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________________ 14, 15, 16 संख्याक तीनों विज्ञप्तिपत्र अनुमानतः स्वयं कवि द्वारा लिखित हैं, अक्षरों, शब्दों और चरणों को स्थान-स्थान पर काट कर या हरताल फेरकर पुन: नव्य शब्द या चरण लिखे हैं। व्याकरण 18. चन्द्रप्रभाव्याकरण - जिस प्रकार पाणिनीय अष्टाध्यायी को भट्टोजि दीक्षित ने सिद्धान्तकौमुदी का रूप प्रदान किया है उसी प्रकार मेघविजयजी ने अपने शिष्य भानुविजय के लिये हेमचन्द्राचार्यप्रणीत सिद्धहेमचन्द्रव्याकरण को कौमुदी का स्वरूप प्रदान किया है, इसीलिए इसे 'हेमकौमुदी' भी कहते हैं। इसकी रचना सं० 17572 दीपमालिका के दिन आगरा में हुई है। इस ग्रन्थ का संशोधन सौभाग्यविजय और मेरुविजय ने किया है। इसका श्लोकपरिमाण आठ हजार है। व्याकरण की दृष्टि से यह इनकी सफलतम रचना कही जा सकती है। यह ग्रन्थ श्रेयस्कर मण्डल म्हेसाणा की तरफ से प्रकाशित हो चुका है। ... 19. हेमशब्दप्रक्रिया - मध्य सिद्धान्तकौमुदी के समान यह सिद्धहेमशब्दानुशासन की प्रक्रिया है। श्लोकपरिमाण 3500 है। इसकी एकमात्र प्रति भाण्डारकार ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में है, जो कि प्रकाशन योग्य है। 20. हेमशब्दचन्द्रिका - लघुकौमुदी के सदृश 600 श्लोक परिमाण की यह रचना है। विजयप्रभसूरि के शासनकाल में इसकी रचना हुई है। शाह चांपसी खीमसी, कोठांरा (कच्छ) की तरफ से यह प्रकाशित हो चुकी है। न्याय .. 21. मणिपरीक्षा - इस ग्रन्थ में नव्यन्यायप्रवर्तक 'नैयायिकोत्तंस गंगेशोपाध्याय रचित' 1. श्रीमेघविजयनाम्नोपाध्यायोऽध्याय तत्परः परमः। चन्द्रचन्द्रप्रभां चक्रे भानूदयबुद्धिविवृद्धिकरी॥११॥ भट्टोजिनामा भवदीक्षितेन, सिद्धान्तयुक्ता वरकौमुदीया। श्रीसिद्धहेमानुगता व्यधायि, सेवाश्रिया भानुविभोदयाय॥१२॥ 2. विजयन्ते ते गुरुवः शैलशरपीन्दु (1757) वत्सरे तेपाम्। आदेशाद् देशपते: स्थितिः कृता राजधान्यन्तः॥७॥ '. 3. चातुर्मास्यामस्यां नाम्ना श्रीआगरा वराऽऽख्याम्। नानायोगैरुचितै रचिता चन्द्रप्रभा सुधिया॥८॥ 4. हेमचन्द्रसुगुरोः विनयस्य सिद्धेः, शास्त्रार्णवोऽलभत पूर्णदशां रसेन। ___ दीपोत्सवस्य दिवसे कुशलेन योऽसौ, सौभाग्य-मेरुविजयादिभिरीक्ष्यमाणः॥१५॥ 5. स्वांगे साष्टसहस्रलक्षणधरः क्लृप्ताभिषेक: सुरैः, सेन्ट्रैः साष्टसहस्रमानसहितैः कुम्भैश्च वृत्तैः स्तुतः। ग्रन्थेऽप्यष्टसहस्रसम्मिततया सल्लक्षणैर्लक्षिते, कुर्यात् सोऽभ्युदयं धियां समुदयं वीरस्त्रिलोकी गुरुः॥१४॥ (चन्द्रप्रभाव्याकरण, पूर्वार्ध प्रान्तप्रशस्ति) 6. द्वितीयं मध्यव्याकरणं पञ्चत्रिंशच्छतश्लोकमितम्। (हेमशब्दचन्द्रिका - प्रस्तावना, पृ० 1) 7. श्रीविजयप्रभसूरेः प्रेष्यः शिष्य कृपादिविजयकवेः। श्रीमेघविजयवाचकवरः कृतां चन्द्रिकां चक्रे॥१॥ लेख संग्रह 139
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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