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________________ ____3. नवग्रहस्तुति गर्भ-श्रीपार्श्वजिनस्तवन - आचार्य भद्रबाहु प्रणीत नवग्रह स्तोत्र से यह सिद्ध होता है कि किन-किन तीर्थंकरों के स्मरण और मन्त्र जाप से इस ग्रहों का प्रभाव समाप्त होकर कल्याणकारक होता है, किन्तु महोपाध्याय रत्नशेखरजी ने इस स्तोत्र में यह प्रतिपादित किया है कि पार्श्वनाथ का स्मरण करने मात्र से ये समस्त नवग्रह कल्याणकारी और मङ्गलकारी होते हैं। इस स्तोत्र के 10 पद्य मात्रिक आर्याछन्द में हैं। 4. अर्बुदाद्रि-जीरापल्ली तीर्थ स्तव - पाँच आर्यात्मक इस लघुस्तोत्र में श्री रत्नशेखरजी ने अपनी विशिष्ट रचना शैली का प्रयोग किया है। जहाँ अर्बुदगिरि के मुकुटायमान विमलवसही में मूलनायक रूप में विराजमान श्री आदिनाथ भगवान और लूणगवसही में मूलनायक के रूप में विद्यमान श्री नेमिनाथ भगवान और अर्बुदगिरि की उपत्यका में अर्थात् निकटवर्ती क्षेत्र में श्री जीरापल्ली तीर्थ में विराजमान पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति एक साथ ही गई है। इसीलिए तीर्थद्वय होने पर भी तीन तीर्थंकरों की स्तुति इस लघु स्तोत्र द्वारा की गई है। प्रति-परिचय स्फुट संग्रह में पंचपाठात्मक यह दो पत्रों की प्रति है। इसकी साईज 26.3411.2 से.मी. है। मूल . स्तोत्र की पंक्ति 13, अक्षर 48, अवचूरि पंक्ति सामान्यतः 6 हैं, अक्षर 76 हैं / किनारे की पंक्ति 29, अक्षर 12 हैं। लेखनकाल नहीं दिया गया है किन्तु १५वीं शती का अन्त या १६वीं शती का प्रारम्भ निश्चित है। शुद्ध लिखित है। तो लीजिए, इन चारों स्तवों का रसास्वादन कीजिए: 1. चतुर्विंशति-जिन-स्तवः (भाषात्रयसमं) [मालिनीच्छन्द] अमरगिरिगरीयो मारुदेवीयदेहे, कुवलयदलमाला कोमलाकुन्तलाली। सजलजलदपाली किन्नु सन्नीलकण्ठी धवनिवहममन्दं नन्दयन्ती जयाय॥ 1 // . अवचूरिः- सुवर्णाद्रिगरिष्ठं यत् श्रीऋषभसम्बन्धिदेहं तस्मिन्नर्थादंसलक्षणे कुवलयदलश्रेणि श्यामा जटा सजलजलदमालेव साक्षात् सन्त एव, 'नीलकण्ठीधवा' मयूराः तत्समूहं अमन्दं यथा स्यात् एवं समुल्लासयन्ती जयाय अस्तु इत्यध्याहारः॥ 1 // असमसमरलीला-लालसा भावभाव स्थलपरबलहेला रङ्गभङ्गं गमीव। करिवरपरिधारी वो विमोहावहारी, भवजयि विजयाभू रङ्गभूमी रमासु॥२॥ अवचूरिः- असमः समरलीलायां 'लालसाभावः' येषां ईदृशा ये भावरूपाः स्थलपराः शत्रवोरागादयः तत्सैन्यभङ्गाद् यो रङ्गस्तं गमिष्यन्निवांकमिषात् करीन्द्रधारी अन्योपि यः शत्रुजयैषी स्यात् करीन्द्रसङ्ग्रह करोति अस्त्वित्यध्याहार्यम्। भवजयी यो 'विजयाभूः' श्रीअजितः, रङ्गस्थानं सकलश्रीविषये यथा नर्तक्यों रङ्गभूमौ लास्यलीलां कलयन्ति तथा विश्वश्रियः श्रीअजिते इत्यर्थः। 212 लेख संग्रह
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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