SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रशस्ति के अनुसान इनका वंशवृक्ष इस प्रकार बनता है: हीरविजयसूरि कनकविजय शीलविजय कमलविजय सिद्धिविजय चारित्रविजय कृपाविजय' मेघविजय मेघविजयजीरचित ग्रन्थों को देखने पर यह साधिकार कहा जा सकता है कि ये एकदेशीय विद्वान् न होकर सार्वदेशीय विद्वान् थे। काव्य-साहित्य, पादपूर्ति, व्याकरण, छन्द, अनेकार्थ, न्यायशास्त्र, दर्शनशास्त्र, ज्योतिष, सामुद्रिक, रमल, मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र, अध्यात्मशास्त्र आदि प्रत्येक विषयों के ये प्रगाढ पंडित थे और इन्होंने प्रत्येक विषय पर साधिकार वर्चस्वपूर्ण लेखिनी चलाई है। इनका साहित्य-सर्जनाकाल वि० सं० 1709 से 1760 तक का तो निश्चित ही है। साथ ही अजबसागर गणि द्वारा सं० 1761 में रचित स्तुति : से स्पष्ट है कि उस समय तक आप विद्यमान थे। वर्तमान समय में प्राप्त इनकी रचित साहित्यसामग्री का विषयानुक्रम से संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:महाकाव्य 1. सप्तसन्धान महाकाव्य - इसकी रचना वि० सं० 17602 में हुई है। इसमें 9 सर्ग हैं। सर्गक्रम से पद्यसंख्या इस प्रकार है:- 82, 25, 48, 42, 58, 63, 42, 28, 32, प्रशस्ति के 3, कुल 423 / इस काव्य के प्रत्येक पद्य से सात महापुरुषों का कथानक क्रमबद्ध चलता है। ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी, रघुवंशी रामचन्द्र और यदुवंशी कृष्ण के जीवन-चरित्रमय यह महाकाव्य है। न केवल महाकाव्य की दृष्टि से अपितु अनेकार्थी साहित्य की दृष्टि से भी यह सर्वोत्तम कृति है। पहले मूलमात्र प्रकाशित हुआ था फिर श्री विजयअमृतसूरि रचित 'सरणि' टीका सह यह ग्रन्थ जैन साहित्यवर्धक सभा, सूरत में प्रकाशित हो चुका है। 2. दिग्विजय महाकाव्य - कवि ने इस ग्रन्थ में रचना समय नहीं दिया है। इस काव्य में तपागच्छीय जैनाचार्य विजयदेवसूरि के प्रशिष्य विजयसिंह सूरि के शिष्य गणाधीश विजयप्रभसूरि का जीवनचरित्र ग्रथित है। तत्कालीन राजनैतिक, भौगोलिक, सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है। महाकाव्य के लक्षणों से परिप्लुत 13 सर्गों का यह काव्य है। सर्गक्रम से पद्यसंख्या इस प्रकार है:-८१, 1. कृपाविजय रचित विजयप्रभसूरि निर्वाणरास प्राप्त है। 2. वियद्रसमुनीन्दूनां (1760) प्रमाणात् परिवत्सरे। कृतोऽयमुद्यमः पूर्वाचार्यचर्याप्रतिष्ठितः॥ - (सप्तसन्धानप्रान्तप्रशस्तिः) 132 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy