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________________ "हे त्रिभुवन में कल्पवृक्ष के समान स्वामी आपकी जय हो, धन्वंतरि रूप जिन आपकी जय हो। त्रिभुवन के कल्याण कोष आपकी जय हो, दुरित रूपी हाथी के लिए सिंह के समान आपकी जय हो। जिनकी आज्ञा तीनों लोकों के मनुष्य नहीं लाँघ सकते ऐसे त्रिभुवन के स्वामी स्थंभनक नामक नगर में रहने वाले पार्श्वजिनेश्वर हमें सुखी करो।" कई प्रसिद्ध स्तोत्रों के चरणों को लेकर उनकी पादपूर्ति करते हुए स्तोत्रों की रचना भी जैन स्तोत्रकारों ने प्रभूत मात्रा में की है। भक्ताभर स्तोत्र के चतुर्थ चरण की पादपूर्ति श्री धर्मवर्द्धनगणि ने वीर भक्तामर स्तोत्र में तथा श्री भावंप्रभसूरि ने नेमिभक्तामर स्तोत्र में की है। दोनों से एक-एक श्लोक उद्धृत किया जाता है। भक्तामर स्तोत्र का प्रथम श्लोक है - भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणा मुद्योतकं दलितपापतमोवितानम्। सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्। इसके चतुर्थ चरण की पादपूर्ति देखियेराज्यर्द्धिवृद्धिभवनाद् भवने पितृभ्यां श्रीवर्धमान इति नाम कृतं कृतिभ्याम्। यस्याद्य शासनमिदं वरवर्ति भूमा वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्॥ -वीरभक्तामर भक्तामर! त्वदुपसेवन एव राजी मत्यां ममोत्कमनसो दृढ़तापनुत् त्वम्। पद्माकरो वसुकलोवसुखोऽसुखार्ता वालम्बनं भव जले पततां जनानाम्॥ __-नेमि भक्तामर जैन धर्मानुशासन में पूर्ण आस्था रखते हुए भी जैन स्तोत्रकारों ने अन्य देवताओं की स्तुति की है। सरस्वती का स्तवन तो अनेक कवियों ने किया है। जिनवल्लभसूरि.तथा जिनप्रभसूरि के भारती स्तोत्र इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। जैन स्तोत्रों के अनेक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ये विविध प्रकार के हैं और संख्या में हजारों हैं इसलिए लेख-विस्तार भय से थोड़ी सी झाँकी करा के ही सन्तोष करना पड़ता है। [श्री जैन श्वेतांबर पंचायती मंदिर, कलकत्ता] 28 'लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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