________________ जैन शासन अमात्य राक्षस के बुलाने पर क्षपणक वहां जाता है और कहता है कि- मोहरूपी व्याधि को नाश करने वाला जैन अरिहन्ताणं का शासन अंगीकार करो, जो प्रारंभ में शारीरिक कष्टादि कटु लगते हैं। पश्चात् हितकारक-मोक्षदायक, आत्मतत्त्व का उपदेश देकर शीघु ही भवपिण्ड से छुड़ा देते हैं। इसके पश्चात् कहता है कि - 'हे श्राद्ध! धर्मलाभ हो।' यही नहीं आगे चलकर नाटक के पंचम अंक में सिद्धार्थ के सन्मुख वह कहता है-'अरिहन्ताणं को प्रणाम करो', जो अपनी असाधारण (केवलज्ञानरूपी) बुद्धि से इस लोक में श्रेष्ठ मोक्षमार्ग का साधन करते हैं।' क्षपणक के इस प्रकार कहने पर सिद्धार्थ कहता है- हे भगवन् ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। इस पर जीवसिद्धि उत्तर देता है- 'हे श्रावक! तुम्हें धर्मलाभ हो' (धम्मलाहो! सावका भोदु), और इसी अंक में भागुरायण के समक्ष भी आशीर्वादात्मक वाक्य में आपके धर्म की वृद्धि हो'(सावण्णं धम्मविही भोदु) ऐसा कहता है। इस प्रसंग में 'अलिहन्ताणं' शब्द विचारणीय है। इसका प्रयोग ऊपर दो बार हुआ है। एक स्थल पर 'सासणं-अलिहन्ताणं' और दूसरे स्थल पर 'अलिहन्ताणं पणमामो'। संस्कृत में एक अर्हत्' शब्द है जो बौद्धधर्म में भी प्रचलित है और महात्मा बुद्ध के नामों में गिना जाता हैं / बौद्ध ग्रन्थों में अरहतो' भी प्राप्त होता है, यथा- 'नमो भगवतो अरहतो समासंबुद्धस्स'। परन्तु अरिहन्ताणं या अलिहन्ताणं जैन मागधी (प्राकृत) में ही होता है। इसके अतिरिक्त मुद्राराक्षस में इसके जो दो प्रयोग मिलते हैं, उनमें प्रथम स्थान पर तो 'शासन' शब्द के साथ में प्रयुक्त होने से 'जैनशासन' के द्योतक के रूप में ही यह ग्राह्य हो सकता है, क्योंकि 'शासन' शब्द विशेषतया जैन संघ से ही सम्बन्ध रखता है। इसके अतिरिक्त स्वयं 'अरिहन्ताणं' शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार करने से भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते है। साधारणतया 'अरिहन्त' शब्द को 'अर्हत' शब्द का पर्यायवाची मान लिया जाता है, जिसका प्रयोग जैन और बौद्ध दोनों धर्मों में समानरूप से होता है। परन्तु भाषाविज्ञान की दृष्टि से 'अरिहन्त' और अर्हत् शब्द पृथक् पृथक् हैं, जैसा कि अनेक जैन ग्रन्थों में भी मिलता है। पंचमांग श्री भगवती सूत्र के टीकाकार श्रीमद् अभयदेवसूरि ने अरिहन्ताणं शब्द पर विचार करते हुए निम्नलिखित विभिन्न शब्दों के एकीकरण की ओर संकेत किया है: 1. अरहन्त - अर्हद्भयः, अमरवरविनिर्मिताऽशोकादि-महाप्रातिहार्यरूपा पूजां अर्हन्तीति अर्हन्तः। यदाह अरहन्ति वंदण-नमंसणाणि, अरहंति पूअसक्कार। सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण वुच्चंति॥ श्रेष्ठ देवताओं द्वारा निर्मित अष्टमहाप्रातिहार्य* पूजा को प्राप्त हो। वन्दन, नमस्कार, पूजा, सत्कार और मोक्ष-गमन प्राप्त करें, उसको अरहन्त कहते हैं। 2. अ-रह-न्तः - (अ) विद्यमानं, (रहः ) एकान्तरूपो देशः, (अन्तर् ) अन्तश्च मध्यं गिरिगहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तस्तोम-गतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां ते अरहोन्तरः, अतस्तेभ्यो अरहोन्तर्ध्यः। * अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः, दिव्यध्वनि सनमासनं च। भामण्डलं दुन्दुभिमातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् // लेख संग्रह