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________________ महोपाध्याय सहजकीर्ति अनुसंधान, अंक 23, सम्पादक - आचार्यश्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराज, प्रकाशक - कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद, पृष्ठ 4 से 8 में मुनि श्री भुवनचन्द्रजी का 'अठोतर सो नामें पार्श्वनाथ स्तोत्र', शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। भगवान् पार्श्वनाथ के 108 स्थानों के सम्बन्ध में इस लेख से अच्छी जानकारी मिलती है। सम्पादक ने इन भौगोलिक स्थानों के सम्बन्ध में भी कुछ जानकारी देने का प्रयत्न किया है। इस स्थानों में छवटन (चौहटन) और आसोप ये तो मारवाड़ में ही हैं। मरोट सिंध प्रान्त का भी ग्रहण कर सकते हैं। वैसे सांभर के पास भी मरोट है। कुकड़सर मेरे विचारानुसार कच्छ का न होकर कुकड़ेश्वर है जो कि मंदसोर के पास है, इसका ग्रहण किया जाना उपयुक्त है। जेसाण शब्द से जैसलमेर समझना चाहिए क्योंकि प्राचीन उल्लेख में जैसलमेर के स्थान पर जेसाणों का उल्लेख मिलता है। . इस रचनाकार के सम्बन्ध में सम्पादन ने लिखा है - "रचयिता श्री सहजकीर्तिनी बार जेटली कृतियाँ जै.गू.क.मां नोंधायेली छे. सं. 1661 मां एमणे सुदर्शन श्रेष्ठी रास रच्यो छे. स्तोत्र जेवा ज विषयनी अन्य कृति 'जेसलमेर चैत्यप्रवाडि' 1679 मां रचाई छे. प्रस्तुत कृति पण एमनी ज रचना होवानी पूरी संभावना छे." .. अर्थात् रचयिता श्री सहजकीर्ति की बारह जितनी कृतियाँ जैन गुर्जर कवियों में उल्लिखित है। सन् 1669 में इन्होंने सुदर्शन श्रेष्ठी रास की रचना की है। प्रस्तुत स्तोत्र जैसे विषय की अन्य कृति 'जैसलमेर चैत्य प्रवाडि' 1679 में रची गई है। प्रस्तुत कृति भी इन्हीं की रचना हो, ऐसी पूर्ण सम्भावना है। पाठकों को सहजकीर्ति के सम्बन्ध में विशद जानकारी प्राप्त हो सके, इसी उद्देश्य से इनके गच्छ, गुरु और निर्मित साहित्य का उल्लेख कर रहा हूँ। खरतरगच्छ के युगप्रधान दादा जिनकुशलसूरि के पौत्र शिष्य और गौतमरास के प्रणेता विनयप्रभोपाध्याय के शिष्य उपाध्याय क्षेमकीर्ति से खरतरगच्छ की एक उप-शाखा क्षेमकीर्ति के नाम से उद्भूत हुई। इसी का परिवर्तित रूप खेमधाड़ शाखा कहलाती है। उपाध्याय क्षेमकीर्ति की परम्परा में आठवें नं. पर वाचक हेमनंदनगणि हुए। उन्हीं के शिष्य सहजकीर्ति थे। ये प्रकाण्ड विद्वान् और श्रेष्ठ कवि थे। लोद्रवपुर पार्श्वनाथ मंदिर में सुरक्षित ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण शतदल पद्मयंत्रमय श्री पार्श्वस्तव आपकी अद्वितीय कृति है। यह कृति मेरे द्वारा सम्पादित 'अरजिनस्तवनः' सहस्रदलकमलगर्भितचित्रकाव्य के परिशिष्ट में सन् 1653 में प्रकाशित हो चुकी है। सेठ थाहरुशाह भणसाली कारित लौद्रवा पार्श्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा विक्रम संवत् 1675 में आचार्य जिनराजसूरि के कर-कमलों से हुई है। इस प्रतिष्ठा में सहजकीर्ति भी उपस्थित थे। आपके द्वारा निर्मित अन्य साहित्य की सूची इस प्रकार है - 1. कल्पसूत्र टीका कल्पमंजरी 2. शब्दार्णवव्याकरण 1685 (ऋजुप्राज्ञव्याकरण) लेख संग्रह 22
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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