________________ 'तत्त्वचिन्तामणि' का मणिकर्णिका की तरह 'मणि' का परीक्षण किया है। उदयनाचार्यकृत किरणावली, वाचस्पतिकृत न्यायवार्त्तिकतात्पर्यटीका, महामहोपाध्याय रुचिदत्तकृत तत्त्वचिन्तामणिप्रकाश, मणिकण्ठमिश्रकृत न्यायरत्न आदि प्राचीन न्याय के ग्रन्थों के आधार से कई स्थलों का जौहरी के समान परीक्षण कर प्राचीन शैली से युक्तिपूर्वक खण्डन किया है। इसमें चार विषय हैं। इसकी रचना विजयप्रभसूरि के काल में स्वशिष्य भानुविजय के पठनार्थ हुई है। भाषा प्रौढ़ एवं प्राञ्जल है। इसकी स्वयं ग्रन्थकार द्वारा लिखित एकमात्र प्रति भुवनभक्ति भण्डार (बड़ा भण्डार) बीकानेर ग्र० नं० 321 में है। पत्र संख्या 8 है। 22. युक्तिप्रबोध सिद्धान्त - इस ग्रन्थ में आगरा निवासी, समयसार नाटक के अनुवादकर्ता, प्रसिद्ध कवि बनारसीदास की जैन-सिद्धान्त-प्रतिकूल मान्यताओं का और दिगम्बर मान्यताओं का सैकड़ों ग्रन्थों के आधार से खण्डन किया है। मूल ग्रन्थ के कुल 25 पद्य हैं जो प्राकृत भाषा में हैं और इस पर स्वयं ग्रन्थकार ने संस्कृत भाषा में 43006 श्लोक परिमाण की विशद-विवेचना पूर्ण टीका की रचना की है। ग्रन्थ में रचना संवत् का निर्देश नहीं है किन्तु विजयरत्नसूरि के साम्राज्य का उल्लेख होने से इसकी रचना संवत् 1732 के पश्चात् ही हुई है। यह ग्रन्थ ऋषभदेव केशरीमल पेढी रतलाम से ' प्रकाशित हुआ है। 23. धर्ममञ्जूषा - कवि ने उपाध्यायपद प्राप्ति के पश्चात् इसकी रचना मेड़ता में की है। इस ग्रन्थ में लेखक ने लुम्पक सम्प्रदाय के किसी अधिकारी के 58 प्रश्नों के उत्तर अनेक शास्त्रों के आधार से दिये हैं। मुख्य 58 प्रश्न हैं और 13 गौण प्रश्न हैं / ये प्रश्न किसने किये हैं या किसी ने इस प्रश्नों का कोई ग्रन्थ बनाया है जिसके उत्तर में इसकी रचना हुई है, स्पष्ट नहीं है / ग्रन्थ प्रश्नोत्तररूप गद्य संस्कृत में है। भाषा सरल और युक्तिपूर्ण है। लेखक ने अन्त में लिखा है किं विशेष समाधान हानर्षिकृत 1. मणे: परीक्षा मणिकर्णिकेव, पूर्णा रसैः स्वारसिकैर्मुदेव। गंगेश्वर श्रीगृहसन्निधाना, ध्यानेऽवधार्या शिवपूर्वतुर्याः॥१॥ 2. श्रीविजयप्रभसूरेस्तपागणेस्य सेवको मेघः। सम्यक्त्वशुद्धिसिद्धे कृतवानेतां मणिपरीक्षाम् // 3 // 3. भानूदयसदाध्याय बुद्ध्या यश्चापलं सृजेत्। अस्याम श्यामधीरहँस्तुष्टस्तस्येह सुश्रिये // 2 // 4. देखें, मोहनलाल द० देशाई: जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० 576-578 5. देखें, सागरानन्दसूरि लिखित युक्तिप्रबोध का उपक्रम-पत्र 3-11 चतु:सहस्री श्लोकानां शतत्रयसमन्विता। प्रमाणमस्य ग्रंथस्य निर्मितं तत्कृता स्वयम्॥८॥ 7. तत्पट्टभूपा महसातिपूपा, सुवर्णनैर्मल्यविधानभूपा। विराजते श्रीविजयादिरत्नः, प्रभुः प्रभाध्यापितदेवरत्नः॥ 21 // तेषां राज्ये मुदाऽकारि, वाङ्मयं युक्तिबोधनम्। मेघाद्विजयसंज्ञेन वाचकेन तपस्विना॥१२॥ 8. प्राप्तोपाध्यायपदास्ते चक्रुर्धर्ममञ्जूपाम् // 2 // 9. श्रीमेघपूर्वविजयाह्ववाचकोऽसौ, श्रीमेदिनीपुरवरे स्वदृशः प्रमत्यै॥४॥ 140 लेख संग्रह