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________________ श्लोक 30-32 - इन तीनों पद्यों में श्रमण भगवान् महावीर की स्तुति का उपसंहार करते हुए कहा है कि उनके द्वारा प्ररूपित अनेकान्तवाद/स्याद्वाद के माध्यम से ही विश्व का उद्धार/कल्याण हो सकता है और समदर्शी बनकर विश्वबन्धुत्व की भावना को उजागर किया जा सकता है। स्याद्वादमंजरी का प्रचार और उपयोगिता : प्रत्येक दर्शन के वैशिष्ट्यपूर्ण सिद्धान्तों का एवं अनेकान्त का संक्षेप में सरल होते हुए भी प्राञ्जल और स्पष्ट भाषा में वर्णन होने से इसका प्रचार-प्रसार अत्यधिक हुआ। आज भी श्वेताम्बर विद्वान एवं साधुगण न्याय-शास्त्र का अध्ययन करने के लिये प्रारम्भ में तर्कसंग्रह या प्रमाणनयतत्वालोकालंकार का अध्ययन करने के पश्चात् स्याद्वादमंजरी का ही अध्ययन करते हैं। इसके अध्ययन से न्याय-दर्शन में ही नहीं, अपितु अध्येता जैन-दर्शन का भी ज्ञाता बन जाता है। स्याद्वादमंजरी न केवल अन्य दर्शनों के दूषणों का ही दिग्दर्शन कराती है, अपितु अनेकान्तवाद के आलोक में यथार्थस्वरूप को ग्रहण करने की प्रेरणा भी प्रदान करती है, जिससे ऊहापोह एकपक्षीय न रहकर तटस्थ भाव जागृत कर देता है। इसका यह उपादेयता/महत्ता आज के युग में सर्वग्राह्य बन सकती है, किन्तु आवश्यकता है मल्लिषेण की दृष्टि के प्रचार-प्रसार की। आज के युग में इस ग्रन्थ की उपादेयता क्यों है? इसका अंकन करने हए डॉ. आत्रेय ठीक ही लिखते हैं:. मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि इस पुस्तक का प्रचार खूब हो, और विशेषतः उन लोगों में हो जो जैनधर्मावलम्बी नहीं हैं। सत्य और उच्च भाव और विचार किसी एक जाति या मज़हब वालों की वस्तु नहीं हैं। इन पर मनुष्य मात्र का अधिकार है। मनुष्य मात्र को अनेकान्तवादी, स्याद्वादी और अहिंसावादी होने की आवश्यकता है। केवल दार्शनिक क्षेत्र में ही नहीं, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में, विशेषतः इस समय जबकि समस्त भूमण्डल की सभ्यता का एकीकरण हो रहा हो और सब देशों, जातियों और मतों के लोगों का सम्पर्क दिन पर दिन अधिक होता जा रहा है। इन ही सिद्धान्तों पर आरूढ़ होने से संसार का कल्याण होता जा रहा है। इन ही सिद्धान्तों पर आरूढ़ होने से संसार का कल्याण हो सकता है। मनुष्य जीवन में कितना ही वांछनीय परिवर्तन हो जाए, यदि सभी मनुष्यों को प्रारम्भ से शिक्षा मिले कि सब ही मत सापेक्षक हैं, कोई भी मत सर्वथा सत्य अथवा असत्य नहीं है, पूर्ण सत्य में सब मतों का समन्वय होना चाहिये, और सबको दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिये जैसा कि वे दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं। मैं तो इस दृष्टि के प्राप्त कर लेने को ही मनुष्य का सभ्य होना समझता हूँ। मैं आशा करता हूँ कि यह पुस्तक पाठकों को इस प्रकार की दृष्टि प्राप्त करने में सहायक होगी। (स्याद्वादमंजरी : प्राक्कथन) स्याद्वादमंजरी का अनुवाद : . डॉ. जगदीश चन्द्र जैन, एम.ए. पी-एच.डी. ने इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद, शोधपूर्ण, उपोद्घात और विवेचनात्मक विस्तृत 8 परिशिष्टों के साथ सुन्दरतम एवं पठनीय सम्पादन किया है। परिशिष्टों में समस्त दर्शनों की विशेषताओं का स्वरूप दिग्दर्शन तो वस्तुतः अध्येताओं के लिये अत्यन्त उपादेय बन गया है। इसका प्रथम संस्करण परम श्रुत प्रभावक मंडल बम्बई से सन् 1935 में प्रकाशित हुआ था। यह संस्करण विस्तृत विवेचनात्मक एवं शोधपूर्ण होने के कारण सामान्य पाठकों की दृष्टि में विद्वद्योग्य बन गया है। [तित्थयर, वर्ष 30, अंक 2-3] 000 57 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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