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________________ धर्मध्यान, पठन-पाठन, धर्मप्रचार के साथ स्वस्थित नगरी का वर्णन, इन विज्ञप्ति-पत्रों का प्रतिपाद्य विषय होता है / इस प्रकार के विज्ञप्ति-पत्र ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि से बड़े महत्त्व के होते हैं। ऐसे विज्ञप्ति-पत्रों में हमें सर्वप्रथम वि० सं० 1441 में जिनोदयसूरि द्वारा लोकहिताचार्य को प्रेषित 'विज्ञप्तिमहालेख' और वि० सं० 1448 में जयसागरोपाध्याय द्वारा विजयभद्रसूरि को प्रेषित 'विज्ञप्ति-त्रिवेणी' प्राप्त होते हैं। इसके पश्चात् तो सैकड़ों की संख्या में विज्ञप्ति-पत्र प्राप्त होते हैं जिनमें से 25 विज्ञप्ति-पत्र पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी ने विज्ञप्ति लेखसंग्रह प्रथम भाग में प्रकाशित किये हैं। * मेघविजयजी लिखित विज्ञप्ति-पत्र जो वर्तमान में प्राप्त होते हैं उनमें से मेघदूतसमस्यालेख का विवरण दिया जा चुका है, अवशेष का क्रमशः परिचय इस प्रकार है: .. 10. पाणिनिव्याश्रयविज्ञप्तिलेख - शिवनगरी' से यह पत्र गणनायक विजयप्रभसूरि को लिखा गया है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह व्याश्रय काव्य है। एक ओर जहाँ पाणिनि के अष्टाध्यायी सूत्रों का क्रम चलता है तो दूसरी ओर वही पद्य श्लेषयुक्त होकर विज्ञप्ति-पत्र के प्रतिपाद्य अर्थ को प्रकट करता है। इसमें चार विश्राम हैं / प्रथम विश्राम में संज्ञासन्धि के साथ भगवान ऋषभदेव का, द्वितीय विश्राम में अच्सन्धि के साथ कुर्कुट नगरी का, तृतीय विश्राम में अच्सन्धि के साथ शिवनगरी और चातुर्मासिक धर्मकृत्यों का तथा चतुर्थ विश्राम में हल्सन्धि के साथ आचार्य विजयप्रभसूरि का श्लेषालंकारयुक्त वर्णन है। चारों विश्रामों की पद्य संख्या इस प्रकार है:- 25, 38, 36, 39 / यह पत्र सभी तक प्रकाशित है। इसकी एक मात्र प्रति भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में नं० ए-२९९।१८८२-८३ पर है। इसी की प्रतिलिपि राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है:आदि- स्वस्ति श्रियां सत्प्रकृतित्वभाजां, यः प्रत्ययात्मापरयोगशाली। संयुज्य नानाविधिरूपसिद्ध्यै, भवेन्मुदे वः स च मारुदेवः॥१॥ कौमाररूपेऽपि कलाविशेषात्, संज्ञाभिवृद्धेर्विधिलाघवाच्च। यः पाणिनीयं नयमादिदेश, सदाऽकृतव्यूहतया शिवात्मा॥२॥ विनिर्झलां दूर जशोन्त एत्य, साक्षादिव श्रीगुरुमीक्षमाणः। शिष्याणुमेघाविजय स्वकीयं, भावं परं विज्ञपयत्यमुष्मिन् // 12 // (तृतीय विश्राम) अन्त - एवं जगद्भासनकारि यस्या-नुशासनं श्रीगणष्वासवस्य। जयत्यवन्यां विजयप्रभाह्वः, सूरिः सभरिप्रभुताद्भुतश्रीः॥ 39 // इति श्रीपाणिनीयहल्सन्धिश्लेषालंकाररम्ये श्रीपरमगुरुविज्ञप्तिलेखे व्याश्रये गुरुवर्णनरूपश्चतुर्थविश्रामः॥ . 11. पाणिनीय व्याश्रयविज्ञप्तिलेख - यह द्वितीय विज्ञप्ति लेख भी मेघविजयजी ने शिवनगरी 1. एवं च यस्मिन्नगरेऽतिविद्वान्, बालो युवा वा प्रवया जनोस्ति / शिवाभिलापी सुरसार्थसक्त ततः शिवाख्यान्नगरादमुष्मात् // तृतीय विश्राम लेख संग्रह 135
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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