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________________ प्रतिष्ठापक, साहित्य सर्जक और युगप्रर्वतक आचार्य थे। तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ 39 की टिप्पणी के अनुसार उनके आचार्य शिष्यों की नामावली दी गई है। तदनुसार मुनिसुन्दरसूरि, जयसुन्दरसूरि, भुवनसुन्दरसूरि, जिनसुन्दरसूरि, जिनकीर्तिसूरि, विशालराजसूरि, रत्नशेखरसूरि, उदयनन्दीसूरि, लक्ष्मीसागरसूरि, सोमदेवसूरि, रत्नमण्डनसूरि, शुभरत्नसूरि, सोमजयसूरि आदि आचार्यों के नाम प्राप्त होते हैं। तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ 65 के अनुसार इनका साधु समुदाय 1800 शिष्यों का था। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय के प्रौढ़ एवं दिग्गज आचार्यों में इनकी गणना की जाती थी। श्री हीरविजयसूरिजी के समय में भी इतने आचार्यों के नाम प्राप्त नहीं होते हैं। साधु समुदाय अधिक हो सकता है। वर्तमान अर्थात् २०वीं शताब्दी के आचार्यों में सूरि सम्राट श्री विजयनेमिसूरि का नाम लिया जा सकता है। जिनके शिष्यवृन्दों में दशाधिक आचार्य थे। समुदाय की दृष्टि से तुलना नहीं की जा सकती है। वर्ण्य-विषय कवि प्रथम पद्य में नाभि नरेश्वर नन्दन को नमस्कार कर राणिगपुर निवासी प्राग्वाट वंशीय धरणागर का नाम लेता है और उनके गुरु तपागच्छनायक श्री सोमसुन्दरसूरि को स्मरण करता है। . उनकी देशना को सुनकर संघपति धरणागर ने आचार्य से वीनति की कि आपकी आज्ञा हो तो में चतुर्मुख जिन मन्दिर का निर्माण करवाना चाहता हूँ। आचार्य की स्वीकृति प्राप्त होने पर संघपति ने ज्योतिषियों को बुलाया और उनके आदेशानुसार संवत् 1495 माघ सुदि 10 को इसका शिलान्यास/खाद .. मुहूर्त करवाया। मन्दिर की 460 गज की विशालता को ध्यान में रखकर गजपीठ का निर्माण करवाया . गया। (पद्य 1-6) भविजनों के आने-जाने के लिए मन्दिर के चारों दिशाओं में चार दरवाजे बनवाए। पीठ के ऊपर देवछन्द बनवाया और चारों दिशाओं में सिंहासन स्थापित किए। चारों दिशाओं में 41 अंगुल प्रमाण की ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित की और संवत् 1498 फाल्गुन बहुल पंचमी के दिन श्री सोमसुन्दरसूरिजी से प्रतिष्ठा करवाई। (पद्य 7-9) चारों शाश्वत जिनेश्वरों की प्रतिमाएँ विमलाचल, रायणरूंख, सम्मेतशिखर, अष्टापद गिरि और नन्दीश्वरद्वीप की रचना कर 72 बिम्ब स्थापित किए। दूसरी भूमि में देवछन्द और मूल गम्भारों में उतनी ही प्रतिमाएं स्थापित की। यहाँ 31 अंगुल की मूर्तियाँ थी। चारों दिशाओं और विदिशाओं में आदिनाथ भगवान की मूर्तियाँ स्थापित की गई। तृतीय भूमि अर्थात् तीसरी मंजिल पर इक्कीस अंगुल की प्रतिमाएँ विराजमान की गईं और मूर्तियों का पाषाण मम्माणी पाषाण ही रहा। तृतीय मंजिल के शिखर पर 36 गज का शिखर बनाया गया। 11 गज का कलश स्थापित किया गया और लम्बी ध्वजपताका पर घंघरुओं की घटियाँ लगार्ट गई। (10-15) सोलवें वस्तु छन्द में पद्याङ्क 7 से 15 सारांश दिया गया है। यह मन्दिर चहुमुख है। स्तम्भों की तोरणी कलात्मक है। मण्डप में तीन चौवीसियों की स्थापना की गई है। मन्दिर की शोभा इन्द्रविमान के समान है। 46 पूतलियाँ लगाई गई हैं। अन्य देशों के यात्री संघ आते हैं, स्नात्र महोत्सव करते हैं और प्रसन्न होते हैं। मेघ मण्डप दर्शनीय है। तीन मंजिलों पर तीर्थंकरों ने यहाँ अवतार लिया 262 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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