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________________ ब) पंतजलि, प्रशस्तपादकार और बौद्धों के अनुसार वस्तुओं का नित्यानित्यत्व। स) अनित्यैकान्तवादी बौद्धों के क्षणिकवाद में दूषण, ड) वैदिकसंहिता, स्मृति आदि के वाक्यों में पूर्वापरविरोध, तथा ह) केवलिसमुद्घात अवस्था में जैनसिद्धांत के अनुसार आत्म-व्यापकता की संगति का प्ररूपण किया गया है। श्लोक 11-12 - इन दो पद्यों में पूर्व मीमांसकों द्वारा मान्य मीमांसा-श्लोकवार्तिक, जैमिनीसूत्र आश्वलायन गृह्यसूत्र, छादोग्योपनिषद्, याज्ञवल्क्यादि स्मृतियाँ आदि के उदाहरण देते हुए, उनके निम्न सिद्धान्तों ऊहापोह करते हुए सप्रमाण निरसन किया गया है:१. वेदों में प्रतिपादित हिंसा धर्म का कारण नहीं हो सकती। 2. श्राद्ध करने से पितरों की तृप्ति नहीं होती। 3. अपौरुषेय वेद को प्रमाण नहीं मान सकते। 4. ज्ञान को स्वपरप्रकाशक न मानने से अनेक दूषण आते हैं, इसलिये ज्ञान को स्व और पर का प्रकाशक मानना चाहिये। इसके अतिरिक्त इन श्लोकों मेंक) जिनमंदिर के निर्माण करने का विधान, ख) सांख्य, वेदान्त और व्यास ऋषि द्वारा याज्ञिक हिंसा का विरोध तथा ग) ज्ञान को अनुव्यवसायगम्य बनाने वाले न्याय-वैशेषिकों का खंडन किया गया है। . श्लोक 13- इसमें ऋग्वेद, ईशावास्योपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद्, मीमांसा-श्लोकवार्तिक आदि उद्धरणों के आलोक में ब्रह्माद्वैतवादियों के मायावाद का खण्डन किया गया है। श्लोक 14 - इस पद्य में दिङ्नाग, अशोक, वाक्यपदीय, आचारांग आदि के उद्धरणों के साथ एकान्त सामान्य और एकान्त-विशेष वाच्य-वाचक भाव का निराकरण करते हुए कथंचित् सामान्य और कथंचित् विशेष वाच्यवाचक भाव का समर्थन किया है। इस पद्य में निम्न महत्वपूर्ण विषय भी प्रतिपादित किये हैं:१. केवल द्रव्यास्तिकनय अथवा संग्रहनय को मानने वाले अद्वैतवादी, सांख्य और मीमांसकों का सामान्यैकान्तवाद मानना युक्तियुक्त नहीं है। 2. केवल पर्यायास्तिकनय को मानने वाले बौद्धों का विशेषैकान्तवाद ठीक नहीं है। 3. केवल नैगमनय को स्वीकार करने वाले न्याय-वैशेषिकों का स्वतन्त्र और परम्पर निरपेक्ष सामान्य विशेषवाद मानना ठीक नहीं है। तथाक) शब्द आकाश का गुण नहीं है, वह पौद्गलिक है, और सामान्य विशेष दोनों रूप है। ख) आत्मा भी कदाचित् पौद्गलिक है। ग) अपोह, सामान्य अथवा विधि को शब्दार्थ नहीं मान सकते। ___ श्लोक 15 - इसमें सांख्यकारिका, सांख्यतत्त्वकौमुदी, वादमहार्णव आदि के आलोक में सांख्यदर्शन की निम्नांकित मान्यताओं की सम्यक् प्रकार से समीक्षा की गई है:- .. 54 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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