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________________ प्रामाणिकप्रकाण्ड रूप से उल्लेख करना, श्वेताम्बर परंपरा के अनुयायी होते हुए भी समंतभद्र, विद्यानन्द आदि दिगम्बर विद्वानों के उद्धरण नि:संकोच भाव से प्रस्तुत करना, मल्लिषेण की धार्मिक सहिष्णुता के साथ चर्चा के प्रसंग पर भी मल्लिषेण स्त्री-मुक्ति और केवलिमुक्ति जैसे दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विवादस्थ प्रश्नों के विषय में मौन रहते हैं, इससे भी प्रतीत होता है कि अन्य दिगम्बर एवं श्वेताम्बर आचार्यों की तरह मल्लिषेण को साम्प्रदायिक चर्चाओं में रस नहीं था। अनेक वृक्षों से पुष्पों को चुनने के समान, अनेक दर्शन संबंधी शास्त्रों से प्रमेयों को चुन-चुनकर, निस्सन्देह मल्लिषेणसूरि ने अकृत्रिमबहुमति स्याद्वादमंजरी नाम की माला गूंथकर जैनन्याय को समलंकृत किया है। स्याद्वादमंजरी का वर्ण्य विषय : श्लोक 1-3 में भगवान महावीर की स्तुति रूप है। इनमें उनके चार मूल अतिशयों - अनन्त विज्ञान से ज्ञानातिशय, अतीत दोष से अपायापगमातिशय, अबाध्यसिद्धान्त के वचनातिशय, अमर्त्यपूज्य से पूजातिशय सहित भगवान् के यथार्थवाद की प्ररूपणा करते हुए प्रमाण पुरस्पर उनके शासन की सर्वोत्कृष्टता प्रतिपादित की गई है। श्लोक 4-10 - इन सात श्लोकों में न्याय-वैशेषिक दर्शन के आचार्यों एवं ग्रन्थों - प्रशस्तपादभाष्य, वैशेषिक सूत्र, किरणावली, न्यायमंजरी, न्यायकन्दली, न्यायवार्तिक, न्यायसार, वात्स्यायन भाष्य, ऐतरेय आरण्यक, तैतिरीयसंहिता, छान्दोग्योपनिषद् आदि के उद्धरणों के साथ उनकी मान्यताओं गण परस्सर उनका निरसन किया गया है। उनके जिन सिद्धान्तों पर विचार किया गया है, वे हैं:- . 1. सामान्य और विशेष भिन्न पदार्थ नहीं है। 2. वस्तु को एकान्त-नित्य अथवा एकान्त-अनित्य मानना न्यायसंगत नहीं है। 3. एक, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, स्वतंत्र और नित्य ईश्वर जगत का कर्ता नहीं हो सकता। 4. धर्म-धर्मी में समवाय संबंध नहीं बन सकता। 5. सत्ता सामान्य भिन्न पदार्थ नहीं है। 6. ज्ञान आत्मा से भिन्न नहीं है। 7. आत्मा के वृद्धि आदि गुणों के नाश होने को मोक्ष नहीं कह सकते। 8. आत्मा सर्वव्यापक नहीं हो सकती। 9. छल, जाति, निग्रहस्थान आदि तत्त्व मोक्ष के कारण नहीं हो सकते। तथाक) तम अन्धकार अभावरूप नहीं है, वह आकाश की तरह स्वतन्त्र द्रव्य है और पौद्गलिक है। ख) अप्रच्युत, अनुत्पन्न और सदास्थिरत्व नित्य का लक्षण मानना ठीक नहीं। पदार्थ के स्वरूप का नाम नहीं होता। ग) किरणें गुण रूप नहीं है, उन्हें तेजस् पुद्गलरूप मानना चाहिये। घ) नैयायिकों के प्रमाण, प्रमेय आदि के लक्षण दोषपूर्ण हैं। - इसके अतिरिक्त इन श्लोकों मेंअ) जैन दृष्टि से आकाश आदि में नित्यानित्यत्व, लेख संग्रह 53
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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