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________________ मुद्राराक्षस की सामाजिक पीठिका में जैन तत्त्व महाकवि विशाखदत्त प्रणीत मुद्राराक्षस नामक नाटक में क्षपणक जीवसिद्धि नामक पात्र अमात्य चाणक्य द्वारा चररूप में प्रयुक्त दूतकार्य को सम्पन्न करता है। उसको आधुनिक विद्वद्वन्द बौद्धधर्मीय संन्यासी मानते हैं, किन्तु पात्रविषयक वर्णन का सम्यक् आलोडन करने पर एवं उसकी वेशभूषा, रहनसहन और दार्शनिकता आदि का विचार करने पर न केवल पात्र जीवसिद्धि क्षपणक जैन साधु सिद्ध होता है, अपितु सारे नाटक की पृष्ठभूमि ही जैन प्रतीत होती है। जीवसिद्धि विष्णुशर्मा नामक एक ब्राह्मण अमात्य चाणक्य का सहपाठी और मित्र था, शुक्राचार्य के नीति शास्त्र में और 64 अंगवाले ज्योतिष शास्त्र में बहुत ही प्रवीण था, जिसको चाणक्य ने 'इससे विशेष प्रयोजन सिद्ध होगा' ऐसा विचार कर नन्दवध की प्रतिज्ञा के पश्चात् ही क्षपणक वेषधारण करवाकर कुसुमपुर ले जाकर, नन्दराजा के समग्र अमात्यों के साथ में मैत्री-संबन्ध स्थापित करा दिया था। मन्त्रीमण्डल में भी अमात्य राक्षस का उस पर अत्यधिक विश्वास उत्पन्न हो गया था। . जैन वेष . चाणक्य के कार्य सिद्ध्यर्थ एवं सौहार्द को दृढ़ करने के ध्येय से विष्णु शर्मा ने क्षपणक जैन साधु का वेषधारण किया और स्वनाम को परिवर्तित कर जीवसिद्धि नाम रखा। एकबार वह नाटक में ज्योतिषी के रूप में भी आता है। जिस समय अमात्य राक्षस अपने पक्ष की सर्व सैन्यसामग्री को पूर्ण देखकर चन्द्रगुप्त से युद्ध करने के लिये प्रस्थान मूहूर्त दर्शनार्थ ज्योतिषी को बुलाने की इच्छा से प्रतिहारी को बुलाकर पूछता है कि प्रतिहार-स्थल पर कौनसा ज्योतिषी है? द्वारपाल बाहर जाकर द्वार-स्थान को देखकर पुनः आकर कहता है कि 'हे अमात्य! द्वार पर 'क्षपणक' जीवसिद्धि नामक ज्योतिषी है।' यह सुनकर राक्षस अपने हृदय में सोचता है कि प्रारंभ में ही अमंगल-कारक क्षपणक दर्शन मिला और अंत में प्रतिहारी को आज्ञा देता है कि 'उसको अबीभत्स वेष वाला करके यहां उपस्थित करो (अबीभत्सदर्शनं कृत्वा प्रवेशय) यहां प्रथम तो 'क्षपणक' शब्द ही जैन का द्योतक है। जैन ग्रन्थों में कर्मों के नाश के लिये 'क्षपण' या उपशम' का प्रयोग पाया जाता है। जैन साधुओं का व्रत धारण करने का उद्देश्य ही क्षपकश्रेणी पर आरूढ होकर कर्मों का क्षपण करना होता है, अत: कर्मों का जो क्षपण करता है, वही साधु क्षपणक हो सकता है। कर्म प्रकृति विषयक ग्रन्थों में 'क्षपणकसार' नामक ग्रन्थ भी मिलता है जो कि जैनों का एक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। और, संभवतः क्षपणक शब्द बौद्धधर्म में संन्यासियों के लिये नहीं आता है। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि जैन साधु सर्वदा नग्न जैसे ही रहा करते हैं। इसमें अबीभत्सदर्शनं कृत्वा प्रवेशय' वाक्य स्पष्टतया नग्नत्व के जैसे सूचित कर रहा है। लेख संग्रह 29
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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