________________ अपने श्रद्धा-प्रसून अर्हत् को अर्पित किए हैं। जैन स्तोत्रकारों में आचार्य मानतुंगसूरि तथा सिद्धसेन दिवाकर का विशेष स्थान है। मानतुंगाचार्य कृत भक्तामरस्तोत्र जैन स्तोत्र साहित्य का शीर्षभूत तथा जैन भक्तों का कंठहार कहा जा सकता है। किंवदन्ती है कि राजा भोज ने एक बार मानतुंगाचार्य को बन्दी बना लिया और यउनसे चमत्कार प्रदर्शित करने को कहा। कहा जाता है कि आचार्य ने भक्तिप्रणत होकर भक्तामर स्तोत्र की रचना की और उसके प्रत्येक श्लोक के साथ बन्दीगृह के ताले एक-एक करके झड़ गए और इस श्लोक के साथ अन्तिम ताला व हथकड़ियाँ बेड़ियाँ भी टूट कर गिर गईं - ___ आपाद कण्ठमुरु शृङ्खल वेष्टितांगाः गाढं बृहन्निगड़कोटि निघृष्टजङ्घाः। त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति॥ "हे दयालो! जिनका शरीर पाँव से लेकर गले तक बड़ी-बड़ी साँकलों से जकड़ा हुआ है तथा बड़ी-बड़ी बेड़ियों की नाक से जिनकी जंघाएँ अत्यन्त छिल गई हैं ऐसे मनुष्य भी आपके नामरूपी मन्त्र का स्मरण करके तत्काल ही बन्धन के भय से छूट जाते हैं अर्थात् बन्धन मुक्त हो जाते हैं।" जैन-समाज में इस स्तोत्र का पठन-पाठन महान् चमत्कारिक मान कर ही होता है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से भी इसका महत्व कम नहीं है। विविध देवताओं से अभिन्न, उनकी विभूतियों से समन्वित जिन भगवान की स्तुति मानतुंगाचार्य कितने प्रसन्न-गम्भीर स्वर में करते हैं - बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात् त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात्। धाताऽसि धीर! शिवमार्गविधेर्विधानात् व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि॥ तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ!तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय। तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि शोषणाय॥ "देवताओं द्वारा पूजित बुद्धिज्ञान के कारण बुद्ध तुम्हीं हो। तीनों लोकों का मंगल करने के कारण शंकर तुम्ही हो, मंगलमार्ग की विधि का विधान करने वाले विधाता तुम्हीं हो। हे भगवन् ! व्यक्त पुरुषोत्तम भी आप ही हैं। तीनों लोकों की विपत्ति दूर करने वाले हे स्वामी, आपको मैं प्रणाम करता हूँ। पृथ्वीतल के विशुद्धमंडन स्वरूप आपको प्रणाम! तीनों लोगों के परमेश्वर! आपको प्रणाम तथा हे संसार-सागर का शोषण करने वाले जिन आपको प्रणाम!" भगवान् अर्हत् के शिवपद और उनके मार्ग पर आचार्यश्री को पूर्ण आस्था है - त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात्। त्वामेव सभ्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः॥ "मुनि लोग तुमको परमपुरुष, आदित्यवर्ण, विशुद्ध और अन्धकार से परे बतलाते हैं। तुमको भली प्रकार से प्राप्त करके मनुष्य मृत्यु को जीत लेते हैं। तुम्हारे अतिरिक्त हे मुनि श्रेष्ठ! कोई शिव अपना शिवपद का मार्ग नहीं है।" आचार्य ने अपने काव्य की प्रेरणा भी जिन भगवान् की भक्ति को ही स्वीकार किया है - अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्! यत् कोकिलः किल मद्यौ मधुरं विरौति तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः॥ सिद्धसेन-दिवाकर का कल्याणमन्दिर-स्तोत्र भी जैन समाज में भक्तामरस्तोत्र की तरह ही समादरणीय रहा है। साहित्यिक दृष्टि से भी वह जैन स्तोत्र साहित्य-माला का अनुपम मणिं है। भक्त-हृदय 24 लेख संग्रह