________________ महेन्द्रसूरि शान्तिसूरि आनन्दसूरि अमरचन्द्रसूरि हरिभद्रसूरि विजयसेनसूरि उदयप्रभसूरि इस परम्परा के सम्बन्ध में जो कुछ ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है, वह निम्न है: तत्कालीन समय में नागेन्द्रगच्छ एक प्रमुख गच्छों में से था। इस गच्छ का प्रमुख गढ़/स्थान था - अणहिल्लपुर पाटण का वनराजविहार अर्थात् पंचासर पार्श्वनाथ का मंदिर, जो अणहिल्लपुर पाटण के संस्थापक वनराज चावड़ा द्वारा निर्मित था। महेन्द्रसूरि के प्रशिष्य और शान्तिसूरि के शिष्य आनन्दसूरि और अमरचन्द्रसूरि उद्भट विद्वान थे एवं सिद्धराज जयसिंह की राज्यसभा के सम्मानित विद्वान भी। जयसिंह ने इन दोनों को क्रमश: व्याघ्रशिशुक एवं सिंहशिशुक की उपाधि दी थी। इनके द्वारा निर्मित 'सिद्धान्तार्णव ग्रन्थ' माना जाता है। डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने 'हिस्ट्री आफ मिडिवल स्कूल ऑफ इंडियन लोजिक', पृ. 47-48 में कल्पना की है कि नव्यन्याय निर्माता तार्किक गंगेशोपाध्याय ने तत्वचिन्तामणि में सिंह-व्याघ्र के व्याप्ति लक्षण में इन दो तार्किकों (आनन्दसूरि और अमरचन्द्रसूरि) का उल्लेख किया हो, ऐसा प्रतीत होता है। हरिभद्रसूरि पाटण के वनराजविहार में ही निवास करते थे। ये विशिष्ट रूप से प्रवचनपटु थे। मंत्री वस्तुपाल तेजपाल के पिता मंत्री आसराज के कुलगुरु थे। विजयसेनसूरि प्रवचनपटु एवं लेखक भी थे। इनकी 'रेवंतगिरि रासु' अपभ्रंश प्रधान गुजराती भाषा की कृति है जो गुजराती भाषा की दृष्टि से आद्यकालीन कृति के रूप में मानी जा सकती है। आसड़ कवि रचित विवेक मंजरी पर बालचन्द्रसूरि ने वि. सं. 1278 में टीका की रचना की थी। इसका संशोधन इन्होंने ही किया था। _ विजयसेनसूरि महामात्य वस्तुपाल तेजपाल के कुल के विशिष्ट धर्मगुरु थे। यही कारण है कि इन महामात्यों के प्रत्येक धर्मकार्य इन्हीं के निर्देश एवं निश्रा में सम्पन्न हुए थे। महामात्य वस्तुपाल तेजपाल कारित विश्वविख्यात् आबू के नेमिनाथ मन्दिर (लुणिगवसही) की प्रतिष्ठा वि.सं. 1287, फाल्गुन बदि 3 को इन्होंने ही की थी। इन्हीं महामात्यों द्वारा निर्मापित गिरनार तीर्थ पर नेमिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा भी वि. सं. 1288, फाल्गुन शुक्ला 10 को और स्तम्भतीर्थ आदिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा भी सं. 1281 में इन्हीं ने करवाई थी। यही कारण है कि लुणिगवसही (आबू) की हस्तिशाला में प्रथम हस्ति के पृष्ठ भाग पर 'आचार्य श्री विजयसेन का नाम अंकित है। विशेष जानकारी के लिये 'अर्बुद प्राचीन जैन लेख संदोह' के लुणिगवसही के लेख एवं 'सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यादि' वस्तुपाल प्रशस्ति संग्रह का नवम परिशिष्ट देखें। उदयप्रभसूरि भी महामात्य वस्तुपाल के परम्परागत धर्मगुरु ही थे। इनके सम्बन्ध में 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' के अन्तर्गत वस्तुपाल तेजपाल प्रबन्ध में पृष्ठ 64 पर लिखा है:लेख संग्रह 51