________________ कवि ने इसके पश्चात् 33 श्लोकों की विस्तृत रचना-प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा दी है। ... इस ग्रन्थ को डॉ० हीरालाल रसिकदास कापड़िया ने सम्पादित कर अनेकार्थरत्नमञ्जूषा में विस्तृत भूमिका के साथ प्रकाशित किया है। यह ग्रन्थ श्रेष्ठि देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था सूरत की ओर से ईस्वी सन् 1933 में प्रकाशित हुआ है। सम्पादक ने रचना-प्रशस्ति पद्य 32 में श्रीविक्रमनृपवर्षात्, समये रसजलधिरागसोम (1646) मिते 4 में रस शब्द को मधुरादि षड्रस मानकर छ: की संख्या दी है जबकि यहाँ रस शब्द से शृङ्गारादि नवरसाः नौ अंक का ग्रहण किया जाना उपयुक्त है, क्योंकि प्रशस्ति पद्य 24-25 के अनुसार सम्राट अकबर ने जिनचन्द्रसूरि को युगप्रधान पद 1649 में ही दिया था। इसी ग्रन्थ के पृष्ठ 65 तथा १५वीं पंक्ति में संवत् 1649 स्पष्ट लिखा है। अतः स्पष्ट है कि ग्रन्थ की रचना 1649 श्रावण शुक्ला त्रयोदशी के पूर्व हुई है और प्रशस्ति की रचना 7 मास के पश्चात्। ' इस पुस्तक का प्रथम संस्करण सन् 1933 में प्रकाशित हुआ था जो आज अप्राप्त है। श्रुतज्ञ विद्वानों के अध्ययन, पठन-पाठन एवं वैदुष्य प्राप्ति के लिए इस ग्रन्थ की महती उपयोगिता है, अतः साहित्यिक संस्थानों से मेरा अनुरोध है कि इसका सम्पादित द्वितीय संस्करण शीघ्र ही प्रकाशित करें। टिप्पणी:-. 1. कवि के विशेष परिचय के लिए देखें - महोपाध्याय विनयसागरः महोपाध्याय समयसुन्दर 2. अनेकार्थरत्नमंजूषा पृष्ठ 65 वही, पृष्ठ 67 . 4... वही, पृष्ठ 70 [अनुसंधान अंक-३६] 000 लेख संग्रह 111