SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैसलमेर संभवनाथ मन्दिर के शिलापट्ट पर उत्कीर्ण प्रशस्ति - गुरु अष्टक - में प्रशस्ति लेखक सोमकुंजर ने जिनभद्रसूरि के विशिष्ट गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है - "गिरनार, चित्तौड़गढ़, माण्डव्यपुर (मांडवगढ़) आदि अनेक स्थलों में इनके उपदेश से श्रावकों ने विशाल जिन मन्दिर बनवाये। अणहिल्लपुर पाटण आदि स्थानों/नगरों में विशाल ज्ञान भंडार स्थापित करवाये। जिन्होंने माँडवगढ़, पालणपुर, तलपाटक आदि नगरों में अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की। जो विशेषावश्यक भाष्य और अनेकान्त जयपताका आदि दुरूह ग्रन्थ मुनियों को पढ़ाते थे और कर्म प्रकृति आदि ग्रन्थों के रहस्य पर विवेचन करते थे। सं. 1495 में पंचायतन प्रासाद (लक्ष्मीनारायणजी का मन्दिर) निर्माता जैसलमेर नरेश रावल वैरसिंह और त्र्यम्बकदास जैसे भूपति जिनकी चरण सेवा करते हैं।" इसी प्रकार उस समय के उद्भट विद्वान जयसागरोपाध्याय ने वि. सं. 1484 में नगर - कांगड़ा में चतुर्मास में रहते हुए जो विज्ञप्ति-त्रिवेणी नामक विशाल एवं ऐतिहासिक विज्ञप्ति पत्र जिनभद्रसूरि के चरणों में अणहिलपुर पाटण भेजा था, उसमें गद्य-पद्य में, चित्रकाव्यों के माध्यम से इनके सद्गुणों का जिस प्रकार से वर्णन किया है, वह पठनीय है। इन्होंने ही स्वहस्त से 1475 में जयसागर को उपाध्याय पद और 1497 में कीर्तिराज उपाध्याय को आचार्य पद देकर कीर्तिरत्नसूरि नाम प्रदान किया था। भावप्रभसूरि को भी आचार्य पद आपने ही प्रदान किया था। जैसलमेर के पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा 1473 में आचार्य जिनवर्द्धनसूरि ने करवाई थी। चोपड़ा गोत्रीय सा. हेमराज, पूना आदि निर्मित कलापूर्ण संभवनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा 300 जिनबिम्बों के साथ वि.सं. 1497 में आचार्य जिनभद्रसूरि ने कराई थी। जिनभद्रसूरि ने ही भणसाली गोत्रीय सा. वीदा कारित चन्द्रप्रभ मंदिर की प्रतिष्ठा वि. सं. 1509 में करवाई थी। किले के भीतर विद्यमान शेष मन्दिरों - शान्तिनाथ और अष्टापद मंदिर, शीतलनाथ मंदिर, ऋषभदेव मंदिर, महावीर स्वामी के मंदिरों की प्रतिष्ठायें जिनभद्रसूरि के परवर्ती खरतरगच्छीय आचार्यों ने करवाई थीं। संभवनाथ मंदिर के तलघर में ही जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार विद्यमान/सुरक्षित है। वि. सं. 1514, मार्गशीर्ष कृष्णा 9 के दिवस कुम्भलमेर में इनका स्वर्गवास हुआ था। इनका आचार्यत्व काल 40 वर्ष का रहा था। आपकी विद्वत्साधु मंडली और शिष्यमंडली में अनेक दिग्गज विद्वान और साहित्यकार थे, जिनमें से कतिपय नाम उल्लेखनीय हैं - महोपाध्याय जयसागर, महो. सिद्धान्तरुचि, उपाध्याय मेरुसुन्दर, कीर्तिरत्नसूरि, उपाध्याय मेरुनन्दन आदि। उसी समय में माँडवगढ़ के मन्त्री सोनीगरा श्रीमालवंशीय मन्त्री मण्डन और धनदराज भी हुए, इनमें से मन्त्री मण्डन ने मण्डन संज्ञक 10 ग्रन्थों की और धनदराज ने धनद त्रिशती की रचनाएँ की थीं। ये दोनों परम विद्वान थे और थे जिनभद्रसूरि के परम भक्त श्रावक। इन्होंने ही माँडवगढ़ में जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार की स्थापना की थी। - श्रुतरक्षक आचार्यों में जिनभद्रसूरि का नाम मूर्धन्य स्थान पर है। खरतरगच्छ के दादा संज्ञक चारों गुरुदेवों की भाँति इनके चरण एवं मूर्तियाँ आज भी अनेक स्थलों पर पूज्यमान हैं। इनके नाम से जिनभद्रसूरि शाखा का प्रसार भी हुआ, जिसमें अनेक मूर्धन्य विद्वान हुए हैं। खरतरगच्छ की वर्तमान में उभय भट्टारकीय, आचार्यांय, भावहर्षीय एवं जिनरंगसूरि आदि शाखाओं के पूर्व-पुरुष भी आप ही हैं। लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy