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________________ जैन-स्तोत्रों में उनके रचयिताओं ने केवल उनकी स्तुति मात्र ही की हो ऐसी बात नहीं है। कहीं वे इष्टदेव को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके विग्रह का वर्णन करने लगते हैं, कहीं जैनधर्म के सिद्धांतों की विवेचना करने लगते हैं, कहीं इष्टदेव के गुणकीर्तन के साथ पाण्डित्यप्रदर्शन भी उनका उद्देश्य बन जाता है और कहीं वे काव्य के क्षेत्र में नवीन प्रयोग करने लगते हैं। जिन भगवान् के मुख और नेत्रों की शोभा का जिनशतक में श्री जम्बू गुरु ने इस प्रकार वर्णन किया है - अम्लानं मौलिमालोल्ललितकपिलरुग्धूलिलुब्धालिजालं व्यालोलारालकालालकममलकलालांछनं यद्विलोक्य। लेखाली लालितालं प्रबलबलकुलोन्मूलिना शैलराजे पन्ना लीलया वो दलयतु कलिलं लोलट्टक्तंजिनास्यम्॥ सुदीर्घ-समासों के प्रयोग से भाषा अवश्य जटिल हो गई है किन्तु भाव की दृष्टि से स्थल बड़ा सुन्दर है। अनेक छन्दों में 24 तीर्थंकरों की स्तुति के उदाहरण देखिये जिनमें छन्द का नाम भी श्लोक में आया है। रचयिता का नाम है - भुवनहिताचार्य - द्रुतविलम्बित गीतिरसोलस च्चरणसंचरणाति मनोहरम्॥ सुरगिरौ सुमतेजिनमजने विदधिरे विबुधा नवनर्त्तनम्॥ तथा - 'श्रेयो लक्ष्मी वितरतु स वः शीतलस्तीर्थनाथो, .. यस्मिन्गर्भे स्थितवति करस्पर्शमात्रेण मातुः। दाहोत्साहा जनकंवपुषोऽगुः क्रियं वा मृगेन्द्र : मन्दाक्रान्ता अपि किमु मृगा न म्रियन्ते क्षणेन॥ जैन स्तोत्रकारों ने प्राकृत, अपभ्रंश और यहाँ तक कि फारसी भाषा में भी स्तोत्र रचना की है। प्राकृत भाषा के स्तोत्रों में महाकवि धमपाल के ऋषभपंचाशिका' नामक स्तोत्र उल्लेखनीय है। उदाहरण के लिए कुछ पद्य देखिये - . . तुह रूवं पेच्छंता न हुंतिं जे नाह हरिसपडिहत्था। समणावि गयमणच्चिअ ते केवलिणो जइ न हुति॥ भमियो कालमणंतं भवम्मि भीओ न नाहं दुक्खाणम्। दिट्टे तुमम्मि संपइ जायं च भयं पलायं च॥ "आपके रूप को देखकर जो हर्ष से परिपूर्ण न होते हों वे यदि केवली न हों तो समनस्क होते हुए भी गतमनस्क के समान हैं। भ्रान्तियुक्त काल चाहे अनन्त हो, हे नाथ! मुझे दुःखों का भय नहीं है। आपको देखकर आप में विश्वास उत्पन्न हो गया है और भय दूर हो गया है।" अपभ्रंश भाषा के अभयदेवसूरि कृत जयतिहुअण स्तोत्र का एक रोला छंद देखिए - जय तिहुअण वर कप्परूक्ख, जय जिण धन्नंतरि जय तिहुअण-कल्लाण-कोस दुरिअक्करि केसरि।। तिहुअण-जण अवलंघि आण भुवणित्तयसामिअ, कुणुसु सुहाइ जिणेस पास थंभणय-पुर-ट्ठिअ॥ लेख संग्रह 3
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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