________________ हो इस प्रकार का यहाँ प्रतीत होता है। मन्दिर में भेरी, भुंगर, निशाण आदि की प्रतिध्वनि गूंजती रहती है। गंधर्व लोग गीत-गान करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मन्दिर के सन्मुख बारह देवलोक की गणना ही क्या है? (पद्य 17-21) - उत्तर दिशा में अष्टापद की रचना की गई है। नालिमण्डप है, जहाँ सहस्रकूट गिरिराज की प्रतिमाओं का स्थापन किया गया है। दक्षिण दिशा में नन्दीश्वर और सम्मेतशिखर की रचना की गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह धरणविहार महीमण्डल का सिणगार है और विन्ध्याचल के समान है। विदिशा में 4 विहार बनाए गए हैं। पहला विहार अजितनाथ और सीमन्धरस्वामी से सुशोभित है जिसका निर्माण चम्पागर ने करवाया। दसरा विहार महादे ने करवाया है जहाँ शान्तिनाथ और नेमिनाथ विद्यमान हैं। तीसरा विहार खम्भात के श्रीसंघ ने करवाया जिसमें पार्श्वनाथ प्रमुख है। चौथा महावीर का विहार तोल्हाशाह ने बनवाया है। इन लोगों ने अपनी लक्ष्मी का लाभ लिया है। ऐसा मालूम होता है कि तारणगढ़ (तारङ्गा), गिरनार, थंभण और सांचोर जो पञ्चतीर्थी के नाम से प्रसिद्ध है वे यहाँ आकर विराजमान हो गए हों। चारों दिशाओं आठ प्रतिमाएँ हैं जो 33 अंगुल परिमाण की हैं। मन्दिर में 96 देहरियाँ हैं। 116 मूल जिनबिम्ब हैं। मण्डप 20 हैं। 368 प्रतिमाएँ हैं। चार चौकियाँ हैं। शिखरबद्ध हैं। 1500 स्तम्भ हैं। 564 पूतलियाँ हैं। देवविमान के समान शोभित हो रहा है और राय एवं राणा यह सोचते हैं कि यह किसी देव का ही काम हो इसलिए राणा इसे त्रिभुवन दीपक कहते हैं। पीछे की शाल शोभायमान है। कंगुरों से शोभित है। समवसरण, चारसाल के ऊपर गजसिंहल है। इस मन्दिर में साठ चतुर्मुख शाश्वत बिम्ब हैं। धरणागर सेठ ने अति रमणीय मन्दिर राणकपुर में बनवाया है और बड़े महोत्सव के साथ दानव, मानव और देवता पूजा करते हैं। (पद्य 22-30) - ३१वें पद्य में कवि अपना परिचय देता हुआ कहता है कि पण्डित विशालमूर्ति ने तपागच्छ नायक युगप्रवर श्री सोमसुन्दरसूरि के चरणों की प्रतिदिन सेवा करता है और इस धरणविहार का भक्ति से स्मरण करता है। इसका स्मरण करने से शाश्वत सुख प्राप्त होते हैं। भाषा छन्द आदि , यह रचना अपभ्रंश मिश्रित मरुगुर्जर में लिखी गई है। वस्तुछन्द आदि प्राचीन छन्दों का प्रयोग किया गया है। ठवणी और भाषा किस छन्द के नाम हैं, ज्ञात नहीं? पद्य 5-6 में धरणिन्द के स्थान पर धरणिग ही समझें। विशेष मेरे द्वारा लिखित कुलपाक तीर्थ माणिक्यदेव ऋषभदेव नामक पुस्तक में लेखांक 11 से यह तो प्रमाणित है कि सोमसुन्दरसूरि के प्रमुख भक्त श्रेष्ठी गुणराज ने संवत् 1481 में कुलपाकतीर्थ की यात्रा की थी। इस लेख में धरणिक का नाम आता है। यह धरणिक राणकपुर मन्दिर के निर्माता थे या गुणराज के पुर्वज थे यह स्पष्ट नहीं होता। लेखांक १०अ में भी गुणराज, सहसराज का नाम आता है। लेखांक ७ब के अनुसार सोमसुन्दरसूरि के शिष्य भुवनसुन्दरसूरि, ज्ञानरत्नगणि, सुधाहर्षगणि, विजयसंयमगणि, राज्यवर्धनगणि, चारित्रराजगणि, रत्नप्रभगणि, तीर्थशेखरगणि, विवेकशेखरगणि, वीरकलशगणि और साध्वी विजयमती गणिनी संवेगमाला आदि के खंडित शिलालेख प्राप्त होते हैं। लेख संग्रह 263