SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 56, 62,75, 75, 57,75, 142, 151, 151, 134, 113, 102, कुल 1274 / यह ग्रन्थ सिंघी जैन ग्रन्थमाला (भारतीय विद्या भवन) बम्बई से प्रकाशित हो चुका है। पादपूर्ति-काव्यसाहित्य 3. शान्तिनाथचरित्र - श्रीहर्षरचित नैषध महाकाव्य की समस्यामय पादपूर्ति से इनका दूसरा नाम नैषधीय समस्या भी है। नैषधकाव्य के प्रथम सर्ग की पादपूर्ति रूप यह काव्य है। मेघदूत की तरह अन्तिम चरण या एक चरण लेकर इसकी रचना नहीं हुई है, अपितु प्रत्येक चरण की चरणानुरूप पूर्ति करते हुए 6 सर्गों में उसकी रचना पूर्ण हुई है। कहीं-कहीं तो एक ही चरण की दो, तीन बार अनुवृत्ति भी की गई है। इस काव्य में सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ का जीवन-चरित वर्णित है। सर्गानुक्रम से पद्य संख्या इस प्रकार है:- 126, 130, 117, 78,71, 63, प्रशस्ति 5, कुल 560 / ग्रन्थकार ने प्रान्त में इसका समय नहीं दिया, किन्तु आचार्य विजयप्रभसूरि का उल्लेख होने से स्पष्ट है कि इसकी रचना वि० सं० 1710 के पश्चात् और सं० 1732 बीच हुई है। यह ग्रन्थ जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला, काशी से प्रकाशित है। 4. देवानन्दमहाकाव्य - महाकवि माघ रचित शिशुपालवध (माघ) महाकाव्य के प्रारंभ के 7 सर्गों तक के प्रत्येक पद्य के चतुर्थ चरण की पादपूर्ति रूप यह महाकाव्य है। इस काव्य में भी सात सर्ग है। इसमें तपागणाधीश जैनाचार्य विजयदेवसूरि और विजयप्रभसूरि के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन है। पादपूर्ति के बन्धन में रहते हुए भी कवि ने इस काव्य की रचना इतनी सफलता से साथ की है कि रस-परिपूर्ण नवीन स्वतन्त्र काव्य का रसास्वादन होता है। इसकी रचना वि० सं० 1727 आश्विन शुक्ला विजयादशमी को सादड़ी नगर में हुई है। सर्गों की पद्यसंख्या इस प्रकार है:- 78, 130, 179, 85, 72, 90, 85] कुल 719 / यह ग्रन्थ सिंघी जैन ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। . 5. किरातसमस्यापूर्ति - इसके सम्बन्ध में दिग्विजयमहाकाव्य की प्रस्तावना (पृ. 4) में पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह ने लिखा है- 'आ काव्य, नाम शुंछे ते जाणी शकायुं नथी, पण तेमां किरातार्जुनीय काव्यनी समस्यांपूर्ति तो छेज, एनी एक प्रति आचार्य श्रीविजयेन्द्रसूरि पासे हती जेनी प्रेसकापी में केटलाये वर्षों अगाऊ तेमने करी आपेली, ते स्मरण ऊपरथी जणावू छु, ते प्रति मने मली शकी न थी। ते ष्य एक सर्गात्मकज हती, संभवत: क्यांई थी तेनी पूरी प्रति पण मली आवे।' 6. मेघदूतसमस्यालेख - जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह लघुकाव्य महाकवि कालीदास प्रणीत मेघदत खण्डकाव्य के चतुर्थ चरण को ग्रहण कर पादपूर्ति रूप में लिखा गया है। वस्तुतः विज्ञप्तिस्वरूप स्वगुरु को लिखा गया यह एक पत्र है, जो कि नवरंगपुर-औरंगाबाद से कवि ने देवपाटण में विराजमान आचार्य विजयप्रभसूरि को लिखा है। इसमें कवि ने रचना-समय नहीं दिया है किन्तु प्रान्त में लिखा है कि विजयदेवसूरि की भक्ति में माघकाव्य का समस्यापूर्ति और विजयप्रभसूरि के गुणोत्कीर्तन में मेघदूत समस्या लिखी है। जैसा कि ऊपर लिख आये हैं, देवानन्द महाकाव्य की रचना 1727 में हुई है। अतः स्पष्ट है कि इसकी रचना वि० सं० 1727 के बाद हुई है। मेघदूत के 130 पद्य कवि ने स्वीकार 1. इति श्रीनैपधीयवहाकाव्यसमस्यायां महोपाध्यायमेघविजयगणिपूरितायां पष्ठ सर्गः सम्पूर्णः। 2. मुनिनयनाश्वेन्दुमिते वर्णे हर्पण सादडीनगरे। ग्रन्थः पूर्ण: समजनि विजयदशम्यामिति श्रेयः। ८५(देवानन्दमहाकाव्यप्रशस्ति)। 3. स्वस्तिश्रीमद्भुवनदिनकृद्वीरतीर्थाभिनेतुः, प्राप्यादेशं तपगणपतेर्मेघनामा विनेयः। ज्येष्ठस्थित्यां पुरमनुसरन् नव्यरंगं ससर्ज, स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥२॥ 4. गम्या चारै रुचिरनगरी देवकात्पत्तनाख्या, वाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहा // 7 // लेख संग्रह 133
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy