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________________ ही जा सकता है कि उनमें कुछ प्रसंग उपस्थित करके बरबस स्तोत्रों को मोतियों की लड़ी के समान ग्रथित किया गया है। स्तोत्रों का भाषाप्रवाह, सहज अनुभूति का व्यक्तिकरण, स्तोता का विनय-प्रदर्शन, इष्टदेव की उदारता का संकीर्तन सर्वथा श्लाघनीय व माननीय है। इन स्थलों का भक्तजनों में सबसे अधिक समादर है और कतिपय पुराण व उनके प्रसंग विशेषों की प्रसिद्धि का रहस्य तो कम से कम यही है। श्री मद्भागवत का दशम स्कन्ध इसीलिए सर्वप्रिय है। यहाँ तक कि यह भी कहा जा सकता है कि वह अतिशय न होगा कि सारे पुराणों में केवल उनके स्तवन ही जन-काव्य के स्तर तक पहुँच पाते हैं। - भाषा और भाव दोनों दृष्टिकोणों से उत्कृष्ट श्रीमद्भागवत का प्रह्लाद कृत भगवत्स्तुति का यह प्रसंग पौराणिक स्तोत्र-परम्परा पर प्रकाश डालता है। क्वाहं रजः प्रभवईश तमोऽधिकेऽस्मिञ्जातः सुरेतरकुले व तवानुकम्पा। न ब्रह्मणो न तु भवस्य न वै रमाया यन्मेऽर्पितः शिरसि पद्मकरः प्रसादः॥ नैषा परावरमतिर्भवतो ननु स्याजन्तो यथाऽऽत्मसुहृदो जगतस्तथापि। संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसादः सेवानुरूप मुदयो न परावरत्वम्॥ एवं जनं निपतितं प्रभवाहि कूपे कामाभिकाममनु यः प्रपतन् प्रसंगात्। कृत्वाऽऽत्मसात् सुरषिंणा भगवन् गृहीतः सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम्॥ लौकिक साहित्य में इस स्तोत्र-परम्परा का और भी विकास हुआ। संस्कृत साहित्य के सभी महाकाव्यों में स्तुतियाँ मिलती हैं। प्रसंग से अलग करने पर भी उनमें भाव सम्बन्धी कोई त्रुटि नहीं आ पाती। कुमारसंभव के द्वितीय सर्ग के ये श्लोक पौराणिक शैली का प्रसन्न-माधुर्य उपस्थित करते हैं: - उद्घात प्रणवो यासां न्यायैस्त्रिभिरुदीरिणम्। कर्मयज्ञ फलं स्वर्गस्तांसां त्वं प्रभवो गिराम्॥ त्वामामनन्ति प्रकृतिं पुरुषार्थ प्रवर्तिनीम्। तद्दर्शिनमुदासीनं त्वामेव पुरुषं विदुः॥ त्वं पितणामपि पिता देवानामपि देवता। परमोऽपि परश्चापि विधाता वेधसामपि॥ त्वमेव हव्यं होता च भोज्यं भोक्ता च शाश्वतः। त्वं वेद्यं वेदिता चासि ध्याता ध्येयं च यत्परम्॥ - इस प्रकार के स्तोत्र-रत्न महाकाव्यों में ही जड़े हुए हों, ऐसी बात नहीं है; स्वतन्त्र रूप में भी स्तोत्र रचना हुई है। भक्त कवियों ने अनेक अष्टकों, चतुर्दशकों, चत्वारिंशकों, शतकों आदि की रचना करके अपने-अपने इष्टदेवों की श्रद्धापूर्वक अर्चना की है। स्तोत्रकारों में बाणभट्ट, मुरारि, शंकराचार्य, यामुनाचार्य, वल्लभाचार्य, जगद्धर भट्ट, पंडितराज जगन्नाथ आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। बाणभट्ट ने चण्डी शतक में भगवती चण्डी की स्तुति की है। मुरारि ने सूर्यशतक की रचना की है। 'आलविन्दार स्तोत्र' कृष्णभक्तों में सबसे अधिक प्रचलित हैं। पंडितराज ने 'गंगालहरी' की रचना की है। ये रचनाएँ माधुर्य व प्रवाह दोनों दृष्टियों से अन्यतम हैं। शंकराचार्य और वल्लभाचार्य के अनेक स्तोत्र मिलते हैं। शंकराचार्य जब जिस देवता की स्तुति करते हैं, उसकी भक्ति में तल्लीन हो जाते हैं। यह तल्लीनता ही उनके स्तोत्रों के महत्व का प्रमुख कारण है। वे कृष्ण की स्तुति करते हैं - लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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