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________________ त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकितं। साक्षाद् येन मथा स्वयं करतले रेखात्रयं सांगुलि। रागद्वेषभयामयान्तकजरालोलत्वलोभादयो नालं यत्पदलंघनाय स महादेवो मया वन्द्यते॥ यो विश्वं वेदविद्यं जननजलनिधे गिनः पारदृश्वा पौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलंकं यदीयम्। तं वन्दे साधुवंद्यं सकलगुणनिधिं ध्वस्तदोषद्विषं तं बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा॥ "जिसके भवरूपी बीज के अंकुरों को उत्पन्न करने वाले रागादि क्षय हो गए उसे, चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शंकर हो अथवा जिन हो मेरा नमस्कार है। चाहे किसी समय, किसी भी अवस्था में, किसी भी नाम से आप प्रख्यात हों यदि दोष रूपी कलंक से मुक्त हो तो हे भगवन् आपको नमस्कार है। जिसे जीवन की गति से परे स्थित लोक सहित तीनों लोक अँगुलियों सहित हथेली की तीन रेखाओं के समान साक्षात् दिखाई देते हैं, जिसे तीनों काल साक्षात् दृश्यमान हैं, जिसके पद का उल्लंघन करने में राग, द्वेष, रोग, काल, जरा, चपलता, लोभ आदि कोई भी समर्थ नहीं है, ऐसे महादेव को मैं वन्दना करता हूँ। जो जानने योग्य विश्व को जानता है, जिसने जन्म-उत्पत्ति रूपी समुद्र की भंगिमाओं को पार कर लिया है, जिनके वचन पूर्वापर अविरुद्ध, अनुपम और कलंक रहित हैं, जो साधु पुरुषों को वन्दनीय हैं, सकल गुणों के भंडार हैं, दोष रूपी शत्रु जिसने नष्ट कर दिये हैं, ऐसे बुद्ध हों, वर्द्धमान हों, कमलदल पर निवास करने वाले विष्णु हों या शिव हों मैं उनकी वन्दना करता हूँ।" ____ इस प्रकार का स्वस्थ दृष्टिकोण बहुत कम लोगों का दिखाई पड़ता है / हेमचन्द्राचार्य के जिन-जिन बातों के लिए हम ऋणी हैं उनमें उनका एक यह सजग दृष्टिकोण भी है। इसके उपरान्त भी जैन धर्म पर उनकी श्रद्धा अटल थी। यह बात उनके महावीर स्वामी स्तोत्र के इन श्लोकों से ज्ञात होती है - इमां समक्षं प्रतिपक्षसाक्षिणामुदारघोषामवघोषणां ब्रुवे। न वीतरागात्परमस्ति दैवतं न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थिते॥ न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु॥ यथावदाप्तात् परीक्षयाच्च त्वामेव वीरप्रभुमाश्रिताः स्मः॥ "प्रतिपक्षी लोगों के सामने बलपूर्वक घोषणा करके मैं करता हूँ कि जगत् में वीतराग से बढ़कर कोई देव नहीं है और अनेकान्त (स्याद्वाद) धर्म के अतिरिक्त कोई तत्व नहीं है। हे वीर! केवल श्रद्धांध होने से ही तुझमें हमारा पक्षपात नहीं है तथा केवल द्वेषमात्र से ही दूसरों में अरुचि हो ऐसी बात भी नहीं है, किन्तु परीक्षापूर्वक यथातथ्य आप्त जानकर ही आपका आश्रय लिया है।" महाकवि विल्हण का श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र भी भाषा-प्रवाह अलंकारों के सहज, स्वाभाविक प्रयोग व भावगांभीर्य सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट है। एक श्लोक उदाहरण के लिए पर्याप्त होगा - कुवलयवनीलश्चारुबिभ्रत् स्वभावं, नवनयघनशैलः पौरुषाद् भ्रष्टभावम्॥ वितरतु मम तानि श्रीजिनेन्दुः सुखानि, प्रियचतुरमितानि श्रीजिनेन्दुः मुखानि॥ - लेख संग्रह 26
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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