________________ से कुर्कुटनगर स्थित युवराजसूरि विजयरत्नसूरि को लिखा है। प्रथम लेख की तरह ही यह भी पाणिनीय से संज्ञासन्धि, अच्सन्धि और हल्सन्धि के साथ श्लेषालंकार युक्त चार विश्रामों में विभक्त है। चारों . विश्रामों की पद्यसंख्या निम्न है:- 11, 22, 15, 13 / विजयरत्नसूरि सं० 1732 में आचार्य बने हैं अतः यह स्पष्ट है कि इसकी रचना 1732 के पश्चात् हुई है। इन दोनों विज्ञप्तिलेखों को देखने से स्पष्ट है कि मेघविजयजी ने दोनों पत्र एक ही साथ लिखे हैं और एक साथ ही प्रेषित भी किये हैं, एक पत्र गणनायक के नाम से और दूसरा पत्र युवराजाचार्य विजयरत्नसूरि के नाम से। इस लेख की भी एक मात्र प्रति भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में नं० 299, ए 1892-93 पर है। इसी की प्रतिलिपि राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में है। यह भी अभी तक अप्रकाशित है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है:आदि स्वस्तिश्रियै वररुचिर्जगतोऽपि शिक्षा-शास्त्रैर्पटुर्जयति पाणिनिमूलशास्ता। योगे पतञ्जलिहिताय क्षतोपदेशस्सम्यक्पदार्थविधिसाधनकृज्जयाय // 1 // अन्त वपुस्तपःस्थानमिवाश्रमोऽतु-स्वारस्यतः सत्यगिरां गुरूणाम्। मनो मनोभू विजयात्पवित्रं, चित्रं तदन्यत्र जनानुरागम्॥१२॥ एवं यदीयो जगतोऽपि लक्ष्म्यो, जागर्ति निर्देशमणिर्महिम्ना। तैः सूरिरलैर्विगलत्सपन्न (?)- यः प्रणामः स्वशिशोस्त्रिसायम् // 13 // इति श्रीपाणिनीयद्व्याश्रये विज्ञप्तिलेखे हल्सन्धि-श्लेषविशेषालंकारश्चतुर्थविश्रामः॥ 12. विज्ञप्तिका - मेघविजयजी ने यह विज्ञप्तिका तत्कालीन गणनायक श्री विजयदेवसूरि को लिखी है। विजयदेवसूरि का सं० 1713 में स्वर्गवास हो गया था, अत: यह निश्चित है कि इस विज्ञप्तिका की रचना सं० 1713 के पूर्व ही हुई है। पद्यसंख्या 125 है। यह विज्ञप्तिका 'विज्ञप्तिलेखसंग्रह प्रथम भाग' में प्रकाशित है। इसका आद्यन्त इस प्रकार है: स्वस्ति श्रीमदमन्दमोदविनमद्देवेन्द्रमौलिस्फुरन्, मांगल्यांगयवांकुराकरपरिग्लासाऽप्रयासाशया। यस्य श्रीजगदीश्वरस्य चरणाम्भोजन्मचिह्नच्छलात्, तस्यौ पीनतनूरनूनसुखभाग् गोकर्णजस्तर्णकः॥ 1 // xxx तत्र श्री मत्सरसिरसिकैरास्तिकैः श्वेतपक्षैः, पूर्णे पूज्यक्रमजलरुहै!तपद्माकरत्वे।। 1. यद् ह्रस्वदीर्घादिकृते स्वरेणोपदेशितकुर्कुटशब्दरूपम्। तदीश्वरः कुर्कुटशब्दपूर्वो यन्नाम्नि तस्मिन्ननगरे वरेण्ये // 22 // (द्वितीयविश्राम) 2. इत्याद्यसौ कृत्यविधौ प्रवीणः, सर्वोऽपि लोकः समभूत्त्दानीम्। निर्विघ्नतायां युवराजसूरिः, स्मृत्याऽपि हेतुः शुभवल्लिमेघः // 15 // (तृतीयविश्राम) त 136 लेख संग्रह