SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . इनके द्वारा प्रतिष्ठित लगभग 200 मूर्तियाँ भी प्राप्त होती है। प्रणेता ____ इन चारों स्तोत्रों के कर्ता महोपाध्याय श्री रत्नशेखरगणि हैं। चारों स्तोत्रों की पुष्पिका के अन्त में - 'महोपाध्याय श्री रत्नशेखर ग. प्रणीत' लिखा है। अतः स्पष्ट है कि श्री रत्नशेखर 1483 में वाचक बने थे और 1502 में आचार्य बने। अतः इसी के मध्यकाल की ये रचनाएँ हैं। प्रगाढ़ वैदुष्य और अनेक साधुगणों के विद्यागुरु होने के कारण इन्हें महोपाध्याय शब्द से अलंकृत किया गया हो! नवखण्ड पार्श्व स्तव में "भ" महोपाध्याय श्री ‘र वि' लिखा है इससे अनुमान किया जा सकता है कि इन स्तोत्रों की प्रतिलिपि संवत् 1502 के बाद हुई हो। क्योंकि 'भ' शब्द भट्टारक का वाचक है। इन चारों स्तोत्रों कि अवचूरिकार का नाम प्राप्त नहीं है, किन्तु यह अवचूरि भाषा, शैली और श्लेषालंकार द्वारा प्रयुक्त कठिन शब्दों की ही अवचूरि है। इससे ऐसा आभास होता है कि यह अवचूरि भी रत्नशेखरसूरि की हो और उनकी दृष्टि में जो विश्लिष्ट दुरूह शब्द हैं उन्हीं शब्दों की उन्होंने अवचूरि की हो। .. प्रस्तुत स्तोत्रों का वैशिष्ट्य इस निबन्ध में महोपाध्याय श्री रत्नशेखरगणि रचित निम्नांकित चार स्तव दिए जा रहे हैं:१. चतुर्विंशति जिन स्तव 2. श्री नवखण्ड-पार्श्वनाथ स्तव 3. नवग्रहस्तुतिगर्भ-श्रीपार्श्वजिनस्तव 4. अर्बुदाद्रि-जीरापल्ली तीर्थस्तव क्रमशः स्तोत्रों का वैशिष्टयः. 1. चतुर्विंशति जिन स्तव - याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य हरिभद्र रचित संसारदावा स्तुति और जिनवल्लभसूरि रचित महावीर स्तोत्र (भावारिवारण स्तोत्र) समसंस्कृत प्राकृत भाषा में प्राप्त होते हैं। प्रणेता को उन शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है जो कि दोनों भाषाओं में समान रूप से व्यवहृत होते हों। इन दोनों स्तोत्रों की अपेक्षा महोपाध्याय श्री रत्नशेखर के चतुर्विंशति जिन स्तव में प्राकृत और संस्कृत के साथ शौरसेनी प्राकृत का भी प्रयोग किया गया है। अर्थात् यह स्तोत्र तीनों भाषाओं में समान है। किसी एक भाषा ' में पूर्ण स्तोत्र या पद्य का निर्माण करना भिन्न वस्तु है जब कि प्रत्येक पद्य में तीन-तीन भाषाओं का समान रूप से प्रयोग करना अपनी विशिष्टता रखता है। चतुर्विंशति जिन स्तवः के प्रत्येक पद्य में प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति मालिनी छन्द में की गई है और उपसंहार प्रशस्ति २५वाँ छन्द शार्दूलविक्रीडित छन्द में है। समभाषा होते हुए भी अनुप्रास, उपमा, श्लेष और रूपकादि अलंकारों का समुचित प्रयोग किया गया है। 2. श्री नवखण्ड-पार्श्वनाथ स्तव - सौराष्ट्र में प्रसिद्ध श्री शत्रुञ्जय तीर्थाधिराज के निकट ही घोघाबन्दर प्रसिद्ध है। घोघा, घोघापुर के नाम से प्रसिद्ध है और वहाँ प्राचीनतम विराजमान नवखण्डा पार्श्वनाथ का मंदिर होने से घोघा स्थान भी प्रसिद्धि को प्राप्त हो गया। यह स्तोत्र भी अवचूरि के साथ आठ पद्यों में है। 7 पद्य इन्द्रवज्रोपेन्द्रोपजाति के हैं और आठवाँ पद्य वंशस्थविला - इन्द्रवंशा उपजाति का है। श्लेषालंकारगर्भित नवखण्ड शब्द इस स्तोत्र में विस्तार से प्ररूपित किया गया है। नवखण्ड को अनेक दृष्टियों से विभक्त कर इसकी महत्ता को दिखाया गया है। लेख संग्रह 211
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy