________________ 19. सप्ततिकासूत्रचूर्णि 20. साधुसामाचारीकुलक श्री सोमसुन्दरसूरि रचित षष्टिशतक बालावबोध (र० सं० 1496) का अवलोकन करने से यह स्पष्ट प्रतिपादित होता है कि उस समय तक खरतरगच्छ और तपागच्छ का आपसी सौहार्दभाव अनुपमेय था। षष्टिशतक में श्री नेमिचन्द्र भण्डारी ने श्रीजिनवल्लभसूरि की मुक्त-कण्ठ से स्तुति की है। उसका बालावबोध भी तदनुरूप ही है। गच्छों में भेदभाव या आग्रह सोमसुन्दरसूरि से लगभग एक शताब्दी बाद ही प्रारम्भ हुआ था। श्री धरणाशाह कारित राणकपुर का चतुर्मुखविहार भी श्री सोमसुन्दरसूरि द्वारा ही प्रतिष्ठित हुआ था। इनकी प्रतिष्ठित मूर्तियों के लगभग 150 लेख आज भी प्रकाशित हैं। ___सं.१४७५ के लगभग श्री सोमसुन्दरसूरिजी कुलपाकतीर्थ की यात्रा करने हेतु पधारे थे। उस समय के खण्डित शिलालेखों के अनुसार रत्नशेखर गणि भी साथ थे। आचार्यों में भुवनसुन्दरसूरि, मुनिसुन्दरसूरि, ज्ञानरत्नगणि, विमलसंयमगणि, राजवर्धनगणि, चारित्रराजगणि, रत्नशेखरगणि, रत्नप्रभगणि, तीर्थशेखरगणि, विवेकशेखरगणि, वीरकलशगणि और साध्वी विजयमतिगणिनी, संवेगमाला-उदयमति आदि साध्वियों के भी नाम प्राप्त होते हैं / 1481 के लेख में कामा सुत गुणराज, सहसराज, हंसरास, पासराज, देसराज, देवराज आदि के नाम प्राप्त होते हैं जिन्होंने माणिकस्वामि कुलपाक तीर्थ की यात्रा की थी। अन्य लेख में संघपति धरणिग का भी उल्लेख मिलता है। सोमसुन्दरसूरि के प्रमुख विद्वत् शिष्य थे:- सहस्रावधानी मुनिसुन्दरसूरि, भुवनसुन्दरसूरि, जयचन्द्रसूरि, जिनकीर्तिसूरि, सोमदेवसूरि, जिनमण्डनगणि आदि। अध्यात्मकल्पद्रुम और त्रिदशतरंगिणी आदि के प्रणेता श्री मुनिसुन्दरसूरि के आज्ञानुवर्ती पट्टधर रत्नशेखरसूरि हुए। इनका जन्म 1457 (अन्य मतानुसार 1452), दीक्षा 1463, पण्डित पद 1483, वाचक पद 1483, आचार्य पद 1502, स्वर्गवास 1517 / इनके द्वारा प्रणीत निम्न साहित्य प्राप्त होता है: 1. षडावश्यकवृत्ति 2. श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र अर्थदीपिका नामक वृत्ति श्राद्धविधिवृत्ति - विधिकौमुदी (वि० सं० 1506) / रत्नचूड़ रास (वि०सं० 1510 के आसपास) आचारप्रदीप (वि०सं० 1516) लघुक्षेत्रसमास - अवचूरि हैमव्याकरण - अवचूरि 8. प्रबोधचन्द्रोदयवृत्ति मेहसाणामंडन - पार्श्वनाथस्तवन 10. नवखंड - पार्श्वनाथजिनस्तवन 11. अर्बुदाद्रिमंडन - पार्श्वनेमिस्तवन 12. चतुर्विंशतिजिनस्तवन 13. पार्श्वस्तवन 2. म. विनयसागर : कुलपाकतीर्थ लेखांक 7, 8, 9, 10, 11, 210