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________________ है। १०वें श्लोक में न्याय दर्शन की आलोचना है। श्लोक 11 तथा 12 में पूर्व मीमांसा की कड़ी आलोचना है। कर्मकाण्ड के अन्तर्गत हिंसा का जो विधान किया गया है, उसकी तीव्र आलोचना है। हिंसा चेत् धर्महेतु कथम्? धर्महेतुश्चेद्?, हिंसाकथम्? स्वपुत्रद्यातात् नृपतित्वलिप्सा!' टीकाकार मल्लिषेण व्यंग्य से कहते हैं यदि हिंसा है, तो धर्म हेतु कैसा, तथा धर्म हेतु है, तो हिंसा कैसी? क्या अपने पुत्र की हत्या करके कोई नृपत्व चाहेगा? उसी प्रकार अपौरुषेयवाद का भी उन्होंने खण्डन किया है। श्लोक 13-14 में वेदान्त की आलोचना की गई है। यदि माया है तो द्वैतसिद्धि अर्थात् माया और ब्रह्म दोनों की सत्ता सिद्ध है। यदि माया का अस्तित्व ही नहीं है, तो प्रपंच कैसा? माता भी हैं और वन्ध्या भी है, यह असम्भव है। श्लोक 15 में सांख्यदर्शन का खण्डन है। चेतन-तत्त्व और जड़प्रकृति का संयोग यदृच्छा से कैसे सम्भव है? श्लोक 16, 17, 18 और 19 में हेमचन्द्र ने बौद्ध-दर्शन की आलोचना की है। बौद्धों के क्षणिकवाद की आलोचना करते हुए आचार्य जी कहते हैं कि 1. किये गये कर्म का नाश, 2. नहीं किये हुए कर्म का फल, 3. संसार का विनाश, 4. मोक्ष का विनाश, 5. स्मरण शक्ति का भंग हो जाना इत्यादि दोषों की उपेक्षा करके जो क्षणिकवाद मानने की इच्छा कहता है वह विपक्षी बड़ा साहसी होना चाहिए। श्लोक 20 में प्रत्यक्ष प्रमाणवादी चार्वाक की आलोचना की गयी है। बिना अनुमान के हम सांप्रत-काल में भी बोल नहीं सकते। श्लोक 21 से 30 तक में हेमचन्द्र ने जैन दर्शन को प्रतिष्ठित किया है। उसमें विशेषतः सत्य का अनेक विधस्वरूप, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, सप्तभंगी, स्याद्वाद, नयवाद, आत्माओं की अनेकता का प्रतिपादन किया है। अन्त में दर्शन के व्यापकत्व के विषय में बतलाते हुए हेमचन्द्र कहते हैं कि जिस प्रकार दूसरे दर्शनों के सिद्धान्त एक दूसरे को पक्ष-प्रतिपक्ष बनाने के कारण मत्सर से भरे हुए हैं, उस प्रकार का अर्हन् मुनि का सिद्धान्त नहीं है, क्योंकि यह सारे नयों को बिना भेद-भाव के ग्रहण कर लेता है। श्लोक 31 तथा 32 में भगवान महावीर की स्तुति कर उपसंहार किया गया है। टीकाकार मल्लिषेणसूरि मल्लिषेण नामक प्रमुखतया तीन जैनाचार्यों के जैन साहित्य में उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिसमें से दो दिगम्बर विद्वान हैं और तीसरे स्याद्वादमंजरीकार मल्लिषेणसूरि श्वेताम्बर विद्वान हैं। इनके सम्बन्ध में इस ग्रन्थ की प्रशस्तिगत जानकारी के अतिरिक्त अन्य कोई ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त नहीं है। टीकाप्रशस्ति से इतना ही ज्ञात होता है कि नागेन्द्रगच्छीय श्री उदयप्रभसूरि के शिष्य मल्लिषेणसूरि ने शक संवत् 1214 वि. सं. 1349 (ई. सं. 1293) दीपमालिका के दिन श्री जिनप्रभसूरि की सहायता से चातुर्विध कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य रचित अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका पर 'स्याद्वादमञ्जरी' नामक टीका की रचना की। प्रशस्ति में नागेन्द्रगच्छीय उदयप्रभसूरि का उल्लेख होने से इनकी विश्रुत गुरु-परम्परा की विस्तृत जानकारी प्राप्त हो जाती है। उदयप्रभसूरि ने विश्वविश्रुत जैन मंदिर लूणिगवसही, आबू के निर्माता महामात्य वस्तुपाल तेजपाल के धार्मिक/सुकृत्य कृत्यों के वर्णनरूप धर्माभ्युदय महाकाव्य की 15 सर्गों में रचनी की है। महामात्य वस्तुपाल द्वारा स्वयं लिखित 1290 की ताड़पत्रीय प्रति प्राप्त होने से इसका रचना समय 1277-1290 के मध्य का है। धर्माभ्युदय काव्य की प्रशस्ति में उदयप्रभ ने अपनी जो गुरु-परम्परा दी है, वह इस प्रकार है:१. श्री जिनप्रभसूरि खरतरगच्छ की लघु शाखा के आचार्य थे। इनका समय लगभग 1326 से 1393 है। महाप्राभाविक एवं चमत्कारी तथा उद्भट्ट विद्वान थे। मुहम्मद तुगलक के प्रतिबोधक एवं गुरु थे। इनकी विविध तीर्थकल्प आदि अनेकों कृतियाँ प्राप्त हैं। इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिये मेरी पुस्तक 'शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य' देखें। लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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