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________________ (अ) विद्यमान है, (रहः) एकान्तरूप देश का भी, (अन्तर्) मध्य जिनको, उनको अरहोन्तः कहते हैं, क्योंकि सर्ववेदी होने के कारण उनके ज्ञान से विश्व के कोई भी पदार्थ प्रच्छन्न नहीं हैं। . 3. अरथान्तः - (अ) अविद्यमानो, (रथः) स्यन्दनः- सकल परिग्रहोपलक्षणभूतः। (अंतः) च विनाशो जराद्युपलक्षणभूतो येषां ते अरथान्तः। (अ) नहीं विद्यमान है (रथः) परिग्रह और (अन्तर) जराजन्म-मृत्यु जिनके, उन्हें अरथान्त: कहते हैं। 4. अरहन्तः - 'अरहंताणं त्ति' क्वचिदपि आसक्तिं अगच्छद्भयः क्षीणरागत्वात्। क्षीणराग होने के कारण जिनकी किसी भी स्थान पर आसक्ति न हो, उन्हें अरहंत कहते हैं। 5. अरहयत् - 'अरहयद्भयः' प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञे तरविषयसंपर्केपि वीतरागत्वादिकं स्वं स्वभावं अत्यजद्भयः। विशेष राग का कारणभूत यदि मनोज्ञ विषय हो तो भी, अथवा विपरीत विषय हो तो भी, अपने वीतराग- (राग द्वेष परिहार) भाव को नहीं छोड़ने वाले अरहयत् कहलाते हैं। 6. अरिहन्त - अरिहन्ताणं त्ति पाठान्तरं, तत्र कर्मारिहन्तृभ्यः। आह चअट्टविहंपि अ कम्मं, अरिभूयं होइ सव्वजीवाणं। तं कम्मं अरिहंता, अरिहन्ता तेण वुच्चंति॥ [अष्टविद्यमपि च कर्म, अरिभूतं भवति सजीवानाम्। तत् कर्मारीन्वन्तः अरिहन्ता तेण उच्यते ] कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करने वाले अरिहन्त कहाते हैं / जो आठ* प्रकार के कर्म सर्वजीवों के लिये शत्रुतुल्य हैं, उन्हें नष्ट करने वाले को अरिहन्त कहते हैं। 7. अरु हन्तः - अरुहंताणं इत्यपि पाठान्तरं, तत्रारोहयद्भयः- अनुपजायमानेभ्यः क्षीणकर्मबीजत्वात्। आह च दग्धे बीजे यथात्यन्ते, प्रादुर्भवति नाङ्करः। कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः॥ __ कर्मोत्पादक बीज को पूर्णतया नष्ट कर दिया है, जिससे पुनः कर्म उत्पन्न नहीं हो सकते, अरुहन्तः कहते हैं। जिस प्रकार बीज के जलने पर अंकुर पैदा नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मबीज के नष्ट हो जाने पर पुनः संसार में भ्रमण कराने वाला कर्म उत्पन्न नहीं होता है। - संभवतः प्रारंभ में ये विभिन्न शब्द किसी पूज्य सिद्ध पुरुष के विभिन्न गुणों को प्रकट करने के लिये प्रयुक्त होते होंगे, परन्तु कालान्तर में इन सब में 'अर्हत्' शब्द के साथ ध्वनिसाम्य और अर्थ सादृश्य होने के कारण इन सब का अर्हत् के साथ में एकीकरण कर दिया गया और संस्कृत में इन सब के स्थान पर केवल अर्हत् ही शब्द रह गया। उक्त शब्दों में अरिहन्त' शब्द नि:संदेह अरिहन् से निकला हुआ है, जैसा कि उक्त टीकाकार ने कहा है, और जैसा कि कल्पसूत्र की व्याख्या में भी कहा है:* 1. ज्ञान-वरणीय, 2. दर्शनावरणीय, 3. मोहनीय, 4. वेदनीय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र, और 8. अंतराय ये आठ कर्म कहलाते हैं। लेख संग्रह 31
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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