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________________ ... राजस्थान के संस्कृत महाकवि एवं विचक्षण प्रतिभासम्पन्न ग्रन्थकार महोपाध्याय मेघविजय महोपाध्याय मेघविजय १८वीं शताब्दी के बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न विशिष्टतम विद्वान् हैं। इनका जन्म-संवत्, जन्म-स्थान और गृहस्थावस्था का ऐतिह्य परिचय अद्यावधि अप्राप्त है। श्रीवल्लभोपाध्यायरचित, 'विजयदेवमाहात्म्य' पर मेघविजयजी द्वारा रचित विवरण की सं० 1709 की लिखित प्रति प्राप्त होने से यह निश्चित है कि इस विवरण की रचना 1709 के पूर्व ही हो चुकी थी। अत: अनुमान सहज भाव में लगाया जा सकता है कि इस रचना के समय इनकी अवस्था कम से कम 20-25 वर्ष की अवश्य होगी। अतः अनुमानतः 1685 और 1990 के मध्य इनका जन्म-समय माना जा सकता है। सं० 1727 में रचित 'देवानन्दमहाकाव्य' में विजयप्रभसूरि द्वारा प्रदत्त 'उपाध्याय'२ पद का उल्लेख होने से निश्चित है कि सं० 1710 और 1727 के मध्य में इनको उपाध्याय पद प्राप्त हो चका था. क्योंकि विजयप्रभसरि का शासनकाल सं० 1710 से 1732 का है। मेघविजयजी श्वेताम्बर जैन-परम्परा में तपागच्छीय अकबर प्रतिबोधक जगद्गुरु हीरविजयसूरि की शिष्य-परम्परा में कृपाविजयजी के शिष्य हैं, जैसा कि इनकी ग्रन्थ-प्रशस्तियों से प्रकट है : श्रीमत्तपागणपतिर्यतिमार्गधीरः, श्रीहीरहीरविजयो जयवान् बभूव। यः प्रत्यबूबुधदकब्बरराजराज्यं वाक्यैः सुधातिमधुरैर्यवनाधिराजम्॥ 13 // श्रीवाचकः कनकतो विजया बभूवु-विद्यानवद्ययशसो भुवि तद्धिनेयाः। तेषां सुशीलविजयाः कवयो विनेयाः, शिष्यौ बभूवतुरतुल्यमती तदीयौ॥ 14 // आद्यः, श्रीकमलादिमश्च विजयस्तस्यानुजन्मा बुधः, श्रीसिद्धेर्विजयोऽत्र तो मम गुरोर्दीक्षानुशिक्षागुरू। श्रीसन्मानकनाम्नि धाम्नि महसो द्रंगे विजित्य क्षणाल्लम्पाकेन्द्रगणान् जयश्रियमम् सम्प्रापतुर्विश्रुताम् // 15 // यः षट्तर्कवितर्ककर्कशमतिः साहित्यसिद्धान्तवित्, प्राणप्रक्षितिपः कृपादिविजयः प्राज्ञो विनेयस्तयोः। तत्पादाम्बुजशृंगं मेघविजयोपाध्यायलब्धात्मना, ग्रन्थो मेरुमहीधरावधिरयं सिद्धिश्रियै नन्दतात्॥ 16 // बोधप्रशस्तिः ) लिखितोऽयं ग्रन्थः पण्डितश्री 5 श्रीरंगसोममणिशिष्य-मुनिसोमगणिना सं० 1709 वर्ष चैत्रमासे कृष्णपक्षे एकादशी तिथौ बुधे लिखितं राजनगरे श्रीतपागच्छाधिराज-म० श्रीविजयदेवसूरीश्वरविजयराज्ये। (विजयदेवमाहात्म्य, प्रान्तपुष्पिका) 2. देवानन्दमहाकाव्य, सर्ग 7, पद्य 80 लेख संग्रह 131
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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