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________________ "x x x जिसको गुजरात की संस्कारिता में रस हो, उसे इस महान गुजराती से प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिये।" ___ - धूमकेतु : श्री हेमचन्द्राचार्य, पृ. 7-8 (गुजराती से हिन्दी) "गुजरात के इतिहास का स्वर्णयुग, सिद्धराज जयसिंह और राजर्षि कुमारपाल का राज्य काल है। इस युग में गुजरात की राजनैतिक दृष्टि से उन्नति हुई, किन्तु इससे भी बढ़कर उन्नति संस्कार-निर्माण की दृष्टि से हुई। इसमें जैन अमात्य, महामात्य और दण्डनायकों की जो देन है, उसके मूल में महान जैनाचार्य विराजमान हैं। x x x वि. सं. 802 में अणहिल्लपुर पाटण की स्थापना से लेकर इस नगर में उत्तरोत्तर जैनाचार्यों और महामात्यों का सम्बन्ध बढ़ता ही गया था और उसी के फलस्वरूप राजा कुमारपाल के समय में जैनाचार्यों के प्रभाव की पराकाष्ठा का दिग्दर्शन आचार्य हेमचन्द्र में हुआ। x x x वे अपनी साहित्यिक साधना के आधार पर कलिकाल सर्वज्ञ के रूप में तथा कुमारपाल के समय में जैन शासन के महाप्रभावक पुरुष के रूप में इतिहास में प्रकाशमान हुए।" - दलसुख मालवणिया : गणधरवाद की प्रस्तावना, पृ. 47-48 / अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका . आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य हरिभद्र रचित द्वात्रिंशिकाओं और विंशिकाओं के अनुकरण पर आचार्य हेमचन्द्र ने भक्ति, काव्य और दर्शन का अद्भुत सामंजस्य स्थापित करते हुए, श्रमण भगवान् महावीर की स्तुति के रूप में इस अन्ययोगव्ययच्छेद द्वात्रिंशिका की रचना की है। भक्ति की दृष्टि से इस स्तोत्र का जितना महत्व है, उससे अधिक काव्य की दृष्टि से और उससे भी विशिष्ट दार्शनिक दृष्टि से है। द्वात्रिंशिका अर्थात् 32 श्लोकों की यह लघुकाव्य रचना है, जिनमें 31 श्लोक उपजाति और अन्तिम ३२वां पद्य शिखरिणी छन्द में है। इसमें अन्य विभिन्न दर्शनगत दूषणों का उल्लेख करते हुए प्रमाण पुरस्सर उनका खण्डन किया गया है। डॉ. आनन्द शंकर ध्रुव का इस द्वात्रिंशिका के सम्बन्ध में अभिमत है कि चिन्तन और भक्ति का इतना सुन्दर समन्वय इस काव्य में हुआ है कि यह दर्शन तथा काव्यकला दोनों ही दृष्टि से उत्कृष्ट कहा जा सकता है। द्वात्रिंशिका का वर्ण्य विषय ___ इसमें मुख्यतः परमतदूषण ही बताये गये हैं। प्रथम तीन श्लोकों में केवल ज्ञानी भगवान् की स्तुति करके उनके ४.अतिशय बतलाये हैं- 1. ज्ञानातिशय, 2. अपायापगमातिशय, 3. वचनातिशय और 4. पूजातिशय। इसमें ज्ञान के साथ चरित्र का भी महत्व बतलाया गया है। 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' बतलाकर आचार्य ने यथार्थवाद को प्रतिष्ठित किया है। जैन दर्शन अनन्त रूपों से सत्य का दर्शन कराता हुआ यथार्थवाद पर प्रतिष्ठित है। इसके श्लोक 4 से 9 तक में वैशेषिक दर्शन की आलोचना की गई है। सामान्य-विशेष का सिद्धान्त प्रतिपादित कर एक ही सत्य के भिन्न-भिन्न अवस्था स्वरूप बताये हैं। इस जगत का कोई कर्ता है, वह एक है, सर्वव्यापी है, स्वतन्त्र है, नित्य है. - जिन नैयायिकों की इस प्रकार की दुराग्रहरूपी विडम्बनाएँ हैं, हे जिनेन्द्र! तुम उनके उपदेशक नहीं हो। नित्य-अनित्य स्याद्वाद के ही रूप हैं। इस प्रकार हेमचन्द्र के मत से वैशेषिक दर्शन में भी अनेकान्तवाद स्थित है। चित्ररूप भी एक रूप का ही प्रकार है। ईश्वर शासक भले ही हो सकता है, किन्तु निर्माता नहीं। हेमचन्द्र ने समवायवृत्ति की आलोचना की और सत्ता, चैतन्य एवं आत्मा का भी खण्डन किया है। उन्होंने विभुत्व की भी आलोचना की है। उनके अनुसार आत्मा सावयव और परिणामी है, वह समय-समय पर बदलती रहती लेख संग्रह 49
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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