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________________ विना यस्य ध्यानं व्रजति पशुतां सूकरमुखां विना यस्य ज्ञानं जनिमृतिभयं पापि जनता विना यस्य स्मृत्या कृमिशतजनिं याति स विभुः शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षि विषयः। उसी तल्लीनता में वे गंगा की स्तुति भी करते हैंअलकानन्दे परमानन्दे कुरु मयि करुणां कातर वन्द्ये तव तट निकटे यस्य निवासः खलु वैकुण्ठे तस्य निवासः। भक्तिरस के आनन्द को शंकराचार्य वाणी से अवर्ण्य मानते हैं। वे इस बात को देवी की स्तुति करते हुए इस प्रकार कहते हैं- .. घृत-क्षीर-द्राक्षा-मधु-मधुरिमा कैरपि पदैविशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्र विषयः। तथा ते सौन्दर्यं परमशिवदडमात्र विषयः कथंकार ब्रूमः सकल निगमागोचर गुणे॥ इसी तरह वल्लभाचार्य ने भी भक्तिनत होकर अनेक स्तोत्रों की रचना की है। यमुनाष्टक के कुछ श्लोक देखिये - नमामि यमुनामहं सकल सिद्धि हेतुं मुदा मुरारि पदपंकज स्फरदमन्दरेणूत्कराम्। तटस्थ नवकाननं प्रकट मोद पुष्पाम्बुना सुरासुरसुपूजितस्मरपितुः श्रियं बिभ्रतीम्॥ कलिन्द गिरिमस्तके पतदमन्दपूरोज्वला विलासगमनोललसत्प्रकट गण्ड शैलोन्नता। सघोषगतिदन्तुरा समधिरूढ़दोलोत्तमा, मुकुन्दरतिवर्धिनी जयति पद्मबन्धोः सुत। रामानुजाचार्य, तुलसीदास आदि के स्तोत्र भी भक्तिरस से ओतप्रोत और साथ ही साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं / जयदेव का गीतगोविन्द तो मधुररस की सुन्दर पुष्करिणी है जिसमें अद्यतन अनेक भक्तलोग अवगाहन किया करते हैं। इसी स्तोत्र-परम्परा में हिन्दी भक्त-कवियों के पद भी आते हैं। भक्ति से आप्लावित पद रचनाकारों में विद्यापति, सूरदास, मीराँ, रहीम, तुलसीदास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। बौद्ध कवियों ने भी प्रभूत स्तोत्र-रचना की है। आर्य सत्यों का उद्घाटन करके दुःखदलन करने वाले महात्मा बुद्ध शीघ्र ही देवत्व की विशिष्टताओं से समुपेत हो गए और उनको भक्तिपूर्वक भावप्रसून अर्पित किये जाने लगे। बौद्ध धर्म मूलतः आचार प्रधान धर्म है। भगवान् बुद्ध ने 'आचारः परमोधर्मः' की उद्घोषणा करके सर्वप्रथम आचार को जीवन की सबसे अधिक महत्वपूर्ण वस्तु बतलाया था। बौद्ध धर्म का इससे अधिक सरल व स्पष्ट रूप क्या हो सकता है? - सब्ब पापस्स अकरणं कुसलस्स उपसंपदा। सचित्तपरियोदपनं एतं बुद्धानं सासनम् // 'सब प्रकार के पापों से बचना, पुण्यों का संचय करना तथा अपने चित्त को विशुद्ध रचना' (धम्म पद) - यही बुद्ध की शिक्षा है। वैष्णव कवि जयदेव ने गीतगोविन्द में विष्णु के अवतार के रूप में बुद्ध की स्तुति इस प्रकार की है - 22 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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