाड्मयार्चिर्बलान्मया॥१॥ चतुर्थाधिकार-प्रशस्तिः ' नाम्नेत्युत्तमचन्द्रकस्य भगवत्पार्श्वस्य शंखेश्वरस्याह्वानस्य निवेशनेन विदित श्रीकेशवस्याप्ययं॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया। तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुश्चतुर्थः श्रिये॥१॥(१८ बी) पञ्चमाधिकार-मंगलाचरणम् श्रीकेशवस्थापितमूर्तितेजः-प्रौढ़स्य शंखेश्वरपार्श्वभानोः। प्रभाभरान् मंत्रिणि राजमल्ले-ऽधिकाऽधिकारप्रतिपत्तिरस्तु॥१॥ पञ्चमाधिकार-प्रशस्तिः श्रीशंखेश्वरचारुरूपभगवत्पार्श्वस्य भास्वत् प्रभोः, '. शुश्रूषो भूमि राजमल्ल विलसन् नाम्नि श्रिया केशवे॥ ... सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया। तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुः श्रिये पंचमः॥(२१ बी) षष्ठोधिकार-मङ्गलाचरणम् / श्रीशंखेश्वरपार्श्वस्य भास्वतः तेजसांजसा। श्रीकेशवार्चितस्यौच्चैः प्रकाशः शाश्वतोऽस्तु मे॥ इह भीमभुजौजसा जगद्विजयख्यातिधरक्षमापते! प्रकटीकृतधर्मलाभधीरधिकारः प्रतिपाद्यतेऽधुना॥ षष्ठोधिकार-प्रशस्तिः श्रीशंखेश्वरचारुरूपभगवत्पाश भास्वत् प्रभौ। शुश्रूषोस्तव साधुभीमविजयख्याते श्रिया केशवे॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया। तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुःश्रिये षण्मितः॥ ( 25 बी) सप्तमोधिकार-मङ्गलाचरणम् श्रीशंखेश्वरपार्श्वभास्वदुदयज्योतिभैरैः श्रीमहोपाध्यायाद्यभिषिक्तमेघविजयस्यात्राधिकारस्तव। लेख संग्रह 151 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्याज्ञानतमोविनाशनकृते प्राप्ते प्रकाशे मया, वक्तव्यः शुचिनव्यभव्यसुमनोऽम्भोजन्मबोधाशया॥ सप्तमोधिकार-प्रशस्तिः श्रीशंखेश्वरपार्श्वशाश्वतरवे: श्रीकेशवार्चाभृतः। शुश्रूषोस्तव वर्णमेघविजयस्यौन्नत्यभावो भुवि॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया। तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुः श्रिये सप्तमः // (28 बी) अष्टमोधिकार-मङ्गलाचरणम् नेत्रानंदनकारिणा भगवता पार्श्वेन शंखेश्वरे - त्याह्वानेन कलाभरैः कुवलयोल्लासं सदा कुर्वता। त्रैलोक्ये प्रतिभासिते समुचितः सोमाधिकारोधुना, प्रारभ्यः किल सभ्यकेशवप्रियाश्रीधर्मलाभाप्तये॥ (28 बी) अष्टमोधिकार-प्रशस्तिः श्रीशंखेश्वरपार्श्वशाश्वतरवेः श्रीकेशवार्चाभृतः। शुश्रूषोस्तव भक्तमेघविजय श्रीसोमनाम्नः सदा॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया। तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुः श्रियेऽप्यष्टमः // (32 ए) नवमोधिकार-मङ्गलाचरणम् श्रेष्ठा ज्येष्ठामल्लधर्मानुभावो, भावायैषां भाव्यते केशवाज़ः / ' पार्थो भास्वानैव शंखेश्वराख्य-स्तस्माद्विश्वे शाश्वतोऽस्तु प्रकाशः॥ (32 ए) नवमोधिकार-प्रशस्तिः / श्रीशंखेश्वरपार्श्वशाश्वतरवेः श्रीकेशवार्चाभृतः। शुश्रूषोस्तव भक्तमेघविजय ज्येष्ठादिमल्लस्य स॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया। . तत्राभूदधिकार एष नवमो हेतुर्यशःसम्पदाम्॥ (35 बी) दशमोधिकार-मङ्गलाचरणम् अथ श्रीमूलराजस्य पार्श्वभास्वत् प्रसादतः। साध्यते धर्मलाभोऽयं केशवाभ्युदिताऽध्वना॥ (35 बी) दशमोधिकार-प्रशस्तिः प्रभास्वत्केशवार्चस्य श्रीमेघविजयद्युतेः। मूलराज धर्मलाभः प्रोक्तः श्रीपार्श्वभास्वतः॥ (36 ए) एकादशोधिकार-मङ्गलाचरणम् अथोच्यते धर्मलाभश्छत्रसिंहस्य तेजसा। श्रीपार्श्वभास्वतोऽय॑स्य केशवेनोदितश्रिया॥ (36 ए) 152 लेख संग्रह Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोधिकार-प्रशस्तिः श्रीशंखेश्वरपार्श्वस्य भास्वतः केशवार्चनात्। प्रभावाद्धर्मलाभोत्राऽसाधि साधुरसाधिकः॥ (36 ए) - द्वादशोधिकार-मङ्गलाचरणम् अथ केशवसेव्यस्य प्रभावात् पार्श्वभास्वतः। धर्मलाभः कन्यकायाः कन्यते धन्यया धिया॥ (36 बी) द्वादशोधिकार-प्रशस्तिः एवं केशवपूज्यस्य प्रभोः पार्श्वस्य तेजसा। असाधि साधिकधिया धर्मलाभोऽधुना स्त्रियाः॥ (37 ए) त्रयोदशोधिकार-मङ्गलाचरणम् श्रीकेशवस्थापितपार्श्वभर्तुः प्रभाकृतः शुद्धमहःप्रकाशात्। सत्या युवत्या अपि धर्मलाभः श्राद्ध्या प्रसाध्योऽथ गुणाभिधायाः॥ (37 ए) त्रयोदशोधिकार-प्रशस्तिः / जीयात् शंखेश्वरः पार्थो भास्वानिव सदोदयी। प्रभावाद्धर्मलाभोऽत्र द्वितीयः साधितः स्त्रियाः॥ 13 // (38 ए) चतुर्दशोधिकार-मङ्गलाचरणम् प्रणम्य शंखेश्वरपार्श्वभर्तुः मूर्तिं सदा केशवपूजनीया। स्त्रियास्तृतीयोप्यथ धर्मलाभः प्रकाश्यते सुप्रभयैव भानोः॥ 14 // (38 ए) .. चतुर्दशोधिकार-प्रशस्तिः श्रीशंखेश्वरपार्श्वभास्वददितप्रौढप्रभोल्लासतः, कामिन्याः समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभोदयः। चातुर्येण चतुर्दशोऽयमभवत् तत्राधिकारः शुभः, ग्रन्थे केशव एव तद् विजयतां मौलोऽत्र हेतुः श्रियै॥ 14 // (39 ए) / रचना-प्रशस्तिः मत्वैवं भुवि धर्मलाभवचनं धीरैः परं दुर्लभं तत्प्राप्तावपि धर्मलाभविधिना साध्यं शिवोपार्जनम्। सम्यग्दर्शनबोधसाधुचरणान्यस्यायनं संस्मृतं. सर्वज्ञैः जिनभास्करैः समुदितैः सिद्धिप्रतिष्ठाधरैः॥ 2 // जीयासुर्विजयप्रभाः सुगुरवः श्रीमत्तपागच्छपास्तत्पट्टे विजयादिरत्नगणभृत् सूर्याश्च सूर्यादिमाः। . तद्राज्ये कवयः कृपादिविजयास्तेषां सुशिष्यो व्यधात् शास्त्रं बालहिताय मेघविजयोपाध्यायसंज्ञः श्रिये॥ 3 // लेख संग्रह 153 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदत्र किंचिल्लिखितं प्रमादा-दुत्सूत्रमास्थाय बलं स्वबुद्धेः। तज्जैनभक्तैः परिशोध्य साध्य सद्धर्मलाभो ह्यनया दिशैव॥४॥ उपाध्यायैरेवं ननु विरचितं मेघविजयैस्तपागच्छे स्वच्छे रसमयमिदं वाङ्मयमिह। बहूनां लोकानामुपकृतिविधौ तत्परतरैरमुष्मान्नैपुण्यात्समवहितपुण्याद् विजयताम्॥ 5 // द्वे सहस्र पञ्चशतान्यस्य मानमनुष्ठभाम्। श्रीधर्मलाभशास्त्रस्य ज्ञातव्यं भव्यधीधनैः // 6 // सूर्याचन्द्रमसौ यावद् यावन्मेरुर्महीधरः। श्रीजैनं शास्त्रं यावत् तावद् ग्रन्थः प्रवर्तताम्॥७॥ इतिश्रीधर्मलाभशास्त्रे सामुद्रिकप्रदीपे महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिप्रकटिते चतुर्दशोऽधिकारः पूर्णः। पूर्णे च तस्मिन् ग्रन्थोऽपि पूर्णः॥ श्रीः॥ [अनुसंधान अंक-३०] 000 154 लेख संग्रह Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय मेघविजय रचित सप्तसन्धान काव्य : संक्षिप्त परिचय वैक्रमीय १८वीं शताब्दी के दुर्धर्ष उद्भट विद्वानों में महोपाध्याय मेघविजय का नाम अग्रपंक्ति में रखा जा सकता है। जिस प्रकार महोपाध्याय यशोविजयजी के लिए - उनके पश्चात् आज तक नव्यन्याय का प्रौढ़ विद्वान दृष्टिगत नहीं होता है उसी प्रकार मेघविजयजी के लिए कहा जा सकता है कि उनके पश्चात् दो शताब्दियों में कोई सार्वदेशीय विद्वान नहीं हुआ है। इनकी सुललित सरसलेखिनी से निःसृत साहित्य का कोई कोना अछूता नहीं रहा है। महाकाव्य, पादपूर्ति काव्य, चरित्रग्रन्थ, विज्ञप्तिपत्र-काव्य, व्याकरण, न्याय, सामुद्रिक, रमल, वर्षाज्ञान, टीकाग्रन्थ, स्तोत्र साहित्य और ज्योतिष आदि विविध विधाओं पर पाण्डित्यपूर्ण सर्जन किया है। महोपाध्याय मेघविजय तपागच्छीय श्री कृपाविजयजी के शिष्य थे। तत्कालीन गच्छाधिपति श्री विजयदेवसूरि और श्री विजयप्रभसूरि को ये अत्यन्त श्रद्धा भक्ति की दृष्टि से देखते थे। इनका साहित्य सृजनकाल विक्रम संवत् 1709 से 1760 तक का है। (इनके विस्तृत परिचय के लिए द्रष्टव्य है - राजस्थान के संस्कृत महाकवि एवं विचक्षण प्रतिभासम्पन्न ग्रन्थकार महोपाध्याय मेघविजय; श्री मरुधरकेसरी मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज अभिनन्दन-ग्रन्थ) एक श्लोक के अनेक अर्थ करना, सौ अर्थ करना कितना कठिन कार्य है। द्विसन्धानादि काव्यों में कवियों ने प्रत्येक श्लोक के दो-दो अर्थ किये हैं। किन्तु मेघविजयजी ने सप्तसन्धान काव्य में प्रत्येक पद्य में आगत विशेषणों के द्वारा 7-7 अर्थ करके अपनी अप्रतिम प्रतिभा का उपयोग किया है। कवि कर्म के द्वारा दुरूहता पर भी विजय प्राप्त करना कविकौशल का परिचय कराता है। सप्त सन्धान महाकाव्य इन्हीं महाकवि की रचना है। इस काव्य का यहाँ संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है:___. “महो. मेघविजयजी ने सप्तसन्धान नामक महाकाव्य की रचना सं. 1760 में की है। इस काव्य की रचना का उद्देश्य बताते हुए लेखक ने प्रान्तपुष्पिका में कहा है - आचार्य हेमचन्द्रसूरि रचित सप्तसन्धान काव्य अनुपलब्ध होने से सज्जनों की तुष्टि के लिये मैंने यह प्रयत्न किया है। इस काव्य में 8 सर्ग हैं। काव्यस्थ समग्र पद्यों की संख्या 442 है। प्रस्तुत काव्य में ऋषभदेव, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर, रामचन्द्र, एवं यदुवंशी श्रीकृष्ण नामक सात महापुरुषों के जीवन चरित का प्रत्येक पद्य में अनुसन्धान होने से सप्तसन्धान नाम सार्थक है। महाकाव्य के लक्षणानुसार सज्जन-दुर्जन, देश, नगर, षड्ऋतु आदि का सुललित वर्णन भी कवि ने किया है। ___ काव्य में सात महापुरुषों की जीवन की घटनायें अनुस्यूत हैं, जिसमें से 5 तीर्थंकर हैं और एक बलदेव तथा एक वासुदेव हैं / सामान्यतया 7 के माता-पिता का नाम, नगरी नाम, गर्भाधान, स्वप्न दर्शन, दोहद, जन्म, जन्मोत्सव, लाञ्छन, बालक्रीड़ा, स्वयंवर, पत्नीनाम, युद्ध, राज्याभिषेक आदि सामान्य लेख संग्रह 155 11 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटनायें, तथा 5 तीर्थंकरों की लोकान्तिक देवों की अभ्यर्थना, वार्षिक दान, दीक्षा, तपस्या, पारणक, केवलज्ञान प्राप्ति, देवों द्वारा समवसरण की रचना, उपदेश, निर्वाण, गणधर, पांचों कल्याणकों की तिथियों का उल्लेख, तथा रामचन्द्र एवं कृष्ण का युद्ध विजय, राज्य का सार्वभौमत्व एवं मोक्ष-स्वर्ग का उल्लेख आदि कथाओं की कड़ियें तो हैं ही, साथ ही प्रसंग में कई विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख भी है। आदिनाथ चरित में - भरत को राज्य प्रदान, नमि-विनमि कृत सेवा, छद्मस्थावस्था में बाहुबली की तक्षशिला नगरी जाना, समवसरण में भरत का आना, भरत चक्रवर्ती का षट्खण्ड साधन, मगधदेश, सिन्धु नदी, शिल्पतीर्थ, तमिस्रा गुहा, हिमालय, गंगा, तटस्थ देश, विद्याधर विजय, भगिनी सुन्दरी की दीक्षा आदि का उल्लेख हैं। शान्तिनाथ के प्रसंग में - अशिवहरण, तथा षट्खण्ड विजय द्वारा चक्रवर्तित्व। नेमिनाथ - राजीमती का त्याग महावीर - गर्भहरण की घटना राम - भरत का अभिषेक, वनवास, शम्बूक का नाश, बालिवध, हनुमान की भक्ति, सीताहरण, जटायु विनाश, सीता की खोज, विभीषण का पक्षत्याग, युद्ध, रावणवध, सीतात्याग, सीता की अंग्निपरीक्षा और रामचन्द्र की दीक्षा आदि रामायण की प्रमुख घटनायें। कृष्ण - कंस वध, प्रद्युम्न वियोग, मथुरा निवास, प्रद्युम्न द्वारा उषाहरण, द्वारिका वर्णन, शिशुपाल एवं जरासंघ का वध, द्वारिका-दहन, शरीर-त्याग, बलभद्र का भम्रण और दीक्षा आदि कृष्ण सम्बन्धी प्रमुख घटनायें। इसके साथ ही कृष्ण एवं नेमिनाथ का पाण्डवों के साथ सम्बन्ध होने से पाण्डवों का चरित्र, वंशवर्णन, द्यूत, चीरहरण, वनवास, कीचकवध, अभिमन्यु का पराक्रम, महाभारत युद्ध एवं भीम द्वारा दुर्योधन का नाश आदि महाभारत की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख भी इसमें प्राप्त है। प्रत्येक पद्य में व्यक्तियों के अनुसार एक विशेष्य और अन्य सब विशेषण ग्रहण करने से कथा प्रवाह अविकल रूप से चलता है, भंग नहीं होता है। अनेकार्थी कोषों की तथा टीका की सहायता के प्रवाह का अभंग रखना अत्यन्त दुरूह है। उदाहरणार्थ सातों पुरुषों के पिताओं के नाम एक ही पद्य में द्रष्टव्य हैं : अवनिपतिरिहासीद् विश्वसेनोऽश्वसेनो ऽप्यथ दशरथनाम्ना यः सनाभिः सुरेशः। बलिविजयिसमुद्रः प्रौढसिद्धार्थसंज्ञः प्रसृतमरुणतेजस्तस्य भूकश्यपस्य // 1-54 // आदिनाथ के पक्ष में: यहाँ नाभिराजा था। वह विश्वसेन संपूर्ण सेना का, अश्वसेन अश्वों की सेना का अधिपति, दशरथ दशों दिशाओं में कीर्तिरूपी रथ पर चढ़ा हुआ, सुरेश देवों का पूज्य, बलिविजयिसमुद्र पराक्रमियों पर विजय प्राप्त करने वाला, राजकीय मुद्रायुक्त, प्रौढसिद्धार्थसंज्ञ प्रवृद्ध, सम्पादित उद्देश्य एवं बुद्धियुक्त था। उसका भूकश्यप पृथ्वी में प्रजापति के समान तथा अरुणतेज सूर्य के सदृश प्रताप व्याप्त था। इसमें शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर, रामचन्द्र एवं कृष्ण के पक्ष में क्रमशः विश्वसेन, समुद्रविजय, अश्वसेन, सिद्धार्थ, दशरथ, भूकश्यप वंश में होने के कारण सूर्य के समान प्रतापी वसुदेव को / विशेष्य मानकर अन्य विशेषण ग्रहण करने से पद्यार्थ निष्पन्न होता है। 156 लेख संग्रह Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भापहार जैसी घटना भी अन्य चरित्रों के साथ सहज भाव से वर्णित है:. .. देवावतारं हरिणेक्षितं प्राग, द्राग् नैगमेषी नृपधाम नीत्वा। तं स्वादिवृद्धया शुभ वर्द्धमानं, सुरोप्यनंसीदपहृत्य मानम् // 1-49 // इन्द्र ने पहिले दिव्यांश से पूर्ण अवतीर्ण महापुरुषों को देखा और नैगमेषी नामक देव ने शीघ्र नृपधाम नीत्वा राजाओं के घरों में आकर धनादि की वृद्धि की। प्रारम्भ से ही ज्ञानादि गुणों से पूर्ण महापुरुषों को देखकर, मान को त्याग कर सुरों ने भी नमस्कार किया। .. महावीर के पक्ष में - नृपधाम नीत्वा ऋषभदत्त के घर से सिद्धार्थ के घर में रखकर, धनधान्यादि की वृद्धि कर नैगमेषी ने मान त्याग कर, वर्धमान संज्ञक ज्ञानादिगुण पूर्ण तीर्थंकर को नमस्कार किया। सातों ही नायकों की जन्मतिथि का वर्णन भी कवि ने एक ही पद्य में बड़ी सफलता के साथ किया है : ज्येष्ठेऽसिते विश्वहिते सुचैत्रे, वसुप्रमे शुद्धनभोर्थमेये। __ * साङ्के दशाहे दिवसे सपौषे, जनिर्जितस्याऽजनि वातदोषे // 2-16 // दोष रहित शांतिनाथ का ज्येष्ठ कृष्ण विश्वहित त्रयोदशी को, ऋषभनाथ का वसु चैत्रकृष्ण 8 को, नेमिनाथ का शुद्धनभोऽर्थमेये श्रावण पंचमी को, पार्श्वनाथ का पोषे दशाहे पौष दशमी को, महावीर का चैत्रेऽसिते विश्वहिते चैत्रशुक्ला त्रयोदशी को, रामचन्द्र का चैत्रेसिते सांके चैत्र शुक्ला नवमी को और कृष्ण का असिते वसुप्रमे भाद्रकृष्णा अष्टमी को, रागादि विजेताओं का जन्म हुआ। र अनेकार्थ और श्लेमार्थ प्रभावित अत्यन्त कठिन रचना को भी कवि ने अपने प्रगाढ़ पाण्डित्य से सुललित और पठनीय बना दिया है। इस मूल ग्रन्थ का प्रथम संस्करण (स्वर्गीय न्यायतीर्थ व्याकरणतीर्थ पण्डित हरगोविन्ददासजी ने सम्पादन कर) जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला, वाराणसी से सन् 1917 में प्रकाशित हुआ था। इस कठिनतम काव्य पर टीका का प्रणयन भी सहज नहीं था किन्तु आचार्य श्री विजयअमृतसूरिजी ने सरणी टीका लिखकर इसको सरस और पठन योग्य बना दिया है। यह टीका ग्रन्थ जैन साहित्यवर्धक सभा सूरत से वि. सं. 2000 में प्रकाशित हुआ था। पाठक इस टीका के माध्यम से कवि के हार्द तक पहुँचने में सफल होंगे। [अनुसंधान अंक-३५] 000 157 लेख संग्रह Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनविजय रचित नैषधीयचरित टीका की दुर्लभ प्रति जैन मुनिपुङ्गव बहुभाषाविद् और निखिल शास्त्रों/आगमों/दर्शनों के प्रौढ़ विद्वान् होते थे। ये मुनि श्रमण जीवन की साधना में रत रहते हुए श्रमण भगवान् महावीर की अनुपमेय वाणी का प्रचार-प्रसार करने भारत के समस्त प्रदेशों एवं स्थानों पर निरन्तर परिभ्रमण/विचरण करते रहते थे। साधना और वाणीप्रचार के साथ-साथ ये स्वयं समग्र विषयों के शास्त्रों का अध्ययन भी किया करते थे तथा श्रमण वर्ग को अध्ययन भी करवाते रहते थे। स्वान्तः-सुखाय अथवा अध्ययन हेतु मुनिगणों की अभ्यर्थना से परहिताय नूतन साहित्य का सर्जन या व्याख्या साहित्य का निर्माण भी करते रहते थे। साहित्य का कोई भी अंग इन . जैन विद्वानों से अछूता नहीं रहा कि जिस पर इन्होंने स्वतन्त्र रचना या व्याख्या का निर्माण न किया हो। जैन साहित्य को पृथक् रखकर देखें तो व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, लक्षणशास्त्र, न्यायदर्शन, आयुर्वेद, जयोतिष, वास्तु, रत्न, कामशास्त्र आदि विषयों पर इनके द्वारा गुंफित विपुल साहित्य आज भी प्राप्त है। .. संस्कृत साहित्य में अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त पाँच महाकाव्यों के अनुकरण पर उसी कोटि के / अनेक महाकाव्य भी जैन मनीषियों द्वारा निर्मित प्राप्त होते हैं और इन पाँच महाकाव्यों के पादपूर्ति रूप काव्य भी अनेकों प्राप्त हैं। साथ ही इन पाँच महाकाव्यों पर जैन विद्वानों द्वारा रचित 40 से अधिक टीकायें भी प्राप्त होती हैं। इन्हीं पाँच महाकाव्यों में विश्रुत अप्रतिम-प्रतिभा सम्पन्न महाकवि श्री हर्ष प्रणीत नैषधीय-चरित नामक महाकाव्य संस्कृत साहित्य में अपना एक विशिष्ट गौरवपूर्ण स्थान रखता है। "नैषधे पदलालित्यम्" कहकर परवर्ती संस्कृत जगत के समस्त लेखकों ने इसको शीर्षस्थान प्रदान किया है और इस पर लगभग 25 से भी अधिक व्याख्यानकारों ने व्याख्याओं का निर्माण कर स्वयं की लेखिनी को कृतार्थ किया है। इन व्याख्याओं में 4 व्याख्यायें तो जैन मनीषियों के द्वारा रचित हैं: 1. मुनिचन्द्रसूरि सं० 1170 2. चारित्रवर्धनोपाध्याय सं० 1368 3. रत्नचन्द्रगणि सं० 1668 4. जिनराजसूरि १७वीं शती का अन्तिम चरण। इसी श्रृंखला में जिनविजय रचित नई व्याख्या भी प्राप्त होती है जो अद्यावधि अज्ञात रही है और जिसकी अभी तक एक मात्र प्रति ही प्राप्त हुई है। यह प्रति वर्तमान में 'महाराजा सवाई मानसिंह II संग्रहालय सीटि पैलेस (पोथीखाना) जयपुर में ग्रन्थांक 367 पर उपलब्ध है। साइज 24.6411.2 . सेन्टीमीटर है। त्रिपाठ है और ग्रन्थाग्रन्थ (शोक परिमाण) 24 हजार है। लेखन शुद्ध, अक्षर स्फीत और सुवाच्य हैं / दशा अच्छी है। लेखन काल अनुमानतः १८वीं शती का अन्तिम चरण अथवा १९वीं का प्रथम 158 लेख संग्रह Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण प्रतीत होता है। किन्तु दुर्भाग्य से यह प्रति किंचित् अपूर्ण है। पत्रांक 583 A पर नैषध के २२वें सर्ग के १५०वे पद्य की व्याख्या चल रही है: "स्वर्भानु० / स्वर्भानु प्रतीति तुषारद्युतिः देवश्चन्द्रः नोऽस्माकं तुष्टये सन्तु...........भवतु इत्यन्वयः। * कथंभू० तुषारद्युतिः? प्राप्तः सहस्रधारकलशश्रीः प्राप्ता सहस्रधारश्चासौ कलशश्च सहस्रधारकलशः, सहस्रधारकलशस्य श्रीसहस्रधारकलशश्री:, प्राप्ता सहस्रधारकलश श्रीर्येन स तथा। कस्मिन्? 'पुष्पेष्वासनतत्प्रिया०' पुष्पे परिणयानन्दाभिषेकोत्सवे तस्य कामस्य प्रिया तत्प्रिया, पुष्पेष्वासनकामश्च तत्प्रिया च पुष्पेष्वासनतत्प्रिये, पुष्पेवासनतत्प्रिययोः परिणयः विवाहः पुष्पेष्वासनतत्प्रियापरिणयः, पुष्पेष्वासनतत्प्रिया परिण....." - उक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि २२वें सर्ग के १५०वें श्लोक की आधी टीका, सर्गान्त का १५१वाँ पद्य "श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं" की व्याख्या और अन्तिम प्रशस्ति स्वरूप शेष 4 पद्यों की व्याख्या तथा टीका रचना प्रशस्ति मात्र अंश ही इस प्रति में अप्राप्त है। अर्थात् 3-4 पत्र ही अप्राप्त हैं। उक्त प्रति के प्रत्रांक 583 B का हिस्सा रिक्त है जिस पर लिखा है:- " // श्रीरामः॥ काव्यं नैषधटीका पुस्तकं किञ्चित् खण्डितम् पत्र 583 ग्रन्थ 24000" इससे स्पष्ट है कि इस प्रति के प्रतिलिपिकार को प्रतिलिपि करते समय पूर्व प्रति के अन्तिम तीन-चार पत्र प्राप्त नहीं हए थे। टीका का अन्तिामंश प्राप्त न होने से इस टीका की रचना किस संवत् में किस स्थान पर और किसके आग्रह पर हुई एवं इसका संशोधन किसने किया? आदि की जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती। फिर भी टीकाकार जिनविजय ने मंगलाचरण पद्यों और सर्गान्त पुष्पिकाओं में जो अपना परिचय दिया है वह इस प्रकार है: . मङ्गलाचरणम् स्वस्तिश्रियं वितनुतात् श्रीनाभेयजिनाधिपः। विघ्नान्धकारमार्तण्डः श्रेयस्तरु बलाहकः॥ 1 // शिवतातिर्जिनः शान्तिर्वज्रिणा विधिना दिवि। यो मुहुः संस्कृत सोऽस्तु सर्वारिष्टक्षयाय वः॥२॥ श्रीमन्नेमिर्जिनाधीशः स्मराम्भोधिघटोद्भवः। विद्वज्जनमनोमोदप्रदो भूयात् सतां मुदे // 3 // पार्श्वः प्रौढयशो नित्यं धरणेन्द्राद्युपासितः। जगतीभूषणां नित्यं भूयात् सिद्धिप्रदः सताम्॥४॥ सैद्धार्थिः श्रीमहावीरः कुर्यात्क्षेमं क्षमाकरः।। कल्पितानल्पसंकल्पकल्पवृक्ष इवाङ्गिनाम्॥५॥ सरस्वतीं नमस्कृत्य सर्वबुद्धिप्रदायिनीम्। तरणीं पततां घोरे जनानां जाड्यवारिधौ॥ 6 // करोमि स्वगुरोः पादप्रसादात् प्रौढतो मुदा। श्रीमन्नैषधकाव्यस्य वृत्तिं बालावबोधिनीम्॥७॥ ___प्रथमसर्गान्त पुष्पिका / श्रीवीरस्य यथाक्रमेण गुरवः पट्टे बभूवुर्विभोः, __ श्रीसूरीश्वरहीरहीरविजयाः श्रीमत्तपागच्छपाः, लेख संग्रह 159 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेषां श्रीजयवन्तसंज्ञऋषयः शिष्या मनीष्युत्तमा स्तेषामन्तिषदश्च देवविजयाः संविज्ञविज्ञोत्तमाः॥१॥ तत्पादाम्बुजचञ्चरीकसदृशश्चारित्रचूडामणेः, प्राप्यार्थं विनयादिसद्विजयतः श्रीवाचकाधीश्वरात्। सर्गेऽत्र प्रथमेऽतनिष्ट विबुधः श्रीनैषधस्यादरादर्थात्कल्पलतां जिनादिविजयष्टीकामिति श्रेयसे॥२॥ ग्रन्थान. वृत्ति 1472 द्वितीय सर्गान्त पुष्पिका तत्पादपद्मभ्रमरायमाणः, शिष्यो जिनादिविजयोऽतनिष्ट। . द्वितीयसर्गस्य हि नैषधाख्ये, काव्येऽर्थतः कल्पलतां सुटीकाम्॥२॥ इति श्री तपागच्छीय पण्डितश्रीदेवविजयशिष्य पं. जिनविजयगणिविरचितायामर्थकल्पलतायां नैषधवृत्तौ द्वितीयः सर्गः। ग्रन्थाग्र वृत्ति 928 -एकविंशतिसर्गान्त-पुष्पिका विश्वार्यहीरविजयाह्वयसूरिशिष्याः, मेधाविनोऽत्र ऋषयो जयवन्तसंज्ञाः। तेषां च देवविजया विबुधास्तदीयः, शिष्यो जिनादिविजयो विबुधो विशिष्यः॥१॥ श्रीवाचकाद विनयसविजयादधीत्य, श्रीनैषधीयमथ तस्य चकार टीकाम्। तस्यां समर्थसुगमार्थसमर्थितायां, सर्गः समाप्तिमभजत्स्वयमेकविंशः॥२॥ अंकित पुष्पिकाओं के अनुसार नैषधीयचरित की अर्थकल्पलता टीका के प्रणेता जिनविजय तपागच्छीय जगद्गुरु आचार्यप्रवर श्री हीरविजयसूरिजी के शिष्य मनीषिपुंगव जयवन्त ऋषि के पौत्र शिष्य थे और संविज्ञोत्तम देवविजय के शिष्य थे। जयवन्त ऋषि और देवविजय की कोई रचना अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। जैन रामायण और दानादिकुलक के टीकाकार देवविजय श्री राजविजय के शिष्य होने से इनसे भिन्न हैं। जिनविजय की भी इस टीका के अतिरिक्त एक अन्य कृति और प्राप्त है, वह है सं० 1710 में रचित कल्याणमन्दिर स्तोत्र टीका। टीकाकार जिनविजय ने सर्गान्त पुष्पिकाओं में विनयविजयोपाध्याय का विशिष्ट श्रद्धा-भक्तिपूर्वक स्मरण करते हुए लिखा है:- "चारित्रचूडामणे: प्राप्यार्थ विनयादिसद्विजयतः श्रीवाचकाधीश्वरात्" "श्रीवाचकाद् विनयसद्विजयादधीत्य श्रीनैषधीयम्।" इस अवतरण से स्पष्ट है कि तत्कालीन ख्यातिप्राप्त प्रौढ़ विद्वान्, लोकप्रकाश, कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, हैमलघुप्रक्रिया, शान्तसुधारस, श्रीपालरास आदि अनेकों ग्रन्थों के प्रणेता श्री विनयविजयोपाध्याय के नैकट्य में रहकर जिनविजय ने शिक्षण प्राप्त किया था। नैषध काव्य का अध्ययन भी किया था। 160 लेख संग्रह Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० 1708 में विनयविजय रचित लोकप्रकाश की प्रशस्ति के अनुसार लोकप्रकाश का प्रथमादर्श जिनविजय ने ही लिखा था। अधिक संभावना यही है कि यही जिनविजय हों! इस आधार से जिनविजय का सत्ताकाल 1680 से 1730 तक का अनुमानित किया जा सकता है। प्रस्तुत नैषधीय चरित की अर्थकल्पलता टीका जिनराजसूरि रचित जैनाराजी टीका के समान विस्तृत, गम्भीरार्थ और आदर्श टीका नहीं होते हुए भी खण्डान्वय शैली से वर्ण्यविषय, अर्थ और समास को विशदता के साथ स्पष्ट करती है। भाषा परिमार्जित है। छात्रों के लिए तो कल्पलता के समान अतीवोपयोगी है। टीका में व्याकरण, काव्य, कोष अनेकार्थी कोष, लक्षणशास्त्र आदि के उद्धरण भी यत्रतत्र प्रचुरता से प्राप्त हैं। टीका का अवलोकन करने से स्पष्ट है कि टीकाकार जिनविजय मँजे हुए प्रौढ़ विद्वान् थे। टीकाकार की शैली का रसास्वादन करने के लिये सर्ग 2 के श्लोक 32 की टीका का अवलोकन कीजिये: कलशे निजहे तुदण्डजः किमु चक्र भ्रमकारितागुणः। स तदुच्चकुचौ भवन्प्रभा-झरचक्रभ्रममातनोति यत्:॥ 32 // कलश इति। कलशे-कुम्भे चक्रभ्रमकारितागुणः निजहेतुदण्डतः। किमु? विद्यते चक्रस्य भ्रमः चक्रभ्रमः, चक्रभ्रमं करोतीति चक्रभ्रमकारी, चक्रभ्रमकारिणो भावः चक्रभ्रमकारिता. चक्रभ्रमकारिता एव गणः। कथंभू० चक्रभ्रमकारितागुण:? निजहेतुदण्डजः निजस्य हेतुर्निजहेतुश्चासौ दण्डश्च. निजहेतुदण्डः, निजहेतुदण्डाज्जायते स्मेति निजहेतुदण्डजः। कस्मिन्? कलशे-कुम्भे निजस्य घटस्य हेतुः-निमित्तकारणं दण्डः तस्माज्जात इत्यर्थः। यद्यस्मात्कारणात् स कलशः प्रभाझरचक्रभ्रमं आतनोति / प्रभायाः झरः प्रभाझरः, चक्रस्य भ्रमः चक्रभ्रमः, प्रभाझरे चक्रभ्रमः प्रभाझरचक्रभ्रमस्तं चक्रवाकभ्रममित्यर्थः। किं कुर्वन् कलश:? तदुच्चकुचौ भवन्, उच्चौ च तौ कुचौ उच्चकुचौ, तस्याः उच्चाकुचौ तदुच्चकुचौ दमयन्तीस्तनावित्यर्थः / अयमर्थ:- कार्य यदुत्पद्यते तत्र कारणवर्य भवति, एकं समवायिकारणं मृत्तिका, द्वितीयं असमवायिकारणं कपालद्वयसंयोगादि, तृतीयं निमित्तकारणं कुलालादि अदृष्टादिकञ्च। तत्र उपादानकारणस्य मृत्तिकादेर्गुणः श्यामत्वादिको घटे समवैति, ततो घटोऽपि श्यामो भवति / असमवायिनः कपालद्वयसंयोगादेरपि गुणो घटे न समवैति, तस्य स्वयं गुणरूपत्वात्। गुणे गुणानंगीकारात् निमित्तकारणस्य कुलालादेरपि गुणो न कार्ये समवैति। गौरेण कुम्भकारेण कृतो घटो गौरो न भवति। पीतेन दण्डेन पीतो न भवति / श्वेतादौरकेण श्वेतो न भवति / अत्र घटे चक्रभ्रमकारितालक्षणो दृश्यते / स च निमित्तकारणाद् दण्डाज्जातः न दिदृष्टे ऽनुपपन्नं नामतः। कविरुत्प्रेक्षां कुरुते-कलशे योऽयं चक्रभ्रमकारितागुणः स स्वहेतुदण्डजः। किमु यदयं कलश एव 161 लेख संग्रह Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दमयन्ती कुचौ भूत्वा प्रभाप्रवाहे चक्रभ्रमं करोति / अयम्भावः-कुचयोर्यच्चक्रभ्रमकारित्वं तत्तु कलशनिष्ठत्वमेव कलशपरिणतिरूपत्वात् कुचयोरिदानीं कलशे सा चक्रभ्रमकारिता / कुतस्त्येति विचारे कारणान्तरेष्वभावाद् दण्डनिष्ठैव इत्युत्प्रेक्ष्यते / दण्डे च चक्रभ्रमकारितास्त्येव। घट कारणीभूतं चक्र स एव भ्रमयतीति शब्दच्छलेन व्याख्यानम् // 32 // . प्रस्तुत अर्थकल्पलता टीका एव दुर्लभ जैन टीका है। इसकी एक मात्र किंचित् अपूर्ण प्रति ही.. उपलब्ध है। अत: जैन संस्थाओं को चाहिए कि इसका सुयोग्य विद्वानों से सम्पादन करवा कर प्रकाशन करें और इसकी फोटो स्टेट कॉपियाँ करवाकर बड़े-बड़े स्थानों में रक्खें। वास्तव में यह जैन समाज और जैन संस्थाओं के लिये खेद का विषय है कि नैषध पर प्राप्त पाँचों जैन टीकायें अद्यावधि अप्रकाशित हैं। इन पाँचों टीकाओं की प्रतियाँ भी विरल/गिनी-चुनी ही प्राप्त हैं / जैन संस्थाओं ने समय रहते ध्यान नहीं दिया तो जैन विद्वानों द्वारा भारती-साहित्य की समृद्धि में किया गया योगदान आज की पीढ़ी द्वारा निरर्थक/निष्फल हो जायेगा। [मणिभद्र पुष्प-२५] 000 162 लेख संग्रह Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ काव्य-दीपिकाकार ललितकीर्ति का समय जिन प्रतिभा कार्यालय, 806 चौपासनी रोड, जोधपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'जिन प्रतिभा' वर्ष 1, अंक 1, जून 1984 में डॉ. द. बा. क्षीर सागर का 'माघ काव्य : दुर्लभ टीका परिचय' शीर्षक से लेख प्रकाशित हुआ है। इस लेख में विद्वान् लेख ने माघ काव्य पर प्राप्त 15 टीका-टीकाकारों का नामोल्लेख करते हुए, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रह में प्राप्त दिनकर मिश्र, सरस्वती तीर्थ, विष्णुदासात्मज और ललितकीर्ति की टीका-प्रतियों का परिचय दिया है। प्रतिष्ठान की अधिग्रहण संख्या 40309 पत्र 141 [वस्तुतः १४१वाँ पत्र भिन्न टीका का पृथक् पत्र है] की प्रति का परिचय देते हुए लिखा है: "टीकाकार ललितकीर्ति गणि लब्धिकल्लोल गणि के शिष्य तथा कीर्तिरत्नसूरि के प्रशिष्य हैं। टीका का नाम 'ललित माघ दीपिका' अथवा 'सन्देहान्धकार ध्वंस दीपिका' दिया गया है। यथा पुष्पिका:इति श्री खरतरगच्छे वरेण्याचार्य श्रीकीर्त्तिरत्नसूरिसन्तानीय वाचनाचार्य-लब्धिकल्लोलगणि क्रमाम्भोज़-भृङ्गायमान शिष्यवाचनाचार्य-ललितकीर्त्तिगणिविरचितायां ललितमाघदीपिकायां विंशतिमः सर्गः सम्पूर्णः।" . खरतरगच्छ की शाखा-प्रशाखाओं के इतिहास का ज्ञान न होने के कारण लेखक ने 'कीर्ति रत्नसूरिसन्तानीय' का अर्थ कीर्त्तिरत्नसूरि के प्रशिष्य कर दिया है। यहाँ 'सन्तानीय' शब्द 'शिष्यपरम्परा में' का वाचक है। टीकाकार ललितकीर्ति का समय निर्धारण करने के लिये लेखक ने ऊहापोह करते हुए लिखा है:"पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी ने खरतरगच्छ गुर्वावलि-प्रबन्ध में 1381 वि. में चतुर्विंशति जिनालय स्थापना के क्षुल्लक षट्क में ललितकीर्ति का उल्लेख किया है। अतः ललितकीर्ति यदि ये ही वे हैं, तो १४वीं शती के पूर्वार्द्ध में होने चाहिए, जबकि नाथराम प्रेमी ने जैन साहित्य और इतिहास ललितकीर्ति का यशकीर्ति के गुरु के रूप में उल्लेख किया है। हरिश्चन्द्र कायस्थ कृत धर्मशर्माभ्युदय की एक सामान्य टीका की रचना यशकीर्ति ने की थी। इस टीका की एक पाण्डुलिपि सरस्वती भण्डार, बम्बई में उपलब्ध है तथा इसका लिपि समय 1652 वि. है। इनके अतिरिक्त ललितकीर्ति के विषय में अन्य प्रमाण दृष्टिगत नहीं हुआ है।" खरतरगच्छ गुर्वावलि प्रबन्ध में कीर्तिरत्नसूरि एवं लब्धिकल्लोल का उल्लेख न होने से ललित कीर्ति का समय १४वीं शती स्थापित नहीं किया जा सकता। और, पुष्पिका में 'खरतरगच्छे' उल्लेख होने से उन्हें दिगम्बर भी नहीं माना जा सकता। अस्तु। vx वस्तुतः इस ललित माघ दीपिका की अभी तक तीन प्रतियाँ ही उपलब्ध हुई हैं - 1. राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, परिग्रहणांक 40309; 2. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या लेख संग्रह 163 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दिर, अहमदाबाद; मुनि पुण्यविजयजी संग्रह, क्रमांक 4834, परिग्रहनांक 2633, पत्र 62, लेखनकाल 1750, दस सान्त, और 3, मेरे निजी संग्रह में। मेरे संग्रह की प्रति खण्डित एवं अपूर्ण है, और लिपिकाल १८वीं शती है। जोधपुर और मेरे संग्रह की प्रतियों में टीकाकार की रचना प्रशस्ति प्राप्त नहीं है, जिससे कि रचना-सम्वत् का निर्धारण किया जा सके। उक्त तीनों प्रतियों में सर्गान्त पुष्पिका मात्र प्राप्त है। सर्गान्त पुष्पिकाओं में कई स्थलों पर वाचनाचार्य ललितकीर्ति के स्थान पर भरोपाध्याय ललितकीर्ति का प्रयोग भी प्राप्त होता है। पुष्पिका में श्री खरतरगच्छे वरेण्याचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरि' का स्पष्टतः उल्लेख है। कीर्तिरत्नसूरि का समय 1449 से 1525 तक का है। इनका जन्म 1449 में हुआ था। ये संखवालेचा गोत्रीय सा. देएमल्ल के पुत्र थे। इन्होंने 1463 आषाढ़ बदी 11 खरतरगच्छाचार्य श्री जिनराजसूरि (प्रथम) के पट्टधर जिनवर्धनसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षा नाम कीर्तिराज था। जिनवर्धनसूरि ने ही इन्हें 1470 में वाचक पद और श्री जिनभद्रसूरि ने 1480 वैशाख शुक्ला 10 गहेवा में उपाध्याय पद तक 1487 माघ शुक्ला 10 को जैसलमेर में आचार्य पद प्रदान किया था। आचार्य पद के समय इनका नाम कीर्तिरत्नसूरि रखा गया। इन्होंने 1465 में नेमिनाथ महाकाव्य की रचना की, जो डॉ. सत्यव्रत अनूदित और सम्पादिक होकर बीकानेर से प्रकाशित हो चुका है। 1512 में राजस्थान में सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थ नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रतिमा पुनर्स्थापना कर प्रतिष्ठापित की। 1525 वैशाख बदी 5 को वीरमपुर (वर्तमान मेवानगर नाकोड़ा) में इनका स्वर्गवास हुआ। वहीं इनका स्तूप बनवाया गया, जो आज भी नाकोड़ा में टेकरी पर विद्यमान है। 1525 में प्रतिष्ठित इनकी मूर्ति भी नाकोड़ा पार्श्वनाथ मन्दिर के मूल गर्भगृह के बाहर विराजमान है। इन्हीं के नाम से खरतरगच्छ की परम्परा में कीर्त्तिरत्नसूरि के नाम से उपाध्याय पद धारियों की एक प्रशाखा चली। इस परम्परा में श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी (स्वर्गवास वि. सं. 1992) जैसे प्रसिद्ध आचार्य हुए है। इन्हीं कीर्तिरत्नसरि की परम्परा में ललितकीर्ति हए हैं। इनके सम्बन्ध में भी अन्तः साक्ष्य प्राप्त हैं। इस माघकाव्य टीका के अतिरिक्त अन्य दो कृतियाँ और प्राप्त हैं : 1. शीलोपदेशमाला-दीपिका : र. सं. 1678 लाट दुह 2. अगड़दत्त रास - 1679, भुजनगर शीलोपदेश माला दीपिका में ललितकीर्ति ने 17 पद्यों में रचना-प्रशस्ति प्रदान की है। पद्यांक 1 से 10 में खरतरगच्छ के आचार्यों की परम्परा दी है और प्रशस्ति पद्य 11 से 17 में स्वगुरु परम्परा और रचनाकाल स्थान का उल्लेख किया है। पूर्ण प्रशस्ति इस प्रकार है:- . 'प्रचुर चतुर चञ्चच्चातुरी नीर पूर्णः, सकलसमयपारम्पर्यरत्नादियुक्तः।। निरवधिगुणसङ्घस्फूर्जदूर्मिप्रवाहः, खरतरगण वार्द्धिवृद्धितां यातु नित्यम्॥१॥ तत्राऽभूत् कलिकालगौतमनिभः सूरीश्वरोद्योतन-स्तत्पट्टे सकलेन्दुनिर्मलगुणः श्रीवर्द्धमानो पुनः।। येन प्राप्यणहिल्पत्तनपुरे श्रीदुर्लभस्याग्रतः, प्रोघत्कीर्तिभरा बृहत्खरतरेत्याख्या क्षितौ विश्रुताः॥२॥ योऽस्तु [ 1 स्व ]स्तिकूले सतां ततमति जैनेश्वरो गच्छराट्, सद्गच्छार्णवनीरवर्धनविधौ चन्द्रोपमस्तत्पदे। श्रीमच्छ्रीजिनचन्द्रसुगुरुर्जातः प्रभूतक्षमः, श्रीभव्याम्बुजबोधपुष्करमणि: ख्यातः क्षितौ कीर्तिभिः॥३॥ जीवाजीवविघारचारि मधुरैर्वृत्तिर्नवाझ्यायकै-चक्रे स्तम्भनके पुनः प्रकटित; पार्श्वश्च यैः स्थापितः। . 164 लेख संग्रह Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येभ्यः प्राप्य गुणालयः खरतरो गच्छः प्रतिष्ठां भुवि, श्रीमन्तोऽभयदेवसूरिगुरवस्ते स्युः सतां शर्मदा॥४॥ तत्पट्टोदयंशैलवासरमणि: संविग्नचूड़ामणिः, श्रीमान् श्रीजिनवल्लभोऽभवदलं स्वीयैर्गुणैर्वल्लभः / तत्पट्टेद्भुतकीर्तिमण्डलधरः श्रीजैनदत्तामिधः, सूरियैन जिताः सुपर्वनिकराः सोऽस्तु श्रिये श्रीगुरुः॥५॥ चन्द्रश्चन्द्रसमः स्वगच्छकुमुदे सूरीन्द्रचूडामणिः, श्रीयुक्तो जिनपत्तिसूरिरभवज्जैनेश्वरस्तत्पदे। जातस्तत्त्वमतिः प्रबोधगुरुराट् चन्द्रस्तदीये पदे, साक्षात्कल्पतरुर्जनेषु कुशलः सत्पद्म-लब्धिर्जिनात्॥६॥ चन्द्रश्चारुयशः जिनोदयगुरुः श्री जैनराजः प्रभु-स्तत्पट्टे जिनभद्रसूरिरमवच्चन्द्रश्रिया वारिमा। जातौ चाऽथ समुद्र-हंस सुगुरु: माणिक्यसूरिस्ततः, श्रीमच्छीजिनचन्द्रराट् युगवरख्यातः क्षितौ स्वैर्गुणैः // 7 // सिंहः सर्वपरीषहद्विपगणे शौर्येण सिंहोपमः, श्रीमान् श्रीजिनसिंहसूरिगणभृतत्पट्टभूषामणिः। दक्षः श्रीजिनराजसूरिगणराट् सौभाग्यभाग्यालय-श्चञ्चच्चन्द्रमरीचिमण्डलयशाध्वस्तान्तरारिव्रजः॥८॥ * प्राग्वाटान्वयकल्पपादपसमश्रीरूपजीकारित- श्रीशत्रुञ्जयमण्डपाष्टममहोद्धारप्रतिष्ठा कृता। येन स्मेरवलक्षपक्ष यशसा बोहित्थवंशार्यमा, योऽयं श्री जिनराजसूरिगणराट् जीयात् सहस्रं समा॥९॥ स्फूर्जत्तर्कवितर्कगर्वितमनोवादीन्द्रपञ्चाननः, प्रौढाष्टापदसन्निभो विजयते चिन्तामणिर्देहिनाम्। सोऽयं श्रीजिनराजसूरिगणभृद्भूतानि दतादर- स्तद्राज्ये विहिता हिताय भविनां सद्दीपिकेयं मया॥१०॥ . अथ स्वगुरु-प्रशस्तिः शिष्यः श्रीजिनराजसूरिसुगुरोः सछीलीलीलास्पदं, सद्बुद्धिर्जिनवर्द्धनो ___ गणधरस्तच्छिष्यंमुख्याग्रणीः। कौशश्चारुधियां प्रधानमुकुटः श्रीशङ्खवालान्वये, वसंवर्य्यपदावदातविदितः . श्रीकीर्त्तिरत्नाह्वयः॥ 11 // शिष्यो हर्षविशालवाचकमणि स्तत्पादसेवापरो, हर्षाद्धर्मगणिश्च वाचकवरस्तद्भक्तिलब्धोदयः। प्रोद्यच्छीधर साधुमन्दिरगुरुस्तवाच शिष्योऽभद विमलादिरङ गणिराट् भक्तः स्वकीये गुरौ॥१२॥ तस्य शिष्यौ भुवि ख्यातौ गुरुभक्तिपरायणौ। स्यातां कुशलकल्लोल-लब्धिकल्लोलनामकौ // 13 // तन्मध्ये च समग्रवाचकवरश्रीलब्धिकल्लोलकशिक्षाभृल्ललितादिकीर्त्तिगणिना शीलोपदेशसृजः। द्राक् चक्रे विवृतिः सुबोधसुगमा लाटद्रहे सद्रहे, वस्वम्भोधि रसामृतद्युतिमिते [ 1678 ] वर्षे प्रदीपोत्सवे॥ 14 // यावज्जैनमतं धरासु विदितं यावगिरं स्वर्गिणां, यावच्चन्द्ररवी सुरेन्द्रपदवीं यावत्पतिः पाथसाम्। रम्यं शास्त्रमिदं सदा सुखकरं श्रोतुश्च कर्तुः भृशं, तावन्नन्दतु भूतले विरचितं श्रीवीरसान्निध्यतः॥१५॥ ग्रन्थमानं स्फुटं पञ्च सहस्रं ग्रथितं मया। प्राज्ञैस्तथापि चिन्त्यं हि सार्द्धद्वयशताधिकम्॥१६॥ यदि युक्तमयुक्तं वा प्रोक्तमत्र प्रमादतः। कृपां कृत्वा मयि प्राज्ञैः पठनीयं विशोध्य च॥ 17 // इति श्री शीलोपदेश माला दीपिका। कृपा च स्वपरोपकृतये। [मेरे संग्रह की प्रति से] प्रशस्ति के अनुसार ललितकीर्ति की गुरु परम्परा इस प्रकार है: लेख संग्रह 165 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कीर्तिरत्नसूरि वाचक हर्षविशाल गणि वाचक हर्षधर्म गणि वाचक साधुमन्दिर गणि वाचक विमलरंग गणि वा० कुशलकल्लोल वा० लब्धिकल्लोक वाचनाचार्य ललितकीर्ति गणि अर्थात् ललितकीर्त्ति, कीर्त्तिरत्नसूरि की परम्परा में उनके पश्चात् छठवें पट्ट पर हुए। यही गुरुपरम्परा ललितकीर्ति ने अगड़दत्त रास की रचना-प्रशस्ति में दी है। देखें, जैन गुर्जर कविओ प्रथम भाग, पृष्ठ 509-10 / इस अन्त:साक्ष्य प्रमाण के आधार पर स्पष्टतः सिद्ध है कि महोपाध्याय/वाचनाचार्य ललितकीर्ति का समय विक्रमीय १७वीं शती का उत्तरार्द्ध है और प्रशस्ति पद्य 8-9-10 के अनुसार तत्कालीन खरतरगच्छनायक श्री जिनराजसूरि [द्वितीय] जिनका जन्म सं० 1674, दीक्षा सं० 1657, आचार्य पद सं० 1674 और स्वर्गवास सं० 1700 है - के विजय राज्य में विचरण करते थे। अतः लेखक डॉ० क्षीरसागर द्वारा समय के सम्बन्ध में चर्चित ऊहापोह स्वतः ही निरस्त हो जाता है। जोधपुर प्रतिष्ठान संग्रह की उक्त प्रति ललितमाघ दीपिका से सम्बन्धित 140 पत्रात्मक ही है। उक्त प्रति का १४१वाँ पत्र ललितमाघदीपिका का न होकर, पं० दोदराज प्रणीत माघकाव्य-टीका की रचना प्रशस्ति का है। न जाने किस प्रकार, किसी की अनभिज्ञता एवं असावधानी के कारण यह अन्तिम पत्र नाम-साम्यता के कारण इस प्रति के साथ संलग्न हो गया? इस पत्र से यह तो निश्चित है कि दोदराज रचित 'टीका की प्रति के 141 पत्र थे। प्रस्तुत लेख के लेखक भी इस पत्र को उक्त प्रति से भिन्न मानते हुए लिखते हैं: "परन्तु, यह अन्तिम पत्र कागज की दृष्टि से नवीन प्रतीत होता है तथा इसका आकार भी भिन्न है। पुनश्च 140 पत्रों में उपयुक्त [1 प्रयुक्त] पंच पाठ शैली का निर्वाह इस पत्र पर नहीं किया गया है तथा हस्तलेख की असमानता भी दृष्टिगोचर है।" उक्त १४१वें पत्र पर जो प्रशस्ति दी गई है, वह निम्नांकित है: चन्द्रबाणाश्वसोमेन [1751] युक्ते सम्वत्सरे वरे। चैत्रार्जुनीयपक्षस्य द्वादश्यां शुक्रवारके // 1 // परोपकारं सततं बिभर्ति, यत्सङ्गते बुद्धिरियर्ति पारम्। तमन्वहं लोकवरं प्रवन्दे, सज्ज्ञानमूर्ति जगदादिकीर्त्तिम्॥२॥ अन्तः शत्रुसमूहो या हतः क्षान्त्यादिना शुभः / जगत्कीर्तिर्गुरुर्जीयाद् येनाऽसौ लोकपूजितः॥३॥ लेख संग्रह 166 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायीर्माश्रवं [?] देव सन्तुष्टो भव सर्वदा। उद्धारयसि लोकांस्त्वं संसाराम्भोनिधौ यतः॥४॥ माघः सम्पूर्णतां नीतो दोदराजेन निश्चितम् / भट्टारकशिरोरत्न-जगत्कीर्तिनिदेशतः॥ 5 // लक्ष्मीदासेन येनायं दोदराजः सुपादितः। पण्डितेन प्रसिद्धा सा प्रतिष्ठाकारि सिद्धिदा॥६॥ ___ अनादिन व वास्पुञ्ज यत्कृता ज्ञानसम्पदा। सन्ततं गोवितरिष्ट [?] निर्मलीकृतजन्मना // 7 // दोदराजेन टीकेयं लिखिता बुद्धिहेतवे। वाचकस्य सदा भूयान् मङ्गलं बुद्धिदायका॥८॥ कम्बुलक्ष्म्याः जगत्पूज्यः सात्विकानां शिरोमणिः। नेमिनाथः जिनपायान् मोहमल्ल विमर्दकः॥९॥ इसके अनुसार वि० सं० 1751, चैत्र शुक्ला 12, शुक्रवार के दिन भट्टारक जगत्कीर्त्ति के निर्देशानुसार पण्डित दोदराज ने माघ काव्य की टीका लिखी। दोदराज का विद्यागुरु लक्ष्मीदास था, जो पण्डित रूप में प्रसिद्ध था और जिसने सिद्धिदात्री प्रतिष्ठा करवाई थी। प्रशस्ति पद्यांक 5 'माघः सम्पूर्णतां नीतो दोदराजेन' तथा पद्यांक 7 'दोदराजेन टीकेयं लियिता बुद्धिहेतवे' से संदेहास्पद स्थिति भी निर्मित होती है कि दोदराज प्रतिलिपि कर्ता हो! किन्तु, मेरे अभिमतानुसार तो 'सम्पूर्णतां नीतो' 'टीकेयं लिखिता' तथा दो बार स्वयं के नाम-प्रयोग से निश्चित है कि दोदराज ने माघ काव्य पर स्वतन्त्र टीका का निर्माण किया था। .. प्रशस्ति पद्यों से दोदराज कवित्व शक्ति में प्रौढ़ विद्वान् हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। .. वी० पी० जोहराकेर की पुस्तक 'भट्टारक सम्प्रदाय' के अनुसार भट्टारक जगत्कीर्ति दिगम्बर परम्परा में दिल्ली-जयपुर शाखा में हुए हैं। इन जगत्कीर्ति का भट्टारक काल 1733 से 1770 रहा है। xxx इनके समय से सांगावत शहर [शायद सांगानेर] में पंडित लक्ष्मीदास हुए, का उल्लेख भी इस पुस्तक में है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि दोदराज सांगानेर या इसके आस-पास अर्थात् वर्तमान, जयपुर प्रदेश का ही निवासी हो। * * माघ काव्य पर श्वेताम्बर जैन विद्वानों/मुनियों द्वारा रचित अनेक टीकायें प्राप्त हैं, किन्तु दिगम्बर जैन विद्वान् द्वारा निर्मित का तो यह उल्लेख मात्र ही प्राप्त होता है। खेद है कि इस प्रशस्ति पत्र के अतिरिक्त इस टीका की पूर्ण या खण्डित प्रति अभी तक जैन भण्डारों में प्राप्त नहीं हुई है। भट्टारक जगत्कीर्त्ति प्रसिद्ध भट्टारक एवं विद्वान् थे। इनका जयपुर और अजमेर प्रदेश पर अधिक वर्चस्व रहा है। अतः संभव है, इन क्षेत्रों के ज्ञान भण्डारों/मन्दिरों में ही कहीं इसकी पूर्ण प्रति प्राप्त हो। जैन-विद्वानों का कर्तव्य है कि इस एक मात्र टीका को प्राप्त करने के लिये शोध अवश्य करें। - वास्तव में डॉ० डी० वी० क्षीरसागर साधुवाद के पात्र हैं कि जिन्होंने लेख लिखकर इस नव्य टीका की ओर इंगित किया है। [मणिभद्र पुष्प-२७] लेख संग्रह 167 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचक प्रमोदचन्द्र भास संग्रहगत स्फुट पत्रों में यह एक-पत्रात्मक कृति प्राप्त है। साइज 2441045 से०मी० है / पंक्ति 15 हैं और अक्षर 43 से 46 हैं। प्रति का लेखन सं० 1745 है। इस कृति के कर्ता करमसीह हैं, जो सम्भवतः वाचक प्रमोदचन्द्र के शिष्य हों या भक्त हों। इस कृति का महत्त्व इसलिए अधिक है कि वाचक प्रमोदचन्द्र का स्वर्गवास वि० सं० 1743 में हुआ था और यह पत्र 1745 में लिखा गया है। सम्भवतः लेखक का वाचकजी के साथ सम्बन्ध भी रहा हो। इस भास का सारांश निम्नलिखित है: भासकार करमसीह जिनेन्द्र भगवान् और प्रमोदचन्द्र वाचक को नमन कर कहता है कि इनके . . नाम से पाप नष्ट हो जाते हैं और निस्तार भी हो जाता है। वाचक प्रमोदचन्द्र का जीवनवृत्त देते हुए लेखक लिखता है - मरुधर देश में रोहिठ नगर है, जहाँ ओसवंशीय तेलहरा गोत्रीय साहा राणा निवास करते हैं और उनकी पत्नी का नाम रयणादे है। इनके घर में वि० सं० 1670 में इतका जन्म हुआ और माता-पिता ने इस बालक का नाम पदमसीह रखा। श्रीपूज्य जयचन्द्रसूरि वहाँ पधारे। साहा राणा ने अपने पुत्र प्रमोदसीह के साथ विक्रम सम्वत् 1686 में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा का महोत्सव जोधपुर नगर में हुआ। निरतिचार पञ्च महाव्रत का पालन करते हुए राणा मुनि का स्वर्गवास वि०सं० 1700 में हुआ। पदमसीह मुनि श्री जयचन्द्रसूरि के शिष्य थे। सम्भवतः इनकी माता ने भी दीक्षा ग्रहण की और लखमा नाम रखा गया। मुनि पदमसीह वि०सं० 1631 में वाचक बने, वि०सं० 1743 में मुनि पदमसीह अन्तिम चातुर्मास करने के लिए जोधपुर आए और उन्होंने अनशन ग्रहण किया। ढाई दिन का अनशन पाल कर पौष दशमी सम्वत् 1743 में इनका स्वर्गवास हुआ। देवलोक का सुख भोगकर अनुक्रम से भव-संसार को पार करेंगे। प्रमोदचन्द्र 16 वर्ष गृहवास में रहे, 45 वर्ष ऋषिपद में रहे और 12 वर्ष तक वाचकपद को शोभित किया। इनकी पूर्ण आयु 73 साल थी। इन्हीं के चरण सेवक करमसीह ने यह भास लिखा है। नागपुरीय तपागच्छ पट्टावली के अनुसार भगवान् महावीर से ६२वें पट्टधर श्री जयचन्द्रसूरि हुए। यह बीकानेर निवासी ओसवाल जेतसिंह और जेतलदे के पुत्र थे। वि०सं० 1674 में राजनगर में इन्हें आचार्यपद मिला था और वि०सं० 1699, आषाढ़ सुदि पूनम को जयचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हुआ था। इस पट्टावली के अनुसार यह निश्चित है कि वाचक प्रमोदचन्द्र ऋषि नागपुरीय तपागच्छ/पार्श्वचन्द्र गच्छीय थे और श्री जयचन्द्रसूरि के शिष्य थे। श्री जयचन्द्रसूरि के पट्टधर श्री पद्मचन्द्रसूरि (आचार्य पद 1699 और स्वर्गवास 1744) ने ऋषि पदमसीह को सम्वत् 1731 में आचाय पद प्रदान किया था। वाचक प्रमोदचन्द्र की कोई रचना प्राप्त नहीं है। इनके सम्बन्ध में और कोई जानकारी प्राप्त हो तो पार्श्वचन्द्रगच्छीय मुनिराजों से मेरा अनुरोध है कि वे उसे प्रकाशित करने का कष्ट करें। इस भास के दूसरी ओर मिष्टान्नप्रिय जोध नामक यति ने नागौर की प्रसिद्ध मिठाई पैडा का गीत 15 पद्यों में लिखा है :168 लेख संग्रह Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // ढाल-अलवेला री॥ श्री जिन पय प्रणमी करी रे लाल। गाइस गुरु गुणसार, सुखकारी रे॥ श्री प्रमोदचंद वाचकवरु रे लाल। नाम थकी निसतार॥ सु० 1 // श्री प्रमोदचंद पय प्रणमीयइ रे लाल। नाम थकी निसतार। सु० / सुख संपति सहितै मिलै रे लाल। दरसण दुरित पुलाई // सु० 2 // मरुधर देस सुहामणौ रे लाल। रोहिठ नगर विख्यात। सु० / साह रांणा कुल चंदलौ रे लाल। रयणादे जसु मात॥ सु० 3 // सौलैसै सितरै समै रे लाल। जनम दिवस सुद्ध मास। सु०। मात पिता हरखै घणुं रे लाल। उछव करै उल्हास // सु० 4 // बीया चंद तणी परै रे लाल। वधता बहु गुणवंत। सु०। पदमसीह मख पेखता रे लाल। सजन सह हरखंत॥ सु० 5 // श्रीपूज्य पधाऱ्या प्रेमसुं रे लाल। श्री जयचन्द सूरिन्द। सु०। साह. रांणौ वयरागीया रे लाल। पुत्र पुत्र सु आणंद॥ सु० 6 // जोधपुर नगर सुहामणौ रे लाल। दिक्षा महोछव सार। सु०। संघ जीमावी हरखसुं रे लाल। विलसी धन विस्तार // सु० 7 // 'पंच महाव्रत पालता रे लाल। चारित्र निरतिचार। सु०। रांणै मुनि सुरगति लही रे लाल। सतरसईकै सार // सु० 8 // श्री पदमसीह मुनि परगडा रे लाल। श्री जयचंदसूरि सीस। सु०। सोहै लखमां साधवी रे लाल। शिख शिखणी सुं जगीस॥ सु० 9 // महिमंडल विचरता रे लाल। तारण तरण जिहाज। सु०। सुमति गुपति व्रतधर सदा रे लाल। साधु गुणे सिरताज॥ सु० 10 // नयर जोधाणै आवीया रे लाल। जांणी चरम चोमास। सु०। सतरतयाल संवछरै रे लाल। श्रीमुख अणसण जास॥ सु० 11 // अढी दिवस पाली करी रे लाल। पोस दिसम जगिसार। सु०। सुरगति सुर सुह भोगवै रे लाल। अनुक्रमि भवनौ पार॥ सु० 12 // सोल वरस गृहवास मै रे लाल। रिख पद वरस पैताल। सु०। बार वरस वाचक पदै रे लाल। सर्वायु तिहोत्तर पाल॥ सु० 13 // धन ओसवंश अतिदीपतौ रे लाल। धन तेलहरा गोत। सु०। मात पिता धन जनमीया रे लाल। धन सुगुरु जगि जोत॥ सु० 14 // चरणकमल सेवक भणै रे लाल। प्रणमुंबे कर जोडि। सु०। करमसीह कृपा करी रे लाल। पूरौ वंछित कोडी॥ सु० 15 // इति श्री प्रमोदचंद्र वाचकभास सम्पूर्णः सं 1745 वर्षे लिखतं पं श्री आसकरण जी। लेख संग्रह 169 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन शब्दों के अर्थ : वाचकवरु राणा रयणादे सौलेसै सितरै बीया चंद सतरसईकै सतरतयाल रिख तेलहरा वाचक श्रेष्ठ प्रमोदचन्द्र के पिता का नाम प्रमोदचन्द्र की माता का नाम विक्रम सम्वत् 1670 द्वितीया के चंद्र के समान सम्वत् 1700 सम्वत् 1743 ऋषि ओसवाल जाति का एक गोत्र [अनुसंधान अंक-३०] 10 170 लेख संग्रह Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तिनी लब्धिप्रभा गणिनी-कृत सामला पार्श्वनाथ विज्ञप्ति श्री सामला देव करूँ जुहार, वामा तणा नन्दन विश्वसार / धरणिंद सेवइ तुम्ह सर्व वार, त्रैलोक्यनी भाव विभंजणहार // 1 // तुं नामि नासइ भय रोग मारि, सवे टलई आपइद तिवारि / तुं नामि विलसइ धन भोग योग, संपति संतान सवे संयोग॥ 2 // करुणा तणा सायर नाह हेव, करूँ तुम्हारी नित पाय सेव। माता पिता बंधव मित्त देव, मनि माहरइ तुंहजि एक एव॥ 3 // हव भेटि लाधी मई तुझ केरी, तुं वीनति सांभलि सामि मोरी। एया पिया फेडि न राग रोस, सदा करावई बहु पाप सोस॥ 4 // संसारना भाव सवे अपार, मूंक्या परीखी मई लक्ष वार / तिणइं तुझ टाली मझ चित्तमांहि, वसइ न को निश्चई विश्वमांहि // 5 // पण मज्झ जा किउं मन एक ठामि, रहइ नहीं ते किम पास कामि। तई सर्व सीझइ ए खोडि फेडि, मन धर्म नइ मारगि मज्झ जोडि॥६॥ छंइ आपण जीवतणा संदेह, मनि माहरइ भव्य अभव्य एह / ए भाजि मूंआ रति वीतराग, ताहरउ जिही अडइ छइ भत्तिराग // 7 // तूं नामि नवपल्लव देह थाई, तूं नामि मूं हर्ष हीइ न माइं। तुं नामि गाजउं मझ ए सुहाईं, तुह दंसणिइं आरति मज्झ जाई॥८॥ तई सामलई तिहुअण चित्त मोहियां, धर्मोपदेशइं जल लक्ष वोहियां / ए खंति मूं थाइ वार वार, तुं जामलि बइसारि न एक वार // 9 // तुं भाविया वंछिय कप्परुक्ख, भडवाय भागा पर देव लक्ख / मंइ इं नहीं ते बल अलपक्षं, ताहरां सवे थाई दास मुख्य // 10 // ताहरु जि हुं सेवक सामि जाल, दइ आप सरीखी पदवी विसाल। बहु गर्भवासादिक दुक्ख वारि, संसारना सायर थउ ऊतारि॥ 11 // इम विनवउं मेल्ही मान माय, गुण तूं अनंता हूँ मूर्ख ताय / मांगउ नहीं अवर न किंपि हेव, देयो सदा मूं नीय पाय सेव // 12 // __[१८वीं शती के लिखित एक पत्र पर से] [श्री जैन धर्म प्रकाश, भावनगर, वर्ष-७०, अंक-१] 000 लेख संग्रह 171 12. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाटिकानुकारि षड्भाषामयं पत्रम् षड्भाषा में यह पत्र एक अनुपम कृति है। १८वीं शताब्दी में भी जैन विद्वान् अनेक भाषाओं के जानकार ही नहीं थे अपितु उनका अपने लेखन में प्रयोग भी करते थे। लघु नाटिका के अनुकरण पर विक्रम संवत् 1787 में महोपाध्याय रूपचन्द्र (रामविजय उपाध्याय) ने बेनातट (बिलाडा) से विक्रमनगरीय प्रधान श्री आनंदराम को यह पत्र लिखा था। इसकी मूल हस्तलिखित प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रहालय में क्रमांक 29606 पर सुरक्षित है। यह दो पत्रात्मक प्रति है। 25.3411.2 से. मी. साईज की है। प्रति पृष्ठ 15 पंक्ति हैं और प्रति पंक्ति 51 अक्षर हैं। पत्रलेखक रूपचन्द्र उपाध्याय द्वारा स्वयं लिखित है, अतः इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। ____ इस पत्र के लेखक महोपाध्याय रूपचन्द्र हैं। पत्र का परिचय लिखने के पूर्व लेखक और प्रधान आनंदराम के सम्बन्ध में लिखना अभीष्ट है। महोपाध्याय रूपचन्द्र खरतरगच्छालंकार युगप्रधान दादा श्रीजिनकुशलसूरिजी महाराज की परम्परा में उपाध्याय क्षेमकीर्ति से निःसृत क्षेमकीर्ति उपशाखा में वाचक दयासिंहगणि के शिष्य रूपचन्द्रगणि हुए। दीक्षा नन्दी सूची के अनुसार इनका जन्मनाम रूपौ या रूपचन्द था। इनका जन्म सं० 1744 में हुआ था। इनका गोत्र आंचलिया था और इन्होंने वि० सं० 1756 वैशाख सुदि 11 को सोझत में जिनरत्नसूरि के पट्टधर तत्कालीन गच्छनायक जिनचन्द्रसूरि से दीक्षा ग्रहण की थी। इनका दीक्षा नाम था रामविजय। किन्तु इनके नाम के साथ जन्मनाम रूपचन्द्र ही अधिक प्रसिद्धि में रहा। उस समय के विद्वानों में इनका मूर्धन्य स्थान था। ये उद्भट विद्वान् और साहित्यकार थे। तत्कालीन गच्छनायक जिनलाभसूरि और क्रियोद्धारक संविग्नपक्षीय प्रौढ़ विद्वान् क्षमाकल्याणोपाध्याय के विद्यागुरु भी थे। सं० 1821 में जिनलाभसूरि ने 85 यतियों सहित संघ के साथ आबू की यात्रा की थी, उसमें ये भी सम्मिलित थे। विक्रम संवत् 1834 में 90 वर्ष की परिपक्व आयु में पाली में इनका स्वर्गवास हुआ था। पाली में आपकी चरणपादुकाएँ भी प्रतिष्ठित की गई थीं। इनके द्वारा निर्मित कतिपय प्रमुख रचनायें निम्न हैं: संस्कृतः गौतमीय महाकाव्य - (सं० 1807) क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित है। गुणमाला प्रकरण - (1814), चतुर्विंशति जिनस्तुति पञ्चाशिका (1814), सिद्धान्तचन्द्रिका "सुबोधिनी" वृत्ति पूर्वार्ध, साध्वाचार षट्त्रिंशिका षट्भाषामय पत्र आदि। बालावबोध व स्तबक : भर्तृहरि-शतकत्रय बालावबोध (1788) अमरुशतक बालावबोध (1791), समयसार बालावबोध (1798), कल्पसूत्र बालावबोध (1811), हेमव्याकरण भाषा टीका (1822) और भक्तामर, कल्याणमन्दिर, नवतत्व, सन्निपातकलिका आदि पर स्तबक। 1. म. विनयसागर एवं भंवरलाल नाहटा, खरतरगच्छ दीक्षा नन्दी सूची, पृष्ठ 26, प्रकाशक : प्राकृत भारती आकदमी, जयपुर। 172 लेख संग्रह Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फुट रचनायें : - आबू यात्रा स्तवन (सं० 1821), फलौदी पार्श्व स्तवन, अल्प-बहुत्व स्तवन, सहस्रकूट स्तवनादि अनेक छोटी-मोटी रचनायें प्राप्त है। शिष्य परम्परा महोपाध्याय जी की शिष्य परम्परा भी विद्वानों की परम्परा रही है। इन्हीं के शिष्य पुण्यशीलगणि (जन्म नाम - पद्मो, विक्रम संवत् 1860 में दीक्षा) प्रौढ़ विद्वान् थे। इन्होंने महाकवि जयदेव रचित गीत गोविन्द के अनुकरण पर लोक-गीतों में गेय रागों एवं देशियों में संस्कृत भाषा में चतुर्विंशति-जिन्द्रस्तवनानि नाम से चौबीसी की रचना संवत् 1859, पाली में ही भगवानदास के आग्रह से की थी। इसकी 'एक मात्र प्रति मेरे निजी संग्रह में है। और, मैंने ही संवत् 2004 में इस प्रति को प्रकाशित करवाया था। . पुण्यशीलगणि के पौत्र शिष्य उपाध्याय शिवचन्द्र हुए। दीक्षा नन्दी सूची के अनुसार तत्कालीन गच्छनायक जिनचन्द्रसूरि ने सं० 1835, वैशाख सुदि 3 के दिन बालोतरा में अपनी प्रथम चन्द्र नन्दी में इनको दीक्षित किया था। इनका जन्म नाम था शम्भू और दीक्षा नाम था शिवचन्द्र। इनको गणि एवं उपाध्याय पद जिनचन्द्रसूरि ने अथवा जिनहर्षसूरि ने प्रदान किया होगा। इन्होंने तत्कालीन आचार्य जिनहर्षसूरि के साथ कई वर्षों तक रहकर उन्हें पढ़ाया था। इन्हीं के साथ रहते हुए इन्होंने सं० 1871 में भादवा बदी 10 के दिन अजीमगंज में बीसस्थानक पूजा की रचना की। इस कृति की भाषा, शैली, शब्दावली को देखने से यह स्पष्ट है कि यह रचना इन्हीं की है, किन्तु इन्होंने तत्कालीन गच्छनायक जिनहर्षसूरि के सौजन्यपूर्ण व्यवहार को देखते हुए रचयिता में उन्हीं का नाम दे दिया है, ऐसा स्पष्ट है। . इनकी संवतोल्लेख वाली रचनाओं को देखने से यह स्पष्ट है कि सं० 1876 से 1879 तक इनका निवास-स्थान जयपुर ही रहा। जयपुर में रहते हुए इन्होंने निम्न नवीन कृतियों की रचना की:१. नन्दीश्वर द्वीप पूजा - सं० 1876 ज्येष्ठ सुदि 1, जयपुर श्री संघ एवं जेठमल कोठारी के आग्रह से। 2. इक्कीस प्रकारी पूजा - सं० 1878, माघ सुदि 5 / 3. ऋषिमंडल-२४ जिनपूजा - 1878, आश्विन सुदि 5, जयपुर। 4. प्रद्युम्नलीला प्रकाश - 1878, वैशाख सुदि 11 / इसकी रचना इन्होंने संस्कृत साहित्य में मूर्धन्य विद्वान् महाकवि बाणभट्ट की कादम्बरी के अनुसरण पर समास बहुल सालंकारिक गद्य में की है, जो इनके वैदुष्य को अभिव्यक्त करती है। इसकी एकमात्र अपूर्ण प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के शाखा कार्यालय चित्तौड़ के यति बालचन्द्रजी के संग्रहालय में सुरक्षित है। संवतोल्लेख वाली एक और रचना प्राप्त है : सिद्ध छिहोत्तरी र. सं. 1889, जैसलमेर। इनके अतिरिक्त पुष्पांजलि स्तोत्र एवं 1011 स्तवनादि स्फुट रचनायें भी प्राप्त हैं। इन्हीं के उपदेश से आमेर में चन्द्रप्रभ चैत्य का संवत् 1877 में निर्माण हुआ था। प्रतिष्ठा भी इन्होंने करवाई थी। इन्हीं के समय में काष्ठमय नंदीश्वर द्वीप की रचना हुई थी। तभी से जयपुर जैन श्रीसंघ के द्वारा आज भी आमेर में आसोज सुदि तीज को नंदीश्वर द्वीप की पूजा होती है। संभवतः इनका स्वर्गवास 1889 के पश्चात् ही हुआ है। इनकी परम्परा में रत्नविलास (रामचन्द्र, उम्मेदचन्द्र आदि) विद्वान् हुए। इसी परम्परा में विजयचन्द्र जो कि बीकानेर गद्दी के श्री पूज्य जिनविजेन्द्रसूरि हुए। अब यह परम्परा लुप्त हो गई है। लेख संग्रह 173 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान आनंदराम आनंदराम के सम्बन्ध में इस पत्र में केवल यही उल्लेख मिलता है कि ये विक्रमनगर अर्थात् / बीकानेर नरेश अनूपसिंह जी के राज्याधिकारी और महाराज सुजानसिंहजी के राज्यकाल में राज्यधुरा को धारण करने में वृषभ के समान है अर्थात् बीकानेर के प्रधान थे। बीकानेर के युवराज जोरावरसिंह थे। __ ये किस जाति और किस वंश के थे, इसका कोई संकेत इस पत्र में नहीं है। किन्तु ये स्पष्ट है कि महोपाध्याय रूपचन्द्र के साथ इनका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। राजनीति के अतिरिक्त आनंदराम अन्य भाषाओं का प्रौढ़ विद्वान् था, अन्यथा संस्कृत, प्राकृत, सौरसेनी, मागधी और पैशाची आदि छ: भाषाओं में इनको पत्र नहीं लिखा जाता। महामहोपाध्याय रायबहादुर साहित्यवाचस्पति डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा ने बीकानेर राज्य का इतिहास (प्रथम खण्ड) में आनंदराम के सम्बन्ध में जो भी उल्लेख किए हैं, वे निम्न है: महाराज अनूपसिंह के आश्रय में ही उसके कार्यकर्ता नाजर आनंदराम ने श्रीधर की टीका के आधार पर गीता का गद्य और पद्य दोनों में अनुवाद किया था। (पृष्ठ 284) नाजर आनंदराम महाराजा अनूपसिंह का मुसाहिब था। उसके पीछे व महाराजा स्वरूपसिंह तथा . . महाराज सुजानसिंह की सेवा में रहा, जिसके समय में विक्रम संवत् 1789 चैत्र बदी 8 (1733 की तारीख 26 फरवरी) को वह मारा गया। (पृष्ठ 285) ___जब काफीले वालों ने महाराज सुजानसिंह के दरबार में आकर शिकायत की तो प्रधान नाजर आनंदराम आदि की सलाह से महाराजा ने अपनी सेना के साथ प्रयाण कर वरसलपुर को जा घेरा। (पृष्ठ 297) कुछ ही दिनों बाद नवीन बादशाह (मोहम्मद शाह) ने सुजानसिंह को बुलाने के लिए अहदी (दूत) भेजे, परन्तु साम्राज्य की दशा दिन-दिन गिरती जा रही थी, ऐसी परिस्थिति में उसने स्वयं शाही . सेवा में जाना उचित नहीं समझा। फिर भी दिल्ली के बादशाह से सम्बन्ध बनाये रखने के लिए उसने खवास आनन्दराम और मूधड़ा जसरूप को कुछ सेना के साथ दिल्ली तथा मेहता पृथ्वीसिंह को अजमेर की चौकी पर भेज दिया। (पृष्ठ 298, 299) सुजानसिंह के एक मुसाहब खवास आनन्दराम तथा जोरावरसिंह में वैमनस्य होने के कारण वह (जोरावरसिंह) उसको मरवाकर उसके स्थान में अपने प्रीतिपात्र फतहसिंह के पुत्र बख्तावरसिंह को रखवाना चाहता था। अपनी यह अभिलाषा उसने पिता के सामने प्रकट भी की, पर जब उधर से उसे प्रोत्साहन न मिला तो वह नोहर में जाकर रहने लगा, वहाँ अवसर पाकर उसने वि० सं० 1789 चैत्र बदी 8 (ई० सं० 1733 ता० 26 फरवरी) को आधी रात के समय खवास आनन्दराम को मरवा डाला। जब सुजानसिंह को इस अपकृत्य की सूचना मिली तो वह अपने पुत्र से अप्रसन्न रहने लगा। इस पर जोरावरसिंह ऊदासर जा रहा। तब प्रतिष्ठित मनुष्यों ने महाराजा सुजानसिंह को समझाया कि जो हो गया सो हो गया, अब आप कुँवर को बुला लें। इस पर सुजानसिंह ने कुँवर की माता देरावरी तथा सीसोदणी राणी को ऊदासर भेजकर जोरावरसिंह को बीकानेर बुलवा लिया और कुछ दिनों बाद सारा राज्य-कार्य उसे सौंप दिया। (पृष्ठ 300) इसी इतिहास के अनुसार तीनों राजाओं का कार्यकाल इस प्रकार है:१. महाराजा अनूपसिंह (जन्म 1695, गद्दी 1726, मृत्यु 1755) 2. महाराज सुजानसिंह (जन्म 1747, गद्दी 1757, मृत्यु 1792) 3. महाराज जोराबरसिंह (जन्म 1769, गद्दी 1792) 174 लेख संग्रह Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओझा जी ने आनंदराम को महाराजा अनूपसिंह का कार्यकर्ता नाजर है, तो कहीं महाराज अनूपसिंह का मुसाहिब माना है। महाराजा सुजानसिंह के समय प्रधान माना है और उनको एक स्थान पर कूटनीतिज्ञ और खवास भी कहा है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि तीनों महाराजाओं के सेवाकाल में रहते हुए वह मुसाहिब और कूटनीतिज्ञ तो था ही। पत्र का सारांश लघु नाटिका के अनुकरण पर षड्भाषा में यह पत्र रूपचन्द्र गणि ने बेनातट आश्रम (बिलाड़ा के उपाश्रय) से लिखा है। देवसभा में इन्द्रादि देवों की उपस्थिति में सरस्वती इस नाटिका को प्रारम्भ करती है। मर्त्यलोक का परिभ्रमण कर आये हुए बृहस्पति आदि देव सभा में प्रवेश करते हैं और मृत्युलोक का वर्णन करते हुए मरु-मण्डल के विक्रमपुर/बीकानेर की शोभा का वर्णन करते हैं। साथ ही सूर्यवंशी महाराजा अनूपसिंह, महाराजा सुजाणसिंह और युवराज जोरावरसिंह के शौर्य और धार्मिक क्रियाकलापों का तथा जनरजंन का वर्णन करते हैं। इन्द्र, सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति आदि समस्त देवताओं की उपस्थिति में उर्वशी के अनरोध पर सरस्वती आगे का वर्ण प्राकत. सौरसेनी. मागधी. पैशाची आदि भाषाओं में मधर शब्दावली में मगर, राजा, प्रधान इत्यादि के कार्य-कलापों का प्रसादगुण युक्त वर्णन करती है। इस प्रकार देवसभा को अनुरंजित कर लेखक महाराजा, राजकुमार और आनंदराम को धर्मलाभ का आशीर्वाद देते हुए पत्र पूर्ण करता है। यह पत्र मिगसर सुदी तीज संवत् 1787 आनंदराम के कुतूहल और उसको प्रतिबोध देने के लिए लिखा गया है। प्रायः जिनेश्वर भगवान् की स्तुति में ही जैन कवियों ने अनेक भाषाओं का प्रयोग किया है, किन्तु व्यक्ति विशेष के लिए पत्र के रूप में अनेक भाषाओं का प्रयोग अभी तक देखने में नहीं आया, इस कारण 'यह कृति अत्यन्त महत्व की है और स्वलिखित होने से इसका महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। मूल पत्र प्रस्तुत हैं: विक्रमनगरीयप्रधानश्रीआनन्दरामं प्रति वेनातटात् श्रीरूपचन्द्र (रामविजयोपाध्याय) प्रेषितम् नाटिकानुकारि षड्भाषामयं पत्रम् / ॥ई०॥ स्वस्तिश्रीसिद्धसिद्धान्ततत्त्वबोधा (ध) विधायिने। अस्तु विद्याविनोदेनात्मानं रमयते सते // 1 // कताधिवसतिः साधः श्रीमदवेनातटाश्रमे॥ षड्भाषो (षा) लेखलीलायां रूपचन्द्रः प्रवर्तते // 2 // अथाऽत्र पत्रोपक्रमे कविः सरस्वती सम्भाषते स्वर्गाधिवासिनि सरस्वति मातरेहि, ब्रूहि त्वमेव ननु देवसदोविनोदम्। नाट्येन केन भगवान्मघवानिदानी, सन्तुष्यति स्वहृदि भावितविश्वभावः // 3 // सरस्वती-वत्स ! श्रृणु मध्येसुरसभं देवः कथारसकुतूहली। किञ्चिद्विवक्षुरखिला-मालुलोक सुरावलीम् // 4 // लेख संग्रह 175 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ समेऽपि समवहिता देवा देवपादाभिमुखं तस्थुः। देव : भो भोः सुराः कलिरयं कलुषीकरोति, भूलोकमेतमिव सन्तमसं समस्तम्। तेनान्वहं सुकृतवर्म विहाय मोहात्, सर्वत्र सम्प्रति विशो विपथं विशन्ति // 5 // सुरा :- सत्यं भाषन्ते देवपादाः, ओमिति प्रतिशृण्वन्ति। देवः- पुनरपि तत्रैव कुत्रचिदपि प्रतिपद्य दैवा-देशं पदं कृतयुगं लभते त्विदानीम्। तस्याद्य मे वसति निर्णयमन्तरेण, श्लाघ्यैरलं बहुरसैरपरैविलासैः // 6 // अथ सर्वेऽपि सुराः कर्णाकर्णि परस्परं मन्त्रयन्ति। स्वामी कृतयुगपदजिज्ञासुरस्ति। . ततस्तदन्वेषणार्थमालोकितव्योऽस्माभिर्मर्त्यलोकः, तत्रापि मध्यदेशः। यतो वर्ण्यतेऽयं वृद्धैः। सुरगिरिरिव कल्पपादपानां, भवति नृणां प्रभावो महीयसां यः। विलसति खलु यत्र तीर्थमाता, जयति जगत्यनघः स मध्यदेशः // 7 // अतस्त्वरितव्यं तद्विलोकनाय। इति निष्क्रान्ता महितदेवा देव्यश्च / अथ दौवारिकः - दौवारिकः देवः अथ दौवारिकः सुराः देवः सुराः स्मित्वा देवः गरु: जयन्तु भट्टारक:! [देवो नयन्ते (ने) न प्रतीच्छति] देव! मर्त्यलोकादागतः सुरगणो देवदर्शनाभिलाषी द्वारे भगवदाज्ञां प्रतीक्षते। प्रवेशय आशु तम्। सुरगणं प्रवेशयति। प्रविश्य, . जयन्ति देवपादा! इति कृताञ्जलिपुटाः भट्टारकं प्रणमन्ति। .. अस्ति स्वागतं सर्वसुपर्वणामिति हस्तविन्यासेन- समस्तानाश्वासयति / स्वर्लोके चापि भूलोके पाताले वा सुपर्वणाम्। गतिरव्याहता देव! तव व्याधाम तेजसा // 8 // जलधरधाराधोरिणि संसेकोत्फुल्लनीपकुसुममिव। स्मेरवपुर्भवदीयं शंसति सत्कामसिद्धिमिदम्॥ 9 // अत्रभवद्भिः किमज्ञातमस्ति, तथापि किञ्चिन्नेत्रातिथीकृतं वृत्तं देवपादानां पुरस्तात् सुराः पृथय(क्) पृथय(क्) रूपयितुमुत्सहन्ते / भवतु। नो प्राची दिशमासमुद्रमखिलाऽपाची प्रतीची तथोदीची देव! निरीक्ष्य देशनगरनामाभिरामां मुहुः। आलोक्याऽथ पुरं नु विक्रमपुराभिख्यं मरोर्मण्डले, नित्योन्मीलनयोर्यथा नयनयोः साफल्यमाप्तं सुरैः // 10 // सविस्मयम्, कीदृशं तत्? कश्च तत्राचारः? राजन्! यत्र सुजांणसिंहनृपतिर्धत्ते भवद्रूपतां, श्रीजोरावरसिंहनामक इदं सूनुर्जयन्तायते / लेख संग्रह Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनपतिः देवौपम्यमहो वहन्ति सकला लोकाश्च यद्वासिन स्तत्किं देवपुरेण विक्रमपुरं न स्पर्द्धते साम्प्रतम्? // 11 // अथ देवो रवेर्मुखमालोक्य, ननु भो दिनपते ! गुरुणा मदुपमोऽयमभिहितो भूपः, प्रतिदिनं गगनं गाहमानेन भवताऽऽ लोकितोऽपि किं न ज्ञापितः? / - सत्रपम्, स्वामिन् ! मत्सन्ततिगुणोत्कीर्तनं ममैव नोचितम्, तथापि रहस्यमेतदेव / मदन्वये भूपतयो महान्तः, सन्तीह काले बहवस्तथापि। सुजाणसिंहाह्वयभूमिपाते, जाते तुं वंशं कलयामि धन्यम् // 12 // अथ शशधरमुपसृत्य, दिनकरः- वयस्य निशापते त्वमेव विस्तरेण देवपादानां पुरस्तत्कीर्ति कीर्त्तय, भट्टारकाः श्रोतुमन[स]स्सन्ति। शशधरः भवतु, स्वामिन्!, भूपाला बहवो भवन्तु भुवने सूर्येन्दुवंशोद्भवा, ये न न्यायविदो न चापि निपुणा नाचारसञ्चारिणः। किं तैः कापुरुषैः कलेः सहचरै भारभूतैः सदा, सत्येवाऽथ सुजांनसिंहनृपतौ राजन्वती भूरियम्॥ 13 // नि:स्वानेषु नदत्सु देशपतयो नश्येयुरस्याऽरयोऽरण्यं चैव विशेयुराशु चकिताः स्युः श्वापदौघास्ततः। ते किं त्वाधिवसेयुरित्यवनिकाक्षोभावनव्याकुला, * दिग्यात्राप्रतिषेधमेवमनशे सन्त्यस्य दिग्दन्तिनः॥ 14 // यो देवान् यजते प्रजाहितकृते वर्यान् द्विजान् वन्दते, धत्ते भक्तिमथाऽच्युते प्रतिदिनं सन्मानयत्यर्थिनः / साधूंस्तोषयति द्विषो दमयति क्षमापालमालेश्वरः, सोऽयं श्रीमदनूपसिंहनृपतेः सूनुर्न कैः स्तूयते // 15 // कृतयुगप्रवृत्तिरेवाऽयम्। शशधरः पुनः किम्। उर्वश्यभिमुखमालोक्य, आर्ये ! इत एहि / उपसृत्य उर्वशी: उवट्ठियाम्हि, अज्जा भट्टिणो किमाणविंति? आर्ये!, निर्जरसो जगत्कृत्ये नियोजयितव्याः सन्तीत्यत इमेऽधुना स्वास्थ्यं लभन्ताम्। भवत्येव सतन्त्र्या तत्रत्यवृत्तिं मधुरया प्राकृतगिराऽऽवि:करोतु / अथ प्राकृत उर्वशीः .. - सामीणं आणा पमाणं, अह दाव सुणेह तस्सेव रण्णो कुमारचरियं: मणहरसमियवयणो घणमित्तजुओ पत्तारगुम्महणो। सिर(रि )जोरावरसीहो जयइ कुमारो कुमारुव्व // 16 // अथोर्वशी रतिं विलोक्य स्मित्वा च, लेख संग्रह देवः देवः 177 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदूषकः उर्वशी: देवः उर्वशी: जं दट्ठण सुरूवं अज्ज अणंगो किमंगवं जाओ। इय चिरविम्हियहियया रई ठिया तं अहिलसंती॥ 16 // अह तत्थ रइदेवी एतेण सद्धिं अहिलासाणं सिद्धिसंपण्णा। अहवा दलिद्दकलत्तपयं इमाए अवलद्धं / तुब्भेहिं चेव रई पडिपुच्छणीया। रतिरलज्जत। आर्ये! पुनराख्याहि तच्चेष्टितम्। पमाणं सामी, सो जयउ रायपुत्तो जस्स पसाया बुहाणगेहम्मि। जं सिरिसरसइवेरं भग्गं खलु चेगवासम्मि // 18 // ईसरभत्ती हियए जस्स मुहे भारई करे तच्छी। सो लोआणंदयरो जयउ सया तत्थ जुवराया॥ 19 // आर्ये! अयमपि सत्यवानुग एव?। अह किं?। आर्ये! ब्रूहि, कस्तत्र प्रधानपुरुषो राज्यधुराधरणधौरेयः?। पसीयउ सामी!, मह सहीओ सूरसेणी-मागही-पिसाई-देवीओ भट्टिणो आलावपसायं संपेहिं। भवतु, उपसृत्य सूरसेनी - सामिआ, इमाए सहीए . सद्धिं विक्कमनयरं पासिदूणाहं हरिसुक्करिसमुवगदा। इत्थ णं आणंदरामनामेणं रण्णो पहाणपुरिसो दट्ठो। अम्महे भयवं दाव तस्स लावण्णं किं भणेमि? कीदृशोऽसौ?। देवः उर्वशी: देवः उर्वशीः देवः देवः (शूरसेनी-) अर्धमागधीः देवः मागधीः घडिदूण अज्जउत्तं एदं पुण अज्ज बंभदेवोवि। एदारिसं घडेदु होत्था नोय्येव य समत्थे // 20 // होज्जा कस्सवि जणओ जदि बंभो पुण सरस्सदी जणणी। तहवि हु न भोदि लोए वियक्खणो अस्स सारित्थो॥ 21 // हते! उवलम। हगेय्येव एदश्शलूवं पलूवयिश्शं। . शूरसेनी उपरमति। ब्रूहि मागधि! तच्चरितम्। खलु। शिलि शुयाणशिंघश्श शामदाणेहिं भेयडंडेहिं / पञ्चे शच्चपदिश्चे लज्जधुलंशे शुणिव्व हदे // 22 // तम्मि पुले शे लाया पुणो वि शे धम्मिए णिवकुमाले। शे तत्थ पहाणपुलिशे युत्तमिणं णिम्मिदं विहिणा // 23 // हले! उवलम्, त(तं) एतस्स फुत्थत्तनं न किय्यत्तो अहं य्येव चानामि। लेख संग्रह अथ पिशाची: - 178 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवः देवः - वद त्वमेव। पिशाचीः - छहतलसनपलमत्थं यो विंतति सत्थय निफल निऊन ! अत्थप्पेलक्कलुई सच्चेमक्के पतंतेइ // 24 // सच्चनलक्खनतक्खो समक्कफासालतो मतिमं। पहुलोकानंतकलो नत तुआ नंतलामोसो // 25 // विदूषकः ही ही! इमाए मागहीपिशाईभगवदीए गिलविलरूवं वाणी महुरत्तणं अस्सुदपुव्वं मये सुणिदं। देवः तर्हि अयमपि सत्ययुगानुवर्येवाऽस्ति / पिशाची: अह किम्। उर्वशी: ( इतोऽवलोक्य) हेजे, अवझसभासाविसारए! तमवि किं वुत्तकामा चिट्ठसि? / चेटी: उर्वशी: सामी, एसावि भट्ठिणो आलावपसायं ईहई। ब्रूहिचोटी: रजपहाणमणीसि पुण जहां चउब्भुय धन्नु / मंतकरण जेस रूवु जहां धणरक्खणउ किसन्नु // 26 // जहिं विक्कमणयरहिं रहइं, सुहु जण देवह जेम्वु। धम्मह केरी वट्टडी, हल्लइ अप्पण पेम्वु॥ 27 // घरि घरि देवा पुज्जियई, धरि घरि दिज्जै(ज्जइ) दाणु। घरि घरि महिला सीलवइ, घरि घरि धम्मह ठाणु // 28 // झल्लरि तूर झणक्कडा, हुंति विहाणह संझि / दिण दिण हल्लोहलि रहइ, देवल देवल मंझि // 29 // विक्कमणयरइ भत्तिडी, सग्गह मज्झि पलोइ। सग्गह केरी भत्तिडी, विक्कमणयरहिं जोइ // 30 // इति उपरमति। अथ गुरु: - समसंस्कृतेन, इदमेव नगरमरिबलतापविहीनं विसारिगुणपीनम्। नहि नहि पापाधीनं, भूयो भूयो वदामीनम् // 31 // अथ देवः - (प्रसद्य) आलब्धमत्रैव कृतयुगसदमिति समाधाय देवनायको देवविधेयान् साधयति। इति रञ्जिता देवपर्षत्। राजंश्चिरं जीव विधेहि राज्यं, चिरं महाराजकुमार! जीव। आणन्दरामाऽन्वहमेव नन्द, श्रीधर्मलाभं सततं वहस्व // 32 // इति श्री नाटिकानुकारिषड्भाषामयं पत्रम्। लिखितं मार्गशीर्षासिततृतीयातिथौ 1787 वर्षे / आनन्दरामस्य कुतूहलार्थं, भाषाश्च षट् तं प्रतिबोधनार्थम्। सर्वज्ञपुत्रत्वकवित्वसंज्ञो-न्मादप्रमोदादहमप्यलेखम् // 1 // [अनुसंधान अंक-२७] 100 लेख संग्रह 179 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनमहेन्द्रसूरिजी को प्रेषित प्राकृत भाषा का विज्ञप्ति-पत्र विज्ञप्ति-पत्र-लेखन एक स्वतंत्र विधा है। यह विधा साहित्यशास्त्र के अन्तर्गत ही है किन्तु साहित्यशास्त्र में इसका कोई उपभेद प्राप्त नहीं होता है। जैन मनीषियों द्वारा यह विधा पल्लवित एवं पुष्पित होकर स्वतंत्र रूप प्राप्त है। अन्य परम्पराओं में सम्भवतः इसका उल्लेख नहीं मिलता है। विज्ञप्ति-पत्र-लेखन के दो रूप प्राप्त होते हैं 1. जैन मुनिगणों द्वारा प्रेषित और 2. जैन संघ द्वारा गणनायक एवं आचार्यों को प्रेषित / 1. जैन मुनिगणों द्वारा प्रेषित : जैन मुनिगणों द्वारा प्रेषित पत्रों में मुनिजन अपने आचार्यों/गणनायकों को जो संस्कृत, प्राकृत भाषा में पत्र लिखते थे, वे पत्र गद्य-पद्य और गद्यपद्य मिश्रित होते थे। समासबहुल अलंकारों की छटा से युक्त काव्य शैली में लिखते थे। इन पत्रों में मुनिजन अपने चातुर्मासिक धार्मिक क्रिया-कलापों, यात्रा-वृत्तान्तों, प्रवचनों, समाज द्वारा आचरित विशिष्ट कृत्यों और शासन-प्रभावना का वर्णन करते थे। शास्त्र पठन-पाठन का भी अध्ययन-अध्यापन का भी उल्लेख होता था। इन पत्रों का प्रारम्भ तीर्थंकरों, गणधरों और आचार्यदेवों का स्मरण कर वर्तमान गच्छनायक के गुणों का उल्लेख करते हुए, प्रेषणीय स्थान/नगर के गौरव को व्याख्यान करते हुए, नामोल्लेख सहित आचार्यों को सविधि वन्दन करते हुए प्रेषित किया जाता था। तत्पश्चात् प्रेषक मुनिजनों के नाम विस्तार के साथ लिखे जाते थे। एतिहासिक वर्णनों का भी इनमें प्राचुर्य रहता था। अन्त में शुभकामना और आशीर्वाद चाहते हुए पत्र पूर्ण किया जाता था। ये पत्र बड़े विशाल होते थे और लघु भी। विशाल पत्रों में एक विक्रम सम्वत् 1441 में अयोध्या में विराजमान पूज्य लोकहिताचार्य को भेजा गया था। भेजने वाले थे - आचार्य जिनोदयसूरि, जो उस समय अणहिलपुर पाटण में विराजमान थे। इसमें पद्य केवल 86 हैं और शेष भाग गद्य में है। यह गद्य भाग भी महाकवि बाण, दण्डि और धनपाल की शैली का अनुकरण करता है। शब्द छटा भी आलंकारिक है और ऐतिहासिक घटनाओं का भी निर्देशन है। इसमें तीर्थयात्राओं का विशिष्ट वर्णन है। (यह विज्ञप्ति-पत्र मुनिश्री जिनविजयजी द्वारा सम्पादित होकर जैन-विज्ञप्ति-लेख-संग्रह पुस्तक में प्रकाशित हो चुका है।) इसी प्रकार विक्रम सम्वत् 1484 में गच्छाधिपति जिनभद्रसूरि को लिखा गया पत्र विज्ञप्तित्रिवेणी के नाम से प्रसिद्ध है। उस समय आचार्य पाटण में ही विराज रहे थे। पत्र के लेखक थे - जैन साहित्य और साहित्यशास्त्र के धुरंधन विद्वान् उपाध्याय जयसागरजी। उन्होंने यह पत्र सिंध प्रदेश स्थित मलिक वाहनपुर से लिखा था। (यह विज्ञप्ति-पत्र मुनिश्री जिनविजयजी द्वारा सम्पादित होकर विज्ञप्तित्रिवेणी के नाम से प्रकाशित हो चुका है।) कई लघु विज्ञप्ति-पत्र खण्ड काव्यों के रूप में अथवा महाकाव्य की शैली में या पादपूर्ति काव्यों / के रूप में लिखे गये थे। ये पत्र भी ऐतिहासिक और साहित्यिक दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखते है। कई विज्ञप्ति-पत्र चित्रकाव्यबद्ध भी होते हैं अथवा मध्य में चित्रकाव्य भी प्राप्त होते हैं। इन पत्र लेखों में 180 लेख संग्रह Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयविजयोपाध्याय, मेघविजयोपाध्याय, विजयवर्धनोपाध्याय आदि प्रमुख हैं। इनमें से कतिपय विज्ञप्तिपत्र प्रकाशित भी हो चुके हैं। 2. जैन संघ द्वारा गणनायक एवं आचार्यों को प्रेषित : यह पत्र चित्रबद्ध होने के कारण आकर्षणयुक्त दर्शनीय और मनोरम भी होते हैं। विशाल जन्मपत्री के अनुकरण पर विस्तृत भी होते हैं। इन विज्ञप्ति पत्रों की चौड़ाई 10 से 12 इंच होती है और लम्बाई 10 फुट से लेकर अधिकाधिक 108 फुट तक होती है। टुकड़ों को सांध-सांध कर बंडल-सा बना दिया जाता है। इन विज्ञप्ति-पत्रों में सबसे पहले कुम्भकलश, अष्ट मंगल, चौदह महास्वप्न और तीर्थंकरों के चित्र चित्रित किये जाते हैं। पश्चात् राजा-बादशाहों के प्रासाद, नगर के मुख्य बाजार, विभिन्न धर्मों के देवालय और धर्मस्थान, कुआँ, तालाब आदि जलाशय, बाजीगरों के खेल और गणिकाओं के नृत्य भी चित्रित होते हैं / तत्पश्चात् जैन समाज का धर्म जुलूस, साधुजन और श्रावक समुदाय के चित्र भी अंकित होते हैं। उसके पश्चात् जिन आचार्यों को यह विज्ञप्ति-पत्र भेजा जाता है, उनके चित्र, उनके अधिकाधिक सर्वश्रेष्ठ विशेषण और उनके नाम आदि अंकित कर लेखन प्रारम्भ होता है। आचार्य के गुणों की बहुत प्रशंसा रहती है। उपासकों का वर्णन रहता है। धर्मकृत्यों का वर्णन रहता है और अन्त में आचार्य को अपने नगर में पधारने के लिए विस्तारपूर्वक प्रार्थना/विज्ञप्ति की जाती है। अन्त में उस नगर के अग्रगण्य मुख्य श्रावकों के हस्ताक्षर होते हैं। इन पत्रों में धार्मिक-इतिहास के अतिरिक्त समाज और राजकीय ऐतिहासिक बातें भी गर्भितं होती हैं। ___ इन विज्ञप्ति-पत्रों का प्रारम्भ प्राय: संस्कृत भाषा में और अंतिम अंश देश्य भाषा में होता है। ये विज्ञप्ति-पत्र अधिकांशतः चित्रित प्राप्त होते हैं और कुछ अचित्रित भी होते हैं। बहुत अल्प संख्या में ये पत्र प्राप्त होते हैं। . चर्चित पत्र : प्रस्तुत पत्र प्रथम प्रकार का है। इस पत्र को पाली में स्थित पं० जयशेखर मुनि द्वारा जैसलमेर में विराजमान गच्छनायक श्री पूज्य जिनमहेन्द्रसूरि को भेजा गया है / विक्रम सं० 1897 में लिखित है / इस पत्र की मुख्य विशेषता यह है कि यह प्राकृत भाषा में ही लिखा गया है। अन्त में पाली नगर के मुखियों के हस्ताक्षरों सहित आचार्य के दर्शनों की अभिलाषा, पाली पधारने के लिए प्रार्थना अथवा अन्य मुनिजनों को भिजवाने के लिए अनुरोध किया गया है। इस पत्र में कोई भी चिंत्र नहीं है। पत्र की लम्बाई 9 फुट तथा चौड़ाई 10 इंच है। यह पत्र मेरे स्वकीय संग्रह में है। पत्र का सारांश प्रारम्भ में दो पद्य संस्कृत भाषा में और शार्दूल विक्रीडित छन्द में हैं। प्रथम पद्य में भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है और दूसरे पद्य में जैसलमेर नगर में चातुर्मास करते हुए श्री पूज्य जी के पादपद्मों में प्राकृत भाषा में यह विज्ञप्ति-पत्र लिखने का संकेत किया है। इसके पश्चात् प्राकृत भाषा में शांतिनाथ भगवान् को नमस्कार कर जैसलमेर नगर में विराजमान गणनायक के विशेषणों के साथ गुण-गौरव/यशकीर्ति का वर्णन करते आचार्य जंगमयुगप्रधान श्री जिनमहेन्द्रसूरि जो कि पाठक, वाचक, साधुगणों से परिवृत हैं, से प्रार्थना की गई है कि पाली नगर का श्रीसंघ भक्तिपूर्वक वन्दन करता हुआ निवेदन करता है और लिखता है कि आपके प्रसाद से यहाँ का श्रावक समुदाय सुखपूर्वक है और आप भी साधु-शिष्यों के परिवार सहित सकुशल होंगे। . लेख संग्रह 181 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "पयुर्षण के धार्मिक कार्य-कलापों सम्बन्धित आप द्वारा प्रेषित कृपापत्र प्राप्त हुआ और इस पत्र के साथ आपश्री ने श्रावकों के नाम पृथक् पत्र भेजे थे, वे उन्हें पहुंचा दिये गये हैं। आपके पत्र से हमें बहुत आनन्द हुआ और शुभभावों की वृद्धि हुई।" "यहाँ भी पयुषण पर्व के उपलक्ष्य में तप, नियम, उपवास और प्रतिक्रमण भी अधिक हुए। कल्पसूत्र की नववाचना हुई। व्याख्यान सुनकर अनेक श्रावकों ने कन्द-मूल, रात्रि-भोजन आदि अकरणीय कार्यों का त्याग किया। बहुत लोगों ने छठ, अट्ठम, दशम, द्वादश आदि अनेक प्रकार की तपस्या की। चम्पा नाम की श्राविका ने मासखमण किया। 71 श्रावकों ने सम्वत्सरी प्रतिक्रमण भी किया। प्रतिक्रमणों के उपरान्त चार श्रावकों ने - गोलेछा भैरोंदास, छोटमल उम्मेदमल कटारिया, गुमानचन्द बलाही, शोभाचन्द सुकलचन्द चौपड़ा ने श्रीफल की प्रभावना की। पंचमी को स्वधर्मीवात्सल्य हुआ जिसमें 300 श्रावकों ने लाभ लिया।" "आषाढ़ सुदि 2, बुधवार से जयशेखरमुनि के मुख से आचारांग सूत्र का व्याख्यान और भावना में महीपाल चरित्र श्रवण कर रहे हैं। बहुत लोग व्याख्यान श्रवण करने के लिए आते हैं। अभी आचारांग सूत्र का लोकविजय नामक द्वितीय अध्ययन के दूसरे उद्देशकों का व्याख्यान चल रहा है। सम्वत्सरिक दिवसों में हमारे द्वारा जो कुछ अविनय-अपराध, भूल हुई हो, उसे आप क्षमा करें, हमें तो आपका ही आधार है। हमारे ऊपर आपका जो धर्म-स्नेह है, उसमें कमी न आने दें। जैसलमेर निवासी भव्य लोग धन्य है, जो आप जैसे श्रीपूज्यों के नित्य दर्शन करते हैं और श्रीमुख से नि:सृत अमृत वाणी सुनते हैं। आपके साथ विराजमान वाचक सागरचन्द्र गणि आदि को वन्दना कहें।" . विक्रम सम्वत् 1897, कार्तिक सुदि सप्तमी, रविवार को जयशेखर मुनि ने यह विज्ञप्ति पत्र लिखा है। इसके पश्चात् राजस्थानी भाषा में श्रीसंघ की ओर से विनती लिखी गई है। इसमें लिखा है कि "आपने इस क्षेत्र को योग्य मानकर पं० नेमिचन्दजी, मनरूपजी, नगराजजी और जसराजजी को यहाँ भेजा है, उससे यहाँ जैन धर्म का बहुत उद्योत हुआ है और व्याख्यान, धर्म-ध्यान का भी लाभ प्राप्त हुआ है। पहले यहाँ पर उपाश्रय का हक और खरतरगच्छ की मर्यादा/समाचारी उठ गई थी। इनके आने से सारी समस्या हल हो गई। आपसे निवेदन है कि पाली क्षेत्र योग्य है। इनको दो-तीन वर्ष तक यहाँ रहने की इजाजत दें ताकि यह क्षेत्र सुधर जाए और बहुत से जीव धर्म को प्राप्त करें।" इसके पश्चात् मारवाड़ी (मुड़िया) लिपि में पाली के 28 अग्रगण्यों के हस्ताक्षर हैं। उनमें से कुछ नाम इस प्रकार है- नाबरीया भगवानदास, संतोषचन्द प्रतापचन्द, अमीचन्द साकरचन्द, गोलेछा भैरोलाल रिखबचन्द, कटारिया शेरमल उम्मेदचन्द, कटारिया जेठमल, लालचन्द हरकचन्द, संघवी रूपचन्द रिखबदास, गोलेछा सागरचन्द आलमचन्द आदि। विशेष :- इस पत्र में चार यतिजनों के नाम आए हैं - पं० नेमिचन्द, मनरूप, नगराज, जसराज के नाम आए हैं। इन चारों के नाम दीक्षावस्था के पूर्व के नाम हैं। खरतरगच्छ दीक्षानंदी सूची पृष्ठ 101 के अनुसार सम्वत् 1879 में फागुण बदी 8 को बीकानेर में श्री जिनहर्षसूरि ने शेखरनंदी स्थापित कर जयशेखर को दीक्षा दी थी। जयशेखर का पूर्व नाम जसराज था और सुमतिभक्ति मुनि के शिष्य थे और जिनचन्द्रसूरि शाखा में थे। 182 लेख संग्रह Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनमहेन्द्रसूरि श्रीपूज्य जिनमहेन्द्रसूरि को यह विज्ञप्ति पत्र लिखा गया था अतः श्री जिनमहेन्द्रसूरि का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: अलाय मारवाड़ निवासी सावणसुखा गोत्रीय शाह रूपजी की पत्नी सुन्दरदेवी के ये पुत्र थे। जन्म सम्वत् 1867 था। मनरूपजी इनका जन्म नाम था। सम्वत् 1885, वैशाख सुदी 13, नागौर में इनकी दीक्षा हुई थी और दीक्षा नाम था - मुक्तिशील। दीक्षानंदी के अनुसार इनकी दीक्षा 1883 में सम्भव है। गच्छनायक श्री जिनहर्षसूरि का सम्वत् 1892 में स्वर्गवास हो जाने पर मिगसर बदी 11, सोमवार, 1892 में मण्डोवर दुर्ग में इनका पट्टाभिषेक हुआ। यह महोत्सव जोधपुर नरेश मानसिंह जी ने किया था, और उस महोत्सव के समय 500 यतिजनों की उपस्थिति थी। यहीं से खरतरगच्छ की दसवीं शाखा का उद्भव हुआ। मण्डोवर में गद्दी पर बैठने के कारण यह शाखा मण्डोवरी शाखा कहलाई। इधर यतिजनों में विचार-भेद होने के कारण बीकानेर नरेश के आग्रह पर जिनसौभाग्यसूरि गद्दी पर बैठे। श्री जिनमहेन्द्रसूरि के उपदेश से जैसलमेर निवासी बाफणा गोत्रीय शाह बहादरमल, सवाईराम, मगनीराम, जौंरावरमल, प्रतापमल, दानमल आदि परिवार ने शत्रुजय तीर्थ का यात्रीसंघ निकाला था। इस संघ में 11 श्रीपूज्य, 2100 साधु-यतिगण सम्मिलित थे। इस संघ में सुरक्षा की दृष्टि से चार तोपें, चार हजार घुड़सवार, चार हाथी, इक्यावन म्याना, सौ रथ, चार सौ गाड़ियाँ, पन्द्रह सौ ऊँट साथ में थे। इसमें अंग्रेजों की ओर से, कोटा महारावजी, जोधपुर नरेश, जैसलमेर के रावलजी और टोंक के नवाब आदि की ओर से सुरक्षा व्यवस्था थी। इस यात्री संघ में उस समय 13,00,000/- रु० व्यय हुए थे। यही बाफणा परिवार पटवों के नाम से प्रसिद्ध है और इन्हीं के वंशजों ने उदयपुर, रतलाम, इंदौर, कोटा आदि स्थानों में निवास किया था और राजमान्य हुए थे। इनके द्वारा निर्मित कलापूर्ण एवं दर्शनीय पाँच हवेलियाँ जैसलमेर में आज भी भारतवर्ष में पटवों की हवेलियों के नाम से प्रसिद्ध हैं और अमरसागर (जैसलमेर) के दोनों मंदिर इसी पटवा परिवार द्वारा निर्मित है। इसी पटवा परिवार ने लगभग 360 स्थानों पर अपनी गद्दियाँ स्थापित की थीं और गृहंदेरासर और दादाबाड़ियाँ भी बनाई थीं। इन्ही के वशंजों में सर सिरहमलजी बाफणा इंदौर के दीवान थे, श्री चाँदमलजी बाफणा रतलाम के नगर सेठ थे और दीवान बहादुर सेठ केसरीसिंहजी कोटा के राज्यमान्य थे। उदयपुर में भी यह परिवार राज्यमान्य रहा है। वर्तमान में इन पाँचों भाइयों के वंशज भिन्न-भिन्न स्थानों इंदौर, रामगंजमंडी, झालावाड़, कलकत्ता आदि में और रतलाम-कोटा परिवार के बुद्धसिंहजी बाफणा विद्यमान हैं। इस तीर्थ-यात्रा का ऐतिहासिक वर्णन जैसलमेर के पास स्थिति अमर-सागर में बाफणा हिम्मतराजजी के मंदिर में शिलापट्ट पर अंकित है। इस शिलापट्ट की प्रशस्ति श्री पूरणचन्दजी नाहटा द्वारा सम्पादित जैन लेख संग्रह, तृतीय खण्ड, जैसलमेर के लेखांक 2530 पर प्रकाशित है। स्वनामधन्य मुंबई निवासी सेठ मोती सा० के अनुरोध पर जिनमहेन्द्रसूरिजी बम्बई पधारे और सम्भवतः भायखला दादाबाड़ी की प्रतिष्ठा भी इन्होंने की थी। सम्वत् 1893 में शत्रुजय तीर्थ पर सेठ मोती सा० द्वारा कारित मोती-वसही टोंक की प्रतिष्ठा भी इन्होंने करवाई थी। सम्वत् 1901, पौष सुदि पूनम को रतलाम में बाबा साहब के बनवाये हुए 52 जिनालय मंदिर की प्रतिष्ठा भी इन्होंने करवाई थी। इस प्रतिष्ठा के समय इनके साथ 500 यतियों का समुदाय था। सम्वत् 1914 भाद्रपद कृष्णा 5 को मण्डोवर में लेख संग्रह 183 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका स्वर्गवास हुआ। जोधपुर नरेश, उदयपुर नरेश आपके परम भक्त थे। आपके द्वारा प्रतिष्ठित सैकड़ों मूर्तियाँ आज भी प्राप्त हैं। इनके पाट पर क्रमशः जिनमुक्तिसूरि, जिनचन्द्रसूरि और जिनधरणेन्द्रसूरि विराजमान : हुए। वर्तमान में इस शाखा में कोई श्रीपूज्य नहीं है। प्रायः यति समाज भी समाप्त हो चुका है। मूल विज्ञप्ति पत्र इस प्रकार है:- . // श्रीगौतमाय नमः॥ // नमःश्रीवर्धमानाय सर्वकलनाय // / / प्रत्यूहव्यूहप्रमथनाय श्रीसाधुगणाधीशाय नमः / / स्वस्तिश्रीवरवर्णिनी प्रियतमं विश्वत्रयैकाधिपं, प्रत्यूहप्रशमाय कामदमपि प्रेष्ठं परं कामदम् / प्रास्ताकं पुरुहूतपूजितपदं पार्श्वप्रभु पावनं, प्रख्यातं प्रणिपत्य सत्यमनसा कायेन वाचापि च॥१॥ सत्या सेचनके सुजेशलमहादुर्गे पुरे तस्थुषां, चातुर्मास्यविधानसाधनकृते श्रीपूज्यराजामिदम्, विज्ञप्तिच्छदनं प्रमोदसदनं पत्पद्मयोः प्राभृती, कुर्वे प्राकृतबन्धुरं गुरुधियः शश्वत् क्रियासुः कृपाम्॥२॥ द्वाभ्यां युग्मम् सोत्थि सिरिसंतिजिणं पणमिऊण सिरिजेसलमेरुणयरपवरे पुज्जा परमपुज्जा उत्तमा उत्तमुत्तमा जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना लज्जालाघवसंपन्ना सुयपुण्णा जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोहा जियनिद्दा जियइंदिया जियपरीसहा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा भव्ववरपुंडरीया पवरमुहसिरीया सुगहि यचरित्तहिरीया पुण्णचंदविसालकं तवयणा अमियमहु रवयणा करुणा भरमंथर नयणा अमियवरगुणभायणत्तणेण अहरीकयगयणा अणेगच्छेरगकरविचित्त-नायकहणेणरंजियसयलसयणा महियसन्नाण-ज्झाणसप्पहविद्धंसकय हत्थदुट्ठमयणा कयाखिलजयजंतुजयणा. निद्देसट्ठियनरनियरेहिं सययकयभयणा सज्जनगुणाणुरत्ता सयलसुह लक्खण-कलियगत्ता कारुण्णदेसण्णयासत्थीकयसव्वअइदुग्घडसत्थघडण-वक्खाणविहिम्मिविहियपडुनिरुत्ता आइण्णवलेसमुक्किट्ठसूरिगुणजुत्ता चेटुिंगियाईणं लद्धलक्खत्तणेण वित्तासियनियडि धुजधुत्ता नियभिहाण-सई वासइसमरियसुद्धसुत्ता विस्सविस्सपसरियपवरपण्डुरजसेण विजियमत्तसुत्ता अट्ठमिहिमकिरणपमाणपडिपुण्णपुण्णभाला गरिट्ठगुणविसाला सव्वसमयमाणसके लिकरणरायमराला विसयविवागपयडीकरणाकलुससलिणेण विज्झवियवम्मह जलणजाला जियदुद्धरमयणा भवियवर पुण्डरीयविबोहणे -सहस्सकिरणा चंदेवसीयलीकयकसायपरिभवियसयलसत्तगणा वियसियकुमुयनयणा महुरवरवयणरंजियसयणा नाणाइप्पहाणा गुणलयणा सयलसूरिगुणनिहाणा, किं बहुणा? जाव कुत्तियावणब्भूया जिणागमजलनिहिपारगा भट्टारगकुलप्पवरा जंगमजुगप्पहाणभट्टारगा सिरि 108 सिरिसिरिसिरिसिरिसिरिजिणमहिंदसूरिसूरिनायगा सुविणीयपाठगवाचगसाहुसीसगणसपरिवारा तेपई सिरिपल्लियपुरिवराओ दंसणाभिलासी चलणपरियरियापरायणो आणाकारी. सयलसावगजणसंघो सिरि पुजाणं वर भत्तीए अभिवंदिऊण विण्णत्तिं विण्णवइ। तंजहा 184 लेख संग्रह Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायंडमंडलावत्तप्पमाणपयाहिणेण परिमिया भुज्जो भुज्जो दुवालसावत्तवंदणावसेया। तहा इत्थ सिरिपुज्जाणं पसायओ सावगाणं सयलसुहमत्थि। सिरिपुजाणं साहुसीसपरियरसहियाणं सुहसायकुसलखेमाणपवत्तिं सया समीहाओ। अवरं च-सिरिपुज्जाणं पज्जोसवणसव्वोदंतसंसूयगो किवापत्तो समागओ। अन्ने जे सावगाणं नामेणं पत्ता दिन्ना ते सव्वेसिं हत्थे पत्तेयं समप्पिया। पत्तमज्झत्थसमायारवायणाओ अईवआणंदो सिरिपुजचलणफासणक्कप्पो पयडीहुओ, बहूणं भव्वाणं सुहभावणाविवड्डिया। तहा य ___ इत्थ सिरिपज्जोसवणापव्वराओप्पहाणप्पबलवरतवनियम-पोसहोववासपडिक्कमणेहिं महिमभरो जाओ। सिरिकप्पसुत्तस्स नव वक्खाणा बहुअविग्घेण अईवदित्ता जाया। वक्खाणं सोऊण बहूहिं जणेहिं कंदमूलराइभोयणपमुहमकजं परिहरियं / तहा य सावय-सावियाणमझे छट्ठ-अट्ठम-दसम-दुवालसाइबहुविहो तवो जाओ। मासक्खमणमेगं चंपाभिहाणयाए सावियाए कयं / तहा संवच्छरिपडिक्कमणं एगसत्तरिसावगेहिं कयं / तत्थ य चत्तारि सावगेहिंगोलेछा भैरुदास, कटारीया छोटमल्ल उमेदमल्ल, बलाही गुमांनचंद, चोपडा सोभाचंद सुकलचंद-नामेहिं सव्वेसिं पडिक्कमणकारगाणं सिरिफलाणि पत्तेयं दिनाणि। संवच्छरिपारणगे पंचमिदिणे सव्वेहिं खरतरगणसावगेहिं साहम्मियवच्छल्लं कयं, तत्थ सावगा तिन्निसया भुत्ता। अईवसोहापाउन्भूया इच्चाइ धम्मकिच्चाणि हरिसेण संजाया। तहा ___आसाढसुदिबीयबुहवाराओ सिरिआयारपढमअंगो वक्खाणे संघेण जयसेहरमुणिसगासाओ मंडाविओ, उवरिं महीवालचरित्तो भावणाहिगारे वच्चिजइ। तत्थ बह वे सावगा सुणणत्थमागच्छंती। जिणवाणीनीरकन्नफासाओ कम्मपंकमलसरीरत्थं धोवंति। संपयं लोगविजयाभिहाणबीयज्झयणस्स बितिउद्देसगस्सवक्खाणं हवइ। सिरिपुज्जाणं पभावओ बहुजणाणं धम्मफलं बोहिबीयमूलं वड्डिस्सइ एसा 'सिद्धंतसुणणदुल्लहसामग्गी अम्हारिसाणं मंदभग्गजणाणं पुज्जप्पभावं विणा अन्नत्थ कत्थ मिलइ। तहा य -- जंकिंचि संवच्छरंसि सावगेहिं सिरिपुजाणं दुटुं विणय पडिवत्तिरहियं समायरियं सेत्तं गणवईहिं खमियव्वं उवसमियव्वं खमियमुचियढे सुयसायरढे बउसुयहरटेपसायपरटे सिरिपुजाणं सावगा खमंति उवसमंति, सिरिपुज्जेहिं वि उवसमियव्वं / वयं सेवगाम्हि सेवगाणं भवयाणमेव लज्जा अत्थि, अम्हाणं तु सिरिमयाणमेव आधारोत्थि। किंबहुणा लिहिएण? सावगजणेसु किवापीइभावो वड्डेयवो, न छड्डेयव्वो सिणेहो, तुब्भे खमासायरा गुणग्गाहिणो गुणनिहिणो परुवयारपरा विजह। तहा य जोगखेमकरो नाहो इय निरुत्ती सिरिमएसु विजए। धन्ना तत्थ पुरनिवासिणो भवियजणा जे सिरिपुज्जाणं दंसणं निच्चं करितिं, तुज्झवयणकमलविणिग्गया अमयसरोवमा वाणी सुणंति अम्हाणं दंसणाभिलासा एवं / यतः - यथा चकोरस्तुहिनांशुबिंबं, यथा रथांगो दिवसाधिनाथम्। यथा मयूरो जलदं समंतात्, तथा भवदर्शनलालसोऽहम्। पुण पत्तप्पदाणेण धम्मनेहलया विवड्डणीया। यतः - मनोभूमौ जाता प्रकृतिचपला या विधिवशात्, गुरो वृद्धिं नेया प्रचुरगुणपुष्पप्रसविनी। तथा संसेक्तव्या स्मृतिमुपगतैर्वाक्यसलिलैयेथेयं न म्लानिर्भवति मृदुलस्नेहलतिका। लेख संग्रह 185 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहा अम्हाओ पुजभत्ती हीणपुन्नत्तणओ किमवि न संपज्जइ तस्सावराहो खमियब्वो। तहा तत्थ वायगसिरि 5 सागरचंदगणिमादीणं सव्वसाहूणं वंदणा कहेयव्वा। इत्थ जोग्गं भत्तिकिच्चं लिहेयव्वं / पयमत्तक्खरहीणाहियस्सावराहो सोहेयव्वे / वरिसे अट्ठारसयसत्तणउयाहिए कत्तियधवलसत्तमीए रविवारदिणे एसो विण्णत्तिलेहो जयसेहरेण मुणिणालिहिओ। तथा श्रीसंघनी वीनती आं है - अठै श्रीसंघनै कीरपा कर वंदावसी। अप्रंच अठारा खेत्र जोग्य जांणने श्रीजी माहाराज पं। श्री नेमचंदजी मनरूपजी नगराजजी जसराजजी नै मेलाया सो श्री जयनधरमनो बोहत उदोत हुवो। श्रीसंघ सरावक सरावीका ने वखांण वांणी सुणने धरमध्यांननो लाभ विशेष हुंवो, सु आवता चोमासारो आदेश ईणांने ही लीखावसी। आगे तो सारी मरजादा उपासरारो हक सारो उठ गया थो सो . ईणांने मेलणासुं सारी वातरी मरजादरी वधोतर हुई। पंडित है, गुणी है, पालिखेत्र लायक है, जीणसु पालीखेत्र में तो वरस दोय तीन अठे ईणांनै ही रखायां खेत्र सुधरसी ने घणा जीव धरम पांमसी, वडो लाभ उपजसी। / लीखतु नाबरीया भगवानदास संतोकचंद री वंदणा वर 108 अवधारसी धणा मानसुं .. / ल / / परताबचंद ......... .... रा वंदणा बंचावसी 108 / ला सा. अमीचंद साकरचंद नी वंदणा वार 108 अवधारसी धणा बहुमानथी द० लखमीचंद / लखतु गोलेछा भेरोंदास रखबचंद रा वंदणा 108 वंचीजो धरम सनेह रखावसी . / लीखतु कटारीया सेरमल उमेदमलरी वंदणा 108 वार अवधारसी / लीखतु कटारीया जेठमल फतहमलरी वंदणा 108 वार वंचावसी धरम सनेह रखावसी / लीखतु संघवी भीवराज नवलमल अर संघवी समस्तकी वंदणा 108 अवधारसीजी धणा मानसु द० नवलमल रा छः / लीखतु .. / लीखतु लालचन्द हरकचन्द हलावार की वंदणा 108 वार अवधारसी / लीखतु संतोकचन्द ................ नथमल गुलेछा री वंदणा 108 वार अवधारसी / लीखतु भंणसाली रूपचन्द रखबदास री वंदणा 108 वार अवधारसी / लीखतु पारसचन्द सूरचन्द सुकलचन्द री ............. वंदणा 108 वार अवधारसी' / लीखतु ....... ...... लालचन्द मोतीचन्दरी वंदणा 108 वार अवधारसी / लीखतु ..................वंदणा 108 वार अवधारसी .................. / लीखतु पुगलिया धनसुख री वंदणा 108 वार अवधारसी करपा करने पधारसी और ..... / लीखतु गोलेछा अगरचन्द आलमचन्द री .....................वंदणा 108 वार करने अवधारसी / लीखतु सुभकरण सेन्सकरण लूणियारी वंदणा मालम 108 वार होसी दस्तखत निहालचन्दरा छः / लीखतु नथमल चपरोर वंदणा .................................. 108 वार अवधारसी / लीखतु नगारामरा वंदणा वंचावसी वार 108 वार वंचावसी धरम सनेह रखा जण वैसे ही रखावसी / लीखतु ...... साल लखमीचन्द अर समसतरी वंदणा 108 वार वंचावसी / लीखतु पारख उमेदमल री वंदणा 108 वार वंचावसी / ली खजांची माणकचन्द अगरचन्द री वंदणा 108 वार वंचावसी 186 लेख संग्रह Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / ली माणकचन्द कुनणमल ............ वंदणा श्री 108 वार वंचावसी / लीखतु कांकरीया भीवराज री वंदणा 108 वार वंचावसी / लीखतु .............. वंदणा 108 वार वंचावसी धणामानसु करी ने / लीखतु नाहटा दौलतराम बुधमल जेठमल री वंदणा 108 वार वंचावसी अवधारसी धमसनेह रखावसी / लीखतु लधाराम ..............री वंदणा वार 108 अवधारसी धमसनेह रखावसी जी मोहणोत आज्ञाकारी वनेचन्द री वंदणा वार 108 मालम होसी। [अनुसंधान अंक-३३] 00 लेख संग्रह . 187 13 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. चारित्रनन्दी की गुरुपरम्परा एवं रचनाएं अनुसंधान के अंक 35, सन् 2006 के अंक में पृष्ठ 31 से 48 तक महोपाध्याय चारित्रनन्दी विरचित चतुर्दश पूर्व पूजा प्रकाशित हुई है। इसके सम्पादक हैं आचार्य श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी म.। दुर्लभ एवं महत्वपूर्ण पूजा का सम्पादन कर आचार्यश्री ने साहित्यिक जगत् पर उपकार किया है। . पूजा के पूर्व में कवि की गुरु परम्परा देते हुए सम्पादक ने लिखा है:- 'खरतरगच्छना जिनराजसूरि, तेमना पाठक रामविजय, तेमनी परम्परा क्रमशः सुखहर्ष (?) - पदमहर्ष - कनकहर्ष - महिमहर्ष - चित्रकुमार - निधिउदय (के उदयनिधि ?) - चारित्रनन्दी आम पंक्तिओ परथी उकले छे. आमां क्षति होय तो सुधारी शकाय? संवत 1895 मां आ पूजा कविए रची छे ते तेमणे ज नोध्युं छे.' ___ इस वाक्यावली में प्रयुक्त आमां क्षति होय तो सुधारी शकाय? शब्दों ने ही मुझे प्रेरित किया है। खरतरगच्छ के गणनायक जिनसिंहसूरि के पट्टधर जिनराजसूरि हुए। वे आगम साहित्य, काव्य और न्याय के बेजोड़ विद्वान् थे। जिनराजसूरि की ही शिष्य परम्परा में उपाध्याय निधिउदय हुए। सम्भव है इनका बाल्यावस्था का नाम नवनिधि हो। इन्हीं के शिष्य उपाध्याय चारित्रनन्दी हुए जो चुन्नीजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध थे। चारित्रनन्दी जैन न्यायदर्शन, काव्य, व्याकरण और पूजा साहित्य के उद्भट विद्वान् थे। उनके समय में काशी में जैन विद्वानों में इनका अग्रगण्य स्थान था। इनका साहित्य सजन काल 1890 से लेकर 1915 तक है। खरतरगच्छ साहित्य कोश के अनुसार चारित्रनन्दी की निम्न रचनाएं प्राप्त होती हैं:१. स्याद्वादपुष्पकलिकाप्रकाश स्वोपज्ञ टीकासह, न्यायदर्शन, संस्कृत, 1914, अप्रकाशित, हस्त. सिद्धक्षेत्र साहित्यमन्दिर, पालीताणा, जिनयशसूरि ज्ञान भं., जोधपुर 2. प्रदेशी चरित्र, भाषा-संस्कृत, सर्ग 9, रचना संवत् 1913, स्थान-स्तम्भ तीर्थ। प्रशस्ति पद्य श्रीसंघाग्रे च [व्या]ख्यानं विशेषावश्यकागमम्। (9.43) अर्थात् संघ के समक्ष विशेषावश्यक आगम का व्याख्यान देते थे। अप्रकाशित, श्री पुण्यविजयजी संग्रह, एल.डी. इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद, क्रमाङ्क 4593 3. सद्ररत्नसार्द्धशतक, प्रश्नोत्तर, संस्कृत, 1909 इन्दौर, अ., ह. आचार्यशाखा ज्ञान भं., बीकानेर, कांतिसागरजी संग्रह 4. श्रीपालचरित्र, कथा चरित्र, संस्कृत, 1908, अप्रकाशित, हस्त. कान्तिविजय संग्रह, बड़ौदा 1910, स्वयं लि. 5. चतुर्विंशति जिन स्तोत्र, स्तोत्र, संस्कृत, १९वीं, अप्रकाशित, हस्त. खरतरगच्छ ज्ञान भं., जयपुर 6. प्रश्नोत्तर रत्न, प्रश्नोत्तर, हिन्दी, २०वीं, अप्रकाशित, हस्त. सदागम ट्रस्ट, कोडाय 7. चौवीसी - जिन स्तवन चौवीसी, चौवीसी साहित्य, हिन्दी, २०वीं, अप्रकाशित, हस्त. खजांची / संग्रह रा.प्रा.वि.प्र., जयपुर 188 लेख संग्रह Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. इक्कीसप्रकारी पूजा, पूजा, प्राचीन हिन्दी, 1895 बनारस, अप्रकाशित, हस्त. विनय. प्रतिलिपि, . हरिसागरसूरि ज्ञान भं., पालीताणा 9. एकादश अङ्ग पूजा, पूजा, हिन्दी, 1895, अप्रकाशित, हस्त. नाहर संग्रह, कलकत्त . 10. चौदह पूर्व पूजा, पूजा, हिन्दी, 1895, अप्रकाशित, हस्त. नाहर संग्रह, कलकत्ता 11. नवपद पूजा, पूजा, राजस्थानी, २०वीं, अप्रकाशित, उल्लेख, जैन गुर्जर कविओ भाग-३, पृ. 336 12. पंच कल्याणक पूजा, भाषा-प्राचीन हिन्दी, रचना संवत्-१८८९ कलकत्ता, महताबचन्द के आग्रह से। अप्रकाशित, विनय प्रतिलिपि / 14. पञ्च ज्ञान पूजा, पूजा, हिन्दी, १९वीं, मुद्रित, जिन पूजा महोदधि, हस्त., विनय. प्रतिलिपि 15. समवसरण पूजा, पूजा, प्राचीन हिन्दी, १९१...खम्भात, अप्रकाशित, हस्त. नाहर संग्रह, कलकत्ता 16. नवपद चैत्यनंदन स्तवन स्तुति, गीत स्तवन, प्राचीन हिन्दी, २०वीं, मु., हरिसागरसूरि ज्ञान भं., पालीताणा पूजा साहित्य में चारित्रनन्दी ने इक्कीस प्रकारी पूजा, पञ्चज्ञान पूजा, एकादश अङ्ग पूजा, चतुर्दश पूर्व पूजा एवं समवशरण पूजा आदि ऐसे अछूते विषयों को छुआ है जिन पर सम्भवतः आज तक किसी ने लेखनी नहीं चलाई है। मेरे समक्ष प्रदेशी चरित्र, पञ्चकल्याण पूजा, पञ्चज्ञान पूजा और इक्कीस प्रकारी पूजा- चार कृतियाँ है। अत: इन चारों कृतियों के आधार पर ही उनकी गुरु परम्परा और उनके दीक्षान्त नामों पर विचार किया जाएगा। .. कवि ने अपनी पूर्व गुरु परम्परा देते हुए प्रदेशी चरित्र में लिखा है: .. श्रीमत्कोटिकसद्गणेन्दुदुकुलश्रीवत्रशाखान्तरे मार्तण्डर्षभसन्निभः खरतरव्योमाङ्गणे सूरिराट् / श्रीमच्छ्रीजिनराजसूरिरभवठ्ठीसिंहपट्टाधिपः श्रीजैनागमतत्त्वभासनपटुः स्याद्वादभावान्वितः॥ 33 // तत्पादाम्बुजहंसरामविजयः संविग्न सद्वाचकोऽभूज्जैनागमसागरप्रमथनैस्तत्त्वामृतस्वीकृतः। तद्वैनेयसुवाचको गुणनिधिः श्रीपद्महर्षोऽभवत् यः संविनविचारसारकुशलः पद्मोपमो भूतले // 34 // तच्छिष्यः सुखनन्दनो मतिपटुः सद्वाचको विश्रुतस्तत्त्वतत्त्वविचारणे पटुतरोऽभूत्तत्त्वरत्नोदधिः। तद्वैनेयसुवाचकोऽब्धिजनकाद् वादीन्द्रचूडामणिनिध्यानसुरङ्गरङ्गतदृशोऽभूदात्मसंसाधकः॥ 35 // तत्पट्टे महिमाभिधस्तिलकयुक् सद्वाचकोऽभूद्वरः शिष्याणां हितकारको मुनिजनाच्छिक्षाप्रवृत्तौ पटुः। तत्पट्टे कुमरुत्तरो मुनिवरोपाध्यायचित्राभिधः ख्यातोऽभूद्धरणीतले शमयुतो ब्रह्मक्रियायां रतः॥ 36 // लेख संग्रह 189 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पादाम्बुजभृङ्गसेवनपरोपाध्यायनिद्धयुदयो मिथ्यावादविनिर्जितेन विहितोऽर्हच्छासनोद्योतकम्। तच्छिष्यः सरहंसकिङ्करसमोपाध्यायचारित्रक: चक्रेऽहं चरितं प्रदेशिनृपतेर्जेनागमाब्धेर्मुदा॥ 37 // इसके अनुसार पूर्व गुरु परम्परा इस प्रकार बनती है: जिनसिंहसूरि (युग. जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर) जिनराजसूरि उ. रामविजय उ. पद्महर्ष (संविघ्न) उ. सुखनन्दन उ. महिमतिलक उ. चित्रकुमार उ. निधिउदय उ. चारित्रनन्दी इस चतुर्दश पूर्व पूजा में उल्लेखित सुखनन्दन और महिमतिलक के बीच में कनककुमार का नाम नहीं मिलता है। पंचकल्याण पूजा रचना प्रशस्ति में इस प्रकार उल्लेख है: तसु आज्ञायें भगति उदार स्तुति कल्याणक संघ हितकार। भ० 10 ग्याननिधिगुणमणिभंडार महिमतिलक पाठक सुखकार। भ० 11 190 लेख संग्रह Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततपंकज मधुकर सुखपीन चित्रकुमर लबधी गुणलीन। भ० 12 ततपद निधिउदयज भान जिनआज्ञाप्रतिपालक जांन। भ० 13 भावनन्दी गुरुपदअनुरक्त भ्रातृ चारित्रनंद कीधी जिनभक्ति। भ० 14 इसमें महिमतिलक के बाद की ही गुरु परम्परा दी है और भावनन्दी को अपना गुरुभ्राता बतलाया की पंचज्ञान पूजा रचना प्रशस्ति में लिखा है: खरतरपति जिनसिंहपटधार श्री जिनराजससूरिंद सुखकार। भ० 6 तसु पदपंकज मधुप सुशिष्य पाठक रामविजय गुणमुख्य। भ० 7 .. तसु शिष्य वरवाचकश्री पद्म-हरख हरखधर शिवसुखसद्म। भ० 8 तसु वैनेय पाठकपदधार सुखनंदन गुणमणिभंडार। भ० 9 तसुपद कनकसागर अभिधान पाठकपदधारक सुविहान / भ० 10 तसुपद सरकजहंससमान पाठक महिमतिलक गुणखान। भ० 11 * कुमरुत्तर तसु उभय सुशिष्य चित्रलबधि पंडितजनमुख्य। भ० 12 तसुशिष्य निधिउदयगणि जाण गुरुपदकजमकरंद समान / भ० 13 तासुशिष्य वर चारित्रनन्द पणनाणस्तुति रचि आनंद। भ० 14 इसमें अपनी पम्परा जिनसिंहसूरि से ही प्रारम्भ की है। सुखनन्दन के बाद कनकसागर का नाम दिया है और चित्रकुमार तथा लब्धिकुमार को गुरु भ्राता लिखा है। इक्कीस प्रकारी पूजा की रचना प्रशस्ति में लिखा है:गच्छेशसत्खरतराह्वयंगच्छसिद्धः भव्याब्जकाननमलंकृतभानुरूपः / आचारपञ्चशुभपालनसावधानो सूरीन्द्रराजजिनराजमभूत्प्रसिद्धः॥ 2 // * वादीन्द्रवृन्दघटमुद्गरतुल्यभावं तच्छिष्यरामविजयो वरवाचकोऽभूत् / सिद्धान्ततत्त्वसद्भावितधीप्रचण्डस्तच्छिष्यवाचकवरोऽभूत्पद्महर्षः // 3 // जैनेन्द्रशासनप्रकाशकचन्द्रतुल्यस्तच्छिष्यवाचकवरो सुखनन्दनोभूत् / श्रीपाठको कनकसागर तस्य शिष्यो ऽभूद्भव्यपंकजसमूहविबोधभानुः॥ 4 // सद्वाचकोग्रतिलको महिमाभिधानोऽभूद्दीक्षितौ प्रवचनाष्टसुमातृचारिः। जैनेन्द्रशासनविभासकचन्द्रतुल्यौ शिष्यावभूत्सुकुमरुत्तरलब्धिचित्रौ // 5 // शौण्डीर्यधैर्यगुणरत्नकरण्डकेयस्तच्छिष्यनिद्धिउदयाह्वयभू जयंतु। चारित्रनन्दिविनयेन विनिर्मितेयं अर्हत्सुनेमिदिवसेषु धृतिग्रहेषुः॥ 6 // ___ इस प्रशस्ति में जिनराजसूरि से अपनी परम्परा प्रारम्भ की है। इसमें भी सुखनन्दन के बाद कनकसागर का नाम दिया गया है। चित्रकुमार और लब्धिकुमार को गुरुभ्रता लिखता है। . खरतरगच्छ की परम्परा में प्रत्येक पट्टधर आचार्य दीक्षा देते समय 84 नन्दियों में से किसी भी नन्दी (दीक्षान्त पद) का प्रयोग करता था। एक दीक्षान्त नन्दी में 20 से 40 दीक्षाएं देने के पश्चात् पुनः नवीन नन्दी का प्रयोग करता था। इस प्रकार एक-एक पट्टधर आचार्य के समय में 4 से लेकर 44 तक नन्दियों का उल्लेख मिलता है। लेख संग्रह 191 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा ग्रहण के पश्चात् नाम परिवर्तन में नन्दी का प्रयोग लगभग 8 शताब्दियों से चला आ रहा है। वर्तमान संविग्न परम्परा के साधुजनों में यह नन्दी परम्परा लुप्त होकर एक नन्दी पर आश्रित हो गई है। जैसे खरतरगच्छ में गणनायक सुखसागरजी के समुदाय में सागर नन्दी का ही प्रयोग होता आ रहा है। पूज्य श्री मोहनलालजी महाराज के समुदाय में मुनि नन्दी का प्रचलन है और श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी म. के समुदाय में सागर नन्दी का प्रयोग था। था इसलिए कि वह परम्परा अब निःशेष हो गई है। हालांकि श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराज ने प्रथम नन्दी चन्द्र की स्थापित कर तिलोकचन्द नामकरण किया था, किन्तु समुदाय की अभिवृद्धि न देखकर उन्होंने सागर नन्दी का ही आश्रय लिया। खरतरगच्छ दीक्षा नन्दी सूची में (जो कि बीकानेर बड़ी गद्दी, आचार्य शाखा और जिनमहेन्द्रसूरि मण्डोवरी शाखा का) इन नामों का उल्लेख न होने से स्वयं संदेहग्रस्त था कि यह परम्परा जिनराजसूरि परम्परा, जिनसागरसूरि परम्परा और जिनमहेन्द्रसूरि की परम्परा में नहीं थे किन्तु किस परम्परा के अनुयायी थे यह मेरे लिए प्रश्न था। किन्तु पंचकल्याणक पूजा में कवि ने स्वयं यह उल्लेख किया है: श्रीअक्षयजिनचन्द्रं पंचकल्याणयुक्तं सुनिधिउदयवृद्धि भावचारित्रनन्दी। भवजलधितरण्डं भक्तिभारै स्तुवंति अविचलनिधिधामं ध्याययन्प्राप्नुवन्ति // 1 // गणाधीशौदार्यो गुण मणिगणानां जलनिधिः गभीरोभूच्छीमान्प्रवरजिनराजाक्षगणभृत् सुरिन्द्रस्तत्पट्टे घुमणिजिनरंगः सुरतरुः / बृहद्गच्छाधीशो खरतरगणैकाम्बुजपति // 2 // क्रमादायातं श्रीजिनअखयसूरीन्द्रगणभृ- .. दभून्नृणां तापं तदुपशमनं पूर्णशशिभृत् गभस्तिस्तत्पट्टे भविकजसुबोधकरसिको भुवौ विख्यातंश्रीप्रवरजिनचन्द्रो विजयते // 3 // अर्थात् जिनराजसूरि के पश्चात् शाखाभेद होकर जिनरङ्गसूरि शाखा का उद्भव हुआ। जिनरङ्गसूरि परम्परा में श्रीजिनाक्षयसूरि के पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरि के विजयराज्य में यह पूजा रची गई। चारित्रनन्दी की परम्परा जिनरङ्गसूरि शाखा की आदेशानुयायिनी रही। इस शाखा की दफ्तर बही प्राप्त न होने से इस परम्परा के उपाध्यायों का दीक्षा काल का निर्णय नहीं कर सका। १९वीं शताब्दी के अन्त में और २०वीं शताब्दी के प्रारम्भ में काशी में चारित्रनन्दी और जिनमहेन्द्रसूरि अनुयायी नेमिचन्द्राचार्य और बालचन्द्रचार्य जैन विद्वानों में विख्यात् थे अर्थात् इनका बोलबाला था। इसी समय के विजयगच्छीय उपाध्याय हेमचन्द्रजी का कलकत्ता में प्रौढ़ विद्वानों में स्थान था। चारित्रनन्दी के शिष्य चिदानन्द प्रथम थे। जिनका प्रसिद्ध नाम कपूरचन्द था। वे क्रियोद्धार पर संविग्न पक्षीय साधु बन गए थे और उनका विचरण क्षेत्र अधिकांशत: गुजरात ही रहा। चिदानन्दजी प्रथम अच्छे विद्वान् थे अध्यात्म ज्ञानी थे और उन्हीं पर उनकी रचनाएं होती थी। उनकी लघु रचनाओं का संग्रह श्री चिदानन्द (कर्पूरचन्द्रजी) कृत पद संग्रह (सर्व संग्रह) भाग 1 एवं 2 जो कि श्री बुद्धि-वृद्धि 192 लेख संग्रह Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरग्रन्थमाला की ओर से शा. कुंवरजी आनंदजी भावनगर वालों की ओर से संवत् 1992 में प्रकाशित हुआ है। चिदानन्दजी प्रथम द्वारा निर्मित साहित्य के लिए देखें खरतरगच्छ साहित्य कोश। ___चारित्रनन्दी का बाल्यावस्था का नाम चुन्नीलाल होना चाहिए। काशी में इनका उपाश्रय ज्ञानभंडार भी था। जो चुन्नीजी के नाम से चुन्नीजी महाराज का उपाश्रय एवं भंडार कहलाता था। चारित्रनन्दी के पश्चात् परम्परा न चलने से उस चुन्नीजी के भण्डार को तपागच्छाचार्य श्रीविजयधर्मसूरिजी महाराज काशी वालों ने प्राप्त किया और उसे आगरा में विजयधर्मलक्ष्मी ज्ञान मन्दिर के नाम से स्थापित किया। प्रसिद्ध तपागच्छाचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी महाराज ने प्रयत्नों से उस विजयधर्मलक्ष्मी ज्ञान मन्दिर, आगरा की शास्त्रीय सम्पत्ति को भी प्राप्त कर लिया जो आज श्री कैलाशसागरसूरि ज्ञान मन्दिर, कोबा को सुशोभित कर रहा है। [अनुसंधान अंक-३८] लेख संग्रह 193 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवभद्रसूरि रचित चतुर्विंशति - जिन - स्तोत्राणि वाणी/वाचा की सफलता और हृदय की अनुभूति का उद्रेक ही स्तोत्रों का प्रमुख विषय रहा है। जिनेश्वरों के पाँच कल्याणकों के अतिरिक्त उनसे सम्बन्धित जितनी भी वस्तुएँ स्थान हैं, उनके माध्यम/ वर्णन से कृतकृत्य होना ही जीवन की सफलता का आधार है। प्रस्तुत स्तोत्रों में उनके गुणगौरव यशोकीर्ति का उल्लेख कम है, उनके वर्णनो/स्थानों का उल्लेख अधिक है। इस कृति की दुर्लभ प्रति श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, मुनिराजश्री पुण्यविजयजी के संग्रह में उपलब्ध है। सूचीपत्र भाग-१, क्रमाङ्क 1378, परिग्रहणाङ्क नम्बर 7254 (1) पर सुरक्षित है। पत्र संख्या 5 है। साईज 30x11-4, पंक्ति 20 और अक्षर संख्या 58 है। लेखनकाल संवत् 1550 है। इस स्तोत्र का प्रारम्भ - सिरि अजियनाह वइसाह - से प्रारम्भ होता है। गाथा संख्या 192 है। प्रणेता प्रथम ऋषभदेव स्तोत्र गाथा 8 में देवभद्दाइं और वर्द्धमान स्तोत्र गाथा 8 में देवभद्दाइं शब्द का रचनाकार ने प्रयोग किया है। इससे स्पष्ट है कि इस कृति के प्रणेता देवभद्रसूरि हैं। इसमें कहीं भी अपनी गुरु-परम्परा और गच्छ का उल्लेख नहीं किया है। लिखित प्रति 1550 की होने के कारण इससे पूर्व ही देवभद्रसूरि के सम्बन्ध में विचार आवश्यक है। 1. देवभद्रसूरि - नवाङ्गीटीकाकार श्री अभयदेवसूरि के विनेय शिष्य हैं। इनका दीक्षा नाम गुणचन्द्रगणि था और आचार्य बनने के पश्चात् देवभद्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनके द्वारा प्रणीत वीर चरित्र, कहारयण कोष (रचना सं. 1158) और पार्श्वनाथ चरित्र (रचना सं. 1165) के प्राप्त हैं। 2. देवभद्रसूरि - चन्द्रगच्छ, बृहद्गच्छ, पिप्पलक शाखा के प्रवर्तक हैं, जो विजयसिंहसूरि, देवभद्रसूरि, धनेश्वरसूरि की परम्परा में हैं। इनका समय १२वीं शताब्दी है। _____3. देवभद्रसूरि - चन्द्रगच्छीय, शान्तिसूरि, देवभद्रसूरि, देवानन्दसूरि की परम्परा में हैं / सत्ताकाल १३वीं शती है। 4. देवभद्रसूरि - मलधार-गच्छीय श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य हैं / और संग्रहणी वृत्ति इनकी प्रमुख रचना है। समय १२वीं शताब्दी। 5. देवभद्रसूरि - पूर्णिमापक्षीय विमलगणि के शिष्य हैं / दर्शनशुद्धि-प्रकरण की टीका प्राप्त है जिसका रचना संवत् 1224 है। 6. देवभद्रसूरि - राजगच्छीय अजितसिंहसूरि के शिष्य है। इनकी प्रमुख रचना श्रेयांसनाथ चरित्र है और इनका सत्ताकाल 1278 से 1298 है। साहित्य में इन छ: देवभद्रसूरि का ही उल्लेख प्राप्त होता है। क्रमांक 2 और 3 की कोई रचनाएँ प्राप्त नहीं हैं। क्रमांक 4-5 जैन प्रकरण साहित्य के टीकाकार हैं और क्रमांक 6 कथाकार हैं / क्रमांक 2194 लेख संग्रह Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 तक इस स्तोत्र के प्रणेता हों सम्भावना कम ही नजर आती है। मेरे नम्र विचारानुसार इस कृति के प्रणेता श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि के विनेय ही होने चाहिए। देवभद्रसूरि सुविहित पथ-प्रदर्शक, चैत्यवास के उन्मूलक खरतरगच्छविरुद धारक श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य उपाध्याय श्री सुमतिगणि के शिष्य हैं। इनका दीक्षानाम गुणचन्द्रगणि था। आचार्य बनने के पश्चात् देवभद्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। श्री अभयदेवसूरि के पास इन्होंने शिक्षा-दीक्षा एवं आगमिक अध्ययन किया था इसीलिए गणधरसार्द्धशतक बृहवृत्तिकार सुमतिगणि और खरतरगच्छ गुर्वावलीकार श्री जिनपालोपाध्याय ने अभयदेवसूरि के पास विद्या ग्रहण करने वाले और उनकी कीर्तिपताका फैलाने वाले शिष्यों का उल्लेख करते हुए लिखा है: सत्तर्कन्यायचर्चार्चितचतुरगिरः श्रीप्रसन्नेन्दुसूरिः, सूरिः श्रीवर्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनीड्देवभद्रः। इत्याद्या सर्वविद्यार्णवसकलभुवः सञ्जरिष्णूरुकीर्तिः, स्तम्भायन्तेधुनापि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः॥ इस पद्य का उल्लेख श्री जिनवल्लभगणि ने चित्रकूटीय वीरचैत्य प्रशस्ति में भी किया है। देवभद्रसूरि प्रसन्नचन्द्रसूरि के अत्यन्त कृपा पात्र थे। यही कारण था कि अपनी सान्ध्य वेला में प्रसन्नचन्द्राचार्य ने देवभद्रसूरि को कहा था - "मैं आचार्य अभयदेवसूरि की अन्तरंग इच्छानुसार जिनवल्लभगणि को उनके पाटं पर अभिषिक्त न सका, अतः इस कार्य को तुम्हें सम्पन्न करना है।" देवभद्रसूरि ने यह कार्य संवत् 1169 में सम्पन्न किया और जिनवल्लभ को आचार्य अभयदेवसूरि का पट्टधर घोषित किया। ___- आचार्य देवभद्रसूरि जैनागमों के साथ कथानुयोग के भी उद्भट विद्वान् थे। उनके द्वारा प्रणीत निम्न ग्रन्थ प्राप्त होते हैं:महावीर चरित्र (1139) कथारत्नकोश (1158) पार्श्वनाथ चरित्र (1168) प्रमाण प्रकाश संवेगमञ्जरी अनन्तनाथ स्तोत्र * ' चतुर्विंशति जिन स्तोत्राणि स्तम्भ तीर्थ पार्श्वनाथ स्तोत्र पार्श्वनाथ दशभव स्तोत्र वीतराग स्तोत्र जिनचरित्र और स्तोत्रों को देखते हुए यह कृति भी इन्हीं की मानी जा सकती है। वर्ण्य-विषय प्रस्तुत स्तोत्रों में 24 तीर्थंकरों के 32 स्थानकों का वर्णन है। प्रत्येक स्तोत्र में तीर्थंकरों का नामोल्लेख करते हुए 8 गाथाओं में यह वर्णन किया गया है। स्थानकों का वर्णन निम्न है: तीर्थंकर नाम - 1. च्यवन स्थान, 2. च्यवन तिथि, 3. जन्मभूमि, 4. जन्मतिथि, 5. पितृ नाम, 6. मातृ नाम, 7. शरीर वर्ण, 8. शरीर माप, 9. लाञ्छन, 10. कुमारकाल, 11. राज्यकाल, 12. दीक्षा तप, 13. दीक्षा तिथि, 14. दीक्षा स्थान, 15. पारणक, 16. दाता, 17. दीक्षा परिवार, 18. छद्मस्थ काल, 19. ज्ञान नगरी,२०. ज्ञान तिथि, 21. गणधर संख्या, 22. साधु संख्या, 23. साध्वी संख्या, 24. शासन देव, 25. शासन देवी, 26 भक्त, 27. दीक्षा पर्याय, 28. आयुष्य, 29. मोक्ष परिवार, 30. अन्तरकाल, 31. निर्वाण लेख संग्रह 195 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथि, 32. निर्वाण धाम। विस्तृत जानकारी के लिए पृथक् से इन 32 स्थानकों का कोष्ठक यन्त्र परिशिष्ट में दिया गया हैं वहाँ देखें। स्थानकों का उल्लेख किस ग्रन्थ के आधार से किया गया है? इसका कोई उल्लेख नहीं है। तथापि आगम साहित्य, प्रकीर्णक साहित्य, तीर्थंकर चरित्र (प्रथमानुयोग), आदि विभिन्न ग्रन्थों में जो स्थानकों सम्बन्धि उल्लेख मिलते हैं उनका यहाँ एकीकरण किया गया है। श्री शीलाङ्काचार्य (९वीं शती) रचित चउपन्न-महापुरुष-चरियं में शासन देव, शासन देवी, पारणा कराने वाले और प्रमुख भक्त आदि का उल्लेख न होने से यह निश्चित है कि यह परवर्ती रचना है। श्री शीलाङ्काचार्य रचित चउप्पन्न-महापुरुष-चरियं और कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य रचित त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्रं में वर्णित स्थानकों में अन्तर हो सकता है। जैसे - श्री शीलाङ्काचार्य, देवभद्रसूरि और हेमचन्द्राचार्य ने श्रेयांसनाथ का अन्तरकाल 66,26000 सागरोपम कम माना है, किन्तु त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र संस्कृत में 66,26000 ही माना है किन्तु सम्पादन श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी ने पाठान्तर में 66,36000 स्वीकृत किया है। गुजराती और हिन्दी अनुवादों में 66,36000 ही देखने में आ रहा है। श्री जिनवल्लभसूरि ने चतुर्विंशति जिन-स्तोत्राणि में केवल छः स्थानकों का ही उल्लेख किया है। परवर्ती काल में स्थानकों का वर्णन क्रमशः बढ़ते हुए 170 तक पहुँच चुका था। श्री सोमतिलकसूरि द्वारा संवत् 1387 में रचित सप्ततिशतस्थानप्रकरणम् में 170 स्थानों का वर्णन है। _मुनिराज की पुण्यविजयजी के संग्रह की वर्तमान समय में प्राप्त प्रति में अजितनाथ स्तोत्र से यह वर्णन प्रारम्भ होता है। जबकि आज से 55 वर्ष पूर्व जिस प्रति के आधार से प्रतिलिपि की थी उसमें ऋषभदेव वर्णनात्मक 8 गाथाएँ भी थी। यह कृति अद्यावधि अप्रकाशित थी। अतः पाठकगण इसका रसास्वादन करें, इसी दृष्टि से प्रस्तुत है। सिरि रिसहणाह-थुत्तं पर सिद्धिकए / सिरिरिसह नाह! सव्वट्ठ सिद्धिमुज्झे उं / अवइन्नोसि अउ ज्झं कसिणं चउत्थीइ आसाढे // 1 // नाहि-मरु देवि-तणओ जाओ चित्तट्ठ मीइ बहुलाए। , पंच धणुस्सय देहो कणयपहो तं सि वसहं को // 2 // कु मरोसि पुव्वलक्खे वीसं पुहईसरो य ते वट्ठि। कसिण? मीइ चित्ते सह चउ हिं नरिंदसह से हिं // 3 // सिद्धत्थवणं मि तुमं छढे ण विणिग्गओसि वरिसंते / से यंसाउ तुहासी इक्खुर सो पढ मपारणए // 4 // वाससहस्सं अच्छि य छ उ मत्थो फग्गुणस्स कसिणाए। इक्कार सीइ पत्तो के वलनाणं पुरिमताले // 5 // तुह गणहरा य चुलसी साहु-सहस्सा य साहुणि तिलक्खं / गोमुह -अप्पडि चक्का भर हे सर चक्कि णो भत्ता // 6 // दिक्खाय पुव्वलक्खं आउं चुलसीइ पुव्वलक्खाई। अवसप्पिणि तइयऽरए सेसे गुणनवइ पक्खे हिं // 7 // 196 लेख संग्रह Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसिणाइ तेर सीए माहे सह दसहिं मुणिसह स्से हिं / अट्ठावयम्मि निव्वु य देहि महं देवभद्दाइं॥ 8 // *** सिरि अजियणाह-थुत्तं सिरिअजियनाह ! वइसाह-सुद्ध-तेरसि विमुक्तविजयसुहो। लो यहि यट्ठ मऽवज्झाइ तं पवनो सि गब्भदुहं // 1 // भविय जियसत्तु-विजया-तणओ माहट्ठ मीए सुद्धाए / गयचिंध अद्धपंचम धणुसयतणु कणयसंकास // 2 // कुमरत्ते अट्ठारस लक्खा पुव्वाण गमिय रज्जे उ / ते वनामंगसहि या माहे सुद्धाइ नवमीए॥ 3 // सह संबवणे छठे ण निग्गओ तंसि नरसह स्सजुओ। अन्नादिणे पर मन्नां दिण्हं तुह बंभदत्तेण // 4 // बार सवरिसाणं ते पोस-सिय-इक्कार सीइ तम्मि वणे / उप्पन्नानाण तुमए पणनवई गणहरा विहि या // 5 // साहू लक्खं अजाओ तिन्नि लक्खाइं तीस सहसा य / भत्ता तुह मह जक्खो अजियबला सगर चक्की य॥ 6 // वयमंगूणं. लक्खं पुव्वा आउं बिसत्तरी लक्खा। पन्नास अयर कोडी लक्खे सु गएसु उसभाओ // 7 // चित्तसिय-पंचमीए सम्मे ए तं मुणीण सह सेण / सेलेसीमारुहि उं जत्थगओ तत्थमन्ने सु॥ 8 // . *** सिरि संभवणाह-थुत्तं सिरिसंभवजिण! सत्तम! सत्तम-गे विजयाउ सावत्थिं / फग्गुणसियट्ठ मीए पत्तो सि सुहाय वसुहाए // 1 // जाओ जिआरि-सेणाण सुद्धमग्गसिर चउ दसीइं तुमं / कणयतु लियंग चउ सय धणुतुंग तुरंग-लं छणयं // 2 // पन्नार स-पुव्वलक्खे कु मरो चउ चत्तपुव्वलक्खा य। चउरं गाणि य राया भविऊणं मणुय-सह से ण // 3 // मग्गसिर-पुन्निमा कयछट्ठो निग्गओ सहस्संबे / बीयदिणे परमन्नां सुरिंददत्ताउ पत्तो सि // 4 // चउदस-वरिसंते पंचमीइ कसिणाइ * कत्तिए नाणं। तम्मि वणे जणिय कयं गणहारिसयं दुरुत्तरयं // 5 // लक्खदुगं साहू णं अजा छत्तीसह सलक्खतिगं / नाह ! तुह तिमुह -दुरियारि मित्तसेणा सया भत्ता // 6 // लेख संग्रह 197 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुव्वाण लक्खमेगं चउरं गूणं तवेण खविऊणं / अजियजिणाओ सागर-कोडी-लक्खाण-तीसाए // 7 // चित्तसियपंचमीए तं निट्ठिय सट्ठि - लक्ख-पुव्वाउं / संजयसह स-समे यं-सम्मेए निव्वु यं वंदे // 8 // *** 'सिरि अभिणंदणणाह-थुत्तं सरिमो सिरि अभिनंदणजिणिंद! वइसाह सियचउत्थीए। जय नाह ! जयं ताउ तुज्झ अवज्झाइ अवयरणं // 1 // संवर-सिद्धत्थाणं कणयपहो माह -सुद्ध बीयाए। अद्ध-चउत्थ-धणुस्सयतणु वानर चिंध जाओ सि // 2 // अद्धत्ते रसकु मरोसि पुव्व-लक्खाइं सड्ड छत्तीसं / अटुं गाणिय राया माहे सिय-बार सीइ तुमं // 3 // छ8 ण गहि यदिक्खो सह संबवणे नरिंदसह सेणं। पत्तो पायसमसणं बीयदिणे . इंददत्ताओ // 4 // .. अट्ठारस-वरिसे हिं सिय-पोस-चउद्दसीइ तम्मि वणे / जायं नाणं तह सोलसोत्तरं गणहराण सयं // 5 // मुणि लक्ख-तिगं अजाण तीससह साहि यं तु छ लक्खं / जक्खे सर-कालीओ तुह भत्ता मित्तविरिओ. यं॥ 6 // गय-पुव्व-लक्खं अटुं गूणं ठिओसि सामन्नो। , संभवनाहाउ गएसु अयर-दसको डि-लक्खे सु // 7 // . . पन्नास-पुव्व लक्खे जीविय सिय अट्ठ मीइ वइसाहे / मुणि-सह सजुयं सिद्धं तुमं नमसामि सम्मे ए // 8 // *** सिरि सुमइणाह-थुत्तं पणमामि सुमइसामिय! कामिय वसुहोवयार भवयारं / सावण-सिय-बीयाए जयंतओ तुह अवज्झाए // 1 // तं मेह - मंगलाणं वइसाह -सिय? मीइ जाओसि / अइजच्च-कं चणनिभो तिसय-धणुव्वोस कुं चो य॥ 2 // कु मरोसि पुव्वलक्खे दस नरनाहो य बार संगजुयं / इगुणत्तीसं वइसाह -सुद्ध-नवमीइ सह संबे // 3 // कयनिच्च भत्त नर-सह ससंगओ निग्गओ सि बीय दिणे / पउ माउ पत्तपायस वासा वीसं ठिओ छ उ मे // 4 // तम्मि वणे वर नाणं चित्त-सिय-इक्कारसीइ पत्तो सि / गणहर सयं मुणीणं लक्ख-तिगं वीससह सजुयं // 5 // 198 लेख संग्रह Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजाण पंच-लक्खं तीस-सहस्साहि यं तए विहि यं / तुह भत्तिपरा तुबुरु-मह याली सव्वविरियनिवा॥ 6 // लक्ख अ बारसंगं घुट्ठाण वयं तु चत्त लक्खाई। अभिनंदणाउ जिणओ नवसागर कोडि-लक्खे हि // 7 // साहु सहस्सेणं समं सम्मेए चित्त-सुद्ध-नवमीए। पत्तोसि सुह मणं तं तं देसु ममावि किमऽ जुत्तं // 8 // *** सिरि पउमप्पहणाह-थुत्तं सिरि पउमप्पह ! पुहइं पहासिउं माह - बहु लछट्ठीए / सव्वुवरिम-गे विज्जा तुमं पवनो सि कोसंबि॥ 1 // जाओसि धर-सुसीमाण कत्तिए बहु ल-बार सीइ तुमं / अड्डाइज-धणुस्सयपमाण कमलंक रत्तं गं // 2 // अद्धट्ठ मा. कु मारो लक्खा पुव्वाण सड्ड इगवीसं / सोलस अंगा य निवो सह निव-सह सेण सह संबे // 3 // छ8 ण विणिक्खं तो पहु कत्तिय-कसिण-तेरसीइ तुमं / पर मनां च पवनो बीयदिणे सो मदे वाउ // 4 // छम्मासंते. नाणं तम्मि वणे चित्त-पुन्निमाए तए / लद्धूण• कयं गणहर-सत्तहि यसयं मुणीणं तु // 5 // तीस सहस्स-तिलक्खं अजाणं वीस सहस चउलक्खं / तुह सामि सेवगा कुसुम-अच्चु या अजियसेण-निवा॥ 6 // तुह वयमसोलसंगं लक्खं पुव्वाण तीस लक्खाऊ / सुमइ-जिणाणंतर मयर को डि - नवई सह स्से हिं // 7 // सम्मेए चउ वीसहि एहिं तिहिं सएहिं समं / मग्गसिर -कसिण-इक्कारसीइ निव्वुय नमो तुज्झ // 8 // . *** सिरि सुपासणाह-थुत्तं तिहु यणसिरिवास-सुपाससामि! कसिण? मीइ भद्दवए। मज्झिम उवरिमओ तुह चरणं भवियाण कुणउ सुहं // 1 // वाणार सीइ सिय-बार सीइ जितु पइट्ठ-पुह इ-सुओ। दुसय-धणू सियवर-सत्थियंक कणयप्पहो ते सिं // 2 // पुव्वाण पंच लक्खा वीसंगजुयं च लक्ख चउ दसगं / कु मर-नर नाह भावं अणुभविय नरिंद-सह सजुओ // 3 // सह संबवणे कयछट्ठ जिट्ठ -सिय-तेर सीइ नीह रिओ। जिणचंद महिंदाओ बीयदिणे पायसं पत्तो॥ 4 // लेख संग्रह 199 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासे हिं नवहि फगुण-सामल छट्ठीइ तम्मि उज्जाणे / नाणं लभ्रूण कया पण-नवइ गणहरा तुमए॥ 5 // साहू ण तिन्नि लक्खा अज्जा चउ लक्ख तीस सहसा य। तुह भत्ता मायंगो संता तह दाणविरिओ य॥ 6 // पुव्वाणमवीसंगं लक्खं वयमाउं लक्ख वीसं च। . पउमप्पह नाहाओ नव सागरकोडि सह से हिं // 7 // कसिणए फग्गुण-सत्तमीइ पंचहिं सएहिं साहू णं / सम्मे यंम्मि सिवंगय सिवं गई देहि मह नाह ! // 8 // *** सिरि चंदप्पहणाह-थुत्तं चंदप्पह! पुह इमिमं मजतिं तममुहं मि उद्धरिउं / तुह बहु ल-चित्त पंचमि परिवजिय वेजयंत नमो // 1 // चंदपुरीइ महायस! पोसासिय-बार सीइ जाओ सि। . मह से ण-लक्खमाणं चंदको चंदधवलो यं // 2 // तं सढ सयधणू सिय कु मरो पुव्वाण सट लक्ख दुगं। राया सड्न छ लक्खे चउ वीसंगाय क यछट्ठो // 3 // नरसह सजुओ तं पोस-कसिण-तेर सि पवना सामन्नो / सहसंबे पत्तो सोमदत्त पर मन्नमन्नादिणे // 4 // मास तिगंते क सिणाइ फग्गुणे सत्तमीइ तम्मि वणे।. घाइचउक्क विमुक्के ण तेणवइ गणहरा विहि या // 5 // साहू सङ्ड दुलक्खा अज्जाओ असीइसह सलक्ख तिगं। भत्तिरओ तुह विजओ भिउडी मघवं च महिनाहो // 6 // लक्ख-म चउ वीसंगं कय वय दस पुव्व लक्ख सव्वाउं। , सागरको डिसएहिं नवहिं गएहिं सुपासाओ // 7 // भद्दवय-कसिण-सत्तमि निम्महि याऽसेस कम्म सम्मेए / मुणिसहसजुओ तं निव्वुओसि मम निव्वुयं कुणसु // 8 // *** सिरि सुविहिणाह-थुत्तं सिरिसुविहि नाह ! मह देहि वंछि यं वंछियाइं पूरे उं / चविओसि आणयाओ तं फग्गुण-कसिण-नवमीए॥ 1 // कायंदीए रामा-सुग्गीवाणं सुओसि मयरं को। मग्गसिर-पंचमीए कसिणाए चंद-गोरं गो॥ 2 // धणुसयपमाण कु मरत्तणम्मि पन्नास पुव्वसह साइं। रज्जम्मि गमिय तिच्चिय अट्ठावीसंग-सहि याई // 3 // 200 लेख संग्रह Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह संबवणे छटे ण निग्गओ मग्ग-बहु ल-छट्ठीए। नरसह सजुओ पुस्साओ पायसं पर दिणे पत्तो // 4 // चउ वासे तं कत्तिय-सिय-तइयाए तहिं वणे नाणं / लभ्रूण गणहराणं अट्ठासीई तए ठविया // 5 // दो लक्खा साहू णं लक्खं अजाण वीस सहसा य / तुह भत्तिर या अजिओ सुतार या जुद्धविरिओ य॥ 6 // वयमड वीसंगूणं लक्खं पुव्वाण-लक्ख-दुगमाउं / चंदप्पहाओ सागर कोडीण गयाइ नवईए // 7 // भद्दवय-सुद्ध-नवमी समण सह सेण तंसि सम्मेए / पत्तो ठाणमणंतं ममावि वासं तहिं देहि // 8 // *** सिरि सीयलणाह-थुत्तं सीयलनाह ! महीअलंमि णमो संताववज्जियं काउं / वइसाह -क सिण-छट्ठीइ पाणयाओवइन्नोसि // 1 // भद्दिलपुरं मि दढरह-नंदाणं माह बारसीइ तुमं / कसिणाइ कणयवनो उप्पन्नो नवइ-धणुमाणो // 2 // सिरिवच्छ लं छ ण तुमं कु मरो पणुवीस पुव्व-सह साइं / दुगुणाई निवो छट्ठाउ मणुय-सह सेण सह संबे // 3 // नीहरिओ जम्म-तिहीइ परदिणे पायसं पुणव्वसुणा। दिनां वास-तिगंते पोससिय-चउद्दसीइ दिणे // 4 // तम्मि वणे वर नाणं तुहासि इगसीइ गणहराणं च। साहू ण सयसहस्सं अज्जा लक्खं तु छहि अहि यं // 5 // तुह पहु भत्ता बंभोऽसोया सीमंधरो य धरणीसो। पणुवीस-पुव्व-सह सा वयमाउं पुव्वलक्खं तु // 6 // सिरि सुविहिजिणिंदाओ गयम्मि नवगम्मि अयर-कोडीणं। वइसाह - बहु ल-बीयाइ साहु सहसेण सम्मेए // 7 // नाणेहिं तिहिवि चउहि वि पंचेहि वि जं न पत्त पुव्वं तु / तक्कालिच्चिय तं अक्खर पयं पत्त तुज्झ नमो // 8 // *** सिरि सेयंसणाह-थुत्तं तिहु यणलच्छीकन्नावयंस-सेयंस! तंसि. अच्चु यओ। सीह पुरे अवइन्नो बहु लाए जिट्ठ -छट्ठीए॥ 1 // जाओ सि विण्हु -विण्हू ण बारसीइ कसिणाए। लेख संग्रह 201 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंड यमंडिय तं कणयसच्छ हो असिइ धणुमाणो // 2 // इगवीसवासलक्खे कु मरो दुगुणाई ताई कयर जो / छठे णं फग्गुण-तेर सीइ-कसिणाइ सह संबे // 3 // नर-सह सजुओ नीह रिय पर दिणे नंद पायसं पत्तो। वासहि दो हि मासे अमावसाए वणे तत्थ // 4 // जायं नाणं गणहर छहत्तरी साहु सहस चुलसी य। अजा तिसहस्साहि य लक्खं तुह ईसरो भत्ती॥ 5 // तह माणसी त्रिविट्ठहरीय इगवीस-वास-लक्खाई। तुह वयमाउं चउ गुण-मणंतरं सीयलजिणाओ // 6 // छ व्वीस सहस्साहिय छावट्ठी-वास लक्ख-सहि एण। सागर सएण ऊणाइ अयर कोडीओ गमियायो // 7 // सम्मे ए कसिणाए सावण तइयाए समण सह सजुओ। तंसि गओ' लोयग्गं हत्थालंबं ममं देसु // 8 // .. *** सिरि वासुपुजणाह-थुत्तं / सिरिवासुपुज्ज! उज्जोइउं जयं जिट्ठ-सुद्ध-नवमीए। तं पाणयकप्पाओ चविउं चंपाइ संपत्तो॥ 1 // जाओ वसुपुज-जयाण फग्गुणे कसिण-चउ दसीइ तुमं / महि संक-रत्तवन्नो सत्तरि धणुमाण गयमांण // 2 // अट्ठारसयसहस्सा वासा कमरोसि तं चउत्थेणं। फग्गुण-अमावसाए विहारगेहम्मि नीहरि ओ॥ 3 // छहिं निवसएहि सहि ओ बीयदिणे पायसं सुनंदाओ। पत्तोसि वासमे गं छ उ मत्थो विह रिओ नाह ! // 4 // माहे सिय-बीयाए विहार गेह म्मि पत्तनाणेणं / छ वट्ठी लो यहि या विहि या गणहारिणा तुमए // 5 // बावत्तरी सहस्सा मुणीणा अज्जाउ लक्खमे गं तु / तुह भत्ता य कु मारो पयंउ-देवी दुविठ्ठ हरी // 6 // चउ पन्न-वास-लक्खो वयम्मि बावत्तरी तुह उम्मि। चउ पन्ना सागरे हिं गएहिं से यंस-नाहाओ॥ 7 // छहिं साहु सएहिं समं आसाढ - चउद्दसीइ सुद्धाए / चंपाइ तंसि संपत्त सिवसुहो सिवसुहं देसु // 8 // सिरि विमलणाह-थुत्तं विमलजिणिंद! सुरिं देहिं तंसि महि ओ महीइ इंतो वि। वइसाह -सुद्ध-बारि सि विमुक्कसह सार गुणसार // 1 // .. 202 लेख संग्रह Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कं पिल्लपुरे जाओ नाह! तुमं माह -सुद्ध-तइयाए। सामा-कयवम्म-सुओ सट्ठि धणुच्चो वराह जुओ // 2 // तवियमवणिजगोरो कु मार-वासम्मि वास-लक्खाई। पनर स र जम्मि य दुगुणियाई गमिऊण छटे णं // 3 // माह -सिय सहस्संबे माह-सिय-चउत्थि गहि यसामन्नो। नर-सह सजुओ जय पायसं च पत्तोसि बीयदिणे // 4 // वास-दुगंते फुरिया नाणसिरी पोस-सुद्ध-छट्ठीए। तम्मि वणे गणहारी सत्तावना तए विहि या // 5 // अड सट्ठी मुणि सहसा अजाउ लक्ख-मट्ठ सयसहि यं / तुह देव सेवगा पुण छम्मुह विइया सयंभुहरी // 6 // पन्चरस वास लक्खा तु ब्भ वयं सट्ठि मेव सव्वाऊ / तीसाइ सागरे हिं गएहिं जिण वासुपुज्जाओ॥ 7 // आसाढ -क सिण-सत्तमि सम्मतनीसेसकम्मनिम्महण / छहिं मुणिसह से हिं समं सम्मेए निव्वुय नमो ते // 8 // *** सिरि अणंतणाह-थुत्तं जिणनाह! अणंतमणंतराउ भवियाणमोह मवणे उं / कसिणाए सावण-सत्तमीइ तं पाणयाउ चुओ // 1 // जाओ सि अउ ज्झाए सेणंको सीह सेण-सुजसाण / वइसाह - ते रसीए कसिणाइ सुवावा तुमं // 2 // पन्नास धणुसरीरो वासाणऽद्धट्ठ मा-सय-सहस्सा। कुमरो निवो य दुगुणा मणुय-सहस्सेण सहसंबे // 3 // क यछट्ठो कसिणाए वइसाह - चउद्दसीइ गहि यवओ। विजयाओ पर मन्नां अन्नांमि दिणं मि पत्तोसि // 4 // वास तिगंते संजम-तिहीइ पत्तं तहिं वणे नाणं / तुह गणहर पन्नासा कमेण मुणि साहुणी सहसा // 5 // छावट्ठी छावट्ठी भत्ता पायाल-अंकु साउ तहा। पुरिसुत्तमो हरी वयमद्धठमवासलक्खाई॥ 6 // वासाण तीस लक्खा सव्वाउं विमलजिणं वरिंदाओ। सागर नवगम्मि गए सह सत्तहिं मुणिसहस्से हिं // 7 // चित्त-सिय-पंचमी ए कम्माणमोरालियं च सम्मेए। मुतूण तणु तणुवजियपयं पत्त तुज्झ नमो // 8 // *** लेख संग्रह 203 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि धम्मणाह-थुत्तं सिरिं धम्मनाह ! धम्मम्मि ठाविउं भवियजणमिणं विजया। वइसाह-सुद्ध-सत्तमि कय गब्भवयार तं नमिमो // 1 // ते भाणु-सुव्वयाणं रयणपुरे माह -सुद्ध-तइयाए। वजक कं चणप्पह पणचत्त धणुच्च जाओ सि // 2 // अड्डाइज्जा पंचय कुमरो य निवो य वास सयसह सा। माह -सिय-तेरसीए क यछट्ठो वप्पगाइ तुमं // 3 // सह सेण निवाण विणिग्गउसि गहिऊण धम्म सीहाओ। पर मन्नामादियहे वास दुगं गमिय-छ उ मत्थो // 4 // पत्तोसि वप्पगाए वरनाणं पोस-पुनिमाइ तुमं / तुह गणहरा तिचत्ता मुणिणो चउसट्ठि सहसा य // 5 // अजाउ चउसयाहि य बिसट्ठि सहसा य निट्ठियक साया। भत्तिपरा तुह किन्नर-पन्नाती पुरिससीह हरी // 6 // अड्डाइजा लक्खा वासाण वयं दसे व सव्वाऊ / अंतरमणंतजिणओ जणिउं सागर चउक्के ण॥ 7 // जिट्ठ सिय-पंचमीए अट्ठ त्तर मुणिसएण सम्मे ए / होउमजोगी पत्तोसि ज पयं तं पयं देसु॥ 8 // सिरि संतिणाह-थुत्तं सिरिसंतिनाह ! सव्वो वसग्गनिग्गह क एण पुहईए। भद्दवय-कसिण-सत्तमि सव्वट्ठ चुयं नमामि तुमं // 1 // जाओसि गयउरे विस्ससेण - अइराण चत्त धणुमाणो। हरिणंक कणयलद्धो जिट्ठासियते रसीइ-तुमं // 2 // पणुवीस वास सहसा कु मार-मंडलिय-चक्क वट्टि पए। पत्तेयं भविय तुमं नरिंद-सह सेण सहं से बे // 3 // कयछट्ठो जिट्ठ - चउद्दसीइ कसिण्णइ विरइमणुरत्तो / पत्तोसि सुमित्ताओ पर मन्नमणंतरम्मि दिणे // 4 // वासंते तम्मि वणे लद्धूणं सुद्ध-पोस-नवमीए। नाणवरं वरसीसा छत्तीसा गणहरा विहि या // 5 // मुणिणो बिसट्ठि सहसा अज्जा इगसट्ठि सहस-छसया य / गरुडो निव्वाणी तुह भत्ता कोणालयो य निवो // 6 // वास सहस्साणि वयं पणुवीसं वासलक्खमाउं च। पाऊण पल्लर हि ए गयम्मि धम्माउ अयर तिगे // 7 // नवसाहु सएहिं समं जिट्ठासिय-तेरसीइ सम्मेए / मुत्तुं मुत्तिमसारं सारं पत्तोसि तुज्झ नमो॥ 8 // *** 204 लेख संग्रह Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि कुंथुणाह-थुत्तं सिरि कुं थुनाह ! थुणिमो पर मत्थ-परोवयार-करणत्थं / सव्वट्ठाओ चवणं तुह सावण-कसिण-नवमीए॥ 1 // नागपुरे सूर -सिरीण कसिण-वइसाह - चउद्दसीइ तुमं / छ गलंछण कणयप्पह पणतीस धणुच्च जाओ सि // 2 // कुमरो तह मंडलीओ चक्कीवि य भविय वास-सह साइं। पाओण-चउ व्वीसं पत्तेयं नरसहस्सजुओ॥ 3 // छ8 ण क सिण-वइसाह -पंचमी चरिय चरिय सह संबे / बीयदिणम्मि पवनो परमन्नं वग्घसीहाओ॥ 4 // सोलसवरिसे हिं तहिं उजाणे चित्त-सुद्ध-तइयाए। ह य-घाइकम्म . तुमए पणतीसं गणहरा विहि या // 5 // साहू सट्ठि-सह सा अजाओ सट्ठि-सह स छसया य / तुह नाह विहि य सेवा गंधव-बला कु बेर निवो // 6 // पाऊण चउ वीसं पणनवई चेव वास-सह साई / तुह वयमाउं च गए सिरिसंतिजिणाउ पलियद्धे // 7 // वइसाह -पडि वयाए सिणाए दसहिं मुणिसएहिं समं / सम्मे यंम्मि विमुकोसि सेसकम्मे हिं देहि सुहं // 8 // *** सिरि अरणाह-थुत्तं सिरिअर नाह ! नमो ते भवियाणमणुग्गहिक्क बुद्धीए / फग्गुण-सिय-बीयाए सव्वट्ठाओ चुओ तंसि // 1 // नागपुरं मि सुदंसण-देवीणं मग्ग-सुद्ध-दसमीए // तीस धणू सिय जाओ सि नंदवत्तंक कणयपहो // 2 // इगवीस-वास-सह सा पत्तेयं कु मर-मंडलिय चक्की। मग्गसिर-सेय-इकार सीइ छटे ण सहसंबे // 3 // नर-सह सेण-गिहाओ नीहरीओ पर दिणं म्मि पर मन्न / अवराइयाउ पत्तो अह तिहिं वरिसेहिं तम्मि वणे // 4 // नाणं कत्तिय-सिय-बार सीइ आसाइउं तए विहिया। गणहारी तेत्तीसा साहू पन्नास सहसा य॥ 5 // अजाण सट्ठि-सह सा भत्ता जक्खिंद-धारिणि सुभूमा। इगवीसवाससह सा तुह वयमाउं तु चुलसीई // 6 // पलिओवम चउ भागे रहिए वासाण को डिसहसेणं / कुंथु जिणाउ गयम्मी सम्मेए मुणि-सहस्से ण // 7 // जम्म-तिहीए कम्मक्खएण संसार ओ नीह रिओ / अपुणागमं पयंगय पसीय दंसेसु अप्पाणं // 8 // लेख संग्रह 205 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सिरि मल्लिणाह-थुत्तं सिरिमल्लिनाह ! मिहिलं मोह वसं बोहि उं जयंताओ। फग्गुण-सुद्ध-चउत्थीइ इत्थिरूवोऽवइन्नोसि॥ 1 // मग्गसिर-सुद्ध-इकारसीइ कुंभप्पभावईण तुमं। कलसंक नीलवन्नो पणुवीस धणू सिओ जाओ // 2 // कुमरोसि वच्छर सयं कुमार अट्ठमेण सह संबे। जम्मतिहीए तिहिं तिहिं नर सएहिं नीह रिओ // 3 // तम्मि दिणे अवर हे नाणं पत्तोसि तम्मि चेव वणे। जायं पायसमसणं बीयदिणे विस्ससेणाओ॥ 4 // गणहर अट्ठावीसा. कमसो तुह साहु णी सहसा। चालीसा पणपन्ना भत्ता य कु बेर-वइरोट्टा // 5 // तह अजिओ नर नाहो तुहाउ पणपन्नवाससह साइं। सयहीणाइं तु वयं गयम्मि अरजिणवरिंदाओ॥ 6 // वासाण को डिसह सो सम्मेए पंचपंचहि सहे हिं / साहू ण साहु णीणं फग्गुण-सिय-बारसीइ तुमं // 7 // . उत्तरिय दुत्तराओ अणाइभवपंक ओ दुरवयारे / निम्मग्गोऽणंतपए अणंतविरिओसि तु ज्झ नमो // 8 // *** सिरि मुणिसुव्बयणाह-थुत्तं / सिरिमुणिसुव्वय! अवराइयाउ अवराइयं पयं पत्तं / पुन्ना-वण सावण पुनिमाइ उइन्न तुज्झ नमो // 1 // रायगिहे. सामंगो सुमित्त-पउ मावईण जाओसि / जिट्ठ बहु लट्ठ मीए कुम्मको वीस धणुमाणो // 2 // अद्धट्ठ माइं कुमरो वास-सहस्साइं पनर स-नरिंदो। , होउं नरसह सजुओ नीलगुहाए विहि यछट्ठो // 3 // सुद्धाए फग्गुण-बार सीइ नीह रिय पर दिणे पत्तो / तं बंभदत्त पायसमह पक्खूणे गए वंरिसे // 4 // तम्मि वणे फगुण-बार सीइ बहु लाइ लद्ध-नाणस्स। अट्ठारस गणहारी तुह सि मुणि तीस-सह सा य॥ 5 // पन्नास सहस्सा साहु णीण भत्ता य वरुण-नर दत्ता। विजयनिवोवि य तुह वयमद्धट्ठ मवाससह साइं // 6 // तीसं आउं चउ पन्ना-वास-लक्खे हिं मल्लिनाहाओ। जिट्ठ-सिय-नवमीए सम्मेए समण-सह सेणं॥ 7 // भववाडियाइ-चउ गइ चउरं काउं तुमं सभत्तीए। पत्तो सिद्धिं मह पहु पहु त्तसरिसं फलं देसु // 8 // *** 206 लेख संग्रह Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि नमिणाह-थुत्तं नमिनाह ! नमामि तुमं कयत्थमप्पाणयं विहे उ मणो / तं पाणयाओ मिहिलं आसोए पुनिमाइ गओ // 1 // जाओ सि विजय-वप्पाण सावण-कसिण-अट्ठ मीइ तुमं / पन्नारस धणू सिय उप्पलंक तवणिज रमणिज्ज // 2 // अड्डाइज्जा कुमरो वास-सहस्सा य पंच नर नाहो / होउं सह संबवणे नर-सह सेण विहि यछट्ठो // 3 // आसाढक सिण-नवमीइ निग्गओ पर दिणम्मि पत्तो सि। पर मन्नं दिनाओ अह नवमासे हिं तम्मि वणे // 4 // मग्गसिरसि इकार सि ह यनाणावरण गणहरा जाया। सत्तदस साहु-साहु णि सहसा वीसे गचत्ता य॥ 5 // भिउडी गंधारी वि य भत्ता हरिसे ण चक्क वट्टी य। . तुह वयमड्ढाइजा वास सहस्सा दसाउं च॥ 6 // छ सु वच्छर लक्खेसुं गएसु मुणिसुव्वयाउ सम्मेए / वइसाह -क सिण-दसमीइं सह सहस्सेण साहू णं // 7 // सम्मत्ताइगुणे हिं लद्धं तित्थयर नाममइदुलहं / * मुत्तूण तंपि पत्तोसि मुक्खसोक्खं नमो तुज्झ॥ 8 // *** सिरिणेमिणाह-थुत्तं सिरिने मिणाह! मोहे ण भुवणमवराइयं तुमं काउं / बहु लाए कत्तिय-बार सीइ अवराइयाउ चुओ // 1 // जाओ सि सिवादेवी-समुद्दविजयाण सोरियपुरम्मि। सामंग दस धणू सिय सावण-सिय-पंचमीइ तुमं // 2 // संखंक कु मारोच्चिय कु मरत्ते गमिय तिन्नि वाससए / सावण-सिय- छट्ठीए छठे णुजितगिरि सिंह रे // 3 // नरवइ-सह सेण समं नीसामन्नं गहे वि सामन्नां / वर दिनाउ पवनो तुमंसि पर मनामन्नादिणे // 4 // चउ पन्नादिणाणं ते आसो य-अमावसाइ उजिते / निम्महि यमोह विहि या एक्कारस गणहरा तुमए // 5 // अट्ठारस तह चत्ता सह सा साहू ण साहु णीणं च / भत्ता तुह गो मे हो अंबा कण्हो हरी तह य // 6 // सत्त सया वासाणं वयमाउं दस सयाउ नमिजिणओ। पणवच्छ र लक्खंते आसाढ-सियट्ठ मीइ तुमं // 7 // पंचहि साहु -सएहिं सह छत्तीसाहि एहिं उज्जते / पत्तो सि पंचमगई मह पहुं तं चिय गई एक्का॥ 8 // *** लेख संग्रह 207 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि पासणाह-थुत्तं सिरि पासनाह ! पसरियमहं तमोहं (जण) मणुग्गहि उं / तं पाणयाउ चविओ चित्त-चउत्थीइ कसिणाए // 1 // बाणार सीइ तं अस्ससेण-वामाण पोस दसमीए। कसिणाइ नीलवन्नो फणिरायविराइओ जाओ // 2 // . . नवहत्थपमाण तुमं तीसं वासाइं वसिय-कु मरत्ते / अट्ठम तवेण आसमपयम्मि तिहिं नर-सएहिं समं // 3 // क सिणाइ पोस-इक्कार सीइ सामनमुत्तमं पत्तो। बीयदिणे तुह दिन पर मन्नं नाह! धनोण // 4 // चुलसी-दिणे हिं चित्ते कसिण-चउत्थीइ आसमपयम्मि। उल्लसिय-के वलेणं तुमए दस गणहरा विहि या // 5 // सोलस तह अड तीसा सहसा मुणि साहुणीण तुह भत्ता। पास-पउ मावईउ पसेणई चेव नर नाहो // 6 // सत्तरि-वासाइं वयं वाससयं आउ नेमिनाहाओ। अद्धट्ठम सय-समहि य-ते सीइ-वाससह से हि // 7 // मुणिं तेत्तीसा य समं सावण-सिय-अट्ठ मीइ सम्मे ए। सिद्धोसि हरसु मोहं मह जह पेच्छोमि सामि तुमं // 8 // *** सिरि वड्डमाण-थुत्तं सिरिवद्धमाणजिण! पाणयाउ आसाढ-सुद्ध-छट्ठीए। भवणमिणं बोहे उं कण्डग्गामं तमं पत्तो॥ 1 // , तिसला-सिद्धत्थाणं चित्तेसिय-तेरसीइ सीहं को। . तं सत्त हत्थकाओ जाओ चामीयरत्थाओ॥ 2 // कु मरोसि वास-तीसं कय-छट्ठो मग्ग-कसिण-दसमीए। नीह रिय नायसंडे एगो पर मनामनादिणे // 3 // , पत्तो बहु लाउ गए पक्खाहिय सड-वास वार सगे। उज्जु वालियाइतीरे नईइ वइसाह दसमीए॥ . 4 // सुद्धाइ लद्ध केवल एक्कारस गणहरा तए विहिया। चउद्दस तह छत्तीसा सह सा मुणि अज्जियाणं च // 5 // मायंगजक्ख सिद्धाइयाओ सेणियनिवो य तुह भत्ता / वासा बायालीसं दिक्खा बावत्तरी आउं // 6 // अड्डाइज सएहिं गएहिं वासाण पासनाहाओ। अवसप्पिणीइ गुणनवइ पक्ख सेसे चउत्थर ए॥ 7 // निव्वाणो कत्तियमावसाइ एगोसि तं अपावाए। पयड सि जयदीव जयं जह तह कुरु देवभद्दाइं // 8 // [अनुसंधान अंक-४०] 000 लेख संग्रह 208 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री रत्नशेखरगणि रचित चत्वारः जिनस्तवाः 3 साहित्य निर्माण की दृष्टि से 11 से १५वीं शताब्दी तक का समय स्वर्ण युग कहा जा सकता है। इस युग में जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, धनेश्वरसूरि, देवभद्रसूरि, जिनवल्लभसूरि, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य, आचार्य मलयगिरि, जिनपालोपाध्याय, देवेन्द्रसूरि, क्षेमकीर्ति, सोमसुन्दरसूरि, जिनभद्रसूरि और मुनिसुन्दरसूरि प्रभृति उच्चकोटि के गीतार्थ एवं प्रौढ़ विद्वान् हुए हैं। उन्होंने नवनिर्माण करके जैन साहित्य की अभिवृद्धि की है। निम्नांकित चारों स्तवों के कर्ता महोपाध्याय रत्नशेखरगणि हैं। श्रीरत्नशेखरगणि सोमसुन्दरसूरि के शिष्य हैं। किन्तु, तपागच्छ पट्टावली के अनुसार ५०वें सोमसुन्दरसूरि, ५१वें मुनिसुन्दरसूरि और ५२वें पट्टधर रत्नशेखरसूरि हैं। .. सोमसुन्दरसूरि, जन्म 1430, दीक्षा 1437, वाचक-पद 1450, आचार्य पद 1457 और स्वर्गवास - 1499 के आस-पास है। इनके द्वारा निर्मित साहित्य प्राप्त होता है:१. आराधना रास उपदेशमाला बालावबोध (रचनाकाल वि०सं० 1485) षष्ठिशतक बालावबोध (रचनाकाल वि० सं० 1496) योगशास्त्र बालावबोध भक्तामरस्तोत्र बालावबोध आराधनापताका बालावबोध षड़ावश्यक बालावबोध नवतत्त्व बालावबोध (रचनाकाल वि०सं० 1502) अष्टादशस्तवी (रचनाकाल वि०सं० 1490 के आसपास) आतुरप्रत्याख्यानटीका 11. आवश्यकनियुक्तिअवचूरि 12. इलादुर्गऋषभजिनस्तवन 13. चैत्यवन्दनसूत्रभाष्यटीका जिनकल्याणकादिस्तवन 15. जिनभवस्तोत्र 16. पार्श्वस्तोत्र 17. श्राद्धजीतकल्पवृत्ति 18. षड्भाषामयस्तव 1. उ. धर्मसागरः तपागच्छ पट्टावली लेख संग्रह 209 ; Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. सप्ततिकासूत्रचूर्णि 20. साधुसामाचारीकुलक श्री सोमसुन्दरसूरि रचित षष्टिशतक बालावबोध (र० सं० 1496) का अवलोकन करने से यह स्पष्ट प्रतिपादित होता है कि उस समय तक खरतरगच्छ और तपागच्छ का आपसी सौहार्दभाव अनुपमेय था। षष्टिशतक में श्री नेमिचन्द्र भण्डारी ने श्रीजिनवल्लभसूरि की मुक्त-कण्ठ से स्तुति की है। उसका बालावबोध भी तदनुरूप ही है। गच्छों में भेदभाव या आग्रह सोमसुन्दरसूरि से लगभग एक शताब्दी बाद ही प्रारम्भ हुआ था। श्री धरणाशाह कारित राणकपुर का चतुर्मुखविहार भी श्री सोमसुन्दरसूरि द्वारा ही प्रतिष्ठित हुआ था। इनकी प्रतिष्ठित मूर्तियों के लगभग 150 लेख आज भी प्रकाशित हैं। ___सं.१४७५ के लगभग श्री सोमसुन्दरसूरिजी कुलपाकतीर्थ की यात्रा करने हेतु पधारे थे। उस समय के खण्डित शिलालेखों के अनुसार रत्नशेखर गणि भी साथ थे। आचार्यों में भुवनसुन्दरसूरि, मुनिसुन्दरसूरि, ज्ञानरत्नगणि, विमलसंयमगणि, राजवर्धनगणि, चारित्रराजगणि, रत्नशेखरगणि, रत्नप्रभगणि, तीर्थशेखरगणि, विवेकशेखरगणि, वीरकलशगणि और साध्वी विजयमतिगणिनी, संवेगमाला-उदयमति आदि साध्वियों के भी नाम प्राप्त होते हैं / 1481 के लेख में कामा सुत गुणराज, सहसराज, हंसरास, पासराज, देसराज, देवराज आदि के नाम प्राप्त होते हैं जिन्होंने माणिकस्वामि कुलपाक तीर्थ की यात्रा की थी। अन्य लेख में संघपति धरणिग का भी उल्लेख मिलता है। सोमसुन्दरसूरि के प्रमुख विद्वत् शिष्य थे:- सहस्रावधानी मुनिसुन्दरसूरि, भुवनसुन्दरसूरि, जयचन्द्रसूरि, जिनकीर्तिसूरि, सोमदेवसूरि, जिनमण्डनगणि आदि। अध्यात्मकल्पद्रुम और त्रिदशतरंगिणी आदि के प्रणेता श्री मुनिसुन्दरसूरि के आज्ञानुवर्ती पट्टधर रत्नशेखरसूरि हुए। इनका जन्म 1457 (अन्य मतानुसार 1452), दीक्षा 1463, पण्डित पद 1483, वाचक पद 1483, आचार्य पद 1502, स्वर्गवास 1517 / इनके द्वारा प्रणीत निम्न साहित्य प्राप्त होता है: 1. षडावश्यकवृत्ति 2. श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र अर्थदीपिका नामक वृत्ति श्राद्धविधिवृत्ति - विधिकौमुदी (वि० सं० 1506) / रत्नचूड़ रास (वि०सं० 1510 के आसपास) आचारप्रदीप (वि०सं० 1516) लघुक्षेत्रसमास - अवचूरि हैमव्याकरण - अवचूरि 8. प्रबोधचन्द्रोदयवृत्ति मेहसाणामंडन - पार्श्वनाथस्तवन 10. नवखंड - पार्श्वनाथजिनस्तवन 11. अर्बुदाद्रिमंडन - पार्श्वनेमिस्तवन 12. चतुर्विंशतिजिनस्तवन 13. पार्श्वस्तवन 2. म. विनयसागर : कुलपाकतीर्थ लेखांक 7, 8, 9, 10, 11, 210 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . इनके द्वारा प्रतिष्ठित लगभग 200 मूर्तियाँ भी प्राप्त होती है। प्रणेता ____ इन चारों स्तोत्रों के कर्ता महोपाध्याय श्री रत्नशेखरगणि हैं। चारों स्तोत्रों की पुष्पिका के अन्त में - 'महोपाध्याय श्री रत्नशेखर ग. प्रणीत' लिखा है। अतः स्पष्ट है कि श्री रत्नशेखर 1483 में वाचक बने थे और 1502 में आचार्य बने। अतः इसी के मध्यकाल की ये रचनाएँ हैं। प्रगाढ़ वैदुष्य और अनेक साधुगणों के विद्यागुरु होने के कारण इन्हें महोपाध्याय शब्द से अलंकृत किया गया हो! नवखण्ड पार्श्व स्तव में "भ" महोपाध्याय श्री ‘र वि' लिखा है इससे अनुमान किया जा सकता है कि इन स्तोत्रों की प्रतिलिपि संवत् 1502 के बाद हुई हो। क्योंकि 'भ' शब्द भट्टारक का वाचक है। इन चारों स्तोत्रों कि अवचूरिकार का नाम प्राप्त नहीं है, किन्तु यह अवचूरि भाषा, शैली और श्लेषालंकार द्वारा प्रयुक्त कठिन शब्दों की ही अवचूरि है। इससे ऐसा आभास होता है कि यह अवचूरि भी रत्नशेखरसूरि की हो और उनकी दृष्टि में जो विश्लिष्ट दुरूह शब्द हैं उन्हीं शब्दों की उन्होंने अवचूरि की हो। .. प्रस्तुत स्तोत्रों का वैशिष्ट्य इस निबन्ध में महोपाध्याय श्री रत्नशेखरगणि रचित निम्नांकित चार स्तव दिए जा रहे हैं:१. चतुर्विंशति जिन स्तव 2. श्री नवखण्ड-पार्श्वनाथ स्तव 3. नवग्रहस्तुतिगर्भ-श्रीपार्श्वजिनस्तव 4. अर्बुदाद्रि-जीरापल्ली तीर्थस्तव क्रमशः स्तोत्रों का वैशिष्टयः. 1. चतुर्विंशति जिन स्तव - याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य हरिभद्र रचित संसारदावा स्तुति और जिनवल्लभसूरि रचित महावीर स्तोत्र (भावारिवारण स्तोत्र) समसंस्कृत प्राकृत भाषा में प्राप्त होते हैं। प्रणेता को उन शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है जो कि दोनों भाषाओं में समान रूप से व्यवहृत होते हों। इन दोनों स्तोत्रों की अपेक्षा महोपाध्याय श्री रत्नशेखर के चतुर्विंशति जिन स्तव में प्राकृत और संस्कृत के साथ शौरसेनी प्राकृत का भी प्रयोग किया गया है। अर्थात् यह स्तोत्र तीनों भाषाओं में समान है। किसी एक भाषा ' में पूर्ण स्तोत्र या पद्य का निर्माण करना भिन्न वस्तु है जब कि प्रत्येक पद्य में तीन-तीन भाषाओं का समान रूप से प्रयोग करना अपनी विशिष्टता रखता है। चतुर्विंशति जिन स्तवः के प्रत्येक पद्य में प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति मालिनी छन्द में की गई है और उपसंहार प्रशस्ति २५वाँ छन्द शार्दूलविक्रीडित छन्द में है। समभाषा होते हुए भी अनुप्रास, उपमा, श्लेष और रूपकादि अलंकारों का समुचित प्रयोग किया गया है। 2. श्री नवखण्ड-पार्श्वनाथ स्तव - सौराष्ट्र में प्रसिद्ध श्री शत्रुञ्जय तीर्थाधिराज के निकट ही घोघाबन्दर प्रसिद्ध है। घोघा, घोघापुर के नाम से प्रसिद्ध है और वहाँ प्राचीनतम विराजमान नवखण्डा पार्श्वनाथ का मंदिर होने से घोघा स्थान भी प्रसिद्धि को प्राप्त हो गया। यह स्तोत्र भी अवचूरि के साथ आठ पद्यों में है। 7 पद्य इन्द्रवज्रोपेन्द्रोपजाति के हैं और आठवाँ पद्य वंशस्थविला - इन्द्रवंशा उपजाति का है। श्लेषालंकारगर्भित नवखण्ड शब्द इस स्तोत्र में विस्तार से प्ररूपित किया गया है। नवखण्ड को अनेक दृष्टियों से विभक्त कर इसकी महत्ता को दिखाया गया है। लेख संग्रह 211 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____3. नवग्रहस्तुति गर्भ-श्रीपार्श्वजिनस्तवन - आचार्य भद्रबाहु प्रणीत नवग्रह स्तोत्र से यह सिद्ध होता है कि किन-किन तीर्थंकरों के स्मरण और मन्त्र जाप से इस ग्रहों का प्रभाव समाप्त होकर कल्याणकारक होता है, किन्तु महोपाध्याय रत्नशेखरजी ने इस स्तोत्र में यह प्रतिपादित किया है कि पार्श्वनाथ का स्मरण करने मात्र से ये समस्त नवग्रह कल्याणकारी और मङ्गलकारी होते हैं। इस स्तोत्र के 10 पद्य मात्रिक आर्याछन्द में हैं। 4. अर्बुदाद्रि-जीरापल्ली तीर्थ स्तव - पाँच आर्यात्मक इस लघुस्तोत्र में श्री रत्नशेखरजी ने अपनी विशिष्ट रचना शैली का प्रयोग किया है। जहाँ अर्बुदगिरि के मुकुटायमान विमलवसही में मूलनायक रूप में विराजमान श्री आदिनाथ भगवान और लूणगवसही में मूलनायक के रूप में विद्यमान श्री नेमिनाथ भगवान और अर्बुदगिरि की उपत्यका में अर्थात् निकटवर्ती क्षेत्र में श्री जीरापल्ली तीर्थ में विराजमान पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति एक साथ ही गई है। इसीलिए तीर्थद्वय होने पर भी तीन तीर्थंकरों की स्तुति इस लघु स्तोत्र द्वारा की गई है। प्रति-परिचय स्फुट संग्रह में पंचपाठात्मक यह दो पत्रों की प्रति है। इसकी साईज 26.3411.2 से.मी. है। मूल . स्तोत्र की पंक्ति 13, अक्षर 48, अवचूरि पंक्ति सामान्यतः 6 हैं, अक्षर 76 हैं / किनारे की पंक्ति 29, अक्षर 12 हैं। लेखनकाल नहीं दिया गया है किन्तु १५वीं शती का अन्त या १६वीं शती का प्रारम्भ निश्चित है। शुद्ध लिखित है। तो लीजिए, इन चारों स्तवों का रसास्वादन कीजिए: 1. चतुर्विंशति-जिन-स्तवः (भाषात्रयसमं) [मालिनीच्छन्द] अमरगिरिगरीयो मारुदेवीयदेहे, कुवलयदलमाला कोमलाकुन्तलाली। सजलजलदपाली किन्नु सन्नीलकण्ठी धवनिवहममन्दं नन्दयन्ती जयाय॥ 1 // . अवचूरिः- सुवर्णाद्रिगरिष्ठं यत् श्रीऋषभसम्बन्धिदेहं तस्मिन्नर्थादंसलक्षणे कुवलयदलश्रेणि श्यामा जटा सजलजलदमालेव साक्षात् सन्त एव, 'नीलकण्ठीधवा' मयूराः तत्समूहं अमन्दं यथा स्यात् एवं समुल्लासयन्ती जयाय अस्तु इत्यध्याहारः॥ 1 // असमसमरलीला-लालसा भावभाव स्थलपरबलहेला रङ्गभङ्गं गमीव। करिवरपरिधारी वो विमोहावहारी, भवजयि विजयाभू रङ्गभूमी रमासु॥२॥ अवचूरिः- असमः समरलीलायां 'लालसाभावः' येषां ईदृशा ये भावरूपाः स्थलपराः शत्रवोरागादयः तत्सैन्यभङ्गाद् यो रङ्गस्तं गमिष्यन्निवांकमिषात् करीन्द्रधारी अन्योपि यः शत्रुजयैषी स्यात् करीन्द्रसङ्ग्रह करोति अस्त्वित्यध्याहार्यम्। भवजयी यो 'विजयाभूः' श्रीअजितः, रङ्गस्थानं सकलश्रीविषये यथा नर्तक्यों रङ्गभूमौ लास्यलीलां कलयन्ति तथा विश्वश्रियः श्रीअजिते इत्यर्थः। 212 लेख संग्रह Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भविविभुमभिवन्दे सम्भवं सम्भवन्तं, ___ निविडजडिमभङ्गेऽभङ्गरङ्गेण गेयम्। तरणिहयवरेणाबद्धसेवं निबोधो दयरयविरलाहङ्कारभारेण किन्नु?॥३॥ अवचूरिः- भविना-प्राणिनां प्रकरणाद् गणभृदादिकानां, तृतीयं जिनं, निविडजडिम्नो भङ्गे सम्भवन्तं' घटमानं इत्यर्थः। अर्थात् इन्द्रादिभिः, अङ्ककैतवान्, विशिष्टो बोध:- केवलज्ञानं तस्योदये तत्कालमेव लोकालोकव्यापकत्वात् यो 'रयः' वेगस्तेन विरलः दूरीभूतः 'अहङ्कारभार' वेगविषयो यस्य ईदृशेनेव // 3 // समसमयमिवालं चञ्चलं चित्तमंका हरणहरिवरं वाऽचञ्चली भावयन्तम्। उरसि विरसभावं हन्त! हन्तुं तुरीयं, ____ तमरिह रमणीयं धारणीयं धरेऽहम्॥४॥ अवचूरिः- अत्यर्थं चपलं 'चित्तं' तथा अंके आहरणं आनयनं यस्य तं 'हरिवरं' कपिवरं च 'समसमयं' युगप्पद् अचञ्चली-भावयन्तम्-स्थिरीकुर्वाणमिव चित्तं, कपिश्च प्रकृत्यातिचपले, तद्वयमपि स्वामिपार्श्वे सुस्थिरं दृश्यते इतीयमुत्प्रेक्षा। विरसभावं' प्रकरणात् सांसारिकक्लेशसम्भवं हन्तुं', 'हन्त! इति प्रीतौ।' यदाह शाकटायनः- 'हन्त ! सम्प्रदान-प्रीति विषादेषु' इति / तुरीय' चतुर्थं तं गुणैर्जगत्प्रसिद्ध अर्हद्धरं श्रीअभिनन्दननामानं उरसि इत्यस्योभयत्र सम्बन्धाद् उरसि धारणाहँ, उरसि धरेऽहम् / इति संटङ्कः॥४॥ असमसमयपारावारपारीणरीण ___च्छलचरणधुरीणच्छन्नमच्छिन्नमीडे। महिमभरनिरुद्धा-मङ्गलं मङ्गलाभू विभुमिदमसुबद्धं मङ्गलाकारणं तु॥५॥ अवचूरिः- असमसिद्धान्ताब्धिपारीणा गतच्छलाश्च ये 'चरणे' चारित्रे धुरीणा-यतयस्तैः सेव्यत्वेन 'छन्नं' व्याप्तं निरन्तरं स्तौमि। महिमभरेण निरुद्धं-निषिद्धं 'अमङ्गलं' जगतोऽपि येन तं तथा मङ्गलाङ्गजजिनं श्रीसुमतिं इत्यर्थः / इदमसम्बद्धं-यो मङ्गलाभूः स मङ्गलायाः कारणं कथम्? / विरोधाभावपक्षे-मङ्गलानामाकारणं निमित्तत्वादाकारणं-आकर्षणं इति भावः। मङ्गलानामाकारणं यस्मात् इति बहुव्रीहिर्वा // 5 // तमुदयगिरिचूलाचुम्बिभूच्छायभूरि च्छिदुरतरणिबिम्बाभङ्गधामाभिरामम्। सहभवमिव रागं कुङ्कमाभं वहन्तं, वहविदुरसुसीमासम्भवं देवदेवम्॥ 6 // अवचूरिः- 'तं' प्रसिद्ध उदयाचलचुम्बीत्यनेन अभिनवं भूच्छायस्य तमसौ भूरिच्छिदुरेत्यनेनातिदीप्रं यत्तरणिबिम्बं तद्वदभङ्गं यद्धामाऽर्थादारक्तवर्णं वपुस्तेजः नव्यरवेराताम्रधामत्वात् तेनाभिरामं, इदं जिनविशेषणम्। सहजमिव कुङ्कमाङ्गरागं वहन्तं हृदीति शेषः, श्रीपद्मप्रभम् // 6 // अवममवहरन्तुच्छन्दसञ्चारिपञ्चा नणुसमणिफणा मे देवदेवोरुदेहे। रणभुवि किल भने भारवीरेण दूरं, सममिह परिहीणा पञ्चबाणी रयेण॥७॥ लेख संग्रह 213 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवचूरिः- निन्द्यं, अभिप्रायगतं मे अवहरन्तु, इति योगः। अर्थात् सुपार्श्वः / इवार्थे, युगपत्, परित्यक्ता, . पञ्चफणानां पञ्चबाणीवेत्युत्प्रेक्षा // 7 // सममिव हिमभाजि देहदन्तोरुकूलं धयधवलकरालं सारिभावारिणेदम्। समलममलयन्तं भूविहायोऽहिगेहं, हिमकरधरमङ्के देवदेवं नुवामि॥ 8 // अवचूरिः- युगपदिव इदं वा 'अमलयन्तं' इत्यत्र योज्यम्। हिमभासां जैत्रदेहस्य दन्तानां तथोरुकूलंधय ऊरुतटस्थायी यो धवलकरो लाञ्छन चन्द्रस्तस्य चात्यर्थप्रसारिकान्तिजलेन क्रमात् पृथ्व्याकाशपातालानि निर्मलयन्तमिव, अङ्के चन्द्रभृतं अर्थाच्चन्द्रप्रभम्॥ 8 // नरवर! कुरु रामानामरामालिचूडा मणिभुवमभवन्तं चित्तवासे वसन्तम्। नवमममलभासं भासमिद्धोरुभाल ___च्छलधवलकराभासं करेणेव विद्धम्॥९॥ अवचूरिः- 'रामा' नाम्नी या स्त्री श्रेणिचूडामणिस्तज्ज्ञं सुविधिमित्यर्थः। चित्तवासस्थाने वसन्तं 'कुरु' इति अन्वर्थः। शुक्लः कान्तिदीप्तौ गुरुश्च, यो भालच्छलांद्धवलकरश्चन्द्रस्तत् कान्तिसङ्गमेन व्याप्तमिव सन्तं अमलभासम्॥ 9 // निरवमतमनन्दासुन्दरोदारतुन्दि ___च्छलसलिलरुहाली केवली केवलाय। नवमरसनिलिम्पाहारसाराभिरामं, नवमचरमकुण्डं किन्तु भूखण्डमण्डि॥१०॥ अवचूरिः- अनिन्द्यतमाया नन्दायाः सुन्दरोदाराया तुन्दिः-कुक्षिस्तच्छलकमलेऽली-भ्रमरः, अर्थाच्छीतलः, अस्तु इति योगः। शान्तरस एव निलिम्पाहारः सुधा, नवमचरमं-दशममित्यर्थः। पातालेन वसुधाकुण्डानि शीतलस्तु भूखण्डस्थ दशमसुधाकुण्डमिव // 10 // . भवभयजयि नन्दाभू पुरोगामि दन्त च्छविनिवहभवामाभूरिभद्रङ्करा मे। इह किल कलयन्ती भाववन्दारुदेवा सुरनरवरभाले काममुत्तंसकेलिम्॥ 11 // अवचूरिः- भवभयजयी यो नन्दाभुवः शीतलजिनात् पुरोगामी श्रीश्रेयांसः, शोभा॥ 11 // . दुरवमपरमोहं हन्तु मोहं जयाभू, ___रविनववसुहासी कासरेणावभासी। सहजलजलवाहालिङ्गिभागाभिरामो दयगिरिगरिमाणं हन्त! धत्ते किलायम्॥१२॥ अवचूरिः- दुष्टो गर्यः परम ऊहा यत्र, वासुपूज्यः, रक्तवपुःश्रिया, लक्ष्ममहिषेण, सजलजलदालिङ्गी यो भागस्तदभिरामोदयाद्रिशोभाम्॥ 12 // 214 लेख संग्रह Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगिरिधरणिभाराधारलीलाधुरीणं, किरवरममुमङ्के धारयन्तं निरन्तम्। परमगरिमलाभं लम्भयन्तं किमेवं, विमलममलदेहं चित्तगेहं नयेऽहम्॥ 13 // अवचूरिः- वराहः, सततं, साद्रिभू भारक्षमत्वात्, अङ्के धारणेन // 13 // विभु विमलपुरोगा भङ्गरोगावलीभि चरणकररुहाली भासमूढा जयन्ति। नमिपरसुरबालाभालभामे सरागं, किल परमललामाडम्बरं धारयन्ति॥१४॥ अवचूरि:- श्रीअनन्तस्य यौ निविडरागश्रेणिभिदौ चरणौ, नख, नमन, कर्त्ता पूर्वार्द्धगत एव // 14 // चरणसरसिसारे किन्नु निस्सीमधामा मलसलिलसमूहे हेमपङ्केरुहाणि। पविधरविभुवंऽगासङ्गिभा पिङ्गरना, कररुहवरमाला वो विरुद्धं रुणद्ध॥१५॥ अवचूरिः- पविधरस्य वज्राङ्कस्य विभोः श्रीधर्मस्य अङ्गो सङ्गिकान्त्या पिङ्गरङ्गा पीतवर्णा, विभुम्। वङ्गेत्यत्र परमते नवत्वं नरव.॥ 15 // दिवि भुवि चिरकालं चन्द्रभिद्राहुकण्ठी, रवभवभयभूयो रीणरङ्गं कुरङ्गम्। तरुणकरुणमङ्के लालयन्तं किलाम, भविवर भगवन्तं धेहि हे धीर! चित्ते॥१६॥ अवचूरिः- चन्द्रग्रसतपरः, बहुक्षीणरङ्ग, लालनक्रियाविशेषणमेतत्। कृपालुत्वादिति भावः। अर्थाच्छान्तिम् // 16 // . नर नम परपङ्कावासहिंसाधुरीणा खिलभविभयभीरुं, दूरभी पङ्कमङ्कम्। छगवरमवगाढं पालयन्तं सुगूढं, सदयमनयमन्थं कुन्थुदेवं सुसेवम्॥ 17 // अवचूरिः- पाप, शौनिकवृकादिजीवः, अजवरं विशेषणमिदम्। भीरुत्वादेव निर्भयमङ्कमाश्लिष्टवन्तं छागवरम्। किलेति शेषः। मन्थनं मन्थोऽनयस्य मन्थो यस्मात् सोऽनयमन्थः, यद्वा मन्थतीत्यविमन्थः, ततो अनयस्य मन्थत्वम्। फलदायित्वेन अतिशायिनी सेवा यस्य // 17 // तमरममरदत्ता मन्दमन्दारमाला, परिमलरसबद्धालम्बिरोलम्बमालम्। निरवमनवहेमच्छायकायं नमामो मरगिरिमिव कण्ठे वारिवाहावगाढम्॥१८॥ अवचूरिः- पूजार्थं, आलम्बिनी, परितोलना, आश्लिष्टम् // 18 // लेख संग्रह 215 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुलमिह वहन्तं कुन्दमन्दारमल्ली, कुसुममसमवल्ली मञ्जुलं मल्लिदेवम्। चिरमुरसि वहामो भूरिताराऽविरामा वलिविमलविहायो मण्डलं किन्नु नीलम्॥ 19 // अवचूरिः- जात्युपेक्षमेकवचनम्। नीलवर्णत्वात्। भूरिताराणामविरामा अपारा आवलयो यत्र, विहायो मण्डले तत्तथा // 19 // कुवलवलयकायं कुन्दजिबन्तपाली ___च्छविभरपरिभोगं देवमल्ली पुरोगम्। तमरिहमिह सेवे वारिवाहं सवारि, किमसमविसकण्ठी मण्डलीलीढकण्ठम्॥ 20 // अवचूरिः- श्यामत्वात् कुवलमण्डलदेहं, श्रेणिबद्धत्वात् पालीव पाली तत्कान्तिभरस्य समन्ताद्भोगो यस्य, मुनिसुव्रतं, बलाकाश्रेण्याश्लिष्टः॥ 20 // जय! भुवि विजयं ते भासुराभूरिभासो, दमिवरनमिदेहे केलिगेहे कलासु। किमहिमकिरणाभा भाववन्तं नयन्ते, सुदिवसमविरामं चण्डभावं विहाय॥ 21 // अवचूरि:- जयोत्पत्तिस्थाने, दमिनो-मुनयः, अत्र षष्ठ्यर्थे सप्तमी, कलासु इत्यत्रापि। एताः किं रविकान्तयश्चण्डभावं त्यक्त्वा सौम्यत्वापन्नानत्यर्चादौ भावभाजं प्राणिनं निरन्तरं 'सुदिवसं' शोभनदिनं प्रापयन्ति / रविकान्तितुल्याभिर्नमिजिनतनुद्युतिभिर्भाविनां नित्यं श्रेयो दिनमेव क्रियते, इति भावः॥ 21 // हरिमरुधरमाणं कम्बुसम्बन्धबन्धुं, किमु इह बहुमन्ता कम्बुधारी चिरेण। नवनवभवकारावासवारी वरीयो, गवलविमलनामा नेमिनामा ममायम्॥ 22 // अवचूरिः- पुन्नपुंस्त्वात् कम्बुशब्दस्य क्लीबत्वं, ततो गुरुशङ्ख पाञ्चजन्याभिधानं धरन्तं, सम्बन्धेन बान्धवं कृष्णं बहुमंतेव कम्बुधारी अङ्के पाञ्चजन्यकम्बुधारिस्वबन्धुकृष्णबहुमानार्थमिव स्वयमप्यङ्के कम्बुभृदित्युत्प्रेक्षा। अत्र शीलार्थस्तृन्, तेन तत्कर्मणि द्वितीया। भवभवभवा एव कारा गुप्तिगृहाणि तत्र वासं वारयतीत्येवंशीलः, अस्तु इत्यध्याहार्यं च। वरतरं वनमहिषवन्निर्मलं धाम वपुः सम्बन्धि यस्य, जिनः॥ 22 // फणिगुरुफणिमालालम्बिचूला महीयो, मणिगणकिरणाली सङ्गरङ्गावगाढम्। अरिहमुरुमहेला सिद्धिसम्पन्नरागा रुणमिव गुरुगेयं चित्तधेयं धरेयम्॥२३॥ अवचूरिः- फणिगुरुर्धरणेन्द्रस्तत्फणमालायामालम्बिनो ये चूडासु महत्तरा मणयः, सङ्गेन यो रङ्गोरक्तिमा तेन व्याप्तम्, अर्थात्पार्श्वम्, विश्वेपि गरिमास्पदत्वेनोरुमहेलात्वं सिद्धेर्युक्तम्। तस्यां सम्पन्नो यो / रागस्तेन रञ्जितमिव, गुणैर्गेयम्, चित्ते धेयं धारणाहँ, तत एवाहं धरेयमर्थाच्चित्ते // 23 // 216 लेख संग्रह Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिभुवि हरिभावे बाहुलीलाविभिन्ना विरलनिविडपीडा सङ्गमे गाढखिन्नम्। परिभवपरिहारायेव वोढारमङ्के, हरिवरमरिहन्तं हे नरा! धत्त चित्ते॥२४॥ अवचूरिः- शालिक्षेत्रासन्नायां, प्राग्भवे त्रिपृष्ठवासुदेवत्वे बाहुलीलया यद्विभिन्नं क्लीबे क्तान्तत्वात् विदारणं, तेन निरन्तरा, निविडा वया पीडा तस्याः सम्पर्के / गाढखेदाद्यः परिभवः तदपहरणार्थमिव सिंहवरमङ्के वोढारम्। शीलार्थोऽत्र तृन् / अर्थात् श्रीवर्धमानम् // 24 // [शार्दूलविक्रीडितं छन्दः] इत्थं स्तोत्रपथं कथंचन जिना नीता विनीतात्मना, वृत्तैः प्राकृतसंस्कृतैः समुदितैस्तैः शौरसेन्या समैः। दधुः श्रीगुरुसोमसुन्दर मुदा स्वाद प्रसादं जवाद्, येनासौ रसिकेव केवलकला लीलायते मय्यपि॥ 25 // - इति संस्कृत-प्राकृत-शौरसेनीरूपभाषात्रयसमं . 24 जिनस्तवनम्। म० श्रीरत्नशेख० ग० वि० / अवचूरि:- श्रिया गुरुः सोमस्तद्वत् सुन्दराऽतिविशदायासु... तस्या आनुभवौ यत्र प्रसादे तं तथा // 25 // इति भाषात्रयसम 24 जिनस्तवावचूरिः। 2. श्रीनवखण्ड-पार्श्वस्तवः ___ (उपजाति-वृत्तम्) जय प्रभो! त्वं नवखण्डपृथ्वी प्रख्यातकीर्ते! नवखण्डमूर्ते!। भव्याब्जभानो! नवखण्डसंवित्, ... विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व!॥ 1 // अवचूरिः- लोकप्रसिद्धया पृथ्वी नवखण्डा, सम्पूर्णासंवित् केवलज्ञानं यस्य // 1 // ते तत्क्षणेनाऽनवखण्डमुच्चै विघ्नानशेषानवखण्डयन्ति। ये त्वां स्तुयुर्दानवखण्डनाऱ्या, विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व!॥ 2 // अवचूरिः- 'अनवं' जीर्णं ततो जीर्णखण्डं अवखण्डयन्तीति योगः। यथा जीर्णमना या सेनैव खण्ड्यते तथा ते विघ्नान् सर्वान् खण्डयन्ति। अत्र अनवखण्डं खण्डयन्तीति कृत्वा पश्चादवोपसर्गेण योगः प्रथममेवावोपसर्गयोगे त्वनवखण्डं, इत्यत्र "णम्" प्रत्ययस्य असम्भवः, "व्याप्याच्चेवात्" [सि. हे. 5/4/ लेख संग्रह 217 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71] इति सूत्रे तस्यैवेति नियमात् / यद्वा, अवशब्दश्चादिपठितो भर्त्सनार्थे, क्रियाविशेषणत्वेन योज्यः। भर्त्सनपूर्व विघ्नान् खण्डयन्तीति भावः। अथवा अवतीति अवि, अवस्ततो जिनसम्बोधनं हे अव! रक्षक!। दानवखण्डना इन्द्राः // 2 // माधुर्यधुर्या नवखण्डजैत्री, गीस्तेऽथ कार्शानवखण्डवारि!। भात्युधंदादीनवखण्डमाना, विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व!॥ 3 // अवचूरिः- यत एव माधुर्यधुर्या तत एवाभिनवमधुधूलिजैत्री। अथान्येव कार्शा नवानि कृशानुसम्बन्धीनि खण्डानि ज्वाला इत्यर्थः, तत्र नीरसदृशाः। आदीनवान् दोषान् खण्डमाना मध्नन्ती शीलार्थे शानस्तेन मलयपवमान इति वत्समासः सिद्धिः। "श्रितादिभिः" [सि. हे. 3/1/62] इति सूत्रेण // 3 // नवप्रमुक्तानवखण्डलौटु भक्त्या कृतोच्चैर्नव खं डगद्भिः। श्रितान् भवार्तानवखण्डमुळ विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व!॥ 4 // अवचूरिः- आनवखण्डलशब्दस्य नवप्रमुक्तत्वेन आखण्डलेति स्यात् / कृत उच्चैः स्तवो यस्य। 'खं' स्वर्गं, डलयोरैक्याल्लगद्भिः स्वर्गस्थैरित्यर्थः। उर्व्याः खण्डं पीठं श्रितान् भवार्तान् अवेति योगः॥ 4 // आम्नाति नो मानवखण्डनादौ, दर्पण येऽन्यानव खं डयन्ते। गिरोपि तैस्ते नवखण्डनीया, विश्वेश्वर श्रीनवखण्डपार्श्व!॥ 5 // अवचूरिः- मनोरिदं मानवं शास्त्रं स्मृत्यादि खण्डनग्रन्थ। नौतीति नवः, स्तोतः, न नवो अनवः, अन्येषामनवोऽन्यानवः त्रिजगतोऽपि स्तुत्यत्वात् / ये दर्पण 'खं' व्योमं डयन्ते' उत्प्लवन्ते। यद्वा, अवखण्डयन्तीति पाठस्ततो ये अन्यान् अवखण्डयन्ति-तिरस्कुर्वन्तीत्यर्थः। खंवं अवखण्डयितुमशक्याः॥ 5 // वितन्वते ते नवखण्डतिं ये, स्वभक्तितोऽर्हन्नवखण्डमाशु। ते नित्यनिस्तानवखं डभन्ते, विश्वेश्वर श्रीनवखण्डपार्श्व!॥ 6 // अवचूरिः- स्वार्थेतिक्प्रत्ययेन, न च शब्दयोगे च नवखण्डतिस्तं अवखण्डतिस्तं अवखण्डं वखण्डेति वर्णत्रयहीरमेतावन्तः निमित्यर्थः। निस्तानवमतुच्छं 'खं' सुखं डलयोरैक्याल्ल भते // 6 // व्याधींस्तथाधीनवखण्डसे तत्, त्वमेव विश्वे नवखण्डहीनः। लेख संग्रह 218 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनीषिणां मानवखण्डना), विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व!॥ 7 // अवचूरिः- यत् इत्यध्याहार्यम्। मानवखण्डनार्हपदस्य नवखण्डेति वर्णचतुष्क हीनत्वे मानार्ह इति "शिष्यते, ततो मनीषिणां, माननीय इत्यर्थसिद्धिः॥७॥ इति स्तुतः श्रीनवखण्डनामभृत, प्रसिद्धघोघापुरभूविभूषणः। पार्श्वः प्रभु श्रीगुरुसोमसुन्दरस्फुरदयशाः शाश्वतसम्पदोऽस्तु वः॥८॥ इति श्री भ० महोपाध्याय श्री र० वि०॥ इति श्रीनवखण्डपार्श्वस्तवावचूरिः। 3. नवग्रहस्तुतिगर्भ-श्रीपार्श्वजिनस्तवः [आर्यावृत्तम्] पार्श्वः श्रियेऽस्तु भास्वानजस्थितेरुच्चतां परां बिभ्रन्। विश्वप्रकाशकुशलः कुतुकं तु कलावदुल्लासी॥१॥ अवचूरिः- भास्वान् दीप्रसूर्यश्च, न जायत इत्यतः सिद्धः, पक्षे 'अजः' मेषराशिस्तत्रस्थ्ये हि रु रविरुच्चः स्यात्, निस्तुल आश्रयः सिद्धिलक्षणो यस्य, सूर्यस्तु तुलराश्याश्रयोऽपि स्यात् इति चित्रम्॥१॥ पार्श्वः स जयति सोमः, परमोन्नतिभृवृषप्रयोगेण। शैवे शिरसि निवासी चित्रं तु तमोग्रहग्रासी॥२॥ अवचूरिः- सौम्यश्चन्द्रश्च, 'वृषः' पुण्यं तत्प्रयोग-उपदेशादिना, पक्षे वृषराशेः प्रकृष्टयोगेन, मोक्षसम्बन्धिनि-ईशसम्बधिनि च। तमः अज्ञानं तदेव ग्रहो भूतादिस्तद्विनाशी, पक्षे तमोग्रहो राहुः॥ 2 // श्रीपा सदत्तनवार्चिषं नमत मङ्गलात्मानम्। पृथ्व्या नन्दनमद्भुतमवक्रमर्पितबुधमुदं च॥३॥ अवचूरिः- सच्छोभनं वृत्तं शीलं यस्य, पक्षे-शोभनश्चासौ वृत्तो वृत्ताकारश्च / नवमर्चि: तेजो ज्ञानरूपं यस्य, पक्षे-नवसंख्यकिरणम्। कल्याणमयात्मानं, पक्षेः मङ्गल' भौमः। पृथ्व्या आनन्दनं, पक्षे-पृथ्व्यासुतम्। मङ्गलस्य हि बुधो रिपुर्गीयते // 3 // वामाभूः श्यामाङ्गः, सौम्यस्तादमृतसिद्धियोगकृते। मैत्रीप्रयोगतो वः, कुतुकं तु कलावकल्लासी॥४॥ अवचूरिः- पक्षे-श्यामाङ्ग इति बुधनाम। पक्षे– 'सौम्यः' बुधः। मैत्रीप्रयोगेण वो मोक्षनिष्पत्तियोगाय स्तात् इति सम्बन्धः। पक्षे- मैत्र्यनुराधा तस्याः प्रयोगतो बुधो अमृतसिद्धियोगकृत्स्यात्। पक्षे बुधस्य हि चन्द्रो रिपुः॥४॥ लेख संग्रह 219 15 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगति गुरुः श्रीपार्श्वः, शुभदृष्ट्या दोषलक्षमपि मुष्णन्। पुष्णन् श्रियश्च जीयान्न कुत्रचिच्चित्रमतिचारी॥५॥ अवचूरिः- 'गुरुः' गरिमास्पदं, पक्षे-बृहस्पतिः। 'अतिचार:' चारित्रमालिन्यं, शीघ्रगतिश्च // 5 // गुरुपदलाभादुच्चः, श्रीपार्श्वः श्रेयसेऽस्तु सत्काव्यः। दोषाकरविद्वेषी न जानु यात्यस्तमिति तु नवम्॥६॥ अवचूरिः- गुरुपदं सिद्धिर्मीनराशिश्च, मीनराशौ हि शुक्र उच्चः, सद्भिः स्तुत्यः, पक्षे-संश्चासौ शुक्रश्च। दोषाणामाकरं विद्वेष्टी निःशीलः, पक्षे-दोषाकरश्चन्द्रो विद्वेषी यस्य / सिद्धौ शाश्वतोदयस्थितिकत्वात् शुक्रस्तु अस्तं यात्येव // 6 // परसिद्धियोगमस्तिस्तनुतां पार्श्वः प्रयोगतो ब्राह्मयाः। धर्म पुष्णन् धर्माश्रयेण न पुनः कचिन्नीचः॥७॥ अवचूरिः- 'असितः' नीलवर्णः शनिश्च, 'ब्राह्मी' वाणी रोहिणी च तस्याः 'प्रयोगतः' उपदेशादेः, प्रकृष्टयोगाच्च परसिद्धियोगं प्रकृष्टमुक्तिसम्बन्धं अमृतसिद्धियोगं च तनुतामित्यन्वर्थः। चारित्रधर्माश्रयेण चतुर्विधं धर्ममुपदेशादिना पुष्णन्, पक्षे-धर्म भवताश्रयणेन धर्मपोषी। शनिस्तु मेषे नीचः स्यात् / / 7 // दुरितभिदे दोषाकर-तमोरिपुग्रासलालसः पार्श्वः। कीर्त्या विधुन्तुदस्तान्न क्रूरः कौतुकं वापि॥८॥ अवचूरि:- दोषाणामाकरभूतं यत्तमोऽज्ञानं तदेव रिपुः शत्रुस्तस्य ग्रासे-विनाशे लालसा-श्रद्धा यस्य, पक्षे दोषाकरश्चन्द्रस्तमोरिपुः-सूर्यः तयोर्ग्रसनपरः। कीर्त्या विधुन्तुदश्चन्द्रस्य जेता, पक्षे-विधुन्तुदो-राहुः॥ 8 // श्रीवामेयोऽनवमस्त्रिजगति केतुः श्रियां परमहेतुः। जयतु स्फुरत्फणर्द्धिर्नवरं नित्योदयी शुभदः॥९॥ अवचूरिः- 'अनवमः' श्लाध्यः, पक्षे-नवमो नवसंख्यापूरणः। त्रिभुवने विभूषकत्वात् केतुर्ध्वज इव, पक्षे केतुनामा ग्रहः। पक्षे-परं केवलं श्रियामः हेतुः। उभयोरपि सफणत्वात्। केतुस्तु कदाचिदुदयी, उदितोप्यरिष्टकृच्च // 9 // श्रीपार्श्वस्तवमेवं, नवग्रहस्तवनगर्भमध्ये तु। श्रीसोमसुन्दरमतेरप्यशुभाः स्युर्ग्रहाः शुभदाः॥१०॥ इति श्रीवामेयस्तवनं नवग्रहस्तुतिगर्भ महोपाध्या. श्रीर. वि.॥ अवचूरि:- पाठकस्य इह तृन्। पूर्णेन्दुवत् सुन्दरा-निर्मला मतिर्यस्य // 10 // 220 लेख संग्रह Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपार्श्वस्तवावचूरिः। छ। 4. अर्बुद-जीरापल्ली तीर्थस्तवः [आर्याच्छन्द] श्रीअर्बुदाद्रिमुकुट-श्रीजीरापल्लितीर्थसुप्रथितिम्। स्तौमि श्रीमत्पाद्यं, जिनर्षभं श्रीशिवाङ्गभुवम्॥१॥ अवचूरिः- ऋषभपक्षे-अर्बुदाद्रिमुकुटश्चासौ श्रीजीरापल्लितीर्थेनासन्नत्वात् सुप्रसिद्धश्च / श्रीपार्श्व समीपं यस्य। श्रीशिवानामङ्गमभ्युपायो धर्मस्तदुत्पत्तिपदम्। नेमिपक्षेप्येवं। परं जिनर्षभं जिनप्रवरं। पार्श्वपक्षेअर्बुदाद्रिर्मुकुटो यस्येदृशा जीरापल्लितीर्थेन सुप्रसिद्धम्॥१॥ तव सद्वर्ण्य सुवर्णश्रीधनरोचिष्णुरोचिरङ्गलता। कल्पलतातोऽप्यधिकं, दत्ते दृष्टाप्यभीष्टानि॥२॥ अवचूरिः- सुवर्णश्रीवद् घनं सान्द्रं 'रोचिष्णु रोचिः' यस्या। नेमि-पार्श्वपक्षे-शोभनवर्णश्री धनोमेयस्तद्वद्रोचिष्णु० // 2 // जयनाभिभूत! निःसमसुसंविदा श्रीसमुद्रविजयभव!। वामाङ्गज! जयहेतो, भवाब्धिसेतो! दुरितकेतो!॥३॥ अवचूरिः- निःसमसुसंविदां श्रीयुक्त समुद्रविजयस्य भवो जन्म यस्मात्। 'वाम' प्रतिकूलः अङ्गज' स्मरस्तज्जयहेतो। नेमिपक्षे-निःसमसुसंविदां नाभिभूताधारभूत / पार्श्वपक्षे- हे वामाङ्गज! हे जयहेतो! // 3 // बिभ्रद् वृषभासनतां, निर्मलजलजाङ्कितांहिकमलश्च। भोगीन्द्र सेव्यामानः, प्रभो! जय त्वं निरुपमानः॥४॥ अवचूरिः- भोगिनो ये इन्द्राः। नेमिपक्षे 'जलजः' शङ्खम् // 4 // श्रीअर्बदाद्रिविदित श्रीजीरापल्लितीर्थसु न वृषभ!। . श्रेयः समुद्रनेमे! देयाः श्रीसोमसुन्दरस्वपदम्॥५॥ ___ इति तीर्थद्वये जिनत्रयस्य प्रत्येकं स्तवस्त्र्यर्थः एतानि महोपाध्याय री रत्नशेखरग० वि०। अवचूरिः- श्रीजीरापल्लिः पार्श्वे यस्याश्रयसां समुद्रनेमिभूः। पार्श्वपक्षे-हे अर्बुदाद्रिणासन्नत्वात् सुप्रसिद्धिः। शेषं सुगमम्॥५॥ इति तीर्थद्वयस्तवावचूरिः॥६॥ 000 लेख संग्रह 221 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . षडभाषामय श्रीऋषभप्रभुस्तव के कर्ता श्री जिनप्रभसूरि हैं अनुसंधान अंक 39 पृष्ठ 9 से 19 में प्रकाशित षडभाषामय/अष्टभाषामय श्रीऋषभप्रभुस्तव अवचूरि के साथ प्रकाशित हुआ है। इसके सम्पादक मुनि श्री कल्याणकीर्तिविजयजी हैं। संशोधित और शुद्ध पाठ देते हुए इस स्तव को प्रकाशित कर अनुसंधित्सुओं के लिए प्रशस्ततम कार्य किया है, इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। इसके कर्ता के सम्बन्ध में (पृष्ठ 10) सम्पादक ने अनुमान किया है कि इसके कर्ता ज्ञानरत्न होने चाहिए, जो कि सम्यक् प्रतीत नहीं होता है। ___ इस स्तोत्र का ३९वाँ पद्य "कविनामगर्भं चक्रम्" अर्थात् चक्रबद्ध चित्रकाव्य में कर्ता ने अपना नाम गुम्फित किया है। जो कि चक्रकाव्य के नियमानुसार इस प्रकार है: PREM HERE IB शुभतिलकक्लृप्तोऽसौ भाषास्तवः अर्थात् इस श्लोक के प्रथम द्वितीय तृतीय चरण के छट्ठा अक्षर ग्रहण करने से 'शु' 'भ' 'ति' क्रमशः चौदवाँ अक्षर ग्रहण करने से 'ल' 'क' 'क्लु' पुनः इन तीनों चरणों के प्रारम्भ के तीसरा अक्षर ग्रहण करने पर 'तो' 'सौ' 'भा' और सतरवां अक्षर ग्रहण करने से 'षा' 'स्त' 'व:' अर्थात् शुभतिलकक्लृप्तोऽसौ भाषास्तवः ग्रहण किया जाता है। इस शब्दविन्यास से शुभतिलक क्लृप्त यह भाषास्तव है। 222 लेख संग्रह Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * इसी प्रकार शुभतिलक (आचार्य बनने पर जिनप्रभसूरि) ने गायत्री विवरण लिखा है। इसमें भी शुभतिलकोपाध्याय रचित लिखा है। अभय जैन ग्रन्थालय की प्रति में इस प्रकार उल्लेख मिलता है: चक्रे श्रीशुभतिलकोपाध्यायैः स्वमतिशिल्पकल्पान्। व्याख्यानं गायत्र्याः क्रीडामात्रोपयोगमिदम्॥ इति श्रीजिनप्रभसूरि विरचितं गायत्री विवरणं समाप्तं। गायत्री-विवरण प्रो. हीरालाल रसिकदास कापड़िया सम्पादित अर्थरत्नावली पुस्तक में पृष्ठ 71 से 82 तक में प्रकाशित हो चुका है। उसमें पुष्पिका नहीं है। ___ परवर्ती ग्रन्थकारों ने शुभतिलकोपाध्याय प्रणीत इन दोनों कृतियों को जिनप्रभसूरि रचित ही स्वीकार किया है। यही कारण है कि मैंने भी "शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य" पुस्तक के पृष्ठ 34 पर लिखा है कि जिनप्रभसूरि का दीक्षा नाम शुभतिलक ही था, और आचार्य बनने पर जिनप्रभसूरि बने। प्रकरण रत्नाकर भाग-२ सा. भीमसिंह माणक ने (प्रकाशन सन् 1933) पृष्ठ नं. 263 से 265 निरवधिरुचिरज्ञानं प्रकाशित हुआ है। जिसकी पुष्पिका में लिखा है: इति श्रीजिनप्रभसूरिविरचितं अष्टभाषात्मकं श्रीऋषभदेवस्तवनं समाप्तम्। इसी प्रकार लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृत विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्रकाशित संस्कृतप्राकृत भाषानिबद्धानां ग्रन्थानांसूची भाग-१ ( मुनिराज श्री पुण्यविजयजी संग्रह) के क्रमांक 1363 परिग्रहण पंञ्जिका नं. 6754/5, पृष्ठ 176-177, लेखन संवत् 1583, दयाकीर्तिमुनि द्वारा लिखित और पण्डित सिंहराज पठनार्थ की अवचूरि सहित इस प्रति में भी जिनप्रभसूरिजी की कृति माना है। इस अवचूरि की पुष्पिका में लिखा है:- "इति शुभतिलक इति प्राक्तननाम श्रीजिनप्रभसूरिविरचित भाषाष्टक संयुतस्तवावचूरिः।" इस प्रति की अवचूरि और प्रकाशित अवचूरि पृथक्-पृथक् दृष्टिगत होती है। . इसी प्रकार श्री अगरचन्दजी भंवरलालजी नाहटा ने भी विधिमार्गप्रपा शासन प्रभावक जिनप्रभसूरि निबन्ध में और मैंने भी शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य में इस कृति को जिनप्रभसूरि कृत ही माना है। श्री जिनप्रभसूरि रचित षडभाषामय चन्द्रप्रभ स्तोत्र प्राप्त होता है। अतः शुभतिलक रचित इस स्तोत्र को भी जिनप्रभसूरि का मानना ही अधिक युक्ति संगत है। लघु खरतरशाखीय आचार्य श्रीजिनसिंहसूरि के पट्टधर आचार्य जिनप्रभ १४वीं सदी के प्रभावक आचार्यों में से थे। मुहम्मद तुगलक को इन्होंने प्रतिबोध दिया था। इनके द्वारा निर्मित विविध तीर्थ कल्प, विधिमार्गप्रपा, श्रेणिक चरित्र (द्विसंधान काव्य) आदि महत्त्वपूर्ण कृतियाँ प्राप्त हैं। सोमधर्मगणि और शुभशीलगणि आदि ने अपने ग्रन्थों के कथानकों में भी इनको महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। इनका अनुमानित जन्मकाल 1318, दीक्षा 1326, आचार्य पद 1341 और स्वर्गवास संवत् अनुमानतः 1390 के आस-पास है। [अनुसंधान अंक-४०] लेख संग्रह 223 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अञ्चलगच्छीय श्री जयकेसरीसूरि भास सद्गुरु आचार्यों और गीतार्थप्रवरों के गुणगौरव का यशोगान और स्तुति करना यह साधुजनों का कर्तव्य है। जो कि गीत, भास, स्तुति, रास, इत्यादि के रूप में प्राप्त होते हैं। गुरुगुण-षट्पद, जिनदत्तसूरि स्तुति, साह रयण कृत जिनपतिसूरि धवल गीत, कवि भत्तउ रचित जिनपतिसूरि गीत, पहराज कृत जिनोदयसूरि गुण वर्णन, कविपल्ह कृत जिनदत्तसूरि स्तुति, नेमिचन्द्र भण्डारी रचित जिनवल्लभसूरि गुरु गुणवर्णन, सोममूर्ति रचित जिनेश्वरसूरि संयमश्री विवाह वर्णन, मेरुनन्दन रचित जिनोदयसूरि विवाहलउ आदि १२वीं शताब्दी से अनेकों कृतियाँ प्राप्त होती हैं। इसी शृङ्खला में अञ्चलगच्छीय श्री जयकेसरीसूरि से सम्बन्धित भास और गीत संज्ञक लघु चार रचनाएँ स्फुट पत्र में प्राप्त है। श्री जयकेसरीसूरि १५वीं के अञ्चलगच्छीय प्रभावक आचार्य हुएं हैं। श्री अञ्चलगच्छ की स्थापना आर्य रक्षितसूरि के द्वारा संवत् 1169 में हुई है। इसी आर्यरक्षितसूरि की परम्परा में श्री जयकेसरीसूरि हुए हैं। जिनकी वंश परम्परा इस प्रकार है: आर्यरक्षितसूरि जयसिंहसूरि धर्मघोषसूरि महेन्द्रसिंहसूरि सिंहप्रभसूरि अजितसिंहसूरि देवेन्द्रसिंहसूरि धर्मप्रभसूरि सिंहतिलकसूरि महेन्द्रप्रभसूरि मेरुतुङ्गसूरि जयकीर्तिसूरि जयकेसरीसूरि इस प्रकार आर्यरक्षितसूरि की परम्परा में बारहवें पाट पर इनका स्थान पाया जाता है। श्री जयकेसरीसूरि के सम्बन्ध में प्रयोजक पार्श्व ने अञ्चलगच्छ दिग्दर्शन नामक पुस्तक में पृष्ठ 267 से 298 पर विस्तार से प्रकाश डाला है। इसी पुस्तक के आधार पर प्रमुख-प्रमुख घटनाओं का यहाँ उल्लेख कर रहे हैं। 224 लेख संग्रह Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . इनका जन्म पाञ्चाल देशान्तर्गत थाना नगर में विक्रम संवत् 1461 में हुआ। इनके पिता श्रीपाल के वंशज श्रेष्ठि देवसी थे और माता का नाम लाखणदे था। किसी पट्टावली में जन्म संवत् 1461 प्राप्त होता है तो किसी में 1469 / इनका जन्मनाम धनराज था। माता द्वारा केसरीसिंह का स्वप्न देखने के कारण दूसरा नाम केसरी भी था। संवत् 1475 में जयकीर्तिसूरि के पास आपने दीक्षा ग्रहण की और दीक्षा नाम जयकेसरी रखा गया। संवत् 1494 में जयकीर्तिसूरि ने आपको आचार्य पद प्रदान कर जयकेसरीसूरि नाम रखा। भावसागरसूरि के मतानुसार चांपानेर नरेश गङ्गदास के आग्रह से इनको आचार्य पदवी दी गई थी। जयकेसरीसूरि भास में 'रंजण गंग नरिन्द' प्राप्त होता है। संवत् 1501 में चाम्पानेर में आपको गच्छनायक पद प्राप्त हुआ और संवत् 1541 पोस सुदी 8 के दिन खम्भात में इनका स्वर्गवास हुआ। चांपानेर नरेश गङ्गदास तो इनके भक्त थे ही, गङ्गदास के पुत्र जयसिंह पताई रावल भी इनका भक्त था। लावण्यचन्द्र की पट्टावली के अनुसार सुलतान अहमद (महम्मद बेगड़ा) भी आपके चमत्कारों से प्रभावित था। सायला के ठाकुर रूपचन्द और उनके पुत्र सामन्तसिंह ने जीवन दान पाकर जैन धर्म स्वीकार किया था। जम्बूसर निवासी श्रीमाल कवि पेथा भी आपके द्वारा प्रतिबोधित था। आपके द्वारा विक्रम संवत् 1501 से लेकर 1539 तक 200 के लगभग प्रतिष्ठित मूर्तियाँ प्राप्त होती है। जयकेसरीसूरि की 2 ही कृतियाँ प्राप्त होती है:- 1. चतुर्विंशति-जिन-स्तोत्राणि और 2. आदिनाथ स्तोत्र। चतुर्विंशति-जिन-स्तोत्राणि मेरे द्वारा सम्पादित होकर आर्य जयकल्याण केन्द्र, मुम्बई से विक्रम संवत् 2035 में प्रकाशित हो चुकी है। इस कृति को देखते हुए यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि जयकेसरीसूरि प्रौढ़ विद्वान् थे। उनकी गुण गाथा को प्रकट करने वाली अनेकों कृतियाँ प्राप्त हो सकती हैं। मुझे केवल चार कृतियाँ ही प्राप्त हुई, जो कि एक ही पत्र पर लिखी हुई हैं / लेखन संवत् नहीं हैं किन्तु लिपि को देखते हुए १६वीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखी गई हो ऐसा प्रतीत होता है। . प्रथम कृति भास के रूप में है, जिसमें श्री जीराउली पार्श्वनाथ को नमस्कार कर अञ्चलगच्छ नायक जयकेसरीसूरि के माता-पिता का नामोल्लेख है। इसी के पद्य 5 में 'रञ्जण गङ्ग नरिन्द' का उल्लेख भी है। दूसरी भास नामक कृति कवि आस की रचित है। नगर में पधारने पर विधिपक्षीय जयकेसरीसूरि का वधावणा किया जाता है, और संघपति महिपाल-जयपाल का उल्लेख भी है। तीसरी कृति गीत के नाम से है। इसके प्रणेता हरसूर हैं, और इसमें जयकीर्तिसूरि के पट्टधर जयकेसरीसूरि के नगर प्रवेश का वर्णन किया गया है। चौथी कृति भास नामक है। जिसमें श्राविकाएँ नूतन शृङ्गार कर जय-जयकार करती हुई, मोतियों का चौक पुराती हुई, उनका गुणगान करती हैं / आचार्य को देखकर नेत्र सफल हुए हैं। इक्षु, दूध-शक्कर, के समान आचार्य की वाणी को उपमा प्रदान की गई है। आचार्य को जङ्गम गुरुओं में गोयम गणधर, शील में जम्बूकुमार, मुनीश्वरों में वज्रकुमार आदि की उपमा देते हुए गुरु गुण से पाप भी पलायन कर जाते हैं, ऐसा उल्लेख है। भक्तजनों के आह्लाद के लिए चारों लघु कृतियाँ प्रस्तुत लेख संग्रह 225 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अञ्चलगच्छीय श्री जयकेसरीसूरि भास (1) श्री जीराउलि वास पूरई रे मनची आस। आणीय मनि उल्लास पणमिय जिनवर पास॥ सखि गाइसिउं ए अञ्चलगच्छ नरिंद। अईया गाइसिउं ए अञ्चलगच्छ नरिंद॥१॥ लाखणदेवि उदार जाइउ सुत सविचार। धन धन राजकुमार, आदरिउ सूरिपयभार // वंदिसिउं ए श्री जयकेसरिसूरि। अईया वंदिसिउं ए अञ्चलगच्छ नरिंद॥ 2 // देवसीय साह मल्हार, अञ्चलगच्छ सिणगार। पूरव रिषि आचार, पालई ए निरतीचार॥ सखि गाजइ ए गणहर मुणिवर थाटि। अईया गाजइ ए अञ्चलगच्छ नरिंद॥३॥ गुरु गोयम अवयार, शासन तणउ आधार। जाणइ सयल विचार, गुरुयडि गुण भंडार // सखि दीपइ ए दसदिसि कीरति जास। अईया दीपइ ए अञ्चलगच्छ नरिंद॥ 4 // गुरु मुख पूनिम चंद, दीठइ परमाणंद। रंजण गंगनरिंद, सेव करई सूरिंद॥ सखि प्रतपउ ए अम्ह गुरु जां जगि सूर। अईया प्रतपउ ए अञ्चलगच्छ नरिंद॥५॥ [इति] श्री गुरु भास (2) कवि आस प्रणीत आज घरि घरिइं वधामणां, हरख लइ चतुर्विध संघ ए। आरे श्री विधिपक्ष गच्छनायक, जयवंत जयकेसरिसूरिंद रे॥ मिलउ सहेली सुगुरु तणा गुण गाउ ए। कनक थाल मोतीडां भरि जयकेसरिसूरि वधावउ रे॥१॥ // मिलउ सहेली। आंचली॥ जिम तारायण चांदलउ, तिम मुखि अमीय झरंतू ए। सूरि श्रीजयकेसरिसुगुरु अम्ह तरणिवरि तपंतू रे॥२॥ मिलउ सहेली॥ सुललित वाणी सुणीजइ, श्रवणि अमीरस पीजइ रे। श्रीजयकेसरिसूरि तरणतारण सिरि लुंछणडां करीजइ रे॥ 3 // मिलउ सहेली॥ 226 लेख संग्रह Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस भणति अईसा सुगुरु तुम्ह जयउ संघपति आस धीर तनू रे। संघपति.महिपाल जयपाल, जयकेसरिसूरि प्रसन्नू रे॥ 4 // मिलउ सहेली॥ [इति] श्री गुरु भास (3) हरसूर प्रणीत ऊलट अंगि अपार कामिनि करउ सिणगार मोतीय थाल भरी वधावउजी। सहीए अम्ह सुहगुरु आइला श्रीजयकेसरिसूरी। सहीए.॥ 1 // आ.। अहंव सूहव आवउ माणिक चउक पूरावउ। गछनायक गुण गाउजी। सहीए.॥२॥ जयकित्तिसूरि पाटोधर कलि गोयम अवतार। तरणतारण पाय सेवउजी। सहीए.॥३॥ हरसूर भणइ सुवचन साह देवसी तन। धन संघ प्रसन्नूजी। सहीए.॥४॥ [इति] श्री गुरु गीत (4) चालि सही गुरु वंदीइ पहिरी नव सिणगार। गछ नरेसर भेटीइ, जिम हुई जय जयकार॥ वेगि वधावउ रे सुंदरी, मोती चउक पूरेवि। सरीसर जयकेसरी. अविहड भाव धरेवि॥१॥ वेगि वधावउ रे। जइ गुरु दीठा आपणा, चतुर पमइ चउसाल। सफल हूंया अम्ह लोयणा आज सफलिउ सुरसाल // 2 // वेगि.। स्वाद पणइ जिसी सेलडी, जाणे साकर दूध / कइहो मोहण वेलड़ी, वाणी अमीय ति सूध // 3 // वेगि.। सरस सकोमल सीयली, सुणतां सविहुं सुहाइ। वाणी अम्ह गुरु केतली, ऊपम कहणि न जाइ॥ 4 // वेगि.। सारद ससिकर निरमलउ, खीरोदधि सम वान। दीपइ दहदिसि ऊजलु, जगि जस मेरु समान // 5 // वेगि.। जंगम गोयम गणहरू, सीलिई जंबुकुमार। सोहगवइ वरमुणीसरू, विद्यां वइरकुमार॥ 6 // वेगि.। जे गुण गाइं गुरु तणा, आणी हृदय विवेक। पातक जाइं. तेह तणां, पामइं भोग अनेक // 7 // वेगि.। इति श्री पूज्य भास [अनुसंधान अंक-४३] लेख संग्रह 227 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनकमाणिक्यगणि कृत महोपाध्याय अनन्तहंसगणि स्वाध्याय अनन्त अतिशयधारी तीर्थङ्करों, गणधरों, विशिष्ट आचार्यों एवं महापुरुषों के नाम-स्मरण एवं गुणगान से हमारी वाणी पवित्र होती है। श्रद्धासिक्त हृदय से उद्भूत हमारी वाणी भी कर्मनिर्जरा का कारण बनती है। पूर्व में प्रायः करके ये समस्त गुणगान प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में हुआ करते थे, किन्तु समय को देखते हुए आचार्यों ने इन कृतियों को प्रादेशिक भाषाओं में भी लिखना प्रारम्भ किया। मरु-गुर्ज भाषा में रचित काव्यों को गहुँली, भास, स्वाध्याय, गीत आदि के नाम से कहा जाने लगा। प्रस्तुत कृति महोपाध्याय श्री अनन्तहंसगणि से सम्बन्ध रखती है। इस कृति का स्फुट पत्र प्राप्त . . हुआ है, जिसका विवरण इस प्रकार है:- साईज 2643, 1143 से.मी. है। पत्र संख्या 1, पंक्ति संख्या कुल 17 है। अक्षर लगभग प्रति पंक्ति 45 हैं। लेखन संवत् नहीं दिया गया है, किन्तु १६वीं सदी का अन्तिम चरण प्रतीत होता है। स्तम्भतीर्थ में लिखी गई है। भाषा मरु-गुर्जर है। कई-कई शब्दों पर अपभ्रंश का प्रभाव भी नजर आता है। इसके कर्ता श्री कनकमाणिक्यगणि हैं। इनके सम्बन्ध में किसी प्रकार का कोई इतिवृत्त प्राप्त नहीं है। महोपाध्याय श्री अनन्तहंसगणि प्रौढ़ विद्वान् थे, और श्री जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य थे। इस रचना के अनुसार तपगच्छपति श्री लक्ष्मीसागरसूरि ने इनको उपाध्याय पद प्रदान किया था और श्री सुमतिसाधुसूरि के विजयराज्य में विद्यमान थे। इस कृति के प्रारम्भ में उपाध्याय श्री अनन्तहंस गणि के गुण-गणों का वर्णन किया गया है। लिखा गया है कि - ये जिनशासन रूपी गगन के चन्द्रमा हैं, त्रिभुवन को आनन्द प्रदान करने वाले हैं, नेत्रों को आनन्ददायक कन्द के समान हैं। मान रूपी मद का निकन्दन करने वाले हैं। उपाध्यायों में श्रेष्ठ राजहंस हैं। सुधर्मस्वामी के समान नाम ग्रहण करने से नवनिधि प्राप्त होती है। इनके दर्शन से परमानन्द, सुख-सौभाग्य और सत्कार की प्राप्ति होती है। इनके गुण मेरु पर्वत के समान हैं और वचनामृत सोलह कलापूर्ण चन्द्रमा के समान हैं / स्वरूपवान हैं / ग्यारह अङ्ग को धारण करने वाले हैं। आगम, छन्द, पुराण के जानकार हैं / तपागच्छ को दीपित करने वाले हैं / कामदेव को जीतने वाले हैं, और मान-मोह का निराकरण करने वाले हैं। पूर्व ऋषियों के समान अनुपम आचार और संयम को धारण करने वाले हैं। जिस प्रकार आषाढ़ की घनघोर वर्षा से पृथ्वी प्रमुदित होती है, उसी प्रकार इनकी सरस वाणी रूपी झिरमिर से सब लोग प्रमुदित होते हैं। छ8 पद्य से कवि ऐतिहासिक घटना की ओर इंगित करता है। 228 लेख संग्रह Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईडर नगर के अधिपति महाराजा भाण अच्छे कवि थे और कवियों का सत्कार सम्मान करते थे। सातवें-आठवें पद्य में श्री जिनमाणिक्यसूरि के तप-तेज, संयम का वर्णन करते हुए लिखा है कि श्री अनन्तहंसगणि श्री जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य थे। नवमें पद्य में तपागच्छाधिपति श्री लक्ष्मीसागरसूरि ने अनन्तहंसगणि को उपाध्याय पद प्रदान किया। दसवें पद्य में गच्छपति श्री सुमतिसाधुसूरि जो कि आगमों के ज्ञाता जम्बूस्वामी और वज्र स्वामी के समान थे। उन्हीं के शिष्य ने इस स्वाध्याय की रचना की है। अन्त में कवि कहता है कि जब तक सातों समुद्र, चन्द्र, सूर्य, मेरु, धरणी, मणिधारक सहस्रफणा सर्पराज विद्यमान हैं, तब तक तपागच्छ के प्रवर यतीश्वर श्री अनन्तहंस संघ का मङ्गल करें। - पद्य छः के प्रारम्भ में राजा वल्लभ भाषा उल्लेख है। सम्भवतः यह किसी देशी या राग-रागिणी का नाम होना चाहिए। श्री मोहनलाल दलीचन्द्र देसाई लिखित जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास पैरा नं. 724 में लिखा है:- भाण राजा के समय में ईडर दुर्ग पर सोनीश्वर और पता ने उन्नत प्रासाद बनाकर अनेक बिम्बों के साथ अजितनाथ भगवान की प्रतिष्ठा विक्रम संवत् 1533 में करवाई थी। इसी भाण राजा के राज्यकाल में कोठारी श्रीपाल ने.सुमतिसाधु को आचार्य पद दिलवाया था। अहमदाबाद निवासी हरिश्चन्द्र ने राजप्रिय और इन्द्रनन्दी को आचार्य पद दिलवाया था। अहमदाबाद के मेघमन्त्री ने धर्महंस और इन्द्रहंस को वाचक पद, पालनपुर निवासी जीवा ने आगममण्डन को वाचक पद और ईडर के भाण राजा के मन्त्री कोठारी सायर ने गुणसोम को, संघपति धन्ना ने अनन्तहंस को एवं आशापल्ली के झूठा मौड़ा ने हंसनन्दन को वाचक पद दिलवाया था। श्री देसाई लिखते हैं कि इस ईडर में तीन साधुओं को आचार्य पद, छः को वाचक पद और आठ को प्रवर्तिनी पद पृथक्-पृथक् रूप से प्राप्त हुआ था। अर्थात् उस समय ईडर धर्म की नगरी बनी हुई थी। पैरा नं.७५८ में लिखा है:- अनन्तहंसगणि ने 1571 में दस दृष्टान्त चरित्र की रचना की थी, और पैरा नं. 738 में लिखा है कि संवत् 1570 में अनन्तहंस ने ईडरगढ़ चैत्य का वर्णन करते हुए ईला प्राकार चैत्य परिपाटी लिखी थी। . . इस प्रकार इस कृति से तीन महत्वपूर्ण तथ्य उभर कर आते हैं:- 1. अनन्तहंसगणि श्री जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य थे, 2. श्री लक्ष्मीसागरसूरि ने अनन्तहंस को उपाध्याय पद प्रदान किया था और 3. सुमतिसाधुसूरि के शिष्य कनकमाणिक्यगणि ने इस स्वाध्याय की रचना की थी। तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ 67 के अनुसार श्री जिनमाणिक्यसूरि, श्री लक्ष्मीसागरसूरि के शिष्य थे। श्री लक्ष्मीसागरसूरि ५३वें पट्टधर थे। इनका जन्म 1464, दीक्षा 1477, पन्यास पद 1496, वाचक पद 1501, आचार्य पद 1508, गच्छनायक पद 1517 में प्राप्त हुआ था और सम्भवतः 1541 तक विद्यमान रहें। सुमतिसाधुसूरि ५४वें पट्टधर थे और इनको आचार्य पद श्री लक्ष्मीसागरसूरि ने प्रदान किया था। इनका जन्म संवत् 1494, दीक्षा संवत् 1511, आचार्य पद 1518 और स्वर्गवास संवत् 1551 में हुआ था। विशेष कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। यह निश्चित है कि अनन्तहंसगणि को उपाध्याय पद विक्रम संवत् 1525 लेख संग्रह 229 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . से 1535 के मध्य में प्राप्त हो चुका था। इनके उपदेश से 1529 में लिखित शिलोपदेश माला की प्रति पाटण के भण्डार में हैं। इस रचना को ऐतिहासिक रचना मानकर ही प्रस्तुत किया जा रहा है: महोपाध्याय अनन्तहंसगणि स्वाध्याय जय जिणशासण-गयणचन्द, तिहूअण-आणन्दण। जय जण-नयणानन्द-कन्द, मदमान-निकन्दण // उवझाया सिरि रायहंस-अवयंस भणीजइ। मुणिवर श्रीय अनन्तहंस-गुण किम्पि थुणीजइ॥१॥ दक्षिणी ढाल ए सुणिवरू ए सोहमसामि नामिइ नवनिधि पाई। तुम दरिसणिए परमाणंद सम्पद सुक्ख सकाराहीइं॥२॥ तुम्ह गुरुअडि ए गुणह पमाण मेरु समाण वखाणीइ। तुम्ह वयणलाए अमीय कलोल सोल कला ससि जाणीइ॥३॥ तुम्ह सूरति ए सहजि सुरंग अंग अग्यार मुखिइ धारइ। एह आगम ए छंद पुराण जाणपणई जणमण हरइ॥ 4 // तपगच्छि दीपिइ मयण जीपइ माण मोह निराकरइ। आदिल ऋषि आचार अनुपम सुपरि संजम मनि धरइ॥ __ आषाढ़ जलधर सधरधार धोरणी जिम विस्तरइ। वरिसन्ति वाणी सरस को नरवर समुभर झिरि मिरि झडि करइ॥५॥ ___राजा वल्लभभाषा धन धन ईडर नयर नाह लीलापति हिन्दु पातसाह। नव कवित विनोद कला सुजांण रंजविउ यस भुपति राय भाण॥६॥ गुरु महिमा महिमण्डलि अनन्त गुरु दिनकर अवनि... वन्त। गुरु तप जप संयम तेजवन्त गुरू पञ्चम कालि प्रतापवन्त // 7 // गुरि विनय विवेक समायरीय गुरि विजुवउ चअल केरिय। गणधर श्री जिनमाणिक्क-पाय तुढे तुम्ह आप्यउ ए पसाय॥८॥ रागिणी राग ता पुण तपगच्छपति सिय लखिमीसागरसूरि। 230 लेख संग्रह Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाँसी आणंद धना-वि.... अनन्तहंस उवझाय पद ठवणइ॥ परिग युगति दाखी नव ए॥९॥ आगमइए जम्बूय वयरकुमार तेह जो मलि एह मुनिवरूए। गच्छपति श्री सुमतिसाधुसूरिन्द सीसरयण मंगलकरूं ए॥ 10 // जां सात सायर ससि दिवायर मेरु अविचल मन्दरो। जा धरइ धरणि बीय भुअबलि सेसफणवय मणिधरो॥ तां लगइ प्रतपउ इणि तपागच्छि पवर एह यती सरो। श्री संघ मंगल करण सहगुरु अनन्तहंस सुहंकरो॥ 11 // इति महोपाध्याय श्रीअनन्तहंसगणिपादानां स्वाध्यायः॥६॥ कतः कनकमाणिक्यगणिभिः॥ श्री स्तम्भतीर्थनगरे। // श्री॥ श्री॥ श्री॥ श्री॥श्री॥ श्री॥ श्री॥ श्री॥ [अनुसंधान अंक-४२] 40 लेख संग्रह 231 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भीमकवि रचित श्री विजयदानसूरि भास आचार्य पुरन्दर श्री विजयदानसूरि, श्री आनन्दविमलसूरि के पट्टधर थे। तपागच्छ पट्टावली के अनुसार विजयदानसूरि ५७वें पट्टधर थे। इनका जन्म 1553 जामला, दीक्षा 1562, आचार्य पद 1587 और 1622 वटपल्ली में इनका स्वर्गवास हुआ था / मन्त्री गलराज, गान्धारीय सा. रामजी, अहमदावादीय श्री कुंवरजी आदि इनके प्रमुख भक्त थे। महातपस्वी थे। इनका प्रभाव खम्भात, अहमदाबाद, पाटण, महसाणा और गान्धारबन्दर इत्यादि स्थलों पर विशेष था। इनके द्वारा प्रतिष्ठित शताधिक मूर्तियाँ प्राप्त हैं। . ___ इनके सम्बन्ध में कवि भीमजी रचित स्वाध्याय का एक स्फुट पत्र प्राप्त है। जिसका माप . . 2641143 से.मी. है, पत्र 1, कुल पंक्ति 15, प्रति अक्षर 52 हैं। लेखन १७वीं शताब्दी है। भास की भाषा गुर्जर प्रधान है। कहीं-कहीं पर अपभ्रंश भाषा का प्रभाव की दृष्टिगत होता है / इस पत्र के अन्त में श्री विजयहीरसूरि से सम्बन्धित दो सज्झायें दी गई हैं। ___ इस कृति में विजयदानसूरि के सम्बन्ध में एक नवीन ज्ञातव्य वृत्त प्राप्त होता है। जिसका यहाँ उल्लेख आवश्यक है: विक्रम संवत् 1612 में आचार्यश्री नटपद्र (संभवत नडियाद) नगर पधारे। संघ ने स्वागत किया। वहाँ का सम्यक्त्वधारी श्रावक संघ बहुत हर्षित हुआ। साह जिणदास के पुत्र साह कुंवरजी के घर आचार्य ने चातुर्मास किया। अनेक प्रकार के धर्मध्यान हुए। मासश्रमण आदि अनेक तपस्याएं हुई। अनेक मार्ग-भूलों को मार्ग पर लाया। भादवें के महीने में वहाँ के समाज ने अत्यधिक लाभ लेते हुए पुण्य का भण्डार भरा / तपागच्छाधिपति श्री आणन्दविमलसूरि के शिष्य विजयदानसूरि दीर्घजीवि हों। श्री लक्ष्मण एवं माता भरमादे के पुत्र ने दीक्षा लेकर जग का उद्धार किया। भीमकवि कहता है कि इनका गुणगान करने से संसार सागर को पार करते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्यगण विशिष्ट कारणों से श्रावक के निवास स्थान पर भी चातुर्मास करते थे। रचना के शेष भाग में आचार्यश्री के गुणगौरव, साधना, तप-जप-संयम का विशेष रूप से वर्णन विजयदानसूरि के माता-पिता के नामों का उल्लेख तपागच्छ पट्टावली में प्राप्त नहीं है, वह यहाँ प्राप्त है। भक्तजन इसका स्वाध्याय कर लाभ लें इसी दृष्टि से यह भास प्रस्तुत किया जा रहा है.। 232 लेख संग्रह Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजयदानसूरि भास विणजारा रे सरसति करउ पसाउ। श्री विजयदानसूरि गाईइ गच्छनायकजी रे॥ वि. 1 // गुण छत्रीस भण्डार जंगम तीरथ जाण // वि. 2 // आव्यो मास वसन्त व्याहार विदेश गुरु करईं // ग. वि. 3 // जोया. देश विदेश लाभ घणउ गुजर भणी॥ ग. वि. 4 // मुगति थी के क .... पूंजी पञ्च महाव्रत भरी // ग. वि. 5 // पोठी वीस समाधि दुविध धर्म गुणी गुल भरी // ग. वि. 6 // सुमति गुपति रखवाल ताहरइ आठइ साथी अति भला॥ ग. वि.७॥ जयणा शंबल साथी जीता दाणी कषाय ते दोहिल्या॥ ग. वि.८॥ संवत् सोल बार नटपद्र नयर पधारिया // ग. वि. 9 // साहामइ संघ पहुँच तिहां श्री संघ वित वेचइ घणउ॥ ग. वि. 10 // घरि घरि उच्छव रङ्ग मङ्गल गाई मानिनी॥ ग. वि. 11 // साटइ पुण्य पवित्र तिहां नवतत्त्व वानी दाखवि॥ ग. वि. 12 // जोई लेज्यो जाण पारखि हुइ ते परखयोग / ग. वि. 13 // बहुरा श्रावक सारा तिहां समकित धारी हरखिआ॥ ग. वि. 14 // ताहारा टाडा मांहि मु.... लति रोकड़ी वस्त घणी // ग. वि. 15 // भरीया पुण्य भण्डार धन नडियाद सोहामणुं // ग. वि. 16 // साहा जिणदास सुतन्न साहा कुंअरजी घरी चउमासि रया // ग. वि. 17 // आगली आव्यउं चउमासी वस्तणुं फरकुं थयुं // ग. वि. 18 // तप जप पोसह नीम बहु उपधान ते आदरयां // ग. वि. 19 // मासखमण मन रङ्गी पाख छट्ठ अट्ठम घणा॥ ग. वि. 20 // दिनि दिनि अधिकउ लाभ भूलां मारगि लाइया॥ ग. वि. 21 / / ताहरइ वस्तु अनेक भाईग होसी ते वहुरसि (वहोरशे) // ग. वि. 22 // ताहरा विणजु मझारी खोटि न आवइ खरचतां // ग. वि. 23 // ताहरइ तप भण्डार वावरता वाधइ घणूं॥ ग. वि. 24 // दिन दिन बिपरवेस उभयां पडिकमणु करुं॥ ग. वि. 25 // -- लेख संग्रह 233 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित उघराणी एह नाणुं नीमन नवकार-नुउं / ग. वि. 26 // भाद्रवडइ घणउ लाभ पुण्य तणुं पोतुं भरिउं॥ ग. वि. 27 // ताहारउ भलउ रे वाणउत्र! विमल दान गुण आगलउ॥ ग. वि. 28 // तपगच्छ केरउ राय श्री आणंदविमलसूरि गुरु भला // ग. वि. 29 // तास सीस सुपवित्र श्री विजयदानसूरि जीवउ घणउं // ग. वि. 30 // धन-धन भावड़ तात धन धन भरमादे माउलि // ग. वि. 31 // धन-धन लखमण पुत्र जीणइ दीक्षा लई जग तारीयउ॥ ग. वि. 32 // भीम भणइ भगवंत भजसिइ ते भजसि इव जलतर्यां // ग. वि. 33 // इति श्री विजयदानसूरि भास [अनुसंधान अंक-४२]. 234 लेख संग्रह Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हीरविजयसूरि सज्झाय 'हीरला' के नाम से समाज प्रसिद्ध जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि के नाम से कौन अपरिचित होगा? तपागच्छ पट्टावली के अनुसार ये ५८वें पट्टधर थे और श्री विजयदानसूरि के शिष्य थे। इनका जन्म संवत् 1583 प्रह्लादनपुर में हुआ था। पिता का नाम कुंरा और माता का नाम नाथी था। संवत् 1596 पत्तननगर में दीक्षा, 1607 नारदपुरी (नाडोल) में पण्डित पद, 1608 में नारदपुरी में वाचक पद, 1610 सिरोही में आचार्य पद और 1622 में पट्टधर प्राप्त हुआ था। संवत् 1652 में इनका स्वर्गवास हुआ था। सम्राट अकबर प्रतिबोधक आचार्य के रूप में इनका नाम विश्व विख्यात है। जगद्गुरु पद सम्राट अकबर ने ही प्रदान किया था। इनका विस्तृत जीवन चरित्र जानने के लिए पद्मसागर रचित जगद्गुरु काव्य, शान्तिचन्द्रोपाध्याय रचित कृपारस कोष, श्री देवविमल रचित हीरसौभाग्य काव्य, कविवर ऋषभदास रचित हीरविजयसूरि रास और श्री विद्याविजयजी रचित सूरीश्वर अने सम्राट द्रष्टव्य है। इन दोनों सज्झायों का स्फुट पत्र प्राप्त है, जिसकी माप 2641143 से.मी. है, पत्र 1, कुल पंक्ति 13, प्रति अक्षर 52 हैं। लेखन १७वीं शताब्दी है। भास की भाषा गुर्जर प्रधान है। ये दोनों सज्झायें श्री विजयदानसूरि स्वाध्याय के साथ ही लिखी हुई हैं। - प्रथम सज्झाय का कर्ता अज्ञात है। पाँच गाथाओं की इस सज्झाय में कर्ता ने अपने नाम का उल्लेख नहीं किया है। केवल हीरविजयसूरि के गुणों का वर्णन है। प्रारम्भ में शान्तिनाथ सरस्वती देवी को प्रणाम कर श्री हीरविजयसूरि की स्तुति करूँगा, यह कवि प्रतिज्ञा करता है। श्री आनन्दविमलसूरि के पट्टधर और श्री विजयदानसूरि के ये शिष्य थे। समता रस के भण्डार थे। भविक जीवों के तारणहार थे। नर-नारि वृन्द उनके चरणों में झुकता था। देदीप्यमान देहकान्ति थी। मधुर स्वर में व्याख्यान देते थे। अनेक मनुष्यों, देवों * और देवेन्द्रों के प्रतिबोधक थे। चौदह विद्या के निधान थे। ऐसे श्री विजयदानसूरि के शिष्य करोड़ों वर्षों तक जैन शासन का उद्योत करें। इस कृति में सम्राट अकबर का प्रसङ्ग नहीं है। अतः यह रचना संवत् 1639 के पूर्व की। दूसरे सज्झाय की रचनाकार कौन हैं? अस्पष्ट है। गाथा 9 के अन्त में लिखा है:- 'श्री विशालसुन्दर सीस पयम्पइ' इसके दो अर्थ हो सकते हैं। श्री हीरविजयसूरि के शिष्य विशाल सुन्दर ने इसकी रचना की है। अथवा विशालसुन्दर के शिष्य ने इसकी रचना की है। यह कृति भी सम्राट अकबर के सम्पर्क के पूर्व ही रचना है। - इसमें 10 गाथाएं हैं। प्रत्येक में आचार्य के गुणगों का वर्णन हैं / गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है:- श्री हीरविजयसूरि जैन शासन के सूर्य हैं, गुण के निधान हैं, तपागच्छ समुद्र के चन्द्रमा हैं / विनयपूर्वक मैं उनके चरणों को नमस्कार करता हूँ। देवेन्द्र के समान ये गच्छपति हैं। अपने विद्यागुण से इन्द्र जेता हैं। जग में जयवन्त हैं, महिमानिधान हैं, निर्मल नाम को धारण करने वाले हैं। शास्त्र समूह के जानकार हैं। - लेख संग्रह 235 16 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यम, नियम, संयम, विनय, विवेक के धारक हैं। लक्षणों से सम्पन्न हैं / सर्वदा ज्ञान का दान देते हैं / अपयश से दूर हैं। सुख-सौभाग्य की वल्ली हैं। नयनाह्लादक हैं। गुणों के धाम हैं। यशस्वी हैं। काम को पराजित . करने वाले हैं। अन्य दर्शनी भी देखकर आनन्द को प्राप्त होते हैं। सूत्र सिद्धान्तों के जानकार हैं। नर-नारि राजाओं को प्रतिबोध देने वाले हैं। क्रोध रहित हैं। उपशम के भण्डार हैं। शत्रु रहित हैं। भव्य जनों के सुखकारी हैं। गुरु प्रसाद से परमानन्द के धारक हैं। ऐसे पञ्चाचार धारक बृहस्पति तुल्य श्री हीरविजयसूरि जब तक मेरु पर्वत, गगन, आकाश, दिवाकर विद्यमान हैं, तब तक जिनशासन का उद्योत करें। दोनों सज्झायें प्रस्तुत हैं: श्री हीरविजयसूरि सज्झाय प्रणमी सन्ति जिणेसर राय, समरी सरसति सामिणि पाय। थुणसिउं मुझ मनि धरी आणन्द, गुरु श्री हीरविजय सूरिन्द // 1 // श्री आणन्दविमलसूरीसर राय, श्री विजयदानसूरि प्रणमुं पाय। तास सीस सेवइ मुनिवृन्द, गुरु श्री हीरविजय सूरिन्द॥ 2 // समतारस केरु भण्डार, भविक जीवनिइ तारणहार। पाय नमी नर नारि वृन्द, गुरु श्री हीरविजय सूरिन्द॥३॥ देह कान्ति दीपइ जिम भाण, मधुरी वाणी करइ वखाण। पडिबोहि सुर नर देविन्द, गुरु श्री हीरविजय सूरिन्द // 4 // चउदह विद्या गुण रयणनिधान, वाणी सयल सनाव्या आण। श्री विजयदानसूरीसर सीस, प्रतिपउ एह गुरु कोडि वरीस // 5 // (इति) श्री हीरविजयसूरि सज्झाय श्री विशालसुन्दर शिष्य रचित श्री हीरविजयसूरि सज्झाय श्री जिनशासन भासन भाणू, श्री गुरु गिरिमा गुणह निहाणु। श्री तपगच्छ रयणायर चन्द, प्रणमुं हीरविजयसूरिन्द // 1 // विनय करी तुझ प्रणमुं पाय, रायइ गच्छपति जिम सुरराय। विद्या गुणि जीतउ सुर इन्द्र, प्रणमुं हीरविजयसूरिन्द // 2 // जगि जयवन्तउ महिम निधान, जयकारी निरमल अभिधान। शास्त्र तणा तुं जाणई वृन्द, प्रणमुं हीरविजयसूरिन्द॥३॥ यम नियमादिक संयमवन्त, विनय विवेक धरइ भगवन्त। लक्षण लक्षित जस मुझ चन्द, प्रणमुं हीरविजयसूरिन्द॥ 4 // दान ज्ञान नुं आपइ सदा, जगि अपयश पसरइ नवि कदा। सुख सोहग वल्लीनउ कन्द, प्रणमुं हीरविजयसूरिन्द // 5 // 236 लेख संग्रह Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयणा नन्दन गुरु गुण धाम, यश पूरित गुरु निर्जित काम। दरसणि भवीअ लहिइ आणंद, प्रणमुं हीरविजयसूरिन्द॥ 6 // सूत्र सिद्धान्त तणी परिलहि, सुधी विधि भवियण नइ कहइ। - रंजइ बहु नर नारी नरिन्द, प्रणमूं हीरविजयसूरिन्द // 7 // रीस-रहित उपशम-भण्डार, रिपूवर्जित मनि जन सुखकार। गुरु पसाई लहुं परमाणंद, प्रणमुं हीरविजयसूरिन्द॥ 8 // इय सुगुणु सुहाकर परम क्षमापर, श्री हीरविजयसूरिन्द वरो। वरवाणी मनोहर सुरगुरु पुरन्दर, सुन्दर पञ्चाचार धरो॥ जा मेरु महीधर गगन दिवायर, तां चिर प्रतपउ एह गुरो। श्री विशालसुन्दर सीस पयम्पइ, जिनशासन उद्योत करो॥९॥ इति श्री हीरविजयसूरि सज्झाय [अनुसंधान अंक-४२] 000 लेख संग्रह 237 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धिविजय रचित नेमिनाथ-भासद्वय आबाल ब्रह्मचारी २२वें भगवान् नेमिनाथ के सम्बन्ध में बहुत साहित्य प्राप्त है। प्राकृत, संस्कृत, भाषा साहित्य में इनसे सम्बन्धित अनेकों कृतियाँ बहुतायत से मिलती हैं। श्री वादीदेवसूरि के शिष्य श्री रत्नप्रभसूरि रचित नेमिनाथ चरियं, उदयसिंहसूरि रचित नेमिनाथ चरियं, श्री सूराचार्य रचित द्विसंधान काव्यं, श्री कीर्तिराजोपाध्याय रचित नेमिनाथ महाकाव्यं, विक्रम रचित नेमिदूतम् पादपूर्ति साहित्य, प्रभृति और भाषा साहित्य में रास, गीत, भजन, बारहमासा आदि विपुल कृतियाँ प्राप्त हैं। भास-द्वय के रचयिता सिद्धिविजय हैं / पट्टावली समुच्चय पृ. 109 के अनुसार हीरविजयसूरि के शिष्य कनकविजय-शीलविजय के शिष्य सिद्धिविजय हैं और शिष्य कृपाविजय और प्रशिष्य महोपाध्याय मेघविजय इनके ही हैं। अन्य कोई इनके सम्बन्ध में परिचय प्राप्त नहीं होता है। भास-द्वय का एक स्फुट पत्र प्राप्त है। जो १७वीं शताब्दी का ही लिखित है। जिसका माप .: 24.3410.4 से.मी. है, पत्र 1 है, दोनों भासों की कुल पंक्ति 13 तथा प्रति अक्षर 42 हैं। अक्षर बड़े और सुन्दर हैं। भाषा गुर्जर है। इन दोनों भाषों का सारांश इस प्रकार है: विवाह हेतु गए हुए नेमिनाथ ने जब पशुओं की पुकार सुनी तो रथ को वापिस मोड़ लिया। उस छबीले नेमिनाथ के नयन कठोर हो गए। दूसरे पद्य में आषाढ़ मास के आने पर काले बादल छा गए हैं और घनघोर वर्षा हो रही है। तीसरे पद्य में सावन का महिना और उस वर्षा की छाया चल रही है। भादवे के महिने में वही छाया स्नेह को जागृत करती है और आसोज के महिने में नेत्रों में आंसू ढलकाती हैं। चौथे पद्य में नेमिनाथ की काया सुन्दर है। वह इतनी माया क्यों कर रहे हैं और मेरे हृदय में विरहानल की आग को क्यों प्रदीप्त कर रहे हैं। पाँचवें पद्य में उनकी कर्त्तव्यशीलता को देखकर मेरा चित्त चमत्कृत हो रहा है। नेमीश्वर मुझे छोड़ गए हैं और मैं किसके समक्ष अपने हृदय की बात कहूँ। छठे पद्य में जिसने भी नेमिनाथ को प्राप्त कर लिया है, वैसे का जग में आना भी धन्य है। इस प्रकार राजुल विलाप करती है। सातवें पद्य में कवि सिद्धिविजय कहता है कि यह भव परम्परा की डोर टूट गई है। नेमिनाथ को केवलज्ञान होने पर राजुल ने भी प्रभु को प्राप्त कर लिया है। दूसरे भास में राजुल अपनी सखी बहिन को कहती है- सुनो मेरी बहिन! मेरा वही दिन धन्य होगा जब मैं इन लोचनों से उनके दर्शन करूंगी। अभी तो मैं जल बिना मछली की तरह तड़फ रही हूँ। विरहानल मेरे देह को जला रहा है। मैं मन की बात किसे कहूँ? मैं पूछती हूँ कि यहाँ तोरण तक आकर वापस लौटने का क्या कारण है? निरंजन नेमिनाथ का ध्यान एवं विलाप करती हुई राजुल सिद्धि सुख को प्राप्त करती है। ये दोनों भास अद्यावधेि अप्रकाशित हैं और अप्राप्त भी हैं / सिद्धिविजयजी के प्रशिष्य श्री महोपाध्याय मेघविजय के सम्बन्ध में "राजस्थान के संस्कृत महाकवि एवं विचक्षण 238 लेख संग्रह Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभा सम्पन्न ग्रन्थकार महोपाध्याय मेघविजय" श्री मरुधरकेसरी मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ एवं महोपाध्याय मेघविजय प्रणीत नवीन दुर्लभ ग्रन्थ धर्मलाभ शास्त्र लेख अनुसंधान अंक 30 में देखें। सिद्धिविजयजी की केवल चार ही लघु कृतियाँ प्राप्त हैं। दो नेमिनाथ भास जो प्रस्तुत हैं और दो भास श्री विजयदेवसूरि से सम्बन्धित हैं। ये दोनों भास विजयदेवसूरि के परिचय से साथ प्रकाशित किए जाएंगे। इस कवि की अन्य कोई कृतियाँ मुझे प्राप्त नहीं हुई हैं। दोनों भास प्रस्तुत हैं: (1) नेमिनाथ-भास परणकुं नेमि मनाया तब पसुअ पुकार सुणाया। रथ फेरि चले यदुराया छबीले नेमिजिणिंद न आया॥ 1 // नीके नयन कठोर भराया, छबीले नेमि जिणिंद न आया॥ आंचली। उनयु जलधर जब आया धनश्याम घटा झड़ लाया // इसउ मास आसाढ सोहाया छबीले नेमिजिणिंद न आया // 2 // सावण की लागी छाया भाद्रवडई नेह जगाया। आसूडइ आंसु भराया, छबीले नेमिजिणिंद न आया // 3 // नेमिसरनि वरकाया काहे इतनी करी माया। विरहानल मोहि लगाया छबीले नेमिजिणिंद न आया॥४॥ मोहि चित्त चमक्कउ लाया नेमीसर छोडि सधाया। अब काह करुं मोरि माया छबीले नेमिजिणिंद न आया॥५॥ जिणइं नेम जिणेसर पाया धनसो जन जगमां आया। इम बिलवति राजुल राया छबीले नेमिजिणिंद न आया // 6 // भव संतति दोरक पाया राजुल पहु केवल पाया। मुनि सिद्धिविजय गुण गाया छबीले नेमिजिणिंद न आया // 7 // इति श्री नेमिनाथ भास समाप्त (2) नेमिनाथ-भास . सुणउ मेरी बहिनी काह करीजइ रे, नेमि चलउ हइंकु दिन लीजइ रे॥ सुणउ मेरी बहिनी // 1 // उन दरिसन विन लोचन खीजई रे, युं सरजल विन सफरी थीजइं रे॥ सुणउ मेरी बहिनी // 2 // लेख संग्रह 239 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरहानल मुझ देह दहीजइ रे, मनकी वात कहो क्या कीजइ रे॥ सुणउ मेरी बहिनी॥३॥ तोरण थी जउ फेरी चलीजइ रे, तउ किन कारण इहां आईजइ रे॥ सुणउ मेरी बहिनी॥४॥ जउ उनकी कब बात सुणिजइ रे, हार वधाइउ उसकुं दीजइ रे॥ सुणउ मेरी बहिनी॥५॥ सोवन जीहा तास घड़िजइ रे, जउ उन विय वात सुणीजइ रे॥ सुणउ मेरी बहिनी॥६॥ नेमि जिरंजन ध्यानकरी जइ रे, सिद्धिविजय सुख करतल लीजइ रे॥ सुणउ मेरी बहिनी॥७॥ इति श्री नेमिनाथ भास समाप्त [अनुसंधान अंक-४२] am 240 लेख संग्रह Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धिविजय रचित श्री विजयदेवसूरि भासद्वय श्री विजयदेवसूरि भासद्वय के प्रणेता श्री सिद्धिविजय महोपाध्याय श्री मेघविजय के प्रगुरु (दादागुरु) थे और जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरिजी के प्रशिष्य थे। गुरु का नाम शीलविजय था। सिद्धिविजयजी का समय १७वीं शताब्दी का अन्तिम चरण या १८वीं शताब्दी का प्रथम चरण माना जा सकता है। इनके द्वारा प्रणीत अन्य कृतियाँ अन्य भण्डारों में अवश्य ही प्राप्त होंगी, किन्तु मुझे अभी तक चार लघुकृतियाँ ही प्राप्त हुई हैं:- 1-2. नेमिनाथ भास और 3-4. श्री विजयदेवसूरि भास। इसका स्फुट पत्र प्राप्त है, जिसमें चारों ही कृतियाँ एक साथ ही लिखी गई हैं। इस पत्र की माप 24.3410.4 से.मी. है, पत्र 1 है, दोनों भासों की कुल पंक्ति 15 तथा प्रति अक्षर 42 हैं। लेखन समय सम्भवतः १७वीं सदी का अन्तिम चरण है। - शासन प्रभावक विजयदेवसूरि प्रसिद्धतम आचार्य हुए हैं। ये जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि के प्रशिष्य तथा श्रीविजयसेनसूरि के पट्टधर थे। विक्रम संवत् 1634 इलादुर्ग में जन्म, संवत् 1643 राजनगर में श्री हीरविजयसूरि के कस्कमलों से माता के साथ दीक्षा, 1655 सिकन्दरपुर में पन्यास पद, 1656 स्तम्भतीर्थ में उपाध्याय पद और सूरिपद प्राप्त हुआ एवं श्री विजयसेनसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् 1671 में भट्टारक पद प्राप्त किया। संवत् 1671 में इनका स्वर्गवास हुआ। ___ जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि के पश्चात् विजयदेवसूरि की दिग्गज् आचार्यों में गणना की जाती है। विजयदेवसूरि रचित कोई साहित्य प्राप्त हो ऐसा ज्ञात नहीं है, किन्तु इनसे सम्बन्धित खरतरगच्छीय श्रीवल्लभोपाध्याय रचित (र.सं. 1687 के आस-पास) विजयदेव माहात्म्य और श्री मेघविजयजी रचित ''श्रीतपगच्छपट्टावलीसूत्रवृत्यनुसंधानम् के अनुसार इनका संक्षिप्त जीवन चरित्र प्राप्त होता है। सम्राट अकबर के सम्पर्क में ये आए हों ऐसा कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, किन्तु सम्राट जहांगीर के समय में इनका प्रभाव अत्यधिक बढ़ा था। जहांगीर इनको बहुत सम्मान देता था और गुरु के रूप में स्वीकार करता था। यही कारण है कि संवत् 1687 माण्डवगढ़ में श्री जहांगीर ने इनको महातपाविरुद प्रदान किया था। किन्तु, खटकने वाली बात यह है कि इन्हीं के कार्यकाल में विजयदेवसूरि एवं विजयआनन्दसूरि शाखाभेद हुआ। श्रीदर्शनविजयजी ने विजयतिलकसूरि रास में जिस अशालीन घटना का वर्णन किया है, वह विचारणीय अवश्य है। खरतरगच्छीय श्री ज्ञानविमलोपाध्याय के शिष्य श्रीश्रीवल्लभोपाध्याय ने तो इनका संकेत मात्र ही किया है और सम्भवतः इनकी यशोकीर्ति से प्रभावित होकर श्री वल्लभोपाध्याय ने विजयदेव माहात्म्य रचा था। संवत् 1687 के पश्चात् किसी घटना का उल्लेख नहीं है। इसी वर्ष इस माहात्म्य को पूर्ण कर दिया। लेख संग्रह 241 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्भ तीर्थ, इलादुर्ग, घोघाबन्दर, द्वीप, सिरोही, माण्डवगढ़, मेड़ता आदि अनेक स्थानों पर आचार्यश्री ने प्रतिष्ठा करवाई थी। इन्हीं के उपदेश से जाबालीपुर (जालोरदुर्ग) तीर्थ पर विशाल चैत्य का निर्माण, प्रतिष्ठादि हुए थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठित लेख सहित शताधिक मूर्तियाँ आज भी प्राप्त हैं / विजयदेवसूरि के पट्टधर विजयसिंहसूरि हुए, जिनका जन्म 1644, दीक्षा 1654, वाचकपद 1672 और सूरिपद 1681 में प्राप्त हुआ था। स्वर्गवास 1709 में हो गया था। किसनगढ़ के दीवान श्री रायसिंहजी निर्मापित का चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर आज भी इनका स्मरण करा रहा है। स्वपट्टधर आचार्य विजयसिंहसूरि का स्वर्गवास होने पर श्री विजयदेवसूरि ने उनके पट्ट पर विजयप्रभसूरि को बिठाया था। ___ सिद्धिविजय रचित विजयदेवसूरि भासद्वय का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है: महीमण्डल के राजवी श्री विजयदेवसूरि यहाँ पधारे हैं। सब उनको नमस्कार कर रहे हैं / उनको वन्दन करने के लिए चलें। दूसरे पद्य में सोलह शृंगारों से सुशोभित महिलाएँ भाल पर तिलक कर, मोतियों का थाल लेकर उनके स्वागत के लिए चलीं। गुरु के सन्मुख कुमकुम, केसर, केवड़ा के साथ घोल बनाकर गुरु के सन्मुख रंगोली करती हैं / चौथे पद्य में सभी सोहागिनी सुन्दर स्त्रियाँ नवरंग वस्त्र धारण कर एक किनारे खड़ी होकर गुरुजी के गुणगान कर रही हैं। सिद्धिविजय कहता है कि विजयदेवसूरि का नाम निरन्तर गाने से शिवपद प्राप्त होता है। दूसरे भास में - सरस्वती को नमस्कार कर कवि गुरु विजयदेवसूरिन्द के गीत गाने की प्रतिज्ञा करता है, जिस प्रकार चन्द्र को देखकर चकोर हर्षित होता है उसी प्रकार आचार्य को देखकर आनन्दित होते हैं और उनके चरणों में गुरु वन्दन करते हैं। दूसरे पद्य में विजयदेवसूरि मुनियों में चन्द्रमा के समान हैं, और कुमतियों को समूल नष्ट करने वाले हैं। बाल्यावस्था में जिन्होंने संयम धारण किया और गुरु के पास में शुद्धाचार का पालन किया ऐसे आचार्य हमें भवसागर में डूबते हुए भवियों को तारणहार हैं। तीसरे पद्य में सुमति-गुप्ति रूपी रमणियों के साथ रमण करने वाले हैं, इन्द्रियों का दमन करने वाले हैं, मुनियों के ताज हैं। इनकी तुलना कौन कर सकता है? ये शिवपुर को प्रदान करने वाले हैं। जिनकी दन्त पंक्ति सोने की मेख से जटित है। उनको देखकर मन उल्लसित होता है, ऐसे गुरु मुझे मिले हैं, भव समुद्र के फेरे से बचाने वाले हैं, सिद्धिविजय कहता है कि ये मेरे गुरु जब तक पृथ्वी है तब तक इनकी यशोकीर्ति बढ़ती रहे। (1) श्री विजयदेवसूरि भासद्वय सहगुरु आव्या मई सुण्या रे चाली सखी एक वार / महीमण्डल नउ राजीउ रे प्रणमइं सुर नर नारि रे॥ बहिनी वन्दीजइं गुरुराज॥ 1 // जिम सीझइ सघला काज रे बहिनी वन्दीजइं गुरुराज। सोल शृंगार सोहावती रे लावती मोतिनउ थाल। भाल तिलक रलियामणो रे भामणउ भगती रसाल रे॥ ब. 2 // कुंकुंम केसर केरडउ रे कीजउ बहुल उद्योत। चोल तणी परि रातड़उ रे गुर आगई रंगरोल रे / / ब. 3 // 242 लेख संग्रह Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवि सोहासणी सुन्दरी रे ऊभी एकणि तीर। गुण गावई गुरुजी तणा रे पहिरी नवरंगचीर रे॥ ब. 4 // श्री विजयदेवसूरिसरु रे सिद्धिविजय नउ सामि। नाम निरन्तर गाईई रे पाईइं सिवपद ठाम रे॥ ब. 5 // इति श्री विजयदेवसूरीश्वर भास समाप्त (2) श्री विजयदेवसूरि भासद्वय सुरसति मात नमी करी गुण गासुं रे विजयदेवसुरिंद रे। चंद चकोर तणी परि जस दीठई रे होवइ आणंद रे॥ ___ चरण कमल गुरु वन्दउ रे॥१॥ मुनिचन्दउ रे विजयदेवसूरीन्द, प्रभु टालइ रे कुमत्यां ना कन्द। चरण कमल गुरु वन्दउ रे॥ आंकणी बालपणइ जिणई आदर गुरु पासई रे रूडउ संयमभार। भवसायर मांहि बूढुंता भविअण नइरे ऊतारण हार // च. 2 // सुमति गुपति रमणी रमई वली जे दमई रे इंद्री मुनिताज। काज सरई दरिसन थकां गुर आपइं रे शिवपुर नउ राज॥ च.३ // दन्ति पन्ति हीरे जड़ी सोवन घड़ी रे विचइ रूड़ी रेख। पेखि सखि मनि उलसई कमलाकर रे जिम सूरज देखी॥ च. 4 // सोभागी मुझ मलउ सखि तउ टलउ रे भवसायर फेर। सिद्धिविजय कहई तां तपउ गुरु माहरु रे जाँ महियल मेर। च. 5 // मुनिचंदउ रे विजय देव सुरीन्द॥ इति श्री विजयदेवसूरीश्वर भास समाप्त [अनुसंधान अंक-४३] 000 लेख संग्रह 243 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभोपाध्यायप्रणीतम् चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थलम् . व्याकरण और न्यायशास्त्र आदि ग्रन्थों के कुछ कठिन विषयों पर शास्त्र चर्चा/शास्त्रार्थ/विचार- . विमर्श करना यह विद्वानों का दैनिक व्यवसाय रहा है। किसी भी विषय को लेकर अपने पक्ष को स्थापित करना और प्रतिपक्ष का खण्डन करना यह कर्त्तव्य सामान्य सा रहा है। इसी प्रकार व्याकरण में स्वर 14 हैं, अधिक हैं या कम। इसके सम्बन्ध में श्रीश्रीवल्लभोपाध्याय ने इस चर्चा में भाग लिया और सारश्वत व्याकरण और अन्य ग्रन्थों के आधार पर 14 स्वर ही स्थापित किए। कवि-परिचय अनुसंधान अंक 26, दिसम्बर 2003 में श्रीवल्लभोपाध्याय रचित मातृका श्लोकमाला के प्रारम्भ में उनका संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इनका और इनकी कृतियों का विशेष परिचय जानने के लिए अरजिन स्तवः और हैमनाममालाशिलोच्छः में मेरी लिखित भूमिका देखनी चाहिए। जन्म-भूमि इस सम्बन्ध में काफी विचार विमर्श किया जा चुका है। श्री वल्लभ राजस्थान के ही थे यह भी प्रमाणिक किया जा चुका है। व्याकरण जैसे शुष्क विषय पर अ. आ. का अन्तर बतलाते हुए सहजभाव से यह लिखना "आईडा बि भाईडा, वडइ भाई कानउ" यह सूचित करता है कि वे जिस किसी शाला/पाठशाला में पढ़े हों, वहाँ इस प्रकार का अध्ययन होता था, जो कि विशुद्ध रूप से राजस्थानी का ही सूचक है। अर्थात् श्रीवल्लभ (बाल्यावस्था का नाम ज्ञात नहीं) जन्म से ही राजस्थानी थे इसमें तनिक भी संदेह नहीं। अनुसंधान अंक 28 में श्री पार्श्वनाथस्तोत्रद्वयम् भी प्रकाशित हुए हैं। जिनका कि इनकी कृतियों में उल्लेख नहीं था। विषय-वस्तु प्रारम्भ में ही स्वर 14 ही हैं इसकी स्थापना करने के लिए प्रतिवादि से 5 पाँच प्रश्न पूछे हैं: 1. स्वर क्या है अथवा वह शब्द का पर्याय है? 2. पर्याय है तो वह नासिका से उत्पन्न पर्याय है? 3. अथवा स्वरशास्त्र में प्रतिपादित निषादिका अवबोधक है? 4. क्या उदात्तादि का ज्ञापक है? 5. अथवा विवक्षित कार्यावबोधक अकारादि संज्ञा का प्रतिपादक है? इन पाँच विकल्पों को उद्भूत करके इनका समाधान भी दिया गया है: 1. विविध जाति के देवता, मनुष्य, तिर्यंञ्च और पक्षी आदि की विविध भाषाएं सुस्वर, दुस्वर आदि अनेक शब्द पर्याय होते हैं अत: यह स्वीकार नहीं किया जा सकता। 244 लेख संग्रह Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 2. नासिका उद्भूत पर्याय भी स्वीकार नहीं किए जा सकते, क्योंकि यह त्रिइन्द्रिय, पंचेन्द्रीय जीवों में भी संभव होती है। मनुष्यों में शोभन और अशोभन होती है। चन्द्र, सूर्य, स्वरोदय शास्त्र आदि से नासिका स्वर भी अनेक प्रकार के होते हैं, अतः यह भी सम्भव नहीं है। 3. संगीत शास्त्र में निषाद आदि 7 स्वर माने गये है, अत: यह उसके अन्तर्गत भी नहीं आता। 4. उदात्त अनुदात्त प्लुत की दृष्टि से यह भी सम्भव नहीं है। . 5. विवक्षित कार्यावबोधक संज्ञा प्रतिपादक भी नहीं है। इसको सिद्ध करने के लिए नरपतिदिनचर्या ने 16 स्वर स्वीकार किए हैं, किन्तु अनुभूति स्वरूपाचार्य ने सारश्वत व्याकरण में 'अइउऋलुसमानाः' 'उभये स्वराः' 'ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदाः स्वर्णा' ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षराणि का प्रतिपादन करते हुए 14 ही स्वर स्थापित किए हैं, वे हैं:- अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ, इन स्वरों को स्थापित करने के लिए और सारश्वत व्याकरण को महत्ता देते हुए पाणिनि व्याकरण, कालापक व्याकरण, सिद्धहेम व्याकरण, काव्यकल्पलता, अनेकार्थसंग्रह, विश्वप्रकाश, वर्ण निघण्टु, पाणिनि शिक्षा आदि के प्रमाण दिए हैं / ल की दीर्घता को सिद्ध करते हुए पाणिनि व्याकरण का आश्रय लिया है और रामचन्द्र और वासुदेव आदि के मत को अस्वीकार किया है। अर्थात् श्रीवल्लभोपाध्याय स्वर 16 या 21 नहीं मानते हैं अपितु 14 ही मानकर उसकी स्थापना भी करते हैं। रचना-काल प्रस्तुत लघु कृति का नाम श्रीवल्लभोपाध्याय ने चतुर्दशस्वरस्थापन वादस्थल ही रखा है। अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है:- खरतरगच्छ में श्री जिनराजसूरि के विजयराज्य में उपाध्याय ज्ञान विमल के शिष्य 'श्रीवल्लभोपाध्याय ने इस वाद की रचना की है। श्री जिनराजसूरिजी संवत् 1674 में गच्छनायक बने थे अतः - यह रचना भी संवत् 1674 के बाद की है। ॥एँ नमः॥ श्रीसिद्धी भवतान्तरां भगवती भास्वत्प्रसादोदयाद्, वाचां चञ्चुरचातुरी स्फुरतु च प्रज्ञावदाश्चर्यदा। . नव्यग्रन्थसमर्थनोद्यतमति' प्रत्यक्षवाचस्पते विद्वत्पुंस इहाशु शस्यमनसस्तच्छ्रोतु कामस्य च॥१॥ सन्ति स्वराः के कति च प्रतीताः, सारस्वतव्याकरणोक्तयुक्त्या। समस्तशास्त्रार्थविचारवेत्ता, कश्चिद् विपश्चिद् परिपृच्छतीति॥२॥ __पुरातनव्याकरणाद्यनेकग्रन्थानुसारेण सदादरेण। तदुत्तरं स्पष्टतया करोति, श्रीवल्लभः पाठक उत्सवाय॥३॥ ___ इह केचिद् अहङ्कारशिखरिशिखां समारूढाः सारासारविचारकरण-चातुरीव्यामूढाः कूर्चालसरस्वतीति विरुदमात्मनः पाठयन्तः स्वगल्लझल्लरी-झात्कोरण अविद्यानटीं नाटयन्तः सकलशाब्दिकचक्रचक्रवर्त्तिचूडामणिमात्मानं 1. मतिं कै / 2. तद्यथा पाठोऽधिक: कै लेख संग्रह 245 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्यमानाः स्वराणां चतुर्दशसंख्यासत्तां विप्रतिपद्यमाना अतुच्छमात्सर्याद्यनणुगुण मत्कुणतल्पकल्पाः / संकल्पिताऽनल्पविकल्पाः प्रजल्पन्ति जल्पाकाः स्वराः कियन्त? इति वदन्तो वादिनः सानन्दं सादरं प्रष्टव्या भवन्ति / विशिष्टमतिभिः प्रतिवादिभिः। 1. कोऽयं स्वरो नाम? किं शब्दपर्यायः? 2. उत नासिकासमुद्भूतपर्यायः? 3. अथवा निषादादीनामवबोधकः? 4. किमुत उदात्तादीनां ज्ञापकः? 5. अहोस्वित् विवक्षितकार्यावबोधकाऽकारादि- संज्ञाप्रतिपादकः? इति विकल्पपञ्चतयी विषयपञ्चतयी च जनमनांसि क्षोभयन्तीति प्रतिभाति / 1. यदि आद्यस्तर्हि विविधजातीनां सुरनरतिर्यविहगादीनां विविधभाषाभाषकत्वात् सुस्वरदुःस्वरोच्चैर्नीचैरादिभेदभिन्नोऽप्यनेकधा शब्दपर्यायः स्वरोऽवधार्यः / इत्याद्यः॥ 1 // 2. अथ द्वितीयस्तर्हि सोऽपि त्रीन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियजीवानामेव तत्सद्भावाद् द्विविधोऽपि। पुनः शोभनाऽशोभनभेदाभ्यां द्विविधो मनुष्याणामेव। चन्द्र १-सूर्यो 2- च्च 3- नीच 4- तिर्यगादि 5 - लक्षणैरनेकधा स्वरोदयशास्त्रात् नासिकास्वरोऽवगन्तव्यः। इति द्वितीयः॥२॥ 3. अथ चेत् तृतीयस्तर्हि सोऽपि निषाद 1- ऋषभ 2- गान्धार 3- षड्ज 4- मध्यम 5- धैवत 6- पञ्चम 7 इति लक्षणैः तन्त्रीकण्ठोद्भवैः सप्तविधः। यदमरः निषादर्षभगान्धार-षड्जमध्यमधैवताः। पञ्चमश्चेत्यमी सप्त तन्त्रीकण्ठोत्थिताः स्वराः। [ 1.7.1] इति सप्तविधोऽवसेयः। इति तृतीयः। 4. अथ चतुर्थश्चेत्तर्हि उदात्तानुदात्तस्वरितानां त्रैविध्यात् त्रिविधः। यदमर:उदात्ताद्यास्त्रयः स्वराः [ 1.6.4] इति, अकारादीनामेव एते / इति चतुर्थः॥ 4 // अथ पञ्चमो विवक्षितकार्यावबोधकाऽकारादिसंज्ञाप्रतिपादकश्चेत् तर्हि सोऽपि द्विधा, ज्योति:शास्त्रे व्याकरणे च द्विधा दर्शनात्। तत्र ज्योति:शास्त्रानुसारेण षोडशप्रकारः, यदवदत् नरपति-दिनचर्यायां नरपतिदिनचर्याकार: मातृकायां पुरा प्रोक्ताः स्वराः षोडशसंख्यया। इति। तथापि तन्मते कार्यकाले अ इ उ ए ओ पञ्चैवैते कार्यकारिणो ज्ञेयाः। यत् नरपतिदिनचर्याकार: 1. आहोस्वित् कै. 3. पाठो नास्ति जे प्रतौ। 2. स्वरोऽवधार्य: नास्ति जे प्रतौ। 4. एवं नास्ति कै. 246 लेख संग्रह Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृकायां पुरा प्रोक्ताः स्वराः षोडशसंख्यया। तेषां द्वावन्तिमौ त्याज्यौ चत्वारञ्च नपुंसकाः॥ शेषा दश स्वरास्तेषु स्यादेकैकं द्विकं द्विकम्। ज्ञेया अतः स्वराद्यास्ते स्वराः पञ्च स्वरोदये। इति / ऋ ऋ ल ल एतान् चतु:संख्यान् नपुंसकान्, द्वौ अन्तिमौ अं अः इत्येतौ च त्यक्त्वा, अ इ उ ए ओ एते पञ्च कार्यकारिणः स्वराः स्वरोदये ज्ञेयाः। इति ज्योतिःशास्त्रे षोडशप्रकारो अकारादिसंज्ञाप्रतिपादक: स्वरशब्दोऽवगन्तव्यः। .. अथ भो! भो! व्याकरणाद्यनेक-ग्रन्थानुसारेण स्वराः कियन्त इति प्रतिपादयन्ति भवन्तः, तत्र भवन्तः, तर्हि तत्रैवं ब्रूमः अहो व्याकरणाद्यनेकग्रन्थानुसाराणां चतुर्दशसंख्यत्वदर्शनात् चतुर्दश स्वराः। अत्र वादी वदति - नैवम्, अ इ उ ऋतृ समानाः [संज्ञाप्र० 1.] इत्यनेन सूत्रेण अकारादीनां पञ्चानामेव समानसंज्ञाविधानात् / तदनन्तरं ए ऐ ओ औ सध्यक्षराणि [संज्ञाप्र० 3.] ___ इत्यनेन सूत्रेण एकारादीनां चतुर्णां सन्ध्यक्षरसंज्ञाविधानात् / तत उभये स्वराः [ संज्ञाप्र० 4 ] इत्यनेन सूत्रेण अकारादीनां पञ्चानां चतुर्णां च एकारादीनां स्वरसंज्ञाविधानात् नवैव स्वराः, न चतुर्दश स्वराः इति श्रीमदनुभूतिस्वरूपाचार्यवचनात्। अत्र प्रतिवादी वादिनं प्रति वदतिकथं भो विद्वन् ! उभये स्वराः '[संज्ञाप्र० 4.] इति पञ्चवर्णात्मके सूत्रे एतवृत्तौ च 'अकारादयः .. पञ्च, चत्वार एकारादय उभये स्वरा उच्यन्ते।' इति / त्रयोविंशतिवर्णात्मिकायां साक्षात् नवेति पदस्य - अप्रतिपादनात् कथं नवस्वरा इति नियमः कर्तुं शक्यते? . . अत्र वादी वदति 'अकारादयः पञ्च चत्वार एकारादय' 4 इति वृत्तौ नियमस्यैव करणात् नवेति पदस्य ग्रहणे प्रयोजनाभावात्। अत्र 5 प्रतिवादी प्रति वदति नैवम्, नव स्वरा, इत्यङ्गीकरणे दधि आनय, गौरी अत्र, वधू आसनम् इत्यादिषु प्रयोगेषु 'इयं स्वरे' [ स्वरसन्धि 1] 'उ वम्' [ स्वरसन्धि 5] इत्यादिषु सूत्रेषु स्वरे इति पदेन नवानामेव स्वरेण 1. तत्र भवन्तः नास्ति ज जे. प्रतौ 2. व्याकरणेषु अकारादीना स्वराणां कै. प्रतौ। 3. कै. प्रतौ एकारादीनां चतुर्णां सन्ध्यक्षरसंज्ञभिधानात्. तत उभये स्वराः इत्यनेन सूत्रेण / 4. पञ्च चत्वार एकारादयः नास्ति कै. प्रतौ ५.'प्रति' नास्ति कै.। लेख संग्रह 247 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रहणात् / दीर्घानामग्रहणात् ‘इयं स्वरे' 'उ वम्' इत्यादीनां प्राप्तेरभावात् / दध्यानय इत्यादीनामुदाहरणानां सिद्धिर्न स्यात्। अथ चेत्, 'ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदाः सवर्णाः' [संज्ञाप्र० 2.] इत्यनेन सूत्रेण दीर्घग्रहणात् सिद्धिर्भविष्यति। एवं चेत्, तर्हि स्वरसंज्ञाव्याघातात् इयं स्वरे दीर्घ च इतीदृशं सूत्रं स्यात्, न तथा। अतः स्वराः चतुर्दशैव सर्वव्याकरणादिशास्त्रसम्मतत्वात् स्र्वशिष्टप्रमाणत्वाच्च। ननु सरस्वतीविहितसूत्रस्य अनुभूतस्वरूपाचार्यविहि तव्याख्यानस्य च अल्पाक्षरै : समस्तपुराणाव्याकरणसम्मताऽनल्पार्थसूचनात् अइउऋतृसमानाः [ संज्ञाप्र० 1. ] इति सूत्रेण समाना इत्यस्य अयमर्थः- समानं तुल्यं मानं परिमाणं येषां ये समानाः। 1 सत्यम्, उदात्तानुदात्तस्वरितभेदात् त्रयस्तावद् अकाराः। पुनस्ते सानुनासिक-निरनुनासिकभेदात् द्विविधा-केचिदकाराः उदात्तानुदात्तस्वरिताः सानुनासिकाः, केचिदकाराः उदात्तानुदात्तस्वरिताः निरनुनासिकाः। इति अकारः षोढा भिद्यते / एवं दीर्घप्लुतयोरपि प्रत्येकं भेदकथनात् अष्टादशधा भिद्यते अवर्णः। एवं इवर्णादयोऽपि। इत्थं समानपरिमाणत्वयुक्तत्वात् समान- संज्ञा अन्वर्था अकारादीनाभित्यर्थः। ननु एवं सति अकारादीनां पञ्चानामेव समानसंज्ञासद्भावे गङ्गानामित्यादौ दीर्घाकारादीनां समानकार्य न स्यात् इत्याशङ्कां निराकर्तुं अनुक्तामपि समानातिसंख्यां पुराणव्याकरणानुसारिणी प्रमाणयितुं ह्रस्वदीर्घप्लुतैः स्थानप्रयत्नादिभिश्च स्वर्णसंज्ञां ज्ञापयितुं च 'ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदाः सवर्णाः' [संज्ञाप्र० 2.] इति परिभाषासूत्रं व्यरचयद् आचार्यः, अनियमे नियमकारिणी परिभाषेति परिभाषालक्षणात् पूर्वसूत्रेण समानसंज्ञाया अनिश्चयीकरणात् 'हस्वदीर्घप्लुतभेदाः सवर्णा.' [संज्ञाप्र० 2.] इति परिभाषासूत्रेण ह्रस्वदीर्घयोः सावर्णात् सरस्वतीकृते सूत्रे ह्रस्वोक्त्या दीर्घसंग्रह इति वचनादपि दीर्घग्रहणात् 'दश समानाः' [कातन्त्र. 1 / 1 / 3 / ] इति समानसंज्ञा निरणयत्। अपरञ्च स्थानप्रयत्नाभ्यामपि सवर्णाः [ ] इति सवर्णसंज्ञां प्रज्ञापयत् श्रीमदनुभूतिस्वरूपाचार्यः। ननु प्लुतभेदयोस्तु समानसंज्ञां प्लुतभेदयोस्तुरे सवर्णसंज्ञामेव इति ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदा इत्यत्र भेदशब्दग्रहणात् स्थानप्रयत्नयोर्ग्रहणात् स्थानप्रयत्नाभ्यां अकारादीनां व्यञ्जनानां च सवर्णसंज्ञा दर्शनात् / तथा च पाणिनिः। 'तुल्यास्य प्रयत्नं सवर्णम्' [ पाणिनि 1.1.9 ] इति। तथा च कालापकव्याकरणम्। 'दश समानाः' [कातन्त्र० 1 / 1 / 3] तस्मिन् वर्णसमाम्नायविषये आदौ ये दशवर्णास्ते समानसंज्ञा भवति / 'तेषां द्वौ द्वावन्योन्यस्य सवर्णी' [कातन्त्र. 1 / 1 / 4 ] / तेषामेव दशानां समानानां मध्ये यौ द्वौ द्वौ वर्णौ तौ अन्योन्यस्य परस्परं सवर्णसंज्ञौ भवतः। सवर्ण 9 - अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल तेषां ग्रहणं व्यक्त्यर्थं, तेन ह्रस्वयोर्द्वयोः दीर्घयोश्च द्वयोः सवर्णसंज्ञा सिद्धेतीति। तच्चैवम्१. कै. प्रतौ - ननु अकारादयः पञ्चवर्णा असदृशं विलक्षणमाकारं विभ्राणाः कथं समानपरिमाणाः येन समानं परिमाणं येषां ते समानपरिमाणा मित्यर्थः कथ्यते? 2. समानसंज्ञा प्लुतभेदयोस्तु नास्ति ज़ प्रतौ। 3. अन्योन्यसंज्ञौ इति कै. 4. व्यक्तिरर्थ: प्रयोजनमस्य करणस्य तत् कैः 248 लेख संग्रह Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह्रस्वदीर्घः अ आ 1, दीर्घह्रस्वः आ अ 2, ह्रस्वह्रस्वः अ अ 3, दीर्घदीर्घः आ आ 4. इति चतुर्भङ्गी। तदुक्तम् क्रमोत्क्रमस्वरूपेण सवर्णत्वं निवेदितम्। इष्टादपि सवर्णत्वं भणितं ऋलकारयोः॥१॥ [ ] इति। तथा च हैमव्याकरणम्- लृदन्ताः समानाः [ सिद्धहेम. 1.1.7 ] इति / तथा च नरपतिः मातृकायां पुरा प्रोक्ताः स्वराः षोडशसंख्यया। तेषां द्वावन्तिमौ त्याज्यौ चत्वारश्च नपुंसकाः // शेषा दश स्वरास्तेषु स्यादेकै कं द्विकं द्विकम्। [ ] इति / एवं अकारादीनां प्रत्येकं युग्मयुग्मत्वेन सवर्णत्वात्- समानसंज्ञा सिद्धा / प्लुतस्य च सवर्णसंज्ञासद्भावेपि सन्ध्यादिकार्येषु सन्धिकार्याऽनर्हत्वात् न समानसंज्ञेति / ननु लोकेऽपि अ-इ-उ-ऋ-लु इति ह्रस्वपञ्चाक्षराणां पञ्चदीर्घाक्षरैः सह रेखाद्याकृतिविशेषे सत्यपि 'एकदेशविकृतं अनन्यवद्भवति' इति न्यायादभेदात् 'वर्णग्रहणे जातिग्रहणम्' इति न्यायेनाऽपि च एकवर्णग्रहणे तज्जातीयस्य अनेकस्यापि ग्रहणात् समानसंज्ञाप्रतिज्ञा युक्ता / यतः- प्रथमं मातृकापाठं पाठयतां बालानामपि ? "आईडा बि भाईडा, वडइ भाई कानउ' इत्यादि उच्चारणकालात् 2 अग्रे उपरि अधश्च कानकादिरे खाविशेषाणां लेखनात् , ज्योति:शास्त्रेऽपि नामादिमाऽक्षरोच्चारे ह्रस्वदीर्घयोरेकराशिगणनाच्च / व्याकरणेनाऽपि मातृकाक्षराणामेव निर्णयकरणात् व्याक्रियन्ते स्वरव्यञ्जनानि स्वरव्यञ्जनसंयोगाऽसंयोगाभ्यां 3 आकारविशेषी क्रियन्ते अनेनेति व्याकरणम् इति व्युत्पत्तेः। इति सारस्वतव्याकरणे 'दश समाना' इति संज्ञा सिद्धा। - 'उभये स्वराः' [संज्ञाप्र० 4.] इत्यस्यायमर्थः- उभौ अवयवौ ह्रस्वदीर्धी कार्यकाले येषां ते उभये उभशब्दादपि सर्वादित्वाज्जसीत्वम्। ननु ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदानां स्वरसंज्ञासद्भावेऽपि उभये इति पदस्य कस्य कस्यचिद् विशेषार्थस्य प्रतिपादकत्वात् उभये इति पदं प्रयुक्तवानाचार्यः। एवं नो चेत्, उभये इति पदस्य समुदायद्वयपरामर्शकत्वात् 'ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदाः सवर्णाः' [संज्ञाप्र० 2. ] इति सवर्णसंज्ञकाः। 'ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षराणि' [संज्ञाप्र० 3. ] इति सन्ध्यक्षरसंज्ञाश्च उभये स्वरसंज्ञा भवन्तीति व्याख्या स्यात्? __न चैवम्, सत्यम्, अकारादयः पञ्च चत्वार एकारादय 'उभये स्वराः' [संज्ञाप्र० 4. ] इति व्याकुर्वत आचार्यस्याभिप्रायेण अयमर्थः। स चाऽयं ह्रस्वदीर्घति सूत्रस्य समानदशकत्वस्थापकत्वेन साक्षिकस्य इव 'अइउऋल समानाः' [ संज्ञाप्र० 1.] 'ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षराणि' [ संज्ञाप्र० 3.] इति सूत्रद्वयस्य विचाले स्थितत्वात् अकारादयः पञ्च, उभये ह्रस्वदीर्घाः, चत्वार एकारांदयः स्वरा उच्यन्ते इति अयमर्थः समर्थः। 1. बालकानामवि इति कै। 2. कारणात् कै। 3. संयोगा नास्ति कै.। * लेख संग्रह 249 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्वा, उभये इति पदं अत्र तन्त्रेण भण्यते। तन्त्रं नाम सकृदनुष्ठितस्य उभयार्थसाधकत्वम्। यथा उभयोः प्रधानयोर्मध्ये व्यवस्थापितः प्रदीपः सकृत्प्रयत्नकृतः उभयोपकारकः स्यात्, तथा उभये इति. पदमपि सकृदुच्चरितं ह्रस्वदीर्घति समुदायद्वयस्य अकारादि पञ्चक एकारादि चतुष्केति समुदायस्य च उपकारकम्। ___ अथवा, उभये इति पदं आवृत्त्या आवर्तनीयम्। आवृत्तिर्नाम पुनः पाठः एकशेषे वा। स च यथा उभये उभये स्वराः इति वारद्वयं उभये इत्यस्य पाठे पठनीये। एकशः पाठे उभये स्वरा, इत्ययम्, पुनः पाठे उभये च उभये च उभये सरूपाणामेकशेष इत्येकशेषेऽपि उभये स्वराः इत्येकशेषः। एवं तन्त्रेण पुनः पाठेन एकशेषेण च उभये स्वराः इतीदृशं सूत्रं सूत्रयति स्म सरस्वती, तस्य अयमभिप्रायार्थः। प्रथमेन उभये इति पदेन चतुर्णां ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदानां स्वरसंज्ञा-सद्भावेपि सन्ध्याकार्यानुपयोगित्वात् प्लुतभेदान् परित्यज्य ह्रस्वदीर्घ इति समुदायद्वयमग्रहीत। द्वितीयेन उभये इति पदेन 'अइउऋलुसमानाः' [ संज्ञाप्र० 1. ] इति सूत्रोक्ता अकारादयः पञ्च, ए ऐ ओ औ सन्ध्यक्षराणि [ संज्ञाप्र० 3.] इति सूत्रोक्ताश्चत्वार एकारादय इति समुदायद्वयं अग्रहीत। . ततोऽयमर्थः- अकारादयः पञ्च, उभये ह्रस्वदीर्घाः, चत्वार एकारादयः उभये स्वरा उच्यन्ते इति। स्वयं राजन्ते शोभन्ते एकाकिनोऽपि अर्थं प्रतिपादयन्त इति स्वराः। उ प्रत्ययः पृषोदरादित्वात् स्वयं शब्दस्य स्वभावः। तथा च स्वरलक्षणं प्रोक्तं प्राग्भिः अ विष्णुः स्मृतिवाक्ये आ इ गताविति मूर्तिभिः / लिङ्गनिपातधातूनां विराजन्ते स्वयं स्वराः॥ इति। तच्चैते अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ। ननु इह लवर्णस्य स्वरसंज्ञायां किं प्रयोजनम्? लकारः 'कृ पू सामर्थ्य' इत्यस्मिन् धातो एव प्रयुज्यते / कृपेरो लः [ भ्वादि.आत्मने. 20 ] कृपेर्धातो: रेफस्य लकारादेशो भवति र इति / रश्रुतिसामान्यं उपादीयते / तेन यः केवलो रेफो यश्च ऋकारस्थः तयोरपि ग्रहणं ल इत्यपि सामान्यमेव उपादीयते / ततोऽयं केवलस्य रेफस्य स्थाने लकारादेशो विधीयते / इत्यनेन ऋकारस्यापि एकदेशविकारद्वारेण लकारकरणादेव प्रयोगो दृश्यते, न च तत्र स्वरसंज्ञायाः किमपि प्रयोजनं विद्यते। दीर्घस्य लुकारस्य तु सर्वथा प्रयोग एव नास्तीति। मैवम्, यदशक्ति यदसाधु तदनुकरणस्यापि साधुत्वमिष्यते। यथा- 'अहो ऋतक' इति प्रयोक्तव्ये शक्तिवैकल्यात्। कश्चित् 'अहो तृतक' इति प्रयुक्तवान्। तदा तत्समीपवर्ती किमयं आह इति अपरेण केनाऽपि पृष्ठः सन् तमनुकुर्वन् 'अहो तृतक' इत्याह - इति कथयति।। ___ अथ च लुकारस्य स्वरसंज्ञया 'ओत् [ पाणिनि. 1.1.15 ] इति प्रक्रियासूत्रेण, 'औ निपातः' [प्रकृतिभाव० 3.] इति सारस्वतसूत्रेण वा प्रकृत्याभवनात् क्लृप्त इत्यत्र अनचि च [ पाणिनि. 8.4.47 ] इति प्रक्रियासूत्रेण, हसेऽर्हहसः [ स्वरसंधिः 2] इति सारस्वतसूत्रेण वा लस्वरात् परस्य पकारस्य द्वित्वभावनात्। 'क्लु३तशिख' इत्यत्र दूराद् हूते चेति गुरोरनृतोऽनन्तस्याप्यैकैकस्य प्राचाम् [ पाणिनि. 250 लेख संग्रह Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8.2.86 ] इति पाणिनीयसूत्रेण स्वराश्रितस्य प्लुतस्य प्रतिपादनाच्च लकारस्य स्वरसंज्ञायां प्रयोजनं विद्यते एव। शर्ववर्मणस्तु मते अकारादीनामिव लुवर्णस्यापि स्वरसंज्ञया मुख्यमेवं प्रयोजनं विद्यते / यथा- अमू लकारं पश्यतः, अमी लकारं पश्यन्तीति उभयत्राऽत्र अदसोमात् [ पाणिनि. 1.1.12. ] इति प्रक्रियासूत्रेण, * नामी [ सा. प्रकृतिभाव. 1.] इति सारस्वतसूत्रेण वा प्रकृत्या भवनात् लकारस्य स्वरसंज्ञाप्रयोजनसद्भावः सिद्धः। ___ 'लवर्णो न दीर्घोऽस्ति' इति यद् रामचन्द्रो अवोचत्, तदपि तदिच्छया तस्यैव 'स्वतः प्रमाणं न परतः' इति। __ तथा च कालापकव्याकरणसूत्रं,' तत्र, चतुर्दशादौ स्वराः [ ] तथा च एतट्टीका- तत्र तस्मिन् वर्णसमाम्नायविषये आदौ ये चतुर्दशवर्णास्ते स्वरसंज्ञा भवन्ति / स्वर 14 - अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल लू ए ऐ ओ औ। यथा अनुकरणे ह्रस्वलकारोऽस्ति तथा दीर्घोऽप्यस्तीति मतमिति। तथा च हैमव्याकरणसूत्रम् 'औदन्ताः स्वराः' [सिद्धम. 1.1.4 ] वृत्तिश्चास्य- 'औकारावसाना वर्णाः स्वरसंज्ञा भवन्ति। तकार उच्चारणार्थः। अ आ इ ई उ ऊ ऋऋ ल ल ए ऐ ओ औ। औदन्ता इति बहुवचनं वर्णेष्वपि पठितानां दीर्घपाठोपलक्षितानां प्लुतानां संग्रहार्थं, तेन तेषामपि स्वरसंज्ञेति।' तथा च काव्यकल्पलतासूत्रम् - विकृति स्रोतस्विन्यः चतुर्दश तु ' [ ] इति। तथा च हैमानेकार्थसूत्रम् - स्वरः शब्देऽपि षड्जादौ [अनेकार्थ कां. 2 श्लो. 477 ] इति। 'अच्' इति अकारादीनां चतुर्दशानां वर्णानां पाणिनीयासंज्ञा। तत्र यथा - 'एकस्वरं चित्रमुदाहरन्ति' [ ] इति हैमानेकार्थटीका। . तथा च विश्वप्रकाशकार:स्वरोऽकारादिमात्रासु मध्यमादिषु च ध्वनौ। उदात्तादिष्वपि प्रोक्तः, [विश्वप्र० रान्तवर्म 9 ] इति। हलायुधोऽपि- 'अकारादावुदात्तादौ षड्जादौ निस्यने स्वरः। ] इति। ] इति। तथा वर्णनिर्घण्टौ चामुण्डोऽपिअकारादीनां मातृकानुक्रमेण नामानि न्यबध्नात् / तद्यथा अकारोऽथ निगद्यतेश्रीकण्ठः केशवस्त्वाद्यो ह्रस्वो ब्राह्मणकः शिवः। 1. 'व्याकरण' नास्ति कै.। 2. काव्यकल्पलता................ रत्नपुरुषत्वे य स्वप्नाः जीवाजीवोपकरणगुणिनाग्रगारं रज्जुसूत्रं पूर्व मिहाकुले करिपिण्डप्रकृति - इति पाठोविद्यते कै. प्रतौ। 3. अकारादिपु वर्षेषु पढ्जादिपु सप्तेषु उदात्तादिषु विज्ञेयः। प्रक्रियां स्वरे स्वरः इति / धनञ्चयोऽपि इति पाठोऽधिकः कै. प्रतौ। लेख संग्रह 251 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुर्वेदः कलाढ्यश्च मृतेश प्रथमोऽपि च। एकमातृकवाणीशौ सारस्वत-ललाटकौ। मृत्युञ्जयः स्वराद्यश्च मातृकाद्यो लघुस्तथा। आ आकारोऽनन्तक्षीराब्धी गुरुर्नारायणो मुखम्। वृत्ताकारो दीर्घ, आपश्चतुर्मुखप्रकाशकौ। मुखवृत्ताऽमृते वक्रो द्वितीयस्वरमोदको। [ ] इति / अपि चव्यञ्जनानि त्रयस्त्रिंशत् स्वराश्चैव चतुर्दश। [ ] इति। .. इत्याधनेकशास्त्रानुसारेण चतुर्दशस्वराः सारस्वतव्याकरणेऽप्यवश्यं 'उभये स्वराः' [ सा. संज्ञाप्रकरण. 4] इति सूत्रस्य पूर्वोक्तरीत्या व्याख्यानात् अवबोधव्यानि : विद्ववृन्दारकैः। एकविंशतिरपि स्वराः यत् पाणिनीयशिक्षा 'स्वरा विंशतिरेकश्च' [पाणिनीयशिक्षा प. 4] इति / तच्चैवम् - अ१, इ२, उ३ एते त्रयः ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदात् नव 9, ऋवर्णः प्लुंतहीनो द्विविधः 2, लकारो दीर्घहीनो द्विविधः 2, सन्ध्यक्षराणि 2 दीर्घप्लुतभेदात् 8, एवं एकविंशति स्वराः सन्ति / परं व्याकरणे सन्ध्यादिकार्योपयोगित्वेन चतुर्दशानामेव उपयोगात् चतुर्दशैव स्वराः। ये च सारस्वतटीकाकाराः वासुदेवादयः पञ्च समानाः नवस्वराः अष्टौ नामिनः इति प्रतिपादयन्ति, तद् असत्, पूर्वकविप्रणीत व्याकरणद्यनेकग्रन्थैः सह विरोधात्, सरस्वतीकृत समानादिसंज्ञामपि च सर्वपूर्वकविप्रणीतानेक-ग्रन्थसंज्ञानुयाधित्वात् / छ। इति श्रीश्रीवल्लभोपाध्यायविरचितं चतुर्दश स्वरस्थापनवादस्थलं समाप्तम्। श्रीजिनराजसूरीन्द्रे धर्मराज्यं विधातरि / अस्मिन् खरतरे गच्छे धर्मराज्यं विधातरि // 1 // जगद्विख्यातसत्कीर्त्तिानविमलपाठकः / योऽभवत्तस्य पादाब्जभ्रमरायितमानसः॥ 2 // 1. बोधव्या कै. 2. अष्टौ इत्यधिकपाठो कै.। 3. समानऽमपि इति जयपुर प्रतौ. 252 लेख संग्रह Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवल्लभ उपाध्यायः समाख्यातीति सूनृतम्। चतुर्दशस्वरा एते सर्वशास्त्रानुसारतः॥ 3 // त्रिभिर्विशेषकम् इति श्रीश्रीवल्लभोपाध्यायविरचित-सारस्वतमतानुगत सर्वशास्त्रसम्मत-चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थलप्रशस्तिः समाप्ता। तत्समाप्तौ च समाप्तं चतुर्दश स्वरस्थापनवादस्थलम्। तच्च वाच्यमानं चिरं नन्दतात्। प्रति परिचय 1. ज. उपाध्याय जयचन्द्रगणि संग्रह, रा. प्रा. वि. प्र. बीकानेर शाखा कार्यालय २.खरतरगच्छ ज्ञान भण्डार, जयपुर, क्रमांक छ. 106 पत्र 7 ले. १९वीं शती 3. कै. श्री कैलाशसागरसूरि ज्ञान मन्दिर, कोबा, अहमदाबाद नं. 16177 पत्र 5 ले. १८वीं लेखन प्रशस्ति. तत्त्व विचक्षणैर्वाच्यमानं चिरं नन्दतात / हीरस्तु / / श्री:छः।।श्री।। श्री जिनराजसूरिभिः। तत्सिष्यश्रीमानविजयजी तत्सिष्य श्रीकमलहर्षजी तस्य छात्रवद् विद्याविलासेन लिखतमस्ति ।।श्री।। . [अनुसंधान अंक-४५] 000 लेख संग्रह 253 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुनिसोमगणिरचित कल्पसूत्र लेखन-प्रशस्ति श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय में कल्पसूत्र का अत्यधिक महत्व है। पर्वाधिराज पर्युषणा पर्व में नौ वाचनागर्भित कल्पसूत्र का पारायण किया जाता है और संवत्सरी के दिवस मूल पाठ (बारसा सूत्र) का वाचन किया जाता है। प्रत्येक भण्डारों में इसकी अनेकों प्रतियाँ प्राप्त होती हैं। अनेक ज्ञान भण्डारों में तो सोने की स्याही, चाँदी की स्याही और गंगा-जमुनी स्याही से लिखित सचित्र प्रतियाँ भी शताधिक प्रतियाँ प्राप्त होती हैं। केवल स्याही में लिखित प्रतियाँ तो हजारों की संख्या में प्राप्त हैं। पन्द्रहवी शती के धुरन्धर आचार्य श्री जिनभद्रसूरि को युगप्रधान के समक्ष स्वीकार किया जाए, . तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। समय की मांग को देखते हुए उन्होंने अनेक जिन मन्दिरों, हजारों जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठाएं की और साहित्य के संरक्षण की दृष्टि से खंभात, पाटण, मांडवगढ़, देवगिरि, जैसलमेर आदि भण्डार भी स्थापित किए। लेखन प्रशस्तियों से प्रमाणित है कि आचार्यश्री ने न केवल ताड़पत्र और कागज पर प्रतिलिपियाँ ही करवाई थी अपितु अपने मुनि-मण्डल के साथ बैठकर उनका संशोधन भी करते थे। जैसलमेर का ज्ञान भण्डार उनके कार्य-कलापों और अक्षुण्ण कीर्ति को रखने में सक्षम है। जहाँ अनेकों जैनाचार्य, अनेकों विद्वान् और अनेकों बाहर के विद्वानों ने आकर यहाँ के . भण्डार का उपयोग किया है। इन्हीं के सदुपदेश से विक्रम संवत् 1509 में रांका गोत्रीय श्रेष्ठी नरसिंह के पुत्र हरिराज ने स्वर्ण स्याही में (सचित्र) कल्पसूत्र का लेखन करवाया था। इसकी लेखन प्रशस्ति पण्डित मुनिसोमगणि ने लिखी थी। प्रशस्ति 36 पद्यों में है। इस प्रशस्ति में प्रति लिखाने वाले श्रावक का वंश वृक्ष और उपदेश देने वाले आचार्यों की पट्ट-परम्परा भी दी गई है। . श्री जिनदत्तसूरिजी ने उपकेशवंश में रांका गोत्र की स्थापना की थी। इसी कुल के पूर्व पुरुष जोषदेव हुए, जिन्होंने कि मदन के साथ सपादलक्ष देश और उकेशपुर (ओसियां) में सुकृत कार्य किए थे। उन्हीं की वंश परम्परा में श्रेष्ठी गजु हुए और उनके पुत्र गणदेव हुआ। गणदेव का पुत्र धांधल हुआ। जो की मम्मण कहलाता था और जिसने मुमुक्षु बनकर पद्मकीर्ति नाम धारण किया था। . श्रेष्ठी आंबा, जींदा और मूलराज ये चाचा के पुत्र थे और जिन्होंने जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाकर शासनोन्नति का कार्य किया था। उन्होंने ही फरमान प्राप्त करके संवत् 1436 में शत्रुजय आदि तीर्थों का श्री जिनराजसूरि के सान्निध्य में संघ निकाला था। इस संघ में 50,000 रूपये व्यय हुए थे। धांधल की भार्या का नाम श्री था। उसके दो पुत्र थे- जयसिंह और नृसिंह। श्रेष्ठी मोहन के दो पुत्र थे- कीहट और धन्यक। इन्होंने भी शत्रुजय का संघ निकालकर संघपति पद प्राप्त किया था। इन्होंने ने ही जेसलमेर में अपने बन्धुओं के साथ संवत् 1473 में जिनमंदिर और प्रचुर प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई थी। जयसिंह के दो पत्नियाँ थी- सिरू (सरस्वती), ........ / सरस्वती के 254 लेख संग्रह Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो पुत्र थे- रूपा और थिल्ला / रूप की पत्नी का नाम मेलू और चिपी था। उनका पुत्र नाथू था। नाथू के दो पुत्र राजा और समर थे। थिल्ला के दो पुत्र थे-हरिपाल और हरिश्चन्द्र। हरिपाल के दो पुत्र थे- हर्ष और जिनदत्त / हरिश्चन्द्र का पुत्र था उदयसिंह। श्रेष्ठी नरसिंह की भार्या का नाम धीरिणि था। उनके दो पुत्र हुए- भोजा और हरिराज / भोजा की पत्नी का नाम भावल देवी और उसका पुत्र गोधा था। उसके दो पुत्र थे- हीरा और धन्ना। श्रेष्ठी नृसिंह का द्वितीय पुत्र हरिराज छत्रधारी था। देवगुरु अरिहंत धर्म का उपासक था और स्वपक्ष का पोषण करने वाला था। हरिराज की दो पत्नियाँ थी- राजू और मेघाई। इधर पारख वंशीय कर्ण की प्रिया का नाम कर्णादे था। उसके चार पुत्र हुए- नरसिंह, महीपति, वीरम और सोमदत्त / चार ही पुत्रियाँ थी। जिसमें तीसरी पुत्री का नाम मेघाई था। जिसका विवाह हरिराज के साथ हुआ था। हरिराज के तीन पुत्र थे- जीवा, जिणदास और जगमाल / एक पुत्री थी जिसकी नाम मणकाई था। जीवराज की पत्नी का नाम कुतिगदेवी था। जिणदास की प्रिया का नाम जसमादे था। नरसिंह के तीन पुत्र थे- सहसकिरण, सूरा और महीपति / सहसकिरण के दो पुत्र थे- अद्दा और सद्दा / महीपति का पुत्र वच्छराज था। हरिराज का धर्मपुत्र सुभाग था। धर्मवान हरिराज अपने परिवार सहित तीर्थयात्रा, संघ पूजा, जैन धर्म की प्रभावना करता हुआ शोभायमान है। इधर भगवान महावीर स्वामी के पंचम गणधर पट्टधर सुधर्मा स्वामी हुए और उन्हीं की वंश परम्परा में हरिभद्रसूरि आदि प्रभाविक आचार्य हुए। शासन का उद्योत करने वाले उद्योतनसूरि के शिष्य वर्द्धमानसूरि हुए। इनके शिष्य जिनेश्वरसूरि ने पत्तन नगर में दुर्लभराज की राज्य सभा में खरतर विरुद प्राप्त किया था। उनके पट्टधर जिनचन्द्रसूरि हुए तत्पश्चात् नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि हुए। उनके शिष्य सूरि शिरोमणी जिनवल्लभसूरि हुए। तदनन्तर युगप्रधान पदधारक जिनदत्तसूरि हुए। तत्पश्चात् परम्परा में श्रीजिनचन्द्रसूरि, श्रीजिनपतिसूरि, श्रीजिनेश्वरसूरि, श्रीजिनप्रबोधसूरि, श्रीजिनचन्द्रसूरि, श्रीजिनकुशलसूरि, श्रीजिनपद्मसूरि, श्रीजिनलब्धिसूरि, श्रीजिनचन्द्रसूरि, श्रीजिनोदयसूरि और जिनराजसूरि हुए। इनके पट्टधर पूर्णिमा चन्द्र के समान, सूर्य की किरणों को धारण करने वाले श्रीजिनभद्रसूरि है। उन्हीं के उपदेश से हरिराज ने स्वर्ण स्याही में यह कल्पसूत्र सन् 1509 में लिखवाया और इसकी प्रशस्ति मुनिसोमगणि ने लिखी है। . इस प्रशस्ति का महत्त्व इसीलिए भी बढ़ जाता है कि जैसलमेर में जिसको लक्ष्मणविहार कहा जाता है। जिसके दूसरे शिलालेख की प्रशस्ति उपाध्याय जयसागर ने लिखी है। तदनुसार रांका गोत्र में जोषदे और आसदेव की परम्परा में धांधल हुए। इस प्रशस्ति में इस परम्परा के प्रतिष्ठित महनीय सभी श्रेष्ठियों के नाम और उनके पुत्रों का उल्लेख है। ये नरसिंह मम्माणी कहलाते और उनके पुत्र जयसिंह के पुत्र भोज और हरिराज ने इस जेसलमेर तीर्थ पर लक्ष्मण विहार में संवत् 1473 में श्री जिनवर्द्धनसूरि के सान्निध्य में अपने परिवार सहित यह प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित किया था। (जैसलमेर का यह शिलालेख मेरे द्वारा सम्पादित प्रतिष्ठा लेख संग्रह, लेखांक 147, पृष्ठ 34 देखें।) इसी प्रकार इसी हरिराज द्वारा प्रतिष्ठित अन्य मूर्तियाँ भी प्राप्त हैं, जो निम्न हैं: लेख संग्रह 255 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (241) आदिनाथ-पञ्चतीर्थीः 90 / / सं० 1493 वर्षे फाल्गुन वदि 1 बुधे ऊकेशवंशे श्रेष्ठि गोत्रे श्रे० मम्मणसंताने श्रे० नरसिंह भार्या धीरिणिः। तयोः पुत्र भोजा हरिराज सहसकरण सूरा महीपति पौत्र गोधा इत्यादि कुटुंबं / / तत्र श्रे० हरिराजेन आत्मनस्तथा भार्या मेघु श्राविकायाः पुत्री कामण काई-प्रभृतिसंततिसहिताया स्वश्रेयसे श्रीआदिनाथबिंब कारितं खरतरगच्छे श्रीजिनभद्रसूरिभिः प्रतिष्ठितम्।। (743) आदिनाथ-पञ्चतीर्थीः संवत् 1528 वर्षे आषाढ़ सुदि 2 दिने ऊकेशवंशे रांकागोत्रे श्रे० नरसिंह भा० धीरणि पुत्र श्रे० . हरिराजेन भा० मघाई पु० श्रे० जीवा श्रे० जिणदास श्रे० जगमाल श्रे० जयवंत पुत्री सा० माणकाई प्रमुख परिवारयुतेन श्रीआदिनाथबिंब पुण्यार्थं कारयामासे प्रतिष्ठितं श्रीखरतरगच्छे श्रीश्रीश्रीजिनभद्रसूरिपट्टे श्रीश्रीश्रीजिनचंद्रसूरिभिः।। (836) धर्मनाथ पञ्चतीर्थीः सं० 1536 वर्षे फागण वदि ......... दिने श्रीऊकेशवंशे रांकागोत्रे श्वे० जेसिंघपुत्र श्रे० घिल्ला भा० करणु पु० श्रे० हरिपाल भा० हासलदे पुत्र श्रे० हर्षा भ्रा० जिणदत्तेन भा० कमलादे पुत्र सधरेण सोनपालादि परिवारेण स्वपितृपुण्यार्थं श्रीधर्मनाथबिंबं का० प्रति० श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनभद्रसूरिपट्टे श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः।। (837) नमिनाथ-पञ्चतीर्थीः सं० 1536 वर्षे फा० वदि ......... दिने ऊकेशवंशे रांकागोत्रे श्रे० जेसिंघपुत्र श्रे० घिल्ला भार्या करणू पु० श्रे० हरिपाल भा० हांसलदे पुत्र श्रे० हर्षा भा० ........ श्रे० जिणदत्तेन भा० कमलादे पु० सधारण-सोनपालादिनरिवारेण स्वमातृपुण्यार्थं श्रीनमिनाथबिंब का० प्र० श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनभद्रसूरिपट्टे श्रीजि[न]चन्द्रसूरिभिः।। . मुनिसोमगणि श्री जिनभद्रसूरि के शिष्यों में महोपाध्याय सिद्धान्तरुचि के शिष्य साधुसोमगणि'आदि प्रसिद्ध हैं। सोमनन्दी देखकर मैंने यही सोचा कि ये भी जिनभद्रसूरि के पौत्र शिष्य होंगे। इसीलिए खरतरगच्छ साहित्य कोश, क्रमांक 2232 और 2780 में मैंने सिद्धान्तरुचि का ही शिष्य अंकित किया है। किन्तु उपाध्याय श्री भुवनचन्दजी महाराज ने सितम्बर 2006 में केवल द्वितीय पत्र की फोटोकॉपी भेजी थी, जिसमें मुनिसोम की राजस्थानी भाषा में रचित लघु कृतियाँ थी। इन लघु कृतियों में एक कृति में स्पष्ट लिखा है- कमलसंजमउवझाय सीस करइ नितु सेव ... कमलसंजमउपझाय पदपंकजए कवितु मुनिमेरु इम कहइ अतएव यह स्पष्ट है कि मुनिमेरु कमलसंयमोपाध्याय के शिष्य थे जिन्होंने ने कि उत्तराध्ययन सूत्र पर सर्वार्थसिद्धि टीका 1544 में की थी। हाँ, दीक्षा अवश्य ही सोमनन्दी के नाम से श्री जिनभद्रसूरि ने ही प्रदान की थी। इस सूचना के लिए मैं उपाध्याय भुवनचन्दजी का अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। खरतरगच्छ साहित्य कोश में मुनिसोमगणि रचित दो कृतियों का उल्लेख हुआ है। क्रमांक 2232 पर रणसिंहनरेन्द्रकथा, रचना संवत् 1540 तथा क्रमांक 2780 पर संसारदावा पादपूर्ति स्तोत्र। . 256 लेख संग्रह Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भाषा कृतियों में उपाध्याय श्री भुवनचन्दजी महाराज ने १६वीं शताब्दी लिखित जो द्वितीय पत्र भेजा है उसके अनुसार राजस्थानी भाषा की लघुकृतियाँ ओर हैं:.१. ऋषभदेव फाग, मुनिमेरु / कमलसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, अपूर्ण, गा.-१७, अ. उपाध्याय भुवनचन्दजी, प्रतिलिपि विनय 2. भ्रमर गीत, मुनिमेरु / कमलसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, गा.-२, आदि-अंधकारुगमिले प्रगट प्रकाशे, अ. मुनिभुवनचन्दजी, प्रतिलिपि विनय 3. विरक्ति कारण गीत, मुनिमेरु / कमलसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, गा.-७, आदि पुनिम रजनी करु उपमाला, अ. मुनिभुवनचन्दजी, प्रतिलिपि विनय 4. आदिनाथ गीत, मुनिमेरु / कमलसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, गा.-२, आदि-सकल मंगल कारणऊ रे, अ. मुनिभुवनचन्दजी, प्रतिलिपि विनय 5. जीरावला पार्श्वनाथ गीत, मुनिमेरु / कमलसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, गा.-२, आदि-पहिरिवा खिणु चिरु चंदणु, अ. मुनिभुवनचन्दजी, प्रतिलिपि विनय 6. पार्श्वनाथ गीत, मुनिमेरु / कमलसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, गा.-२, आदि-सखी से रहमुच्छले कवणु, अ. मुनिभुवनचन्दजी, प्रतिलिपि विनय 7. नेमिनाथ गीत, मुनिमेरु / कमलसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, गा.-३, आदि-पमुय देखी नेमी रथ नेमी, अ. मुनिभुवनचन्दजी, प्रतिलिपि विनय 8. अजितनाथ गीत, मुनिमेरु / कमलसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, गा.-२, आदि-हितु अहितु विवेक विचारी लई, अ. मुनिभुवनचन्दजी, प्रतिलिपि विनय 9. वाराण्सी पार्श्वनाथ गीत, मुनिमेरु / कमलसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, गा.-२, आदि __ अम्ह ची शरीरी सोगुण नही रिजवी, अ. मुनिभुवनचन्दजी, प्रतिलिपि विनय 10. जिनचन्द्रसूरि गीत, मुनिमेरु / कमलसंयमोपाध्याय, भाषा - राजस्थानी, स्तवन, गा.-२, आदि चेतना रूपु आतमा विचारी, अ. मुनि भुवनचन्दजी, प्रतिलिपि विनय लेखन प्रशस्ति का विवरण तीन पत्र हैं। साइज 1044 है। पंक्ति लगभग 8-9 है। अक्षर 28 से 30 है और स्वर्णाक्षरों में लिखित है। यह प्रति कहाँ हैं मुझें स्वयं को ध्यान नहीं है। 60 वर्ष के साहित्यिक सेवा कार्य में रहते यह लेखन प्रशस्ति की प्रतिलिपि की थी। किन्तु मुझे आज स्मरण नहीं है कि यह प्रति किस भण्डार की और कहाँ पर थी, अन्वेषणीय है। जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह (सम्पादक मुनि जिनविजयजी), कैटलॉग ऑफ संस्कृत और प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट जैसलमेर कलेक्शन (सम्पादक पुण्यविजयजी) में इसका उल्लेख नहीं है। ॥र्द० ।।अर्हम्। सुपर्ववेलिवर्धिष्णु - विश्ववंशशिरोमणिः।। श्रीमद्गुरुगिरिस्थाणु - र्जीयादूकेशवंशराट् / / 1 / / लेख संग्रह 257 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रांकाकुले श्रेष्ठिधुराधुरन्धरो - ज्जोषदे? श्रीजिनदत्तसूरिभिः / सपादलक्षैस्मदनैस्समन्वित, ऊकेशपुर्यां सुकृते मियोजितः।। 2 / / तदन्वये श्रेष्ठि गजू प्रसिद्धः, पुत्रस्तदीयो गणदे समृद्धः। श्रीधांधलाख्योपि ततो मुमुक्षु, श्रीपद्मकीर्त्या प्रवरप्रसिद्धः।। 3 / / आंबा-जींदा-मूलराजा सत् पितृव्यसहोदराः। अर्हत्प्रतिष्ठामुच्चाया-मत्युन्नतिमकारयन्।। 4 / / शत्रुञ्जयादौ फुरमाण शक्ते-नि:स्वानयुक्षतिचतुर्दशाब्दे (1436) यात्रा समं श्रीजिनराजसूरे-ष्टङ्कार्धलक्षव्ययतो व्यधुर्ये / / 5 / / धांधलिमम्मणस्तस्य, भार्या श्री श्रीरिवापरा। जयसिंह-नृसिंहाख्यौ, क्षितौ ख्यातौ सुतौ पुनः।।९।। तथा आस्तां मोहण जन्मानौ, श्रेष्ठि कीहट-धन्यको। शत्रुञ्जयादियात्रां या-वकार्टी सङ्घपन्वतः।।७।। ताभ्यां बन्धुभ्यां सह जेसलमेरौ विधापिता याम्याम्। जैनी महाप्रतिष्ठा त्रिसप्तभुवनैर्मिते (1473) वर्षे / / 8 / / अभवजयसिंहस्य, पत्नी युगलमुत्तमम्। सिरू सरस्वती सज्ञं, सरस्वत्याः सुतोत्तमौ।।९।। रूपा-थिल्लाभिधो रूप-प्रिया मेलू-चिपी द्वयम्। पुत्रो नाथूः सुतो त्वस्य, राजाख्य-समराभिधौ / / 10 / / थिल्लाकस्य त्वभूत्कान्ता करणूं: करणापरा / हरिपालो हरिश्चन्द्रः, पुत्रौ पुण्यपवित्रितौ / / 11 / / हरिपालात्मजो हर्ष-जिनदत्तौ शुभाशयौ। यशस्व्युदयसिंहाख्यो, हरिश्चन्द्रतनूद्भवः।। 12 / / श्रेष्ठि यो नरसिंहस्य, भार्ये धीरिणि सुष्मती। धीरिणी कुक्षिजौ भोजा-हरिराजौ प्रभावको / / 13 / / भार्या भावलदेवी तु, श्रेष्ठि भोजप्रियाऽभवत्। सुतो गोधाभिधश्चास्य, हीरा-धन्नाख्यनन्दनौ / / 14 / / श्रीदेवगुर्वार्हतधर्मतत्त्व-पवित्र छत्रत्रयभूषिताङ्गः। श्रेष्ठी नृसिंहस्य सुतो द्वितीयः, स्वपक्षपोषी हरिराजदक्षः।। 15 / / 258 लेख संग्रह Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्या राजूश्च मेघाई, भार्ये अभवतां पुरा / श्रेष्ठिनो हरिराजस्य, पुमर्थत्रयशालिनः।। 16 / / इतश्च परीक्षवंशशृङ्गार-मुभयेऽस्य सुतोऽभवन् / सद्येशः करणस्तस्य, करणादे प्रियाऽभवन् / / 17 / / चत्वारः तनयास्तस्य, पुमर्था इव देहिनः। नरसिंहो महीपत्ति-र्वीरमः सोमदत्तकः।। 18 / / चतस्रश्च सुतास्तासु मेघाईति तृतीयिका। साध्यूढा हरिराजेन, कलालावण्यमालिनी।। 19 / / जीवाख्यो जिणदासश्च जगमालश्च तत्सुताः। शुद्धशीलासदाचारा मणकाई ति नन्दिनी।। 20 / / नाम्ना कुतिगदेवीति जीवराजस्य वल्लभा। वल्लभा जिंणदासस्य, जसमादे यशस्विनी।। 21 / / सुखमति-प्रसूतास्तु, नरसिंहस्य नन्दनाः। सहस्रकिरणः सूरा, महीपतिरिमे त्रयः।। 22 / / सहस्रकिरणस्यास्ति, अद्दा सद्दा सुतद्वयोः। महीपति तनूभृतो, वच्छराजः कुमारकः।। 23 / / धर्मपुत्र सुभागाख्यो, हरिराजस्य धर्मवान् / इत्यादि परिवर्हेणा-गर्हेणासावलङ्कृतः।। 24 / / तीर्थयात्रासु सङ्घार्चा-जैनधर्मप्रभावनाः। कुर्वन् विराजते श्रेष्ठी, हरिराजो निरन्तरम्।। 25 / / इतश्च श्रीवर्धमानांह्रिसरोजहंसः, श्रीमत्सुधर्मागणभृद्वतंसः। तदन्वये श्रीहरिभद्रसूरिः, प्रभापराभूतसुपर्वसूरिः।। 26 / / शासनोद्योतकर्तार, श्रीउद्योतनसूरयः। श्रीवर्द्धमानसूरीन्द्राः, वर्द्धमानगुणाधिकाः।। 27 / / यैः श्रीपत्तननगरे, प्राप्तं श्री खरतराख्यवरविरुदम्। दुर्लभभूपतितस्ते, जेजु-जैनेश्वराचार्याः / / 28 / / लेख संग्रह 259 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निध्यङ्गवृत्तिमिषतः, प्रादुर्विहितानि नवनिधानानि / श्रीमदभयदेवार्यैः, जिनचन्द्रपदाम्बुजादित्यैः।। 29 / / सर्वसूरिशिरोरलै-र्बभूवे जिनवल्लभैः। युगप्रधानपदवीशैः, श्रीजिनदत्तसूरिभिः।। 30 / / ततो जिनेन्दुसूरीन्द्रा, राजपर्षदि हर्षदा। श्रीजिनपतिसूरीन्द्राः, तदनु श्रीजिनेश्वराः।। 31 / / श्रीमज्जिनप्रबोधाः, जिनचन्द्रयतीश्वराश्च कुशलकराः। जिनकुशलसूरिगुरवः, श्रीमज्जिनपद्मसूरिवराः।। 32 / / लब्धाब्धयः श्रीजिनलब्धिसूरयः, श्रीजैनचन्द्रादिमसूरिसूरयः। जिनोदयाः सर्वजनोदये क्षमाः, तदन्वये श्रीजिनराजसूरयः।। 33 / / तदीय पट्टार्णवपूर्णिमेन्दवो, विराजि तेजो जितभास्करांशवः। विद्यागुणै रञ्जितसर्वसूरयो, जयत्वमी श्रीजिनभद्रसूरयः।। 34 / / तेषां गुरुणामुपदेशमाप्य सत्पुत्रयुक्तो हरिराजदक्षः। / अलीलिखच्चागमलक्षपूर्वं, सुवर्णवर्णं वरकल्पशास्त्रम्।। 35 / / निध्यन्तरिक्षपक्षाब्दे (1509), लेखितं कल्पपुस्तकम्। विबुधैर्वाच्यमानं तदा चन्द्रं जयताच्चिरम्।। 36 / / पं. मुनिसोमगणिना प्रशस्तिकृतोऽस्ति मङ्गलम्। पत्र 3, साइज 10x4, पंक्तिं 8-9, अक्षर 28-30 [अनुसंधान अंक-४७] 000 260 लेख संग्रह Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित विशालमूर्ति रचित श्री धरणविहार चतुर्मुखस्तव विश्व प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में आबू तीर्थ के अतिरिक्त शिल्पकला की सूक्ष्मता, कोरणी और स्तम्भों की दृष्टि से राणकपुर का नाम लिया जाता है। धरणिगशाह ने पहाड़ों के बीच में जहाँ केवल जंगल था वहाँ त्रिभुवनदीपक नामक/धरणिकविहार जैन मन्दिर बनवाकर तीर्थयात्रियों की दृष्टि में इस तीर्थ/स्थान को अमर बना दिया। अमर बनाने वाले श्रेष्ठी धरणाशाह और आचार्य सोमसुन्दरसूरि का नाम युगों-युगों तक संस्मरणीय बना रहेगा। इस तीर्थ से सम्बन्धित पण्डित विशालमूर्ति रचित श्री धरणविहार चतुर्मुख स्तव प्राप्त होता है। जिसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है: इसकी माप 25411 से.मी. है। पत्र संख्या 3 है। प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या 13 हैं और प्रति पंक्ति अक्षर लगभग 36 से 40 हैं। स्थान-स्थान पर पड़ी मात्रा का प्रयोग किया गया है। लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है:सं०लाखाभा० लीलादे पुत्री श्रा० चांपूपठनार्थं / / लिखतं पूज्याराध्य पं० समयसुन्दरगणिशिष्य पं० चरणसुंदरगणि शिष्य हंसविशालगणिना।। ... तदनुसार इस स्तव के प्रतिलिपिकार समयसुन्दरगणि के पौत्र शिष्य और चरणसुन्दरगणि के शिष्य हंसविशाल ने इसको लाखा की पुत्री चांपू के पठनार्थ लिखा है। इसका समय १६वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जा सकता है। - प्रान्त पुष्पिका में समयसुन्दर गणि का शिष्य चरणसुन्दर लिखा है। गुरु और शिष्य दोनों सुन्दर हैं अतएव ये दोनों खरतरगच्छ के हों ऐसी सम्भावना नहीं है। सम्भवतः सोमसुन्दरसूरि के समय ही उनकी शिष्य-प्रशिष्य परम्परा में हों। . इस स्तव के कर्ता पण्डित विशालमूर्ति के सम्बन्ध में कोई परिचय प्राप्त नहीं होता है। केवल कृति पद्य 31 के अनुसार ये श्री सोमसुन्दरसूरि के शिष्य थे। इस रचना को देखते हुए मन्दिर का निर्माण और प्रतिष्ठा इन्हीं के उपस्थिति में हुई हो ऐसा प्रतीत होता है। अतएव कृतिकार का समय १५वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १६वीं शताब्दी का प्रथम चरण माना जा सकता है। इनकी अन्य कोई कृति भी प्राप्त हो ऐसा दृष्टिगत नहीं होता है। श्री सोमसुन्दरसूरि का समय इस शताब्दी का स्वर्णयुग और आचार्यश्री को युगपुरुष कहा जा सकता है। तपागच्छ पट्ट-परम्परा के अनुसार श्री देवसुन्दरसूरि के (५०वें) पट्टधर श्री सोमसुन्दरसूरि हुए। इनका जन्म संवत् 1430, दीक्षा संवत् 1447, वाचकपद संवत् 1450, आचार्य पद संवत् 1457 तथा स्वर्गवास संवत् 1499 में हुआ था। आचार्यश्री अनेक तीर्थों के उद्धारक, शताधिक मूर्तियों के लेख संग्रह 261 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठापक, साहित्य सर्जक और युगप्रर्वतक आचार्य थे। तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ 39 की टिप्पणी के अनुसार उनके आचार्य शिष्यों की नामावली दी गई है। तदनुसार मुनिसुन्दरसूरि, जयसुन्दरसूरि, भुवनसुन्दरसूरि, जिनसुन्दरसूरि, जिनकीर्तिसूरि, विशालराजसूरि, रत्नशेखरसूरि, उदयनन्दीसूरि, लक्ष्मीसागरसूरि, सोमदेवसूरि, रत्नमण्डनसूरि, शुभरत्नसूरि, सोमजयसूरि आदि आचार्यों के नाम प्राप्त होते हैं। तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ 65 के अनुसार इनका साधु समुदाय 1800 शिष्यों का था। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय के प्रौढ़ एवं दिग्गज आचार्यों में इनकी गणना की जाती थी। श्री हीरविजयसूरिजी के समय में भी इतने आचार्यों के नाम प्राप्त नहीं होते हैं। साधु समुदाय अधिक हो सकता है। वर्तमान अर्थात् २०वीं शताब्दी के आचार्यों में सूरि सम्राट श्री विजयनेमिसूरि का नाम लिया जा सकता है। जिनके शिष्यवृन्दों में दशाधिक आचार्य थे। समुदाय की दृष्टि से तुलना नहीं की जा सकती है। वर्ण्य-विषय कवि प्रथम पद्य में नाभि नरेश्वर नन्दन को नमस्कार कर राणिगपुर निवासी प्राग्वाट वंशीय धरणागर का नाम लेता है और उनके गुरु तपागच्छनायक श्री सोमसुन्दरसूरि को स्मरण करता है। . उनकी देशना को सुनकर संघपति धरणागर ने आचार्य से वीनति की कि आपकी आज्ञा हो तो में चतुर्मुख जिन मन्दिर का निर्माण करवाना चाहता हूँ। आचार्य की स्वीकृति प्राप्त होने पर संघपति ने ज्योतिषियों को बुलाया और उनके आदेशानुसार संवत् 1495 माघ सुदि 10 को इसका शिलान्यास/खाद .. मुहूर्त करवाया। मन्दिर की 460 गज की विशालता को ध्यान में रखकर गजपीठ का निर्माण करवाया . गया। (पद्य 1-6) भविजनों के आने-जाने के लिए मन्दिर के चारों दिशाओं में चार दरवाजे बनवाए। पीठ के ऊपर देवछन्द बनवाया और चारों दिशाओं में सिंहासन स्थापित किए। चारों दिशाओं में 41 अंगुल प्रमाण की ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित की और संवत् 1498 फाल्गुन बहुल पंचमी के दिन श्री सोमसुन्दरसूरिजी से प्रतिष्ठा करवाई। (पद्य 7-9) चारों शाश्वत जिनेश्वरों की प्रतिमाएँ विमलाचल, रायणरूंख, सम्मेतशिखर, अष्टापद गिरि और नन्दीश्वरद्वीप की रचना कर 72 बिम्ब स्थापित किए। दूसरी भूमि में देवछन्द और मूल गम्भारों में उतनी ही प्रतिमाएं स्थापित की। यहाँ 31 अंगुल की मूर्तियाँ थी। चारों दिशाओं और विदिशाओं में आदिनाथ भगवान की मूर्तियाँ स्थापित की गई। तृतीय भूमि अर्थात् तीसरी मंजिल पर इक्कीस अंगुल की प्रतिमाएँ विराजमान की गईं और मूर्तियों का पाषाण मम्माणी पाषाण ही रहा। तृतीय मंजिल के शिखर पर 36 गज का शिखर बनाया गया। 11 गज का कलश स्थापित किया गया और लम्बी ध्वजपताका पर घंघरुओं की घटियाँ लगार्ट गई। (10-15) सोलवें वस्तु छन्द में पद्याङ्क 7 से 15 सारांश दिया गया है। यह मन्दिर चहुमुख है। स्तम्भों की तोरणी कलात्मक है। मण्डप में तीन चौवीसियों की स्थापना की गई है। मन्दिर की शोभा इन्द्रविमान के समान है। 46 पूतलियाँ लगाई गई हैं। अन्य देशों के यात्री संघ आते हैं, स्नात्र महोत्सव करते हैं और प्रसन्न होते हैं। मेघ मण्डप दर्शनीय है। तीन मंजिलों पर तीर्थंकरों ने यहाँ अवतार लिया 262 लेख संग्रह Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो इस प्रकार का यहाँ प्रतीत होता है। मन्दिर में भेरी, भुंगर, निशाण आदि की प्रतिध्वनि गूंजती रहती है। गंधर्व लोग गीत-गान करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मन्दिर के सन्मुख बारह देवलोक की गणना ही क्या है? (पद्य 17-21) - उत्तर दिशा में अष्टापद की रचना की गई है। नालिमण्डप है, जहाँ सहस्रकूट गिरिराज की प्रतिमाओं का स्थापन किया गया है। दक्षिण दिशा में नन्दीश्वर और सम्मेतशिखर की रचना की गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह धरणविहार महीमण्डल का सिणगार है और विन्ध्याचल के समान है। विदिशा में 4 विहार बनाए गए हैं। पहला विहार अजितनाथ और सीमन्धरस्वामी से सुशोभित है जिसका निर्माण चम्पागर ने करवाया। दसरा विहार महादे ने करवाया है जहाँ शान्तिनाथ और नेमिनाथ विद्यमान हैं। तीसरा विहार खम्भात के श्रीसंघ ने करवाया जिसमें पार्श्वनाथ प्रमुख है। चौथा महावीर का विहार तोल्हाशाह ने बनवाया है। इन लोगों ने अपनी लक्ष्मी का लाभ लिया है। ऐसा मालूम होता है कि तारणगढ़ (तारङ्गा), गिरनार, थंभण और सांचोर जो पञ्चतीर्थी के नाम से प्रसिद्ध है वे यहाँ आकर विराजमान हो गए हों। चारों दिशाओं आठ प्रतिमाएँ हैं जो 33 अंगुल परिमाण की हैं। मन्दिर में 96 देहरियाँ हैं। 116 मूल जिनबिम्ब हैं। मण्डप 20 हैं। 368 प्रतिमाएँ हैं। चार चौकियाँ हैं। शिखरबद्ध हैं। 1500 स्तम्भ हैं। 564 पूतलियाँ हैं। देवविमान के समान शोभित हो रहा है और राय एवं राणा यह सोचते हैं कि यह किसी देव का ही काम हो इसलिए राणा इसे त्रिभुवन दीपक कहते हैं। पीछे की शाल शोभायमान है। कंगुरों से शोभित है। समवसरण, चारसाल के ऊपर गजसिंहल है। इस मन्दिर में साठ चतुर्मुख शाश्वत बिम्ब हैं। धरणागर सेठ ने अति रमणीय मन्दिर राणकपुर में बनवाया है और बड़े महोत्सव के साथ दानव, मानव और देवता पूजा करते हैं। (पद्य 22-30) - ३१वें पद्य में कवि अपना परिचय देता हुआ कहता है कि पण्डित विशालमूर्ति ने तपागच्छ नायक युगप्रवर श्री सोमसुन्दरसूरि के चरणों की प्रतिदिन सेवा करता है और इस धरणविहार का भक्ति से स्मरण करता है। इसका स्मरण करने से शाश्वत सुख प्राप्त होते हैं। भाषा छन्द आदि , यह रचना अपभ्रंश मिश्रित मरुगुर्जर में लिखी गई है। वस्तुछन्द आदि प्राचीन छन्दों का प्रयोग किया गया है। ठवणी और भाषा किस छन्द के नाम हैं, ज्ञात नहीं? पद्य 5-6 में धरणिन्द के स्थान पर धरणिग ही समझें। विशेष मेरे द्वारा लिखित कुलपाक तीर्थ माणिक्यदेव ऋषभदेव नामक पुस्तक में लेखांक 11 से यह तो प्रमाणित है कि सोमसुन्दरसूरि के प्रमुख भक्त श्रेष्ठी गुणराज ने संवत् 1481 में कुलपाकतीर्थ की यात्रा की थी। इस लेख में धरणिक का नाम आता है। यह धरणिक राणकपुर मन्दिर के निर्माता थे या गुणराज के पुर्वज थे यह स्पष्ट नहीं होता। लेखांक १०अ में भी गुणराज, सहसराज का नाम आता है। लेखांक ७ब के अनुसार सोमसुन्दरसूरि के शिष्य भुवनसुन्दरसूरि, ज्ञानरत्नगणि, सुधाहर्षगणि, विजयसंयमगणि, राज्यवर्धनगणि, चारित्रराजगणि, रत्नप्रभगणि, तीर्थशेखरगणि, विवेकशेखरगणि, वीरकलशगणि और साध्वी विजयमती गणिनी संवेगमाला आदि के खंडित शिलालेख प्राप्त होते हैं। लेख संग्रह 263 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखांक 8 संवत् 1479 में भुवनसुन्दरसूरि का नाम प्राप्त होता है। लेखांक 9 संवत् 1481 के लेख में श्री सोमसुन्दरसूरि ने माणिक्यदेव आदिनाथ की यात्रा की थी यह उल्लेख भी प्राप्त होता है। . यह स्तव ऐतिहासिक स्तव है और राणकपुर आदिनाथ मन्दिर का पूर्ण परिचय देता है अतः उसका मूल पाठ दिया जा रहा है: // 0 / / पणमिय नाभिनरे सर नन्दन, गाइसु तिहूअण नयनानन्दन चुमुख धरण विहार सोहइ सुरपुर सम राणिगपुर, तिहां वसइ संघपति धरणागर प्रागवंश सिणगार / / 1 / / अनुक्रमि तवगच्छनायक सुहुगुरु, विहरन्ता पुहता राणिगपुर सुरतरुनिय परिसार सिरिसोमसुन्दरसूरि पुरन्दर, भविककमलवनबोधनदिनकर __ जुगवर कमलागार / / 2 / / अमिय समाणि तसु मुखि वाणी, निसुणीय संघपति नीय मनी आणी विनवय जोडी पाणि भगवन तुम उपदेश ऊपनु, भाव करावा श्रीचुमुखनु हुँ मुझ तुम पसाउ।।३।। पछइ संघपति लगन गिणाया, पण्डित जोसी खेवि तेडाव्या आव्या सुहगुरु पासि संवत चऊद वरिस पंचाणु माह बहुल नवमीनिसि तक्खणु ___ दसमी दिवस मुहाण / / 4 / / मण्डिय धरणिन्द भिड पूरावइ, विसासु गजपीठ बंधावइ आवइ आणंद पुरि, दिन-दिन वाधइ अति दीपन्तु, वीझ महागिरिरइ जीपन्तु खेयन्तु भव दूरि / / 5 / / / / वस्तु।। चुमुख कारणि चुमुख कारणि बहु य वीस्तार, विसासउ गज पिहु ल पणि साठ च्यार सइ परिधि विस्तार इण परि पीठ बन्धावि करि हरख पूरि धरणिन्द सादर सोमसुन्दर सुहुगुरु तणउ निसुणीय वयण विचार शुद्ध दिवस मण्डाविउ सोहइ धरण विहार / / 6 / / / / ठवणि।। 264 लेख संग्रह Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीपना ए अतिसुविशाल सोहइ च्यारइ बारणां ए चिहुं दिसिइए आवता जाणि भवियण लोअण पारणां ए दीपतां ए पीठ ऊपरि देवछन्दइ विस्तर घणा ए चिहुँदिसिई ए मण्डिय च्यारि सिंहासण जिणवर तणां ए।। 7 / / च्यारइ ए एकतालीस अंगुलमाण जुगादिजिण थापिवा ए मण्डि उ जङ्ग सङ्घ पति पूछिय सुद्ध दिण सिरिगुरु ए तवगछराय सोमसुन्दरसूरि करकमलि प्रतिट्ठिया ए संवत् चऊद अट्ठाणुं फागुण बहुलई.............।। 8 / / पंचमई ए परमाणंद चन्दन केसरि पूज करि झलकता ए मूलनायक कं चणमय आभरण भरिय थापिया ए चिहुँ दिसिई सार परगरसि उंपरि वारिया ए जाणइं ए धरणिन्द आज काज सवे मई सारिया ए।। 9 / / . सासता ए जिणवर च्यारि जाणे विमलाचल सहिय फे डइ ए रायण रूंख दूख सवे पासई रहि य सो हइ ए सिरिसम्मेत सिहर अट्ठावइ गिरिवरू ए अभिनवां ए बहुतरी बिम्ब बावन नन्दीसर वरू ए।। 10 / / * एतला ए सवि अवतार देवछन्द इमिं भाविया ए बीजा ए जे अवतार मूल गम्भारइ ठाविया ए अनेरा ए जे छईं बिम्ब भावई भगतिइं ते थुणीय च्याल्या ए बाहिरि हेव जिणवर सवि जेती भणीय।। 11 / / हर खिया बीजि भूमि पावड़िया रे तिहि चडई ए पूजिवा ए आवइंरंगि इगतीस अंगुल वडवड़इ ए चिहुँ दिसिइं ए तिहिं अवधारि बइठा आदिल विविह परइं उससई ए भवियण काय देखीय मूरति भगति भरई / / 12 / / त्रीजीए भमि विचार इगवीस अंगल आदिजिण तिणिपर इं ए मनउहासि पूजु पण, भवियजण बार इ ए मूलनायक मम्माणी षाणी तणा ए अवतरिया ए जाणे बार दिनकर महियलि दीपतां ए।। 13 / / विदिसई ए सिखर सिंगार बार-बार जिण जूजूया ए सीलमई ए चंपकमाल सासय पजा पजिया ए उंचउ ए गज छत्रीस अनुपम शिखर त्रिभूमिवर * जोयतां ए सोभसंभार भवियण मण उल्हासकर / / 14 / / राजतु ए सोवंनवंन इग्यारइ गज उंचपणि झलकतु ए उंचउ दंड कलस पुरिस परिमाण पुण लेख संग्रह 265 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घमघमई ए घूघरमाल लंब पताका लह लह इं ए नाचतीए जाणे रंगि संघपति कीरति गहगई ए।। 15 / / / / वस्तु।। चारु चउमुख चारु चउ मुख रिसह जिणनाह संघपति धरणिंद करेविअ, सुगुरु पासि पइइट्ठ सारिअ तीरथ सवि अवतार तिणि, देवछंद दिप्पंत कारिअ त्रिहुँ भूमे * भासुर सिहर कोरणी ए सुविशाल दंडकलश सोवनमइ दीसई अतिहिं झमाल / / 16 / / / / ठवणी।। चउमुख चिहुं पखि चाहीइ तु भमरुलीभर मह तणु विचार पुतली सोहई ए नवनवी तु भ० जाणे रंभाकार थंभे तोरण धोरणी तु भ० कोरणी दीसइं सार मूलमंडपि जव आविआ तु भ० मनमोहइ अपार / / 17 / / त्रिन्नि चउवीसी जिणह तणी तु भ० मंडप तणइ वितानि तिहू अण सोभा संकली तु भ० जाणे इंद्रविमाण पूतली छइतालीस करई तु भ० नितु नाटक रंगरोल जाणे अपछरदेव तु भ० आविय करइं टकोल / / 18 / / पंच वंन सोहामणी तु भ० गूह ली तलगटि चंग तिहां बइसई कुलकामिनी तु भ० गाई जिश गुणरंगि नितु नितु देस विदेस तणा तु भ० आवई संघ अपार , स्नात्र महोत्सव नितु करइं तु भ० महाधज दीजई सार।। 19 / / मेघमंडप ऊमाह डउ तु भ० करिवा लोअणसार त्रिहुं भूमे त्रिभुवन तणा तु भ० जाणे इंहि अवतार कोरणी वरणनइं नहीं तु भ० पूतली नानाकार ' नाटक लकुटी रसरमई तु भ० भवियण त्रिन्हइ वार।। 20 / / भेरि भूगल नीसाण तणु तु भ० गाजई. गुहिरु नाद गुणगाइं गंधव घणा तु भ० बइ सी मधुरइ सादि त्रिणि त्रिणि मण्डप चिहुं दिसई तु भ० चुमुखि इणि परिवार देवलोक बारई किसुं तु भ० अवतरिया खाकई वार।। 21 / / |भाषा।। उत्तर दिसइं दोइ दीपतां ए माल्हं तडि अष्टापद प्रासाद बीजु कल्याण त्रय तणु ए मा० चुमुख सिंलिइ वाद नालिमंडप मंडावीउ ए मा० सह सकूट गिरिराज प्रतिमां सह सवि पूजतां ए मा० सीझई भवियण काज।। 22 / / 266 लेखसंग्रह Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण दिसि नंदीसरू ए मा० सम्मेतसिहर विहार इम इम मंडप बारणइ ए मा० दोइ दोइ मूरति सार हस्त सिद्धि सुहगुरु तणी ए मा० दिनि दिनि धरणविहार वाधइ वंध्याचल समु ए मा० महिमंडलि सिणिगार / / 23 / / विदिसई दो मुख दीपताए मा० महीधर च्यारि विहार पहिलु चंपागर तणु ए अजिय सीमंधर सामि बीजु महादे करे विअ तिहिं संति नेमिकु मार त्रीजइ संघ खंभाइतु ए मा० वेचइं वित्त अपार।। 24 / / थापि पासजिणे सरू ए मा० चउ थइ तो ल्हि इ साहि वीर जिणंद मंडाविउ ए मा० लीधु लछि नुं लाह तारणगढ गिरिनार वर मा० थंभण साचुर सामि जाणे ए अवतारिया ए मा० कि पंचतीरथ नामि / / 25 / / . ए चिहुपडिमा अट्ठवर माण ते तीस अंगुल अंग इग. इग मंडप बारणइ ए मा० कुलगिरिनीय परिसार छन्नू जिण देहरी तणा ए मा० दीसइं सोभ संभार जाणे केलि खडोखली ए मा० तिहुअणजण सुहकार / / 26 / / * सोलोत्तरसु मूलजिण मा० मंडप वीस उदार अठसट्ठि अधिकां त्रिणिसई ए मा० चउमुखि चउकी सार सिखरि सहस सात कलसा ए मा० पंनरसइं छन्नू थंभ पंचसई चउसठि पूतली ए मा० सोहइं जिम देवरंभ।। 27 / / चउ वीसासु . तोरणां ए मा० कोरणीए अभिराम तिहु अणजण सोहामणीय मा० देखीय एह वु ठाम रायराणा मनि चीतवइं ए मा० ए किसुं देवर्नु काम शास्त्र माहि इम बोलीइ ए मा० त्रिभुवनदीपक नाम।। 28 / / पाष(?छ ) लि साल सो हामणु ए कोसीसे सुविसाल जाणे महि यलि मंडिउ ए मा० समोसरण चउ साल तिहिं ऊपरि गजसिंहला ए मा० सोहइं चिहुं दिसि पोलि तिहिं आगलि हिव चाहिइ ए मा० पावडियारी ओलि / / 29 / / साठि चतुर्मुख सासताए मा० ते छइ देवह गम्मु तेह जामलि एक सट्ठिमु ए मा० धरणागर अतिरम्मु राणिगपुरि मंडावीउ ए मा० नित नित उच्छ व रंग दानव मानव देवता ए मा० पूज रचई नितु चंग।। 30 / / तवगच्छ नायक युगपवर मा० सोमसुंदरसूरि सीस विशालमूरति पण्डित तणा ए मा० सेवित पइ निसिदीस 267 - लेख संग्रह 18 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इणपरि भगतई वन्निउ ए मा० ए श्रीय धरणविहार भणतां गुणतां संपजई ए मा० सासइ सुक्ख संभार सुणिसुदरि।। इतिश्रीधरणविहारचतुर्मुखस्तवः।। समाप्त। शुभं भवतु॥ सं०लाखाभा० लीलादे पुत्री श्रा० चांपूपठनार्थं / / लिखतं पूज्याराध्य पं० समयसुन्दरगणिशिष्य पं० चरणसुंदरगणि शिष्य हंसविशालगणिना।। [अनुसंधान अंक-४५] 000 268 लेख संग्रह Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमज्जिनेश्वरसूरि-प्रणीतम् / श्रीमुनिचन्द्रसूरिरचित-विवृत्युपेतम् छन्दोनुशासनम् ___ क्षीरस्वामी ने छन्द और छन्दस् पदों की नियुक्ति छद धातु से बतलाई है। अन्य आचार्यों के मत से छन्द शब्द 'छदिर् ऊर्जने, छदि संवरणे, चदि आह्लादने दीप्तौ च, छद संवरणे, छद अपवारणे' धातुओं से निष्पन्न है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से छंद अक्षरों के मर्यादिक प्रक्रम का नाम है। जहाँ छंद होता है वहीं मर्यादा आ जाती है। मर्यादित जीवन में ही साहित्यिक छंद जैसी स्वस्थ-प्रवाहशीलता और लयात्मकता के दर्शन होते हैं। भावों का एकत्र संवहन, प्रकाशन तथा आह्लादन छंद के मुख्य लक्षण है। इस दृष्टि से रुचिकर और श्रुतिप्रिय लययुक्त वाणी ही छंद कही जाती है- 'छंदयति पृणाति रोचते इति छंदः।' वैदिक संहिता और काव्यशास्त्रों में विशुद्ध और लयबद्ध उच्चारण छन्दशास्त्र के ज्ञान से ही सम्भव है। वेद के षडङ्ग में छंद को भी ग्रहण किया गया है। छंद के प्राचीन आचार्य शिव और बृहस्पति माने जाते हैं। संस्कृत छंदशास्त्र में आचार्य पिङ्गल द्वारा रचित पिङ्गल छन्दसूत्र ही प्राचीनतम माना जाता है। कुछ विद्वान् पिङ्गल को पाणिनी के पूर्ववर्ती मानते हैं और कुछ विद्वान् पाणिनी का मामा मानते .. राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर जैसलमेर ग्रन्थोद्धार योजना फोटोकॉपी नं. 231, प्लेट नं. 7, पत्र 13 ताड़पत्रीय प्रति १२वीं शदी का अन्तिम चरण और १३वीं शताब्दी का प्रथम चरण है। इसी फोटोकॉपी के आधार से मैंने उस समय अर्थात् दिसम्बर 1970 में इसकी प्रतिलिपि की थी। १२वीं-१३वीं शताब्दी की छन्दोशासन की प्रति होने के कारण उस शताब्दी पर दृष्टिपात करते हैं तो सुविहितपथप्रकाशक और खरतरविरुद धारक श्री जिनेश्वरसूरि के अतिरिक्त अन्य कोई इस नाम का आचार्य दृष्टिगत नहीं होता। साथ ही वादी देवसूरि के गुरु सौवीरपायी श्री मुनिचन्द्रसूरि के अतिरिक्त अन्य कोई इस नाम का आचार्य दृष्टिपात नहीं होता। अतः अन दोनों के सम्बन्ध में ही कुछ विचार प्रस्तुत किया जा रहा है। ११वीं शताब्दी के तृतीय चरण में अणहिलपुर पत्तन में श्री वर्द्धमानसूरि के शिष्य श्री जिनेश्वराचार्य ने महाराजा दुर्लभराज की राज्य सभा में चैत्यवासियों को निरुत्तरित कर सुविहित पथ का मार्ग उजागर किया था और महाराज दुर्लभराज से खरतरविरुद प्राप्त किया था। चैत्यवासी परम्परा को समाप्त करने के पश्चात् श्री जिनेश्वरसूरि के हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि प्राचीन साहित्य में श्वेताम्बर समाज का दर्शन और कथा साहित्य आदि पर कोई ग्रन्थ नहीं है। दुनिया के समक्ष रखने के लिए इन ग्रन्थों का निर्माण आवश्यक है। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर श्वेताम्बर परम्परा का प्रथम दर्शन ग्रन्थ प्रमालक्ष्म. कथा साहित्य में लीलावतीकहा और कथाकोष आदि की रचना की। अपने सहोदर एवं गुरुभाई श्री बुद्धिसागरसूरि को इस बात के लिए तैयार किया कि तुम व्याकरण आदि ग्रन्थों पर नवीन निर्माण करो। उन्होंने भी बुद्धिसागर/पंचग्रन्थी लेख संग्रह 269 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरण की रचना की। श्री गुणचन्द्रगणि (देवभद्राचार्य) ने महावीर चरियं प्राकृत (रचना संवत् 1139) में प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रशस्ति देते हुए लिखा है कि जिनेश्वरसूरि के बन्धु और गुरु भ्राता बुद्धिसागरसूरि ने नवीन व्याकरण और नवीन छन्दशास्त्र का निर्माण किया था। अन्नो य पुन्निमायंदसुंदरो बुद्धिसागरो सूरी। निम्मवियपवरवागरणछंदसत्थो पसत्थमई // 53 // व्याकरण, पञ्चग्रन्थी और बुद्धिसागर के नाम से प्रसिद्ध है। छन्दशास्त्र प्राप्त नहीं होता है। सम्भवत है किसी भण्डार में उपेक्षित पड़ा हो / सम्भवतः बुद्धिसागरसूरि ने संस्कृत में पिङ्गलछन्दसूत्र के आधार पर ही छन्दशास्त्र लिखा हो और जिसमें मातृका, वर्णिक, अर्द्धसम, विषम और प्रस्तार आदि का वर्णन हो। उस अवस्था में जिनेश्वराचार्य ने प्राकृत आगम साहित्य का अध्ययन करने की दृष्टि से इस छन्दोनुशासन की रचना की है। जिसमें केवल गाथा और उसके अवान्तर भेद और प्रस्तार संख्या ही निहित है। वर्णिक साहित्य का इसमें उल्लेख नहीं है। टीकाकार टीकाकार का नाम मुनिचन्द्रसूरि प्राप्त होता है। ये मुनिचन्द्रसूरि भी सूक्ष्मार्थविचारसार प्रकरण' के चूर्णिकार श्री मुनिचन्द्रसूरि एक ही हों, ऐसा प्रतीत होता है। श्रीमुनिचन्द्रसूरि बृहद्गच्छीय सर्वदेवसूरि के प्रशिष्य और श्री यशोभद्रसूरि के शिष्य थे। आपको संभवतः श्री नेमिचन्द्रसूरि ने आचार्य पद प्रदान किया था। आपके विद्यागुरु पाठक विनयचन्द्र थे। आप न केवल असाधारण विद्वान् तथा वादीभपंचानन थे, अपितु अत्युग्र तपस्वी और बालब्रह्मचारी भी थे। आप केवल सौवीर (कांजी) ही ग्रहण करते थे, इसी कारण से आप 'सौवीरपायी' के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपके अनुशासन में 500 साधु और साध्वियों का समुदाय निवास करता था। तत्समय के प्रसिद्ध वादीकण्ठकुंद्दाल आचार्य वादी देवसूरि जैसे विद्वान् के गुरु होने का आपको सौभाग्य प्राप्त था। गुर्जर, लाट, नागपुर इत्यादि आपकी विहारभूमि के क्षेत्र थे। ग्रन्थ रचनाओं में प्राप्त उल्लेखों को देखते हुए आपका पाटण में अधिक निवास हुआ प्रतीत होता है। आपका स्वर्गवास सं० 1178 में हुआ है। आप तत्समय के प्रसिद्ध और समर्थ टीकाकार तथा प्रकरणकार हैं। आपके प्रणीत टीकाग्रन्थों की तालिका इस प्रकार है:१. देवेन्द्र-नरकेन्द्र-प्रकरण वृत्ति सं० 1168 पाटण चक्रेश्वराचार्य संशो. 2. सूक्ष्मार्थविहारसार प्र० चूर्णी सं० 1170 आमलपुर शि. रामचंद्र सहायता से . 3. अनेकान्तजयपताकावृत्त्युपरि सं० 1171 टिप्पन 4. उपदेशपद टीका सं० 1174 (नागौर में प्रारम्भ और पाटण में समाप्ता) 5. ललितविस्तरापञ्जिका 6. धर्मबिन्दु वृत्ति 7. कर्मप्रकृति टिप्पन ___ प्रकरणों की तालिका निम्न प्रकार है:270 लेख संग्रह Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. अंगुल सप्तति 10. मोक्षोपदेश पञ्चाशिका 2. आवश्यक सप्तति 11. रत्नत्रय कुलक 3. वनस्पति सप्तति 12. शोकहरोपदेशकुलक 4. गाथाकोष 13. सम्यक्त्वोत्पादविधि 5. अनुशासनाङ्गाकुशकुलक 14. सामान्यगुणोपदेशकुलक 6. उपदेशामृतकुलक 15. हितोपदेश कुलक 7. उपदेश पञ्चाशिका 16. कालशतक 8. धर्मोपदेश कुलक 17. मंडलविचार कुलक 9. प्राभातिक स्तुति 18. द्वादशवर्ग आपने नैषधकाव्य पर भी 12000 श्लोक प्रमाणोपेत टीका की रचना की थी किन्तु दुर्भाग्यवश आज वह प्राप्त नहीं है। वर्ण्य विषय / - प्रथम पद्य में गाथा छन्द के लक्षण का वर्णन है। दूसरे पद्य में गुरु और लघु का वर्णन करते हुए दीर्घाक्षर, बिन्दुयुक्त, संयोग, विसर्ग और व्यञ्जन आदि का उल्लेख किया गया है। तीसरे पद्य में चतुष्कल (चार मात्राएं) के प्रस्तार का वर्णन किया गया है। चौथे पद्य में उनके अपवाद का भी वर्णन किया गया है। पांचवें, छटे एवं सातवें पद्य में गाथा के प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ चरण में कितनी मात्राएं होती हैं, उसका विवेचन है। आठवें पद्य में गाथा के अतिरिक्त अन्य छन्दों का वर्णन किया गया है। नवमें, दशमें एवं ग्यारहवें पद्य में विपुला, चपला, मुखचपला, जघनचपला के लक्षण प्रतिपादित किये गए हैं। उसके पश्चात् गाथा 13 से 19 तक में गाथा/आर्या के अतिरिक्त विगाथा/उद्गीति, उद्गाथा/उद्गीति, गाहिनी, स्कन्धक आदि के लक्षण देकर लघु और दीर्घ कितने होते हैं, इनकी संख्या बतलाई है। तत्पश्चात् उन-उन छन्दों के प्रस्तारों की संख्या प्रतिपादिक की गई है। २३वें पद्य में ग्रन्थकार ने अपना नाम जिनेश्वरसूरि देकर इस ग्रन्थ को पूर्ण किया है। .. इसकी मूल भाषा प्राकृत है। कुल 23 गाथाएँ हैं। इस पर श्रीमुनिचन्द्रसूरि ने श्रीअजित श्रावक का उत्साह देखकर इस ग्रन्थ की टीका की रचना की। टीका की रचना संस्कृत में है। आगमों में प्रयुक्त छन्दों का ज्ञान और विवेचन करने के लिए यह छन्दोनुशासन ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है। श्री जिनेश्वराचार्य विरचितं छन्दोनुशासनम् श्रीमुनिचन्द्रसूरि प्रणीत व्याख्योपेतम् __ ऊँ नमः सर्वज्ञाय। नत्वा सर्वसमीचीनं वाचागोचर वाजिनम् / जिनं जैनेश्वरं छन्दो विवृणोमि यथामति / / 1 / / लेख संग्रह 271 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहाचार्यः कलुषकालपतापलुप्ताद्भुतद्रुतमतिविभवान् अत एव बहुबुद्धिबोध्य पिङ्ग लादिप्रणीतछन्दोविचितिशास्त्रावधारणाप्रवणान्त:करणान् भूयसोऽद्यतनजनाननुग्रहीतुं गाथाछन्दस्य प्रायः सकलबालाबलादिजनवचनव्यवहारगोचरतया बहू पयो गीत्यवेत्य तदेव संक्षेपतो वक्तु कामो मङ्गलाभिधेयाभि-धायिकामिमामादावेव गाथामाह - नमिऊण छंदलक्खणधेणु सव्वन्नणो वरं वाणिं। गाहाछंदं वोच्छं लक्खणलक्खे हिं संजुत्तं / / 1 / / इह विघ्नोपशमननिबन्धनतया शिष्टसमाचारतया पूर्वार्द्धन मङ्गल- प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यङ्गतया चोत्तरेणाभिधेयं / सम्बन्धप्रयोजने च सामर्थ्यादुक्ते इति समुदायार्थः। अवयवार्थस्तु- नत्वा-प्रणम्य, कां? वाणिं-भारतिं / किंविशिष्टां? छंदोलक्खणधेणुं छन्दसां-गाथाश्लोकवृत्तादीनां वचनरचनाविशेषाणां लक्षणं तत्स्वरूपाभिधायकं वचनं लक्ष्यते असाधारणधर्माभिधानेन विपक्षविविक्तं लक्ष्यमनेनेति कृत्वा छन्दोलक्षणं [२ए] तस्य धेनुरिवपयःप्रसविनीं गौरिव छन्दोलक्षणधेनुस्तां / एषा चाविशिष्टा पुरुषकर्तृकाकर्तृकापि कस्यचिन्मतेन वाणी स्यात् .. तद्व्यवच्छेदार्थमाह-सर्वज्ञस्य-सर्वमतीतादि ज्ञातवान् जानाति ज्ञास्यति चेति सर्वज्ञस्तस्य तत्प्रणीतामित्यर्थः। अत एव वरां-प्रशस्यां परां वा प्रकर्षवतीमन्यस्यास्त्वनाप्तप्रणीतत्वेन विसंवादिनी त्वस्यापि सम्भवादपौरुषेयत्वेन च वर्ण्यते - भण्यते इति वाणी, ततः पुरुषव्यापारा-मुंगतात्मरूपत्वेन स्वलक्षणस्याप्यनुपपत्तेर्वस्त्वपरत्वयोरसम्भव इति। अत्र छन्दोलक्षणधेणुमिति विशेषणेनाऽस्य छन्दोलक्षणप्रकरणस्य तत्प्रस्तुतत्वेन प्रामाण्यमाह-गाथाछन्दो वक्ष्ये गीयत इति गाथा वक्ष्यमाणलक्षणा तस्याच्छन्दोरचनाविशेषा गाथाछन्दस्तद वक्ष्ये-अभिधास्ये। किंविशिष्टामित्याह-लक्षणलक्ष्याभ्यां लक्षणंउक्तस्वरूपं लक्ष्यं च लक्षणगम्योऽर्थः, ताभ्यां युक्तं-संगतमिति। इह नत्वा [२बी] वाणीमिति, मङ्गलं गाथाछन्दोभिधेयमभिधानं त्विदमेव प्रकरणमभिधानाभिधेयलक्षणश्च सम्बन्धप्रयोजनं च कर्तुरनन्तरं सत्वानुग्रहः, श्रोतुश्च प्रकरणाधिगमः, परम्परं च द्वयोरपि मुक्तिरितिगाथार्थः / / 1 / / इदानीं प्रकृतार्थोपयोगिनी संज्ञापरिभाषां च तावदाह दीहक्खरं सबिंदु संजोगविसग्गवंजणपरं वा। . गाहादलमंतिमं च गुरुं वंकं दुमत्तं च।।२।। दीहत्ति / विभक्तिलोपाद् दीर्घं न क्षरति-न चलति प्रधानत्वादक्षरं स्वरस्तथा विशिष्टामपि स्याद् अतो दीर्घमति विशेषणादक्षरं ह्रस्वपञ्चकवर्जिता शेषं स्वरा नित्यं सन्ध्यक्षराणि दीर्घाणीति वचनात् सन्ध्यक्षराणामपि दीर्घत्वाद् गुरुवनं द्विमात्रं च भवतीति सर्वत्रसम्बन्धः। तथा सबिंदु-सानुस्वारमक्षरमिति सामान्यानुवृत्तावपि ह्रस्वमिति सर्वत्रापि क्रियते, दीर्घस्य पृथगेव गुरुत्वादिभणनेन सबिन्दुत्वादेरनुपयोगात्। तथा संयोगविसर्गव्यञ्जनपरं वा सं [३ए] योगश्च-द्वयादिव्यञ्जनानाम(मे?)लकः, विसर्गश्च प्रतीतो, व्यञ्जनं च ककारादिसंयोग विसर्गव्यञ्जनानि परे यस्मात् तत्तथा। वाशब्दः समुच्चये। तथा गाथादलतिमं च मकारोऽलाक्षणिको। गाथोक्तरूपा तस्या दले-पूर्वापररूपे तयोरन्तिम-पर्यन्तवर्ति ह्रस्वमप्यक्षरं, किमित्याह गुर्विति / गुरुसंज्ञं वक्रं रचनायां द्विमानं च मात्रागणनायां परिभायते / अत्र च प्राकृते णादोतो विसर्गव्यञ्जनपरत्वस्य चानुपयोगे पर्योपि गाथा सदृशी भवतीत्यति वक्ष्यमाणत्वादा- यत्यामुपयोगसम्भवेनोपन्यास इति गाथार्थः।।२।। साम्प्रतमविशिष्टाक्षरसंज्ञापरिभाषेऽधिकृतछन्दत्रययोग्यं अथपञ्चकस्वरूपं च विभणिषुराह 272 लेख संग्रह Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . लहु य पउणेक्कमत्तं सेसं कप्पा य पंच चउमत्ता। . .. दो अंत मज्झ आई गुरवो चउ लहु य नायव्वा / / 3 / / - लध्विति- लघुसंज्ञः, चकारः समुच्चये भिन्नक्रमश्च, प्रगुणैकमानं च प्रगुणं-ऋजुस्थापनायामेकमात्रं च मात्रागणनायां पश्चाद् विशेषणसमासः। किं तदित्याह-शेषमिति दीर्घमबिन्द्वाद्यक्षरादन्य भवतीति, कल्पाश्च पञ्च चतुर्मात्रा इति कल्प्यन्ते विरच्यन्ते इति [३बी] कल्पा अंशकाश्चकारः पुनरर्थे, पञ्चेति संख्यया। चतस्रो मात्रा येषु ते तथा तानेव स्वरूपतो व्यनक्ति / द्वयन्तमथादिगुरवः चतुर्लघुश्च ज्ञातव्या इति बोधन्ते, मध्ये आदौ च यथासम्भवं गुरुगुरुश्च येषां ते, तथा चत्वारो लघवो यत्र स, तथा विभक्तिलोपश्च प्राकृतत्वात् न चकारनुक्तसमुच्चये ज्ञातव्या बोद्धव्या। इदमुक्तं भवति, एकस्तावद् द्विगुरुरन्यो अन्तगुरुचतुर्मात्रत्व-नियमाच्चादौ द्विलघुपरो मध्यगुरुराद्यन्तयोरेकैकलघुस्तदपर आदिगुरुरन्त द्विलघुश्चेत्येवं चत्वारः कल्पाश्चतुर्लघुश्च पञ्चम एत एव चतुर्मात्रागाथायां प्रयुज्यन्त इति गाथार्थः। स्थापना-द्विगु ऽ ऽ, अन्त्यगु / / 5, मध्यगु / ऽ / , आदिगु 5 / / , चतुर्लघु / / / / / / 3 / / उक्तामेव गुरुसंज्ञा क्वचिदपवदितुमाह भत्तीए जिणाणं कम्माई गलंति कु गइ ओ नासंति। पउ बिंदू दीहपरा लहु य कत्थइ पयंते / / 4 / / पश्च-पकारश्च उश्च-उकारो बिन्दुश्च-बिन्दुमान् तस्य केवलस्यासम्भवात् पउबिन्दवो गुरवोऽपि लघवो भवन्ति। किंविशिष्टा? दीर्घात्पराः। किं सर्वत्र नेत्याह-कुत्रापि लक्ष्यानुसारेण पदान्ते विभक्त्यन्तं पदं तदन्त [४ए] इत्यर्थ:! अयं चार्थः-पूर्वार्द्धन लक्ष्यरूपतयोक्तस्तदर्थश्चायं भक्त्योचितकृत्यकरणरूपया, केषां जिनानांअर्हतां। किमित्याह- कर्माणि ग़लन्ति कर्माणि-ज्ञानादीनि (ज्ञानावरणीयादीनि)। अथ बन्धपरिणामतया भक्तिमतामेव जीवप्रदेशेभ्यः पृथग् भवन्ति / यदि कथञ्चित् कालसंहननादिबलविकलतया निखिलकर्ममलो न गलति ततः किमित्याह- कुगतयो नरकतिर्यक्कुमानुषत्वकुदेवत्वलक्षणा नस्यन्ति / अपुनर्भावसर्वदर्शिनामपि दर्शनपथमवतरन्तीति / / 4 / / इह गाथाया द्वे अर्द्ध प्रथमार्द्धमितरश्च तत् प्रथमार्द्धस्वरूपं वक्तुकाम आह . पढ मद्धे सत्त चउमत्ता होति तह गुरू अंते। .. . नो विसमे मज्झगुरू छट्ठो अयमेव चउ लहु या।।५।। प्रथमां॰ प्रतीते सप्तेति संख्या अंशा: गणाः कल्पा इत्यनर्थान्तरं / किंविशिष्टाः? चातुर्मात्रा उक्तरूपा भवन्ति / तथा गुरु गुरु संज्ञमक्षरमन्ते प्रथमार्द्धस्यैव भवतीति / नो नैव विषमे / विषमसंख्यास्थाने-प्रथमतृतीयादिके। मध्यगुरुरुक्त रूपोंशको भवतीति गम्यते। षष्ठः-ठस्थानवर्ती अयमेव मध्यगुरुरेण [४बी] भवन्तीति विषमस्थापने। खु मध्यगुरुकल्परहिताश्चत्वारः कल्पास्समे तद्वितीयचतुर्थलक्षणेन अहिता, एवं पञ्चषष्ठस्तु द्विकल्पो चति गाथार्थः।।५।। उक्तं प्रथमार्द्धस्वरूपं द्वितीयस्य तद्वक्तुमाह बीयद्धे वेसकामो छटुं सो नवर मेगमत्तो उ। 'अज्जावि गाह सरिसा नवरं सा सक्कयनिबद्धा।।६।। द्वितीयं च तदर्द्धं च द्वितीयार्द्ध तत्राविकृतगाथाया एवापि शब्दः पूर्वार्धक्रमापेक्ष एष पूर्वार्द्धविषयक्रमः परपाटिः। यदुत सप्तांशाः चतुर्मात्रा इत्याद्यनन्तरोक्तो विशेषमाह-प्रथमार्धात् द्वितीया? अयं विशेषो यदुत षष्ठोंश एकमात्रास्तु एवकारार्थस्ततश्चैकत्र एव। सामान्येन यदेव गाथालक्षणमार्याया अपि तदेवेति प्रसङ्गत एव 273 लेख संग्रह Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाघवार्थमार्यालक्षणमतिदेष्टुमत्तरार्द्धमाह- आर्यापि गाथासदृशी, न केवलं गाथा गाथेव दृश्यते किन्त्वार्यापि, सर्वलक्षणसाधर्म्यात् यद्ये-गाथायाः क इवायां विशेष इत्याह-नवरं केवलं सा आर्या संस्कृतनिबद्धासंस्कृतेन भाषाविशेषरूपेण [५ए] निबद्धा रचिता गाथा न तथे-त्यनयोर्विशेषः।। 6 / / सामान्येन गाथालक्षणमुक्त्वा शेषविशेषेषु पदपाठविशेषमाह चउलघु छ8 बीया सत्तमपढमा उ हवइ पयपढमं / पुव्वद्धे पच्छ द्धे पंचमठाण पढमया उ एव।। 7 / / चतुर्लघुश्चासौ षष्ठश्च तत्र द्वितीयाल्लयोः सप्तमे चतुर्लघ्वावेव प्रथमाल्लघोस्तत्र आरभ्य इत्यर्थः, भवतिप्रवर्तते पदपठन-पदस्योक्तरूपस्य पठनं भणनमित्यर्थः। पूर्वार्द्ध पश्चाः प्रतीत रूप एव पंचमठाणे विभक्तिलोपश्च प्राग्वदविकृतत्त्वात् चतुः-चतुर्लघावेव किमित्याह प्रथमकाल्लयोः पदमिति पदपठनं भवतीत्यनुवर्तते / इदमुक्तं भवति यदा गाथायाः प्रथमाः षट्चतुर्थलघुरंशको भवति तदा द्वितीयलघोः पदप्रारम्भो, अस्मिन्नेव सप्तमे प्रथमाद्वितीये पुनर॰ यदि पञ्चमश्चतुर्लघुस्तदा प्रथमादेव पदप्रवृत्तिः, शेषेषु चतुर्लघुः पुनः सम्भवत्स्वपि न पदपाठनीय स इति गाथार्थः।।७।। उक्त सामान्यतो गाथालक्षणमधुना यद्वि [५बी]शेषाद्यविशिष्टा-नामिका गाथा भवति इति गाथाष्टकेनं तदाह सामण्णे सा गाहा विरामअंसयवसाउ भेयासि। पढमं सतिए विरई दोसु वि अद्धे सु सा पत्था / / 8 / / सामान्या अविवक्षितविशेषा एषा अनन्तरोक्तलक्षणा गाथा प्रतीता विरामांशकवशात् विरामस्यविरतेरंशकस्य च-गणस्य वशादपेक्षणाद् भेदा विशेषा भवतीति गम्यते। आसामिति गाथानां सामान्यगाथाविकारेपि विशेषापेक्षया बहुवचनं, सामान्य-विशेषयोः कथञ्चिदभेदादिति। प्रथमांसकंत्रिके द्वयोरपि पूर्वापररूपयो: प्रथमगणत्रिके यस्या विराम वियामवशा न भवति सा एवं रूपा गाथा पथ्या पथ्येत्यभिधाना भवन्तीति गाथार्थः।।८।। विउ लाहिजणविस्सामे या गुरुणंतरे उ मज्झगुरू। बीउ चउत्थउ अंसं उ उ सा सव्वउ चवला।।९।। विपुलेति, विपुलाभिधाना गाथा भवतीति गम्यते / किंविशिष्टा? अधिको न विश्रामजाऽधिकजनो वा पूर्वोक्तगण उपापेक्षया यो विश्रामो-विरतिस्तस्माज्जाताधिको न विश्रामजोक्ता विपु[६ए]ला गाथा शेषेण सर्वतश्चपलामाह। गुलरुणा:(?) पूर्वापरांसकचरमाद्ययोरक्षरयोरन्तरे मध्ये तुरेवकारार्थः, ततोऽन्तर एव मध्यगुरुर्मध्ये गुरुर्यस्य स, तथांशको यस्याः स्यादिति गम्यते / किंविशिष्टा? द्वितीय चकारस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात् चतुर्थकश्चांशको गणः, तु पुनरर्थे भिन्नक्रमश्च, द्वयोरप्यर्द्रयोः स्यात्, सा पुनरेवं लक्षणा सर्वतश्चपलागाथाविशेषा भवतीति गाथार्थः।।९।। पढमे दलंमि नीसे सलक्खणं के वलं तु चपलाए। बीए पुण सामण्णं गाहा सा होइ मुहचवला।।१०।। यस्याः स्यादिति गम्यते। प्रथमं दले अर्थे निःशेषं च लक्षणं केवलं शुद्धं, तुरेवकारार्थः भिन्नक्रमः, चपलाया एव द्वितीये का वार्ता? इत्याह-द्वितीये पुनरः इत्यनुवर्तते, गाथासामान्यं सामान्यगाथालक्षणमित्यर्थः। सा किमित्याह- भवति मुखचपला-मुखचपलाभिधाना गाथा भवतीति गाथार्थः।।१०।। 274 लेख संग्रह Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीयद्धे चवलालक्खणम्मि जघणचवला भवे सा उ। . चवलद्धतिप्पयारा विरामउ होइ विउला वि।।११।। द्वितीयाः पश्चिमदलेऽधिकृतगाथाया एव चपलालक्षणे द्वितीयचतु [६बीर्थावंशको गुरुमध्यगौ स्वयं च मध्यगुरू यदि भवत / एवं लक्षणं किमियाह-जघनचपलेति-जघनचपलाभिधाना भवेत् स्यात् / सा तु सा पुनर्यथेयं सर्वतो मुखजघनविशेषणाविव चपला तथा विपुलापि स्यात् / इत्याह-चपलेव त्रिप्रकारा त्रिभेदा विरामतः विरतिमपेक्ष्य भवति, विपुलापि इदमुक्तं भवति यस्या द्वयोरप्यर्द्धयोः प्रथमगणत्रयापेक्षया न्यूनोऽधिकां वा पदविरतिः सा सर्वतो विपुला, यस्याः पुनः प्रथमार्द्ध वेतार्येव विपुलालक्षणं सा मुखविपुला, पश्चिमार्द्धा च तारिणि वाऽस्मिन्नेव जघनविपुलेति गाथार्थः।।११।। पढ मद्धे छटुं सो होइ दुगप्पो जहे व गाहाए। - तह बीयद्धे विभवे सद्धीमंत भणंति तं गीई / / 12 / / तं गीति भणन्तीति क्रियासम्बन्धः / यस्याः किमित्याह-प्रथमा॰ प्रतीते षष्ठोंऽशको भवति, द्विकल्पोद्विप्रकारो यथैव गाथायां यथेति दृष्टान्तार्थपरा अवधारणे, गाथायां सामान्यलक्षणायां तथा तेन प्रकारेण द्वितीया॰पि भवेत् सा षष्ठांशो क्किल्पो मध्यगुरुश्चतुर्लघुको वा तामेवं लक्षणं गाथा षष्टिमात्रा द्वयोरप्यर्द्धयोः पृथग् त्रिंशन्मा [७ए] त्रत्वात् भणन्ति पूर्वस्तत्र यो गीतिं गीतमार्गोपयोगिनी विगाथाय इति गाथार्थः।।१२।। गाहा बीयदले जइ छटुं सो एगमत्तो उ। तह पढमद्धे विभवे तं उवगीई भणंति बुहा।।१३।। गाथाद्वितीयदले द्वितीयार्द्ध यथा येन प्रकारेण षष्ठोंऽशः कल्प एकमात्रो लध्वका मात्रेत्यर्थः, पुनरवधारणार्थस्तथा प्रथमार्द्धपि यस्याः षष्ठ एकमात्रो भवेत्तामनन्तरोक्तलक्षणामुपगीति भणंति बुधाः-विद्वांस इति गाथार्थः।।१३।। - गाहाए जत्थ पढम बीयदलाणं विवज्जा सो। उग्गीई सा भणिया विराम अंसेहिं होइ पुव्वसमा।।१४।। यत्र यस्यां गाथायामुक्तलक्षणायां प्रथमद्वितीयदलयो विपर्यासो-व्यत्ययः प्रथमार्द्धलक्षणं सप्तांशाश्चतुर्मात्रा अन्त च गुरुरित्यादि तत्, द्वितीयाः-द्वितीयार्द्धलक्ष- [७बी]णं च षष्ठ एकलघुरित्यादि तच्च .प्रथमार्द्ध भवति उद्गीति अभिधानमिति गाथा भणिता। किंविशिष्टा? विरामांशैर्भवति पूर्वसमा यथा सामान्यगाथायां षष्ठे चतुर्लघौ द्वितीयात्, सप्तमे प्रथमात्, द्वितीयार्द्ध तु पञ्चमे प्रथमात् पदपाठः। यथा च प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमेषु मध्यगुरुवर्जिताः शेषाश्चत्वारो गणास्तथा अत्रापीति गाथार्थः।।१४।। गाहसमा सत्तंसा चउमत्ता तहय अट्ठमो अंतगुरु / पढमद्धे तत्तुल्लं बीयपि य खंधयंतमिह विंति बुहा / / 15 / / स्कन्धकं तमिह ब्रुवते बुधाः। यत्र किमित्याह-गाथासमा-सामान्यगाथातुल्याः सप्तेति-सप्तसंख्या अंशगणा:-कल्पा इति अर्थान्तरं / किं रूपाः? चतुर्मात्रास्तथा चेति यथा सप्तमश्चतुर्मात्राश्चकारोप्यर्थे भिन्नक्रमश्च, तथाऽष्टमेपिच तुर्मात्र एव परमंतगुरुरन्ते गुरुय॑स्य स तथा / क्वेत्याह-प्रथमार्द्ध प्रतीत एव, [८ए] न केवलं प्रथमार्द्धमेव एवं रूपं, किन्तु द्वितीयमपीत्याह-तत्तुल्य प्रथमार्द्धसमं द्वितीयोप्यर्द्ध स्कन्धकाभिधानं तच्छन्द इह छन्दोविचारणायां ब्रुवन्ति-आचक्षते बधाः-सधिय इति गाथार्थः।।१५।। एवं सामान्यतो विशेषतश्च गाथालक्षणमभिधाय गाथायामेव परिमाण-वर्ण-संख्याभेदपरिमाणं चाह लेख संग्रह 275 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ता वण्णा मत्ता गाहा तीसइ जाव पणपण्णा। वण्णा एक्कगवुड्डा हवंति छव्वीसइं ठाणा।।१६।। सप्तपञ्चाशन्मात्रा यस्यां स तथा गाथा भवतीति गम्यते। सप्तपञ्चाशतामात्राभिः सामान्यतो गाथा निगद्यते इत्यर्थः। त्रिंशतो वर्णेभ्यश्चारभ्य यावत् पञ्चपञ्चाशत् पञ्चभिरधिका पञ्चाशद् यावत्। किमित्याहवर्णा अकारादयः। किं रूपाः? एकैकवृद्धा एकोत्तरस्या वृद्ध्या / वृद्धिमुपगता भवन्ति-वर्तते / किं ययख्या(?) इत्याह- षड्विंशतिस्थानाः-षड्भिरधिका विशंतिस्थानानि संख्याभेदा येषां ते तथा। इदमुक्तं भवति, यदा द्वयो सर्वेपि गुरवो वर्णाः प्रयुज्यन्ते तदापि प्रथमार्द्ध षष्ठस्य मध्यगुरुत्वेन, तल्लघुद्वयसम्भवात्। द्वितीया॰ च षष्ठस्य एकलघुमात्रत्वात् त्रयो [८बी] लघुवर्णा गुरवश्च सप्तविंशतिवर्णा, एवं जघन्यतः त्रिंशद्वर्णाः, प्रतिगुरुमात्रादय भावेन चतुःपञ्चाशतिमात्रासु लघुमात्रात्रयमीलने सप्तपञ्चाशन्मात्रा गाथायां भवन्ति / षड्विंशतौ गुरुषु पञ्चसु लघुष्वेकत्रिंशद्वर्णा एव सेकै कस्य हान्या लघुद्वयस्य च वृद्ध्या द्वात्रिंशदादयो यावदर्द्धद्वयान्तितयोर्द्धयोः गुरुवर्णयोस्त्रिपञ्चाशति च लघुषु पञ्चपञ्चाशत् / गाथायामुत्कृष्टतो वर्णाः षड्विंशतिश्च वर्णस्थानानि सप्तपञ्चाशत्वमात्रा सर्वत्र भवतीति गाथार्थः / / 16 / / / लघुभ्य उक्तवर्णस्थाना वर्णस्थानेभ्यश्च लघुवर्णानामानयनाय करणमाह तियहीणलहूणद्धं तीसजुयं होइ वण्णपरिमाणं। तीसाहियंति दुगुणं तिज्जु य लहु यक्खरपमाणं / / 17 / / / / त्रिकेण हीनास्ते च ते लघवश्च त्रिकहीना लघवस्तेषामर्द्ध दलं, किमित्याह-भवति-वर्तते वर्णपरिमाणं वर्णसंख्या। किंविशिष्टां? त्रिंशद् न्यून (?युतं) त्रिंशतासमेतं / किमुक्तं भवति? सर्वजघन्येनापि गाथायां त्रयो लघवस्तेषु चापनीते तेषु अनवशिष्टत्वेन दलाभावंस्तत्र च शून्यस्थाने [९ए] त्रिंशन्निक्षिप्यत / एवं त्रिषु लघुषु त एव त्रिंशद्वर्णाश्चत्वारश्च लघवो न सम्भवत्येव, त्रिकहीनेष्ववशिष्टद्वयस्याः .एकत्रिंशद्योगे एकत्रिंशद्वर्णा / एवं सप्तसु लघुषु द्वात्रिंशत्, नवसु त्रयस्त्रिंशत्, यावत् त्रिपञ्चाशति लघुषु / पञ्चाशति अर्धाकृतायां, पञ्चविंशतौ, त्रिंशन्मीलने गाथायामुत्कृष्टतः पञ्चपञ्चाशद्वर्णास्त्रिंशदधि-कामङ्कत्रिदादिषु वर्ण स्थानेष्वेकव्यादि पञ्चविंशतिपर्यन्तवर्णा, परिमाणं तु विशेषणार्थो भिन्नक्रमश्च योक्ष्यते। किंविशिष्टां? द्विगुणं-द्वियुतं / किं भवन्तीत्याह-लहुयक्खरपरिमाणं, पुनरिदमुक्तं भवति। लघ्वक्षरपरिमाणं पुनरित्थं त्रिंशतो वर्णेभ्यो यदधिकमक्षरपरिमाणं / यथैकत्रिंशतिवर्णेष्वेको वर्ण स द्विगुणो द्वौ त्रिभिर्योगे पञ्चलघून्यक्षराणि यविंशतिश्च गुरूणि, एवं यावत् पञ्चपञ्चाशतिवर्णेषु त्रिंशतो अधिकायां पञ्चविंशतौ द्विगुणायां पञ्चाशति त्रिभिर्योगे त्रिपञ्चाश [९बी]ल्लघूनि द्वे च गुरुणी अक्षरे भवत इति गाथार्थः।।१७।। उक्तं लघुवर्णेभ्यः सामान्यतो वर्णपरिमाणं-वर्णेभ्यश्च लघ्वक्षरपरिमाणं / साम्प्रतं मात्राभ्यां गुरुवर्णानां सामान्यवर्णानां पुनरपि भंग्यन्तरेण गुरुवर्णानां च प्रमाणानयनायकरणमाह मत्ता अक्खररहिया गुरवो चत्ता य हुँति गुरु हीणा। लहु यक्खरे हिं हीणा से सद्धे होति गुरु वण्णा।।१८।। मात्राः सामान्यतो गाथायां किल सप्तपञ्चाशत्। किमित्याह- गुरवो गुरुवर्णपरिमाणं भवन्ति / किंविशिष्टा? अक्षररहिता अक्षरैर्वर्णैरहितस्या गाथायां यावन्तो वर्णास्ते रहिता यत्वोत्कर्षतो गाथायां पञ्चपञ्चाशतिवर्णेषु सप्तपञ्चाशतो मात्रापरिमाणादपनीतेष्ववशिष्टो जघन्यतो द्वे गुरुणी अक्षरे भवतः। यदा वर्ण एव मात्राः सप्तपञ्चाशत्परिमाणा गुरुहीना गुर्वक्षरा प्रमाणहीनाः क्रियन्ते तदा वर्णवन्न परिमाणं न भवन्ति / चकारः समुच्चये। यथा क्व [१०ए] चित् गाथायां सप्तविशंति गुरवस्तेषु च सप्तपञ्चाशतोऽपनीतेषु शेषा लेख संग्रह 276 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत् . तावन्तश्च तत्र वर्णा इति। लघ्वक्षरैः लघुवर्णे हीना मात्रा इत्यनुवर्तते। ततश्च लघ्वक्षरापनयने यच्छेषमवशिष्टं मात्रापरिमाणं तदर्द्ध प्रतीत एव। किमित्याह-गुरुवर्णा भवन्तीति गम्यते। यथा क्वचिद् गाथायां त्रीणि लघुन्यक्षराणि मात्रापरिमाणात् तदुपनयने चतुःपञ्चाशत् तस्या अप्यर्द्ध सप्तविंशतिस्तावन्तश्च गुरुवर्णाः। एवं गीत्युपगीत्योरपि स्वमात्रापरिमाणानुसारेण भावन कार्या इति गाथार्थः।।१८।।। साम्प्रतं किञ्चित् सामान्यगाथालक्षणविलक्षणत्वेन पृथगेव स्कन्धकगाथायां मात्रापरिमाणं वर्णस्थानपरिमाणं चाह चउसट्ठी सत्ता वण्णा चउतीसाइ जा दुसहीया सद्धी। लहुयद्धाए त्तीस जुया वण्ण खंधियए सा य विण्णेया।।१९।। - चतुःषष्टिमात्रा स्कन्धके स्कन्धकच्छन्दसि भवन्तीति गम्यते। अष्टानां चतुर्मात्राणां अंशकानां प्रत्येकमर्द्धद्वयेपि तावद् वर्णस्थानानि चतुस्त्रिंशदादीनि पर्यवसानमाह- [१०बी] यावद् द्विसहिता षष्टि पर्यन्तानीत्यर्थः। यतोऽत्रोत्कृष्टतस्त्रिंशत्-गुरूणि तेषु चार्द्धद्वयेपि षष्ठस्य पृथग् गुरुमध्य ते लघुचतुष्टयसम्भवात् / जघन्यतश्चतुस्त्रिंशत्वर्णा एकमेकैकगुरुवर्णहानौ लघुद्वयवृद्धौ च, यावद् द्वाषष्टौ वर्णेषु द्वौ गुरु षष्टिश्च लघव इत्येकोनत्रिंशद्बलस्थानानि चतुस्त्रिंशतो द्वाषष्टिस्थाने एतत्। संख्यापूरणे। लघ्वर्धा लघ्वर्द्धपरिमाणा द्वात्रिंशद्युता वर्णाः स्कन्धके सदा स्कन्धकलक्षणस्याविसम्वादित्वात् अविचलत्वेन सर्वकालं विज्ञेया-ज्ञातव्या। इदमुक्तं भवति। लघुभ्यो वर्णपरिमाणो नयने इदं करणं यावन्ति लघून्यक्षराणि तत्र दृश्यन्ते तेषामढ़ द्वात्रिंशद्युतं वर्णपरिमाणं / यथोत्कर्षतः षष्टिप्रमाणेषु / लंघुष्वर्कीकृतेषु त्रिंशति द्वाविंशति क्षेपे च द्वाषष्टिवर्णा भवन्तीति गाथार्थः।।१९।। इदानीमंशकविकल्पवशात् गाथोद्गीतिस्कन्धकगीत्युपगीति-चपलानां प्रत्येक प्रस्तारप्रमाणं विविक्षुः * ग्राथात्रयमाह तेरस अंस वियप्पा जह संभवमिह परोप्परं गुणिया। [११ए] वीस सहस्सा एगूण वीसलक्खद्धकोडीउ।।२०।। - इह गाथोद्गीत्योः त्रयोदश अंशकाश्चतुर्मात्रास्तत्र गाथायां प्रथमार्द्ध सप्त द्वितीया? तु षष्टिपर्यायेण चोद्गीतौ तत्र प्रथमतृतीये पञ्चमसप्तमाः प्रथमार्द्ध मध्यगुरुकल्परहिताः प्रत्येकं चतुर्विकल्पाः। द्वितीयाद्धेऽपि एवमेव / इत्येवमसौ द्वितीय-चतुर्थी चार्द्धद्वयेपि प्रत्येकं पञ्च विकल्पा चैवमेते सर्वे चत्वारः षष्ठाङ्कश्च गाथायां प्रथमे अर्द्ध उद्गीतौ च द्वितीये द्वे विकल्पाः, ततो अष्टौ चतुष्काः, चत्वारः पञ्च द्विकं चेति / तत्र चतुष्टाङ्कस्य परस्परगुणने पञ्चषष्टिसहस्राणि पञ्चशतानि षट्त्रिंशच्च, पञ्चकचतुष्कस्य तु षट्शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि परस्परगुणने भवन्ति / ततोऽनेन राशिना पूर्वस्मिन्नासौ गुणितो अन्यतरार्द्ध षष्ठांशस्य द्विविकल्पत्वेन पुनरपि द्विगुणित इदं प्रस्तारप्रमाणं भवति / यथा विंशतिसहस्राणि एकोनविंशतिर्लक्षा अष्टौ कोटय इति, अत एवाह पत्थारमाणमेयं गाहु ग्गीई ण खंघए वि गुण। दुगुणं दुगुणं गीई ए [११बी ] अट्ठयं होई / / 21 / / प्रस्तारमानं रचनापरिमाणमेतदनन्तरोक्तमङ्कतोपि 8,19,20,000 कयोरित्याह-गाथोद्गीत्यो : स्कन्धकेऽष्टगुणं प्रस्तारमानमेतदिति वर्तते। यतोऽत्र द्वितीयार्द्धपि षष्ठोंऽशौ द्विविकल्पो दलद्वये अष्टमौ च, एवं च यो द्विकास्ते च परस्परगुणिता अष्टावेतद्गुणश्च पूर्वराशिः स्कन्धकप्रमाणं भवति / तच्चैतत् षष्टिसहस्राणि त्रिपञ्चाशल्लक्षाः पञ्चषष्टिकोटय इति / अङ्कतोऽपि 65,53,60,000 / यथोक्तम् पणसट्ठीकोडीउ लक्खा तेवण्ण सट्ठिसहस्साइं। पत्थारमाणमेयं खंधयगाहाए बिंति मुणी।। लेख संग्रह 277 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विगुणं गीत्यां सामान्यगाथाप्रस्तारप्रमाणं। द्वितीयाङ्केपि षष्ठांशकस्य द्विविकल्पकत्वात्। तच्चेदंचत्वारिंशत्सहस्राः अष्टात्रिंशल्लक्षा: षोडशकोट यो अङ्कतोऽपि 16,38,40,000 / एतदेव चोपसन्नीत्यामर्द्धकमर्द्धरूपं भवति। अत्र प्रथमार्द्धपि षष्ठांशस्यैव मात्रत्वात्। तच्च षष्टिसहस्राः नवलक्षाः चतस्र कोटयः इति अङ्कतोऽपि 4,09,60,000 / इति गाथाद्वयार्थः।।। [१२ए] दोलक्खडयालीससया मुहजघणचवलाण पत्तेयं। पंचसयबारसोत्तर पत्थारो उभयचवलाए।।२२।। द्वेलक्षाऽष्टचत्वारिंशच्च सहस्राणि मुखजघनचपलयोः, चपलाशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् मुखचपला-जघनचपलायाश्च प्रत्येकमिति पृथक् प्रस्तार इति सम्बध्यते / अत्र हि मुखचपलायां द्वितीयचतुर्थों मध्यगुरु अविकल्पावेव, एतौ च गुरुमध्यगौ कर्त्तव्याविति। प्रथमो द्विगुरुरन्तगुरुर्वा तृतीयो द्विगुरुरेव तद्भावे हि तस्य द्वितीयचतुर्थयो गुरुमध्यगत्वं / पञ्चमोप्यादिगुरुत्वेन द्विगुरुत्वेन वा द्विविकल्पः, षष्ठः प्रतीत एव, सप्तमोपि चतुर्विकल्प इति त्रयाणं द्विकानां चतुष्कस्य च परस्परगुणने याता द्वात्रिंशद्विकल्पास्ततौ द्वात्रिंशता सामान्यगाथा पश्चिमार्द्धविकल्पानां चतुःषष्टयंशप्रमाणानां गुणने यथोक्तं प्रस्तारप्रमाणं मुखचपलाया भवति / एतदेव द्वितीयार्द्धवतारिणि चपलालक्षणे षष्ठस्यैकमात्रत्वादविकल्पकत्वे द्वयोर्द्विकयो [१२बी] श्चतुष्केन गुणने यातैः षोडशभिर्विकल्पैर-विशेषगाथाप्रथमार्द्ध विकल्पानां अष्टशताधिकद्वादशसहस्रप्रमाणानां गुणने जघनचपलायाः प्रस्तारप्रमाणं भवति पञ्चशतानि द्वादशोत्तराणि 512 / विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् प्रस्तार:-प्रस्तारप्रमाणं कस्या इत्याह-उभयचपलाया: सर्वतश्चपलाया इत्यर्थः। उभयार्द्धावतारिणि हि चपलालक्षणे प्रथमार्द्ध द्वात्रिंशदुत्तरार्द्धं च षोडशविकल्पा द्वात्रिंशतः षोडशभिर्गुणने यथोक्तं प्रमाणं भवतीति गाथार्थः।।२२।। अधुना प्रकरणमुपसंहरन्तस्य प्रयोजनं विशेषो प्रयोग कर्तारं च वक्तुकाम आह गाहाजाइ समासो छंदो जइ गुरु लहूणछे यत्थं / पाइ यसत्थवत्थुवओगी जिणे सर सूरिणा रइ उ / / 23 / / . गाथाजातीनां पथ्या-विपुला-चपलादीनां समासः-संक्षेपो गाथाजातिसमासः तत्प्रतिपादकत्वात् प्रकरणमपि तथोच्यते इति / जिनेश्वरसूरिणा रचित इति सम्बध्यते / किमर्थमिथ्याह- छन्दो यतिगु- [१३ए] रुलघूनां छेदार्थं छेदः- परिच्छेदः परिज्ञानमिति यावत्। केषां? छन्दोयति गुरुलघुनां छन्दश्च गाथाछन्द एवं सामान्यतो विशेषश्च तत्रैव विरामो लघुश्च-लघ्वक्षरं गुरुश्च-गुर्व्वक्षरमेव, ततस्तेषामयं विरामस्तस्याद् यथा परिच्छेदो भवति तथा दर्शितमेव / प्राकृतं च-तत् प्राकृतभाषानिबन्धनत्वात् शास्त्रं च-प्रतिविशिष्टार्थशासनात् प्रतीतमेव / प्राकृतशास्त्रे उपयोगो-व्यापारः सो अस्यास्तीति उपयोगी प्राकृतशास्त्रे उपयोगी प्राकृतशास्त्रोपयोगी। तुः पूरणार्थो / जिनेश्वरसूरिणेति कर्तुर्नामनिर्देशो रचितः-कृत इति गाथार्थः।।२३।। __ अजितश्रावकोत्साहादेतच्छन्दोनुशासनम्। व्यावृणोन्मुनिचन्द्राख्य-सूरिः श्वेताम्बरप्रभुः।। इति श्रीजिनेश्वराचार्यविरचित-छन्दोनुशासनविवरणं समाप्तम्। ___कृतिः श्रीमुनिचन्द्रसूरीणाम्। प्रत्यक्षरगणनया श्लोकमानं 243 / [राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, जेसलमेर ग्रन्थोद्धार योजना फोटोकॉपी नं. 231, प्लेट 7 पत्र 13] ताडपत्रीय प्रति-लेखनकाल १२वीं [अनुसंधान अंक-४७] 000 278 लेख संग्रह Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बालचन्द्रचार्य एवं श्री ऋद्धिसागरोपाध्याय रचित निर्णय प्रभाकर : एक परिचय ग्रन्थ का नाम 'निर्णय प्रभाकर' देखकर सोचा कि यह किसी शास्त्रीय चर्चा का ग्रन्थ होगा किन्तु, कर्ता के रूप में श्री बालचन्द्राचार्य एवं श्री ऋद्धिसागरोपाध्याय देखकर विचार आया कि सम्भवतः खरतरगच्छ की जो दसवीं मण्डोवरा शाखा श्री जिनमहेन्द्रसूरि से उद्भूत हुई थी, शायद उसी सम्बन्ध में चर्चा हो। ___सहसा विचार आया कि यह शाखाभेद के विचार-विमर्श का ग्रन्थ नहीं हो सकता, क्योंकि इसके प्रणेता श्री बालचन्द्राचार्य मण्डोवरा शाखा के समर्थक थे और श्री ऋद्धिसागरोपाध्याय बीकानेर की गद्दी के समर्थक थे। दोनों के अलग-अलग छोर थे। अतएव एक ही ग्रन्थ के दोनों प्रणेता नहीं हो सकते। . तब फिर यह विचार हुआ कि इस ग्रन्थ को निकालकर अवश्य अवलोकन किया जाए। ग्रन्थ निकालकर देखा गया तो दिमाग चक्कर खा गया कि यह ग्रन्थ तो श्री झवेरसागरजी और श्री विजय राजेन्द्रसूरिजी के मध्य का है जो कि उनके विचार भेदों के कारण उत्पन्न हुआ हो। सहसा बिचार औंधा कि तपागच्छ के अनेकों उद्भट विद्वान होते हुए भी खरतरगच्छ के विद्वानों को निर्णय देने के लिए क्यों पञ्च बनाया गया और उनसे निर्णय देने के लिए कहा गया? वास्तव में खरतरगच्छ के दोनों विद्वान अपने-अपने विषय के प्रौढ़ विद्वान थे और गच्छीय संस्कारों के पोषक होते हुए भी माध्यस्थ, सामञ्जस्य और समन्वय को प्रधानता देते थे। उनके हृदय में गच्छ का कदाग्रह नहीं था किन्तु शास्त्रीय प्ररूपणा का आधार और अवलम्बन था। अतः इन दोनों निर्णायकों का संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक है। बालचन्द्राचार्यः- खरतरगच्छ के मण्डोवरा शाखा के अन्तर्गत आचार्य कुशलचन्द्रसूरि हुए, उनके शिष्य उपाध्याय राजसागरगणि उनके शिष्य उपाध्याय रूपचन्द्रगणि और उनके शिष्य श्री बालचन्द्राचार्य हुए। इनका जन्म संवत् 1892 में हुआ था और दीक्षा 1902 काशी में श्री जिनमहेन्द्रसूरि के कर-कमलों से हुई थी। दीक्षा नाम विवेककीर्ति था और श्री जिनमहेन्द्रसूरि के पट्टधर श्री जिनमुक्तिसूरि ने इनको दिङ्मण्डलाचार्य की उपाधि से सुशोभित किया था। ये आगम साहित्य और व्याकरण के धुरन्धर विद्वान थे। काशी के राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द इनके प्रमुख उपासक थे। अन्तिम अवस्था में तीन दिन का अनशन कर वैशाख सुदी 11, विक्रम संवत् 1962 को इनका स्वर्गवास हुआ था। ____ ऋद्धिसागरोपाध्यायः- महोपाध्याय क्षमाकल्याणजी की परम्परा में धर्मानन्दजी के 2 प्रमुख शिष्य हुए- राजसागर और ऋद्धिसागर। इनके सम्बन्ध में कोई विशेष ऐतिह्य जानकारी प्राप्त नहीं लेख संग्रह 279 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। ये उच्च कोटि के विद्वान थे। साथ ही चमत्कारी और मन्त्रवादी भी थे। वृद्धजनों के मुख से यह ज्ञात होता है कि दैवीय मन्त्र शक्ति से इन्हें ऐसी विद्या प्राप्त थी कि वे इच्छानुसार आकाशगमन कर सकते थे। विश्व प्रसिद्ध आब तीर्थ की अंग्रेजो द्वारा आशातना होते देखकर इन्होंने विरोध किया था। राजकीय कार्यवाही (अदालत) में समय-समय पर स्वयं उपस्थित होते थे और अन्त में तीर्थ रक्षा हेतु सरकार से 11 नियम प्रवृत्त करवाकर अपने कार्य में सफल हुए थे। ऐसा खीमेल श्रीसंघ के वृद्धजनों का मन्तव्य है। संवत् 1952 में इनका स्वर्गवास हुआ था। जैन शास्त्रों और परम्परा के विशिष्ट विद्वान् थे। इन्हीं की परम्परा में इन्हीं के शिष्य गणनायक सुखसागर परम्परा प्रारम्भ हुई जो आज भी शासन सेवा में सक्रिय है। प्रणेताओं का परिचय देने के बाद वादी और प्रतिवादी का परिचय भी देना आवश्यक है अतः वह संक्षिप्त में दिया जा रहा है: विजयराजेन्द्रसूरिः- इनका जन्म 1882, भरपुर में हुआ था। आपके पिता-माता का नाम केसरदेवी ऋषभदास पारख था। इनका जन्म नाम रत्नराज था। यति श्री प्रमोदविजयजी की देशना सुनकर रत्नराज ने हेमविजयजी से यति दीक्षा संवत् 1904 में स्वीकार की। श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरिजी से शिक्षा ग्रहण की और उनके दफ्तरी बने। 1924 में आचार्य पद प्राप्त हुआ और विजयराजेन्द्रसूरि नामकरण हुआ। उसी वर्ष क्रियोद्धार किया। संवत् 1963 पोष शुक्ला सप्तमी को आपका स्वर्गवास हुआ। सच्चारित्र निष्ठ आचार्यों में गणना की जाती थी। अभिधान राजेन्द्रकोष इत्यादि आपकी प्रमुख रचनाएं हैं जो कि आज भी शोध छात्रों के लिए मार्ग दर्शक का काम कर रही है। इन्हीं से त्रिस्तुतिक परम्परा विकसित हुई। मध्य भारत और राजस्थान में कई तीर्थों की स्थापना की। ऐसा प्रतीत होता है कि वादी और प्रतिवादी अर्थात् विजयराजेन्द्रसूरि और झवेरसागरजी में चार विषयों के लेकर मतभेद उत्पन्न हुआ, चर्चा हुई और अन्त में निर्णायक के रूप में इन दोनों ने श्री बालचन्द्राचार्य और ऋद्धिसागरजी को स्वीकार किया। क्योंकि ये दोनों आगमों के ज्ञाता और मध्यस्थ वृत्ति के धारण थे। लिखित रूप में कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता है किन्तु उनके द्वारा विवादित चार प्रश्नों के उत्तर निर्णय के रूप में होने के कारण यह सम्भावना की गई है। रचना संवत् और स्थान निर्णय प्रभाकर ग्रन्थ की रचना प्रशस्ति में लिखा है कि श्री जिनमुक्तिसूरि के विजयराज्य में वैशाख शुक्ल अष्टमी के दिन विक्रम संवत् 1930 में इस ग्रन्थ की रचना रत्नपुरी में की गई। जो कि इस निर्णय के लिए ये दोनों बुलाने पर रतलाम आए थे। ग्रन्थ की रचना उपाध्याय बालचन्द्र और संविग्न साधु ऋद्धिसागर ने मिलकर की है। श्रीमच्छ्रीजिनमुक्तिसूरिंगणभृद्ववर्तिचञ्चद्गुणा स्फीत्युद्गीर्णयसागणैखरतरे स्याद्वादनिष्नातधी: राज्ये तस्यसुखावहेगुणवतामभ्राग्नीनंदक्षितौ(१९३०) वर्षे राधवलक्षपक्षदिवसेचन्द्राष्टमी सतिथौ।। 1 / / 280 लेख संग्रह Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावादिप्रतिवादयस्यतमसासंपूरितामालवे न्यायान्यायविवेककारकमुखात्प्राचीककुब्सन्निभा निर्णीतार्थकराप्तयेकृतिसभा श्रीरत्नपू-मभूच्चितालाभनिमीलिकालयकरी भव्याविभावोपमा।। 2 / / तस्यांपाठकबालचन्दगणिभिर्निर्णन्यभावंगतैः संवेगिव्रतिऋद्धिसागरयुतैः श्रीसंघहूत्यागतै सिद्धांतप्रतिघप्रभाकरनिभः सन्दर्भएषहप्रियः ग्रंथान्वीक्षप्रकासितो मतिमयाम्बोधायनिर्णीयच।। 3 / / इन दोनों वादी प्रतिवादियों के मध्य में पाँच विषयों पर मतभेद था। 1. वादी:- परमेश्वर की जलचन्दन पुष्पिादिक के द्वारा जो द्रव्य पूजा करते हैं उसका फल अल्पपाप और अधिक निर्जरारूप है। प्रतिवादी:- झवेर सागरजी का कथन है कि परमेश्वर की द्रव्यपूजा का फल शुभानुबन्दी प्रभूततर निर्जरारूप है। 2. वादी:- प्रतिक्रमण और देववन्दन के मध्य में चौथी थुई नहीं कहना चाहिए, वैयावच्च गराणं आदि प्रमुख पाठ भी नहीं कहना चाहिए। सामायिक वन्दित्व में सम्मदिट्ठिदेवादिंतुसमाहिंचबोहिंच इस पद में देव शब्द नहीं कहना। क्योंकि, सामायिक में चार निकाय के देवताओं के सहयोग की वांछा करना युक्त नहीं है। प्रतिवादी:- चतुर्थ स्तुति और वैयावच्च गराणं प्रमुखपाठ कहना चाहिए। 3. वादी:- ललितविस्तराकार श्री हरिभद्रसूरि के समय निर्णय के सम्बन्ध में है। वादी 962 वर्ष मानते हैं, प्रतिवादी 585 वर्ष मानते हैं। . 4. वादी:- साधु को वस्त्र रंजन करना अर्थात् धोना अनाचार है। प्रतिवादी:- इनका कहना है कि यह अनाचार नहीं है। 5. वादी:- पार्श्वस्थ आदि को सर्वथा वंदन नहीं करना। प्रतिवादी:- जिसमें ज्ञानदर्शन हो और चारित्र की मलिनता हो उसको भी उस गुण के आश्रित वन्दन करना चाहिए। ये पाँचों प्रश्न जब निर्णायकों के समक्ष रखे गए तो उन्होंने पंचागी(मूल नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका) सहित आगम साहित्य को प्रमाण मानकर, उसके उद्धरण देकर अपना निर्णय लिया। आगम साहित्य और प्रकरण साहित्य के अतिरिक्त अन्य किसी का भी उद्धरण नहीं दिया है। यत्र-तत्र नैयायिक शैली का भी प्रयोग किया है। अङ्ग चूलिका, अनुयोगद्वार सूत्र-सटीक, आचारदिनकर, आचारांग सूत्र-टीका सहित, आवश्यक सूत्र नियुक्ति-बृहद्वृत्ति, आवश्यक सूत्र-नवकार मंत्र-लोगस्स-वैयावच्च-गराणं-पुक्खरवर्धी-सिद्धाणंलेख संग्रह 281 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धाणं-अरिहंत-चेइयाणं आदि, उत्तराध्ययन सूत्र-टीका, उपदेशमाला वृत्ति सहित, ओघनियुक्तिसटीक, औपपातिक सूत्र, चतुःशरण प्रकीर्णक, चैत्यवन्दनभाष्य-अवचूरि-टीका, जीवाभिगम सूत्र-. सटीक, ज्ञाताधर्म कथा सूत्र-टीका, कल्पसूत्र संदेह विषौषधी टीका-टीकाएं, नन्दीसूत्र, निशीथ सूत्र भाष्य-चूर्णि-टीका, पंचवस्तु टीका, पंचासक टीका, पिण्डनियुक्ति, प्रज्ञापना सूत्र, प्रतिष्ठा कल्पउमास्वाति, प्रतिष्ठा कल्प-पादलिप्तांचार्य, प्रतिष्ठा कल्प-श्यामाचार्य, प्रवचन सारोद्धार-सटीक, बृहद् कल्प सूत्र-भाष्य-नियुक्ति-टीका सहित, भगवती सूत्र-सटीक, मरण समाधि महानिशीथ सूत्र, योगशास्त्र, राजप्रश्नीय सूत्र, ललित विस्तरा(चैत्यवन्दन सूत्र टीका), व्यवहार भाष्य-चूर्णि-टीका, षडावश्यक लघु वृत्ति, सूत्र कृतांगसूत्र, स्थानांग सूत्र सटीक। इन दोनों निर्णायकों ने अपने निर्णय में श्री झवेरसागरजी के मत को परिपुष्ट किया है और वादी श्री विजयराजेन्द्रसूरि के मत का निराकरण किया है। वृद्धजनों के मुख से मैने यह सुना है कि उक्त निर्णय के पश्चात् श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराज ने उक्त निर्णय को पूर्ण मान्यता और अपने मन्तव्य को बदलने का प्रयत्न किया। इसी समय माल्हव और गोढ़वाढ़ के प्रमुख श्रेष्ठियों ने आचार्यश्री से निवेदन किया कि महाराज ये क्या कर रहे हो? हमने आपके मन्तव्य को स्वीकार कर अपने समाज से विरोध लेकर अलग हुए हैं ऐसी स्थिति में आप यदि मत बदलोगे तो हम उनके सामने कैसे सिर ऊँचा रखेंगे? ऐसा भक्त श्रावकों के मुख से सुनकर अपने मन्तव्य पर ही दृढ़ रहे और अपने विचारों को ही परिपुष्ट किया। तत्वं तु केवली गम्यं प्रति परिचय ___ इस प्रति की साईज 11.2420.3 से.मी. है। पत्र 71, पंक्ति 10 तथा प्रति पंक्ति अक्षर लगभग 38 हैं। लेखन प्रशस्ति निम्न प्रकार है: / / ग्रंथमान 1551, इतिनिर्णयप्रभाकराभिध:संदर्भः।। समाप्तोय:।। श्रीरस्तुकल्याणं / / श्रीमत्बृहत्खरतरगच्छे श्रीजिनचंद्रसूरिसाखाया:।। श्रीमत्१०८ श्री पं प्र। मुनिश्रीमद्देवविनयजी:।। तच्चरणारविंदमधुकरइवः।। जवेरचंद्रेणलिपिकतंदक्षिणप्रांत पूर्णाभिधनग्रात्पार्श्वभागेग्रामीणतलेग्रामध्ये लिपीकतंचतुर्मासचक्रेः।। संवत् 1939 का मीती आश्विनशुक्ल नवम्यांतिथौ शुक्रवासरेः।। पुण्यपवित्रंभवतु / / श्रेयभवतुः।। श्री।। [अनुसंधान अंक-४८] 282 लेख संग्रह Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगच्छीय धर्मघोषवंशीय श्री हरिकलश यति विरचिता मेदपाटदेश-तीर्थमाला जिनेश्वरों के कल्याणकों से पवित्रित तीर्थ भूमि हो, चाहे अतिशय क्षेत्र हो और चाहे जिनमन्दिर हों, उनकी यात्रा करने की अभिलाषा सभी लोगों को होती है। तीर्थों की यात्रा कर भावोल्लसित होकर भक्तगण उस तीर्थ स्थान की भूमि को जिनेश्वरों से पवित्र होने के कारण स्पर्श कर अपने जीवन को धन्य मानते हैं। तीर्थस्थ मन्दिरों में जिनबिम्बों की अर्चना, पूजा और प्रवर्द्धमान भावों से स्तवना कर, शुद्ध पुण्य भावों को अर्जित कर कर्म निर्जरा भी करते हैं। उच्चतम पद प्राप्त करने का बन्धन भी बाँधते हैं। पूर्व समय में तीर्थयात्रा की सुविधा सबके लिए सम्भव नहीं थी, क्योंकि कण्टकाकीर्ण और बीहड़ मार्ग में उपद्रवों का भय रहता था, लूटपाट का भय रहता था। अतः किसी भव्य संघपति के संघ में ही लोग सम्मिलित होकर तीर्थयात्रा किया करते थे जो जीवन में प्राय: कर एक-दो बार ही सम्भव हो पाती थी। .. जैनाचार्यों और जैनमुनियों ने बंगाल, बिहार, उड़ीसा, आसाम, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश आदि क्षेत्रों में स्थित तीर्थों की यात्रा कर अपने जीवन को सफल भी किया था। जिनवर्धनसूरि और जयसागरोपाध्याय आदि से लेकर १९वीं शताब्दी तक अनेकों ने तीर्थमालाएँ भी लिखी हैं / शत्रुञ्जय, गिरनार, आबू, खम्भात, सूरत आदि की स्वतन्त्र तीर्थमालाएँ भी मिलती हैं। इन तीर्थमालाओं में तीर्थों का पूर्ण वर्णन करते हुए तत्रस्थ जिनमन्दिरों की संख्या भी प्राप्त होती है। कई-कई तीर्थमलाओं में क्षेत्रों की दूरियाँ भी लिखी गई हैं और कई में मन्दिरों के अतिरिक्त बिम्बों की संख्या भी लिखी गई हैं। इस तीर्थमाला में केवल भारत के एक प्रदेश का हिस्सा मेदपाटदेश (मेवाड़) की तीर्थमाला लिखी गई है। इस तीर्थमाला में वर्णित विषय का आगे विश्लेषण किया जाएगा। . प्रणेता - इस कृति के निर्माता हरिकलश यति हैं। हरिकलश यति के संबंध में कोई भी ज्ञातव्य जानकारी प्राप्त नहीं है। इस कृति में स्वयं को राजगच्छीय बतलाते हुए धर्मघोषसूरि के वंश में बतलाया है। राजगच्छ की परम्परा में धर्मसूरिजी हुए हैं। यही धर्मसूरि धर्मघोषसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनका समय १२वीं शती है। इन्हीं धर्मघोषसूरि से राजगच्छ धर्मघोषगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। शाकम्भरी नरेश विग्रहराज चौहान और अर्णोराज आदि धर्मघोषसूरि के परम भक्त थे। यहाँ कवि ने धर्मघोषगच्छ का उल्लेख न कर स्वयं को धर्मघोषसूरि का वंशज बतलाया है। संभव है कि हरिकलश के समय तक यह गच्छ के नाम से प्रसिद्ध नहीं हुआ हो! इसी परम्परा के अन्य पट्टधर आचार्य का भी उल्लेख नहीं किया है। रचना समय - प्रणेता ने रचना समय का उल्लेख नहीं किया है। साथ ही इस तीर्थमाला में धुलेवा-केसरियानाथजी एवं महाराणा कुंभकर्ण के समय में निर्मित विश्वप्रसिद्ध राणकपुर तीर्थ का भी उल्लेख नहीं किया है / अतः अनुमान कर सकते हैं कि इस कृति का रचना समय सुरत्राण अल्लाउद्दीन के लेख संग्रह 283 19 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा चित्तौड़ नष्ट ( विक्रम संवत् 1360) करने के पूर्व का होना चाहिए। श्लोक 14 में 'दुर्गे श्रीचित्रकूटे वनविपिनझरन्निझराद्युच्चशाले, कीर्तिस्तम्भाम्बु-कुण्डद्रुमसरलसरो निम्नगा सेतुरम्ये' लिखा . है। इसमें कीर्तिस्तम्भ का उल्लेख होने से महाराणा कुम्भकर्ण द्वारा निर्मापित कीर्तिस्तम्भ न समझकर जैन कीर्तिस्तम्भ ग्रहण करना चाहिए जो कि १३-१४वीं शती का है। महाराणा कुम्भकर्ण का राज्यकाल विक्रम संवत् 1490 से लेकर 1525 तक का है। इसमें ईडर को भी मेवाड़ राज्य के अन्तर्गत लिखा है ईडर पर अधिकार १३-१४वीं शताब्दी में ही हुआ था। दूसरी बात इन स्थानों पर विशाल-विशाल ध्वजकलश मंडित और शिखरबद्ध अनेकों जिन मन्दिरों का उल्लेख यह स्पष्ट ध्वनित करता है कि यह रचना चित्तौड़ ध्वंस के पूर्व की है। अत: मेरा मानना यह है कि इस कृति की रचना १४वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही हुई है। हरिकलश यति संस्कृत साहित्य, छन्दःसाहित्य और चित्रकाव्यों का प्रौढ़ विद्वान था। व्याकरण पर भी इसका पूर्णाधिपत्य दृष्टिगत होता है। इस स्तव में इनके प्रौढ़ पाण्डित्य के साथ लालित्य, माधुर्य और प्रसाद गुण भी प्राप्त हैं। नामकरण एवं तीर्थपरिचय - मेदपाट अर्थात् मेवाड़ देश के तीर्थस्वरूप जिन-मन्दिरों की यात्रा एवं वन्दना होने से इस स्तव का नाम भी मेटपाट देश तीर्थमाला रखा गया है। इस तीर्थमाला का परिचय इस प्रकार है:१. कवि ने प्रथम पद्य में चौवीस तीर्थङ्करों को नमस्कार कर देखे हुए तीर्थों की तीर्थमाला में वन्दना की 2. इसमें 'वामेय' शब्द स्वस्तिक चित्र गर्भित पार्श्वनाथ की स्तुति की है। इसमें नागहृद (वर्तमान में नागदा) स्थित नवखण्डा पार्श्वनाथ के मन्दिर का वर्णन किया है। साथ ही कवि नागहृद में 11 जैन मन्दिरों का उल्लेख भी करता है जिनमें शान्तिनाथ और महावीर आदि के मन्दिर मुख्य हैं। जिनमन्दिर में वाग्देवी अर्थात् सरस्वती देवी की मूर्ति का भी कवि उल्लेख करता है। इसमें देवकुलपाटक (वर्तमान में देलवाड़ा) में हेमदण्डकलशयुक्त चौवीस (चौवीस देवकुलिकाओं से युक्त) तीन मंदिरों का वर्णन करता है, जिसमें श्री महावीर, ऋषभदेव और शान्तिनाथ के मंदिर हैं। यहाँ कवि कहता है कि भगवान शान्तिनाथ गुरुधर्मसूरि द्वारा भी वंदित हैं अर्थात् उनके द्वारा प्रतिष्ठित हैं। इसमें आघाटपुर (वर्तमान में आहाड़) जल कुण्डों से सुशोभित है; विद्या विलास का स्थान है और जो माकन्द, प्रियाल, चम्पक, जपा और पाटला के पुष्पों से संकुलित है। वहाँ 10 जिनमन्दिर हैं। जिनमें पार्श्वनाथ, आदिदेव, महावीर के मुख्य हैं। 6. इसमें प्रारम्भ के दो अक्षर पढ़ने में नहीं आ रहे हैं। सम्भवतः ईशपल्लीपुर (वर्तमान में ईसवाल) में विद्यमान विक्रम संवत् 300 की अत्यन्त पुरातन श्री आदिनाथ प्रतिमा को निरन्तर नमस्कार करता है। 7. इसमें मज्जापद्र (मजावड़ा) विषम पर्वतों से घिरा हुआ है। यहाँ 52 जिनालय से मण्डित प्रशस्त चैत्य है। मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान हैं। और खागहड़ी में अनेक बिम्बों से युक्त शान्तिनाथ भगवान को नमस्कार करता है। 284 लेख संग्रह Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. इसमें पद्राटक (बड़ौदा/बाँसवाड़ा) ग्राम में श्रेष्ठतम महावीर स्वामी का मन्दिर है, चौवीस मण्डपिकाओं - से युक्त स्वर्ण वर्णी पार्श्वनाथ विराजमान हैं। दूसरा मन्दिर भी पार्श्वनाथ का है। उसमें भी विराजमान समस्त जिनेश्वरों को कवि नमस्कार करता है। 9. इस पद्य में मत्स्येन्द्रपुर (वर्तमान में मचीन्द) में विराजमान पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ आदि जिनवरों को नमस्कार करता है और श्यामवर्णी पार्श्वनाथ को नमस्कार करता है। 10. इस पद्य में पहाड़ों के मध्य में कपिलवाटक (सम्भवतः केलवाड़ा) को कवि ने राजधानी बताया है। सम्भव है राज्यों के उथल-पुथल में इसको राजधानी बनाया गया हो अथवा कुम्भलगढ़ को समृद्ध करने के पूर्व इसको राजधानी के रूप में माना हो। इस कपिलवाटक में उत्तुङ्ग तोरणों से युक्त पाँच जिनालय हैं, जिनमें नेमिनाथ, पार्श्वनाथ आदि मुख्य हैं। उन सबको कवि ने प्रणाम किया है। 11. वैराट अपरनाम वर्द्धनपुर (बदनोर) ऊचे पहाड़ियों के मध्य में बसा हुआ है। यहाँ तेरह जिनमन्दिर तोरणों से शोभायमान हैं और उनमें आदिनाथादि प्रमुख मूलनायक हैं। पर्वतों के मध्य में ही खदूरोतु ( ) में पार्श्वनाथ का जिनमन्दिर हैं। 12. १२वें पद्य में माण्डिल (माण्डल) ग्राम का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि यहाँ पर जिनेश्वरों ___के पाँच मन्दिर हैं, जिसमें नेमिनाथादि मूलनायक प्रमुख हैं। शान्तिनाथ भगवान की मूर्ति आठ हाथ ऊँची है। 13. तेरहवें पद्य में प्रज्ञाराजी मण्डल (माण्डलगढ़) के दुर्ग पर ऋषभदेव और चन्द्रप्रभ के मन्दिर हैं। - तथा विन्ध्यपल्ली (बिजौलिया) में शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी के मुख्य मन्दिर हैं। 14.. इस पद्य में चित्रकूट (चित्तौड़) दुर्ग का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि जहाँ झरने बह रहे हैं, . उच्च कीर्तिस्तम्भ है, जलकुण्ड है, नदी बहती है, पुल भी बँधा हुआ है। उस चित्तौड़ में सोमचिन्तामणि .. के नाम से प्रसिद्ध चिन्तामणि पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर है। साथ ही ऋषभदेव आदि के 22 ... मन्दिर और हैं जिनको मैं नमस्कार करता हूँ। 15. पद्य 15 में करहेटक (करेडा) में विस्तीर्ण स्थान पर तीन मण्डप वाला चौवीस भगवानों के .. देहरियों से युक्त मन्दिर है। साथ ही 72 जिनालयों से युक्त जिनेन्द्रों को मैं नमस्कार करता हूँ। 16. १६वें पद्य में कवि स्थानों का नाम देता हुआ - सालेर (सालेरा), जहाजपुर मण्डल, चित्रकूट दुर्ग, वारीपुर ( ), थाणक (थाणा), चङ्गिका (चंगेड़ी), विराटदुर्ग (बदनोर), वणहेडक (बनेड़ा), घासक (घासा) आदि स्थानों में स्थापित जिनवरों को नमस्कार करता है। 17. इसमें दर्भीकसी (डभोक) ग्राम में विराजमान देवेन्द्रों से पूजित युगादि जिनेश को कवि प्रणाम करता है। 18. इस पद्य में अणीहृद ( ) में विराजमान अधिष्ठायक पार्श्वदेव के द्वारा सेवित पार्श्वनाथ को और नीलवर्णी हरिप्रपूजित नेमिनाथ को नमस्कार करता है। 19. यापुर (जावर) में आठ जिनमन्दिर हैं। वे तोरण, ध्वजा आदि से सुशोभित हैं। वर्द्धमान स्वामी __प्रतिमा पित्तल परिकरकी है। श्रीचन्द्रप्रभ, वासुपूज्य, ऋषभदेव और शान्तिनाथ आदि मूलनायकों ___ को जो कि सात जिनमन्दिरों में विराजमान हैं उनको नमस्कार करता है। 'लेख संग्रह 285 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. २०वें पद्य में उच्च डूंगरों से घिरा हुआ और अजेय डूंगहपुर (डूंगरपुर) और महाराजा कुमारपाल द्वारा निर्मापित ईडरपुर में ऋषभदेव भगवान को तथा तलहट्टिका में विद्यमान समग्र चैत्यों को कवि नमस्कार करता है। 21. पद्य 21 में तारण (तारङ्गा) में कुमारपाल द्वारा निर्मित अजितनाथ भगवान के मन्दिर में श्री धर्मसूरि द्वारा संस्थापित जिनेश्वरों को वन्दन करता है। इसी प्रकार आरास ( ), पोसीन ( ), देवेरिका (दिवेर), चैत्र ( ), चङ्गापुर (चाङ्ग) आदि में विराजमान जिनेन्द्रों को भी नमस्कार करता है। 22. यह मेदपाट देश जो कि चारों तरफ पर्वतों से आच्छादित है, उसके मध्य भाग में गाँव-गाँव में विशाल-विशाल अनेक तीर्थंकरों के देव मन्दिर हैं। जो कि ध्वजा पताकाओं और कलशों से. शोभित है। इनमें से कई मन्दिरों को मैंने देखा है और कई मन्दिरों को मैं नहीं देख पाया हूँ। उन सब जिनेश्वरों को सम्यक्त्व की वृद्धि के लिए मैं नमस्कार करता हूँ। 23. देश-देश में, नगर-नगर में और ग्राम-ग्राम में जो भी अचल जिनमन्दिर हैं, जिनके मैंने दर्शन किए. हैं या नहीं किए है उन सब छोटे-बड़े मन्दिरों को मैं नित्य ही वन्दन करता हूँ। साथ ही देव और मनुष्यों द्वारा वन्दित तीन लोक में स्थित शाश्वत या अशाश्वत समस्त तीर्थङ्करों को मैं नमस्कार करता 24. इस प्रकार राजगच्छ में उदयगिरि पर सूर्य के समान श्री धर्मघोषसूरि की वंश परम्परा में हरिकलश यति ने भक्ति पूर्वक तीर्थयात्रा करके अपने नित्य स्मरण के लिए और पुण्य की वृद्धि के लिए प्रमुदित हृदय से तीर्थमाला द्वारा स्तवना की है। . इसमें कवि ने जिन-जिन स्थानों का नामोल्लेख किया है उनमें से कतिपय स्थानों के जो आज नाम हैं वे मैंने कोष्ठक में दिए हैं। अन्य स्थलों के नामों के लिए शोध विद्वानों से यह अपेक्षा है कि वे वर्तमान नाम लिखने की कृपा करें ताकि मैं भविष्य में संशोधन कर सकूँ। कवि हरिकलश यति व्याकरण, काव्य, अलङ्कार शास्त्र, छन्दों का तो विद्वान् था ही साथ ही २०३-२१वें पद्य को देखते हुए यह कह सकते हैं कि वह राग-रागनियों का भी अच्छा जानकार था। इस स्तव माला में प्रयुक्त छन्दों की तालिका इस प्रकार है: भुजङ्गप्रयात - 1, 12, 17; अनुष्ठब् - 2; शार्दूलविक्रीडित - 3, 4, 5, 11, 15, 19; इन्द्रवंशा -6; स्रग्धरा -7,8,14, 22, 24; आर्या - 9; वसन्ततिलका - 10,16; १३वाँ पद्य अस्पष्ट है; उपजाति - 18; १९वाँ-२०वाँ कड़खा राग में गीयमान देशी - 'भावधरी धन्यदिन आज सफलो गिणुं' में है और २३वाँ पद्य मन्दाक्रान्ता छन्द में है। __इस तीर्थमाला स्तव की प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रहालय में ग्रन्थाङ्क 22728 पर विद्यमान है। लम्बाई चौड़ाई 2148.5 सेंटीमीटर है। लेखन काल अनुमानतः १६वीं शताब्दी है। लेखन प्रशस्ति नहीं है। पत्र संख्या 2 है। प्रथम पत्र के प्रथम भाग पर और द्वितीय पत्र के प्रथम भाग पर स्वस्तिक चित्र भी अंकित हैं। जिसमें श्लोक संख्या 2 और 17 के अक्षरों का लेखन है। पत्रों के हांसिए. में पद्य संख्या 9 और पद्य संख्या 13 भिन्न लिपि में लिखित हैं। कई अक्षर अस्पष्ट हैं। पद्य 6 के प्रारंभ के दो अक्षर अस्पष्ट हैं। 286 लेख संग्रह Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. जहाँ केसरियानाथ (कालियाबाबा) और राणकपुर जैसे विश्वप्रसिद्ध तीर्थ स्थान हों, जहाँ श्रीजगच्चन्द्रसूरि जैसे आचार्यों को तपाविरुद मिला हो अर्थात् जहाँ से तपागच्छ प्रारम्भ हुआ हो, जहाँ खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा के जिनवर्द्धनसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनसागरसूरि का चारों ओर बोल'बाला हो, जहाँ महोपाध्याय मेघविजयजी का प्रमुख विचरण स्थल रहा हो, जहाँ नौलखा गोत्रीय रामदेव और राष्ट्रभक्त महाराणा प्रताप के अनन्य साथी दानवीर भामाशाह जैसे जिस राज्य में वित्त मन्त्री रहे हों। जहाँ अधिकारी वर्ग में जैन मन्त्रियों में देवीचन्द मेहता से लेकर भगवतसिंह मेहता रहे हों, जहाँ बलवन्तसिंह मेहता जैसे स्वतन्त्रता सेनानी रहे हों और पुरातत्वाचार्य जिनविजयजी जैसे इस भूमि की उपज हों उस मेवाड़ प्रदेश की जैसी प्रसिद्धि जैन समाज में होनी चाहिए वैसी नहीं रही। लीजिए अब पठन के साथ भावपूर्वक तीर्थवन्दना कीजिए: राजगच्छीय धर्मघोषसूरिवंशीय श्रीहरिकलशयतिविरचिता मेदपाटदेश-तीर्थमाला // र्द.॥ श्रीजिनेन्द्रेभ्यो नमः॥ चतुर्विंशतिं तीर्थनाथान् प्रणम्य, स्वयं दृष्टतीर्थस्मृतेर्जातहर्षात् / विचिन्त्य स्वचित्ते महापुण्यलाभं, स्तुवे तीर्थमालां विशालां रसालाम् // 1 // सश्रीदैरसुरैः सेव्यः' सवासवसुरैनरैः।। स मे यच्छतु नैर्मल्यं संयमाराधने जिनाः // 2 // रैः से व्यः ___ ध रा मा य सं वा स व सु ल्यं म नै तु श्रीवामेय इति नामगर्भ स्वस्तिकः आदौ सम्प्रति राजकीर्तननथो( !मथो) नागह्रदेशार्चितं / स्वप्नात् श्रीनवखण्डनामविदितं श्रीपार्श्वनाथं जिनम्॥ लेख संग्रह 287 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाग्देवीं च जिनेन्द्रदिव्यभवनेष्वेकादशस्वन्वहं, शान्त्यादीश्वरवीरमुख्यजिनपान् वन्दे त्रिकालं त्रिधा // 3 // श्रीमद्देवकुलादिवाटकपुरे रम्ये चतुर्विंशतिप्रासादैर्वरहेमदण्डकलशैः सद्बिम्बपूर्णान्तरैः। श्रीवीरं ऋषभादिकान् जिनवरांस्तीर्थावतारानपि, श्रीशान्तिं गुरुधर्मसूरिविनुतं वन्दे सदा सुप्रभम् // 4 // आघाटे जलकुण्डमण्डितपदे विद्याविलासास्पदे, माकन्दालि-प्रियालचम्पक-जपा-सत्पाटलासङ्कले // वामेयादिजिनालयेषु दशसु श्रीआदिदेवादिकान्, वीरान्तान् जिननायकाननुदिनं नौमि त्रिसन्ध्यं मुदा // 5 // ....शताद् विक्रमवत्सरे स्थितं, श्रीईशपल्लीपुरभिश्चेलासेनं (? चेलासनम्) श्रीआदिदेवं बहुभिश्चिरन्तनै-र्बिम्बैर्समेतं प्रणमामि सन्ततम् // 6 // मज्जापद्रे विषमगिरिभिर्युगमे ग्रामवर्ये द्वापञ्चाशद्वरजिनगृहैर्वेष्टिते चारुचैत्ये। श्रीवामेयं प्रमुदितमना नौमि सर्वैर्जिनेन्द्रैः श्रीमत्शान्तिं बहुजिनयुतं ग्रामके खागहड्याम्॥७॥ ग्रामे पदाटकाढे वरजिनभवने स्वामिनं वर्द्धमानं, स्वर्णाभं पार्श्वदेवं त्रिगुणवसुजिनै-२४ मण्डितं तोरणस्थैः। नत्वा चान्यैर्जिनेन्द्रैः परिधिपरिगतैर्शोभमानं सुभक्त्या नित्यं चैत्ये द्वितीये जिनततिसहितं पार्श्वनाथं नवीमि // 8 // मत्स्येन्द्रपुरे पार्श्व शान्त्यादीशादि बहुजिनान् वन्दे। पंकिल डभरशामलदलोपम...तुरे? वीरम्॥ 9 // गिर्यन्तरे कपिलवाटकराजधान्यां, प्रोद्भासि राजभवनोत्सवशोभितायाम्। प्रोत्तुङ्ग-पञ्च-जिनवेश्मसु नेमिपार्श्व - मुख्यान् जिनान् प्रतिदिनं प्रणमामि सर्वान् // 10 // वैराटापरनाम्नी वर्धनपुरे तुङ्गाद्रि पुण्यार्हतां, सैकद्वादशदेवमन्दिरमहैर्विभ्राजिते नित्यशः। श्रीआदीशजिनादिबिम्बनिवहं वंदामि भक्त्या ततो, मन्दारी खदुरोतु देवसदने वामेयमुख्यान् जिनान् // 11 // पुरे पञ्चदेवालय श्रीजिनेन्द्रान् सदा नौमि नेमीश-मुख्यानशेषान् / पुरे माण्डिलग्रामवासं जिनौघं सरूपाष्टहस्तोन्नतं शान्तिदेवम् // 12 // प्रज्ञाराजिमण्डलकरे दुर्गे रम्ये युगादीश - चन्द्रप्रभौ शान्ति-पार्श्वम् 288 लेख संग्रह Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महावीरमुख्याहतो नौमि सर्वान् एव स्नात्रदृश्व जिनं विन्ध्यपल्याम्॥ 13 // दुर्गे श्रीचित्रकूटे वनविपिनझरन्निर्झराद्युच्चशाले, कीर्तिस्तम्भाम्बुकुण्डद्रुमसरलसरो निम्नगा सेतुरम्ये। पार्श्व श्रीसोमचिन्तामणिमपरजिनान्नौमि नाभेयमुख्यानेवं द्वाविंशतौ श्रीजिनपतिभवनेष्वेकचित्तः समग्रान् // 14 // स्थाने श्रीकरहेटके जिनगृहे श्रीसंप्रती ये पुरा, विस्तीर्णे वसुवेददेवकुलिकाकीर्णे त्रिभूमण्डपे। रम्ये गर्भगृहालयस्थजिनपै 24 र्वेदद्विसंख्यैः सदा, वामेयं सहितं द्विसप्ततिजिनैरेवं मुदा नौम्यहम् // 15 // सालेर-जाजपुरमण्डल-चित्रकूट-दुर्गेषु वारिपुर-थाणक-चङ्गिकासु। विराटदुर्ग-वणहेडक-घांसकादौ संस्थापितान् जिनवरान् गुरुभिः प्रणौमि // 16 // प्रमोदास्पदं मुक्तिदै नाथमेकं, प्रजाभासि दीकसि ग्रामरम्ये। प्रणम्रामरेशं युगादिंजिनेशं, प्रमादापहं भावतोऽहं नमामि॥ 17 // मुक्ति दं ना थक मेका AT OF | BINER भा हं पदा मा प्र जा भा सि द भी जि दि गा यु शं प्रथमजिनेतिगुप्तनामा स्वस्तिकः॥ अणीह्रदे शान्तरसामृतं ह्रदं, पार्था जिनं पार्श्वसुरेण सेवितम्। हरिप्रपूज्यं हरिनीलदेहं, नित्यं स्तुवे नित्यपदे निवासिनम् // 18 // नाम्नार्थेन च यापुरे वसुनौ(?) श्रीवर्धमानोदये, देवार्यं वरपित्तलापरिकरं सत्तोरणोद्भासितम्। श्रीचन्द्रप्रभ(वासुपूज्य-वृषभ) श्रीशान्तिमुख्यानहं, सप्त श्रीजिनमन्दिरेषु सततं संस्तौमि सर्वार्हतः॥ 19 // अथ च डुङ्गहपुरादजयदुर्गावके, शैलवलये स्तुवे घट्टसीमां जिनान् / ऋषभमीडरपुरे कुमरजिनमन्दिरे, नौमि तलहट्टिका सर्वचैत्यानि च // 20 // लेख संग्रह 289 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तारणेऽजितजिनं कुमरचैत्ये स्थिरं स्थापिते धर्मसूरिभिरहं संस्तुवे। एवमारास-पोसीन-देवेरिका-चैत्रभावाद्रि चङ्गापुरादौ जिनान् // 21 // देशेऽस्मिन् मेदपाटे गिरिवरनिकरैः सङ्कले मध्यभागे, ग्रामे-ग्रामे विशाला बहुजिनकलिताः सन्ति मुख्या विहाराः। बाह्येप्येवं प्रभूता ध्वजकलशयुता भान्ति सर्वेषु तेषु, दृष्टाऽदृष्टेषु नित्यं सकलजिनपतीन्नौम्यहं बोधिवृद्ध्यै // 22 // देशे-देशे नगर-नगरे ग्राम-ग्रामेऽचलादौ, प्रासादा ये नयनपथगास्तेषु चान्येषु नित्यम्। अर्चा सर्वा गुरुलघुतरा स्तौमि तीर्थेश्वराणां, त्रैलोक्यस्था सुरनरनताः शाश्वताऽशाश्वताश्च // 23 // इत्थं श्रीराजगच्छोदयगिरितरणेर्धर्मघोषस्यसूरेवंशे जातः सुभक्त्या हरिकलशयतिस्तीर्थयात्रां विधाय। नित्यं स्मृत्यै जिनानां विपुलतरलसद्भावपूर्णान्तरात्मा, कांक्षन् पुण्यस्य वृद्धिं प्रमुदितमनसा तीर्थमालां स्तवीति॥ 24 // इति श्रीमेदपाटदेशतीर्थमालास्तवनम्॥ [अनुसंधान अंक-३७] 000 290 लेख संग्रह Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेड़ से सम्बन्धित प्राचीन जैन लेख एवं उल्लेख खेड़ एक प्राचीन नगर रहा है, जो वर्तमान समय में जोधपुर और बाड़मेर के बीच बालोतरा स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम की ओर एक सामान्य ग्राम के रूप में अवस्थित है। रेलवे स्टेशन भी है। ग्राम में कुछ झोपड़ियाँ हैं जिनमें अन्त्यज जाति के लोग रहते हैं। वर्तमान में दसवीं और बारहवीं शती के मध्य निर्मित श्री रणछोड़रायजी का प्राचीन मंदिर है। इसी मंदिर के अन्तर्गत कई मंदिर हैं / गर्भगृह में श्वेत संगमरमर की रणछोड़राय जी की 4'/, फुट की वि. सं. 1232 की भव्य एवं विशाल प्रतिमा विद्यमान है। आसपास के ग्रामों की रणछोडरायजी के प्रति अत्यन्त आस्था और मान्यता है / भाद्रपद शुक्ला अष्टमी को मेला भी भरता है, इस अवसर पर हजारों दर्शनार्थी भी आते हैं। इस ग्राम के चारों तरफ यत्र-तत्र प्राचीन अवशेष आज भी प्राप्त होते रहते हैं। . प्राचीनता :- इसका प्राचीन नाम लवण खेटक या खेटक प्राप्त होता है। वहाँ की एवं आसपास की भूमि क्षार/लवण युक्त होने से यह लवण खेटक कहा जाता रहा है। लवण खेटक का संक्षिप्त रूप खेटक का भाषा में खेड़ ही प्रसिद्ध रहा। प्राचीन समय में लवण खेटक एक विशाल नगर था। श्री रामकर्ण गुप्त एडवोकेट के 'खेड में प्राचीन मंदिर' शीर्षक लेख के अनुसार इस नगर का विस्तार लगभग 3 कोस अर्थात् 6 मील (9 किलोमीटर) में था व इस स्थल के चारों ओर वर्तमान में स्थित तिलवाड़ा, कल्लावास, वैमावास आदि कई गाँव इस विशाल नगर के विविध मुहल्ले थे। खेड़ की सीमा थोब तक थी / संभव है इस नगर की विस्तृत परिधि बालोतरा, जसोल, महेवा तक हो। जसोल-यशपोल खेटक का एक प्राचीन द्वार होना चाहिये। .. प्राचीन समय में खेटक नगर क्रमशः पंवार, परिहार और गोहिल राजपूतों की समृद्धिपूर्ण राजधानी रही। राठोड़वंशीय राव सीहाजी राजस्थान में आये और उनके पुत्र राव आस्थानजी ने वि. सं. 1330 के पश्चात् गोहिलों को खदेड़ कर इस खेड़ पर अधिकार कर लिया था। वि. सं. 1348 के आसपास इस नगर पर जलालुद्दीन खिलजी ने अधिकार कर लिया था और इस नगर को ध्वस्त कर दिया था। कुछ वर्षों बाद राव धुहड़जी के वंशजों ने इस पर पुनः अधिकार कर लिया। राव सलखाजी के पश्चात् * उनके पुत्र वीरमजी का खेड़ पर आधिपत्य रहा। आपसी वैमनस्य में उनकी मृत्यु हो जाने पर सलखाजी के द्वितीय पुत्र प्रसिद्ध पुरुष राव मल्लिनाथजी ने इस पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था। तभी से यह प्रदेश मल्लिनाथजी के नाम पर 'मालानी' कहा जाने लगा। इधर राव वीरमजी के पुत्र चूंडाजी ने वि. सं. 1451 के आसपास मंडोर को अपनी राजधानी बनाया और उनके पौत्र राव जोधाजी ने वि. सं. 1516 में जोधपुर की स्थापना की। निष्कर्ष यह है कि गोहिलों के पश्चात् इस प्रदेश पर राठोड़ों का ही आधिपत्य रहा है। 1. म. म. विश्वेश्वरनाथ रेउ : मारवाड़ का इतिहास, प्रथम भाग, पृ. 47 2. वही, पृ.44 लेख संग्रह 291 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः देखा जाए तो गोहिल राजपूतों के पतन के पश्चात् एवं जलालुद्दीन खिलजी के आक्रमण के अनन्तर तो यह समृद्धिपूर्ण लवण खेटक समृद्धिहीन होता गया और इसकी विस्तृत सीमायें खण्डखण्ड होती गईं। इसी का परिणाम है कि उस समय का वह वैभवशाली नगर वर्तमान में एक छोटा सा ग्राम दिखाई देता है। श्री रणछोडरायजी के मंदिर की प्रसिद्धि एवं मान्यता न होती तो शायद इस नगर का आज नामोनिशान भी न होता। इस सम्भावना का प्रमुख कारण यह है कि लवणखेटक/खेटक के संबंध में जो मूर्तिलेख या ग्रन्थ लेखन पुष्पिकायें प्राप्त होती हैं वे सभी राठोड़ सलखाजी के पूर्व ही प्राप्त होती हैं। और जो प्राप्त होती हैं वे सभी इस नगर की जाहोललाली का वर्णन करती हैं। प्राप्त प्रमाण निम्न हैं:1. वि.सं. 1243 में आचार्य जिनपतिसूरि ने लवणखेटक में चातुर्मास किया था। 2. वि.सं. 1245 में आचार्य जिनपतिसूरि संघ के साथ यहीं आये और यहाँ पूर्णदेवगणि, मानचन्द्रगणि एवं गुणभद्रगणि को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया। 3. वि.सं. 1248 में लवणखेटक में जिनहित को उपाध्याय पद प्रदान किया था। 4. वि.सं. 1251 में जिनपतिसूरिजी ने राणा श्री केल्हण का विशेष आग्रह होने के कारण पुनः लवणखेटक ____ जाकर दक्षिणावर्त आरात्रिकावसारणत्व बड़ी धूमधाम से मनाया। 5. वि.सं. 1256, चैत्र बदी 5 को लवणखेड़ में नेमीचन्द्र, देवचन्द्र, धर्मकीर्ति और देवेन्द्र को दीक्षित किया था। 6. वि.सं. 1257 में लवणखेट में शांतिनाथ के विशाल मंदिर की प्रतिष्ठा का आयोजन किया गया था, किन्तु प्रशस्त शकुनों के अभाव में नहीं हो सकी। इसलिये यही प्रतिष्ठा जिनपतिसूरि ने वि. सं. 1258, चैत्र बदी 5 को शांतिनाथ विधि चैत्य में शांतिनाथजी की प्रतिमा व शिखर की प्रतिष्ठा करवाई। और वहीं चैत्र बदी 2 को वीरप्रभ और देवकीर्ति को दीक्षित किया। 14वीं शती में ताड़पत्रीय आवश्यक लघुवृत्ति की लेखन प्रशस्ति के अनुसार लवणखेटीय शान्तिनाथ मंदिर का निर्माण श्रेष्ठि उद्धरण ने करवाया थाः य इह लवणखेटे मंदिरं शान्तिनेतु र्व्यरचयदतिरम्यं स्वधुनीस्पर्धिकेतु।। स्मृतिपथगमिता ऽऽ नन्दादिपुंस्कस्य तस्योद्वरणणसम भिधस्या ऽऽ नन्दना नन्दना या // 11 // " 1. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ. 34 2. वही, पृ. 44, 3. वही पृ. 44, 4. वही पृ. 44, 5. वही पृ.44, 6. वही पृ.44 7. जैसलमेर जैन ताडपत्रीय ग्रन्थ भंडार सूचीपत्र, प.37, क्रमांक 114 292 लेख संग्रह Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. वि.सं. 1263, फाल्गुन बदी 4 को लवणखेट में जिनपतिसूरि ने महं कुलधरकारित महावीर प्रतिमा - की स्थापना की और नरचन्द्र, रामचन्द्र, पूर्णचन्द्र एवं विवेकश्री, मंगलमति, कल्याणश्री, जिनश्री आदि . साधु-साध्वियों को दीक्षा दी तथा धर्मदेवी को प्रवर्तिनी पद दिया। इस अवसर पर आभुल आदि ___ बागडीय श्रावक समुदाय आचार्य जिनपतिसूरि को वंदन करने हेतु लवणखेड़ आया। 8. वि.सं. 1265 में लवणखेड़ में ही मुनिचन्द्र, मानचन्द्र और सुन्दरमति, आसमति नामक चार स्त्रीपुरुषों को दीक्षित किया। निष्कर्ष यह है कि वि.सं. 1243 से 1265 के मध्य आचार्य जिनपतिसूरि जो युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि के प्रशिष्य एवं मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर शिष्य थे, अनेकों बार लवणखेड में आये। लवणखेटक के राणक श्री केल्हण आचार्य को विशिष्ट सम्मान देते थे। आचार्य ने यहाँ कई बार मुमुक्षु एवं मुमुक्षिणीयों को दीक्षित किया, अनेकों को पद प्रदान किया। विशाल शान्तिनाथ विधिचैत्य का निर्माण हुआ और दो बार प्रतिष्ठायें करवाईं। इससे स्पष्ट है कि वि.सं. 1265 तक लवणखेटक प्रसिद्ध वैभवपूर्ण नगर था, व्यापार केन्द्र था, और प्रचुर परिमाण में धनाढ्य श्रावक यहाँ निवास करते थे। आचार्यों एवं मुनियों के यहाँ चातुर्मास होते रहते थे। जैसे यह खरतरगच्छ का प्रमुख गढ़ था वैसे ही नागेन्द्र गच्छ, भावदेवाचार्य गच्छों आदि का प्रभाव भी यहाँ प्रचुर था और वे यहाँ विचरण करते थे। - आचार्य जिनपतिसूरि ने 1258 में शान्तिनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा के समय जिस वीरप्रभ को दीक्षित किया था, वे ही परवर्ती समय में जिनपतिसूरि 1277 में स्वर्गवास हो जाने पर वि.सं. 1278 में जिनेश्वरसूरि के नाम से आचार्य बने। इस दीक्षा और शान्तिनाथ मंदिर प्रतिष्ठा के उल्लेख लक्ष्मीतिलकोपाध्याय रचित शान्तिनाथ देवरस गाथा 45-46, सोमवर्ती गणि रचित जिनेश्वरसूरि संयमश्री विवाह वर्णन रास गाथा 20 से 24 एवं जिनेश्वरसूरि सप्ततिका गाथा 23 आदि में प्राप्त हैं। 9. वि.सं. 1383 में दादा जिनकुशलसूरिजी बाड़मेर से विहार करते हुए लवणखेटक आये और स्वकीय पूर्वज वाहित्रिक सेठ उद्धरण निर्मापित शिखरबद्ध शान्तिनाथ मंदिर में भगवान के दर्शन किये। इससे स्पष्ट है कि 1258 में निर्मित शांतिनाथ मंदिर 1383 तक विद्यमान था। इसके पश्चात् ही ... कभी भी इस मंदिर का ध्वंस हुआ होगा। आज तो इसके अवशेष भी कहीं प्राप्त नहीं हैं। 10. वि. सं. 1191 में लिखित ताड़पत्रीय ग्रन्थ पुष्पवती कथा आदि प्रकरण संग्रह की लेखन पुष्पिका , में लिखा है:- अधुना खेटका धार मण्डल राज. श्री शोभनदेव की प्रतिपत्रि में खेटक स्थान में आये हुए - निवासी पं. वामुक ने देवसिरि गणिनि के लिये पुष्पवती कथा लिखी। . 11. बारहवीं शती में लिखित ताड़पत्रीय ग्रन्थ की अपूर्ण लेख पुष्पिका जो खेटपुर निवासी हुंबड़ ज्ञातीय श्रेष्टि आम्बदेव के सन्तानियों ने लिखवाई थी:-३ श्रीमत्खेटपुरोद्भवोच्चजनताधारो मनोनन्दन्, ख्यातः प्राशुगुणेन धर्मवसतिः श्रीहुम्बडानां वरः॥9॥ 1. खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावली, पृ.44 2. मुनि जिनविजय : जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ. 103 ,3. वही, पृ. 63 लेख संग्रह 293 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिलेख 1. खेड़ संबंधित प्राप्त प्राचीन संदर्भो का उल्लेख करने के पश्चात् प्राप्त मूर्तिलेखों के उद्धरण प्रस्तुत हैं। खेड़ स्थित मुख्य मंदिर के निकट जल संग्रह के लिये खुदाई का कार्य चल रहा था, उस समय कई प्राचीन अवशेष प्राप्त हुए थे। जिनमें किसी जैन मंदिर के दो तोरण स्तम्भ (सफेद संगमरमर) भी प्राप्त हुए थे। ये दोनों तोरण स्तम्भ रणछोड़रायजी मंदिर के निकट ही एक दीवार के पास रखे हुये हैं। तोरण स्तंभों की मूर्तियाँ खंडित हो चुकी हैं। नीचे के भाग में लेख उत्कीर्ण है: ॥ॐ॥ श्री खेटे श्री भावदेवाचार्यगच्छे श्री ऋषभदेवचैत्ये वैद्य मनोरथ आभू माणिक थेहरू ---. पुत्र वीरचन्द्र देसल पुत्र पाल्हण आभू पुत्र रत्न---नागदेव नागमल्ल मनोरथ पुत्र - थिग माणिक पुत्र जिणचन्द्र - निचन्द्र थेहरू पुत्र पद्मदेवे --- नादिभिः वैद्य जगपाल -- त्म श्रेयोर्थ श्री ऋषभदेव चैत्य तोरण कारापित प्रतिष्ठितं श्री विजयसिंहसूरिभिः संवत् 1273 माघ सुदि लेख का सारांश यह है कि वि. सं. 1237 माघ सुदि - को खेड़ के ऋषभदेव चैत्य में वैद्य मनोरथ के वंशज वैद्य जगपाल ने आत्मकल्याण हेतु तोरण बनवाया। इसकी प्रतिष्ठा भावदेवाचार्यगच्छीय श्रीविजयसिंहसूरि ने करवाई। 2. जसोल के खरतरगच्छीय यति चुन्नीलालजी के उपाश्रय में मूर्ति का एक कलापूर्ण किन्तु खंडित शान्तिनाथ के आसन का परिकर प्राप्त है। इस पर वि.सं. 1243 का निम्न लेख उत्कीर्ण है: ऊँ सं. 1243 पौष वदि। श्री भावदेवाचार्यगच्छे श्री खेटीय श्रीऋषभदेवचैत्य श्रे. धांधल सुत विमचन्द्रेण भ्रात रासल थिरदेव --- पूनदेव बूलदेव आसानन्द --- महि :-- वाल्ही सुत मणोरह मूल -- सोमदेव भगिन्या रूपिणिपद्मिण्यादि समस्त दुटुम्ब सकितेन आत्म श्रेयोर्थ श्री शान्तिबिम्बं कारितं 3. जसोल के सुपार्श्वनाथ मंदिर में दो स्तम्भ प्राप्त हैं, जो पृथक्-पृथक् संवतों के हैं। दोनों लेखों में खेड़ का उल्लेख है। लेख इस प्रकार है: (1) संवत् 1210 श्रावण वदि 7 श्री विजयसिंहेन बालिग सासण प्रदत्तं खेडिजु होई सुजुकौ वासिगु लेइ कुहाडु लेइ तहि करिय गइह चडइ। (2) संवत् 1246 वर्ष कार्तिक वदि 2 श्रीभावदेवाचार्यगच्छे श्री खेट्टीय श्रीमहावीरमूल चैत्य श्र. सहदेव सुतेन सोनिगेन आत्मश्रेयोर्थं स्तं (भयुगं) प्रदत्तं // 2 // 4. जसोल के खरतरगच्छीय शान्तिनाथ मंदिर के एक पयासण पर निम्न है:ऊँ संवत् 1237 वर्ष आषाढ वदि -- लवणखेटे ----- विजयसिंह सूरिभिः 5. श्री नाहर जी ने जैन लेख संग्रह में लेखाङ्क 2176 में सं. 1247 में प्रतिष्ठित चौबीसी का लेख दिया है, जो निम्न है: // श्री नागेन्द्रगच्छे श्रीलवणखेटे श्रे. आवासुत श्रे. धणदेव भार्या धारन तत्पुत्र आमदेव गणदेव पुत्रदेव आसदेवादि समस्त समुदायेन चतुर्विंशतिजिनालयकारितं प्रतिष्ठितं श्री विजयसिंहसूरिभिः॥ सं. 1247 / वैशाख 294 लेख संग्रह Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरोक्त छहों लेख वि.सं. 1210 से 1247 के मध्य के हैं और इन सब में लवणखेट और खेट का उल्लेख प्राप्त है। प्राप्त लेखों और संदर्भो से स्पष्ट है कि 13वीं शती में 3 मंदिर ऋषभदेव मंदिर, महावीर स्वामी मंदिर और शांतिनाथ मंदिर तो अवश्यमेव विद्यमान थे। सं. 1243, 1210, 1246 और 1237 के चार * लेख इस समय जसोल में प्राप्त हैं। संभव है उस समय जसोल खेड़नगर की विस्तृत सीमा में एक मोहल्ला हो अथवा खेड़ के खण्डहर होते समय वे वहाँ से लेकर यहाँ मंदिरों में स्थापित किये गये हों। नाकोड़ा पार्श्वनाथ मंदिरस्थ पंचतीर्थी मंदिर में वि.सं. 1504 की पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। उसके लेख में 'खेडभूम्यां महेवा स्थाने' शब्द अंकित है / इसमें भी यही लगता है कि 1504 तक महेवा खेड़ के अन्तर्गत ही था। यदि वर्तमान खेड की एवं उसके आस-पास के स्थलों की खुदाई करवाई जाए तो तत्कालीन प्राचीन अवशेष प्रचुर मात्रा में प्राप्त हो सकते हैं। पुरातत्वविदों से मेरा अनुरोध है कि अनुसंधान कर खेड़ की तत्कालीन संस्कृति, कला और साहित्य पर जो भी सामग्री उपलब्ध हो, प्रकाश में जाने का प्रयत्न करें। [गणिपद स्मारिका, पादरु] 900 1. म. विनयसागर : नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, लेखांक 19 लेख संग्रह 295 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू के विष्णुमंदिर का एक लेख गत वर्ष ग्रीष्मऋतु के दिवसों में विहार (प्रवास) करते हुए हम लोग आबू पहुँचे। अर्बुदगिरि तीर्थस्थ विमलवसति आदि मन्दिरों के दर्शन किये। वहाँ की स्थापत्यकला के उत्कृष्ट नमूने देखकर हृदय आनन्द से भर गया। एक दिन प्रात:काल में मुनिराज श्रीपुण्यविजयजी, मैं और भाई श्री उमाकान्त (जो जैन मूर्तिकला पर रिसर्च कर रहे थे, और अब तो उन्हें इस विषय के थीसिस पर पी एच.डी. की उपाधि भी प्राप्त हो गई है) तीनों ही कन्याकुमारी का स्थान देखने के लिये गये। कन्याकुमारी स्थान के पास ही एक जीर्ण-शीर्ण अवस्था में द्वारकानाथजी का मन्दिर है जिसकी घूमटी इत्यादि गिर चुकी है, स्तम्भ आदि के अवशेष भी खण्डहर रूप में यत्र-तत्र पड़े हैं। उस मन्दिर में भी हम लोग गये। तत्रस्थ शेषनाग-शय्याशयित विष्णु आदि की कुछ मूर्तियाँ हैं, जो स्थापत्य-कला की दृष्टि से १०-११वीं शताब्दी की प्रतीत होती हैं। उनका ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व समझकर भाई उमाकान्त तो उनके चित्र लेने में संलग्न हो गये। उसी मन्दिर में प्रवेश करने पर जमणा बाजू के गोखले के थंभे पर निम्नलिखित लेख उत्कीर्ण (अंकित) देखा। ' प्रयत्न कर उसकी प्रतिलिपि भी हम लोगों ने ली। वह इस प्रकार है: 'ॐ संवत् 15 आषाढादि वर्षे शाके 1357 (?) प्रवर्त्तमाने फाल्गुन मासे शुक्लपक्षे नवम्यां तिथौ सोमवासरे श्रीगूर्जर श्रीमालज्ञातीय सेथालगोत्रे श्रीखरतरपक्षीय मंत्रि विजपाल सुत मंत्रि मंडलिक तत्पुत्र मं० रणसिंह तत्पुत्र 4 प्रथमः सा० सायरः, द्वितीयः सा० खेटाभिधः, तृतीय सा० सामन्तः, चतुर्थः सा० चाचिगः। तन्मध्यतः सा० सायर भा० बाई तत्पुत्र४ पुत्री 3 प्रथमः सा० पद्माभिधः, द्वितीयः सा० रत्नाख्यः, तृतीयः सा० आसाख्यः, चतुर्थः सा० पाचाख्यः, पञ्चमधर्मपुत्रः सा० पूर्याभिधान, तद्भगिनी बाई मल्हाई, बाई रंगाई, बाई लखीई। एतन्मध्ये श्री अर्बुदाचलमहातीर्थ यात्रार्थं समागतेन पूर्वयोगिनीपुरवास्तव्येन पश्चात् साम्प्रतं अहमदाबादश्रीनगरनिवासिना श्रीक्षत्रपकुलप्रसिद्धन साह आसाकेन प्रथम भा० माघी, द्वितीय भा० हमीरदे, तृतीय भा० टबकू पुत्र सा० जीवराजप्रभृतिसमस्तकुटुम्बसहितेन स्वभुजोपार्जितवित्तेन चितोल्लासतः श्रीमद्विष्णुदेवप्रासादजीर्णोद्धारः कारितः श्रीमद्देवगुरुप्रसादात् आचन्द्रार्कं जीयात् // ' अर्थात् - विक्रम संवत् 1525 शक 1357 (?) के फाल्गुन शुक्ला नवमी सोमवार को श्रीगूर्जर, श्रीमालज्ञातीय, सेथालगोत्रीय, खरतरपक्षीय मंत्री विजपाल के पुत्र मंत्री मण्डलिक के पुत्र मंत्री रणसिंह थे। इनके चार पुत्र थे, 1. साह सायर, 2. साह खेटा, 3. साह सामन्त, और 4. साह चाचिग। इनमें साह सायर की पत्नी बाई पल्ही के चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ थीं, जिनमें प्रथम पुत्र पद्मा नामक, द्वितीय पुत्र साह रत्ना नामक, तृतीय पुत्र साह आसा नामक, चतुर्थ पुत्र साह पांचा नामक और पञ्चम धर्मपुत्र साह पूया नामक थे। इनकी तीनों बहिनों के नाम क्रमशः बाई मल्हाई, बाई रंगाई, और बाई लखीई थे। इनमें से साह आसा नामक पुत्र जो क्षत्रपकुलप्रसिद्ध था तथा जो पूर्व समय में योगिनीपुर (दिल्ली) का निवासी था और पश्चात् (किसी भी कारणवश) अहमदाबाद का निवासी बन चुका था, जिसकी तीन पत्नियाँ थीं - 1: माघी, लेख संग्रह 296 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. हमीरदेवी और 3. टबकू। तथा जिसके पुत्र का नाम जीवराज था - वह अपने समस्त परिवार सहित अर्बुदांचल (आबू) महातीर्थ की यात्रा करने आया था। उसने अपनी भुजा द्वारा उपार्जित द्रव्य से, हृदय की प्रसन्नता के साथ इस विष्णुदेव के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया जो देव-गुरु के प्रसाद से चन्द्र-सूर्य पर्यन्त .विद्यमान रहे। इस लेख से साह आसा का वंशवृक्ष इस प्रकार बनता है: म. विजपाल मं. मंडलिक म. रणसिंह सा. खेटा सा. सामन्त सा. चाचिग सा.सायर (पत्नी पल्ही) सा. पद्मा सा. रत्ना सा. आसा पाचा पूया मल्हाई रंगाई लखीई (पुत्री) (पुत्री) (पुत्री) (3 पलियाँ - माघी, हमीरदे, टबकू) जीवराज इस लेख से निम्नलिखित हकीकत प्रकाश में आती है:(१) 'खरतरपक्षीय' एवं 'देवगुरुप्रसादात्' जैसे जैन पारिभाषित शब्द का प्रयोग होने के कारण सिद्ध है कि साह आसा जैन वंशीय श्वे. खरतरगच्छ संघ का उपासक था। (2) श्रीमालज्ञाति में सेथालगोत्र उस समय विद्यमान था। आज इस गोत्र के वंशजों का तो क्या, इस गोत्र का नामावशेष तक नहीं रहा। .. (3) विजपाल, मंडलिक और रणसिंह के आगे मंत्री विशेषण है तो परवर्ती परंपरा में नहीं है। अतः संभव है कि ये तीनों किसी राज्य के मन्त्री रहे हों। योगिनीपुर जिसका वर्तमान नाम दिल्ली है, जो भारत की राजधानी है। दिल्ली को प्रायः पूर्ववर्ती जैन ग्रन्थकारों ने योगिनीपुर के नाम से ही उल्लेख किया है। (5) अहमदाबाद पूर्व में राजनगर के नाम से ख्यात था, जिसका अहमदशाह ने अपने नाम से अहमदाबाद रखा था। वह व्यापार की दृष्टि से इस समय तक काफी प्रसिद्ध हो चुका था। (6) संभवतः क्षत्रपवंशीय कोई सामन्त या राजा विशेष उस समय अवश्य ही अहमदाबाद में रहा हो और साह आसा उसके कृपाभाजन रहे हों। अन्यथा 'क्षत्रपकुलप्रसिद्धेन' शब्द की संगति नहीं बैठती। (7) जैन श्रावक ने इस विष्णुदेव के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। (8) यही विष्णुदेव मन्दिर आज द्वारकानाथ के नाम से प्रचलित है। लेख संग्रह 297 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभव है मुगलों ने जिस समय आबू के प्रसिद्ध जैन मंदिरों के कुछ हिस्से का ध्वंस किया था उस समय ही इस विष्णुदेव के मन्दिर को भी कुछ क्षति पहुँचाई हो। इसीलिये जीर्ण देखकर साह आसा ने जीर्णोद्धार करवाया हो। जहाँ हम देखते हैं कि एक तरफ तो मुगल लोग धार्मिक असहिष्णुता और फिरकापरस्ती के वशीभूत होकर भारतीय संस्कृति के प्रतीत देवालयों का नाश कर रहे थे तो दूसरी तरफ पंथभाव और साम्प्रदायिक मनोवृत्तियों का त्याग कर एक जैन हिन्दू मन्दिर का उद्धार करवा रहा था, जो हमें सूचना देता है कि जैन संस्कृति और वैदिक संस्कृति कोई पृथक् वस्तु नहीं किन्तु एक ही भारतीय संस्कृति की सतत प्रवहमान दो धाराएँ थीं जो सदा से इकाई रूप में नहीं हैं और रहेंगी। परन्तु आज पुनः वही धार्मिक / असहिष्णुता मुगलों में ही नहीं किन्तु भारतीय संस्कृति के नाम से चिल्लानेवाले समाजों में भी हम देख रहे हैं। क्या ही अच्छा हो कि आज भी हम उसी प्रकार भारतीय संस्कृति के नाते अद्वैत रूप में होकर, कन्धे से कन्धा भिड़ाकर सांस्कृतिक उत्थान में पूर्ण सहयोग दें। - अन्त में एक निवेदन और कर देना चाहता हूँ कि आज जहाँ जैन और हिन्दू लाखों की संख्या में इस तीर्थ पर यात्रा के लिये जाते है, वहाँ किसी की भी इस जीर्ण-शीर्ण देवालय पर दृष्टि पड़ी प्रतीत नहीं होती। आवश्यकता है, कि इस जीर्ण देवालय का पुनः उद्धार करवाया जाए। हमें अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक निधियों की इतनी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। क्या पुरातत्त्व विभाग इस ओर ध्यान देगा? [श्री जैन सत्य प्रकाश, वर्ष-१९, अंक-२-३] 298 लेख संग्रह Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलौदी माता के मन्दिर के जीर्णोद्धार का एक महत्त्वपूर्ण शिलालेख मेड़ता रोड जंक्शन राजस्थान प्रदेश के जोधपुर डिवीजन में स्थित है। जयपुर, जोधपुर और बीकानेर जाने के लिए यह मध्य केन्द्र है। मेड़ता नगर के मार्ग में स्थित होने के कारण यह स्थान (स्टेशन) मेड़ता रोड के नाम से प्रसिद्ध है, किन्तु इसका प्राचीन नाम फलवर्द्धिका (फलौदी) है यहाँ माताजी का प्रसिद्ध मंदिर होने से फलवर्द्धिका देवी या फलौदी माता के नाम से एवं जैनों का विख्यात और प्रसिद्ध पार्श्वनाथ जैन मंदिर होने से फलवर्द्धिका पार्श्वनाथ या फलौदी पारसनाथ के नाम से तीर्थ के रूप में आज भी प्रख्यात है। . . चौदहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध जैनाचार्य मुहम्मद तुगलक प्रतिबोधक जिनप्रभसूरि ने अपने विविध तीर्थ कल्पनान्तर्गत फलवर्द्धि पार्श्वनाथ कल्प (पृ० 105) में इस स्थान के सम्बन्ध में लिखा है: "अस्थि सवालक्खदेसे मेडत्तयनगर समीवठिओ वीरभवणाइनाणाविटदेवालयाभिरामो फलवद्धी नाम गामो। तत्थ फलवद्धिनामधिज्जाए देवीए भवणमुत्तुंगसिहरं चिट्ठइ। सो अ रिद्धि समिद्धोवि कालक्कमेण उव्वसपाओ संजाओ।" ' अर्थात् सपादलक्ष देश में मेड़ता नगरी के समीप स्थित महावीर' चैत्य आदि देवालयों से मंडित फलवर्सी नामक रमणीय ग्राम है। यहाँ पर फलवर्नी नामक देवी का ऊँचे शिखर वाला मंदिर विद्यमान है। यह ऋद्धि से समृद्ध होने पर भी कालक्रम से ऊजड़ हो गया है। - वर्तमान समय में इस ग्राम में पार्श्वनाथजी का विशाल और प्रसिद्ध जैन मंदिर विद्यमान है जिसकी प्रतिष्ठा वि. सं. 1181 में राजगच्छीय धर्मघोषसूरि ने की थी। इसके पश्चात् तो इस तीर्थ के यात्रा संघों एवं * प्रतिष्ठाओं आदि के विस्तृत और महत्वपूर्ण वर्णन प्राप्त होते हैं, इसके लिये खरतर गच्छालंकार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली द्रष्टव्य है। आज भी यहाँ आश्विन कृष्णा 10 और पौष कृष्णा 10 को मेला भरा रहता है। ___दूसरा वर्तमान में फलौदी माता का तो नहीं किन्तु ब्रह्माणी माता के नाम से एक सामान्य मंदिर है। इस मंदिर के समक्ष एक उत्तुंग और विशाल तोरण विद्यमान है जो कि इसकी प्राचीनता को ध्वनित करता है। इस मंदिर के गर्भगृह में एक स्तम्भ पर ९वीं शताब्दी का कुटिल लिपि का लेख अंकित है जिसमें फलवर्द्धिका देवी का स्पष्ट उल्लेख है। इस लेख पर श्री भंवरलालजी नाहटा ने एक शोधपूर्ण लेख लिखा था जो नागरी प्रचारिणी पत्रिका के वर्ष 43, भाग 19, अङ्क 3 में 'फलौदी की कुटिल लिपि' के नाम से प्रकाशित हुआ था। उक्त लेख महत्वपूर्ण होने के कारण उद्धृत किया जा रहा है: 7 ओं नम श्रीफलवर्द्धिका दे वि। श्रीपुष्करणांक वारी वासी 1. महावीर चैत्य, पार्श्वनाथ चैत्य से प्राचीन हो किन्तु वर्तमान में महावीर चैत्य नहीं है। लेख संग्रह 299 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रधार बाहुक / तस्य समुत्पन्नो भद्रादित्य। तत्र जातो मचारवि। तस्य पुत्रोत्पन्न सिसुरवि सूत्रधार। अण्डज स्वेदजौ वापि उद्भिजं च ज (र)। युजं। ___ इस लेख से स्पष्ट है कि फवर्द्धिका देवी का मन्दिर ९वीं शती में विद्यमान था और जिनप्रभसूरि के कथनानुसार १४वीं शताब्दी में भी इसी नाम से पुकारा जाता था। कालान्तर में यही ब्रह्माणी माता के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। समयान्तर से इस मन्दिर का कई बार जीर्णोद्धार हुआ होगा किन्तु, ऐतिह्य एवं पुष्ट उल्लेख आज प्राप्त नहीं है। इस मंदिर के संबंध में स्वर्गीय रायबहादुर श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने जोधपुर राज्य का इतिहास, प्रथम खंड, पृ० 37 में जो इतिहास दिया है वह इस प्रकार है: ब्रह्माणी का मन्दिर गाँव के पूर्व में है और ग्यारहवीं शताब्दी के आस-पास का बना जान पड़ता है। सभा मण्डप का बाहरी भाग तथा शिखर नया है, परन्तु भीतर के स्तम्भ एवं बाहरी दीवारें बहुधा पुरानी हैं। नये बने हुए तीनों हाथों में से एक नृसिंह और दूसरे वराह की मूर्ति है। तीसरे में एक आठ हाथों वाली मूर्ति है जिसके छः हाथ अब नष्ट हो गये हैं, जो संभवतः फलवर्द्धिका देवी की हो। वर्तमान ब्रह्माणी की मूर्ति नवीन है। मन्दिर के स्तम्भों पर कई लेख हैं। सबसे प्राचीन लेख में संवत् नहीं है और फलवर्द्धिका देवी : का उल्लेख है। दूसरा वि. सं. 1465 भाद्रपद सुदि 5 (ई. सं. 1408 ता. 26 अगस्त) का लेख किसी तुगलक वंश के सुल्तान के समय का है, जिसमें फलौदी के मंदिर के जीर्णोद्धार किये जाने का उल्लेख है। तीसरा लेख वि. सं. 1535 (चैत्रादि 1546) चैत्र सुदि 15 (ई. सं. 1479 ता. 6 अप्रेल) का मारवाड़ी भाषा में है, जिसमें मंदिर के जीर्णोद्धार किये जाने का उल्लेख है। मेरे संग्रह में १९वीं शताब्दी में लिखित एक पत्र पर शिलापट्ट-प्रशस्ति की प्रतिलिपि विद्यमान है। यह शिलालेख शोध करने पर भी प्राप्त नहीं हुआ है किन्तु फलौदी माता के मंदिर के सम्बन्ध में एक तथ्यपूर्ण, ऐतिह्य और विवेच्य प्रकाश डालता है अतः इस प्रतिलिपि की नकल अविकल रूप में उद्धृत की जा रही है: ॐ नमः। श्री शारदायै नमः। अभूत् प्रभुः श्री परमारवंशे, बभूव ( ? प्रख्यात) भूपो मधु देवनामा। भूभामिनीभालललाम तुल्यः, प्रत्यर्थिदावानलवारिपूरः॥ 1 // सर्वत्राऽपि समस्तनीतिरियती पाथोभिरत्युल्वणो ज्वालाजालजटालदीप्तहुतभुग्शान्ति सदा वाप्नुयात्। चित्रं श्रीमधुदेवदेवनृपते युष्मत्प्रतापानल:, शत्रूणां वनिताश्रुवारिनिवहै: सिक्तोऽपि संवर्द्धते // 2 // 300 लेख संग्रह Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्यात्मजः सूर इवोग्रतेजाः, ख्यातः क्षितास्मापतिमौलिरत्नः। श्रीसूरदेवोऽजनि राजराज, राजीव-राजीवसुहृत्समानः॥३॥ श्रीमड्डाहलदेशमौलिमुकुटश्रीसूरदेवाभिध, ख्यातुं कः प्रभुरस्ति दानमहिमप्रोद्दामलीलायितुम् ( ? लीलां तव)। सूरोऽपि प्रकटं दधौ दशशती चन्द्रः कराणां कलाकौशल्यं बिभरांबभूव नितरां तहानलिप्साशया॥४॥ पृथ्वीराजनृपाज्ञया यवनपात् यो गर्जनाद्वार्षिकं, दण्डं लातुमितो जघान सुभटानेकः चतुः सप्ततिः। सोंकोऽद्यापि च लेखवस्तुषु जनै रक्षार्थमालिख्यते, नाम्ना तस्य विराजते गुणनिधिः श्रीसूरवंशो भुवि॥५॥ तदङ्गजन्मा क्षितिपालभाल-विभूषण श्रीतिलकायमानः। निशम्य युद्धं जनकस्य वेगाद, दधाव भूपः खलु श्यामलेन्द्रः॥६॥ .. असितनिशितशस्त्रव्रातजाताभिघातः, प्रतिहतकरकुम्भो ध्वस्तदृप्तारिवर्गः। पृथुकप्रकृतिलोकस्त्रैणवर्गान् विहाय, प्रबलसबलदैत्यान् माषपेषं पिपेष॥ 7 // तदङ्गजो मोल्लण नामधेयः, श्रीधर्मघोषाभिघसूरिवाक्यात्। श्रीजैनधर्मं समवाप्य सम्यक, सश्रावकत्वव्रतमाबभार॥८॥ : तस्याऽभवद्वीर उदारचेताः, श्रीवामदेवो नृपक्लृप्तसेवः। शाकम्भरी साल्हणराज मुख्यः, भूपत्रयी पालित मन्त्रिमुद्रः॥९॥ तस्याऽभवच्छ्रीनिधिरुस्तबाहः, प्रत्यर्थिकारश्करहव्यवाहः / - तदङ्गभूरासधरः प्रतीतो, धनेश्वरस्तत्पद मालमार॥१०॥ ततोऽभवच्चम्पकनामधेयः, श्रीराजसिंहः किल तस्य सूनुः / गणाधरी तस्य बभूव पुत्रो, गुणन्धरस्तत्कुलसिन्धुचन्द्रः॥११॥ लालख्य नामाऽथ ततो बभूव, सूनोऽभवत्तस्य च देवराजः। हालाभिधस्तत्कुलवंशरत्नं, तोलाभिधस्तस्य पवित्रपुत्रः॥१२॥ ख्यातः क्षितौ यो भुवनैकमल्लः, ततोऽभवद् गोशल नामधेयः। शत्रुञ्जये श्रीगिरि-रैवते च, यात्रां व्यधासीद् विधिवद्विधिज्ञः॥१३॥ तत्पुत्ररत्न शिवराजनामा, संघाधिपो भूपतिदत्तमानः। शाकम्भरी - श्रीअजमेरुदुर्गे, विश्रापयामास सुरूपमुद्राम्॥१४॥ पञ्चनन्दमनुमीतवत्सरे (1495), षण्णवाब्धिशशिवत्सरे (1496) तथा। दीनदुःस्थितजनो (द्) धरणाय, सत्रमत्र विदधे शिवराजः॥ 15 // - तस्याऽभवद् भूरिकलाप्रवीणः, सद्धर्भकर्मानुकृतौ धुरीणः। सौन्दर्यशोभायिन देवराजः, पुत्र:पवित्रो भुवि हेमराजः॥१६॥ लेख संग्रह 301 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सुगुणनिधानः पुण्यपण्य प्रधानः, सुकविवचनहंसः सार सौराणवंशः। भुवनमिति विशालं कारयामास सालं-कृतनृपतिसमाजः संघपो हेमराजः॥१७॥ पूर्वं मालवमण्डपे प्रमुदितः श्रीजैनधर्मोन्नतिं, कुर्वंश्चन्द्रसुलीलशीलकलितो व्यश्राणयन्मोचनीम्॥ मुद्रामिन्द्रपथे च राष्ट्रविषये मेवातिदेशे मुदा, स्वं वित्तं सफलीचकार गुणवान् श्रीहेमराजः सुधी॥१८॥ - अथ राष्ट्रकूटान्वये जैत्रचन्द्रो पुरन्दरः। तत्सन्तानक्रमेणाऽथ कर्मध्वजमहीपतिः॥ 19 // ततः प्रभुः श्रीसलखाख्यभूपः, आसीत्ततो वीरमदेव नामा। श्रीचुण्डराजस्तनयस्तदीय-स्ततः प्रभुः श्रीरिणमल्लदेवः // 20 // तत्पुत्रः सुचरित्रैः, विख्यातो योधभूपतिः समभूत्। तत्तनयो नृपनेता, दुर्जनशल्यो नृपो जयति॥ 21 // निःशेषक्षितिपालभालतिलके भास्वत्प्रतापद्युतौ, विध्वस्तारिवधूदगम्बुतटिनीखेलयशोमल्लके। नित्यं श्री....युगीनकलया सीमालसंसेविते, . पृथ्वी दुर्जनशल्यनामनृपतौ संशासति श्रीपतौ॥ 22 // श्रीमदुर्जनशल्यभूपतिभुजोद्भूतप्रभूतं बलं, स्यालु कः प्रभुरस्ति येन सिरीयाषानो रणे निर्जितः। तत्त [त् ] संगत एव मालवपतिर्दन्ताबलानां कुलं, हर्यक्षादिव दन्दशूकनिकरा द्राग् वैनतेयाद् यथा॥ 23 // दुर्जनशल्यभूपवर्णनम्। गते स्वदेशप्रति सेरखाने, पेरोजखाना नृपतेः प्रसादम्। ' मानं तथा दुर्जनशल्यभूपात्, अवाप्य विज्ञानभृतः सुसूत्रान्॥२४॥ आहूय सत्कृत्य ततः समस्तान्, दिदेश चैत्योद्धरणाय सम्यग्। श्री हेमराजो मनसः प्रमोदात्, ददौ धनं तेभ्य उदारचेताः॥२५॥ __प्रासादस्तुङ्गशृङ्गोपरिपवनव शाल्लोलसत्यत्पताका, पाणिं सोर्द्ध निधाय प्रगुणरणरणत्किङ्किणीध्वानदम्भात्। आहूयाहेव चैवं जगदखिलमहो हेमराजाभिधानो, मान्धातावद्विधाताकृततुलितकलिनन्दताद् यावदुर्वी // 26 // सद्धर्मकर्माणि समाचररिन्त, मिथ्यात्वभावं परिवर्जयन्ति। भार्याऽभवद्धेमसिरीति तस्य, सदा सदाचारविचारदक्षा॥ 27 // चचारस्तनयास्तस्याः बभूवुर्गुण शालिनः। आद्यः श्रीपुञ्जराजोऽभूत्, कालराजो द्वितीयकः // 28 // नालाभिधस्तृतीयोऽभू-च्चतुर्थोनर देवराट्। तज्ज्येष्ठो वरपुञ्जराज समभूत् ख्यातः क्षितेर्मण्डले, 302 लेख संग्रह Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्राकार करः, सदौद्यतकरः सत्पात्रदः सर्वदा। भूसङ्गक्षितिपालसंदितसदा मान्यः परार्थे क्वचित्, संग्रामाद् भटवीरसिन्धुरहरिः सर्वार्थिनां कामदः // 29 // भार्याऽभवत् पाटिमदेवी नाम्नी, श्रीपुञ्जराजस्य च तस्य पुत्राः। आद्योऽभवच्चाहड नामधेयो, रणादिरोद्धरणादिवारः॥ 30 // श्रीनाथराजः गुणवांश्च देवी-दासः प्रसिद्धोऽद्य तदीयपुत्रः। श्रीकाजराजस्य कलत्ररत्नं, पतिव्रता कउतिगदेवी नाम्नी॥ 31 // तस्याः सुतौस्तोऽथ सहस्रमल्लो, धीमांस्तदन्यो रणमल्लदेवः। नालाभिधानस्य वधूः धुरीणा, नारिंगदे तत्तनयो बभूव॥ 32 // श्रीसिंहमल्लो गुणपुजयुक्तो, विराजतेऽसौ सततं कृपालुः। नृपदेवमान्यो नरदेव नामा, भार्याऽभवद् गुर्जरी नामधेया॥ 33 // तस्याः सुतो-च चारुवित्तः, ख्यातः क्षितौ श्रीवरदेवदत्तः। अथ प्रतिष्ठाविधये विधिज्ञः, सुपुत्रपुत्रान् सुहृदश्च बन्धून्। आकारयन् साधुशिरोऽवतंस, मुदात् तदानीं गुरवः समीयुः॥ 34 // . श्रीराजगच्छे बहुसूरिवर्गे, श्रीशीलभद्राभिधसूरिपादाः। चारित्रपात्रा भवयानपात्राः, बभूवुराचार्यधुरिप्रवीराः॥ 35 // तत्पादाम्बुजषट्पदो समभवद् भूपत्रयाणां गुरुः, चारित्रैकशिरोमणियुगवरः श्रीधर्मसूरिप्रभुः। येनाऽकारि पुरा दिगम्बरजयो राज्ञोऽनलस्यात्रतो, वर्णानां त्रितयी तथा जिनमते संस्थापिता भूतले // 36 // सौजन्यंत्रिञ्चने वारिवाहो, लब्धेः पात्रं भाग्यसौभाग्यलक्ष्याः। गच्छाधीशो राजते सच्चरित्रः, पद्मानन्दसूरिराजः सुकीर्त्या // 37 // सन्ति क्षोणितले बुधा कति न ये ये गर्वखर्वोन्नतिं, बिभ्राणा स्फुटमुल्ललन्ति कतिचित् का तर्कलेशैभृशम्। किं नूच्चैः पदमाश्रितापि भगवान् श्रीनन्दितोवर्द्धनः, चित्ते नो मुदमादधाति नयदं तत्कौतुकं कौतुकम्॥३८॥ शरशरतिथिमिति वर्षे 1555 वसन्तमासे विशुद्धविजयायाम्। सुरगुरुदिवसे पुष्ये नक्षत्रे प्रीतियोगे च॥ 39 // श्रीहेमराजेन महोमहेन, सुपुत्रपौत्रेण गुणाधिकेन। श्रीनन्दिवर्द्धनवरैर्गुरुभिः प्रतिष्ठां चकारयन् श्रीफलवर्द्धितीर्थे // 40 // - दयासागरकृता प्रशस्तिः। संवत् 1555 वर्षे चैत्र सुदि 11 तिथौ गुरुवासरे पुष्यनक्षत्रे सुराणागोत्रे सं० गोसल तत्पुत्र सं० सिवराज-भार्या सीमादे सं० हेमराजभार्या हेमसिरी तत्पुत्र काजा पुञ्जा नाला नरदेव देवदत्तप्रभृतिपुत्रपौत्रादियुतेन लेख संग्रह 303 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० हेमराजेन अयं फलवर्द्धिदेव्याः प्रासादः कारापितः, स च प्रतिष्ठितः श्रीधर्मघोषगच्छे भट्टारक, श्री पद्मानन्दसूरि तत्पट्टे श्रीनन्दिवर्द्धनसूरिभिः॥ - संवत् 1724 वर्षे फागुणवदि 4 दिने लिखितम्। इस प्रशस्ति का दो पंक्तियों में सारांश यह है कि वि० सं० 1555, चैत्र शुक्ला एकादशी को राठोड़ दुर्जनशल्य के राज्य में पेरोजखान से प्रसाद एवं मान प्राप्त करके सुराणा गोत्रीय हेमराज ने अपने परिवार के साथ फलवर्द्धिका देवी के मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और इसकी प्रतिष्ठा धर्मघोषगच्छीय नन्दिवर्द्धनसूरि से करवाई। इस प्रशस्ति में अनेकों विचारणीय ऐतिहासिक तथ्यों का संकेत है१. सुराणा गोत्र की उत्पत्ति 2. सुराणा गोत्र के पूर्वजों का पृथ्वीराज चौहान से सम्बन्ध 3. हेमराज की परम्परा और उसके विशेष कृत्य 4. राठोड़ दुर्जनशल्य और उसकी सेरखान पर विजय 5. पेरोजखान सूबेदार 6. धर्मघोषगच्छीय नन्दीवर्द्धनसूरि और उनकी गुरु-परम्परा अब क्रमशः इन संकेतों पर विचार प्रस्तुत हैं:१. सुराणा गोत्र की उत्पत्ति डाहल देश का अधिपति परमारवंशीय राजा मधुदेव हुआ। उसका यशस्वी पुत्र सूर हुआ। इस सूर के वंश में सूर का पुत्र श्यामलेन्द्र और मोल्लण हुआ। इस मोल्लण ने धर्मघोषसूरि के उपदेश से जैन धर्म स्वीकार किया और श्रावक के व्रत स्वीकार किये। मोल्लण की वंश-परम्परा में ही हेमराज हुआ जिसके लिये प्रशस्ति पद्य 17 में 'सारसौराणवंश' कहा है। इससे स्पष्ट है कि सूर के वंशज 'सौरवंशी' कहलाये और जैन धर्म स्वीकार के पश्चात् इसे सौराण गोत्र की संज्ञा प्राप्त हुई। वही आगे चलकर सुराणा कहलाये। आज भी सुराणा गोत्री जैन धर्मी हैं और कई स्थलों पर धर्मघोषगच्छ के अनुयायी हैं। 2. सुराणा गोत्र के पूर्वजों का पृथ्वीराज चौहान से सम्बन्ध __पाँचवें पद्य में लिखा है कि पृथ्वीराज की आज्ञा से गर्जना (गजनी) से वार्षिक दण्ड (कर) लेने के लिये डाहलदेशीय परमारवंशी सूर वहाँ गया और अकेले ने 74 सुभटों को धराशायी किया। यह 74 का अङ्क आज भी अक्षय रूप होने से लेख वस्तुओं में लिखा जाता है। इसी के नाम से पृथ्वी में सौरवंश प्रसिद्ध हुआ। इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् डा० दशरथ शर्मा के मतानुसार डाहल देश चेदिदेश ही है। चेदिदेश में उस समय परमारों का ही आधिपत्य था। अन्तिम हिन्दू सम्राट् पृथ्वीराज चौहान की एक रानी चेदिदेशीय परमार थी। इसलिये संभव है इस सम्बन्ध के कारण परमारवंशी अनेकों सामन्त आदि पृथ्वीराज के साथ शाकम्भरी आ गए हों और पृथ्वीराज के राज्य में उच्चाधिकारों पर नियुक्त हों। 304 लेख संग्रह Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गर्जनाद् वार्षिकदण्डं लातुं' से स्पष्ट है कि बादशाह गजनी से प्रतिवर्ष कर (दण्ड) पृथ्वीराज चौहान वसूल करते थे। 74 अङ्क के सम्बन्ध में तो आज भी प्राचीन परम्परा के पत्रों में, पत्र की मोड़ के ऊपर * " // 74 // " का अङ्क देकर नाम लिखने की परम्परा प्रचलित है। 3. हेमराज की वंश परम्परा ___ प्रशस्ति के अनुसार संघवी हेमराज सुराणा का वंश वृक्ष इस प्रकार बनता है: परमारवंशी राजा मधुदेव सूरदेव श्यामलेन्द्र मोल्लण वामदेव श्रीनिधिरुस्तबाह आसधर धनेश्वर चम्पक राजसिंह गणाधरी 2. उपर्युक्त मधुदेव का परम्परा में ११वें स्थान पर गणाधरी का नाम आया है। सं० 1344 में लिखित कल्पसूत्र-कालिकाचार्य कथापुस्तिका प्रशस्ति में 'गणहरि' आया है, संभवतः गणाधरी और गणहरि एक हों। यह प्रशस्ति सुराणा वंश की दृष्टि से तथा इस परम्परा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है: 'ऊकेशवंशे भुवनाभिरामच्छाया समाश्वासितसत्त्वसार्था / सके शौराणकीयाऽस्ति विशालशाखा साकारपत्रावलि राजमाना // 1 // तमाभवद् भवभयच्छिदुरार्हदहिराजीव जीवित सदाशयराजहंसः। पूर्वः प्रमान् गणहरिर्गणिधारिसार से........... ......यान् थिरदेवस्य हरिदेवोऽस्ति [बान्धवः] / हर्षदेवी भवाः पुत्रा नरसिंहादयोऽस्य च // 15 / / सहोदर्य सपौनस्य लष्मिणिर्द्धर्मकर्मठा। कर्मिणि-रिहंसणिश्च पुत्र्यस्तिस्रो गुणश्रियः॥ 16 // गुणधरस्य यो भ्राता कनिष्ठो धुन्धुकाभिधः। खेढा नामास्ति तत्पुत्रः, पवित्र गुणसन्ततिः॥ 17 // लेख संग्रह 305 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणधर लाल देवराज हाला तोला गोशल शिवराज हेमराज (पत्नी-हेमश्री) नाला पुंजराज काजराज नरदेव (पत्नी-पाटिमदेवी) (पत्नी-कऊतिगदेवी) (पत्नी-नारिंगदे) (पत्नी-गूर्जरी) 1 सिंहमल देवदत्त सहस्त्रमल्ल रणमल्ल चाहड रणधीर श्रीनाथ देवीदास मोल्लण ने धर्मघोषसूरि से जैन धर्म अङ्गीकार कर श्रावक व्रत स्वीकार किये थे। वामदेव ने शाकम्भरी के साल्हणराज आदि तीन राजाओं की मन्त्रीमुद्रा धारण की थी। यहाँ यह विचारणीय है कि अथ गुरुक्रमःश्रीराजगच्छमुकुरोपमशीलभद्रसूरेविनेयतिलकः किल धर्मसूरिः। दुर्वादिगर्वभरसिन्धुरसिंहनादः श्रीविग्रहक्षितिपतेर्दलितप्रमादः॥१८॥ आनन्दसूरिशिष्य श्रीअमरप्रभसूरितः। श्रुत्वोपदेशं कल्पस्य पुस्तिकां नूतनामिमाम् // 19 // उद्यमात् सोमसिंहस्य सपुण्यः पुण्यहेतवे। अलेखयच्छुभालेखां निजमातुर्गुणश्रियः॥२०॥ यायच्चिरं धर्म धराधिराजः सेवाकृतां सुकृतिनां वितनोति लक्ष्मीम्। मुनीन्द्रहवृन्दैरिह वाच्यमाना तावत्मुदं यच्छतु पुस्तिकाऽसौ // 21 // संवत् 1344 वर्षे मार्ग० शुदि 2 रवौ सोमसिंहेन लिखापिता॥ जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ० 35 1. 306 लेख संग्रह Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीराज चौहान के पतन के पश्चात् यह शाकम्भरी का अधिपति साल्हणराज कौन है और वामदेव ने साल्हणराज के अतिरिक्त कौन से दो राजाओं का मन्त्रिपद स्वीकार किया था? इस सम्बन्ध में इतिहासविद् ही इस प्रश्न पर प्रकाश डाल सकते हैं। हेमराज के पितामह गोशल ने विधिवत् शत्रुजय और गिरनारतीर्थ की यात्रा की थी और पिताश्री शिवराज संघपति (संघाधिप) था, भूपति द्वारा सत्कृत था। शिवराज ने अजमेर में रुपयों की लाहणी की थी तथा सं० 1495 और 1496 में अजमेर में दुष्काल पड़ने पर दीन-दुःखियों के लिये दानशाला (सत्र) खोली थी। . संघपति हेमराज के सम्बन्ध में प्रशस्ति में लिखा है 'इसने पहले मालव देश में जैन धर्म की उन्नति की और मालव, इन्द्रपथ (दिल्ली) तथा मेवात देश में मुद्रा की लाहणी की थी। इसी ने पेरोजखान से प्रसाद और मान प्राप्त करके तथा राठौड़ाधिपति महाराजा दुर्जनशल्य से आज्ञा प्राप्त कर, विज्ञ सूत्रधारों को बुलाकर चैत्योद्धार (चैत्योद्धारणाय) का कार्य प्रारम्भ करवाया। उद्धार ही क्या, अपितु उत्तुङ्ग प्रासाद का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर पुत्र-पौत्रादि परिवार के साथ बड़े महोत्सवपूर्वक सं० 1555, चैत्र शुक्ला 11 गुरुवार, पुष्य नक्षत्र में अपने परम्परागत गुरु धर्मघोषगच्छ के आचार्य नन्दीवर्द्धनसूरि के करकमलों से प्रतिष्ठा करवाई। संघवी हेमराज ने न केवल फलवर्द्धिदेवी के मंदिर का ही जीर्णोद्धार करवाया अपितु पार्श्वनाथ मंदिर का भी सं० 1552 में विशाल द्रव्यराशि खर्च करके जीर्णोद्धार करवाया था। इस प्रसंग का उल्लेख खेमराज रचित पार्श्वनाथ रास (र. सं. 1552) में इस प्रकार प्राप्त है: सूरवंशहि सदा दीपतओ, सिंघपति शिवराज तणउ हेमराज। पनर बावन्नई ऊधर्यऊ, करई अनोपम अविहड काज॥१४॥ पंच करोडी दीपतउ मंडप, पंच तोरण सुविशाल। कोरणी अतही सोहामणी, पुतली नाटारंभ विशाल॥ 15 // सिखर सोहइ रलियामणउ, अठोतर सउ थंभ थिर थोभ। * दंड कलश धज लह लहइ, नलणि विमाण जांणि करि सोभ॥१६॥ सनमुखइ गजरतनइ चढिओ, सेव करइ संप्रति हेमराज। पास जिणेसरनी सदा आपणा साए समरथ काज॥ 17 // "सनमुखइ गजरतनइ चढिओं" के अनुसार आज भी मंदिर के बाहर चौंतरा अवशिष्ट है। परंपरा के अनुसार कहा जाता है कि यहाँ हाथी के हौदे पर संघवी शिवराज की प्रतिमा दर्शन मुद्रा में थी। एतदतिरिक्त संघपति हेमराज ने और उसके वंशजों ने भी अनेक प्रतिमाओं का निर्माण करवाकर प्रतिष्ठायें करवाई थीं। उदाहरणार्थ 3 धातु पंचतीर्थीओं के लेख उद्धृत हैं : 1. देखें, लेखक कृत प्रतिष्ठा लेख संग्रह लेखांक 904, 958, 959 लेख संग्रह 307 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) सं० 1559 वर्षे आषाढ सु० 10 सुराणागोत्रे सं० शिवराज भा० सीतादे पुत्र सं० हेमराज भार्या हेमसिरि पु० पूंजा काजा नरदेव श्रीपार्श्वनाथबिंबंकारितं प्र० श्रीधर्मघोषगच्छे श्रीपद्मानन्द सूरिपट्टे नन्दीवर्द्धनसूरिभिः। (2) // ॐ // सं. 1576 वर्षे ज्येष्ठ सुदि 8 र. सुराणागोत्रे सं. हेमराज भार्या सं. हेमश्री पुत्र सं. नरदेव भार्या जबीर पुत्र सं. देवदत्तेन स्वपितृ पुण्यार्थेन कारितं श्री आदिनाथ प्रतिष्ठितं श्री धर्मघोषगच्छे महारक श्री पद्मानन्द सूरिपहे श्री नन्दिवर्द्धन सूरिभिः॥ श्रीः / (3) // ॐ // सं. 1576 व. ज्येष्ठ सुदि 8 रवौ सुराणा गोत्र सं. हेमराज भार्या हेमसिरी पुत्र सं. नरदेव भार्या जबीर सं. देवदत्तेन स्वपितृपुण्यार्थ श्रीवासुपूज्यबिम्ब कारितं प्रतिष्ठितं . श्रीधर्मघोषगच्छे भ० श्रीपद्माणंदसूरिपट्टे भ० श्रीनन्दिवर्द्धनसूरिभिः॥ ... प्रथम लेख में हेमराज की मातुश्री 'सीतादे' का विशिष्ट उल्लेख है। लेख 2 और 3 में हेमराज के पौत्र देवदत्त ने अपने पिता के पुण्यार्थ प्रतिमाओं का निर्माण करवाया है। इन लेखों में नरदेव की पत्नी का नाम जबीर दिया है, जबकि उपर्युक्त प्रशस्ति में गुर्जरी दिया है। मोरखाणो (देसणोक से 12 मील, बीकानेर डिवीजन) स्थित सुसाणी माता का मन्दिर भी संघपति हेमराज ने बनवाया था, किन्तु इसकी प्रतिष्ठा संघवी हेमराज के पौत्र चाहड ने सं. 1573, ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को श्री नन्दीवर्द्धनसूरि के कर-कमलों से करवाई थी। इसलिये निश्चित है सं. 1559 और 1573 के मध्य में सं. हेमराज का स्वर्गवास हो गया हो! यह सुसाणी माता का शिलालेख भी ऐतिह्य एवं वंश-परम्परा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने से यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ, वैसे यह लेख डा. तैस्सितोरी द्वारा जनरल ऑफ दी रायल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, वोल्युम 13, सन् 1917, पृष्ठ सं. 214 पर मुद्रित हुआ है। (1) ॥ओं॥ श्री सुसाणकुलदेव्यै नमः। मूलाधारनिरोधबुद्धफणिनी कन्दादिमन्दानिले: नाझम्यग्रहराजमण्ड(२) लधिया प्राग्पश्चिमान्तं गता। तत्राप्युज्वलचन्द्रमण्डलगलत्पीयूषपानोल्लसत् कैवल्यानुभवा सदास्तु जगदान(३) न्दाय योगेश्वरी॥१॥ या देवेन्द्रनरेन्द्रवन्दितपदा या भद्रतादायिनी। या देवी किल कल्पवृक्ष समतां नृणां दधा.......... लौ। या रूपं सुरचित्तहारि नितरां देहे सदा बिनती। सा सूराणासबंशसौख्यजननी भूयात् प्रवृद्धिंक री॥२॥ तन्त्रैः किं किल किं सुमन्त्रजपनैः किं भेषजैर्वावरैः। किं देवेन्द्रनरेन्द्रसेवनतया किं साधुभिः किं धनैः। 308 लेख संग्रह Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का या भुवि सर्वकारणमयी ज्ञात्वेति भो ईश्वरी। तस्याध्यायत पादपङ्कजयुगं तद्ध्यानलीनाशयाः॥ 3 // श्री भूरिधर्म...........सूरी रसमयसमयाम्भोनिधेः पारदृश्वा। विश्वेषां शाश्वदाशासुरतरुसदृशस्त्याजितप्राणिहिंसाम्। सम्यग्दृष्टि....... .......मनणुगुणगणां गोत्रदेवी गरिष्ठां। कृत्वा सूराणवंशे जिनमतनिरतां यां चकारात्मशक्त्या॥४॥ तद् यात्रां महता महेन ....विधिवद्विज्ञो विधाया खिले निर्गे मार्गण चातकण (?) गुणः सम्भारटकच्छटः। जातः क्षेत्रफले ग्रहिर्मरुधराधाधरः ख्यातिमान् (10) संवेशः शिवराज इत्ययमहो चित्रं न गर्जिध्वजः॥५॥ तत्पुत्रः सच्चरित्रे वचनरचनया भूमिराजः समाजा(११) लङ्कारा स्मारसारो विहितनिजहितो हेमराजो महौजाः। चङ्गप्रोत्तुङ्गशृङ्गं भुवि भवनमिदं देवयानोपमान। (12) गोत्राधिष्ठातृदेव्याः प्रसृमरकिरणं कारयामास भक्त्या॥६॥ सम्वत् 1473 वर्षे ज्येष्ठमासे सित्तपक्षे पूर्णिमा(१३) स्यां शुक्रेनुराधायां खीमकर्णे श्री सूराणवंशे सं० गोसल तत्पुत्र सं० शिवराज तत्पुत्र सं० हेमराज तद्भार्या सं० हेमश्री त(१४) त्पुत्र सं० ध (१पूं) जा सं. काजा सं. नाल्हा सं० नरदेव सं० पूजा भार्या प्रतापदे पुत्र सं० चाहड सं० पाटमदे पुत्र सं० रणधीर। (15) सं० नाथू सं० देवा सं० रणधीर पुत्र देवीदास सं० काजा भार्या कउतिगदे पुत्र सं० सहसमल्ल सं० रणमल। (16) सहसमल्ल पुत्र मांडण। रणमल पुत्र खेता (खी) मा। सं० नाल्हा पुत्र सं० सीहमल्ल पु० पीथा सं० नरदेव पुत्र मोकला(१७) दिसहितेन। सं० चाहडेन प्रतिष्ठा कारिता सपरिकरेण श्रीपद्माणंदसूरि तत्पट्टे भ० श्री नन्दिवर्द्धनसूरीश्वरेभ्यः ( / ) इस लेख में महत्वपूर्ण एवं ज्ञातव्य बातें निम्नलिखित हैं: 1. सुसाणी देवी जिसे श्री धर्मसूरिजी ने प्रतिबोध देकर, हिंसा-त्याग की प्रतिज्ञा करवा कर सम्यक्त्व धारिणी देवी बनाया और सुराणा गोत्र की गोत्रदेवी (कुलदेवी) के रूप में उसे प्रतिष्ठापित किया। 2. मरुधर देश का आधार और ख्यातिमान सङ्घपति शिवराज ने बड़े महोत्सव के साथ विधिवत् गोत्राधिष्ठातृ सुसाणी देवी की यात्रा की। ___3. सङ्घपति शिवराज के पुत्र समाज के अलंकारभूत हेमराज ने गोत्र की अधिष्ठात्री देवी का सुन्दर, उत्तुङ्ग शिखरयुक्त और देवविमान सदृश मन्दिर का निर्माण करवाया। लेख संग्रह 309 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. सं० 1573 में शिवराज के पौत्र चाहड ने अपने समस्त परिवार के साथ इस मन्दिर की प्रतिष्ठा पद्मानन्दसूरि के पट्टधर श्री नन्दिवर्द्धनसूरि के कर-कमलों से करवाई। सुसाणी देवी को प्रतिबोध देने वाले वही धर्म सूरि हैं जिन्होंने कि मोल्लण को जैन धर्म में दीक्षित किया था और फलवर्द्धि पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा करवाई थी। उपर्युक्त फलौदी प्रशस्ति की अपेक्षा इस लेख में हेमराज के वंशजों में निम्नलिखित वैशिष्ट्य है: हेमराज के पुत्र पुंजराज की दो पत्नियाँ थीं- 1. प्रतापदे और 2. पाटमदे। प्रतापदे का पुत्र चाहड है और पाटमदे के 3 पुत्र हैं- 1. रणधीर 2. नाथू और 3. देवा। रणधीर का पुत्र देवीदास है। सहसमल का पुत्र मांडण है। रणमल के दो पुत्र हैं- 1. खेता और 2. खीमा। नल्हा का पौत्र सीहमल का पुत्र पीथा है तथा नरदेव का पुत्र मोकल है। फलवर्द्धिका देवी प्रशस्ति में हेमराज के चतुर्थ पुत्र देवा का उल्लेख नहीं है और देवीदास के लिये 'प्रसिद्भोऽधतदीय पुत्रः' लिखा है, जिससे स्पष्ट नहीं होता कि देवीदास चाहड का पुत्र है या रणधीर का? जबकि इस लेख में देवीदास को स्पष्ट रूप से रणधीर का पुत्र लिखा है। तथा नरदेव का पुत्र देवदत्त लिखा है, जबकि इस लेख में देवदत्त के स्थान पर मोकल है। इस सुसाणी देवी के लेख के आधार से हेमराज का वंश-वृक्ष इस प्रकार बनता है: संघवी हेमराज काजा नाल्हा नरदेव जराज / (कउतिगदे) मोकल सीहमल्ल (चाप श्री) (चाप श्री) 1 प्रतापदे 2 पाटमदे साहसमल रणमल पीथा खेता चाहड रणधीर नाथू देवा माडण खीमा देवीदास राठौड़ दुर्जनशल्य और सेरखान पर विजय राष्ट्रकूट (राठौड़) दुर्जनशल्य का परिचय देते हुए प्रशस्ति के पद्य 19 से 23 तक में लिखा है: राष्ट्रकूट वंश में जैत्रचन्द्र नामक राजा हुआ। इसकी सन्ताने 'कर्मध्वज' कमधज राठौड़ कहलाई। इसी परंपरा में भूपति सलखा हुए। इनके पुत्र वीरमदेव हुए। वीरमदेव के पुत्र चुण्डराज (चूंडाजी) हुए और इनके पुत्र रिणमल हुए। रिणमल के पुत्र 'योधभूपति' (जोधाजी) हुए और जोधाजी के पुत्र 1. नाहर जैन लेख संग्रह भा०२ लेखांक 1620 / लेख संग्रह 310 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्जनशल्य हैं। महाराज दुर्जनशल्य बड़े प्रतापी और यशस्वी हैं जिन्होंने सेरखान को रण में पराजित किया और मालवपति के हस्तिबल को सिंह के समान नाश किया है। . इस आधार से राठौड़ों का वंश-वृक्ष इस प्रकार बनता है: जैत्रचन्द्र सलखा वीरमदेव चुण्डराज रिणमल जोधाजी दुर्जनशल्य इस प्रशस्ति से यह स्पष्ट नहीं होता कि ये जैत्रचन्द्र कौन हैं, संभव है कन्नौज के नृपति जयचन्द्र ही हों। कर्मध्वज कोई राजा हुए हैं या वीरता के कारण राठौड़ों का विशेषण रहा है? इस विषय पर अधिकारी विद्वान् ही प्रकाश डालें तो समुचित होगा। सलखाजी से जोधाजी तक की परम्परा इतिहास-सम्मत और प्रसिद्ध ही है किन्तु, इस परम्परा में जोधाजी का पुत्र दुर्जनशल्य अवश्य ही विचारणीय है। रायबहादुर श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का जोधपुर राज्य का इतिहास तथा महामहोपाध्याय विश्वेश्वरनाथ रेऊ का 'मारवाड़ का इतिहास' पुस्तकों में राव जोधाजी के पुत्रों में दुर्जनशल्य का कहीं भी नामोल्लेख नहीं है। श्री ओझाजी ने राव जोधाजी के 17 पुत्र -माने हैं : 1. नींबा, 2. सातल, 3. सूजा, 4. कर्मसी, 5. रामपाल, 6. वणवीर, 7. जसवन्त, 8. कूपा, . 9. चांदराव, 10. बीका, 11. बीदा, 12. जोगा, 13. भारमल, 14. दूदा, 15. वरसिंह, 16. सामन्तसिंह और 17. सिवराज। और, श्री रेऊजी ने राव जोधाजी के 20 पुत्रों के नाम इस प्रकार दिये हैं:- 1. नींबा, 2. जोगा, 3. सातल, 4. सूजा, 5. बीका, 6. बीदा, 7. वरसिंह, 8. दूदा, 9. करमसी, 10. वणवीर, 11. जसवन्त,, 12. कूपा, 13. चांदराव, 14. भारमल, 15. शिवराज, 16. रायपाल, 17. सांवतसी, 18. जगमाल, 19. लक्ष्मण और 20. रूपसिंह। जसवंत उद्योत में कवि दलपति ने राव जोधाजी के 14 पुत्रों का नामोल्लेख किया है:- 1. सूजा, 2. सातल, 3. बीका, 4. दूदा, 5. राइपाल, 6. करमसी, 7. वणवीर, 8. शिवराज, 9. नींबा, 10. बीदा, 11. सामंतसिंह, 12. भारमल, 13. नरसिंह और 14. जोगा। इन नामावलियों में कहीं भी दुर्जनशल्य का नाम नहीं है और समस्त इतिहासकार राव जोधाजी के पश्चात् गद्दीपति महाराजा सातल को ही स्वीकार करते हैं जबकि प्रशस्तिकार 'तत्तनयो नृपनेता दुर्जनशल्यो नृपो जयति' का उल्लेख करता है। ___अतः यही संभावना होती है कि प्रशस्तिकार ने 'दुर्जनशल्य' शुद्ध, परिमार्जित एवं गुणयुक्त संस्कृत नाम शब्द का प्रयोग किया है, व्यावहारिक बोलचाल का नामोल्लेख नहीं किया है। इसलिये यह राव दूदाजी का ही शुद्ध नाम स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि.... लेख संग्रह 311 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. उस समय मेड़ता क्षेत्र पर राव दूदाजी का ही साम्राज्य था। इस बात को जोधपुर के समस्त इतिहासकार स्वीकार करते हैं। "दूदा-वि० सं० 1546 में इसने मेड़ते में अपना ठिकाना बाँधा और इसी से इसके वंशज मेड़तिया कहलाये।" ओझाजी, पृ० 253 2. सिरियाखानो रणे निर्जितः' सिरियाखान या सेरखान जो उस समय मांडू के शाह की ओर से अजमेर का सूबेदार था, उसको पराजित किया। इस संबंध में श्री ओझाजी अपने 'जोधपुर राज्य का इतिहास' पृ० 261 में लिखते हैं: "राव सातल का छोटा भाई वरसिंह मेड़ता में रहता था। उसने वहाँ से चढ़कर सांभर को लूटा / इस पर अजमेर का सूबेदार मल्लूखां, सिरिया खां, और मीर घडूला को साथ ले ससैन्य मेड़ते पर चढ़ाई। x x x वरसिंह, दूदा, सूजा, वरजांग (भीमोत) आदि के साथ ससैन्य कोसाणे पहुँचकर उसने रात्रि के समय मुसलमानी सेना पर आक्रमण कर दिया। दूदा ने सिरिया खां की ओर बढ़कर उसका हाथी छीन लिया। x x x इस लड़ाई में सातल भी बहुत घायल हो गया था, जिससे वह भी . जीवित न बच सका। इस लड़ाई का (श्रावणादि) वि० सं० 1548 (चैत्रादि) 1549 चैत्र सुदि 3 को होना माना जाता है। ___ठा० गोपालसिंह मेड़तिया लिखित 'जयमलवंश प्रकाश' पृ० 63 में मल्लूखां को ही सिरिया खां लिखा है जो अधिक संगत प्रतीत होता है। बांकीदास की ऐतिहासिक बातें' संख्या 623 में भी लिखा है कि इसने देश में बिगाड़ करने वाले अजमेर के सूबेदार सिरियाँ खां को मारा। . स्पष्ट है कि राव दूदा इस युद्ध में प्रमुख योद्धा और विजेता के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। 3. मालवपतिर्दन्ताबलानां कुलं' से स्पष्ट है कि यह सेरखान मालवा के बादशाह ,का ही विशिष्ट व्यक्ति था। राव दूदा ने मालवपति के हाथियों के दल को सिंह के समान नष्ट कर दिया था। ___ इस युद्धकाल के 7 वर्ष पश्चात् का उल्लेख होने से यह माना जा सकता है कि इस युद्ध के नेता और विजय के अधिकारी प्रधान रूप से राव दूदा ही हों और पिछले इतिहासकारों ने राव सातलजी को गद्दीपति होने के कारण प्रमुखता दी हो। 'नृपनेता दुर्जनशल्यो नृपो जयति' से स्पष्ट है कि मेड़ता के शासक होने के कारण यहाँ इन्हें नृप शब्द से संबोधित किया गया हो। जयमलवंशप्रकाश के अनुसार राव दूदाजी, राव जोधाजी के चतुर्थ पुत्र हैं। इनका जन्म सं० 1497 का है और मरण संवत् 1571 है। इन्हीं की पौत्री भारतप्रसिद्ध भक्तिमती मीरा हुई है। . ___ अतः राव दूदा को ही दुर्जनशल्य स्वीकार करना उपयुक्त एवं समीचीन होगा। पेरोजखान प्रशस्ति पद्य 27 में 'पेरोजखाना नृपतेः प्रसादं' पेरोजखान नृपति से प्रसाद पाकर, उल्लेख है। यह पेरोजखान कौन है? कहाँ का शासक या सूबेदार है? संघवी हेमराज को इसका प्रसाद प्राप्त करने की आवश्यकता क्यों हुई? मेड़ता से इसका क्या सम्बन्ध है? आदि प्रश्न विचारणीय हैं। इस विषय पर इतिहास के विद्वान् ही प्रकाश डाल सकते हैं। 312 लेख संग्रह Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ 'गते स्वदेशं प्रति सेरखाने' उक्ति में संभव है, सेरखां के पराजित होने के कारण मांडू के बादशाह ने इसे वापिस बुला लिया हो और उसके स्थान पर पेरोजखान को नया सूबेदार नियुक्त किया हो! अथवा गुजरात के सुलतान का कोई उच्चाधिकारी पेरोजखान नागौर का सूबेदार हो! अस्तु। * श्री अगरचंद जी नाहटा के संग्रह में पेरोजखान के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण प्रशस्ति 20 पद्यों की प्राप्त है। इस प्रशस्ति के अनुसार १६वीं शताब्दी में गुजरात के सुलतान वजीदुलमुल्क की परम्परा में मुजफ्फर प्रथम (महादफ्फर खां) का भाई शम्सखान का पुत्र पेरोजखान (फिरूजखान) ही नागौर का शासक था।* इस प्रशस्ति से गुजरात के सुलतानों के संबंध में महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक नवीन परिचय प्राप्त होता है। धर्मघोषगच्छीय नन्दिवर्द्धनसूरि और उनकी गुरु-परम्परा प्रशस्ति के पद्य 35 से 38 में लिखा है कि राजगच्छीय शीलभद्रसूरि के पट्टधर श्रीधर्मसूरि हुए जो तीन राजाओं के गुरु थे और जिन्होंने अनलराज (अर्णोराज) की सभा में दिगम्बरवादी पर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की तथा जिन्होंने तीनों वर्गों को प्रतिबोध देकर जैन धर्मानुयायी बनाया। इनकी परम्परा में श्रीपद्मानन्दसूरि गच्छाधीश रूप में विद्यमान हैं तथा इन्हीं के पट्टधर श्रीनन्दीवर्द्धनसूरि ने फलवर्द्धिका तीर्थ में यह प्रतिष्ठा करवाई है। राजगच्छीय पट्टावली के अनुसार इस गच्छ के सर्वप्रथम आचार्य श्रीनन्नसूरि हुए। नन्नसूरि की परम्परा में धर्मसूरि १०वें पाट पर आते हैं। पट्टावली के अनुसार आचार्यों के नाम इस प्रकार है:- 1. नन्नसूरि, 2. अजितयशोसूरि, 3. सर्वदेवसूरि, 4. प्रद्युम्नसूरि, 5. अभयदेवसूरि, 6. धनेश्वरसूरि, 7. अजितसिंहसूरि, 8. वर्द्धमानसूरि, 9. शीलभद्रसूरि; 10. धर्मसूरि। इनमें से, चौथे आचार्य प्रद्युम्नसूरि ने अल्लू (अल्लट, आघाट का नृपति) की राजसभा में दिगम्बरों को पराजित किया था और सपादलक्ष एवं त्रिभुवन गिरि के राजाओं को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। इनके शिष्य अभयदेवसरि ने प्रसिद्ध दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर प्रणीत सन्मतितर्क पर 'तत्वबोधविधायिनी' (जिसको वादमहार्णव भी कहते हैं) नामक टीका की रचना की थी। इनके शिष्य धनेश्वरसूरि हुए जो त्रिभुवनगिरि के नृपति कर्दम थे और दीक्षा ग्रहण के पश्चात् धनेश्वरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये धारापति मुंज की सभा के विजेता थे। इन्हीं से इस गच्छ नाम का नाम 'राजगच्छ' हुआ। - धर्मसूरि उस समय के महाप्रभाविक आचार्य थे। इनका दूसरा नाम धर्मघोषसूरि भी प्राप्त होता है। वि० सं० 1156 में इन्हें आचार्य पद प्राप्त हुआ था। इन्हीं के यशस्वी कार्यों के कारण इनके नाम से राजगच्छ धर्मघोषगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्राप्त सामग्री के आधार पर धर्मसूरि के उल्लेखनीय विशिष्ट कृत्यों की नामावली इस प्रकार है:. * टिप्पणी- नाम्ना श्रीमति साहिरेव..... तं सत्यर्दिदौ, श्रीमन्नागपुरे वरे मणिरणत्क्वाणैनिरि-पणे वरे। वाह्यावारिगिराश्रयैकनिलय सौख्यस्यधामौज तद्वाते व्यभिधानमानमकरोत् पेरोजखानः प्रभुः॥१८॥ 1. प्रभावक चरित प्रशस्ति तथा जैन साहित्य नो सं. इतिहास, पृ. 192 2. सिद्धसेनसूरि कृत प्रवचन सारोद्धारटीका प्रशस्ति। 3. प्रभावक चरित प्रशस्ति पद्य 5 4. राजगच्छपटावली (विविधगच्छीय पटावली संग्रह, प्र.६६) लेख संग्रह 313 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. शाकम्भरी नरेश विग्रहराज (विसलदेव) को प्रतिबोध देकर इन्होंने अजमेर में शान्तिनाथ, मन्दिर राजविहार-का निर्माण करवाया जिसकी प्रतिष्ठा स्वयं धर्मसूरि ने करवाई थी। इस राजविहार की प्रतिष्ठा के समय अरिसिंह मालवमहीन्द्र उपस्थित थे। 2. नृपति विग्रहराज चौहान की मातुश्री सूहवदेवी ने सूहवपुर में पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। 3. शाकम्भरी अर्णोराज धर्मसूरि का भक्त था। इसी की सभा में दिगम्बरवादी गुणचन्द्र को . . धर्मसूरि ने पराजित किया था। उपर्युक्त प्रशस्ति में तथा राजगच्छ पट्टावली अर्णोराज के स्थान पर 'राज्ञोऽनलस्य' तथा 'नरपते रल्हणाख्यस्य' अनल और अल्हन नाम प्राप्त होते हैं अतः अनल और अल्हण अर्णोराज के ही बोलचाल के नाम मानना समुचित होगा। 4. इनके उपदेश से भर्तृकराज (भट्टियराउ) ने नेमिनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया था। यह भट्टियराय कहाँ का अधिपति था, शोध का विषय है। 5. वि० सं० 1181 में फलवर्द्धि पार्श्वनाथ चैत्य की प्रतिष्ठा आपने करवाई। 6. सुसाणी देवी को प्रतिबोध देकर सम्यक्त्वव्रती बनाकर, सुराणा गोत्र की कुलदेवी के रूप में स्थापना की। 7. ब्राह्मण, क्षत्रिय और माहेश्वरीय वैश्यों को प्रतिबोध देकर ओसवालों के 105 गोत्र तथा श्रीमालों के 35 गोत्र नये स्थापित किये। 8. सौरवंश के मोल्लण परमार को जैन बनाकर सुराणा गोत्र स्थापित किया। प्रशस्ति में धर्मसूरि को 'भूपत्रयाणां गुरु' लिखा है, विग्रहराज, अर्णोराज के अतिरिक्त तीसरा नरेश कौन है? शोध का विषय है। आचार्य धर्मसूरि की पट्टपरम्परा में क्रमशः सागरचन्द्रसूरि, मलयचन्द्रसूरि, ज्ञानचन्द्रसूरि, मुनिशेखरसूरि, पद्मशेखरसूरि, पद्माणंदसूरि और नन्दिवर्द्धनसूरि हुए। फलवर्द्धिका देवी मंदिर के प्रतिष्ठाकारक नन्दिवर्द्धनसूरि हैं / सं० 1555 में इनके गुरु पद्माणंदसूरि विद्यमान थे। इन दोनों आचार्यों के सम्बन्ध में प्रतिष्ठा लेखों के अतिरिक्त कोई भी विशिष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं है। अद्यावधि प्रकाशित मूर्तिलेखों में पद्माणंदसूरि का सबसे प्राचीन लेख सं. 1504 का है। सं० 1537 से 1. वही तथा रविप्रभसूरि कृत धर्मघोपसूरि स्तुति पद्य 28 से 30 2. वही तथा रविप्रभसूरि कृत धर्मघोपसूरि स्तुति पद्य 28 से 30 3. राजगच्छ पट्टावली, पृ० 66 / 4. राजगच्छ पट्टावली, पृ० 66, फलवर्द्धिका देवी प्रशस्ति पद्य 36, रविप्रभसूरि कृत धर्मघोपसूरि स्तुति पद्य 26, 27 5. पाटण केटलॉग ऑफ मेन्युस्क्रिप्ट्स, पृ० 307-308 धर्मघोपसूरि स्तोत्र 6. विविधतीर्थकल्प, पृ० 106 7. मोरखाणा लेख 8. फलवर्द्धिकादेवी प्रशस्ति पद्य 36 तथा राजगच्छ पट्टावली, पृ०६६ 314 लेख संग्रह Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379 2333 526 1555 के मध्य का कोई लेख मुद्रित नहीं हुआ है। 'गच्छाधीशो राजते सच्चरित्र: पद्मानन्दः सूरिराजः सुकीर्त्या' (प्रशस्ति पद्य 37) से स्पष्ट है ये उस समय तक विद्यमान थे। श्री नन्दीवर्द्धनसूरि का सर्वप्रथम लेख 1554 का और अन्तिम लेख 1577 का प्राप्त है। इन आचार्यद्वय के प्रतिष्ठित समस्त लेखों की संवत्वार तालिका मुद्रित ग्रन्थों के आधार पर इस प्रकार है:पद्माणंदसूरि क्रमांक संवत् लेखांक पुस्तक का नाम 1504 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1505 1207 बीकानेर जैन लेख संग्रह 3 1507 422 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1509 441 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1509 -1222 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1509 1240 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1509. 438 जैनधातु प्रतिभा लेख संग्रह, भाग 2 1509 1174 नाहर-जैन लेख संग्रह, भाग 2 1512 नाहर-जैन लेख संग्रह, भाग 3 1512 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1512 956 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1512 2486 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1513 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1513 969 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1513 1473 नाहर-जैन लेख संग्रह, भाग 2 1515 2412 नाहर-जैन लेख संग्रह; भाग 3 1517 1000 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1517 जैनधातु प्रतिभा लेख संग्रह, भाग 1 1518 581 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1518 दौलतसिंह-जैन प्रतिमा लेख संग्रह 21 . 1520 2747 बीकानेर जैन लेख संग्रह 22. 1520 176 कान्तिसागर-जैन धातु प्रतिमा लेख 1520 2166 नाहर-जैन लेख संग्रह, भाग 3 1521 1251 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1521 दौलतसिंह-जैन प्रतिमा लेख संग्रह 1523 629 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1523 190 कान्तिसागर-जैन धातु प्रतिमा लेख. 1524 1038 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1527 698 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1528 702 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1529 715 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1529 1063 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1529 1535 बीकानेर जैन लेख संग्रह लेख संग्रह 315 1000 269 .33 21 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1326 868 1555 1529 776 नाहर-जैन लेख संग्रह, भाग 1 1529 नाहर-जैन लेख संग्रह, भाग 2 1531 735 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1533 761 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1533 1815 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1533 विद्याविजय-प्राचीन लेख संग्रह 1533 737 नाहर जैन लेख संग्रह, भाग 1 1535 1098 नाहर जैन लेख संग्रह, भाग 2 1535 458 विद्याविजय-प्राचीन लेख संग्रह 1537 जैन धातु प्रतिभा लेख संग्रह, भाग 2 नन्दीवर्द्धनसूरि 1554 1123 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1553 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1555 2443 बीकानेर जैन लेख संग्रह 1555 प्रस्तुत लेख 1559 904 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1562 915 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1569 942 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1570 1620 नाहर जैन लेख संग्रह, भाग 2 1570 1693 नाहर जैन लेख संग्रह, भाग 2 1571 947 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह . मोरखाणो सुसाणी देवी का लेख 1576 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1576 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह 1576 1303 नाहर-जैन लेख संग्रह, भाग 2 1577 964 विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह नंदीवर्द्धनसूरि सं० 1554 के लेख में गच्छ का नाम राजगच्छ या धर्मघोषगच्छ न होकर सुराणागच्छ है जो गच्छ और सुराणा गोत्र की एकरूपता प्रतिपादित करता है: संवत् 1554 व० पौष व० बुधे सुराणा गोत्रे सा० चीचा भा० कुंती षु मेघा भा रंगी पु० सूर्यमल्ल स्वपुण्यार्थ श्री वासुपूज्य बिंब कारितं प्र० सुराणा गच्छे श्री पद्माणंदसूरि पट्टे श्री नन्दिवर्द्धनसूरिभिः जालुरवास्तव्यः ११वीं शती से १६वीं शती तक इस गच्छ के आचार्यों का राजस्थान के राजाओं पर तथा राजस्थानी जनजीवन पर बहुत विस्तृत प्रभाव रहा है तथा इनके द्वारा साहित्य-सर्जना भी विपुल हुई है। अतः इस गच्छ के कार्यकलापों का अनुसन्धान होना अत्यावश्यक है। इतिहासकारों से निवेदन है कि इस लेख में चर्चित परमारवंशी सूर का पृथ्वीराज चौहान से सम्बद्ध, शाकम्भरी नरेश साल्हणराज, भट्टिराय तथा फलवर्द्धिका देवी का नाम ब्रह्माणी माता आदि प्रसंगों को स्पष्ट करने का प्रयत्न करें। [राजस्थान भारती भाग-९, अंक-४] 1573 958 959 15 316 लेख संग्रह Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान में पार्श्वनाथ के तीर्थ स्थान वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में से मुख्यतः केवल तीन तीर्थंकरों के लिये ही आगम-साहित्य में नाम के साथ विशेषण प्राप्त होते हैं - ऋषभदेव के लिये 'अरहा कोसलिए' अर्हत् कौशलिक, पार्श्वनाथ के लिये 'अरहा पुरिसादाणीए' अर्हत् पुरुषादानीय, और महावीर के लिए 'समणे भगवं महावीरे' श्रवण भगवान् महावीर। यश नाम कर्म की अत्यधिक अतिशयता के कारण समग्र तीर्थंकरों में से केवल पुरुषादानीय पार्श्वनाथ का नाम ही अत्यधिक संस्मरणीय, संस्तवनीय और अर्चनीय रहा है। अधिष्ठायक धरणेन्द्र और पद्मावती देवी की जागृति एवं चमत्कार प्रदर्शन के कारण वीतराग होते हुए भी मनोभिलाषा पूरक के रूप में पार्श्व का नाम ही प्रमुखता को धारण किये हुए है। यही कारण है कि मन्त्र साहित्य और स्तोत्र साहित्य को विपुलता के साथ पार्श्व के नाम से ही समृद्ध हैं। __सामान्यतः तीर्थों की गणना में वे ही स्थल आते हैं जहाँ तीर्थंकरों के पाँचों कल्याणक - च्यवन, जन्म, दीक्षा, ज्ञान; निर्वाण - हुए हों। सिद्धतीर्थों में उनकी गणना की जाती है जहां कोई-न-कोई महापुरुष सिद्ध, बुद्ध, और मुक्त हुए हों अथवा विचरण किया हो। किन्तु अतिशय तीर्थ या चमत्कारी तीर्थ वे कहलाते हैं जहाँ कोई भी महापुरुष सिद्ध तो नहीं हुए हों, परन्तु उन क्षेत्रों में स्थापित उन महापुरुषों/तीर्थंकरों की मूर्तियाँ अतिशय चमत्कारपूर्ण होती हों। - भगवान पार्श्वनाथ के कई तीर्थ तो उनके जन्म से पूर्व एवं विद्यमानता में ही स्थापित हो गये थे। परम्परागत श्रुति के अनुसार आचार्य जिनप्रभसूरि ने विविध तीर्थकल्प नामक ग्रन्थ (र० सं० 1389) में लिखा है - . 1. दशग्रीव रावण के समय में निर्मित पार्श्वनाथ प्रतिमा ही कालान्तर में श्रीपुर में स्थापित हुई, वही अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। 2. भगवान नेमिनाथ के समय में कृष्ण और जरासन्ध में भीषण युद्ध हुआ था। इस संग्राम में जरासन्ध ने जरा विद्या के प्रयोग से कृष्ण की सेना को निश्चेष्ट कर दिया था। उस समय पन्नगेन्द्र से पार्श्व प्रभु की प्रतिमा प्राप्त की और उसके न्हवण जल/स्नान जल के छिटकाव से कृष्ण की सेना पूर्णतः स्वस्थ हो गई थी। वही स्थल शंखेश्वर पार्श्वनाथ के नाम से तीर्थ रूप में प्रसिद्ध हुआ और आज भी इसकी प्रसिद्धि चरम सीमा पर है। . 3. स्तम्भन पार्श्वनाथ कल्प के अनुसार भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के समय में निर्मित पार्श्व प्रतिमा ही नागराज से नवम वासुदेव श्रीकृष्ण ने प्राप्त की थी। यही प्रतिमा कालान्तर में नवांगीटीकाकार अभयदेवसूरि ने सेढी नदी के तट पर भूमि से प्रकट कर स्तम्भनपुर (थांभणा) में स्थापित की थी, जो आज भी तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध है। लेख संग्रह 317 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी विविध तीर्थकल्प के अन्तर्गत 'अहिच्छत्रानगरीकल्प' और 'कलिकुण्ड कुर्कुटेश्वरकल्प' में . लिखा है कि प्रभु पार्श्वनाथ दीक्षा ग्रहण कर छद्मस्तावस्थ में विचरण कर रहे थे, तभी ये दोनों तीर्थ क्षेत्र स्थापित हो गए थे। अर्थात् उनकी विद्यमानता में ही दोनों स्थल तीर्थ के रूप में मान्य हो गए थे। भारत के प्रत्येक प्रदेश में पुरुषादानीय पार्श्वनाथ के अतिशयपूर्ण एवं विख्यात कई-कई तीर्थस्थल हैं। जिनप्रभसूरि ने ही 'चतुरशीति महातीर्थनाम संग्रह कल्प' में पार्श्वनाथ के 15 महातीर्थों का उल्लेख किया है: 1. अजाहरा में नवनिधि पार्श्वनाथ, 2. संभाल में भवभयहर, 3. फलवर्धि में विश्वकल्पलता, 4. करहेड़ा में उपसर्गहर, 5. अहिच्छत्रा में त्रिभुवनभानु, 6-7. कलिकुण्ड और नागह्रद में श्री पार्श्वनाथ, 8. कुर्कुटेश्वर में विश्वगज, 9. महेन्द्र पर्वत पर छाया, 10. ओंकार पर्वत पर सहस्रफणा, 11. वाराणसी में भव्य पुष्करावर्तक, 12. महाकाल के अन्तर में पाताल चक्रवर्ती, 13. मथुरा में कल्पद्रुम, 14. चम्पा में अशोक और 15. मलयगिरि पर श्री पार्श्वनाथ भगवान् हैं। साथ ही पार्श्व के दस तीर्थों पर कल्प भी लिखे वि० सं० 1668 में विनयकुशल ने गोडी पार्श्वनाथ स्तवन में तथा 1881 में खुशलविजय ने पार्श्वनाथ छन्द में प्रभु पार्श्वनाथ के 108 तीर्थों का उल्लेख किया है। वहीं धीरविमल के शिष्य नयविमल ने पार्श्वनाथ के 135 तीर्थ-मन्दिरों का वर्णन किया है। इस प्रकार देखा जाए तो चिन्ताचूरक, चिनतमणिरत्न के समान मनोवांछापूरक पार्श्वप्रभु के नाम से वर्तमान समय में भारतवर्ष में शताधिक तीर्थ हैं, सहस्र के लगभग मन्दिर हैं और मूर्तियों की तो गणना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रत्येक मन्दिर में पाषाण एवं धातु की अनेकों प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं। राजस्थान प्रदेश में तीर्थंकरों विशेषतः पार्श्वनाथ के पाँचों कल्याणकों में से कोई कल्याणक नहीं होने से यहाँ के पुरुषादानीय पार्श्वनाथ के सारे तीर्थ क्षेत्र अतिशय/चमत्कारी तीर्थों की गणना में ही आते हैं। राजस्थान में प्रभु पार्श्वनाथ के नाम से निम्न स्थल तीर्थ के रूप में अत्यधिक विख्यात हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय अकारानुक्रम से प्रस्तुत है: 1. करहेड़ा पार्श्वनाथ - उदयपुर-चित्तौड़ रेलवे मार्ग पर करहेड़ा स्टेशन है। स्टेशन से एक कि०मी० पर यह गाँव है। यहाँ उपसर्गहर पार्श्वनाथ की श्यामवर्णी. प्रतिमा विराजमान है। नाहरजी के लेखानुसार सं० 1039 में संडेरकगच्छीय यशोभद्रसूरि ने पार्श्वनाथ बिम्ब की प्रतिष्ठा की थी। यहाँ 1303, 1306, 1341 आदि के प्राचीन मूर्तिलेख भी प्राप्त हैं। सुकृतसागर काव्य के अनुसार मांडवगढ़ के पेथड़ और झांझण ने यहाँ के प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार करवा कर सात मंजिला भव्य मंदिर बनवाया था, किन्तु आज वह प्राप्त नहीं है। सं० 1431 में खरतरगच्छ के आचार्यों के द्वारा बड़ा महोत्सव हुआ और सं० 1656 में इसका जीर्णोद्धार हुआ था और वर्तमान में फक्कड़ वल्लभदत्तविजय जी के उपदेश से जीर्णोद्धार हुआ है। जिनप्रभसूरि रचित फलवर्द्धि पार्श्वनाथ कल्प के अनुसार यह करहेड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ प्रसिद्ध तीर्थों में से था। खरतरगच्छ की पिघलक शाखा का यहाँ विशेष प्रभाव रहा है। मेवाड़ के तीर्थों में पार्श्वनाथ का यह एकमात्र प्राचीन तीर्थ है। 318 लेख संग्रह Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 2. कापरड़ा पार्श्वनाथ - जोधपुर से बिलाड़ा-अजमेर रोड पर यह तीर्थ है। प्राचीन उल्लेखों में इसका नाम कर्पटहेडक, कापड़हेड़ा मिलता है। जैतारण निवासी सेठ भानाजी भंडारी ने भूमि से 99 फीट ऊँचा चार मंजिला यह विशालकाय शिखरबद्ध मंदिर बनवाया था। इस मंदिर की उन्नतता और विशालता की तुलना कुमारपाल भूपति निर्मापित तारांगा के मंदिर से की जा सकती है। यह मंदिर चतुर्मुख है और मूलनायक स्वयम्भू पार्श्वनाथ हैं। मूलनायक की मूर्ति जिनचन्द्रसूरि ने सं० 1674 पौष बदी 10 को भूमि से प्राप्त की थी। इसकी प्रतिष्ठा वि० सं० 1678, वैशाख सुदि पूर्णिमा को खरतरगच्छ की आद्यपक्षीय शाखा के जिनदेवसूरि के पट्टधर पंचायण भट्टारक जिनचन्द्रसूरि ने करवाई थी। मूलनायक की चारों मूर्तियाँ परिकरयुक्त हैं। .. 3. चंवलेश्वर पार्श्वनाथ - जहाजपुर तहसील में पारोली से 6 कि०मी० की दूरी पर वर्तमान में प्रसिद्ध चंवलेश्वर पार्श्वनाथ का मंदिर है। अधुना श्वेताम्बर-दिगम्बर के विवाद में उलझा हुआ है। __पं० कल्याणसागर रचित पार्श्वनाथ चैत्य परिपाटी, में मेघविजयोपाध्याय कृत पार्श्वनाथ नाममाला में और जिनहर्षगणि कृत पार्श्वनाथ 108 नाम स्तवन में इस तीर्थ का उल्लेख प्राप्त है। 4. चित्तौड़ सोमचिन्तामणि पार्श्वनाथ - राजगच्छीय हीरकलश द्वारा १५वीं शती में रचित मेदपाटदेश तीर्थमाला स्तव पद्य 16 के अनुसार यहाँ श्री सोमचिन्तामणि पार्श्वनाथ का तीर्थ स्वरूप विशाल मंदिर विद्यमान था, किन्तु आज नामोनिशान भी नहीं है। - उत्खनन में प्राप्त कमलदल चित्र काव्य मय शिलापट्ट के अनुसार अनुमानतः 1162 में जिनवल्लभगणि (जिनवल्लभसूरि) ने पार्श्वनाथविधि चैत्य की प्रतिष्ठा की थी। 5. जीरावला पार्श्वनाथ - खराड़ी से आबू-देलवाड़ा के मार्ग पर 30 कि०मी० और अणादरा -- गाँव से 13-14 कि०मी० की दूरी पर गाँव है। इसका प्राचीन नाम जीरिकापल्ली, जीरापल्ली, जीरावल्ली प्राप्त होता है। उपदेश सप्तति के अनुसार 1109 एवं वीरवंशावली के अनुसार 1191 में श्रेष्ठि धांधल ने देवीत्री पर्वत की गुफा से प्राप्त प्रतिमा की इस गाँव में नवीन मंदिर बनवाकर स्थापना की थी और प्रतिष्ठा अजितदेवसूरि ने की थी। यह तीर्थ जीरावला पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 1368 में यह प्रतिमा खंडित कर दी गई। विलेपन करने पर भी नवअंग (भाग) स्पष्ट दिखाई देते थे। खंडित मूर्ति मुख्य स्थान में शोभा नहीं देती, अत: परवर्ती आचार्यों ने मुख्य स्थान पर नेमिनाथ की मूर्ति स्थापित कर दी और इस मूर्ति को दायीं ओर विराजमान कर दिया। . उपदेश तरंगिणी (पृ० 18) के अनुसार संघपति पेथड़ शाह और झांझण शाह ने यहाँ एक विशाल मंदिर बनवाया था और महेश्वर कवि रचित काव्य मनोहर (सर्ग 7 श्लो० 32) के अनुसार सोनगिरा श्रीमालवंशीय श्रेष्टि झांझक्ण के पुत्र संघपति आल्हराज ने भी इस महातीर्थ पर उन्नत तोरण युक्त विशाल मंदिर बनवाया था, किन्तु आज इनका कोई अता-पता नहीं है। इस महातीर्थ की प्रसिद्धि इतनी अधिक हुई कि आज भी प्रतिष्ठा के समय भगवान की गद्दी पर विराजमान करने के पूर्व गद्दी पर जीरावला पार्श्वनाथ का मन्त्र लिखा जाता है। देलवाड़ा के सं० 1491 के लेख के प्रारम्भ में "नमो जीरावलाय' लिखा है, जो इसकी प्रसिद्ध का सूचक है। जीरावला नाम इतना अधिक विख्यात हुआ कि जीरावला पार्श्वनाथ के नाम से अनेकों स्थानों पर मंदिर निर्माण हुए, जिनमें मुख्य-मुख्य हैं:- घाणेराव, नाडलाई, नंदोल, बतोल, सिरोही, गिरनार, घाटकोपर (बम्बई) आदि। लेख संग्रह 319 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. नवलखा पार्श्वनाथ - पाली मारवाड़ में नवलखा दरवाजे के पास बावन जिनालय वाला विशाल नवलखा पार्श्वनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। इस स्थान का प्राचीन नाम पल्लिका, पल्ली था। सं० 1124, 1178, 1201 के प्राप्त लेखानुसार मूलतः यह महावीर स्वामी का मंदिर था। सं० 1686 के लेखानुसार नवलखा मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ था और पुनर्प्रतिष्ठा के समय पार्श्वनाथ की सपरिकर मूर्ति स्थापित की गई थी। 7. नाकोड़ा पार्श्वनाथ - जोधपुर से बाड़मेर रेलवे के मध्य में बालोतरा स्टेशन से 10 कि०मी० दूरी पर मेवानगर ग्राम में यह तीर्थ है। वस्तुतः ग्राम का नाम वीरपुर या नगर था किन्तु महेवा और नगर का मिश्रण होकर यह स्थान अभी मेवानगर कहलाता है। नाकोड़ा ग्राम के तालाब से प्रकट इस पार्श्वनाथ प्रतिमा की इस स्थान पर स्थापना/प्रतिष्ठा अनुमानतः वि० सं० 1512 में खरतरगच्छीय कीर्तिरत्नसूरि ने की थी। संस्थापक कीर्तिरत्नसूरि की मूर्ति भी (1536 में प्रतिष्ठित) मूल मण्डप के बाहर बायीं ओर के आले में विराजमान है। नाकोड़ा में प्रकटित होने के कारण ही नाकोड़ा पार्श्वनाथ के नाम से इसकी प्रसिद्धि हुई है। यहाँ के अधिष्ठायक भैरव भी नाकोड़ा भैरव के नाम से सारे भारत में विख्यात हैं। वर्तमान में श्रद्धालु यात्री भी 400-500 के लगभग प्रतिदिन आते हैं। राजस्थान के समस्त तीर्थों की तुलना में आय भी इसकी सर्वाधिक है। मन्दिर भी विशाल और रमणीय है। व्यवस्था भी सुन्दर है। 8. नागफणा पार्श्वनाथ - यह मंदिर उदयपुर में है। साराभाई म० नवाब की पुस्तक 'पुरिसादाणी श्री पार्श्वनाथजी' के अनुसार महाराणा प्रताप ने धरणेन्द्र-पद्मावती सहित पार्श्वनाथ की आराधना से ही पिछले युद्धों में विजय प्राप्त कर इस मंदिर का निर्माण करवाया था, जो नागफणा पार्श्वनाथ के नाम से आज भी प्रभावशाली माना जाता है। 9. नागहृद नवखण्डा पार्श्वनाथ - उदयपुर से 22 कि०मी० पर नागंदा गाँव है। यहाँ वर्तमान में सं० 1494 में खरतरगच्छीय जिनसागरसूरि प्रतिष्ठित शान्तिनाथ का मंदिर है। किन्तु मुनिसुन्दरसूरि रचित नागहृद तीर्थ स्तोत्र, जिनप्रभसूरि के फलविधि पार्श्वनाथ तीर्थकल्प में नागहृदय पार्श्वनाथ के उल्लेख प्राप्त हैं। राजगच्छीय हरिकलश रचित (१५वीं शती) मेदपाट देश तीर्थमाला-स्तव पद्य 3 में नवखण्डा पार्श्वनाथ का उल्लेख है। यहाँ पार्श्वनाथ का जीर्ण मंदिर भी है। मंदिरस्थ मूर्ति के एक प्रभासण के नीचे 1192 का लेख प्राप्त है। आलोक पार्श्वनाथ - नागदा में ही एकलिंगजी के मंदिर के पास ही दिगम्बर परम्परा का आलोक पार्श्वनाथ का मंदिर था जिसे समुद्रसूरि ने श्वेताम्बर तीर्थ के रूप में परिवर्तित कर दिया था। १७वीं शताब्दी से अनेकों श्वे० शिलालेख प्राप्त हैं। आलोक पार्श्वनाथ मंदिर का उल्लेख बिजोलिया के 1236 वाले शिलालेख में भी प्राप्त है। 10. फलवर्द्धि पार्श्वनाथ - मेड़ता रोड जंक्शन स्टेशन से एक फलांग की दूरी पर फलौदी नामक गाँव है जो फलौदी पार्श्वनाथ या मेड़ता फलौदी के नाम से मशहूर है। राजस्थान के प्राचीन तीर्थस्थानों में इसकी गणना की जाती है। जिनप्रभसूरि रचित फलवर्द्धि पार्श्वनाथकल्प के अनुसार मालवंशीय धांधल और ओसवालवंशीय शिवकर ने भूमि से प्राप्त सप्तफला पार्श्वनाथ की प्रतिमा नवीन विशाल गगनस्पर्शी मन्दिर बनवाकर स्थापित की और इसकी प्रतिष्ठा वि० सं० 1181 में राजगच्छ (धर्मघोषगच्छ) 320 लेख संग्रह Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के शीलभद्रसूरि के शिष्य धर्मघोषसूरि ने की थी। सं० 1233 में शहाबुद्दीन गौरी ने मूर्ति का अंग-भंग किया, तथापि प्राचीन एवं देवाधिष्ठित होने के कारण यही मूर्ति मूलनायक के रूप में ही रही। पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह के अनुसार पारस श्रेष्ठि ने वाद विजेता वादीदेवसूरि के तत्त्वावधान में इस गगनचुम्बी मंदिर का निर्माण 1199 में करवाया और इसकी प्रतिष्ठा वादिदेवसूरि के पट्टधर मुनिचन्द्रसूरि ने 1204 में करवाई। इस तीर्थ की महिमा का वर्णन करते हुए जिनप्रभसूरि तो यहाँ तक लिखते हैं: "इस महातीर्थभूत पार्श्वनाथ के दर्शन से कलिकुण्ड, कुर्कुटेश्वर, श्रीपर्वत, शंखेश्वर, सेरीसा, मथुरा, वाराणसी; अहिच्छता, स्तंभ, अजाहर, प्रवरनगर, देवपत्तन, करहेड़ा, नागदा, श्रीपुर, सामिणि चारूप, ढिंपुरी, उज्जैन, शुद्धदन्ती, हरिकंखी, लिम्बोडक आदि स्थानों में विद्यमान पार्श्वनाथ प्रतिमाओं का यात्रा करने का फल होता है।" १५वीं शती में हेमराज सुराणा ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। आज भी यह मंदिर दर्शनीय है और चमत्कारपूर्ण है। 11. बिजोलिया पार्श्वनाथ - यह भीलवाड़ा जिले की बूंदी की सीमा पर स्थित है। यहाँ चट्टान पर खुदा हुआ "उत्तम शिखर पुराण" एवं वि० सं० 1226 का चौहानकालीन महत्वपूर्ण लेख है। मंदिर भग्न हो गया है, केवल शिखर का भाग ही अवशिष्ट है। यह मंदिर दिगम्बर परम्परा का है। चौहानकालीन 1226 के लेख में 92 पद्य एवं कुछ गद्य भाग है। लेख के ५६वें पद्य में लिखा है - श्रेष्ठि लोलाक की पत्नी ललिता को स्वप्न में यहाँ मंदिर बनवाने का देव-निर्देश मिला था। इस लेख में यह उल्लेख भी मिलता है कि यहाँ कमठ ने उपसर्ग किया था। उत्तम शिखर पुराण दूसरी चट्टान पर खुदा हुआ है। इसमें 294 श्लोक हैं। इसके तीसरे सर्ग में कमठ के उपसर्ग का विस्तृत वर्णन भी मिलता है। 12. रतनपुर पार्श्वनाथ - रतनपुर मारवाड़ के पार्श्वनाथ मंदिर का तीर्थरूप में उल्लेख मिलता है। वि० सं० 1209, 1333, 1343, 1346 के लेखों से इसकी प्राचीनता और प्रसिद्धि स्पष्ट है, किन्तु आज यह तीर्थ महत्व-शून्य है। 13. रावण पार्श्वनाथ - अलवर से 5 कि० मी० दूर जंगल में रावण पार्श्वनाथ मंदिर जीर्ण दशा में प्राप्त है। परम्परागत श्रुति के अनुसार यह मूर्ति रावण-मन्दोदरी द्वारा निर्मित थी। सं० 1645 में श्रेष्ठि हीरानन्द ने रावण पार्श्वनाथ का भव्य मंदिर बनवाकर खरतरगच्छीय आद्यपक्षीय शाखा के जिनचन्द्रसूरि के आदेश से वाचक रंग कलश से प्रतिष्ठा करवाई थी। 1449 की कल्पसूत्र की प्रशस्ति तथा अनेक तीर्थमालाओं आदि में भी रावण तीर्थ का उल्लेख मिलता है। 14. लौद्रवा पार्श्वनाथ - जैसलमेर से 15 किलोमीटर पर यह तीर्थ है। सहजकीर्ति निर्मित शतदलपद्म गर्भित चित्रकाव्य के अनुसार श्रीधर और राझधर ने चिन्तामणि पार्श्वनाथ का मंदिर बनवाया। श्रेष्ठि खीमसा ने मंदिर भग्न होने पर नूतन मंदिर बनवाया। इसके भी जीर्ण-शीर्ण होने पर जैसलमेर निवासी लेख संग्रह 321 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणसाली गोत्रीय थाहरू शाह ने प्राचीन मंदिर के नींव पर ही पंचानुत्तर विमान की आकृति पर नव्य एवं भव्य मंदिर बनवाकर चिन्तामणि पार्श्वनाथ की श्यामवर्णी प्रतिमा विराजमान की। इसकी प्रतिष्ठा खरतरगच्छीय जिनराजसूरि ने सं० 1675, मिगसर सुदि 12, गुरुवार को की थी। मंदिर के दायीं ओर समवसरण पर अष्टापद और उस पर कल्पवृक्ष की मनोहर रचना भी है। मंदिर शिखरबद्ध है और शिल्पकला की दृष्टि से अनूठा है। 15. वरकाणा पार्श्वनाथ - राणी स्टेशन से 3 कि०मी० पर वरकाणा गाँव है। प्राचीन नाम 'वरकनकपुर' मिलता है। गोडवाड की प्रसिद्ध पंचतीर्थी में इस तीर्थ का प्रमुख स्थान है। कई बार इसका जीर्णोद्धार होने से प्राचीनता नष्ट हो गई है। शिवराजगणि ने आनन्दसन्दर ग्रन्थ (र० सं० 1559) के प्रारंभ में ही "वरकाणा पार्श्व प्रसन्नो भव" लिखकर इस तीर्थ की महिमा गाई है। महाराणा जगतसिंह ने सं० 1687 के लेख में मेले के लिये जफात में छूट का उल्लेख है। अन्य तीर्थ - इसी प्रकार तिंवरी पार्श्वनाथ, पोसलिया पार्श्वनाथ सोजत के पास मुंडेवा पार्श्वनाथ, नाडलाई में सोमटिया पार्श्वनाथ, सुजानगढ़ में जगवल्लभ पार्श्वनाथ के मंदिर भी दर्शनीय हैं। गोंडी पार्श्वनाथ के नाम से बीकानेर, आहोर, धानेरा, नाड़लाई, सोजत के मंदिर प्रसिद्ध और दर्शनीय हैं। वस्तुतः देखा जाए तो यह राजस्थान प्रदेश अतिशय/चमत्कारी तीर्थ-स्थलों का ही प्रदेश है। इस लघु निबन्ध में पार्श्वनाथ के प्रसिद्ध एवं मुख्य-मुख्य तीर्थ-स्थलों का उल्लेख मात्र किया गया है / ऐतिहासिक विश्लेषण प्राचीनत्व और विशिष्टताओं का लेखा-जोखा नहीं है। अनुसन्धान करने पर इस प्रदेश में अन्य अनेक प्राचीन तीर्थ क्षेत्रों का परिचय भी प्राप्त किया जा सकता है। [Arhat Parva and Dharanendra Nexus] 322 लेख संग्रह Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माण्डवगढ़ के पेथड़शाह ने कितने जिन मन्दिर बनवाये? राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जयपुर के संग्रहालय का भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्वीकृत पद्धति से संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के हस्तलिखित ग्रन्थों का नवीन सूचीपत्र बनाते समय ग्रंथांक 7460(2) पर आचार्य श्री सोमतिलकसूरि रचित पृथ्वीधर साधु (पेथड़ शाह) कारित चैत्य स्तोत्र की विक्रम की १६वीं शताब्दी की प्रति प्राप्त हुई। इस स्तोत्र में पेथड़ शाह के धार्मिक सुकृत्यों, औदार्यादि गुणों और धर्मनिष्ठ जीवन की श्लाघा करते हुए बतलाया है कि पेथड़ ने 78 नवीन जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया। कौन-कौन से तीर्थकरों के किस-किस स्थान पर मन्दिर बनवाये, इनका तीर्थंकर नाम और स्थल-नाम निर्देश के साथ इस स्तोत्र में उल्लेख हुआ है, यह इस स्तोत्र का वैशिष्ट्य है। इस स्तोत्र के प्रणेता श्री सोमतिलकसूरि हैं जो पेथड़ के धर्मगुरु श्री धर्मघोषसूरि के पौत्र पट्टधर और श्री सोमप्रभसरि के पट्टधर आचार्य हैं। तपागच्छ पट्टावली के अनुसार इनका जन्म वि० सं०१३३५, दीक्षा 1339, आचार्य पद 1373 और स्वर्गवास 1424 में हुआ था। ये बड़े प्रभाविक और विद्वान आचार्य थे। इनके द्वारा निर्मित बृहत्द्रव्य क्षेत्रसमास प्रकरण, सप्ततिशत स्थानक प्रकरण और अनेकों स्तोत प्राप्त हैं। माण्डवगढ़ के महामन्त्री साधु पृथ्वीधर (प्रसिद्ध नाम पेथड़शाह) के नाम से जैन समाज में सुपरिचित हैं। जिन मन्दिर निर्माण, स्वधर्मी बन्धुओं का पोषण, गुरुभक्ति, शास्त्रभक्ति, दानशाला निर्माण आदि सुकृत्यों के प्रसंगों पर आज भी साधुवर्ग व्याख्यानादि में पेथड़शाह का उद्धरण देते हैं और उनका कथानक कह कर धर्मकार्यों की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं। पेथड़शाह ओसवालजातीय देदा के पुत्र थे। ये माण्डवगढ़ के परमारवंशीय महाराजा जयसिंह के * महामंत्री थे। इनका समय १३वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १४वीं शती का पूर्वार्द्ध है / पेथड़ के सुकृत कार्यों का कार्यकाल 1318 से 1338 के मध्य का है। देदा, पेथड़ और इनका पुत्र झांझण तीनों ही धर्मनिष्ठ, श्राद्धगुणों के धारक-पालक और परमगुरु भक्त थे। इनके सुकत क्रियाकलापों का सविस्तृतवर्णन श्री रत्नमण्डन (रत्नमन्दिर) गणि रचित सुकृतसागर काव्य (वि० सं० 1517) और उपदेशतरंगणी के तरंग 2-3 में प्राप्त है। इस ग्रन्थों के आधार से पेथड़ का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है नान्दुरी पुरी में देदा नामक निर्धन वणिक् रहता था। एक योगी ने सुवर्णरससिद्धि करके उसे दे दी उससे वह धनाढ्य श्रीमंत हो गया। किसी की झूठी शिकायत से वहाँ के राजा ने देदा को बन्दीगृह में डाल दिया। स्तंभन पार्श्वनाथ के प्रताप से वह छूटा। देदा नांदुरीपुरी का त्याग कर विद्यापुर (बीजापुर) जाकर रहने लगा। वहाँ से वह खंभात गया और स्तंभन पार्श्वनाथ की पूजा कर, स्वर्णदान करने से समाज द्वारा 'कनकगिरि' विराद् प्राप्त किया। वहाँ से वह किसी कार्यवश देवगिरि गया और वहाँ विशाल धर्मशाला का निर्माण करवाया। देदा का पुत्र पेथड़ हुआ। लेख संग्रह 323 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छीय प्रसिद्ध विद्वान श्री देवेन्द्रसूरि के शिष्य श्री धर्मघोषसूरि (तपागच्छ पट्टावली के अनुसार आचार्य पद वि० सं० 1303 या 1304 में प्राप्त हुआ था और सं० 1356 में इनका स्वर्गवास हुआ था। गुर्जराधीश इनका मित्र था और ये बड़े चमत्कारी प्रभावशाली आचार्य थे) विहार करते हुए बीजापुर आये और वहाँ चातुर्मास किया। आचार्य के उपदेश से प्रभावित होकर पेथड़ ने परिग्रह प्रमाण का व्रत ग्रहण किया। 'मालव देश में तेरा भाग्योदय है' ऐसा आचार्य से संकेत प्राप्त कर, पेथड़ माण्डवगढ़ आकर रहने लगा। माण्डवगढ़ में परमारवंशीय जयसिंह भूपति का राज्य था। माण्डवगढ़ में नमक और घी का व्यापार करते हुए एक घी बेचने वाली महिला से पेथड़ को 'चित्रावेली' प्राप्त हुई। चित्रावेली के प्रभाव से पेथड़ कोट्याधीश बना। राजा के साथमैत्री हुई, राजा से छत्र-चामर आदि राज्याधिकार प्राप्त कर सम्मानित हुआ। पेथड़ का पुत्र झांझण था। झांझण का विवाह दिल्ली निवासी भीम सेठ की पुत्री सौभाग्यदेवी से हुआ। शाकंभरी नरेश चौहान गोगादे ने पेथड़ को बुलाकर उससे चित्रावेली माँगी और पेथड़ ने उन्हें प्रदान कर दी। पेथड़ ने जीरावाला पार्श्वनाथ और आबूतीर्थ की यात्रा की। एक समय आचार्य धर्मघोषसूरि के मंडप दुर्ग पधारने पर पेथड़ ने 72,000 रु. का व्यय कर बड़े महोत्सव के साथ नगर प्रवेश करवाया। उनके उपदेशों से उद्बोध प्राप्त कर, पेथड़शाह ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर 84 जिनमन्दिरों का निर्माण करवाया। मंडपदुर्ग (मांडवगढ़) में 18 लाख द्रव्य खर्च कर 72 जिनालय वाला शत्रुजयावतार ऋषभदेव का मंदिर बनवाया। शत्रुजय तीर्थ पर शान्तिनाथ का विशाल जिनालय बनवाया। ओंकारेश्वर में श्रेष्ठतम तोरण युक्त मन्दिर बनवाया। ओंकार नगर में सत्रागार (सदाव्रत स्थान) खोला। शत्रुजय और गिरनार तीर्थ की संघ के साथ यात्रायें की। गिरनार तीर्थ की यात्रा के समय अलाउद्दीन खिलजी द्वारा मान्य दिल्ली निवासी संघपति पूर्ण अग्रवाल, जो कि दिगम्बर जैन था, के साथ संघर्ष होने पर भी संघपति की इन्द्रमाल पहले पेथड़ ने ही पहनी। . पेथड़ ने विपुल द्रव्य खर्च कर, भृगुकच्छ (भरुच), देवगिरि, माण्डवगढ़, आबू आदि सात स्थानों पर जैन ज्ञान भण्डार स्थापित किये और उन भण्डारों में सहस्रों प्राचीन और अर्वाचीन (नवीन लिखवाकर) ग्रन्थ उन भंडारों में स्थापित किये। आचार्य धर्मघोषसूरि से ग्यारह अंगों का श्रवण किया। भगवती सूत्र का श्रवण करते हुए जहाँजहाँ गौतम शब्द आया वहाँ-वहाँ एक-एक स्वर्ग मुद्रा पढ़ाई। इस प्रकार 36,000 स्वर्ण मोहरों से भगवती सूत्र की पूजना की। पेथड़ के पुत्र झांझण ने आचार्य धर्मघोषसूरि के सान्निध्य में, मांडवगढ़ से वि० सं० 1340 में विशाल यात्री संघ निकाला जिसका विशद वर्णन अनेक कृतियों में प्राप्त है। इस संघ का संघपति झांझण ही था। इसमें पेथड़ का उल्लेख न होने से यह संभव है कि 1340 के पूर्व ही पेथड़ का स्वर्गवास हो गया था। सुकृतसागर चतुर्थतरंग में पेथड़ निर्माणित 84 जिनालयों का उल्लेख करते हुए स्थानों के नाम भी प्रदान किये हैं: श्रुत्वा गुरुगिरं पृथ्वीधरोऽथ पृथुपुण्यधीः / चैत्यं न्यस्ताऽऽद्यतीर्थेशं द्वासप्तति जिनालयम्॥ 40 // 324 लेख संग्रह Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयावताराख्यं रैदण्डकलशांकितम्। द्रम्माष्टादशलक्षाभिर्मण्डपान्तरचीकरत्॥४१॥ युग्मम् विभ्रन्मण्डपमुद्दण्डं कोटाकोटीति विश्रुतम्। द्वासप्तति च रैदण्डकुम्भान्भाराष्टकात्मकान्॥४२॥ शत्रुञ्जये श्रीशान्त्यर्हच्चैत्यमत्यक्षिशैत्यदम्। ओंकारे चैकमुत्कृष्टतोरणाङ्कमरीरचत्॥४३॥ युग्मम् भारतीपत्तने तारापुरे दर्भावतीपुरे। सोमेशपत्तने वाङ्किमान्धातृपुरधारयोः॥४४॥ नागदे नागपूरे नासिक्यवटपद्रयोः। सोपारके रत्नपुरे कोरण्टे करहेटके // 45 // चन्द्रावती-चित्रकूट-चारुपैन्द्रीषु चिक्खिले। विहारे बामनस्थल्यां ज्यापुरोजयिनीपुरोः॥ 46 // जालन्धरे सेतुबन्धे देशे च पशुसागरे। प्रतिष्ठाने वर्धमानपुरे-पर्णविहारयोः॥ 47 // हस्तिनापुर-देपालपुर गोगपुरेषु च। जयसिंहपुरे निम्बस्थूराद्रौ तदधो भुवि॥४८॥ सलखंणपुरे जीर्णदुर्गे च धवलक्कके। मकुड्यां विक्रमपुरे दुर्गे मंगलतः पुरे॥४९॥ इत्याद्यनेकस्थानेषु रैदण्डकलशान्विताः। चतुरङ्काधिकाशीतिः प्रासादास्तेनकारिताः॥५०॥ . सप्तभिः कुलकम्। सोमतिलकसूरि रचित प्रस्तुत स्तोत्र के प्रारंभिक 5 पद्यों में पेथड़ के सौजन्यादि गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है: साधु पृथ्वीधर (पेथड़) विधिपूर्वक दीनों को दान देता था। नृपति जयसिंह के द्वारा सम्मानित हुआ था। अरहंत और गुरुचरणों की भक्ति में तल्लीन रहता था। शीलादि श्रेष्ठ आचरणों द्वारा अपनी आत्मा को पवित्र करते हुए मिथ्या-बुद्धि और क्रोधादि शत्रुओं का नाश करता था। इसने अनेकों विशाल पौषधशालाओं का निर्माण कराया था। मन्त्रगर्भित स्तोत्र के पठन से शिवलिंग को विदीर्ण कर प्रकटित पार्श्वनाथ प्रतिमा जो विद्युन्माली देव द्वारा निर्मित और पूजित थी तथा अतिशय युक्त थी, की पूजन करता था। ___ वह जिनमूर्ति की त्रिकाल पूजन करता था। प्रतिदिन दोनों समय प्रतिक्रमण करता था। स्वधर्मी मात्र की महती भक्ति करता था। श्रेष्ठ पर्वो में स्वयं पौषध करता था और पर्यों में पौषध करने वाले साधर्मिकों की वैयावृत्य (सेवा) करता था तथा प्रमुदित हृदय से स्वधर्मीवात्सल्य करता था। लेख संग्रह 325 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुमुख से महाराजा सम्प्रति, कुमारपाल भूपाल और महामन्त्री वस्तुपाल के उदार, श्रेयस्कर और . सुकृतमय चरित्रों को सुनकर और पुनः-पुनः स्मरण कर अपने हृदय वन को सुकृतमय जल से सिंचन करता था। न्यायोपार्जित वित्त के द्वारा पेथड़ ने जिन-जिन श्रेष्ठ स्थानों, पर्वतों, नगरों और ग्रामों में नयनाह्लादक जिनमंदिरों का निर्माण करवाया उन-उन स्थानों का कल्याणकारी मूलनायक जिनेश्वरों के नाम के साथ मैं श्रद्धापूर्वक स्तवना करता हूँ। छठे पद्य के दो चरणों में कहा गया है कि पेथड़ ने वि० सं० 1320 में मण्डपगिरि (माण्डवगढ़) में शत्रुजय तीर्थ के समान ही विशल और प्रोत्तुंग आदिनाथ भगवान् का मन्दिर बनाया। छठे पद्य के तीसरे चरण से पद्याङ्क 15 तक में स्तवनकार पेथड़ निर्मापित चैत्यस्थलों के नाम निर्देश के साथ मूलनायक जिनेश्वर देवों के भी नामोल्लेख करता है। अन्तिम सोलहवें श्लोक में स्तोत्रकार कहता है कि, पृथ्वीधर ने पर्वत-स्थलों, नगरों और ग्रामों में हिमशिखर की स्पर्धा करते हुए उत्तुंग शिखर वाले जिन मन्दिरों का निर्माण कर, जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा . करवाई। वे तथा और अन्य देवों एवं मनुष्यों द्वारा निर्मापित जो भी जिनचैत्य और प्रतिमाएँ हैं उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ। इस स्तोत्र में उल्लिखित स्थल-नाम और मूलनायक के नामों की सूची के साथ ही सुकृतसागर में प्रतिपादित स्थल नामों की सूची का तुलनात्मक विवरण इस प्रकार है:मन्दिर सं० मूलनायक नाम स्तोत्र में स्थल नाम सुकृतसागर में स्थल नाम आदिनाथ मण्डपगिरि (माण्डवगढ़) . माण्डवगढ़ नेमिनाथ निम्बस्थूर पर्वत निंबस्थूर पर्वत पार्श्वनाथ निम्बस्थूर पर्वत की तलहटी निम्बस्थूर पर्वत की तलहटी पार्श्वनाथ उज्जयिनीपुर उज्जयिनीपुर नेमिनाथ विक्रमपुर विक्रमपुर / पार्श्वनाथ मुकुटिकापुरी मकुडी आदिनाथ मुकुटिकापुरी मकुडी मल्लिनाथ विन्धनपुर पार्श्वनाथ आशापुर आदिनाथ शान्तिनाथ अर्यापुर ज्यापुर धारानगरी धारा नेमिनाथ वर्धनपुर आदिनाथ चन्द्रकपुरी चन्द्रावती पार्श्वनाथ जीरापुर पार्श्वनाथ जलपद्र लेख संग्रह - - 3 ; घोषकीपुर नेमिनाथ & Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्धातृपुर दाहडपुर हंसलपुर मान्धातृपुर धनमातृकापुर मंगलपुर चिक्खलपुर जयसिंहपुर सिंहानक सलक्षणपुर मंगलपुर चिक्खिल जयसिंहपुर ऐन्द्रीपुर सलक्षणपुर ऐन्द्रीपुर ताल्हणपुर हस्तिनापुर करहेटक नलपुर हस्तिनापुर करहेटक दुर्ग विहार पार्श्वनाथ अरनाथ अजितनाथ आदिनाथ अभिनन्दन पार्श्वनाथ महावीर नेमिनाथ पार्श्वनाथ पार्श्वनाथ शान्तिनाथ अरनाथ * पार्श्वनाथ नेमिनाथ नेमिनाथ महावीर महावीर कुन्थुनाथ. ऋषभदेव आदिनाथ पार्श्वनाथ आदिनाथ अजितनाथ आदिनाथ पार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ नमिनाथ मल्लिनाथ पार्श्वनाथ पार्श्वनाथ मुनिसुव्रत महावीर नेमिनाथ चन्द्रप्रभ पार्श्वनाथ विहारक लम्बकर्णीपुर खण्डोह चित्रकूट पर्णविहारपुर चन्द्रानक वंकी चित्रकूट पर्णविहार बांकि नीलकपुर नागपुर नागपुर मध्यकपुर दर्भावती नागहृद धवलक्क जीर्णदुर्ग सोमेश्वर पत्तन शंखपुर सौवर्तक वामनस्थली नासिक दर्भावती नागहृद धवलक्क जीर्णदुर्ग सोमेशपतन वामनस्थली नासिक सोपारक सोपारपुर लेख संग्रह 327 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ रुणनगर पार्श्वनाथ उरुंगल पार्श्वनाथ प्रतिष्ठानपुर प्रतिष्ठान नेमिनाथ सेतुबन्ध सेतुबन्ध महावीर वटपद्र वटपद्र महावीर नागलपुर महावीर अ (?)ष्टकारिका महावीर जालन्धर जालन्धर महावीर देवपालपुर देपालपुर महावीर देवगिरि शान्तिनाथ चारुप चारुप नेमिनाथ द्रोणपुत्र नेमिनाथ रत्नपुर रत्नपुर अजितनाथ अर्बुकपुर (अर्बुद) मल्लिनाथ कोरण्टक कोरण्ट पार्श्वनाथ ढोरसमुद्र पशुसागर पार्श्वनाथ सरस्वती पत्तन भारतीपत्तन शान्तिनाथ शत्रुञ्जय शत्रुञ्जय आदिनाथ तारापुर तारापुर मुनिसुव्रत वर्धमानपुर आदिनाथ वटपद्र (वटपद्र) आदिनाथ गोगुपुर चन्द्रप्रभ नेमिनाथ ओंकार (नगर) ओंकार नेमिनाथ मान्धातृपुर (मान्धातृपुर) नेमिनाथ विक्कन आदिनाथ इस तालिका से स्पष्ट है कि स्तोत्र में प्राप्त 78 स्थानों में सुकृतसागर काव्य में 46 स्थान और तीन स्थानो - मुकुटिकापुरी (मकुडी), 2 वटपद्र और 3 मन्धातृपुर में 2-2 मन्दिरों का निर्माण होने से कुल 49 स्थानों का उल्लेख मात्र है, शेष स्थानों का उल्लेख नहीं है। स्तोत्रकार सोमतिलकसूरि का समय वि० सं० 1335 से 1424 तक है और पेथड़ के सुकृत कार्यों का कार्यकाल 1318 से 1338 है। अर्थात् पेथड़ के सद्गुरु धर्मघोषसूरि थे और उन्हीं के पौत्र. पट्टधर स्तोत्रकार थे। अतएव यह मानना अधिक युक्तिसंगत होगा कि पेथड़ ने 75 स्थानों पर 78 जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया था न कि 84 / 328 लेख संग्रह वर्धमानपुर गोगपुर पिच्छन चेलकपुर Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सुकृतसागर और उपदेशतरंगिणीकार श्री रत्नमण्डनगणि जो कि श्री रत्नशेखरसूरि के शिष्य हैं और जिनका कार्यकाल १६वीं शती का पूर्वार्द्ध है, के और पेथड़ के मध्य में कम से कम भी 160 वर्षों का अन्तर है। अतः यह निश्चत है कि रत्नमण्डनगणि ने परम्परागत जनश्रुति के अनुसार 84 मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख किया है। पूर्ण ज्ञातव्य प्राप्त न होने के कारण ही संभवतः मूलनायकों के नाम तथा समस्त स्थानों के नाम भी प्रदान नहीं कर सका है। अतएव रत्नमण्डनगणि का 84 जिन मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। पूज्य श्री सोमतिलकसूरिकृत पृथ्वीसाधुकारित-चैत्यस्तोत्रम्: श्रीपृथ्वीधरसाधुना सुविधिना दीनादिषूद्दनिना, भक्त श्रीजयसिंहभूमिपतिना स्वौचित्यसत्यापिना। अर्हद्भक्तिपुषा गुरुक्रमजुषा मिथ्यामनीषामुषा, सच्छीलादिपवित्रितात्मजनुषा प्रायः प्रणश्यद्रुषा॥१॥ नैकाः पौषधशालिकाः सुविपुला निर्मापयित्रा सता, मन्त्रस्तोत्रविदीर्णलित विवृतश्रीपार्श्वङ्ग पूजायूजा। विद्युन्मालिसुपर्वनिर्मितलसद्देवाधिदेवाह्वय, ख्यातज्ञाततनूरुहप्रतिकृतिस्फूर्जत्सपर्यासृजा॥ 2 // त्रिकाले जिनराजपूजनविधिं नित्यं द्विरावश्यकं, साधौ धार्मिकमात्रकेऽपि महतीं भक्तिं विरक्तिं भवे। 'तन्वानेन सुपर्वपौषधवता साधर्मिकाणां सदा, वैयावृत्यविधायिना विदधता वात्सल्यमुच्चैर्मुदा॥ 3 // श्रीमत्सम्प्रतिपार्थिवस्य चरितं श्रीमत्कुमारक्षमापालस्याप्यथ वस्तुपालसचिवाधीशस्य पुण्याम्बुधेः। स्मारं स्मारमुदारसम्मदसुधासिन्धूर्मिषून्मज्जता, श्रेयः काननसेचनस्फुरदुप्रावृड् भवाम्भोमुचा॥ 4 // सम्यग्न्यायसमर्जितोर्जितधनैः सुस्थानसंस्थापितैयें ये यत्र गिरौ तथा पुरवरे ग्रामेऽथवा यत्र ये। प्रासादा नयनप्रसादजनका निर्मापिताः शर्मदास्तेषु श्रीजिननायकानभिधया सार्द्धस्तुवे श्रद्धया॥५॥ पञ्चभिः कुलकम् श्रीमद्विक्रमतस्त्रयोदशशतेष्वब्देष्वतीतेष्वथो, विंशत्याञ्यधिकेषु ( 1320) मण्डपगिरौ शत्रुञ्जयभ्रातरि। श्रीमानादिजिनः 1, शिवाङ्गजजिनः 2. श्रीउज्जयतायिते, निम्बस्थूरनगेऽथ तत्तलभुवि श्रीपार्श्वनाथः श्रिये 3 // 6 // जीयादुजयिनीपुरे फणिशिरः 4, श्रीवैक्रमाख्ये पुरे, श्रीमान्नेमिजिनौ 5, जिनौ मुकुटिकापुर्यां च पार्थादिमौ 6-7 / लेख संग्रह 329 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लि शल्यहरोस्तु विन्धनपुरे 8, पार्श्वस्तथाऽऽशापुरे 9, नाभेयो बत घोषकीपुरवरे 10, शान्तिर्जिनोऽर्यापुरे॥७॥ श्रीधारानगरेऽथ वर्धनपुरे श्रीनेमिनाथः पृथक् 12, 13, श्रीनाभेयजिनोऽथ चन्द्रकपुरी स्थाने 14, सजीरापुरे 15 / ___ श्रीपार्थो जलपद्र-दाहडपुरस्थानद्वये 16-17, सम्पदं, देयाद् वोऽरजिनश्च हंसलपुरे 18, मान्धातृमूलेऽजितः 19 // 8 // आदीशो धनमातृकाभिधपुरे 20, श्रीमण्डलाख्ये पुरे, तुर्यस्तीर्थकरो 21, ऽथ चिक्खलपुरे श्रीपार्श्वनाथः श्रिये 22 / श्रीवीरो जयसिंहसंज्ञितपुरे 23, नेमिस्तु सिंहानके 24, श्रीवामेयजिनः सलक्षणपुरे 25, पार्श्वस्तथैन्द्रीपुरे 26 // 9 // शान्त्यै शान्तिजिनोऽस्तु ताल्हणपुरे-२७, ऽरो हस्तिनाद्येपुरे 28, श्रीपार्श्वः करहेटके 29, नलपुरे 30, दुर्गे च नेमीश्वरः 31 / .. श्रीवीरोऽथ विहारके 32, स च पुन श्रीलम्बकर्णीपुरे 33, खण्डोहे किल कुन्थुनाथ 34, ऋषभः श्रीचित्रकूटाचले 35 // 10 // आद्यः पर्णविहारनामनि पुरे 36, पार्श्वश्च चन्द्रानके 37, वक्यामादिजिनो 38, ऽथ नीलकपुरे जीयाद् द्वितीयो जिनः 39 / आद्यो नागपूरे 40 ऽ थ मध्यकपुरे श्री अश्वसेनात्मजः 41, श्रीदर्भावतिकापुरेऽष्टमजिनो 42, नागादे श्रीनमिः 43 // 11 // श्रीमल्लिर्धवलक्कनामनगरे 44, श्री श्रीजीर्णदुर्गान्तरे 45, श्रीसोमेश्वरपत्तने च पणभृल्लक्ष्मा जिनो 46 नन्दतात्। विंशः शङ्खपुरे जिनः 47, सचरमः सौवर्त्तके 48, वामनस्थल्यां नेमिजिनः 49, शशिप्रभजिनो नासिक्यनाम्न्यां पुरिः 50 // 12 // श्रीसोपारपुरे 51, ऽथरूणनगरे 52, चोरूगले, ५३ऽथ प्रति ष्ठाने पार्श्वजिनः 54, शिवात्मजजिनः श्री सेतुबन्धे 55, श्रिये। श्रीवीरो वटपद्र 56, नागलपुरे 57, ऽष्ठक्कारिकायाँ 58 तथा, श्रीजालन्धर 59, देवपालपुरयोः 60, श्रीदेवपूर्वे गिरौ 61 // 13 // चारुप्ये मृगलाञ्छनो जिनपति-६२, नैमिश्रिये द्रोणके 63, नेमी रत्नपुरे-६४, ऽजितोऽर्बुकपुरे 65, मलिश्च कोरण्टके 66, पार्थो ढोरसमुद्रनीवृति ( ?) 67, सरस्वत्याह्वये पत्तने 68, कोटाकोटिजिनेन्द्रमण्डपयुतः शान्तिश्च शत्रुञ्जये 69 // 14 // श्रीतारापुर-वर्धमानपुरयोः श्रीनाभिभू-सुव्रतौ, 70-71, नाभेयो वटपद्र-गोगुपुरयोः 72-73, चन्द्रप्रभः पिच्छने। ओड्कारेऽद्भुततोरणं जिनगृहं 75, मान्धातरि त्रिक्षणं 76, नेमिर्विक्कननाम्नि 77, चेलकपुरे श्रीनाभिभू-७८ भूतये॥ 35 // .. (स्त्रग्धरावृत्तम्) लेख संग्रह 330 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इथं पृथ्वीधरेण प्रतिगिरिनगरग्रामसीमं जिनानामुच्चैश्चैत्येषु विष्वहिमगिरिशिखरैः स्पर्द्धमानेषु यानि। बिम्बानि स्थापितानि क्षितियुवतिशिरःशेखराण्येष वन्दे, तान्यप्यन्यानि यानि त्रिदशनरवरैः कारिताकारितानि॥ 16 // इति पृथ्वीधरसाधुकारित-चैत्य-स्तोत्रम्। 16 काव्यम्।। (राजस्थान प्राप्य विद्या प्रतिष्ठान, जयपुर ग्रन्थाङ्क 7460 (2) पत्र 15-16, माप 26.2 11.2 सी. एम., कुल पंक्ति 26, अक्षर 55, लेखन अनुमानतः १६वीं) [सम्बोधि वोल्यूम-१०, अहमदाबाद] 000 लेख संग्रह 331 22 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपालगढ़ (बड़लू) के जैन मन्दिर ___ संयोगवश अखिल भारतीय जैन विद्वत् परिषद् के अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिये मैं 20 अक्टूबर 1985 को भोपालगढ़ गया था। इस भोपालगढ़ का प्राचीन नाम बड़लू है और यह जोधपुर से लगभग 70 किलोमीटर दूर है। गाँव अच्छा सा कस्बा है और समृद्धिवान सेठों से परिपूर्ण भी है। यहाँ का हवा-पानी भी आरोग्यवर्धक है। लगभग साठ वर्ष पूर्व की टीपों के अनुसार यहाँ जैनों के 350 से भी अधिक घर थे। आज अधिकांशतः धनार्जन हेतु अन्य प्रदेशों में निवास करने लग गये हैं। वहाँ जो जैन निवास करते हैं, उनमें भी मूर्तिपूजक साधुओं का आवागमन न होने से अधिकांशतः स्थानकवासी या. तेरहपंथी बन गये हैं। मूर्तिपूजक जैनों के तो केवल तीन या चार घर ही हैं। फिर भी समाज में सौहार्दभाव बना हुआ है। इस छोटे से ग्राम में 4 जिन मंदिर और एक दादाबाड़ी है। परिचय निम्न है 1. पार्श्वनाथ मंदिर- यह मंदिर जाटावास में है। शिखरबद्ध है और विशाल भी है। मंदिर की दीवार पर दो-तीन स्थानों पर कुछ अक्षर लिखे हुए हैं। एक स्थल पर 'सं 1350' का स्पष्ट उल्लेख है। पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति परिचय सहित है, पर मूर्ति पर लेख उत्कीर्ण नहीं है। मूर्तिकला की दृष्टि से एवं वास्तु कला की दृष्टि से ये दोनों 700 वर्ष प्राचीन हैं, नि:संदेह है। मूल गर्भगृह के बाहर दादा साहब के चरण भी हैं। वि० सं० 2009 में सामान्य जीर्णोद्धार भी हुआ था। फिलहाल जीर्णोद्धार की आवश्यकता है। 2. शान्तिनाथ मंदिर- बाजार चौक में है। मंदिर क्या है? छोटी गढ़ी है। विशाल है, शिखरबद्ध है। यह लूणियों का मंदिर कहलाता है। यह मंदिर लगभग 150 वर्ष प्राचीन है। मूलनायक शान्तिनाथ प्रतिमा वि० सं० 1902 में, तपागच्छीय आचार्य विजय जिनेन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठित है। ___बड़लू के अन्य खण्डहर मंदिर से प्राप्त सुविधिनाथ भगवान की परिकर सहित खण्डित प्रतिमा अन्य कमरे में सुरक्षित है। इस मूर्ति की नाक का अग्रभाग घिस चुका है और गोडे के पास से तनिक खंडित भी है। मूर्ति पर लेख है // ऐं॥ संवत् 1556 वर्ष आषाढ़ वदि 2 दिने श्रेष्ठि कल्हड़ आढक प्रमुख 4 पुत्रैः ( ? मातृ) वर्जू स्वात्मश्रेयोर्थं श्री सुविधिनाथ बिंबं का० प्र० श्रीजिनसमुद्रसूरिभिः खरतरगच्छे। इस मंदिर के नीचे 4 दुकानें हैं, जिनमें से 3 दुकानों पर तेरहपंथी श्रावकों ने अपनी दुकानें कर रखी हैं और 10 वर्षों से किराया भी नहीं दे रहे हैं। 3. नेमिनाथ मंदिर- यह मंदिर नवनिर्मित उपाश्रय (स्थानक) के सामने ही है। कांकरियों का और खरतरगच्छ का कहलाता है। मूलनायक प्रतिमा सपरिकर है। किंतु ऐसा लगता है कि मूल प्रतिमा 332 लेख संग्रह Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंडित होने पर नेमिनाथ की प्रतिमा उसके स्थान पर विराजमान ही हो। परिकर प्राचीन है और मूलनायक मूर्ति सं० 1677 में तपागच्छीय विजयदेवसूरि प्रतिष्ठित है। मंदिर के साथ ही उपाश्रय है। मंदिर और उपाश्रय जीर्ण-शीर्ण ही नहीं, खण्डहर बनता जा रहा है। झाड़-झंखाड़ उग चुके हैं। कांकरिया परिवार (चाहे वहाँ रहते हों, जोधपुर या कहीं भी रहते हों) को चाहिए कि अपनी पूर्वजों द्वारा निर्मापित मंदिर का जीर्णोद्धार अवश्य करावें, नामावशेष न होने दें। 4. महावीर स्वामी का मंदिर- यह नवनिर्मापित उपाश्रय के ठीक पीछे ही है। मूर्ति पर सं० 1677 में मेड़ता में तपागच्छीय श्री विजयदेवसूरि प्रतिष्ठापित का लेख है। भंडार में खंडित मूर्ति पर 1497 का लेख है। मंदिर के नीचे उपाश्रय में श्रीपूज्य जी गद्दी के चबूतरे का खंडित प्रस्तर शिलालेख अन्य स्थान से लाकर यहाँ रखा हुआ है, जिस पर निम्नांकित महत्वपूर्ण लेख उत्कीर्ण है। घिस जाने से कई अक्षर अस्पष्ट भी हो गये हैं। लेख संस्कृत गद्य और पद्य में अंकित है। '....सुरत्राण साम्राज्ये श्री.... श्री बृहत्खरतरगच्छे श्रीमत् जिनदेवसूरि... श्रीजिनसिंह सूरीणामुपदेशेन संघेश.... रायमल-भारमलौ रायमल आर्या रंगादे पुत्री देव... साधर्मिकवात्सल्यपर्वपारणा-पुस्तक लेखनदान... प्रमुख पुण्यप्रसव-सावित्री सं० जीवा सं० जयवन्त...राज भीमराज प्रमुख भ्रातृ सौहार्द धारिणी स्व.... पुण्यप्रभाविका वीरा नाम्नी पक्षशाला द्वार.....अकारयत् अपवरक बृहत्शालाविधाने चतुर्थांसं प्राददाच्च सा चतुर्विध संघेन सेव्यमानं चिरं नन्द्यात् // वर्षे व्योमार्णवेन्दूज्वलकिरणचिते [ 1640 ] फाल्गुने वल्गुमासि। श्रीमत् श्रीजैन.... खरतरगणप ( ? ) सपदेशैस्त्वदीयैः। सप्तक्षेत्र्यां..... धनमधिकतमा... प्त सद्धर्मसेवा। वृद्ध श्रद्धालु दात्री सुतविमलमते रायमल्लस्य पुत्री। वीरा नाम्म्याहती.... पि सघनतरैर्द्वार-शालां विशालां व्यय मप्यन्यां पार्श्वशाला विपुलकृतेऽकारयद् भव्यभावात्। तुर्यांशं पुण्यपूर्णं द्रविण-प्रददौ तूच्चशाला विधाने। नन्द्याद् धर्माश्रयोर्यं जननयनमुदे.... व विजलीव॥ श्रीजिनदत्तयतीन्द्राः॥ श्रीमज्जिनकुशलसूर..... कुर्वन्तु.........।" * लेख का सारांश- वि० सं० 1640 में खरतरगच्छ (की आद्यपक्षीय शाखा) के आचार्य जिनदेवसूरि के पट्टधर श्री जिनसिंहसूरि के उपदेश से संघपति रायमल्ल की भार्या रंगादे की वीरा नाम की पुत्री थी, जो देवगुरु की भक्ति करने वाली, साधर्मिकों का वात्सल्य/सहयोग करने वाली, पर्वो पर पारणा कराने वाली, शास्त्रों का लेखन करवाने वाली, सप्त क्षेत्रों में धन का सदुपयोग करने वाली, अर्हद्धर्म सेवा आदि प्रमुख पुण्य कार्यों की जनयित्री थी और.... भीमराज आदि भाइयों के सौहार्दपूर्ण प्रेम को धारण करने वाली थी। उस पुण्य प्रभाविका वीरा नाम की श्राविका ने शाला (उपाश्रय, पौषधशाला) का निर्माण करवाया और विशाल शाला के निर्माण हेतु अपने धन का चतुर्थांश (चौथा हिस्सा) प्रदान किया था। वीरा निर्मापित यह धर्मस्थान जनसमूह के नेत्रों को प्रमुदित और कल्याण करने वाला बने / दादा जिनदत्तसूरि और जिनकुशलसूरि संघ का मंगल करें। प्रस्तुत लेख में संकेतित वीरा श्राविका के सद्धर्म कार्यात्मक विशेषण मनन योग्य एवं अनुकरणीय MO लेख संग्रह 333 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरा श्राविका निर्मापित शाला एवं विशाल शाला का नामावशेष भी बडलू में प्राप्त नहीं है। केवल . उसकी कीर्ति का स्मरण कराने वाला यह खंडित शिलापट्ट है। 5. दादाबाड़ी- गाँव के बाहर तालाब के किनारे, ठाकुर के महलों के नीचे दादाबाड़ी है। अत्यन्त रमणीय स्थान है। यहाँ दादा जिनदत्तसूरि और जिनकुशलसूरि के चरण हैं। चरणों पर लेख उत्कीर्ण है। लेख के अनुसार वि० सं० 1854, फाल्गुन शुक्ला 3 के दिन लूणिया गोत्रीय साह श्री हेमराजजी तिलोकचंदजी करमचंदजी ने चरणों का निर्माण एवं प्रतिष्ठा करवाई। प्रतिष्ठा भट्टारक जिनचन्द्रसूरि .. के विजयराज्य में बड़लू ग्राम में हुई। इस दादाबाड़ी की दशा भी शोचनीय हो रही है। इस लेख के अनुसार जहाँ तक मैं समझता हूँ इसके निर्माता लूणिया हेमराजी तिलोकचंदजी या इनके वंशज बड़लू से चलकर अजमेर आये और वहाँ से श्री थानमलजी हैदराबाद आकर बसे। रायबहादुर रायसाहब बने। इन्हीं के पौत्र श्री सुरेन्द्रकुमारजी लूणिया विद्यमान हैं जो हैदराबाद श्रीसंघ के प्रमुख हैं, समृद्धिमान हैं। अतः मेरा उनसे विनम्र अनुरोध है कि अपने पूर्वजों द्वारा निर्मापित बड़लू की ' दादाबाड़ी का जीर्णोद्धार एवं समुचित व्यवस्था कर अपने पूर्वजों की कीर्ति को चिरस्थायी बनावें। [कुशल-निर्देश, वर्ष-१३, अंक-१२] 00 334 लेख संग्रह Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षभी विद्या : परिचय इस अवसर्पिणी के प्रथम नृपति, प्रथम अनगार, प्रथम केवली और प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव हुए। आवश्यकचूर्णि, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और कल्पसूत्र में इनके लिए 'अरहा कोसलिए उसभे' विशेषण प्राप्त होता है। भागवत पुराण में इन्हें महायोगिराट कहा गया है। भगवान् ऋषभ जीवन व्यवहार की समस्त कलाओं के प्रवर्तक माने गये हैं। वंशस्थापन, कृषि, कुंभकार, पाक कला, विवाह, लेखन युद्ध, शस्त्र, राजनीति से लेकर मुनिवृत्ति और आत्मसाधना के मार्गदर्शक रहे हैं। प्रभु ऋषभ ने केवली बनने के पश्चात् क्या देशना दी थी? किन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था? समय का दीर्घकालीन व्यवधान होने के कारण कोई स्वरूप प्राप्त नहीं होता है। हाँ, अहिंसादि सार्वभौम सिद्धान्तों का परिष्कृत स्वरूप अन्तिम तीर्थंकर महावीर की देशना/सिद्धान्तों में अवश्य लक्षित ह्येता है। __ कहा जाता है कि ऋषभपुत्र भरतचक्री षट्खण्ड विजय कर स्वराज्य में लौटे तो चक्ररत्न ने आयुधशाला में प्रवेश नहीं किया। कारण खोजने पर यह अनुमान किया गया कि 'षट्खण्ड विजय के पश्चात् भी स्वयं के 99 लघुभ्राताओं ने अधीनता स्वीकार नहीं की है, वह अपेक्षित है।' भरत ने समस्त भाइयों के पास अधीनता स्वीकृति हेतु राजदूत भेजे। 98 भाइयों ने विचार-विमर्श करने के पश्चात् अपने पिता ऋषभ से निर्देश प्राप्त करने हेतु उनकी सेवा में उपस्थित होकर समयानुरूप निर्णय देने का अनुरोध किया। प्रभु ऋषभ ने संसार और राज्यवैभव की नश्वरता का प्रतिपादन करते हुए उन्हें बोधमय देशना दी। इस देशना से प्रतिबुद्ध होकर 98 भाइयों ने अपने पिता भगवान् के चरणों में प्रव्रज्या ग्रहण की। प्रभु ऋषभ की उक्त देशना द्वितीय अंग सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के द्वितीय वैतालीय नामक अध्ययन में भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट है। भाषाविदों की दृष्टि से इस अंग की भाषा चौवीस सौ वर्ष प्राचीन है। इसी परम्परा में आदिनाथ-देशना (प्राकृत) और युगादिदेशना (संस्कृत) में प्राप्त है। आर्षभी विद्या विभु आदिनाथ प्ररूपित सिद्धान्तों के संबंध में एक हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त होता है, जिसका नाम है 'आर्षभी विद्या'। ग्रन्थकार ने इसका पूर्ण नाम दिया है 'अथर्वोपनिषत्सु विद्यातत्त्वे भारतीयोपदेशे'। इसके प्रथम अध्ययन सूत्र संख्या 4 में 'आर्षभाऽऽर्हती विद्यां' दिया है। आर्षभी अर्थात् ऋषभ की विद्या/देशना होने से यह नाम उपयुक्त भी है। लेखक ने इसे अथर्व का उपनिषत् लिखा है। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि अर्वाचीन समस्त उपनिषत् अथर्व के अन्तर्गत ही आते हैं। ऋषभ लेख संग्रह 335 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागवत परम्परा मान्य आठवें अवतार होने से उनकी तत्त्वमयी विद्या/उपदेश समस्त भारतीयों के लिए , ग्राह्य/उपादेय हो इस दृष्टि से उपयुक्त ही है। किसी परम्परा का नाम न लेकर केवल 'भारतीय' . शब्द का प्रयोग भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। ग्रन्थकार इसके प्रणेता कौन हैं? इसका इस ग्रन्थ में कहीं उल्लेख नहीं है, किन्तु इसके पंचमाध्याय के सूत्रांक एक में 'अथातो निगमस्थिति-सिद्धान्त-सिद्धोपमानां धर्मपथसार्थवाहानां युगप्रधानानां चरित्रकौशल्यं वर्णयामः' कहा है। इसमें उल्लिखित 'निगम' शब्द से कतिपय विद्वानों का अभिमत है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में तपागच्छ में आचार्य इन्द्रनन्दिसूरि हुए हैं, विचार/भेद के कारण इनसे निगम सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ। इसलिए इन्हें 'निगमाविर्भावक' विशेषण से संबोधित भी किया गया है। इन्द्रनन्दिसूरि श्रीलक्ष्मीसागरसूरि के शिष्य थे। लक्ष्मीसागरसूरि का जन्म 1464, दीक्षा 1477, आचार्यपद 1508 और गच्छनायक 1517 में बने थे अतः इन्द्रनन्दि का समय भी १६वीं शती के दो चरण अर्थात् 1501 से 1550 के लगभग मान सकते हैं। यदि यह ... ग्रंथ इन्हीं का माना जाय तो इस ग्रंथ का रचना काल भी १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध ही है। इनके इस प्रकार के कई ग्रन्थ भी प्राप्त होते हैं:१. भव्यजनभयापहार 2. पंचज्ञानवेदनोपनिषद् 3. भारतीयोपदेश 4. विद्यातत्त्व 5. निगम स्तव 6. वेदान्त स्तव 7. निगमागम ग्रन्थ-परिचय इस ग्रन्थ में पाँच अध्याय हैं जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: प्रथम अध्याय - इस अध्याय में 26 गद्य सूत्र हैं। (1-2) प्रारम्भ में वृष शब्द की व्युत्पत्ति देते हुए कहा है कि, वृषभदर्शन के अध्येता एवं आचारक चौदह गुणस्थानों का आरोहण करते हुए शाश्वत सिद्ध सुख को प्राप्त करता है, अतः 'आर्षभीर्हती विद्या' की उपासना करो जिससे दुरन्त मृत्यु पथ को पार कर जाओगे। (3-5) सर्वप्रथम आत्मतत्त्व को पहचानो। कर्म निर्जरा के लिए तीन तत्त्व प्रधान हैं:गुरुतत्त्व, देवतत्त्व, धर्मतत्त्व। इनमें प्रथम गुरुतत्त्व है। गुरुतत्त्व का वर्णन करते हुए लिखा है: अपरिग्रही, निर्मम, आत्मतत्त्व विद्, छत्तीस गुणों से युक्त गुरु ही आराधनीय होता है। (6) वह आर्षभायण रागादि निवृत, गुणवान, गुरुनिर्देश पालक और द्वादशांगी विद्या का पारंगत होता है। ऐसे ही आराध्य गुरुतत्त्व की देशव्रतियों को उपासना करनी चाहिए। (7-8) श्रमणोपासक के लिए विविध विज्ञान, अतिशय श्रुत-अवधि, काल-ज्ञान वेत्ता युगप्रधान ही सेव्य है। (9) जो ईषत् द्वादशांगीवेत्ता हैं। क्षेत्र-कालोचित व्रतचर्या का पालन करते हैं, स्वधर्म सत्ता रूप सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं, उन श्रमणों का उपदेश ही देशिकों को श्रवण करना 336 लेख संग्रह Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए और आज्ञानुसार ही आचरण करना चाहिए। (10-11) स्वात्मज्ञान विद् कोविद देशवृत्ति परायण गुरुप्रसाद से ही संसार सागर से पार होते हैं, अतः आद्य गुरु तत्त्व ही कर्म निर्जरा का कारण है। (11) इसीलिए भगवान आदिदेव ने कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् वाचंयमों की मनःशुद्धि, जनोपकार और * विश्वहित के लिए गुरुतत्त्व का प्रतिपादन किया है। (12) दुर्दमनीय मोह को जानकर देशवृत्ति-धारक कठोरतापूर्वक सर्वदा आचाम्ल तप करते हुए द्वादशांगी विद्या का श्रवण करे। (13) संयतात्मा मुमुक्षु आवश्यक कर्म के पश्चात् पंचमुष्टि लुंचन कर, परिग्रह त्यागकर, गुरुकुल निवासी होकर, आज्ञापालक होकर, निरवद्य भिक्षाग्रहण करते हुए अन्तेवासी बनकर द्वादशांगी का अध्ययन करे। (14) 36 गुणधारक होते हुए भी अपक्व योगी मान्य नहीं होता है। पति की आज्ञा बिना मुमुक्षिणी को भी दीक्षा न दे। पति की आज्ञा से साध्वी बनाये। (15) कालचक्र की गति से महनीयतम संयमभार, वहन करने में अक्षम होकर इस मार्ग का त्याग करेंगे। मृषोपदेश कुशल आसुरायणं द्विज वेदवाक्यों का विपरीत अर्थ कर गुरु बनेंगे। इससे श्रेष्ठ धर्म का नाश होगा। (16). तीर्थंकरों के अभाव में भी महादेव क्षेत्र (महाविदेह क्षेत्र) में यह द्वादशांगी अस्खलित रूप से दुरंत काल ग्लानि की निर्नाशिका बनी रहेगी। (17) इस क्षेत्र में अन्तिम तीर्थंकर महावीर के पश्चात् 21 हजार वर्ष तक यह द्वादशांगी शनैः-शनैः क्षीण होती जाएगी। अन्तिम केवली जंबू स्वामी के निर्वाण के पश्चात् कालवेग के कारण मुक्तिद्वार बन्द हो जाएगा। (18) आगामी चौवीसी के समय पुनः शुद्धमार्ग के प्ररूपक गुरु होंगे। अतः देशवृत्तियों को ऐसे गुरु की ही उपासना करनी चाहिए। (19) - द्वादशांगीधारक शुद्ध-चारित्रिक गुरुओं के अभाव में पिप्पलाद आदि ऋषि श्रुतिवाक्यों के विपरीत अर्थ की प्रतिपादना करेंगे। (20) चारित्र-परायणों के अभाव में शासन की दुर्दशा हो जाएगी। (22-23) दैशिक एकादश प्रतिमा वहन करते हुए तपोयोग में प्रवृत्त हो और अर्हत् प्रतिमाओं की अर्चना * 'करें। (24). . साधुजन वर्षा के अभाव में भी एक स्थान पर चातुर्मास करें। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण हेतु पांच दिन तक पर्युषणा की आराधना करें। शुद्ध धर्म की आराधना करने वाले ही अर्हत् धर्म के अधिकारी होते हैं और वह ही विरजस्क होते हैं। द्वितीय अध्याय - इसमें देव तत्त्व का वर्णन 38 गद्य सूत्रों में है। श्रमणोपासक प्रातः सामायिक करें, दोषों के परिहार निमित्त प्रतिक्रमण करें। नित्य नैमित्तिक कार्य के पश्चात् चैत्यवन्दन करें। जिनपूजन की पद्धति बतलाते हुए कहा है:- चन्दनचूर्ण से पूजन कर पंच परमेष्ठियों के गुणों का चिंतन करते हुए भावस्तवना कर नमन करें। शाश्वत चैत्यों को नमन करें। अष्टापद तीर्थस्थित ऋषभादि वर्धमान चौवीस तीर्थंकरों को साष्टांग नमस्कार करें। (14) अतीत, वर्तमान और अनागत अहँतों, केवलियों, सिद्धों और भरत, ऐरवत, महाविदेह क्षेत्र में विद्यमान साधुओं को नमस्कार करें। लेख संग्रह 337 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवार्चन हेतु स्नानादि कर शुद्ध धोती पहनकर, शुद्ध उत्तरीय वस्त्र धारण कर गृहचैत्य में दक्षिण चरण से प्रवेश करें। (20) मंदिर में प्रवेश कर धरणेन्द्र आदि सेवित पार्श्व प्रतिमा का, एकाग्र . मन से निरीक्षण करें। (21) प्रतिमा का मोरपिच्छी से सम्मार्जन करें। परिकर युक्त प्रतिमा को चंदन मिश्रित जल से स्नपित करें। घृत दीप जलाकर चन्दन का विलेपन करें। अलंकारादि से विभूषित करें। पुष्प पूजा करें। गीत गान करें। सुगंधित धूप करने के पश्चात् आरती उतारें। तदनंतर घंटा बजायें और विविध वादित्रों के साथ संगीतमय प्रभु की स्तुति करें और प्रभु के समक्ष नृत्य करें। मंदिर से निकलते समय द्वार पर याचकों को दान देकर घर आयें और स्वधर्मी बन्धुओं के साथ अतिथि संविभाग का पालन करते हुए निर्वद्य आहार करें। (30) मंगल चैत्य पर्युपासना रूप धर्म के समान अन्य कोई सुकृत नहीं है। नवम पूर्व में भी इसे ही सुधर्म बतलाया है। (31) केवली भगवंत सिद्धान्तों में चार महामंगल कहते हैं- अरहंत, सिद्ध, साधु और अर्हत धर्म का शरण स्वीकार करे। इन चारों महामंगलों का छठे पूर्व में वर्णन प्राप्त है। (33) देश विरति द्रव्य तथा भाव पूजा करे और संयमी केवल भाव पूजा करें। बादरायण, ऋषि, कूप, भार्गव कूप, अर्बुदगिरि और अष्टापदादि स्थानों में ध्याय साधना करने पर साधक विरज और तमरहित होता है। (37) शुद्ध सम्यक्त्वधारी इस देवतत्त्व की आराधना कर धार्मिक होकर वीतराग बनता है। तृतीय अध्याय - तृतीय अध्याय में 16 गद्य सूत्र हैं जिनमें देशव्रतधारियों के व्रतों का विवेचन है। सम्यक्त्व धारण करने वाला उपासक बारह व्रतों को ग्रहण करता है। निरतिचारपूर्वक व्रतों का पालन करते हुए अन्तिमावस्था में निर्जरा हेतु उपासक की 11 प्रतिमाओं को वहन करता है। इन एकादश प्रतिमाओं का विवेचन उपासकदशा सूत्र में वर्णित का ही इसमें विस्तार से निदर्शन है। अन्त में लिखा है कि ११वीं प्रतिमाधारक गृही भी मुक्ति पद को प्राप्त करता है। १२वीं प्रतिमा तो युगप्रधान योगी पुरुष ही वहन. करते हैं। चतुर्थोध्याय - इस अध्याय में जीव के बंध-मोक्ष का विवेचन करते हुए ग्रन्थि भेद के पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्ति से लेकर सयोगी केवली एवं अयोगी केवलि पर्यन्त का विस्तृत वर्णन है। यह सारा वर्णन पूर्वाचार्यों द्वारा रचित साहित्य में प्राप्त होता ही है। इसमें सयोगी केवली को जीवन मुक्त चारित्र योगी शब्द से भी अभिहित किया है। पाँचवां अध्याय - यह नव गद्य सूत्रों में है। इसमें कहा गया है कि तीर्थंकरों एवं केवलियों के अभाव में सर्वज्ञकल्प श्रुतकेवली युगप्रधान ही धर्मपथ का संचालन करता है। महावीर के 21 हजार वर्ष के शासन में सुधर्म स्वामीजी से लेकर दुप्पसह पर्यन्त दो हजार चार युगप्रधानाचार्य होंगे। तत्पश्चात् धर्म की महत्ती हानि होगी और इसी बीच अविद्या और असत्य का बोल-बाला होगा। तत्पश्चात् आगामी उत्सर्पिणी में पद्मनाभ तीर्थंकर होंगे। उनके समय में पुनः सुसाधु होंगे जो शास्त्रसम्मत साध्वाचार का पालन करेंगे। 36 गुण युक्त होंगे। 47 दोष रहित आहार ग्रहण करेंगे और युगप्रधान पद को धारण करने वाले सर्वज्ञ तुल्य होंगे। (4) भगवान् महावीर के कुछ समय पश्चात् केवलियों का अभाव होने से परिहार-विशुद्धि आदि चारित्रों का अभाव हो जाएगा। श्रुत ज्ञान की क्रमशः क्षीणता को देखकर आर्य धर्म की रक्षा हेतु 338 लेख संग्रह Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान आर्यरक्षित चारों अनुयोगों को पृथक्-पृथक् करेंगे। कई महामुनि सिन्धुगंगा के मध्य भाग को छोड़कर अन्य दिशा-विदिशाओं में चले जायेंगे और पुनः इधर नहीं आयेंगे। सिन्धु गंगा के मध्य में रहने वाले श्रुतधर आचार्य महान् तपश्चर्या करेंगे और धर्मोद्योत करेंगे। कषायवैरि मुनिगणों से चान्द्रकुल का आविर्भाव होगा। श्रमणोपासकों को ऐसे ही युगप्रधान, श्रुत, कोविद आचार्यों की उपासना करनी चाहिए। द्वादशांगी आदि विद्याओं के जानकर जो इसके अनुसार आचरण करते हैं वे विद्वान् विरक्ततम होकर सुधासागर को प्राप्त करते हैं। ____ भाषा और शैली - इसकी भाषा संस्कृत ही है यत्र तत्र वैदिक संस्कृत के भी शब्दों के दर्शन. होते हैं। इस ग्रन्थ की प्राचीनता प्रमाणित करने हेतु रचनाकार ने इसकी शैली उपनिषद् की शैली रखी है जैसे- "अथातः संप्रपद्येम, पूर्व ह वा तैः, इति श्रुतेः, ये च ह वा, स शिखा सूत्रवता, न तस्मिन् धर्मे स्वाधिकारिणो धर्मद्रुहः, न द्वेषकद्विद्, सकलं भद्रमश्नुते जायेव पत्युः' आदि। निष्कर्ष - 1. इस ऋषभ वाणी में सर्वत्र यही उल्लेख प्राप्त होता है कि भगवान् ऋषभ ने ऐसा कहा है। यहाँ इस ऋषभवाणी में कोई नया दार्शनिक चिंतन या कोई विशिष्ट बात का अंकन नहीं है, जो है सो वह भगवान् महावीर की परम्परा में प्रतिपादित और पूर्वाचार्यों द्वारा प्ररूपित देव-गुरु-धर्म तत्त्व का ही विवेचन है। हाँ, यहाँ यह वैशिष्ट्य अवश्य प्राप्त होता है कि तत्त्वों में देव के स्थान पर प्रथम गुरुतत्त्व का विवेचन है। गुरुतत्त्व में सद्गुरु लक्षण, देवतत्त्व में वीतराग देव का लक्षण और प्रतिमा पूजन एवं धर्म तत्त्व में नवतत्त्व, अणव्रत, महाव्रत और गणस्थान का विवेचन है। श्रावक की 11 प्रतिमाओं का वर्णन उपासकदशा सूत्र और गुणस्थानों का वर्णन कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों से विवेचित है। पंचम अध्याय में जो भगवान् के श्रीमुख से भविष्यवाणी ही करवा दी है, जिसमें अन्तिम तीर्थंकर महावीर, पंचम आरक और उसका स्वरूप, आगामी उत्सर्पिणी में पद्मनाभ तीर्थंकर, जम्बू के पश्चात् मोक्षद्वार बंद, 2004 युगप्रधान, अन्तिम आचार्य दुप्पसह चान्द्रकुल और आर्यरक्षित द्वारा अनुयोगों का पृथक्करण आदि का उल्लेख भी हो गया है। यह समग्र वर्णन तीर्थोद्गालिक प्रकीर्णक एवं व्यवच्छेद गंडिका में प्राप्त होता है। 2. इस ग्रन्थं में लेखक के नाम का कहीं भी उल्लेख न होने पर भी 'निगम' शब्द से हमने लेखक का नाम इन्द्रनन्दिसूरि की सम्भावना की है। लेखक ने नामोल्लेख न कर, इसे अथर्व का उपनिषद् कहकर, उपनिषद् शैली के अनुकरण पर रचना की है। स्थान-स्थान पर श्रुति का उल्लेख कर और महावीर शासन के सुधर्मस्वामी, जम्बूस्वामी और आर्यरक्षितसूरि को छोड़कर किसी भी प्रभावक युगप्रधान आचार्य का नामोल्लेख न कर इसे प्राचीनतम - 7, ८वीं सदी की रचना प्रमाणित करने का प्रयत्न अवश्य किया है। किन्तु, द्वितीय अध्याय में प्रतिमार्चन में वस्त्राभूषणों का उल्लेख कर स्वतः ही सिद्ध कर दिया है कि यह रचना प्राचीन न होकर १५वीं, १६वीं सदी की है। 3. ग्रन्थ का अवलोकन करने पर यह स्पष्टतः सिद्ध होता है कि इसका लेखक पारंगत विद्वान् ब्राह्मण होगा। बाद में जैन मुनि/आचार्य बनकर जैन दर्शन का भी प्रौढ़ विद्वान् बना। आगम-निगम, द्वादशांगी को श्रुति, देवतत्त्व की अपेक्षा गुरु तत्त्व का प्रथम प्रतिपादन, पिप्पलाद-आसुरायण आदि लेख संग्रह 339 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषियों का उल्लेख, ध्यान केन्द्रों के लिए बादरायण, ऋषि कूप, भार्गव कूप, अर्बुद आदि का , उल्लेख, गुरुकुल निवासी, आर्यधर्म, सयोगी केवली को जीवन-मुक्त-चारित्र योगी, महाविदेह क्षेत्र / को महादेव क्षेत्र और औपनिषदिक विज्ञानघन, विरजस्क, वितमस्क, साष्टांग आदि शताधिक शब्दों के प्रयोग इसके प्रमाण में रखे जा सकते हैं। 4. अध्याय एक में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण हेतु पंच दिवसीय पर्युषण पर्व आराधना करने का उल्लेख है। जबकि पर्युषणा पर्व आठ दिवस का माना गया है। सम्भव है इस आचार्य की निगम परम्परा में पर्युषण पांच दिन का ही होता होगा। 5. मौलिक चिंतन न होते हुए भी उपनिषद् शैली में ग्रथित 'आर्षभी विद्या' मौलिक ग्रन्थ है। अद्यावधि इसकी एक मात्र प्रति ही उपलब्ध है जो खंडित और अशुद्ध भी है। अतः इसके खंडित पाठों की पूर्ति करु एवं संशोधन कर इसका प्रकाशन अवश्य किया जाना चाहिए। प्रति परिचय यह ग्रन्थ अद्यावधि अमुद्रित है। इसकी एक मात्र दुर्लभ हस्तलिखित प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के क्षेत्रीय कार्यालय, जयपुर के श्री पूज्य श्री जिनधरणेन्द्रसूरि संग्रह में परिग्रहणांक 7972 पर सुरक्षित है। साईज 31.7412.7 से.मी. है। पत्र सं० 10, पंक्ति 17, अक्षर 60 है। लेखन अशुद्ध है। किनारे खंडित होने से पाठ खंडित हो गये हैं। प्रान्त पुष्पिका में लेखन संवत् इस प्रकार दिया . है:- 'श्रीपत्तने सं० 1554 वर्षे / / शुभमस्तु / / ' _[अनुसंधान अंक-५०-२] 340 लेख संग्रह Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पद्मानन्दसूरि रचित श्रावक-विधि रास - इस रचना के अनुसार 'श्रावक विधि रास' के प्रणेता श्री गुणाकरसूरि शिष्य पद्मानन्दसूरि हैं। इसकी रचना उन्होंने विक्रम संवत् 1371 में की है। इस तथ्य के अतिरिक्त इनके सम्बन्ध में इस कृति में कुछ भी प्राप्त नहीं है और जिनरत्नकोष, जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास और जैन गुर्जर कविओ में कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। अतएव यह निर्णय कर पाना असम्भव है कि ये कौनसे गच्छ के थे और इनकी परम्परा क्या थी? शब्दावली को देखते हुए इस रास की भाषा पूर्णतः अपभ्रंश है प्रत्येक शब्द और क्रियापद अपभ्रंश से प्रभावित है। पद्य 8, 21, 36, 43 में प्रथम भाषा, द्वितीय भाषा, तृतीय भाषा, चतुर्थ भाषा का उल्लेख है। भाषा शब्द अपभ्रंश भाषा का द्योतक है और पद्य के अन्त में घात शब्द दिया है जो वस्तुतः 'घत्ता' है। अपभ्रंश प्रणाली में घत्ता ही लिखा जाता है। वास्तव यह घत्ता वस्तु छन्द का ही भेद है। . - इस रास में श्रावक के बारह व्रतों का निरूपण है। प्रारम्भ में श्रावक चार घड़ी रात रहने पर उठकर नवकार मन्त्र गिनता है, अपनी शैय्या छोड़ता है और सीधा घर अथवा पोशाल में जाता है जहाँ सामायिक, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करता है। प्रत्याख्यान के साथ श्रावक के चौदह नियमों का चिन्तवन करता है। उसके पश्चात् साफ धोती पहनकर घर अथवा देवालय में जाता है और सुगन्धित वस्तुओं से मन्दिर को मघमघायमान करता है। अक्षत, फूल, दीपक, नैवेद्य चढ़ाता है अर्थात् अष्टप्रकारी पूजा करता है। भाव स्तवना करके दशविध श्रमण धर्म पालक सद्गुरु के पास जाता है। गुरु वन्दन . करता है। धर्मोपदेश सुनता है, जीवदया का पालन करता है। झूठ नहीं बोलता है। कलंक नहीं लगाता है। दूसरे के धन का हरण नहीं करता है। अपनी पत्नी से संतोष धारण करता है और अन्य नारियों को माँ-बहिन समझता है और परिग्रह परिमाण का धारण करता है। दान, शील, तप, भावना की देशना सुनता है और गुरुवन्दन कर घर आता है। वस्त्र को उतारकर अपने व्यापार वाणिज्य में लगता व्यापार करते हए पन्द्रह कर्मादानों का निषेध करता है। प्रत्येक कर्मादान का विस्तत वर्णन है। (पद्य 1 से 34) व्यापार में जो लाभ होता है उसके चार हिस्से करने चाहिए। पहला हिस्सा सुरक्षित रखे, द्वितीय हिस्सा व्यापार में लगाये, तृतीय हिस्सा धर्म कार्य में लगाये और चौथा हिस्सा द्विपद, चतुष्पद के पोषण में लगाया जाए। (पद्य 35) द्वितीय व्रत के अतिचारों का उल्लेख करके देवद्रव्य, गुरुद्रव्य का भक्षण न करे। मुनिराजों को शुद्ध आहार प्रदान करे। इसके पश्चात् द्वितीय बार भगवान की पूजा करे। दीन-दान इत्यादि की लेख संग्रह 341 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभाल करे। मुनिराजों को अपने हाथ से गोचरी प्रदान करे। पौषधव्रत धारण करे। प्रत्याख्यान करे। सचित्त का त्याग करे। पिछले प्रहर में पुनः पौषधशाला जावे और वहाँ पढ़े, गुणे, विचार करे, श्रवण / करे। सन्ध्याकालीन तृतीय पूजा करे। दिन के आठवें भाग में भोजन करे। दो घड़ी शेष रहते हुए दैवसिक प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करे और रात्रि के द्वितीय प्रहर के प्रारम्भ में नवकार गिनकर चतुर्विध शरण स्वीकार करता हुआ शयन करे। (पद्य 36 से 42) निद्राधीन होने के पूर्व यह विचार करे कि शत्रुजय और गिरनार तीर्थ पर तीर्थ की यात्रा के लिए जाऊँगा, वहाँ पूजा करूँगा, करवाऊँगा। साधर्मिक बन्धुओं का पोषण करूँगा। पुस्तक लिखवाऊँगा और अपना व्यापार पूर्ण कर अन्त में संयम ग्रहण करूँगा। वृद्ध और ग्लानों की सेवा करूँगा। (पद्य 43 से 44) ___जल बिना छाने हुए ग्रहण नहीं करूँगा। मीठा जल खारे जल में नहीं मिलाऊँगा। दूध, दही इत्यादि ढंककर रखूगा। रांधना, पीसना और दलना इत्यादि कार्यों में शोधपूर्वक कार्य करूँगा। चूल्हा, ईंधन इत्यादि का यतनापूर्वक उपयोग करूँगा। अष्टमी चौदस का पालन करूँगा। जीवदया का पालन / ' करूँगा। जिनवचनों का पालन करूँगा। यतनापूर्वक जीवन का व्यवहार करूँगा। जो इस प्रकार करते हैं वे नर-नारी संसार से पार होते हैं। (पद्य 45 से 47) पाक्षिक, चातुर्मासिक और संवत्सरी के दिन क्षमायाचना करूँगा। सुगुरु के पास में आलोयणा ग्रहण करूँगा। अन्त में पर्यन्ताराधना स्वीकार करूँगा। कवि कहता है कि इस प्रकार श्रावक विधि के अनुसार दिनचर्या का जो पालन करता है वह आठ भवों में मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। यह रास पद्मानन्दसूरि ने संवत् 1371 में बनाया है। (पद्य 48 से 49). जो इस रास को पढ़ेगा, सुनेगा, चिन्तन करेगा उसका शासन देव सहयोग करेंगे। जब तक शशि, सूर्य, पृथ्वी, मेरु, नन्दनवन, विद्यमान हैं तब तक यह जिनशासन जय को प्राप्त हो। (पद्य 50) ___ इस प्रकार इस रास में श्रावक की दिनचर्या किस प्रकार की होनी चाहिए उसका सविस्तर वर्णन किया गया है। यह वर्णन केवल बारह व्रतों का वर्णन ही नहीं है अपितु उसकी विधि के अनुसार आचरण करने का विधान है। जैसलमेर भंडार के ग्रन्थ से यह प्रतिलिपि की गई है। यह कृति प्राचीनतम और रमणीय होने से यहाँ दी जा रही है: श्रावक-विधि रास पायपउम पणमेवि, चउवीसहं तित्थंकरहं / श्रावकविधि संखेवि, भणइ गुणाकरसूरि गुरो।। 1 / / जहिं जिणमंदिर सार, अंतु तपो धनु पावियई। श्रावग जिन सुविचारु, धणु तृणु जलु प्रचलो।। 2 / / न्यायवंत जहिं राउ, जण धण धन्नरउ माउलउ। सुधी परि ववसाउ, सूधइ थानकि तहिं वसउ।। 3 / / लेख संग्रह 342 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तम्मिहिं इहु परलोय, करमिहि इहलोउ पुणु।। तह. नर आउ न होउ, जसु तहं रवि ऊगमइ / / 4 / / तउ धम्मिउं उढेइ, निसि चउघडियइ पाछिलए। जिणि नवकारु पढेइ, पहिलउ मंगलु मंगलहं / / 5 / / तक्खणि मेल्हवि खाट कवणु देवु अम्ह कवणु गुरो। अम्ह कवण कुल वाट कवण धम्म इह लोग पुणु / / 6 / / कइ घरि कइ पोसाल, लियउ सामाइकु पडिक्कमउ। . पच्चक्खाणु प्रह कालि जं सक्कउ तं पच्चखउ।। 7 / / घात (घत्ता) अरिरि संभरि अरिरि संभरि-दव्व सचित्त विगईय। तहं पाणइय वत्थ कुसुम, तंबोल वाहण सयल। सरीर विलेवणइ बंभचेर, दिसि न्हाण भोयणए। जो जाणई चउद ए पय, नितु नितु करइ प्रमाणु / सो नरु निश्चइ पामिसी, देवहं तणउं विमाणु / / 8 / / सयरह ए सोवु करेवि, धोवति पहिरवि रुवडी अ। पूजहु ए भाउ धरेवि, घर देवालइ देउ जिणु / / 9 / / गंधिहिं ए धूविहि सार, अक्खिहिं पुल्लिहिं दीवइहिं। नेवजिए फलिफार, अट्ठ पगारीय पूज इम।। 10 / / देवहं ए तणउं जु देउ, पूजहु जाइ वि जिण-भवणि। निम्मलु ए अकलु अभेउ, अजरु अमरु अरहंत पहु।। 11 / / पक्खिहिं ए मुक्खि तुरंतु, राग दोस सवे जो जिणए। रयणिहि ए बिहु सोहंतु, नाणिहिं दंसणि चारितिहिं / / 12 / / मिल्हिउ ए चउहिं कसाय, पंच महव्वय भारु धरु। छव्विहिं ए जीव निकाय, सदय मनु सत्त भय जो चयइ / / 13 / / अट्ठिहिं ए गदिहिं मुक्क, बंभगुपिति नव सीचवइ / आलसी ए खण वि न इकु दस दसविह धम्मु समुद्धरणु।। 14 / / जाइवी ए पोसह साल, एरिसु दुह गुरु वांदियइ / माणुस ए ति किरि सियाल जाहन देउ न धम्म गुरु।। 15 / / अक्खई ए सुह गुरु धम्मु, सावधाण धम्मिय सुणहु। धम्मह मूलुमरंभु जीवदया जं पालियउ।। 16 / / झूठउ ए मं बोलेह, आलु दियं तहं आलुसउ। देखि वि ए कहई भूलेहु, परधणु तृणु जिम मन्नियई / / 17 / / निय तिय ए करि संतोस पर तिय मन्नह मा बहिण। परिहरि ए कूडउ सो सुकरि, परिमाणु परिग्गहहं / / 18 / / लेख संग्रह 343 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणहु ए धम्मह भेउ, दाणु सीलु तपु भावणइ / देसण एइ मणि सुणे वि गुरु वंदिवि जं घरि गयउ।। 19 / / धोवंतीए मिल्हि वि ठाइं, तव वसाउ समाचरइ। प्राइहिं ए पापहं चाइ, न्याइहिं धणु कणु मेलवए।। 20 / / द्वितीय भाषा (घत्ता) कहउं पनरस कहउं पनरस कम्म आदाण। इंगाली-वण-सगड भाड-फोड-जीविय-विवज्जर।। दंत-लक्ख-रस-केस-विस-वणिज कजि म कया विसज्ज।। जंत-पीड-निल्लंछणइ-असईय पोस दव दाणु। सर-दहसोसु सो किम करइ हवइ सुमाणु सुजाणु।। 21 / / लोहकार सुनार ठठार भाडइ भुंजअन्नं कुंभार / अनुखीरोये जिन रचिकंति ते इंगाली कंमि लयंति।। 22 / / कंद कउ तृण वण फल फुल्लइ विक्कहिं पन्न जि लब्भइ मुल्लइ / खंडणु पीसणु दलणु जु कीजइ वणि वियाजु कंमु सोवि कहिजइ / / 23 / / घड हिं सगड जे वाहइ वी कहि, तीजइ कम्म दाणि ति ढूकहिं। खर वेसर महिं सुद्द बलिद्दा, भाडइ भारु वहावि सद्दा / / 24 / / कूव सरोवर खाणि खणंति, अंनु विउड कंमु जि करंति। सिला कुट्ठ कंमू हल खेडणु, फोडी कंमु जु भूमिहिं फोडणु।। 25 / / . दंत केस नह रोमइ चम्मइ, संख कवड्डइ जो सइ सुम्मइ। कसथूरी आगइ जु वि साहइ, सो नरु आवइ धमु विराहइ / / 26 / / लाख गली धाहडीय महवा, टंकण मणसिल वणिज महवा / तुवरी वजाल वस कूडा, हरियाला नहु होही रुवडा।। 27 / / सुरवस आमिसु अनु माखणु, रस वणिज्जु किम करइ वियक्खणु। दुप्पय चउप्पय वणिजि जु लग्गउ, केस वणिज नेमु तिणि भग्गउ।। 28 / / विस कंकसिया हल हथियारा, गंधक लोह जि जीवहं मारा। ऊखल अरहट घटं रट वणिज्ज, इम विस वणिजु करइ जु अणज्जु / / 29 / / घाणी कोल्हू अरवहट वाहइ, अनुदलि एलउ जु कुवि करावइ। इणि परि कहियइ कम्मादाणु जंत पीड परिहरइ सुजाणु।। 30 / / जोयण निग्घिणु अंक दियावइ, वीधइ नाकु मुक्क छेदावइ / गाइ कन्न गल कंवल कप्पइ, सो णिल्लंछण दोसिहिं लिप्पइ / / 31 / / कुक्कुड कुक्कड मोर बिलाई, पोसंतहं नहु होइ भलाई / सूवा सारो अंनु परेवा, धम्म धुरंधर नहीं धरेवा।। 32 / / देवु देविणु घणु जीउ म मारहु, सरदह नइ जलु सोसु निवारहु। पनरह कम्मादाण विचारु, जाणिवि करि सूधउ ववहारु।। 33 / / 344 लेख संग्रह Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारु धमई रस अंजण जोवइ, जूइ रमइ इम दविणु न होवइ / कुवसणि इक्कु वि सुउ न गंमीजइ, तिय आगति चहुं भागिहिं कीजइ / / 34 / / पहिलउ भागु निधिहिं संवारइ वीजउ पुणु वचसा उवधारइ / तीजउ धम्म भोगु निरदोसु चउथइ दुपय चउप्पय पोसु।। 35 / / तृतीय भाषा (घत्ता) निसुणि धम्मिय निसुणि धम्मिय, कूड तुल माण। क्रय कूडो परिहर हु कूड लेख तहं साखि कूडिय दुत्थिय दुहिय सवासणिय मित्त दोह न हु वातरुवडिया। देवदव्वु जो गुरुदविणु, भक्खइ भवु अगणंतु। विणु सम्मत्तिण सो भमइ, इम संसारु अणंतु / / 36 / / जिम आहारहं तणीय सुद्धि, मुनि चारितु लीणउं। हाटहं हूतउ घरि पहूतु जउ भोजन वारहं। पूजा वीजी वार करइ, वांसिउ नवि वारहं / / 37 / / दीण गिलाणहं पाहुणहं, संभाल करावइ / सइ हत्थिहिं सूधउ, अहारु मुणिवर विहरावइ / / उसह वेसह वत्थ पत्त, वसही सयणासण / अवरु वि जं इहं तित्थ, तं देइ सुवासणु / / 38 / / जइ तहिं गइ न हुंति साहु, तउ दिवस आलावइ / मनि भावइ आवइ सुपात्तु, तउ भल्लउ होवइ / / कवणु कियउ पच्चक्खाणु, आजु मनि इम संभारइ। वइठउ वाइं सचित्त चाई, आहारु अहारइ / / 39 / / करि भोयणु निद्दह विहूणु खणु इकु वि समत्तउ। पाछिलइ पहरि पुण वि, पोसालह गम्मइ / / पढइ गुणइं वाचइ सुणेइ, पुच्छेइ पढावइ / अह जु वियालीय करणहारु, सो णिय घरि आवइ / / 40 / / दिवसहं अट्ठम भाग सो सि जीमेइ सुजाणू। पाछिलए दो घडिय दिवसि चरिमं पचखाणू।। संघहं तीजी करिवि, सामाइकु लीजइ। तउ देवसियं पडिकमेवि, सब्भाउ करिजइ / / 41 / / रत्तिहिं वीतइ पढम पहरि, नवकारु भणेविणु। अरिहय सिद्धि सुसाहु धम्म सरणई पइ सेविणु।। 42 / / चतुर्थ भाषा (घत्ता) अंति निद्दह अंति निद्दह चित्ति चिंतेइ। सेतुंजि उज्जिलि चडिवि जिणहं, पूय कइंयहं कराविसु। लेख संग्रह 345 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहमिय गउरउ करि सुकइय, कइ पुत्थउ लिहाविहातिसु।। छंडवि धंधउ इह धरहं, कइ हउं संजमु लेसु। समरि सिलग्गउ कइय हउं फेडिसु कम्म किलेसु।। 43 / / वंदिवि दिवसु सूरि वादीययए, संभलहु भाविय हु सीख तुम्ह दीजए। गलहु उम्हालए तिन्नि वारा जलं, ले विणु गलणु गलण तुम्हिअइ नीसलं / / 44 / / सेसकाले वि वे वार जलु गालहो, मीठ जलि खार जलि जीवमा मेलहो। राखउ सूकतउ तुम्हि संखारउ | वस्त्रहं धोवणु गलिय जलिकार हो।। 45 / / दुद्ध दहि तिल्लु घिउ तक ढंकि वि धरहु / मक्खि घाए सुहमा जीव तहिं पडि मरहु / सोधि विधुंसु रंधंति पीसहिं दलहिं। पउंजि वे वारइ चुल्हि घर हू खलई / / 46 / / जाणवि जीउ जे ईंधणं बालहिं। अट्ठमि चउदसिय मुह ते पालहिं / / जीवदया सारु जिण वयणु जे संभरई। जयण पालंति नर नारि ते भव तरहिं / / 47 / / पक्ख चउमास संवच्छरे खामणा। सुगुरु पासंमि जिय करिय आलोयणा।। करइ जो आउ-पजंत आराहणा। तासु परलोइ गइ होइ अइ-सोहणा।। 48 / / एम जो पालए पवर सावय-विही। अट्ठभव माहि सिवसोक्ख सो पाविही।। रासु पदमाणंदसूरि सीसिहिं इहो। तेरइगहत्तरइ रयउल संगहो।। 49 / / जो पढइ जो सुणइ जो रमइ जिणहरो। सासण देवि तउ तासु सामिधुकरो। जाम ससि सुरु महि मेरु नंदणवणं / ता जयउ तिहुयणे एहु जिणसासणं / / 50 / / // इति श्रावक विधि रासः समाप्त मिति भदं। छ।। [अनुसंधान अंक-५०] 000 346 लेख संग्रह Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विवेकचन्द्रगणि कृतम् भक्तामरस्तोत्र-पादपूर्ति आदिनाथ-स्तोत्रम् यह कृति विजयदानसूरि के शिष्य सकलचन्द्रगणि के शिष्य सूरचन्द्र के शिष्य श्री भानुचन्द्रगणि के शिष्य श्री विवेकचन्द्रगणि कृत है। जहाँ इन्होंने विजयदानसूरि, विजयहीरसूरि और विजयसेनसूरि तीन पीढ़ियों को देखा है और सेवा की है। आचार्य हीरविजयसूरिजी का अकबर पर अप्रतिम प्रभाव था और वह प्रभाव निरन्तर चलता रहे, इस दृष्टि से उन्होंने शान्तिचन्द्रगणि, भानुचन्द्रगणि इत्यादि को अकबर के पास रखा। स्वयं गुजरात की ओर विहार कर गये। भानुचन्द्रगणि का भी सम्राट पर बड़ा प्रभाव रहा। आचार्यश्री ने लाहोर में वासक्षेप भेजकर उनको उपाध्याय पद दिया था और अन्त में ये महोपाध्याय पदधारियों की गणना में आते थे। भानुचन्द्र के मुख से सम्राट अकबर प्रत्येक रविवार को सूर्यसहस्र नाम का श्रवण करता था। आइने-अकबरी में भी भानुचन्द्र का उल्लेख प्राप्त होता है। अकबर के मरण समय तक भानुचन्द्र उनके दरबार में रहे अर्थात् संवत् 1639 से 1660 का समय अकबर के सम्पर्क का रहा। विजयसेनसूरिजी का संवत् 1672 में स्वर्गवास हो जाने पर सोमविजय, भानुचन्द्र, सिद्धिचन्द्र आदि पदधारियों ने विजयतिलकसूरि को पट्टधर बनाया था। __ ये व्युत्पन्न विद्वान् थे। इनके द्वारा निम्न कृतियाँ प्राप्त होती है। रत्नपाल कथानक, विवेकविलास टीका (रचना संवत् 1671), महाकवि बाण कृत कादम्बरी के पूर्व भाग पर टीका, सारस्वत व्याकरणम् टीका, वसन्तराज शकुनशास्त्र पर टीका और सूर्यसहस्रनाम टीका एवं अभिधान चिन्तामणि नाममाला टीका आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। भानुचन्द्रगणि का विशेष परिचय देखना हो तो उनके शिष्य सिद्धिचन्द्र कृत 'भानुचन्द्र चरित्र' अवलोकनीय है। यह चरित्र सिंघी जैन ग्रन्थमाला सिरीज, भारतीय विद्या भवन, बम्बई से प्रकाशित हो चुका है। महोपाध्याय भानुचन्द्र के अनेकों शिष्य थे जिनमें सिद्धिचन्द्र और विवेकचन्द्र प्रसिद्ध थे। विवेकचन्द्र भी प्रतिभाशाली विद्वान् थे किन्तु इस कृति के अतिरिक्त उनकी अन्य कोई कृति प्राप्त नहीं है। अतएव इनके जीवन कलाप का वर्णन करना संभव नहीं है। स्वतन्त्र काव्य रचना से भी अधिक कठिन कार्य है पादपूर्ति रूप में रचना करना। पादपूर्ति में पूर्व कवि वर्णित श्लोकांश को लेकर किसी अन्य विषय पर रचना करते हुए उस पूर्व कवि के भावों को सुरक्षित रखना वस्तुतः कठिन कार्य है। भक्तामर स्तोत्र श्री मानतुङ्गसूरिजी रचित है। भक्तामर और कल्याण मन्दिर ये ऐसे विश्व प्रसिद्ध स्तोत्र हैं जो कि आज भी श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में मान्य है। श्वेताम्बर परम्परा 44 पद्यों का स्तोत्र मानती है जबकि दिगम्बर परम्परा 48 पद्यों का। पादपूर्ति दो प्रकार से होती है। एक तो सम्पूर्ण पद्यों के प्रत्येक चरण का आधार मानते हुए रचना करना और दूसरा पद्य के अन्तिम चरण को ग्रहण कर और भाव को सुरक्षित रखते हुए रचना करना। इस लेख संग्रह 347 23 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 3 ; स्तोत्र के अनुकरण पर अनेक दिग्गज कवियों ने प्रचुर परिमाण में पादपूर्ति स्तोत्र और छाया स्तवन भी लिखें हैं जो निम्न हैं:१. नेमि भक्तामर स्तोत्र भावप्रभसूरि ऋषभ भक्तामर स्तोत्र समयसुन्दरोपाध्याय 3. शान्ति भक्तामर स्तोत्र लक्ष्मीविमल पार्श्व भक्तामर स्तोत्र विनयलाभ वीर भक्तामर स्तोत्र धर्मवर्धनोपाध्याय सरस्वती भक्तामर स्तोत्र धर्मसिंहसूरि भक्तामर प्राणप्रिय काव्य रत्नसिंह भक्तामर पाद पूर्ति पं. हीरालाल भक्तामर पादपूर्ति स्तोत्र महा० म० पं० गिरधर (इसके प्रत्येक चरण की पादपूर्ति की गई है) शर्मा भक्तामर स्तोत्र छाया स्तवन - मल्लिषेण 11. भक्तामर स्तोत्र छाया स्तवन - रत्नमुनि इस कृति के कर्ता विवेकचन्द्र ने श्री मानतुङ्गसूरिजी के भावों को सुरक्षित रखते हुए और उसको प्रगति देते हुए यह पादपूर्ति की है। इस पादपूर्ति स्तोत्र को देखते हुए कहा जा सकता है कि ये संस्कृत साहित्य के धुरन्धर विद्वान् थे और समस्यापूर्ति में भी भाग लेते थे। यह कृति रमणीय और पठनीय होने से यहाँ उद्धृत की जा रही है। इसकी एकमात्र कृति ही प्राप्त है, वह किस भण्डार में है, इसका ध्यान नहीं। अतएव इस सम्बन्ध में क्षमा चाहता हूँ। 10. . भक्तामरस्तोत्र-पादपूर्ति आदिनाथ-स्तोत्रम् नमेन्द्रचन्द्र ! कृतभद्र! जिनेन्द्र! चन्द्र! ज्ञानात्मदर्शपरिदृष्टविशिष्टविश्व।। त्वमूर्तिरर्तिहरणी तरणी मनोज्ञे बालंबनं भवजले पततां जनानाम् / / 1 / / ग्रह्णाति यज्जगती गारुडिको हि रन्नं, तन्मंत्र-तंत्रमहिमैव बुधो न शक्तः। स्तोतुं हि यं यद्बुधस्तदसीय शक्तिः, स्तोष्ये किलाहर्मापि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्।। 2 / / त्वां संस्मरंतहमरंकरभीप्सितस्य, दूरं चिरं परिहरामि हरादिदेवान्। हित्वा मणिकरगतामुपलं हि विज्ञ-मन्य क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम्।। 3 / / ध्यानानुकूलपवनं गुणराशिपात्रं, त्वामद्भुतं भुवि बिना जिन! यानपात्रम्। मिथ्यात्वमत्स्यभवनं भवरूपमेनं, को वा तरितुमलमंबुनिधिं भुजाभ्याम्।। 4 / / क्षुत्क्षाम-कुक्षि-तृषिता-तप-शीत-वात-दुःखीकृताद्भुततनोर्मरुदेविमाता। अद्याप्युवाच भरतादिभवाञ्जनस्य, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम्।।५।। मुक्तिप्रदा भवति देव तवैव भक्तिर्नान्यस्य देवनिकरस्य कदाचनापि। युक्तं यतः सुरभिरेव न रौद्रमारास्तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः।। 6 / / 348 लेख संग्रह Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाङ्गेयगात्रनृतमस्तृणसत्रदात्रं त्वान्नाममात्र वसतो गुणरत्नपात्रम्। मिथ्यात्वयतिविलयं मम हद्विलीनं, सूर्यांशुभिन्नमिवशार्वरमन्धकारम् / / 7 / / नेत्रामृते भवति भाग्यबलेन दृष्टे, हर्षप्रकर्षवशतस्तव भक्तिभाजाम्। * वक्षःस्थलस्थित उतेक्षणतस्चूतोसौ मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूद बिन्दुः।। 8 / / श्रीनाभिनन्दन! तवानन लोकनेन, नित्यं भवन्ति नयनानि विकस्वराणि। भव्यात्मनामिव दिवाकरदर्शनेन, पद्माकरेषु जलजानि विकाशभाञ्जि / / 9 / / त्वत्पादपद्मशरणानुगतान्नरांस्त्वं, संसारसिन्धुपतिपारगतन्किरोषि। नि:पाप! पारगतयच्च स एव धन्यो, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति / / 10 / / युक्तं तदुक्त वचनानि निशम्य सम्यक्, नो रोचते किमपि देव! कुदेववाक्यम्। पीयूषपानमसमानमहो विधाय, क्षारं जलं जलनिधेरसितुंक्च इच्छेत् / / 11 / / शंभू स्वकीय ललनाकलिताङ्गभागो, विष्णुर्गदासहित पाणिरितीव देव। प्रद्वेषरागरहितोषि जिन ! त्वमेव, यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति / / 12 / / तेजस्विनं जिन! 'सदेह भवन्तमेव, मन्येस्तमेति सवितापि दिवावसानम्। दीपोऽपि वर्त्तिविरहे विधुमण्डलं च, यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् / / 13 / / ये व्याप्तुवन्ति जगदीश्वर! विश्व! विश्वमत्राञ्जनानपि सृजंति तरां चिलोक्याम्। . त्वां भास्करं जिन! विना तमसः समूहान् कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम्।। 14 / / सिंहासनं विमलहेममये विरेजे, मध्यस्थित-त्रिजदीशश्वरमूर्तिरम्यम्। नोद्योतनार्थमुपरिस्थित सूर्यबिंब, किं मंदरादिशिखरं चलितं कदाचित् / / 15 / / दोषाकरो न सकरो न कलंकयुक्तो, नास्तं गतो न सतमानसविग्रहो न। स्वामिन्विधुर्जगति नाभिनरेन्द्रवंश-दीपोपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः।। 16 / / नित्योदयस्त्रिजगतीस्थ तमोपहारी, भव्यात्मनां वदनकैरवबोधकारी। मिथ्यात्वमेघपटलैंर्न मावृतोयत्सूर्यातिशयि महिमासि मुनीन्द्र ! लोके / / 17 / / लावण्य-पुण्य-सुवरेण्य-सुधानिधानं, प्रह्लादकं जनविलोचनकैरवाणाम्। वक्त्रं विभोत व विभाति विभातिरेकं विद्योतयज्जगदपूर्वशशाङ्कबिम्बम्।। 18 / / ध्यातस्त्वमेव यदि देव! मनोभिलाष-पूर्णीकरः किमपरैर्विविधैरुपायैः। नि:पद्यते यदि च भौमजलेन धान्यं, कार्यं कियजलधरैर्जलभारननैः।। 19 / / माहात्म्यमस्ति यदनंतगुणाभिरामं, सर्वज्ञ ते हरिहरादिषु तल्लवो न / चिन्तामणौ हि भवतीह यथा प्रभावो, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेपि।।२०।। तद्देव! देहि मम दर्शनमात्मनस्त्व! मत्यद्भुतं नृनयनामृतयत्र दृष्टे / स्वामिनिहापि परमेश्वर! मेन्यदेव! कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेपि।। 21 / / ज्ञानस्य शिष्टतरदृष्टसमस्त लोका-लोकस्य शीघ्र हतसंतमस्य शश्वत्। दाता त्वमेव भुवि देव! हि-तं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फरदंशुजालम् / / 22 / / सिंहासनस्थ भवदुक्त चतुर्विधात्म-धर्मादृते त्रिजगदीश! युगादिदेव। सद्दानशीलतपनिर्मल भावनाख्यान् नान्य:शि शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्थाः।। 23 / / लेख संग्रह 349 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिन्ननंतगुणयुक्त कषायमुक्त साक्षात्कृत त्रिजगदेव! भवत्सदृक्षाः। नान्ये विभंगमतयो रुचिरं च पंच ज्ञानस्वरूप ममलं प्रवदन्ति सन्तः।। 24 / / चिन्तामणिर्मणिषुधेनुषु कामधेनु-र्गङ्गानदीषु नलिनेषु च पुण्डरीकम्। कल्पद्रुमस्तरुषु देव यथा तथात्र व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि / / 25 / / भास्वगुणाय करणाय मुदो रणाय, विद्याचणाय कमलप्रतिमेक्षणाय। पुंसां छलेन पतितं पुरतो हि रत्र दृष्येत किं नियतमंतर तत्त्वदृष्ट्या। 'मोहारतेन मयका त्वयि संस्थितेने, स्वप्नान्तरेपि न कदाचिदपीक्षितोषि।। 27 / / मन्मानसांतरगतं भवदीय नामं पापं प्रणाशयति पारगत प्रभूतम् / श्रीमद्युगादिजिनराज हिमं समताद्, बिंबं रवेरिव पयोधरपाश्ववर्त्ति / / 28 / / जन्माभिषेकसमये गिरिराजशृङ्गे, प्रस्थापितं तव वपुर्विधिना सुरेन्द्रैः। प्रोद्योतते प्रबलकान्तियुतं च बिम्बं, तुङ्गोदयादिशिरसीव सहस्ररश्मेः।। 29 / / केशच्छटां स्फटतरां द्धदंशदेशे, श्रीतीर्थराज! विबुधावलिसंश्रितस्त्वम्। मूर्घस्थ कृष्णलतिकासहितं च शृङ्ग-मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्मम्।। 30 / / स श्रीयुगादिजिन ! मेभिमतं प्रदेहि धर्मोपदेशसमये दिवि गच्छदूर्ध्वम्। ज्योतिर्दतां जयति यस्य शिवस्य मार्ग, प्रस्थापयत्रिजगतः परमेश्वरत्वम्।। 31 / / सोपानपंक्तिमरजांसि भवद्वचांसि, स्वर्गाधिरोहणकृते यदि नो कथं तद्। तत्राश्रिता त्रिजगदीश्वर! यान्ति जीवा, पद्मानि तत्र विबुधा परिकल्पयन्ति / / 32 / / भातिस्त्वया भुवि यथा न तथा विना त्वां, श्रीसंघनायकगुणैः सहितोपि संघः। शोभा हि या दृगमृतद्युति ना विना तं, तादृग् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोपि।। 33 / / त्वत्स्कन्धसंस्थचिकुरावलिकृष्णवल्लिं वक्त्रस्फुरद्विषनिजाक्षिविनिर्यदग्निः। सर्पोपि न प्रभवति प्रबलप्रकोपे, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् / / 34 / / संप्राप्तसंयमदरीवसनं प्रलब्धं, पुण्यौषधं परमशर्मफलोपपेतम्। मर्त्य महोदयपते भववैरिवृन्दं, नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते।। 35 / / धर्मे धनानि विविधानि स नादहन्तं, मानुष्य मानसवने नियतं वसन्तम्। दीप्यत्तरं स्मरसमीरसखं वृषाङ्कः त्वन्नामकीर्तनजलं समयत्यशेषम् / / 36 / / यत्रोद्गता शितिलताहिगिरेर्गुहायां, किं तन्न तिष्टति फाणी गुणगेह तस्मात्। मिथ्यात्वमेतद् गमन्नितरामुवष्ट / त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः।। 37 / / पीडां करोति न कदापि सतां जनानां, सूर्योदयादमृतसूः सरसीरुहाणाम्। दुःखीकृतं त्रिभुवनो विपदां च यस्य, त्वकीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति।। 38 / / तद्वाणिमंजुलमरंदरसं पिबन्तस्तापोप्सिता परमनिर्वृतिमादिदेव!। पुण्याढ्य पंच जनचंचुरचंचरीक-स्तवत्पादपङ्कजवनायिणो लभंते / / 39 / / कन्दर्पदेवरिपुसैन्यमपि प्रजीत्य त्वलोहकारकृतमार्गसुवर्मिताङ्गाः। देव! प्रभो! जय जयारवमं गभीरास्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाव्रजन्ति / / 40 / / 350 लेख संग्रह Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वत्पादपद्मनखदीधितिकुंकुमेन चित्रीकृतः प्रणमतां स्वललाटपट्टः। येषां त एव सुतरां शिवसौख्यभाजो, मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः।। 41 / / भग्नेव कर्मनिगडं जिन लोहरकारवाङ्मुद्रेण भव गुप्तिगृहाप्तवासाः। * कर्मावलीनिगडिता अपि भक्तसत्वा, सद्य स्वयं विगतबंधभया भवन्ति / / 42 / / रोषो दिवेति सहगामपहाय माम-सौ संपदाभिरमते सहमत्सपल्या। द्राक्चक्रवालमगमद्विदेव तस्य यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते / / 43 / / तस्यांगणे सुरतरुस्सुरधेनुरंही, चिन्तामणिः करतलं निजमन्दिरञ्च। यः श्रीयुगादिजिन देवमलं स्तवीति, तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीश्च / / 44 / / श्रीमन्मुनीद्रवरवाचक-भानुचन्द्र! पादाब्जसेवक-विवेकनिशाकरेण। भक्तामरस्तवनतुर्यपदसमस्याकाव्यै स्तुतः प्रथमतीर्थपति गृहीत्वा।। 45 / / // इति भक्तामर-समस्या-स्तवन श्रीमदादीश्वरो वर्णितः।। [अनुसंधान अंक-५०] 000 लेख संग्रह 351 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगनायक आचार्यप्रवर श्रीजिनभद्रसूरि रचित द्वादशाङ्गी पदप्रमाण-कुलकम् "अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथन्ति गणहरा" केवलज्ञान प्राप्त करने और त्रिपदी कथन के पश्चात् तीर्थनायकों ने जो प्रवचन/उपदेश दिया, उसमें अर्थरूप में जिनेश्वरदेवों ने कहा और सूत्ररूप में गणधरों ने गुम्फित किया। उसी को द्वादशांगी श्रुत के नाम से जाना जाता है। द्वादशांगी श्रुत का पदप्रमाण कितना है इसके सम्बन्ध में निम्न कुलक हैं। ___ इसके कर्ता जिनभद्रसूरि हैं। जिनभद्रसूरि दो हुए हैं- प्रथम तो युगप्रधान जिनदत्तसूरि के शिष्य और दूसरे जैसलमेर ज्ञान भण्डार संस्थापक श्री जिनभद्रसूरि हैं। इन दोनों में से अनुमानतः ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे ही जिनभद्रसूरि की यह रचना हो। श्रुतसंरक्षण और श्रुतसंवर्द्धन यह उनके जीवन का ध्येय था इसीलिए उन्हीं की कृति मानना उपयुक्त है। आचार्य श्री जिनभद्रसूरि आचार्य प्रवर श्री जिनराजसूरि जी के पद पर श्री सागरचन्द्राचार्य ने जिनवर्द्धनसूरि को स्थापित किया था, किन्तु उन पर देव-प्रकोप हो गया, अतः चौदह वर्ष पर्यन्त गच्छनायक रहने के अनन्तर गच्छोन्नति के हेतु सं० 1475 में श्री जिनराजसूरि जी के पद पर उन्हीं के शिष्य श्री जिनभद्रसूरि को स्थापित किया गया। श्री जिनवर्द्धनसूरि जी के सम्बन्ध में पिप्पलक शाखा के इतिहास में लिखा जायेगा। जिनभद्रसूरि पट्टाभिषेकरास के अनुसार आपका परिचय इस प्रकार है मेवाड़ देश में देउलपुर नामक नगर है। जहाँ लखपति राजा के राज्य में समृद्धिशाली छाजहड़ गोत्रीय श्रेष्ठि धीणिग नामक व्यवहारी निवास करता था। उनकी शीलादि विभूषिता सती स्त्री का नाम खेतलदेवी था। इनकी रत्नगर्भा कुक्षि से रामणकुमार ने जन्म लिया, वे असाधारण रूपगुण सम्पन्न थे। एक बार जिनराजसूरि जी महाराज उस नगर में पधारे। रामणकुमार के हृदय में आचार्यजी के उपदेशों से वैराग्य परिपूर्ण रूप से जागृत हो गया। कुमार ने अपनी मातुश्री से दीक्षा के लिए आज्ञा मांगी। माता ने अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये-मिन्नत की, पर वह व्यर्थ हुई। अन्त में स्वेच्छानुसार आज्ञा प्राप्त की और समारोहपूर्वक दीक्षा की तैयारियाँ हुईं। शुभमुहूर्त में जिनराजसूरि जी ने रामणकुमार को दीक्षा देकर कीर्तिसागर नाम रखा। सूरि जी ने समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए उन्हें वा० शीलचन्द्र गुरु को सौंपा। उनके पास इन्होंने विद्याध्ययन किया। चन्द्रगच्छ-शृंगार आचार्य सागरचन्द्रसूरि ने गच्छाधिपति श्री जिनराजसूरि जी के पट्ट पर कीर्तिसागर जी को बैठाना तय किया। भाणसउलीपुर में साहुकार नाल्हिग रहते थे जिनके पिता का नाम महुड़ा और माता का नाम आंबणि था। लीला देवी के पति नाल्हिगसाह ने सर्वत्र कुंकुमपत्रिका भेजी-। बाहर. 352 लेख संग्रह Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से संघ विशाल रूप में आने लगा। सं० 1475 में शुभमुहूर्त के समय सागरचन्द्रसूरि ने कीर्तिसागर मुनि को सूरिपद पर प्रतिष्ठित किया। नाल्हिग शाह ने बड़े समारोह से पट्टाभिषेक उत्सव मनाया। नाना प्रकार के वाजिब बजाये गए और याचकों को मनोवांछित दान देकर सन्तुष्ट किया गया। उपा० क्षमाकल्याण जी की पट्टावली में आपका जन्म सं० 1449 चैत्र शुक्ला' षष्ठी को आ नक्षत्र में लिखते हुए भणशाली गोत्र आदि सात भकार अक्षरों को मिलाकर सं० 1475 माघ सुदि पूर्णिमा बुधवार को भणशाली नाल्हाशाह कारित नंदि महोत्सवपूर्वक स्थापित किया। इसमें सवा लाख रुपये व्यय हुए थे। वे सात भकार ये हैं-१. भाणसोल नगर, 2. भाणसालिक गोत्र, 3. भादो नाम, 4. भरणी नक्षत्र, 5. भद्राकरण, 6. भट्टारक पद और जिनभद्रसूरि नाम। आपने जैसलमेर, देवगिरि, नागोर, पाटण, माण्डवगढ़, आशापल्ली, कर्णावती, खंभात आदि स्थानों पर हजारों प्राचीन और नवीन ग्रंथ लिखवा कर भंडारों में सुरक्षित किये, जिनके लिए केवल जैन समाज ही नहीं, किन्तु सम्पूर्ण साहित्य संसार आपका चिर कृतज्ञ है। आपने आबू, गिरनार और जैसलमेर के मन्दिरों में विशाल संख्या में जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की थी, उनमें से सैकड़ों अब भी विद्यमान हैं। ____ श्री भावप्रभाचार्य और कीर्तिरत्नाचार्य को आपने ही आचार्य पद से अलंकृत किया था। सं० 1514 मार्गशीर्ष वदि 9 के दिन कुंभलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ। . - आचार्य श्री जिनभद्रसूरि जी उच्चकोटि के विद्वान् और प्रतिष्ठित हो गए हैं। उन्होंने अपने 40 वर्ष के आचार्यत्व, युगप्रधानत्व काल में अनेक धर्मकार्य करवाये। विविध देशों में विचरण कर धर्मोन्नति का विशेष प्रयत्न किया। जैसलमेर के संभवनाथ जिनालय की प्रशस्ति में आपके सद्गुणों की बड़ी प्रशंसा की गई है। आपके द्वारा अनेक स्थानों में ज्ञान भंडार स्थापित करने का विवरण ऊपर लिखा जा चुका है। राउल श्री वैरिसिंह और त्र्यंबकदास जैसे नृपति आपके चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम करते थे। सं० 1494 में इस मन्दिर का निर्माण चौपड़ा गोत्रीय सा० हेमराज-पूना-दीहा-पाँचा के पुत्र शिवराज, महीराज लोला और लाखण ने करवाया था। राउल वैरिसिंह ने इन चारों भ्राताओं को अपने भाई की तरह मानकर वस्त्रालंकार से सम्मानित किया था। सं० 1497 में सूरि जी के कर-कमलों से प्रतिष्ठा अंजनशलाका कराई। इस अवसर पर 300 जिन बिम्ब, ध्वज-दण्ड शिखरादि की प्रतिष्ठा हुई। इस 35 पंक्तियों वाली प्रशस्ति का निर्माण जयसागरोपाध्याय के शिष्य सोमकुंजर ने किया और पं० भानुप्रभ ने आलेखित किया था। इस प्रशस्ति की १०वीं पंक्ति में लिखा है कि आबू पर्वत पर श्री वर्धमानसूरि जी के वचनों से विमल मंत्री ने जिनालय का निर्माण करवाया था। श्री जिनभद्रसूरि जी ने उज्जयन्त, चित्तौड़, मांडवगढ़, जाउर में उपदेश देकर जिनालय निर्माण कराये व उपर्युक्त नाना स्थानों में ज्ञान भण्डार स्थापित कराये, यह कार्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। इस मन्दिर के तलघर में ही विश्व विश्रुत श्री जिनभद्रसरि ज्ञानभण्डार है, जिसमें प्राचीनतम ताड़पत्रीय 400 प्रतियाँ हैं। खंभात का भंडार धरणाक ने तैयार कराया था। मांडवगढ़ के सोनिगिरा श्रीमाल मंत्री मंडन और धनदराज आपके परमभक्त विद्वान् श्रावक थे। इन्होंने भी एक विशाल सिद्धान्त कोश लिखवाया था जो आज विद्यमान नहीं है, पर पाटण भंडार की भगवतीसूत्र की प्रशस्ति युक्त प्रति मांडवगढ़ के भंडार की है। आपकी "जिनसत्तरी प्रकरण'' नामक 210 गाथाओं की प्राकृत रचना प्राप्त है। सं० 1484 में जयसागरोपाध्याय ने नगर कोट (कांगडा) की लेख संग्रह 353 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा के विवरण स्वरूप "विज्ञप्ति त्रिवेणी" संज्ञक महत्त्वपूर्ण विज्ञप्ति पत्र आपको भेजा था। इन्होंने सं० 1509 कार्तिक सुदि 13 को जैसलमेर के चन्द्रप्रभ जिनालय में प्रतिष्ठा की। श्रुतरक्षक आचार्यों में श्री जिनभद्रसूरि जी का नाम मूर्धन्य स्थान में है। खरतरगच्छ के दादा संज्ञक चारों गुरुदेवों की भाँति आपके चरण व मूर्तियाँ अनेक स्थानों में पूज्यमान हैं। श्री जिनभद्रसूरि शाखा में अनेक विद्वान् हुए हैं। खरतरगच्छ की वर्तमान में उभय भट्टारकीय, आचार्यांय, भावहर्षीय व जिनरंगसूरि आदि शाखाओं के आप ही पूर्व पुरुष हैं। ___आपने कीर्तिराज उपाध्याय को आचार्य पद देकर श्री कीर्तिरत्नसूरि नाम से प्रसिद्ध किया था। ये नेमिनाथ महाकाव्यादि के रचयिता और बड़े प्रभावक आचार्य हुए हैं। इनके गुणरत्नसूरि, कल्याणचन्द्रादि 51 शिष्य थे। इनके भ्राताओं व उनके वंशजों ने जैसलमेर, जोधपुर, नाकोड़ा, बीकानेर आदि अनेक स्थानों में जिनालय निर्माण कराये व अनेक संघ-यात्रादि शासन प्रभावना के कार्य किये थे। श्री कीर्तिरत्नसूरि शाखा में पचासों विद्वान् कवि आदि हुए हैं। गीतार्थ शिरोमणि श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि भी श्री कीर्तिरत्नसूरि जी की परम्परा में ही हुए हैं। ____ श्री जयसागर जी को जो श्री जिनवर्द्धनसूरि जी के शिष्य थे, आपने ही सं० 1475 में उपाध्याय पद से अलंकृत किया। ये बड़े विद्वान् और प्रभावक हुए हैं। आबू की "खरतर वसही" दरड़ा गोत्रीय सं० मंडलिक जो उपाध्यायजी के भ्राता थे, ने ही निर्माण करवाई थी। उपाध्याय जी की परम्परा में भी अनेकों विद्वान् हुए। उपाध्याय जी के निर्माण किए अनेक ग्रंथ व स्तोत्रादि उपलब्ध .. इस स्तोत्र में पद-परिमाण का निर्वचन नहीं किया गया है। निर्वचन के बिना स्पष्टीकरण नहीं होता है कि यहाँ पद का अर्थ क्या है, क्योंकि जो पद प्रमाण दिया गया है वह वर्तमान के आगम अंग से मेल नहीं खाता। इसीलिए श्रुति परम्परा को ही आधार मानकर चलना उपयुक्त है। प्रारम्भ में 11 अंगों का पद-परिमाण दिया गया है, वह निम्न है: आचारांग सूत्र, पद परिमाण 18,000 सूत्रकृतांग सूत्र, पद परिमाण 36,000 स्थानांग सूत्र, पद परिमाण 72,000 समवायांग सूत्र, पद परिमाण 1,44,000 भगवती सूत्र, पद परिमाण 2,88,000 ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र, पद परिमाण 5,76,000 उपासक दशांग सूत्र, पद परिमाण 11,52,000 अन्तकृद् दशांग सूत्र, पद परिमाण 23,04,000 अनुत्तरोपपातिक दशांग सूत्र, पद परिमाण 46,08,000 प्रश्नव्याकरणांग सूत्र, पद परिमाण 92,16,000 विपाकांग सूत्र, पद परिमाण 1,84,32000 इसके पश्चात् दृष्टिवाद पाँच भेद वर्णित किये गये हैं- परिकर्म, सूत्र, पूर्वागत, अनुयोग और . चूलिका। चौदह पूर्वो की पद परिमाण संख्या इस प्रकार कही गई है। 354 लेख संग्रह Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. उत्पाद पूर्व, पद परिमाण 1,00,00,000 2. अग्रायणीय पूर्व, पद परिमाण, 96,00,000 3. वीर्यप्रवाद पूर्व, पद परिमाण, 70,00,000 4. अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व, पद परिमाण, 60,00,000 5. ज्ञान प्रवाद पूर्व, पद परिमाण, 99,99,999 6. सत्य प्रवाद पूर्व, पद परिमाण, 1,00,00,006 7. आत्म प्रवाद पूर्व, पद परिमाण, 26,00,00,000 8. कर्म प्रवाद पूर्व, पद परिमाण, 1,00,86,000 9. प्रत्याख्यान पूर्व, पद परिमाण, 84,00,000 10. विद्यानुप्रवाद पूर्व, पद परिमाण, 1,10,00,000 11. अवन्ध्य पूर्व, पद परिमाण, 26,00,00,000 12. प्रणायु प्रवाद पूर्व, पद परिमाण, 1,56,00,000 13. क्रिया प्रवाद पूर्व, पद परिमाण 9,00,00,000 14. लोप बिन्दुसार पूर्व, पद परिमाण, 12,50,00,000 इसकी प्रति जैसलमेर ज्ञान भण्डार में सुरक्षित है। अब यह कुलक स्तोत्र दिया जाता है: द्वादशाङ्गी पद-प्रमाण कुलक नमिऊण जिणं अंगाण-पय-पमाणं अहं पयंपेमि। तत्थ पयमत्थ-उवलद्धि जत्थ किरं एवमाईयं / / 1 / / अट्ठारस. छत्तीसा बावत्तरि सहस तह य अणुकमसो। आयारे सूयगडे ठाणंगे चेव पयसंखा।। 2 / / समवाए पयपमाणं लक्खो एगो सहस्स चोयाला। भगवईए पयसंखा दो लक्खा सहस अडसीई / / 3 / / णायाधम्मकहंगे अद्ध चउत्थ कोडीकहाकलिए। पणलक्खा छावत्तरि सहस उवासगदसा-अंगे।। 4 / / सत्तमि लक्खिक्कारस सहस्स बावन्न अट्ठमे अंगे। अंतगडदसानामे लक्खा तेवीस चउसहसा।। 5 / / तहऽणुत्तरोववाई नवमे अंगम्मि लक्ख बायाला। अडसहसा अह दसमे पण्हावागरण नामम्मि।। 6 / / बाणवई लक्खाई सोलसहस्सा तहा विवागसुए। एक्कारसमे अंगे पयप्पमाणं इमं वुच्छं।। 7 / / एगा कोडी चुलसीई लक्खा बत्तीस सहस इय माणं। इक्कारस अंगाणं भणियमहा बारसंगम्मि।। 8 / / तं पुण दिट्ठीवाओ स पंचहा वण्णिओ य समयम्मि। परिकम्म-सुत्त-पुव्वगयऽणुओग तह चूलियाओ य।। 9 / / - लेख संग्रह 355 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्थ य पुव्वगयम्मी पढमे उप्पायनामए पूवे। कोडी एगा अहबीय अग्गेणीयम्मि पुव्वम्मि।। 10 / / छन्नउई लक्खाइं तइए वीरियपवायपुव्वम्मि। पयलक्खाइं सत्तरि अहऽत्थिनत्थिप्पवायम्मि।। 11 / / तुरिए पुव्वे सट्ठी लक्खा अह पंचमम्मि पुव्वम्मि। णाणप्पवायनामे इगकोडी एगपयहीणा।। 12 / / छटे सच्चपवाए पुव्वे इग कोडि छहिं पयहिं अहिया। आयप्पवायपुव्वे सत्तम्मि पयकोडि छव्वीसा।। 13 / / कम्मप्पवायपुव्वे अट्ठम्मि इगकोडि सहस अस्सीई। णवमे पच्चक्खाणप्पवाइ लक्खाण चुलसीई।। 14 / / विजणुपवाय दसमे पुव्वे इगकोडि दसइलक्खाई। इकारसे अवज्झे पुव्वे पयकोडि छव्वीसा।। 15 / / पाणाउनामपुव्वे बारसमे छपण लक्ख इगकोडी। किरियाविसालपुव्वे तेरसमे कोडिवगंतु / / 16 / / तह लोगबिंदुसारे चउदसमे पुव्वि बार कोडीओ। लक्खा तह पन्नासं इय सव्वग्गे पयपमाणं / / 17 / / एयं पयप्पमाणं वालसंगस्स सयसमद्दस्स। णेयमुवंगाईण वि सुयाण समयाणुसारेण / / 18 / / उप्पन्नविमलकेवलनाणेणं जिणवरेण वीरेण। परमत्थरूव अत्थो निदंसिओ सव्वसुत्ताणं / / 19 / / सुत्तं तु गणहरकयं तम्हा सव्वप्पयत्तसंजुत्ता। पणमह जिणंदवीरं भवजलहीपारमिच्छंता / / 20 / / इय नंदिसुत्त-विवरणमणुसरिऊणंग-पयपमाणमिणं / जिणगणहरोवइटुं लिहियं जिणभद्दसूरीहिं / / 21 / / // इति श्री द्वादशांगीपदप्रमाणकुलकं समाप्तम्।। छ। [अनुसंधान अंक-५२] 000 356 लेख संग्रह Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. // सर्व जिन चउतीस अतिसय वीनती॥ शत्रुजय मण्डन नाभिसुनु श्री ऋषभदेव की वीनती अपभ्रंश भाषा में की गई है। श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर में इसकी १६वीं शताब्दी की प्रति होने से यह निश्चित है कि यह अपभ्रंश रचना १६वीं शताब्दी के पूर्व की ही है। ... तीर्थंकर देव के 34 अतिशय माने गए हैं। जिसमें से चार तो उनके जन्मजात ही होते हैं। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् कर्मक्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, कर्मक्षय के 11 अतिशय माने जाते हैं और शेष 19 अतिशय केवलज्ञान प्राप्ति के बाद तीर्थंकरों की महिमा करने के लिए देवताओं द्वारा विकुर्वित किए जाते हैं। इन चौतीस अतिशयों की महिमा जैन तीर्थंकरों की महिमा के साथ प्राय:कर सभी स्थलों पर प्राप्त होती है। - अतिशय की परिभाषा करते हुए अमरसिंह ने अमरकोश में 'अत्यन्त उत्कर्ष को अतिशय' माना है और आचार्य हेमचन्द्र ने अभिधान चिन्तामणि नाममाला कोश में 'जगतोऽप्यतिशेरते तीर्थकरा एभिरित्यतिशयाः', कहकर व्युत्पत्ति प्रदान की है। हेमचन्द्र ने अभिधान चिन्तामणि नाममाला कोश में वर्गीकरण करते हुए 34 अतिशयों का वर्णन किया है। वे 34 अतिशय निम्न हैं:जन्म जात 4 अतिशय 1. शरीर - अद्भुत रूप और अद्भुत गन्ध वाला निरोगी एवं प्रस्वेदरहित होता है। . 2. श्वास - कमल के समान सुगन्धित श्वास होता है। 3. रुधिर-माँस-अविन - गाय के दूध के जैसे श्वेत होते हैं और दुर्गन्धरहित होते हैं। - '4. आहार-निहार-अदृश्य - आहार और निहार विधि अदृश्य होती है। कर्मशय से उत्पन्न 11 अतिशय 1. क्षेत्रस्थिति योजन - एक योजन प्रमाण में कोटा-कोटि देव, मनुष्य और तिर्यंच रह सकते हैं। 2. वाणी - अर्द्धमागधी भाषा में तीर्थंकर देशना देते हैं, वह भाषा देव, मनुष्य और तिर्यंचों में परिणमित हो जाती है और योजन प्रमाण श्रवण करने में आती है। 3. भामण्डल - सूर्य मण्डल से अधिक प्रभा करते हुए भामण्डल मस्तक के पीछे होता है। 4. रुजा - 125 योजन तक बीमारियाँ नहीं होती है। 5. वैर - 125 योजन तक सब जन्तुगण पारस्परिक वैर का त्याग करते हैं। 6. ईति - 125 योजन तक धानादि को उपद्रव करने वाले जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। लेख संग्रह 357 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. मारी - 125 योजन तक अकालमरण एवं औत्पातिक मरण नहीं होता है। 8. अतिवृष्टि - 125 योजन तक अतिवृष्टि नहीं होती है। 9. अवृष्टि - 125 योजन तक अवृष्टि नहीं होती है। 10. दुर्भिक्ष - 125 योजन तक दुर्भिक्ष नहीं होता है। 11. भय - 125 योजन परचक्र का भय नहीं होता है। देवकृत 19 अतिशय 1. धर्मचक्र - आकाश मे धर्मचक्र चलता है। 2. चमर - भगवान के दोनों तरफ चामर वींझते रहते हैं। 3. सिंहासन - पादपीठिकासहित स्फटिक रत्न का सिंहासन होता है। 4. छत्रत्रय - तीर्थंकर के सिर पर तीन छत्र सुशोभित होते हैं। 5. रत्नमय ध्वज - रत्नमय ध्वजा आगे चलती है। 6. स्वर्ण कमल - विहार करते हुए स्वर्ण कमलों पर पैर रखते हैं। 7. वप्रत्रय - समवसरण की रचना होती है जिसमें रजत, स्वर्ण और रत्न के तीन प्रकार ... के गढ़ होते हैं। 8. चतुर्मुखाङ्गता - समवसरण में तीर्थंकर के चार मुख होते हैं। 9. चैत्यद्रुम - अशोक वृक्ष के नीचे भगवान विराजमान होते हैं। 10. कण्टक - भगवान विहार करते हैं तो कण्टक भी अधोमुखी होते हैं। 11. द्रुमानती - विहार करने के समय वृक्ष अत्यन्त झुक जाते हैं। 12. दुंदुभीनाद - देव दुंदुभी बजाते रहते हैं। 13. वात - अनुकूल सुख प्रदान करे ऐसी वायु का संचालन होता रहता है। 14. शकुन - पक्षी भी तीन प्रदक्षिणा करते हैं। 15. गन्धाम्बुवर्त - सुगन्धित पानी की वर्षा होती है। 16. बहुवर्ण पुष्पवृष्टि - पंचवर्ण वाले फूलों की वृष्टि होती रहती है। 17. कच, श्मश्रु, नख-प्रवृद्धि - बाल, दाढ़ी, मूंछ और नखों की वृद्धि नहीं होती है। 18. अमर्त्यनिकायकोटि - तीर्थंकर की सेवा में कम से कम एक करोड़ देवता रहते हैं। 19. ऋतु - सर्वदा सुखानुकूल षड्ऋतुएँ रहती हैं। प्रस्तुत कृति में रचनाकार ने जन्मजात केवलज्ञान और देवकृत अतिशयों का विभेद नहीं किया है। साथ ही क्रम भी कुछ इधर-उधर हैं। फिर भी अपभ्रंश भाषा की यह कृति सुन्दर और सुप्रशस्त है। वीनती इस प्रकार है:358 लेख संग्रह Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभिनरिंद मल्हार, मरुदेवि माडिउ उरि रयणु। अविगतरूपु अपार, सामी सेत्रुजसई धणिय।। 1 / / सोवण वन्न सरीर, तिहुअण तारण वेडुलिय। मारि वीडारण वीर, सुणि सामी मुज्झ वीनती य।। 2 / / जिण अतिसय चउतीस, जे सिद्धतिहिं वण्णविय। ते समरउं निसि दीस, जिमउ लग लागइ भलीय।। 3 / / रोग न लागइ अंगि, रंगिइं सुरवर पइं नमइं। भमर भमइं चहु भंगि, तुह मुह परिमल मिलिय मण।। 4 / / मंस रुहिर तह वेउ, दुद्धधार जिम हुइ धवल। अंगि न लांगइ सेउ, तणु पुणु निम्मल न्हाण विणु।। 5 / / जिण आहार करंत, नवि दीसइ नीहार पुण। चउ मुह धम्मु कहंति, वाणी जोजण गामिणिय।। 6 / / समोसरणि संमाइ; कोडि संख सुरनर-तिरिय। कांटा ऊंधा थाई, फूल पगर गूडा समउ।। 7 / / एक सरीखी वाणि, पारी छई सुरनर तिरिय। सय-पणवीसपमाण, दह दिसि संकट उपसमई।। 8 / / सा तइ इंति समंति, वयरु वली जइ वइरियहं / मारिण जान मारंति, देसि दुकाल तपइ सरए।। 9 / / दीस इग पणि फुरंत, धम्मचक्क तुह जिण प्रवर। भामंडलु झलकंति, सिर पाखलि थिउ संचरए।। 10 / / परमेसर पयहेठि, सुर संचारइ नव कमल / सत्रु मित्र समदृष्टि, रयण सिंघासण बइसणु ए।। 11 / / इंद्र-धजा आकासि, अन प्रभ पाखलि त्रिन्नि गढ। 'गंधोदक वरिसंति, पुष्पवृष्टि सुरवर करई / / 12 / / त्रिन्नि प्रदक्षिण दिति, तुह पाखलि सवि पंखियहं / चिहु पखि चमर ढुलंति, चेई तरुअर वीर गुणउ।। 13 / / तरुअर अहलु ढुलंति, एव मु फरक्कइ कोमलउ। अनवाई वाजंति, दह दिसि दुंदुहि देव किय।। 14 / / कुसुम तणी परि देह, जनम लगइ परिमल बहुल। कोइ न पामइं छेह, असंख्यात जिणवर गुणहं / / 15 / / अणहूंतई इक कोडि, समोसरण सुर पामीयए। वाजिनं कोडा-कोडि, अणवाई वाजइं गयणि।। 16 / / रोम राय नह केस. व्रत लीधइ वाधइन हि य। पाप प्रमाद प्रवेसु, करइ न जिणवर सयरि खणु / / 17 / / लेख संग्रह 359 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए अतिसय चउतीस, सामी तुअ तणि सवि वसइ / मू मणि एह जगीस, जाणउ जइ तउ इउ लगउ।। 18 / / तूं माया तूं तात, तूं बांधव तूं मज्झ गुरु। तउं विणु नहीउ पाउ, सुगति पंच पंचिय जणहं / / 19 / / तउ पर परमानंद, परमपुरुष तउं परमपउ। तई मोडिय भवकंदु, तइं अणुबंधित कलपतरु।। 20 / / निय पय पंकय सेव, विमलाचलमंडण रिसह। अह निसि देजे देव, अवरु न कांई इच्छिय ए।। 21 / / // सर्व जिन चउतीस अतिसय वीनती।। [अनुसंधान अंक-५२] 000 360 लेख संग्रह Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर श्री जिनराजसूरि (प्रथम) विरचित श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् [वसन्ततिलका वृत्तम्] 'वदन' का रूपक बनाकर वसन्ततिलका वृत्त में पार्श्वनाथ भगवान की स्तवना की गई है। इसमें स्थल-स्थल पर यमक का प्रयोग एवं अन्य अलंकारों का प्रयोग किया गया है। इसकी १६वीं शताब्दी की प्रति श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर के संग्रह में प्राप्त होने से इसके प्रणेता श्री जिनराजसूरि प्रथम ही प्रतीत होते हैं। जिनराजसूरि के सम्बन्ध में इतिवृत्त जो प्राप्त होता है वह निम्न सं० 1432 फाल्गुन कृष्णा षष्ठी के दिवस अणहिलपुर (पाटण) में लोकहिताचार्य जी ने इन राजमेरु गणिवर्य को गुर्वाज्ञानुसार आचार्य पद प्रदान कर श्री जिनोदयसूरि जी का पट्टधर घोषित किया। पट्टाभिषेक पदं महोत्सव सा० कडुआ धरणा ने गच्छ के विनयप्रभोपाध्याय व जससमृद्धि महत्तरा आदि साधु-साध्वियों और आमंत्रित विशाल संघ की उपस्थिति में बड़े समारोहपूर्वक किया था। कर्मचन्द्र मंत्री वंश-प्रबन्ध के अनुसार ये दादा श्री जिनकुशलसूरि का पाटण में पट्टोत्सव एवं शत्रुजय तीर्थ पर मानतुंग विहार-खरतर वसही के निर्माता के पुत्र वील्हा-वीना देवी के पुत्र थे। कडुआ, :: धरणा और नंदा तीन भाई थे। वंश-प्रबन्ध में महोत्सव के सम्बन्ध में लिखा है - श्रीजिनराजगुरूणां लोकहिताचार्यवर्यकरमूले। सूरि-पद-कृत-नन्दी-महोत्सवो दापयामास॥ . सूरिपदोत्सव-दर्शन-समुत्सुकायात जानपदलोकान्। ___ वस्त्रादिदानपूर्वं तुतोष योदोषकृतमोघः॥ 1 // श्री गुणविनयोपाध्याय ने कर्मचंद्र मंत्रिवंश प्रबन्ध रास में भी इस प्रकार लिखा है लोकहिताचारिज करए एं, श्री जिनराज नइ पाट। दिरायउ जिणि विधइ ए, नन्दि महोत्सव थादि॥ 53 // तिणि उत्सवि जे आवीया ए, वस्त्रादिक नइ दानि। संतोष्या साहमी ए, मानी काढइ कान॥ 54 // श्री जिनराजसूरि जी सवा लाख लोक प्रमाण न्याय ग्रन्थों के अध्येता थे। आपने अपने करकमलों से सुवर्णप्रभ, भुवनरत्न और सागरचंद्र इन तीन मनीषियों को आचार्य पद प्रदान किया था। आपने सं० 1444 में चित्तौड़गढ़ पर आदिनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। श्री सागरचन्द्राचार्य ने सं० 1459 में आपके आदेश से जैसलमेर के श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय में जिन बिम्ब-स्थापना की थी नवेषुवार्थीन्दुमितेथ वत्सरे निदेशतः श्रीजिनराजसूरेः। अस्थापयन् गर्भगृहेत्र बिम्ब, मुनीश्वराः सागरचन्द्रसाराः॥ लेख संग्रह 361 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० 1444 में कैलवाड़ा मेवाड़ के मंत्री शाखा के अरजन श्रेष्ठी की पत्नी लखमिणि देवी के , अंगज रावण कुमार को मिती कार्तिक कृष्णा 12 को दीक्षित कर राज्यवर्द्धन नाम से प्रसिद्ध किया। सं० 1461 में अनशन आराधनापूर्वक देवकुल पाटक (देलवाडा) में स्वर्गवासी हए। देलवाडा के सा० नान्हक श्रावक ने आपकी भक्तिवश मर्ति बनवा कर श्री जिनवर्द्धनसरि जी से प्रतिष्ठित करवाई जो आज भी देलवाड़ा में विद्यमान है। इस मूर्ति पर निम्नलिखित लेख उत्कीर्णित है "सं० 1469 वर्षे माघ सुदि 6 दिने ऊकेशवंशे सा० सोषासन्ताने सा० सुहड़ा पुत्रेण सा० नान्हकेन पुत्र वीरमादि परिवारयुतेन श्री जिनराजसूरिमूर्तिः कारिता प्रतिष्ठिता श्री खरतरगच्छे श्री जिनवर्द्धनसूरिभिः" 1. चतुर्विंशति जिन नमस्कार स्तोत्र, स्तोत्र, संस्कृत, १५वीं, आदि-प्रथमजिनवर निखिलनरनाथ संसेवित.... गा. 25, अ., ह. रा.प्राङवि.प्र., जोधपुर 25876 2. शत्रुञ्जय वीनती, गीत स्तवन, अपभ्रंश, १५वीं, आदि-महतित्थ स@जय.... गा. 25, अ. 3. शान्तिजिन स्तवन, गीत स्तवन, राजस्थानी, १५वीं, आदि-आणंदानंद.... गा. 17, अ. प्रस्तुत है स्तोत्र: पार्श्वनाथ स्तोत्र आनन्दनं सम[सुरा]सुर-मानवानां, संजीवनं शुभधियां सुरमानवानाम्। सौभाग्यसुन्दरतया भुवनाभिरामं, श्रीपार्श्वनाथवदनं विनुवामि कामम् / / 1 / / प्रातः पदार्थपटलीविहितावतारं, पश्यन्ति यो जिनमुखं मुकुरानुकारम्। कल्याणकारणमनन्त-मनोविशुद्धि-स्तेषां भवेदिह मनोभिमतार्थसिद्धिः।। 2 / / आलोकिते तव विभो! वदने दिनेश-नैशंतिशा जगति मोहमयी विलेशे। पुण्यप्रकाशरचितेन तमो व्ययेन-सर्वर्तुसौहृदयुजा कमलोदयेन / / 3 / / सल्लोचनेषु घनतापभिदा रसालैः सारैः सुधामिव कुरन्नयनांशुजालैः। देवत्वदानसुधांशुरसौ निशान्त, आलोकि सेवकजनैः सुकृतीनकंतै।। 4 / / लावण्यकेलिलहरीललिते नवीने, वक्त्रे सुधा सरससुन्दर तावकीने। तृष्णातिरेकतरले नयने निलीये, होनन्त तापकलुषे त्यजतां मदीये।। 5 / / , विस्मेरलोचनदले कमलानिवासे, निःसीम-सौरभभरे सुगुणावभासे। दृष्टिः सतां जिनपते! वदनारविंदे, नालीयते कथममंदवचोमर दे।। 6 / / .. दूर्वकंनयनचन्दनचारुक्षिप्रं, राजद्विजालिरुचितंदुलजालदीप्रं। सन्मंगलं दिशतु पुण्यफलाधिगम्यं, जैनेश्वरं वदनमक्षतपात्ररम्यं / / 7 / / नीलोत्पलामलदलायतनेत्रमानं, सइंतभा कुसुमदामविराजमान। पुण्यश्रिया लवणिमाम्बुभृदा सुलभः, स्यान्मे शिवाय जिन ते मुखपूर्णकुंभ।। 8 / / एवं मया वदनवर्णनया विभादे, हर्षाञ्चितेन विहिता विनुतिः शुभाले। याचे दयेव जिनराज दयां निधेहि, दृष्टिं प्रसाद विशदां मयि सन्निधेहि / / 9 / / / / इति श्री पार्श्वनाथस्तोत्रं समाप्तमिति भद्रं भूयात् / / कृतिरियं श्रीजिनराजसूरिणां।। [अनुसंधान अंक-५४] ..* 100 362 लेख संग्रह Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेख संग्रह (lellt stats) म..आ.निदस्तीमाजी म.सा. लेखका महोपाध्याय श्री विनयसागरजी BHARAT GRAPHICS - Ahmedabad-1 BPh.: 079-22134176,M: 9925020106 प्रेषक: पू. आ. श्री विजयसोमचंद्रसूरिजी म. सा. 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