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________________ "वस्तुपाल ने उदयप्रभूसरि के विद्याध्ययन के लिये, 700 योजन के विस्तार वाले इस देश के किसी भी भाग में रहे हुए समर्थ विद्वानों को बुला-बुलाकर इकट्ठे किये और इनसे उदयप्रभ का विद्याध्ययन करवाया।" उदयप्रभसूरि की निम्नांकित रचनाएं प्राप्त होती है:१. सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी (रचना सं. 1277) 2. धर्माभ्युदय महाकाव्य (रचना सं. 1277-1292) 3. उपदेशमाला टीका ‘कर्णिका' (रचना सं. 1299 धोलका, इसका संशोधन चन्द्रकुलीय कनकप्रभसूरि ने किया था) 4. आरम्भसिद्धि (ज्योतिष) [दीक्षा, प्रतिष्ठा आदि मुहूर्त के लिये श्वेताम्बर साधु समाज प्रमुखतया इसी ग्रन्थ का उपयोग करता है।] 5. वस्तुपाल स्तुति 6. नेमिनाथ चरित्र (संस्कृत) 7. कर्मस्तव टिप्पनक मल्लिषेणसूरि __ आप उदयप्रभसूरि के शिष्य थे। इन्होंने स्याद्वादमंजरी की रचना की है। इनकी इस कृति के अतिरिक्त अन्य कोई रचना प्राप्त नहीं है। ये अपने समय के मूर्धन्य विद्वान थे। इनके वैदुष्य एवं असाधारण प्रतिभा का आकलन स्याद्वादमंजरी के अध्ययन से ही किया जा सकता है। इनकी बहुमुखी प्रतिभा एवं रचना-सौष्ठव का प्रकाश डालते हुए डॉ. जगदीश चन्द्र जैन ने लिखा है: मल्लिषेणसूरि अपने समय के एक प्रतिभाशाली विद्वान थे। मल्लिषेण न्याय, व्याकरण और साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित थे। इन्होंने जैनान्याय और जैन सिद्धान्तों के गम्भीर अध्ययन करने के साथ न्यायवैशेषिक, सांख्य, पूर्वमीमांसा, वेदान्त और बौद्ध दर्शन के मौलिक ग्रन्थों का विशाल अध्ययन किया था। मल्लिषेण की विषय-वर्णन शैली सुस्पष्ट, प्रसाद गुण से युक्त और हृदयस्पर्शी है। न्याय और दर्शनशास्त्र के कठिन से कठिन विषयों को सरल और हृदयग्राही भाषा में प्रस्तुत कर पाठकों को मुग्ध करने की कला में मल्लिषेण कुशल थे। इसीलिये 'स्याद्वादमंजरी' मल्लिषेण की एकमात्र उपलब्ध रचना न्याय का ग्रन्थ कहे जाने की अपेक्षा साहित्य का एक अंश कहा जाता है। यद्यपि रत्नप्रभसूरि की 'स्याद्वादरत्नकरावतारिका' भी साहित्य के ढंग पर ही लिखी गई है। इसलिए एक ओर सम्मतितर्क, अष्टसहस्ती, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि जैनन्याय के गहन वन में से और दूसरी ओर 'स्याद्वादरत्नाकर', 'स्याद्वादरत्नाकरावतारिका' जैसी विकट और घोर अटवी में से निकलकर 'स्याद्वादमंजरी' को विश्राम करने का समस्त सुविधा युक्त आधुनिक पार्क कहा जा सकता है। यहाँ पर प्रत्येक दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धांतों का संक्षेप में सरल और स्पष्ट भाषा में वर्णन किया गया है। उपाध्याय यशोविजयजी ने 'स्याद्वादमंजरी' पर 'स्याद्वादमंजूषा' नाम की वृत्ति लिखी है। स्याद्वादमंजरी का उल्लेख माधवाचार्य ने 'सर्वदर्शन संग्रह' में किया है। मल्लिषेण हरिभद्रसूरि की कोटि के सरल-प्रकृति के उदार और मध्यस्थ विचारों के विद्वान थे। सिद्धसेन आदि जैन विद्वानों की तरह मल्लिषेण भी सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनों के समूह को 'जैनदर्शन' प्रतिपादित कर 'अन्धगजन्याय' का उपयोग करते हैं। अन्य दर्शनों के विद्वानों के लिये पशु, वृषभ आदि असभ्य शब्दों का प्रयोग न कर वैदन्तियों को सम्यग्दृष्टि, व्यास को ऋषि, कपिल को परमर्षि, उदयन को 52 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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