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________________ 'अरहन्ताणं त्ति, अर्हद्भयस्त्रिभुवन पूजायोग्येभ्यः। कर्मवैरिदहनात् अरिहन्ताणं / ' तीनों लोकों में पूजनीय पुरुष को अरहन्त कहते हैं। और कर्मशत्रु को नाश करने से अरिहन्त कहते हैं। जैनों के प्राचीनतमग्रन्थ भगवती सूत्र से लेकर आज तक जैन साहित्य में यह शब्द प्रचुरता से पाया जाता है। इसके अतिरिक्त सभी जैन सम्प्रदायों के प्रतिक्रमण सूत्रों (जो कि तीर्थंकरों के समय से ही श्रुतिपरंपरागत चले आये हैं) में इस शब्द की उपस्थिति, इस शब्द की प्राचीनता को सिद्ध करती है और उसे जैन शासन की एक विशेषता होना प्रमाणित करती है। इसके अतिरिक्त इस शब्द के पूर्व 'मोहवाहिवेजाणं' (मोहराज की कर्मरूपी सेनात्मक व्याधि को नाश करने में निपुण वैद्य के सदृश) विशेषण भी जैन ग्रन्थों में बहुलता से पाया जाता है। ___ नाटक में शासन के लिये प्रयुक्त 'पढममात्तकडुअं' विशेषण भी जैन शासन से ही अधिक साम्यता रखता है, क्योंकि जैनों में प्रारम्भ से ही इन्द्रियदमन, आत्मशोधनार्थ बाह्यशारीरिक कष्ट, तपस्या, लोचन-व्रतादि कष्टदायक उपाय हैं, जो प्रारंभ में कटु लगते हैं, किन्तु अन्त में शीघ्र ही आत्मशुद्धि करवाकर केवलज्ञान के अधिकारी बना देते हैं। इसीलिये जैन मुनियों के आत्मशुद्ध्यर्थ पद-पद पर महान् कष्टपूर्ण नियम रखे गये हैं। जीवसिद्धि के कथन में 'बुद्धीए' शब्द पर टीका करते हुए व्याख्याकार श्री कनकलाल ठक्कुर ने लिखा है कि: 'बुद्धे :- मत्यादिपञ्चात्मक ज्ञानस्य (तन्मते मतिश्रुतावधिमन:- पर्यवकेवलमेति पञ्चानां . ज्ञानत्वाभ्युपगमात्)' -मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनपर्यवज्ञान, केवलज्ञान रूपी, बुद्धि के द्वारा इसमें जो मत्यादि पंचज्ञानों का उल्लेख किया है, वह भी जैन-परंपरा की ओर संकेत कर रहा है, क्योंकि जैन शासन इन मति आदि पंच ज्ञानों को ही मानता है एवं समग्रशास्त्रों में इन्हीं का उल्लेख मिलता है। इन्हीं ज्ञानों के ऊपर ही अनेकों ग्रन्थ प्राप्त हैं। बौद्धधर्म न तो इन पांचों ज्ञानों को ही मानता है और न उनके ग्रन्थों में इस प्रकार के नाम ही मिलते हैं। अतः इससे प्रकट है कि नाटककार ने जीवसिद्धि के नग्नत्व या शासन आदि शब्दों के प्रयोग द्वारा ही जैन वातावरण उत्पन्न किया है, अपितु जैन मनोविज्ञान के पारिभाषिक शब्दों को भी अपनाया है। श्रावक शब्द भी भक्त-उपासक के अर्थ में बौद्धग्रन्थों में प्राय: कहीं नहीं मिलता है और जैनों के समग्र शास्त्रों में भक्तों के विशेषण के लिये श्रावक या श्राद्ध शब्द ही सब जबह प्राप्त होता है। श्रावक' जैनियों का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है: __ 'धर्म शृणोतीति श्रावकः' धर्म सुनकर सम्यग् दर्शनरत्न प्राप्त करने की योग्यता रखे उसे श्रावक कहते हैं। इस शब्द का जैन-शासन से सम्बन्ध रखना, इस बात से भी प्रकट है कि इसी श्रावक शब्द का अपभ्रंश होने से सराक और सरावगी नाम केवल एक जाति के जैनों में ही मिलता है। जैसा कि ऊपर कह चुके है, जीवसिद्धि श्रावकों को सदा जैन मुनियों की भांति ही आशीर्वाद के रूप में धर्मलाभ या धर्मवृद्धि ही कहता है। जैन मुनि इस 'धर्मलाभ' शब्द के अतिरिक्त और कोई आशीर्वादात्मक शब्द उच्चारण नहीं करते हैं और दूसरे संप्रदाय के साधु इस शब्द का व्यवहार नहीं करते। 32 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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