________________ सं० 1444 में कैलवाड़ा मेवाड़ के मंत्री शाखा के अरजन श्रेष्ठी की पत्नी लखमिणि देवी के , अंगज रावण कुमार को मिती कार्तिक कृष्णा 12 को दीक्षित कर राज्यवर्द्धन नाम से प्रसिद्ध किया। सं० 1461 में अनशन आराधनापूर्वक देवकुल पाटक (देलवाडा) में स्वर्गवासी हए। देलवाडा के सा० नान्हक श्रावक ने आपकी भक्तिवश मर्ति बनवा कर श्री जिनवर्द्धनसरि जी से प्रतिष्ठित करवाई जो आज भी देलवाड़ा में विद्यमान है। इस मूर्ति पर निम्नलिखित लेख उत्कीर्णित है "सं० 1469 वर्षे माघ सुदि 6 दिने ऊकेशवंशे सा० सोषासन्ताने सा० सुहड़ा पुत्रेण सा० नान्हकेन पुत्र वीरमादि परिवारयुतेन श्री जिनराजसूरिमूर्तिः कारिता प्रतिष्ठिता श्री खरतरगच्छे श्री जिनवर्द्धनसूरिभिः" 1. चतुर्विंशति जिन नमस्कार स्तोत्र, स्तोत्र, संस्कृत, १५वीं, आदि-प्रथमजिनवर निखिलनरनाथ संसेवित.... गा. 25, अ., ह. रा.प्राङवि.प्र., जोधपुर 25876 2. शत्रुञ्जय वीनती, गीत स्तवन, अपभ्रंश, १५वीं, आदि-महतित्थ स@जय.... गा. 25, अ. 3. शान्तिजिन स्तवन, गीत स्तवन, राजस्थानी, १५वीं, आदि-आणंदानंद.... गा. 17, अ. प्रस्तुत है स्तोत्र: पार्श्वनाथ स्तोत्र आनन्दनं सम[सुरा]सुर-मानवानां, संजीवनं शुभधियां सुरमानवानाम्। सौभाग्यसुन्दरतया भुवनाभिरामं, श्रीपार्श्वनाथवदनं विनुवामि कामम् / / 1 / / प्रातः पदार्थपटलीविहितावतारं, पश्यन्ति यो जिनमुखं मुकुरानुकारम्। कल्याणकारणमनन्त-मनोविशुद्धि-स्तेषां भवेदिह मनोभिमतार्थसिद्धिः।। 2 / / आलोकिते तव विभो! वदने दिनेश-नैशंतिशा जगति मोहमयी विलेशे। पुण्यप्रकाशरचितेन तमो व्ययेन-सर्वर्तुसौहृदयुजा कमलोदयेन / / 3 / / सल्लोचनेषु घनतापभिदा रसालैः सारैः सुधामिव कुरन्नयनांशुजालैः। देवत्वदानसुधांशुरसौ निशान्त, आलोकि सेवकजनैः सुकृतीनकंतै।। 4 / / लावण्यकेलिलहरीललिते नवीने, वक्त्रे सुधा सरससुन्दर तावकीने। तृष्णातिरेकतरले नयने निलीये, होनन्त तापकलुषे त्यजतां मदीये।। 5 / / , विस्मेरलोचनदले कमलानिवासे, निःसीम-सौरभभरे सुगुणावभासे। दृष्टिः सतां जिनपते! वदनारविंदे, नालीयते कथममंदवचोमर दे।। 6 / / .. दूर्वकंनयनचन्दनचारुक्षिप्रं, राजद्विजालिरुचितंदुलजालदीप्रं। सन्मंगलं दिशतु पुण्यफलाधिगम्यं, जैनेश्वरं वदनमक्षतपात्ररम्यं / / 7 / / नीलोत्पलामलदलायतनेत्रमानं, सइंतभा कुसुमदामविराजमान। पुण्यश्रिया लवणिमाम्बुभृदा सुलभः, स्यान्मे शिवाय जिन ते मुखपूर्णकुंभ।। 8 / / एवं मया वदनवर्णनया विभादे, हर्षाञ्चितेन विहिता विनुतिः शुभाले। याचे दयेव जिनराज दयां निधेहि, दृष्टिं प्रसाद विशदां मयि सन्निधेहि / / 9 / / / / इति श्री पार्श्वनाथस्तोत्रं समाप्तमिति भद्रं भूयात् / / कृतिरियं श्रीजिनराजसूरिणां।। [अनुसंधान अंक-५४] ..* 100 362 लेख संग्रह