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________________ 2. आत्मा, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि सम्पूर्ण द्रव्यों में नाना अपेक्षाओं से नाना धर्म रहते हैं, अतएव प्रत्येक वस्तु को अनन्तधर्मात्मक मानना चाहिये। जो वस्तु अनन्तधर्मात्मक नहीं होती, वह वस्तु सत् भी नहीं होती। प्रमाणवाक्य और नयवाक्य से वस्तु में अनन्त धर्मों की सिद्धि होती है। प्रमाणवाक्य को सकलादेश और नयवाक्य को विकलादेव कहते हैं। पदार्थ के धर्मों का काल, आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार गुणिदेश, संसर्ग और शब्द की अपेक्षा अभेदरूप कथन करना सकलादेश तथा काल, आत्मरूप आदि की भेदविवक्षा से पदार्थों के धर्मों का प्रतिपादन करना विकलादेश है। स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्तिअवक्तव्य, स्यान्नास्तिअवक्तव्य, और स्यादस्तिनास्तिअवक्तव्य के भेद से सकलादेश और विकलादेश प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी के सात सात भेदों में विभक्त है। . 4. स्याद्वादियों के मत में स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा वस्तु में अस्तित्व और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा नास्तित्व है। जिस अपेक्षा से वस्तु में अस्तित्व है, उसी अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व नहीं है। अतएव सप्तभंगी नय में विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव नामक दोष नहीं आ सकते। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा वस्तु नित्य, सामान्य, अवाच्य, और सत् है, तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा विशेष, वाच्य और असत् है / अतएव नित्यानित्यवाद, सामान्यविशेषवाद, अभिलाप्यानभिलाप्यवाद तथा सदसद्वाद इन चारों वादों का स्याद्वाद में समावेश हो जाता है। 6. नयरूप समस्त एकांतवादों का समन्वय करने वाला स्याद्वाद का सिद्धान्त ही सर्वमान्य हो सकता है। 7. भावभाव, द्वैताद्वैत, नित्यानित्य आदि एकांतवादों में सुख-दुःख, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं बनती। 8. वस्तु के अनन्त धर्मों में से एक समय में किसी एक धर्म की अपेक्षा लेकर वस्तु के प्रतिपादन करने को नय कहते हैं। इसलिये जितने तरह के वचन होते हैं, उतने ही नय हो सकते हैं। नय के एक से लेकर संख्यात् भेद तक हो सकते हैं। सामान्य से नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत से सात भेद किये जाते हैं। न्याय-वैशेषिक केवल नैगमनय के, अद्वैतवादी और सांख्य केवल संग्रहन के, चार्वाक केवल व्यवहार नय के, बौद्ध केवल ऋतुसूत्र नय के, और वैयाकरण केवल शब्दनय के मानने वाले हैं। प्रमाण सम्पूर्ण नय रूप होता है। नयवाक्यों में स्यात् शब्द लगाकर बोलने को प्रमाण कहते हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण के दो भेद होते हैं। 9. जितने जीव व्यवहार राशि से मोक्ष जाते हैं, उतने ही जीव अनादि निगोद की अव्यवहार राशि से निकलकर व्यवहार राशि में आ जाते हैं, और यह अव्यवहार राशि आदिरचित है, इसलिये जीवों के सतत मोक्ष जाते रहने पर भी संसार जीवों से कभी खाली नहीं हो सकता। 10. पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीवत्व की सिद्धि। 11. प्रत्येक दर्शन नयवाद से गर्भित होता है। जिस समय नय रूप दर्शन परस्पर निरपेक्ष भाव से वस्तु का प्रतिपादन करते हैं, उस समय ये दर्शन परसमय कहे जाते हैं। जिस प्रकार सम्पूर्ण नदियाँ एक समुद्र में जाकर मिलती हैं, उसी तरह अनेकांत दर्शन में सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनों का समन्वय होता है, इसलिये जैनदर्शन स्वसमय है। लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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