________________ के लिए अपेक्षित विनय की उपलब्धि कल्याणमन्दिर स्तोत्र में भक्तामरस्तोत्र से भी अधिक होती है। सिद्धसेन-दिवाकर ने इसकी रचना संसार-सागर में निमज्जित होने वाले जीवों के लिए पोत के समान आश्रय देने वाले जिनेश्वर का स्तवन करने के लिए की है। यद्यपि इस कार्य को वे बालक द्वारा अपनी भुजा फैला कर समुद्र का विस्तार बतलाने के समान मानते हैं - अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य। बालोऽपि किं न निज बाहुयुगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः॥ विनय का इससे अधिक प्रदर्शन क्या हो सकता है? हेमसिंहासन पर विराजमान पार्श्वनाथ सुमेरु पर्वत पर छाये हुए नवीन मेघखण्ड के समान दिखाई पड़ रहे हैं। उनकी गम्भीर गिरा से मयूर मेघदर्शन के समान ही उत्कंठित होकर उन्हें देख रहे हैं - श्यामं गभीरगिरिमुज्ज्वल हेमरत्नं सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम्। आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चै श्चामीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम्॥ वे पार्श्वनाथ को विश्व के विकास के लिए ज्ञान की स्फुरणा का हेतु मानते हैं। संसार-सागर की सारी विपत्तियाँ इष्टदेव का नाम श्रवण करते ही दूर हो जाती हैं। इष्टदेव की उदारता व स्तोता की विनयशीलता को वयंजित करने वाले दो श्लोक देखिये - त्वं नाथ दुःखिजनवत्सल हे शरण्य कारुण्य-पुण्य-वसते! वशिनां वरेण्य। भक्त्या न ते मयि महेश! दयां विधाय दुःखांकुरोद्दलन तत्परतां विधेहि॥ देवेन्द्रवन्ध-विदिताखिलवस्तुसार संसारतारकविभो! भुवनाधिनाथ। त्रायस्व देव! करुणाहृद मां पुनीहि सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः॥ "हे दुखियों का पालन करने वाले, शरणदाता स्वामी, करुणा की पुण्य निवासभूमि, वीतरागों द्वारा वरणीय, भक्तिपूर्वक नमन करने वाले मुझ पर दया करके मेरे दु:खों का नाश करने की तत्परता धारण करो। हे देवेन्द्रों द्वारा वन्दनीय, सारी वस्तुओं के तत्व को जानने वाले, संसारतारक, व्यापक, भुवनों के स्वामी, करुणा के सरोवर, भयकारी दुःखों के समुद्र में दुःख पाने वाले मुझे बचाओ तथा पवित्र करो।" जैन स्तोत्रों में सबसे अधिक संख्या पार्श्वनाथ से सम्बन्धित स्तोत्रों की है। लगभग इतने ही स्तोत्र 24 तीर्थङ्करों की सम्मिलित स्तुति के लिए लिखे गए हैं / महावीर स्वामी और ऋषभदेव के स्तोत्र संख्या में उनसे कम हैं और शेष तीर्थङ्करों से सम्बन्धित स्तोत्र और भी कम हैं। अन्य प्रसिद्ध स्तोत्रकार हैंहेमचन्द्राचार्य, धनपाल, धनंजय, महाकवि विल्हण, भूपाल कवि, वादिराज, शोभन मुनि, जिनवल्लभसूरि, भद्रबाहुस्वामी, सोमप्रभाचार्य, जिनप्रभसूरि, वादिराज, जम्बूगुरु, मेरुतुंगसूरि, सोमसुन्दरसूरि आदि। . स्तोत्र रचना करते समय हेमचन्द्राचार्य की दृष्टि समन्वयवाद की ओर रही है। वे इष्टदेव की महत्ता नाम से नहीं विशेषताओं से अंकित करते हैं। आचार्य द्वारा रचित वीतराग स्तोत्र-महादेव स्तोत्र में महादेव के गुणों की विवेचना हुई है। उन गुणों से समुपेत कोई भी देवता हो वही आचार्य का इष्टदेव है। कुछ थोक देखिये - भव बीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै॥ यत्र-तत्र समये यथा-यथा योसि सोऽस्यभिधया यया तया। वीतदोषकलुषः स चेद्भवानेक एव भगवन्नमो स्तुते॥ लेख संग्रह 25