________________ महो० भानुचन्द्रगणि रचित एक नूतन ग्रन्थ कोटा से बंबई प्रवास करते हुए मार्ग में यह नूतन कृति मुझे प्राप्त हुई। इस पुस्तक का नाम है नामकोष, टीका - इसके प्रणेता हैं महोपाध्याय भानुचन्द्रगणि, जो तपागच्छीय सूरचन्द्रगणि के शिष्य थे। ये वे ही भानुचन्द्रगणि हैं जो सम्राट अकबर की राजसभा के रत्न थे और जिन्होंने अपने उपदेशों से शत्रुञ्जय तीर्थ का करमोचन कराया था। अतः लेखक के परिचय के बारे में कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है। लेखक स्वयं अपनी परम्परा प्रशस्ति में इस प्रकार वर्णित करते हैं: भूरयः सूरयोऽभूवंस्तपोगणनभोङ्गणे। साम्प्रतं साम्प्रतं जज्ञे, श्रीहीरोहर्मणिप्रभः॥ 1 // . .. कलिन्दिकाकमलिनीसमुल्लासनभानुमान् / श्रीमान् विजयसेनाख्यस्तत्पट्टे प्रथितोऽस्ति सः॥ 2 // श्रीमद्विजयदेवाख्यः, तत्पट्टामृतसूः समः। राजन्ते साम्प्रतं सम्यक्, साधुमार्गप्रवर्तकः॥ 3 // सम्प्रदाये तदीयेऽस्मिन्, जज्ञे हानर्षि उत्तमः। यो लुम्पाकमतं त्यक्त्वा, तपापक्षमशिश्रयत् // 4 // तदन्ते निलयी श्रीमान्, वाचको विश्वविश्रुतः। श्रीमत्सकलचन्द्राख्यो, जज्ञे वैराग्यजन्मभूः॥५॥ तच्छिष्यो सूरचन्द्राह्वः, समभूत् कविपुङ्गव। विद्वद्वन्दगजेन्द्राणां, मर्दने हरिविक्रमः॥ 6 // तच्छिष्यो भानुचन्द्रेण, वाचकेन विपश्चिता। नामचिन्तामणि म निर्णीतिर्निर्मिता मिता // 7 // लेखक ने प्रत्येक काण्ड के अन्त में इस प्रकार की पुष्पिका भी प्रदान की है:-, . 'श्रीशत्रुञ्जयकरमोचनादिसुकृतकारि-महोपाध्याय-श्रीभानुः। चन्द्रगणिविरचिते विविक्तनामसङ्ग..............समाप्तः।' इस पुष्पिका से ऐसा प्रतीत होता है कि 'विविक्तनामसंग्रह' नामक कोई नूतन कोष की लेखक ने रचना की हो, किन्तु आलोडन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि यह नूतन कोष नहीं है, परन्तु आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत 'अभिधानचिन्तामणिनाममाला' नामक कोष की टिप्पणात्मक टीका मात्र है, और यही वस्तु स्वयं लेखक प्रशस्ति में स्वीकार करते हैं:- "नामचिन्तामणि म निर्णीतिर्निर्मिता मिता।" अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि यह स्वतन्त्र कोष न होकर टीका ही है। ___ इस टीका में हमें लेखक की प्रौढ़ प्रतिभा के दर्शन यत्किञ्चित् भी प्राप्त नहीं होते। इसमें लेखक केवल गद्य में पृथक्-पृथक् 'विविक्त' नाम लिखकर यत्र-तत्र लिंगों का निर्णय करते हुए अग्रसर दिखाई पड़ते हैं। उदाहरण के स्वरूप में द्वितीयकाण्ड प्रथम थोक टीका ही देखिये - स्वर्गस्त्रिविष्टपं द्योदिवौ भुवि तविषताविषौ नाकः। __गौस्त्रिदिवमूर्ध्वलोकः सुरालय...................॥ [टी.] 'स्वर्ग' इति स्वर्गः, त्रिविष्टपं द्यौः ओकारान्त द्योशब्दः द्यौः वकारान्तो दिवशब्दः, एतस्यापि . प्रथमैकवचने द्यौरिति रूपम्। भुवि-स्त्रीलिङ्गः, तविषः ताविषः नाक: गौः ओकारान्तो गोशब्दः स्त्रीपुंसलिङ्ग, त्रिदिवं-पुंक्लीबलिङ्गः, ऊर्ध्वलोकः सुरालयः स्वरव्ययेषु वक्ष्यते। 112 लेख संग्रह