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________________ महोपाध्याय श्री रत्नशेखरगणि रचित चत्वारः जिनस्तवाः 3 साहित्य निर्माण की दृष्टि से 11 से १५वीं शताब्दी तक का समय स्वर्ण युग कहा जा सकता है। इस युग में जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, धनेश्वरसूरि, देवभद्रसूरि, जिनवल्लभसूरि, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य, आचार्य मलयगिरि, जिनपालोपाध्याय, देवेन्द्रसूरि, क्षेमकीर्ति, सोमसुन्दरसूरि, जिनभद्रसूरि और मुनिसुन्दरसूरि प्रभृति उच्चकोटि के गीतार्थ एवं प्रौढ़ विद्वान् हुए हैं। उन्होंने नवनिर्माण करके जैन साहित्य की अभिवृद्धि की है। निम्नांकित चारों स्तवों के कर्ता महोपाध्याय रत्नशेखरगणि हैं। श्रीरत्नशेखरगणि सोमसुन्दरसूरि के शिष्य हैं। किन्तु, तपागच्छ पट्टावली के अनुसार ५०वें सोमसुन्दरसूरि, ५१वें मुनिसुन्दरसूरि और ५२वें पट्टधर रत्नशेखरसूरि हैं। .. सोमसुन्दरसूरि, जन्म 1430, दीक्षा 1437, वाचक-पद 1450, आचार्य पद 1457 और स्वर्गवास - 1499 के आस-पास है। इनके द्वारा निर्मित साहित्य प्राप्त होता है:१. आराधना रास उपदेशमाला बालावबोध (रचनाकाल वि०सं० 1485) षष्ठिशतक बालावबोध (रचनाकाल वि० सं० 1496) योगशास्त्र बालावबोध भक्तामरस्तोत्र बालावबोध आराधनापताका बालावबोध षड़ावश्यक बालावबोध नवतत्त्व बालावबोध (रचनाकाल वि०सं० 1502) अष्टादशस्तवी (रचनाकाल वि०सं० 1490 के आसपास) आतुरप्रत्याख्यानटीका 11. आवश्यकनियुक्तिअवचूरि 12. इलादुर्गऋषभजिनस्तवन 13. चैत्यवन्दनसूत्रभाष्यटीका जिनकल्याणकादिस्तवन 15. जिनभवस्तोत्र 16. पार्श्वस्तोत्र 17. श्राद्धजीतकल्पवृत्ति 18. षड्भाषामयस्तव 1. उ. धर्मसागरः तपागच्छ पट्टावली लेख संग्रह 209 ;
SR No.004446
Book TitleLekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2011
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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