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________________ जैन समाज अब यहां पर विचारने की बात यह है कि मंत्रि चाणक्य जैसे बुद्धिमान कूटनीतिज्ञ ने गर्हित चरकार्य में जैन साधु को ही क्यों प्रयुक्त किया? दूसरे संप्रदाय के साधु को इसमें क्यों नहीं नियुक्त किया? और सारे नाटक में उपयुक्त जैन वातावरण को उत्पन्न करने की क्या आवश्यकता है? इस पर गंभीर दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि उस समय मगधदेश में सर्वत्र जैनधर्म व्यापकरूप में था, जैन साधुओं का आदर-सत्कार विशेष था। उनके प्रति सब जनता का विश्वास भी प्रगाढ़ था और उनका सर्वत्र आवागमन रहता था। चाणक्य जानता था कि जैन साधुओं पर जनता का अधिक विश्वास होने के कारण उसके द्वारा कार्य शीघ्र सिद्ध होगा। इस सम्बन्ध में जैन साहित्य से तो यह स्पष्टतथा ज्ञात होता ही है कि मगध जैनों का प्रमुख केन्द्र था। सम्राट बिम्बिसार (श्रेणिक) से लेकर भूपाल सम्प्रति पर्यन्त सभी राजा नयायी थे. केवल अशोक ने पीछे धर्म परिवर्तन कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। यही नहीं. जैन परंपरा के अनुसार तो महाराज नन्द एवं उनके मंत्री शकडाल और राक्षस, भूपति चन्द्रगुप्त तथा अमात्य चाणक्य भी जैन थे और उस समय जैन धर्म ही सार्वजनिक धर्म था। अतः संभवतः कवि विशाखदत्त ने स्वयं शैवधर्मानुयायी होने के कारण महाराज चन्द्रगुप्त और चाणक्य को नाटक में जैन नहीं माना। परन्तु साथ ही तत्कालीन समाज का चित्रण करते समय वह उसमें से परंपरागत जैन वातावरण को नहीं निकाल सका। [तित्थयर, वर्ष 30, अंक 11] 000 लेख संग्रह 33
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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