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________________ आचार्य प्रवर श्री जिनराजसूरि (प्रथम) विरचित श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् [वसन्ततिलका वृत्तम्] 'वदन' का रूपक बनाकर वसन्ततिलका वृत्त में पार्श्वनाथ भगवान की स्तवना की गई है। इसमें स्थल-स्थल पर यमक का प्रयोग एवं अन्य अलंकारों का प्रयोग किया गया है। इसकी १६वीं शताब्दी की प्रति श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर के संग्रह में प्राप्त होने से इसके प्रणेता श्री जिनराजसूरि प्रथम ही प्रतीत होते हैं। जिनराजसूरि के सम्बन्ध में इतिवृत्त जो प्राप्त होता है वह निम्न सं० 1432 फाल्गुन कृष्णा षष्ठी के दिवस अणहिलपुर (पाटण) में लोकहिताचार्य जी ने इन राजमेरु गणिवर्य को गुर्वाज्ञानुसार आचार्य पद प्रदान कर श्री जिनोदयसूरि जी का पट्टधर घोषित किया। पट्टाभिषेक पदं महोत्सव सा० कडुआ धरणा ने गच्छ के विनयप्रभोपाध्याय व जससमृद्धि महत्तरा आदि साधु-साध्वियों और आमंत्रित विशाल संघ की उपस्थिति में बड़े समारोहपूर्वक किया था। कर्मचन्द्र मंत्री वंश-प्रबन्ध के अनुसार ये दादा श्री जिनकुशलसूरि का पाटण में पट्टोत्सव एवं शत्रुजय तीर्थ पर मानतुंग विहार-खरतर वसही के निर्माता के पुत्र वील्हा-वीना देवी के पुत्र थे। कडुआ, :: धरणा और नंदा तीन भाई थे। वंश-प्रबन्ध में महोत्सव के सम्बन्ध में लिखा है - श्रीजिनराजगुरूणां लोकहिताचार्यवर्यकरमूले। सूरि-पद-कृत-नन्दी-महोत्सवो दापयामास॥ . सूरिपदोत्सव-दर्शन-समुत्सुकायात जानपदलोकान्। ___ वस्त्रादिदानपूर्वं तुतोष योदोषकृतमोघः॥ 1 // श्री गुणविनयोपाध्याय ने कर्मचंद्र मंत्रिवंश प्रबन्ध रास में भी इस प्रकार लिखा है लोकहिताचारिज करए एं, श्री जिनराज नइ पाट। दिरायउ जिणि विधइ ए, नन्दि महोत्सव थादि॥ 53 // तिणि उत्सवि जे आवीया ए, वस्त्रादिक नइ दानि। संतोष्या साहमी ए, मानी काढइ कान॥ 54 // श्री जिनराजसूरि जी सवा लाख लोक प्रमाण न्याय ग्रन्थों के अध्येता थे। आपने अपने करकमलों से सुवर्णप्रभ, भुवनरत्न और सागरचंद्र इन तीन मनीषियों को आचार्य पद प्रदान किया था। आपने सं० 1444 में चित्तौड़गढ़ पर आदिनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। श्री सागरचन्द्राचार्य ने सं० 1459 में आपके आदेश से जैसलमेर के श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय में जिन बिम्ब-स्थापना की थी नवेषुवार्थीन्दुमितेथ वत्सरे निदेशतः श्रीजिनराजसूरेः। अस्थापयन् गर्भगृहेत्र बिम्ब, मुनीश्वराः सागरचन्द्रसाराः॥ लेख संग्रह 361
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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