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________________ निन्दसि यज्ञविधे रहहश्रुतिजातम्, सदय हृदय दर्शित पशुधातम्, केशव धृतबुद्ध शरीर, जय जय देव हरे। - "अहा, आप यज्ञ का विधान करने वाली श्रुतियों की निन्दा करते है, क्योंकि हे करुणावतार, आपने धर्म के नाम होने वाली पशुवध की कठोरता दिखाई है। इसलिए हे बुद्ध शरीर धारण करने वाले केशव आपकी जय हो।" ___यद्यपि स्वयं बुद्ध ने भी ईश्वर की उपासना का कोई उपदेश नहीं दिया और न स्वयं को ही कोई अवतारी पुरुष बताया, तथापि उनके जीवन-काल में ही लोग उन्हें देवतुल्य आदर-सत्कार प्रदान करते थे। उनके निर्वाण के बाद त्रिरत्न वन्दना के रूप में उनकी पहली पूजा प्रारम्भ हुई। इस त्रिरत्न-वन्दना में हमें भक्ति का दर्शन भी होता है बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्म सरणं गच्छामि, संघं सरणं गच्छामि। इसके बाद तो बौद्धों ने ही नहीं, अबौद्धों ने भी बुद्ध को दिव्यस्वरूप से उपेत स्वीकार कर लिया। महाकवि अश्वघोष ने अपने 'सौन्दरनन्द' व 'बुद्धचरित' महाकाव्यों में बुद्धचरित महाकाव्यों में बुद्ध को इसी रूप में उपस्थित किया है। बुद्ध की वन्दना करते हुए वे कहते हैं - . श्रियः परार्या विदधद् विधातृजित् तमो निरस्यन्नभिभूतभानुभृत्। नुदन्निदाधं जित-चारु-चन्द्रमाः स वन्द्यतेऽर्हनिह यस्य नोपमा॥ "जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ श्री की सृष्टि करते हुए विधाता को जीत लिया, लोगों के अन्त:करण के अन्धकार को दूर करते हुए सूर्य को परास्त कर दिया, भवताप को हरते हुए आकाशस्थ चन्द्रमा की चारुता को पराजित कर दिया, उन सर्वपूज्य बुद्ध की मैं वन्दना करता हूँ, जिनकी इहलोक में कोई उपमा नहीं है।" आगे चलकर बौद्ध-धर्म हीनयान, महायान, वज्रयान, योगाचार आदि मत-मतान्तरों में विभाजित हो गया। स्तोत्र-रचना करके बुद्ध का स्तवन बराबर किया जाता रहा। महायान-प्रस्थान के स्तोत्र सबसे अधिक भक्ति से ओतप्रोत हैं। जैन स्तोत्र साहित्य जैन स्तोत्र साहित्य परिमाण व भाव दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। जैन दर्शन के अनुसार तीर्थंकर मुक्त जीव थे, जिन्हें अर्हत् की स्थिति प्राप्त हो गई थी। उनकी उपासना बद्धजीवों को मुक्तावस्था का पथप्रदर्शित करेगी, ऐसा सोचकर ही उनकी अर्चना की जाने लगी। कहा गया है - मोक्षमार्गस्य नेतारं भेतारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातानां विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये // अर्थात् मोक्ष प्राप्ति नेता (हितोपदेशी), कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाले (वीतराग) और विश्व के तत्वों को जानने वाले (सर्वज्ञ) आप्त (अर्हत्) की भक्ति उन्हीं के गुणों को पाने के लिए करता हूँ। __उक्त कथन से तीर्थङ्करों की भक्ति का रहस्य जाना जा सकता है। ये सभी तीर्थंकर वीतराग थे, इसलिए जैन धर्मावलम्बियों को नीराग (वीतराग) ईश्वर के उपासक माना गया है। जैनाचार्यों ने स्तोत्रों द्वारा लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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